हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 06 ☆ गौरैया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “गौरैया।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 06 ☆ गौरैया… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कहती है गौरैया

आँगन हुए प्रदूषित

मैं क्यों आऊँ द्वार तुम्हारे।

 

जहाँ-तहाँ बैठाए पहरा

रोते हो रोना

नहीं कहीं खाली छोड़ा है

कोई भी कोना

 

अपनी मर्ज़ी के

मालिक हैं यह कहना

बैठे बंद किए गलियारे ।

 

कभी फुदकती घर के भीतर

कभी खिड़कियों पर

कभी किताबों पर मटकाती

आँख झिड़कियों पर

 

बनकर भोली उड़े

फुर्र से जब चिचियाकर

फिर बतलाती दोष हमारे।

 

देख हमे फुरसत में अपना

नीड़ सँवारे गुपचुप

चोंच दबाए तिनका रखती

रोशनदान में छुप-छुप

 

भरे सकोरे पर हक

जतलाती है हरदम

रोज जगाती है भिनसारे।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 181 ☆ जाण… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 181 ?

💥 जाण… 💥 सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आपण खूप  हाका माराव्यात,

पण ओ देणारेच कोणी नसावे,

आपल्याला वेगळेच सांगायचे असावे

आणि समोरच्याने

भलतेच अर्थ लावावेत,

असे दु:ख तुमच्या वाट्याला,

कधी आले आहे का?

माणसांच्या कीर्र ऽऽ जंगलातून

वाट काढताना,

कुणीच भेटू नये आपले ?

जाणिवांचे ओझे आता

सोडून द्यावे समुद्रात,

तर समुद्रही दिसेना कुठे !

मला जाण येऊ लागली

आणि सारेच जाणते हद्दपार

या जंगलातून!

आता गेंड्याचे कातडे तरी

कसे पांघरायचे

सा-याच संवेदना जागृत झाल्यावर

आणि झोपेचे सोंग तरी

कसे घ्यायचे टक्क जागेपणी !

मी हाका मारणेही

सोडून देत नाही

आणि व्यक्त होणे ही …..

निदान एखादा प्रतिध्वनी तरी

कधी काळी येईलच ना माझ्यापाशी !

अनिकेत मधून… १९९७ नोव्हेंबर

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 02 – गये चाटने पत्तल जूठी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – गये चाटने पत्तल जूठी।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 02 – गये चाटने पत्तल जूठी… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

बाजारों के आकर्षण में

     लोगों ने सर्वस्व लुटाया

 

बढ़ी विश्व के बाजारों में

चकाचोंध नकली सोने की

जितनी, धन पाने की लिप्सा

उतनी आशंका खोने की

जलाशयों के विज्ञापन ने

     मृग मरीचिका सा भटकाया

 

संस्कारों की सारी दौलत

नग्न सभ्यताओं ने लूटी

सात्विक व्यंजन को ठुकराकर

गये चाटने पत्तल जूठी

वैभव पाने की चाहत ने

     घर छानी-छप्पर बिकवाया

 

करती रही छलावा हमसे

अर्थव्यवस्था पूँजीवादी

प्रतिभाओं का हुआ पलायन

वाट जोहते दादा-दादी

रंग-रूप के सम्मोहन ने

     भ्रामक इन्द्रजाल फैलाया

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 77 – सजल – आँखों के तारे थे सबके… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण रचना “आँखों के तारे थे सबके…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 77 – आँखों के तारे थे सबके…

आँखों के तारे थे सबके, क्यों हो गए पराए।

स्वारथ के चूल्हे बटते ही, बर्तन हैं टकराए ।।

 

दुखियारी माता रोती है, मौन पड़ी परछी में,

बँटवारे में वह भी बँट गइ, बाप गए धकियाए।।

 

बहुओं ने अब कमर कसी है,उँगली खड़ी दिखाई,

भेदभाव का लांछन देकर,जन-बच्चे गुर्राए।

 

परिपाटी जबसे यह आई, बढ़ती गईं दरारें,

दुहराएगी हर पीढ़ी ही, कौन उन्हें समझाए।

 

कंटकपथ पर चलना क्यों है, अपने पग घायल हों,

राह बुहारें करें सफाई, फिर हम क्यों भरमाए।

 

जीवन को कर दिया समर्पित, तुरपाई कर-कर के

बदले में हम क्या दे पाते, जाने पर पछताए।

 

चलो सहेजें परिवारों को, स्वर्णिम इसे बनाएँ,

ऐसी संस्कृति कहाँ मिलेगी,कोई तो बतलाए।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीन – पत्थर साहब लदाख ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग तीन – पत्थर साहब लदाख)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 07 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग तीनपत्थर साहब लदाख ?

