मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #187 ☆ ओठ कोरडे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 187 ?

☆ ओठ कोरडे…

दुष्काळाच्या सोबत मी तर नांदत होते

ओठ कोरडे घामासोबत खेळत होते

किती मारले काळाने या जरी कोरडे

काळासोबत तरी गोड मी बोलत होते

जरी फाटक्या गोणपटावर माझी शय्या

सवत लाडकी तिला दागिने टोचत होते

शिकार दिसता रस्त्यावरती डंख मारण्या

साप विषारी अबलेमागे धावत होते

उंबरठ्याची नाही आता भिती राहिली

नवी संस्कृती तिरकट दारा लावत होते

रक्त गोठले भांगेमधले कुंकू नाही

जखमा काही केसामागे झाकत होते

सरणावरती अता कशाला हवेय चंदन

दुर्भाग्याचा रोजच कचरा जाळत होते

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 138 – कैसा होता प्यार बताओ… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कैसा होता प्यार बताओ।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 138 – कैसा होता प्यार बताओ…  ✍

कैसा होता प्यार बताओ

बोल उठा मैं

कहती जाओ, कहती जाओ।

गंध घुली लगती है आहट

ओस घुली सी आँखें मेरी

चपल चाँदनी में पाता हूँ

अपने मन की चाह घनेरी

जानो बूझो भेद बताओ

तुम कहती हो

कैसा होता प्यार बताओ।

शब्द उच्चरित करती हो जब

रेशम रूप दिखाई देता

करती हो संधान स्वरों का

अनहद नाद सुनाई देता

कैसी यह अनुभूति बताओ

तुम कहती हो

कैसा होता प्यार बताओ।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 137 – “क्षोभदग्धा थी संरचना…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “क्षोभदग्धा थी संरचना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 137 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

क्षोभदग्धा थी संरचना ☆

गंध गई पहचानी बस

मौलिक सम्बंधों पर

तुम करते सम्वाद रहे

अनगिनत प्रबन्धों पर

 

टीका टिप्पणियों की

जो थी वर्ग सिद्ध उपमा

कभी काम आयेगी

अपने फैली हरीतिमा-

 

की समर्थ कमियों की

बनपायी क्या अनुसूची

किसी नये व्यवहारशील

पौरुष के कन्धों पर

 

प्रकृति पगा वात्सल्य

क्षोभदग्धा थी संरचना

सहज हुई जाती है जिसकी

क्षीण, स्वर्ण वसना-

 

आभा, जिसके नभ

कोटर में छिपी नाद-संध्या-

से झरती स्वर लहरी दिखती

चंचल छन्दों पर

 

भव्य परावर्तन के किंचित

स्नेह जनित सत्रों

का जिन पर उत्सर्ग रहा

है सभी भोजपत्रों-

 

कोई नहीं समझ पाया

वरदानी परम्परा

और वार्ता लगे समझने

इन उपबन्धों पर

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

07-05-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 187 ☆ “बैरन नींद न आय…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – “बैरन नींद न आय…”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 187 ☆ “बैरन नींद न आय…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

बहुत दिनों से एक नेता परेशान हैं, रात को सो नहीं पाता। राजधानी से जब अपने गांव आता है तो रास्ते भर कुत्ते उसको देखकर भौंकने लगते हैं। एक बार तो बड़ा गजब हो गया, रास्ते में जब वह लघुशंका के लिए कार से उतरा तो पीछे से एक कुत्ता आया और खम्भा समझकर उसके खम्भे जैसे पैर पर अपनी लघुशंका दूर कर दी। देखकर ड्राईवर मंद मंद मुस्कराया। और गीला पजामा से नेता परेशान हो गया। उसने पिस्तौल निकाली तब तक कुत्ता कईं केईं करता भाग गया, एनकाउंटर से बच गया।

जब घर पहुंचा तो रात हो गई थी, अपनी पत्नी के साथ जब वो सो रहा था तो खिड़की के पास लड़ैया ‘हुआ हुआ’… करने लगे। कई दिन ऐसा चलता रहा।  रात को उसकी नींद हराम होती थी और दिन में कुत्ते तंग करने लगे थे।

हारकर उसने अपनी कुंडली एक ज्योतिषी को दिखाई तो ज्योतिषी ने बताया कि नेताजी आपने अपने क्षेत्र के विकास में ध्यान नहीं दिया, सरकारी फायदे उठाते रहे और राजधानी में जाकर सोते रहे। अकूत संपत्ति बनाने और पैसा खाने के चक्कर में रहे आये और जनता के दुख दर्द और परेशानियों भरे आवेदन पत्र जलाकर मुस्कराते रहे।

नेता – कोई इलाज , इनसे बचने के लिए क्या करना चाहिए  ?

