मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ हे सुमना… ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

सौ. विद्या पराडकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

🍀 – हे सुमना… – 🍀 ☆ सौ. विद्या पराडकर ☆

उमलत फुलत गोड सुमन हे

जांभळ्या रंगाने नटले आहे

गोजिर्या साजिर्या मुग्ध कलिका

फुलन्यास त्या उत्सुक आहे 🍀

हिरवी,हिरवी नाजुक पाने

त्या पुष्पाला शोभत‌ आहे

तुला पाहुनी विलोभनीय सुमना

मी ही मनात खुलली आहे🍀

लावण्य तुझे ऐसे निरखित

प्रसन्न आहे विश्र्व सारे

निसर्गाची किमया अद्भुत

हे सुमना तव भाग्य न्यारे🍀

© सौ. विद्या पराडकर

वारजे  पुणे..

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #186 – 72 – “ तू ज़िंदगी भर सजता संवरता रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ तू ज़िंदगी भर सजता संवरता रहा…”)

? ग़ज़ल # 72 – “तू ज़िंदगी भर सजता संवरता रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

तू चाहता क्या और माँगता क्या है,

तू सच बता आख़िर चाहता क्या है।

उड़ चुका बहुत ख्वाहिशी फ़लक पर

अब रुक जा बेवज़ह उड़ता क्या है।

तेरी बेवफ़ाई के क़िस्से बहुत मशहूर,

बता तेरा मुहब्बत से वास्ता क्या है।

दराज खुला रखा लिफ़ाफ़ों के लिए,

तेरे हुजूम में वसूली हफ़्ता क्या है।

दिल में तेरे अभी भी जमा है मैल,

दूसरों के दिलों में झांकता क्या है।

तूने किया वही जो चाहा ताज़िंदगी,

तू बता  तुझे अब सालता क्या है।

तू ज़िंदगी भर सजता संवरता रहा,

तेरी पत्तल में फैला रायता क्या है।

आ जकड़ा तुझे फ़ानी अहसासात ने,

मंज़ूर कर फ़ना अब भागता क्या है।

आतिश की असलियत सब जानते हैं,

फिर तू बेसिरपैर की हाँकता क्या है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 64 ☆ ।।नई पीढ़ी को सौंपनी है, शुद्ध स्वच्छ पर्यावरण की विरासत।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।नई पीढ़ी को सौंपनी है, शुद्ध स्वच्छ पर्यावरण की विरासत।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 64 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।नई पीढ़ी को सौंपनी है, शुद्ध स्वच्छ पर्यावरण की विरासत।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

(पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर विशेष रचना)

[1]

वृक्षों से ही हमारे जीवन में आती हरियाली है।

प्रकृति पोषित और हर ओर होती खुशहाली है।।

पर्यावरण सरंक्षण धुरी है जीवन के रक्षा की।

जानो तभी मनेगी नई पीढ़ी की होली दीवाली है।।

[2]

रक्षा पर्यावरण की तेरी मेरी सबकी जिम्मेदारी है।

हम अभी से हों समझदार इसी में होशियारी है।।

नहीं तो इस बर्बादी की होगी हमारी ही जवाबदारी।

यही आज समय का तकाजा और खबरदारी है।।

[3]

जो हम सिखायेंगे नई पीढ़ी वही करेगीआगे जाकर।

पर्यावरण के प्रति जागरूक होगी यह शिक्षा लाकर।।

आज कर्तव्य कि नई पीढ़ी को सौंपना स्वच्छ पर्यावरण।

अन्यथा आने वाली पीढ़ी दुःख भरेगी ये विरासत पाकर।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 128 ☆ “रेल पर दो कविताएं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित  – “रेल पर दो कविताएं…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #128 ☆ कविता – “रेल पर दो कविताएं…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

(16 अप्रेल, 1853 – यह दिवस ऐतिहासिक ,जब दौड़ी थी पटरी पर रेल पहली बार…)