(सितम्बर 2015)

2015 इस वर्ष हम रिटायर्ड शिक्षकों का यायावर दल ने लेह लदाख जाने का निर्णय लिया। सितंबर का महीना था। लेह-लदाख जाने के लिए यही समय सबसे उत्तम होता है।

चूँकि हम सभी साठ पार कर चुकीं थी तो यही निर्णय लिया कि मुंबई से डायरेक्ट लेह न जाकर हम श्रीनगर तक फ्लाइट से जाएँ और वहाँ से हम बाय रोड लेह-लदाख तक की यात्रा करें।

 इस निर्णय के पीछे एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण था। लेह -लदाख समुद्री तल से 3500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जिस कारण ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है। अगर सीधे लेह जाकर उतरते तो दो दिन ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ अस्पताल में पड़े रहते। श्रीनगर से आगे बाय रोड जाने पर घटते ऑक्सीजन की मात्रा का अहसास ही नहीं होता। शरीर बाहरी जलवायु के अनुकूल होता जाता है।

श्रीनगर में हम दो रात रहे। तीसरे दिन हम कारगिल के लिए रवाना हुए। श्रीनगर से अट्ठाइस किलोमीटर की दूरी पर नौवीं शताब्दी में निर्मित अवन्तिपुर मंदिर के खंडहर को देखने के लिए हम लोग रुके।

 विशाल पत्थरों पर सुंदर और अद्भुत आकर्षक नक्काशी देखने को मिला। विशाल परिसर में फैला विष्णुजी और शिवजी के यहाँ कभी भव्य मंदिर हुआ करते थे। सुल्तानों ने इसे न केवल लूटा बल्कि तोड़- फोड़कर इसका विनाश भी किया। अब केवल खंडहर शेष है। यह खंडहर ही उसकी भव्यता का दर्शन कराता है।

 हम आगे सेबों से लदे बगीचों का आनंद उठाते हुए कारगिल पहुँचे। श्रीनगर से कारगिल 202 किलोमीटर के अंतर पर है। पाँच -छह घंटे पहुँचने में लगे।

हम कुछ दो बजे कारगिल पहुँचे। यह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे द्रास घाटी कहा जाता है। यहीं पर पाकिस्तान के साथ 26 जुलाई 1999 को युद्ध छिड़ा था।

आज यहाँ एक विशाल मेमोरियल बनाया गया है। यहाँ शहीद सैनिकों का बड़ा सा सूची फलक है। यहाँ युद्ध संबंधी डॉक्यूमेंट्री फिल्म भी देखने का मौका मिला। हम आम नागरिक अपने घर में सुरक्षित होते हैं जबकि हमारी सेना दिन रात ठंडी-गर्मी में हमारी सुरक्षा में तैनात रहती है। इस बात का अहसास तब होता है जब वहाँ की शीतलहर को थोड़ी देर झेलकर हम काँप उठते हैं।

1999 के युद्ध में देश ने जीत हासिल की इस बात का न केवल हमें गर्व है बल्कि हमें खुशी भी है पर शहीद हुए जवानों की सूची देखकर तथा किन हालातों का हमारी सेना ने सामना किया था यह जानकर दिल दहल भी उठा। उन सबके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हम सबका मस्तक झुक जाता है।

हमने दो रातें कारगिल में बिताई और वहाँ के अन्य दर्शनीय स्थल देखकर हम लोग नुब्रा वैली के लिए रवाना हुए।

पुणे से रवाना होने से पूर्व हरेक को एक – एक छोटी-सी पोटली दी गई थी। इन पोटलियों में विशेष औषधीय गुण युक्त कपूर थे। रास्ते भर हम कपूर सूँघते हुए श्वास-कष्ट से बचते हुए आगे बढ़ रहे थे। कपूर में ऑक्सीजन लेवल को नियंत्रण में रखने का गुण होता है। हम में से किसी को कोई कष्ट नहीं हुआ।