ज्योतिषी – सड़क किनारे की दस बारह एकड़ जमीन हमारे नाम से कर दो, जो हमारे पिताजी से छुड़ायी थी। शान्ति भी रहेगी और नींद भी आयेगी। क्या पता, पिताजी कुत्ता बन कर आपको काट लें तो ?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 128 ☆ # तुमने मेरा साथ दिया… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# तुमने मेरा साथ दिया… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 128 ☆

☆ # तुमने मेरा साथ दिया… # ☆ 

(श्री श्याम खापर्डे द्वारा उनके विवाह की स्वर्ण जयंती पर रचित भावप्रवण रचना। हार्दिक बधाई।)

तुमने हर पल, हर मोड़ पर

मेरा साथ दिया

तुमने दुःख भी बांटे

सुख में भी मेरा साथ दिया

 

तुमने हाथ थामा तो

कभी छोड़ा नहीं

वादा निभाने की कसम को

कभी तोड़ा नहीं

संग चलती रही, बस चलती रही

राह में हर कदम पर

मेरा साथ दिया

 

कभी कभी अंबर पर

बादल खूब गरजते रहे

कभी कभी घनघोर घटा बन

बरसते रहे

तुम आंचल में मुझको

छुपाती रही

हर बारिश में आंचल बन

मेरा साथ दिया

 

जब उम्मीदें नाउम्मीद

बन कर सो गई

मुझे तो लगा जैसे

जिंदगी खत्म हो गई

तब तुम सुबह की नई

किरण बन कर आई

अंधेरे में रोशनी बन

तुमने मेरा साथ दिया

 

जब भी मैं लड़खड़ाया

तुमने संभाला मुझको

जब भी डूबने लगा

तुमने बाहर निकाला मुझको

बिना तुम्हारे मेरा कोई

वजूद नहीं

मै एहसानमंद हूँ

जो तुमने मेरा साथ दिया /

 

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 130 ☆ महाराष्ट्राची यशोगाथा- भव्य राष्ट्र माझा…☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 130 ? 

☆ महाराष्ट्राची यशोगाथा- भव्य राष्ट्र माझा… ☆

महाराष्ट्राची यशोगाथा

शब्दांत कैसी मांडावी

शूर विरांच्या, विरगाथा

लेखणीतून व्यक्त करावी.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

शब्द हे, अपुरे पडती

संत महंतांच्या भूमीत

देव ही, इथे अवतरती.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

संत परंपरा,  थोर लाभली

वीर शिवबा, इथेच जन्मले

मराठ्यांची, सरशी झाली.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

सत्पुरुषांची, मांदियाळी

महात्मा फुले, आंबेडकर-शाहू

अनेक थोर, भव्य मंडळी.!!

 

महाराष्ट्राची यशोगाथा

कणखर ह्या, पर्वत-रांगा

राज-भाषा, मराठी बोली

जैसी पवित्र, गोदा- गंगा

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 66 – उत्तरार्ध – रामकृष्ण संघाची स्थापना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 66 – उत्तरार्ध – रामकृष्ण संघाची स्थापना ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामी विवेकानंद कलकत्त्यात होते, बंगालमध्ये उत्साहाचे वातावरण होते, योगायोगाने श्रीरामकृष्णांचा जन्मदिवस ७ मार्च ला होता. पश्चिमेकडून विवेकानंद नुकतेच आल्यामुळे हा दिवस मोठ्या प्रमाणात दक्षिणेश्वरच्या कालीमंदिरात साजरा करण्यात आला, प्रचंड गर्दी. गुरुबंधु बरोबर विवेकानंद कालीमातेचे दर्शन घेऊन  श्रीरामकृष्णांच्या खोलीकडे वळले, ते ११ वर्षानी या खोलीत पाऊल ठेवत होते. मनात विचारांचा कल्लोळ होता. १६ वर्षांपूर्वी येथे प्रथम आल्यापासून ते आज पर्यन्त गुरु श्रीरामकृष्णांबरोबर चे दिवस, घडलेल्या अनेक घटना, प्रसंग आणि मिळालेली प्रेरणा- ते, हिंदू धर्माची पताका जगात फडकवून मायदेशी परतलेला नरेंद्र आज त्याच खोलीत उभा होता. त्यांच्या डोळ्यांसमोरून या कालावधीचा चित्रपटच सरकून गेला.