रास्ते अच्छे थे और लोकल चालक भी सतर्क और जानकार। घुमावदार सड़कें और दूर-दूर तक बर्फीली चोटियाँ आकर्षक दिखाई दे रही थीं। हमारी गाड़ी भी बीहड़ पहाड़ों के बीच से गुज़र रही थी। हर पहाड़ का रंग ऐसा मानो किसीने तूलिका फिरा दी हो। 

नुब्रा वैली जाने से पहले हम दुनिया के सर्वोच्च मोटरेबल रोड खारडुंगला पास पहुँचे। इसका असली नाम खारडूंगज़ा ला है। यह 18,380 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पर जवानों के लिए एक सुंदर शिव मंदिर है। हमें कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में बीस मिनट ही गाड़ी से बाहर रहने की इज़ाज़त थी। ऑक्सीजन लेवेल कम होने के कारण तबीयत बिगड़ने की संभावना होती है। हम सभी सहेलियाँ यहाँ लगे बोर्ड के सामने तस्वीरें खींचकर , शिव मंदिर में बाहर से ही दर्शन करके तुरंत गाड़ी में लौट आए।

खारडुंगला के बाद हम चांग ला पास से गुज़रे। यह 17800 फीट की ऊँचाई पर स्थित है।

खारडुंगला पास से 38 की.मी की दूरी पर पत्थर साहिब गुरुद्वारा है। यहाँ दूर -दूर तक रहने की कोई व्यवस्था नहीं है। न ही खाने -पीने के लिए कोई रेस्तराँ ही है बस एक सुंदर गुरुद्वारा है। हर आने-जाने वाली गाड़ी यहाँ अवश्य रुकती है। दर्शन करके ही आगे बढ़ती है।

गुरु नानक अपने सिद्धांतों का प्रचार करते हुए तिब्बत, भूटान, नेपाल होते हुए लदाख पहुँचे। लौटते समय वे इसी स्थान पर रुके थे।

वहाँ के लोग एक कथा सुनाते हैं कि एक राक्षस था जो वहाँ के लोगों को सताया करता था। लोकल लोग नानक जी को नानक लामा कहते हैं। तिब्बत के लोग उन्हें गुरु गोमका महाराज कहा करते हैं। यद्यपि लदाख के अधिकांश लोग बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं पर वे गुरु नानक का भी सम्मान करते हैं।

एक दिन वे साधना में लीन थे कि पीछे से उस राक्षस ने एक विशाल और भारी पत्थर नानक जी को मारने के लिए ऊपर से लुढ़का दिया। पत्थर लुढ़ककर नानक जी की पीठ पर धँस गया। पर पत्थर मोम की तरह पिघल चुका था। पत्थर पर आज भी उनकी पीठ की निशानी है। नानक जी को चोट नहीं लगी यह देखकर राक्षस ने नीचे उतरकर पत्थर की दूसरी छोर पर लात मारी तो उसका पैर मोम जैसे पत्थर पर चिपक गया।

उसे समझ में आ गया कि नानक जी साधारण मनुष्य नहीं थे। वह वहाँ से चला गया और फिर उसने गाँववालों को कभी नहीं सताया।

वहाँ के निवासी उस पत्थर को बहुत महत्व देते थे। समय के साथ -साथ घटना पुरानी भी हो गई और भूली भी गई।

सन 1970 में जब लेह -नीमू सड़क निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो वह पत्थर रोड़ा बन गया। आर्मी ने उसे हटाने का बहुत प्रयास किया। पर पत्थर टस से मस न हुआ। जब उस पत्थर को बम विस्फोटक द्वारा उड़ा देने का निर्णय लिया गया तो वहाँ के निवासी और कुछ लामाओं ने आकर ऐसा करने से उन्हें रोका। गुरु नानक लामा की कथा आर्मी चीफ को सुनाई गई और सबने मिलकर वहाँ पत्थर साहिब गुरुद्वारा का निर्माण किया।

आज इस गुरुद्वारे की देखरेख वहाँ की आर्मी ही करती है। साफ -सुंदर परिसर। विशाल ठंडे बर्फीले पर्वतमालाओं के बीच स्थित यह गुरुद्वारा पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