या वास्तव्यात विवेकानंद यांना अनेकजण भेटायला येत होते. काही जण फक्त दर्शन घ्यायला येत. काहीजण प्रश्न विचारात, काही संवाद साधत. तर कोणी त्यांचा तत्वज्ञानावरचा अधिकार पारखून घ्यायला येत. एव्हढे सगळे घडत होते मात्र स्वामी विवेकानंद यांना आता खूप शीण झाला होता. थकले होते ते.परदेशातील अखंडपणे चाललेले काम आणि प्रवास ,धावपळ, तर भारतात आल्यावरही आगमनाचे सोहळे, भेटी, आनंद लोकांशी सतत बोलणे यामुळे स्वामीजींची प्रकृती थोडी ढासळली . त्याचा परिणाम म्हणजे मधुमेय विकार जडला. आता त्यांचे सर्व पुढचे कार्यक्रम रद्द केले. आणि केवळ विश्रांति साठी दार्जिलिंग येथे वास्तव्य झाले.   

त्यांना खरे तर विश्रांतीची गरज होती पण डोळ्यासमोरचे ध्येय गप्प बसू देत नव्हते. कडक पथ्यपाणी सांभाळले, शारीरिक विश्रांति मिळाली, पण मेंदूला विश्रांति नव्हतीच, त्यांच्या डोळ्यासमोर ठरवलेले नव्या स्वरूपाचे प्रचंड काम कोणावर सोपवून देणे शक्य नव्हते.

मात्र हिमालयाच्या निसर्गरम्य परिसरात साग, देवदारचे सुमारे दीडशे फुट उंचीचे वृक्ष, खोल दर्‍या, समोर दिसणारी बर्फाच्छादित २५ हजारांहून अधिक उंचीच्या डोंगरांची रांग, २८ हजार फुटांपेक्षा जास्त ऊंच असलेले कांचनगंगा शिखर, वातावरणातील नीरव शांतता, क्षणाक्षणाला बदलणारी आकाशातली लाल निळ्या जांभळ्या रंगांची उधळण, अशा मन उल्हसित आणि प्रसन्न करणार्‍या निसर्गाच्या सान्निध्यात स्वामीजी राहिल्यामुळे त्यांना मन:शान्ती मिळाली, आनंद मिळाला, बदल ही पण एक विश्रांतीच होती. एरव्ही पण आपण सामान्यपणे, “फार विचार करू नकोस, शांत रहा”, असे वाक्य एखाद्या त्रासलेल्याला समजवताना नेहमी म्हणतो. पण ही मनातल्या विचारांची प्रक्रिया थांबवणे शक्य नसते. शिवाय स्वामीजींसारख्या एखाद्या ध्येयाने झपाटलेल्या व्यक्तिला कुणीही थांबवू शकत नाही. त्यात स्वामीजींचे कार्य अजून कार्यान्वित व्हायचे होते. त्याचे चिंतन करण्यात त्यांनी मागची अनेक वर्षे घालवली होती. आता ते काम उभे करण्याची वेळ आली होती.

संस्था! एक नवी संस्था, ब्रम्हानंद आणि इतर दोन गुरुबंधु यांच्या बरोबर स्वामीजी संबंधीत विचार करून तपशील ठरवण्याच्या कामी लागले होते. येथे दार्जिलिंगच्या वास्तव्यात आपल्या संस्थेचे स्वरूप कसे असावे याचा आराखडा केला गेला. युगप्रवर्तक विवेकानंदांना आजच्या काळाला सुसंगत ठरणारी सेवाभावी, ज्ञानतत्पर, समाजहित वर्धक, शिस्त आणि अनुशासन असणारी अशी संन्याशांची संस्था नव्हे, ऑर्गनायझेशन बांधायची होती. त्याची योजना व विचार सतत त्यांच्या डोक्यात होते. ही एक क्रांतीच होती, कारण भारताला संन्यासाची हजारो वर्षांची परंपरा होती. आध्यात्मिक जीवनाचे आणि सर्वसंगपरित्याग करणार्‍या संन्याशाचे स्वरूप विवेकानंद यांना बदलून टाकायचे होते.

दार्जिलिंगहून १ मे १८९७ रोजी स्वामीजी कलकत्त्याला आले. तेथे त्यांनी श्रीरामकृष्णांचे संन्यासी शिष्य आणि गृहस्थाश्रमी भक्त यांची बैठक बोलवून संस्था उभी करण्याचा विचार सांगितला. पाश्चात्य देशातील संस्थांची माहिती व रचना सांगितली. आपण सर्व ज्यांच्या प्रेरणेने हे काम करीत आहोत त्या श्रीरामकृष्णांचे नाव संस्थेला असावे असा विचार मांडला. श्रीरामकृष्ण यांच्या महासमाधीला दहा वर्षे होऊन गेली होती. या काम करणार्‍या संस्थेचे नाव रामकृष्ण मिशन असे ठेवावे, आपण सारे याचे अनुयायी आहोत. हा त्यांचा विचार एकमताने सर्वांनी संमत केला.

पुढे संस्थेचे उद्दिष्ट्य, ध्येयधोरण ठरविण्यात आले.आवश्यक ते ठराव करण्यात आले, श्री रामकृष्णांनी आपल्या जीवनात ज्या मूल्यांचे आचरण केले, आणि मानव जातीच्या भौतिक आणि आध्यात्मिक कल्याणचा जो मार्ग दाखविला त्याचा प्रसार करणे हे संस्थेचे मुख्य ध्येय निश्चित करण्यात आले. संस्थेचे ध्येय व कार्यपद्धती आणि व्याप्ती निश्चित केल्यावर पदाधिकारी निवडण्यात आले. विवेकानंद,रामकृष्ण संघाचे पहिले अध्यक्ष निवडले गेले.आध्यात्मिक पायावर उभी असलेली एवभावी आणस्था म्हणून १९०९ मध्ये रीतसर कायद्याने नोंदणी केली गेली. विश्वस्त मंडळ स्थापन झाले. खूप काम वाढले, शाखा वाढल्या, शिक्षण, रुग्णसेवा ही कामे वाढली, १२ वर्षे काळ लोटला. आता थोडी रचना बदलण्यात आली. धार्मिक आणि आध्यात्मिक क्षेत्रात काम करणारी ती ‘रामकृष्ण मठ’ आणि सेवाकार्य करणारी ती संस्था ‘रामकृष्ण मिशन’ अशी विभागणी झाली. या कामात तरुण संन्याशी बघून अनेक तरुण या कामाकडे आकर्षित होत होते, पण अजूनही तरुण कार्यकर्ते संन्यासी कामात येणे आवश्यक होते. नवे तरुण स्वामीजी घडवत होते. या संस्थेतील संन्याशाचा धर्म, आचरण, दिनचर्या, नियम, ध्यान धारणा, व्यायाम,शास्त्र ग्रंथाचे वाचन, त्या ग्रंथाचे रोज परीक्षण समाजवून सांगणे, तंबाखू किंवा कुठलाही मादक पदार्थ मठात आणू नये. अशा नियमांची सूची व बंधने घालण्यात आली. त्या शिवाय प्रार्थना, वर्षिक उत्सव, विविध कार्यक्रमांची योजना ,अशा सर्व नियमांची आजही काटेकोरपणे अंमलबजावणी केली जाते.     

स्वामी विवेकानंद यांच्या या संस्थेचे बोधवाक्य होते

|| ‘आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च’ ||

आज शंभर वर्षे  आणि वर १४ वर्षे अशी ११४ वर्षे हे काम अखंडपणे सुरू आहे.  