जिस दिन हम दर्शन के लिए गुरुद्वारा पहुँचे तो वहाँ अखंड पाठ समाप्त ही हुआ था। किसी कर्नल की पल्टन अपनी अवधि पूरी करके लदाख से शिफ्ट हो रही थी। इसलिए अखंड पाठ रखा गया था। साथ ही बहुत ही उम्दा लंगर का आयोजन भी था। उस दिन गुरुद्वारे में पल्टन के सभी लोग उपस्थित थे। उत्सव का वातावरण था। आने-जानेवाले पर्यटक भी लंगर में शामिल हुए थे। हम भी लंगर में शामिल हो गए।

हम सभी ने इस दर्शन को अपना सौभाग्य ही माना कि इतने दूर दराज स्थान पर हमें नानक जी के उस रूप का दर्शन मिला जो एक पवित्र पाषाण के रूप में है। वैसे गुरुद्वारों में सिवाए गुरु ग्रंथसाहब के किसी मूर्ति को रखने की प्रथा नहीं है। पर यहाँ यह पत्थर मौजूद है और यात्री पास जाकर दर्शन कर सकते हैं।

हम वहाँ से नुब्रा पहुँचे। हमारे रहने की बहुत ही उत्तम व्यवस्था की गई थी। नुब्रा में एक रात रहने बाद इसके आगे हमारी यात्रा बहुत लंबी थी। हम पैंगोंग त्सो देखने के लिए निकले। रास्ते में कहीं कहीं बायसन चरते हुए दिखाई देते। यहाँ के निवासी ज़मीन के नीचे गुफा जैसी जगह बनाकर रहते हैं ताकि सर्द हवा और बर्फ से बचे रहें। गाड़ी के चालक ने बताया कि बायसन पालनेवाले उनके दूध से चीज़ बनाने की कला सीख गए हैं। यहाँ लेह लदाख के सुदूर इलाकों में जीवन बहुत कठिन है। उद्योग के खास ज़रिए भी नहीं है।

हम सब पैंगोंग त्सो या लेक देखने पहुँचे। यहाँ पर भी प्रियंवदा के नेतृत्व में हमें आर्मी मोटर बोट में बैठकर विहार करने का 112 मौका मिला। यद्यपि पिछले पाँच वर्षों से वहाँ पर्यटकों के लिए नौका विहार की मनाही थी। पर प्रियंवदा के किसी परिचित आर्मी चीफ की सहायता से हम शिक्षकों को इजाज़त मिल गई और हम सबने इस विहार का आनंद भी लिया।

लेक के किनारे ही गणपति जी का छोटा-सा मंदिर है। उस दिन सुदैव से संकष्टी चतुर्थी का दिन था। हम सबने आरती की और टेन्ट की ओर बढ़े जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था थी। न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि कदम – कदम पर ईश्वर इस यात्रा में हमारे साथ उपस्थित थे। जो कुछ देखना चाहा,करना चाहा बस वह जादू की तरह तुरंत सामने उपस्थित हो जाता। इसे ईश्वर की कृपा ही कहेंगे न!

पैगोंग त्सो या लेक 134 कि.मी लंबा है। यह

समुद्री तल से 4350 मी.की ऊँचाई पर है। यह संसार का सबसे ऊँचाई पर स्थित खारे जल का स्रोत है।

इसके एक छोर पर चीन का कब्ज़ा है। इस लेक का पानी स्वच्छ ,पारदर्शी और आकर्षक है। लेक के किनारे स्थित पहाड़ों का प्रतिबिंब लेक के जल में इतना स्पष्ट दिखाई देता है कि आँखों पर विश्वास ही नहीं होता। यहाँ भयंकर सर्द हवा चलती है। ठंड के दिनों में लेक पर बर्फ की मोटी परत चढ़ जाती है। सारा पानी जम जाता है। इस लेक में किसी प्रकार के कोई जीव,मत्स्य आदि नहीं पाए जाते। यह खारे जल का स्रोत है।

अनेकों कमियों और अभावों के चलते भी हमारे रहने तथा भोजन आदि की व्यवस्था अति उत्तम थी। पर्यटकों के आने पर कई लोगों को रोज़गार भी मिल जाता है।

दूसरे दिन हम लदाख से लेह की ओर लौटने लगे। रास्ते में थ्री इडियट नामक सिनेमा में दर्शाए गए फुनसुख वांगडू की पाठशाला भी देखने गए। लोकल लोगों के नृत्य का कार्यक्रम देखने का अवसर मिला। उनके साथ हमारी सखियाँ नाच भी लीं। आनंदमय वातावरण था। सन ड्यू रेगिस्तान में दो कूबड़ वाले और लंबे बालवाले ऊँट की सवारी की गई। थोड़ी देर के लिए हम सब अपनी उम्र भूल ही चुके थे।