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-6… ☆भावानुवाद- सुश्री शोभना आगाशे ☆

सुश्री शोभना आगाशे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ चांगदेव पासष्ठी – भाग-6…  ☆भावानुवाद-  सुश्री शोभना आगाशे ☆

दर्पण असो वा नसो जगी

मुख असते मुखा जागी

जैसे असते तैसे दिसते

ते का कधी वेगळे भासते॥२६॥

 

आपले मुख आपणची पाही

म्हणून का त्यांसि द्रष्टत्व येई

दर्पणी असे अविद्येने भासे

ते खरे मानता विज्ञान फसे॥२७॥

 

म्हणोनि दृश्य पाहता धरी ध्यानी

फसवे हे, परमात्म वस्तु हो मनी॥२८॥

 

वाद्यध्वनी वाचूनही ध्वनी असे

काष्ठाग्नी वाचूनही अग्नी असे

तैसे दृश्यादि भाव जरी नष्टत

मूलभूत ब्रम्हवस्तु असे सदोदित॥२९॥

 

जी न ये शब्दात वर्णता

असतेच परि, जरी न जाणता

तैशी वर्णातीत ब्रम्हवस्तु असे

शब्द, जाणिवांच्या परे असे॥३०॥

 

© सुश्री शोभना आगाशे

सांगली 

दूरभाष क्र. ९८५०२२८६५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #191 ☆ व्यंग्य – मुहल्ले का सूरमा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मुहल्ले का सूरमा ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 191 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मुहल्ले का सूरमा

बल्लू को हमारे मुहल्ले का दादा कह सकते हैं। काम-धंधा कुछ नहीं। दो चार उसी जैसे दोस्त मिल गए हैं, उन्हीं के साथ सारे दिन इधर- उधर डोलता रहता है। अक्सर चौराहे पर हा हा हू हू करता नज़र आता है। कभी सड़क के किनारे दोस्तों के साथ बैठा ताश खेलता है। शाम के बाद आप देखें तो बल्लू और उसके साथी आपको नशे में सड़क के किनारे किसी गिट्टी के ढेर पर पड़े भी मिल सकते हैं।

पता नहीं क्यों मेरे प्रति बल्लू की बड़ी भक्ति है। वह अक्सर मुझे अपने आचरण की सफाई देता रहता है— ‘बड़े भैया, पुरखों ने खूब कमा कर रखा है। दो तीन मकान हैं, जमीन जायदाद है। बाप कमा रहा है, भाई कमा रहे हैं। तो कोई इस कमाई को बराबर करने वाला भी चाहिए। यह काम हम कर रहे हैं। सभी कमाने लगें तो कैसे काम चलेगा?’

और वह खी खी कर हँसने लगता है।

वह इधर-उधर छीन-झपट भी करता है। मुहल्ले के दुकानदारों को आंँखें दिखा कर नशा-पानी के लिए पच्चीस पचास रुपये झटक लेता है। दुकान वाले उसके और उसके साथियों के रंग-ढंग देखकर ज़्यादा झंझट नहीं करते। मुहल्ले में आने वाले सब्जी वालों से भी वह जब तब दस बीस रुपये ऐंठ लेता है।

बल्लू मुझे हँसकर बताता है, ‘क्या करें बड़े भैया, घरवालों पर ज्यादा बोझ डालना ठीक नहीं। थोड़ा बहुत अपने बूते से भी पैदा करना चाहिए। यह दुकानदार सब को लूटते हैं। अगर हम इन्हें थोड़ा सा लूट लेते हैं तो क्या बुरा है?’

बल्लू अक्सर चौराहे पर किसी से उलझता रहता है। दो-चार दिन में उसके साथियों की किसी न किसी से झंझट या थोड़ी बहुत मारपीट होती रहती है। अक्सर चौराहे पर मजमा लग जाता है। बल्लू ऐसे मौकों पर अपनी पूरी शूरवीरता दिखाता है। लाठियाँ, साइकिल की चेनें और चाकू हवा में लहराते हैं, लेकिन अक्सर वे चलते नहीं।

बल्लू में एक और खराब आदत है, आते जाते लोगों को परेशान करने की। चौराहे पर वह किसी को भी रोक कर उसे तंग करता है। कोई धोती वाला देहाती हुआ तो उसकी धोती की लाँग खींच देता है। कभी किसी की बुश्शर्ट उतरवा कर अपने पास रख लेता है। किसी को रोककर उससे घंटों ऊलजलूल सवाल करना और फिर ताली पीट-पीटकर ठहाका लगाना उसका प्रिय खेल है। आसपास रहने वाले उसकी इस हरकत पर भौंहें चढ़ाते हैं, लेकिन उनकी सफेदपोशी उन्हें बल्लू और उसके साथियों से उलझने नहीं देती।

मैं समझाता हूँ तो बल्लू कहता है, ‘अरे बड़े भैया, थोड़ा सा मनोरंजन ही तो करते हैं, वह भी आप लोगों को बुरा लगता है। कौन किसी की जान लेते हैं। आप लोगों से हमारा थोड़ा सा भी सुख देखा नहीं जाता।’

एक दिन दुर्भाग्य से बल्लू ने मनोहर को पकड़ लिया। मनोहर दिमाग से कुछ कमज़ोर है। बगल की डेरी में वह दूध लेने जाता  है। एक शाम बल्लू ने उसे रोक लिया और घंटे भर तक उसे बहुत परेशान किया। मनोहर चीखता- चिल्लाता रहा, लेकिन बल्लू ने उसे घंटे भर तक नहीं छोड़ा। उसके थोड़ी देर बाद ही चौराहे पर मजमा लग गया। पता चला कि मनोहर का बड़ा भाई झगड़ा करने आया था। काफी देर तक गरम बातचीत होती रही, लेकिन बल्लू के साथियों की उपस्थिति के कारण उसी का पलड़ा भारी रहा। मनोहर का भाई स्थिति को अपने पक्ष में न देख कर लौट गया।

इस घटना के दो दिन बाद ही रात को बल्लू के घर पर आक्रमण हुआ। पन्द्रह बीस लोग थे, लाठियों और दूसरे हथियारों से लैस। बड़ी देर तक लाठियाँ पटकने की और गन्दी गालियों की आवाज़ें आती रहीं। सौभाग्य से बल्लू बाबू उस वक्त अपने दोस्तों के साथ कहीं मटरगश्ती कर रहे थे, इसलिए उस वक्त वे हमलावरों के हाथ नहीं पड़े। लगभग आधे घंटे तक लाठियाँ पटक कर वे लौट गये।

दूसरे दिन सबेरे मैंने देखा कि बल्लू पागलों की तरह अपने घर के सामने घूम रहा था। उसके साथी भी व्यस्तता से उसके आसपास चल- फिर रहे थे। थोड़ी देर बाद वह मेरे घर आ गया। सोफे पर बैठ कर वह उसके हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकने लगा। दाँत पीसकर बोला, ‘बड़े भैया, हमारी बड़ी इंसल्ट हो गई। अरे, हमारे घर कोई हमें मारने आये और बिना हाथ-पाँव तुड़ाये वापस चला जाए? अरे, हम उस वक्त घर में क्यों न हुए! हमारी बड़ी किरकिरी हो गयी, बड़े भैया।’

वह मिसमिसा मिसमिसा कर अपने बाल नोचता था और सोफे के हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकता था। फिर बोला, ‘अब आप हमारा भी जोर देखना, बड़े भैया। मैंने भी उनके हाथ पाँव न तोड़ दिये तो मेरा नाम बल्लू उस्ताद नहीं।’ कहते हुए उसने अपनी छोटी सी मूँछ पर हाथ फेरा।

बल्लू तो अपनी योजना ही बनाते रह गये और दो-तीन दिन बाद रात को फिर उनके घर पर जोरदार हमला हुआ। उस रात बल्लू बाबू अपने तीन चार साथियों के साथ घर पर ही थे। उनके पास भी कुछ अस्त्र-शस्त्र थे, लेकिन जब उन्होंने हमलावरों की संख्या और उनके तेवर देखे तब वे जान बचाने के लिए पीछे की दीवार फाँद कर भागे। बल्लू बाबू भी भागे, लेकिन भागते भागते भी हमलावरों ने उनके पृष्ठ भाग पर एक लाठी समर्पित कर दी ताकि सनद रहे और सावन- भादों कसकती रहे। भागते हुए बल्लू बाबू को सुनाई पड़ा— ‘बेटा, भाग कर कहाँ जाओगे? हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’