धीरे -धीरे लेह की ओर लौटते हुए कई बौद्ध विहार के हमने दर्शन किए। कुछ पहाड़ों की ऊँचाई पर स्थित हैं तो कुछ पहाड़ों की तराई में। हर एक मंदिर /विहार अपनी सुंदरता,शांति और भव्यता के कारण पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है।

वहाँ के निवासी सीधे -सरल और मिलनसार हैं। वे पर्यटकों की बहुत अच्छी देखभाल करते हैं। मृदुभाषी हैं। सभी बड़ी सरलता से हिंदी बोलते हैं।

गाड़ी के चालक से ही ज्ञात हुआ कि जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है और पर्यटक भी नहीं होते तब वे हमारी सेना की सहायता के लिए सियाचिन की ओर निकल जाते हैं और तीन माह वे वहीं अच्छी रकम पाकर सामान ढोने का काम करते हैं। सियाचिन में भी एक निश्चित स्थान के बाद सेना की ट्रकें आगे नहीं बढ़ सकती हैं वहीं ये लदाखी काम आते हैं।

हमारे लौटने का समय आ गया था। दस – बारह दिन अत्यंत आनंद के साथ गुज़ारे गए। हम जिस भीड़भाड़ में रहते हैं,जहाँ सभी दौड़ते – से लगते हैं उस भीड़ से बिल्कुल हटकर एक अलग दुनिया की हम सैर कर आए थे। शांति, संतोष, सौंदर्य और सरलता का अगर दर्शन करना चाहते हैं तो लेह लदाख अवश्य जाएँ।

यह मेरा सौभाग्य ही है कि 2022 सितंबर के महीने में मैं अपने पति बलबीर को साथ लेकर फिर लेह- लदाख के लिए निकली। इस बार पत्थर साहब में बाबाजी का दर्शन साथमें किया।

ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ कि इस तरह दूर -दराज़ स्थानों के पवित्र मंदिर और गुरुद्वारों के दर्शन का मुझे निरंतर सौभाग्य मिलता आ रहा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 137 – “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डा पूजा खरे जी के कथा संग्रह “उस सफर की धूप छांव” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 137 ☆

☆ “उस सफर की धूप छांव” – डा पूजा खरे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

कृति : उस सफर की धूप छांव

लेखिका : डा पूजा खरे

प्रकाशक: ज्ञान मुद्रा प्रकाशन, भोपाल

मूल्य: १५० रुपये

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

☆ सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लाकडाउन अप्रत्याशित अभूतपूर्व घटना थी, सब हतप्रभ थे, किंकर्त्व्यविमूढ़ थे, कहते हैं यदि हिम्मत न हारें तो जब एक खिड़की बंद होती है तो कई दरवाजे खुल जाते हैं, लाकडाउन से जहां एक ओर रचनाकारो को समय मिला, वैचारिक स्फूर्ति मिली वहीं उसे अभिव्यक्त करने के लिये नये संसाधनो प्रकाशन सुविधाओ, इंटरनेट के सहारे सारी दुनियां का विशाल कैनवास मिला, मल्टी मीडिया के इस युग में भी किताबों का महत्व यथावत बना हुआ है, नैसर्गिक या दुर्घटना जनित त्रासदियां संवेदना में उबाल लाती हैं, भोपाल तो गैस त्रासदी का गवाह रहा है, कोरोना में राजधानी होने के नाते न केवल भोपाल वरन प्रदेश की घटनाओ की अनुगूंज यहां मुखरता से सुनाई देती रही है, तब की किंकर्त्व्य विमूढ़ता के समय में कला साहित्य ने मनुष्य में पुनः प्राण फूंकने का महत्वपूर्ण कार्य किया, किताब की लम्बी भूमिका में आनंद कृष्ण जी ने त्रासदियों के इतिहास और मानव जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला है, पुस्तक की लेखिका डा पूजा खरे मूलतः भले ही डेंटिस्ट हैं किन्तु उनके संवेदनशील मन में एक नैसर्गिक कहानीकार सदा से जीवंत रहा है, जब कोई ऐसा जन्मजात अनियत कालीन रचनाकार शौक से कुछ अभिव्यक्त करता है तो वह स्थापित पुरोधाओ के क्लिष्ट शब्दजाल से उन्मुक्त अपनी सरलता से पाठक को जीत लेता है, डा पूजा की कहानियां भी ऐसी ही हैं, छोटी, मार्मिक और प्रभावी,

मेरे पिता वरिष्ठ कवि प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव “विदग्ध” जी की पंक्तियां हैं

“सुख दुखो की आकस्मिक रवानी जिंदगी

हार जीतो की बड़ी उलझी कहानी जिंदगी

भाव कई अनुभूतियां कई, सोच कई व्यवहार कई

पर रही नित भावना की राजधानी जिंदगी “

इस संग्रह “उस सफर की धूप छांव ” में कुल दस हमारे आस पास बिखरी घटनाओ पर गढ़ी गई कहानियां संजोई गई हैं, सुख दुख, हार जीत, जीवन की अनुभूतियों और व्यवहार, इन्हीं  भावों की कहानियां बड़ी कसावट और शिल्प सौंदर्य से बुनी गई हैं, ये सारी ही कहानियां पाठक के सम्मुख अपने वर्णन से पाठक के सम्मुख दृश्य उपस्थित करती हैं, संग्रह की अंतिम कहानी ” मन के जीते जीत ” को ही लें,..

यह कहानी संभवतः वर्ष २०४५ में मूर्त हो सकेगी, क्योंकि कोरोना काल में पैदा हुआ रोहित मां की मेहनत और अपने श्रम से तपकर उससे पहले तो आई ए एस की परीक्षा में प्रथम नही आ सकता, अस्तु यह भविष्य की कल्पना के जीवंत दृश्य बुन सकने की क्षमता लेखिका को विशिष्ट बनाती है, सरल संवाद की भाषा कोई बनावटीपन नहीं अच्छी लगी,

कोरोना काल का इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाज शास्त्र, राजनीति सब कुछ मिलता है इन कहानियों में, सचमुच साहित्य समाज का दर्पण है, निशान, जागा हुआ सपना, कब तक, घंटी, कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें, चातक की प्यास, प्राण वायु, एक्स फैक्टर, लत और मन के जीते जीत ये कुल दस कहानियां हैं,

जागा हुआ सपना कहानी से ही उधृत करता हूं,..” १४ दिन मुझे अस्पताल के कोरोना वार्ड में ही गुजारने थे,,.. न कोई घर का व्यक्ति न दोस्त, हर तरफ सिर्फ मेरी तरह मरीज, चिकित्सक, नर्स और सफाई कर्मचारी ही दिखते थे,..उस हमउम्र नर्स को मैंने किसी पर खीजते नहीं देखा,. पी पी ई किट के भीतर से आती उसकी दबी दबी सी आवाज से ही उसे पहचानता था… जिस तरह मैंने सिंद्रेला, रँपन्जेल, स्नो व्हाईट, स्लीपिंग ब्यूटी को कभी नहीं देखा उसी तरह उसे भी कभी नही देखा,.. किंचित कवित्व और नाटकीयता भी इस कहानी की अभिव्यक्ति में मिली, यह भी पता चलता है कि लेखिका विश्व साहित्य की पाठिका है, अस्तु मैं ये छोटी छोटी कहानियां एक एक सिटिंग में मजे से पढ़ गया, आपको भी खरीद कर पढ़ने की सलाह दे रहा हूं, इधर ज्ञान मुद्रा प्रकाशन ने भोपाल में सद साहित्य को सामने लाने का जो महत्वपूर्ण बीड़ा उठाया है, उसके लिये उन्हें भी बधाई बनती है, डा पूजा खरे से हिन्दी कहानी जगत को और उम्मीदें हैं, उन्हें उनके ही शब्दों में सेरेंडिपीटी अर्थात मूल्यवान संयोगो की मंगलकामनायें,

एक कमी का उल्लेख जरूरी लगता है किताब में लेखकीय फीड बैक के लिये क से कम एक मेल आईडी दी जानी चाहिये थी, डा पूजा जैसी लेखिका एक किताब लिखकर गुम होने के लिये नहीं हैं,

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 157 – परछाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा परछाई”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🌹 परछाई 🌹