अगले सबेरे बल्लू के घर के सामने सन्नाटा था। दो दिन तक बल्लू मुझे कहीं नहीं दिखा। तीसरे सबेरे देखा वह बगल में एक दरी लपेटे आ रहा था, जैसे कहीं से सो कर आ रहा हो। उसके बाद वह मुहल्ले में घूमता दिखा, लेकिन वह एक अलवान सिर पर ओढ़े, बिलकुल चुपचाप चलता था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। सिर पर चादर का घूँघट सा डाले वह सिर झुकाए सड़क के किनारे-किनारे एक शान्तिप्रिय नागरिक की तरह चलता था। उसके सारे दोस्त गायब हो गये थे।

एक दिन वह उसी तरह चादर ओढ़े  धीरे-धीरे चलता हुआ मेरे कमरे में आकर बैठ गया। बढ़ी हुई दाढ़ी और चादर में वह पहचान में नहीं आता था।

बैठकर वह थोड़ी देर सिर झुकाये सोचता रहा, फिर धीरे-धीरे बोला, ‘बड़े भैया, सुना है वे लोग फिर कुछ गड़बड़ करने की योजना बना रहे हैं। लेकिन अपन ने सोच लिया है कि अपन को कुछ नहीं करना। अपन हमेशा शान्ति से रहते आये हैं, अपन शान्ति से ही रहेंगे।’

फिर थोड़ा रुक कर बोला, ‘बड़े भैया, आप तो जानते ही हैं मैं शुरू से बहुत सीधा-सादा लड़का रहा हूँ। वह तो संगत खराब मिल गयी, इसलिए थोड़ा बहक गया था। लेकिन अब अपन ने सोच लिया, खराब लड़कों को पास भी नहीं फटकने देना। बस आप लोगों की संगत करूँगा और आराम से रहूँगा।’

वह रुक कर फिर बोला, ‘बड़े भैया, अपन को झंझट बिल्कुल पसन्द नहीं, इसलिए हमने रात को घर में सोना ही छोड़ दिया। कहीं भी इधर उधर सो जाते हैं। अरे, जब हमीं नहीं मिलेंगे तब किस से मारपीट होगी? झगड़े की जड़ ही खतम कर दो।’

फिर वह मेरे मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘बड़े भैया, हम आपके पास इसलिए आये हैं कि आप मनोहर के भाई से मिलकर मेरी सुलह- सफाई करा दो। वह आपकी बात मान लेगा। अब जो हो गया सो हो गया। थोड़ी बहुत गलती तो इंसान से हो ही जाती है। आप अभी जाकर बात कर लो तो बड़ी कृपा हो। उस दिन से अपना मन किसी काम में नहीं लगता। मैं यहीं आपका इन्तजार करूँगा।’

मैं मध्यस्थता करने के लिए राजी हो गया। कपड़े बदल कर जब मैं सीढ़ियाँ उतरा तब वह ऊपर से लगातार मुझसे बोले जा रहा था—‘बड़े भैया, यह काम जरूर होना चाहिए। वह माफी माँगने को कहेंगे तो अपन माफी भी माँग लेंगे। मुहल्ले वालों से माफी माँगने में अपनी कोई इज्जत नहीं जाती। लेकिन यह काम जरूर होना चाहिए। आपका ही आसरा है।’

वह ऊपर से टकटकी लगाये मुझे देखता रहा और मैं हाथ हिला कर आगे बढ़ गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 138 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media# 138 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 138) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 138 ?

☆☆☆☆☆

सुना है बहुत बारिश है

तुम्हारे शहर में,

ज्यादा भीगना मत…

धुल गयी अगर

सारी ग़लतफ़हमियाँ,

तो बहुत याद आएँगे हम..!

☆ ☆

Just heard it’s pouring

a lot in your city

Don’t get wet too much…

else misunderstandings

will get washed away

and you’ll miss me a lot..!

☆☆☆☆☆

 तुमसे कहा था कि हर शाम

हमारा हाल पूछ लिया करो

तुम ही बदल गए हो तो अब

शहर में शाम ही नहीं होती..!

☆ ☆

Told you that every evening

inquire about my well-being

Since you’ve changed now

there’s no evening in my city!

☆☆☆☆☆

I’m Wrong, You’re Right

☆☆☆

किसी से अब उलझने

का मन ही नहीं करता,

तुम सही, मैं गलत में

ही बस बात ख़त्म…!

☆ ☆

I just don’t feel like getting into

argument with anyone anymore…

You are right, I am wrong, that’s it,

and the matter ends there only…!

 ☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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