कमला रोज सिर पर लकड़ी का बोझ लिए चलती जाती। कड़क तेज धूप पसीना पोंछती अक्सर अपनी परछाई को देखती।

उसे लगता क्या?? सारी जिंदगी सिर्फ बोझ ही उठाती रहूंगी। थकी हारी शाम को अपने घर भोजन बनाकर सभी परिवार का रुखा सुखा इंतजाम करती और थकान से चूर बिस्तर पर सोते ही नींद लग जाती।

कभी उसने रात में चांदनी की सुंदरता नहीं देखी थी।

आज पूनम की रात अचानक नींद खुली। बाहर आंगन में निकलकर वह बैठी थी। साड़ी का पल्लू सिर पर डाल रही थी कि पीछे से आज उसकी परछाई किसी खूबसूरत रानी की तरह बनी। ऐसा लगा मानो सिर पर ताज लगा रखी हो।

अपनी परछाई को घंटों निहारते वह बैठी रही। उसने सोचा सही कहा करती थी अम्मा.. पूनम की रात सभी के सपने पूरे होते हैं। खुशी से आंखों से आंसू बहने लगे। दूर से दूधिया रोशनी से नहाती आज वह अत्यधिक प्रसन्न हो रही थी।

परछाई ही सही, मेरी अपनी परछाई ही तो है। तभी पति देव ने आवाज लगाई… आ जा कमला सो जा पूनम का चांद सिर्फ हम सुनते हैं और देखते हैं, हमारे लिए नहीं है हमारे लिए तो सिर्फ तपती दोपहरी की परछाई ही हकीकत है। जो हमें सुख से रात को चैन की नींद सुलाती है।

पति देव की बात को शायद समझ नहीं सकी। परन्तु सोकर जल्दी उठ काम पर जाना है सोच वह सोने चली गई।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 33 – देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 33 ☆ देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज विदेश में प्रातः भ्रमण के समय एक गुरुद्वारे के दर्शन हो गए। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा, मानो कोई साक्षात भगवान के दर्शन हो गए।

करीब बीस एकड़ भूमि में बने गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तो वहां एकदम शांति थी। छोटे से कस्बे मिलिस जिला मैसाचुसेट्स जो कि अमेरिका के पूर्वी भाग में स्थित हैं। आस पास लोगों के घर हैं, कोई भारतीय निवासी भी नहीं दिख रहा था।

एक अंग्रेज़ सी दिखने वाली महिला ने अपना भारतीय मूल का नाम जिसमें कौर भी शामिल था, परिचय दिया। वो मूलतः फ्रांस देश से हैं।

गुरुग्रंथ साहब को सम्मान पूर्वक माथा टेकने के पश्चात, महिला से थोड़ी देर गुरुद्वारे की जानकारी ली।

गुरुद्वारे का संबंध “मेरिकन सिख” से हैं। इस देश में करीब सौ वर्ष पूर्व कुछ सिख परिवार इस देश में रच बस गए हैं। हमारी जानकारी में तो इंग्लैंड, कनाडा और अफगानिस्तान में ही सिख समुदाय के लोग बहुतायत से रहते है। अमेरिका में भी सात लाख के करीब सिख बंधु रहते हैं।

ये लोग योग और कुंडलिनी से संबंधित ऑनलाइन शिक्षा देते हैं। वो बात अलग है, कुछ फर्जी प्रकार के कुंडलिनी योग भी अमेरिका में पैसा कमाने का साधन बने हुए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #187 ☆ ओठ कोरडे… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 187 ?

☆ ओठ कोरडे…

दुष्काळाच्या सोबत मी तर नांदत होते

ओठ कोरडे घामासोबत खेळत होते

किती मारले काळाने या जरी कोरडे

काळासोबत तरी गोड मी बोलत होते

जरी फाटक्या गोणपटावर माझी शय्या

सवत लाडकी तिला दागिने टोचत होते

शिकार दिसता रस्त्यावरती डंख मारण्या

साप विषारी अबलेमागे धावत होते

उंबरठ्याची नाही आता भिती राहिली

नवी संस्कृती तिरकट दारा लावत होते

रक्त गोठले भांगेमधले कुंकू नाही

जखमा काही केसामागे झाकत होते

सरणावरती अता कशाला हवेय चंदन

दुर्भाग्याचा रोजच कचरा जाळत होते

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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