[1]  रेल भारत में

परिवर्तन इस विश्व का आवश्यक व्यवहार

धीरे-धीरे सदा से बदल रहा संसार

सदी अट्ठारह तक रहा धार्मिक सोच प्रधान

 पर उसके उपरांत नित सबल हुआ विज्ञान

 

बदली दृष्टि जरूरतें उपजे नए विचार

यूरोप से चालू हुए नए नए अविष्कार

भूमि वायु जल अग्नि नभ प्रमुख तत्व ये पांच

इनके गुण और धर्म की शुरू हुई नई जांच

 

इनके चिंतन परीक्षण से उपजा नव ज्ञान

प्रकृति की समझ प्रयोग ही कहलाता विज्ञान

ज्यों ज्यों इस सदवृत्ति का बढ़ता गया रुझान

जग में नित होते गए नए सुखद निर्माण

 

चूल्हे पै चढ़ी जल भरी गंज का ढक्कन देख

जेम्स वाट की बुद्धि में उपजा नवल विवेक

उसे उठाकर गिराकर उड़ जाती जो भाप

जल को भाप में बदल शक्ति देता ताप

 

इसी प्रश्न में छुपा है रेल का आविष्कार

वाष्प इंजन सृजन का यह ही मूलाधार

समय-समय होते गए क्रमशः कई सुधार

इंजन पटरी मार्ग और डिब्बे बने हजार

 

रेल गाड़ियां चल पड़ी बढ़ा विश्व व्यापार

लाखों लोगों को मिले इससे नए रोजगार

यात्रा माल ढुलाई से कई हुए मालामाल

और बड़े क्या सुधार हो यह है सतत सवाल

 

आई अट्ठारह सौ सैंतीस में भारत पहली रेल

 धोने पत्थर सड़क के शुरू हुआ था खेल

शुरू हुआ मद्रास से रेलों का विस्तार

आज जो बढ़ हो गया है कि मी अड़सठ हजार

 

अब विद्युत से चल रही रेलवे कई हजार

कई फैक्ट्रियां बनाती पुर्जे विविध प्रकार

अब तो हर एक क्षेत्र में व्याप्त ज्ञान विज्ञान

लगता है विज्ञान ही है अब का भगवान

 

[2] रेल के प्रभाव

रेलगाड़ियों का हुआ ज्यों ज्यों अधिक प्रसार

सुगम हुई यात्राएं और बढा क्रमिक व्यापार

 आने जाने से बढा आपस में सद्भाव

 सुविधाएं बढ़ती गई घटते गए अभाव

 

सहज हुआ आवागमन नियम भी बने उदार

 बदला हर एक देश औ बदल चला संसार

लेन-देन में वृद्धि हुई खुले नए बाजार

लाभ मिला हर व्यक्ति को बढ़े नए रोजगार

 

 शुरु में अपने देश में कई थे रेल के गेज

इससे कुछ असुविधाएं थीं थे क्षेत्रीय विभेद

प्रमुख लाइने एक हुई बदल रहे अब गेज

एक गेज होंगे तभी  प्रगति भी होगी तेज

 

आगे एंजिन से जुड़े डिब्बे भरे अनेक करते

करते लंबी यात्रा बनकर गाड़ी एक

दर्शक को दिखता सदा  रेल क मोहक रूप

खड़ी हो या हो दौड़ती दिखती रेल अनूप

 

रेल दौड़ती सुनाती एक लयात्मक गीत

बच्चों को लगता मधुर वह ध्वनि मय  संगीत

रेल मार्ग में जहां भी होता अधिक घुमाव

 वहां निरखना रेल को रचता मनहर भाव

 

 नयन देखते दृश्य हैं मन पाता आनन्द

सुंदर दृश्यों को सदा करते सभी पसंद

रेल ने ही विकसित किया पर्यटन उद्योग

 तीर्थाटन भी बन गया एक सुखदाई योग

 

समय और व्यय बचाने  प्रचलित कई हैं रेल

राजधानी, दुरंतो, संपर्क क्रांति या मेल

स्टेशन बनता जहाँ होता बड़ा प्रभाव

 रेल आर्थिक ही नहीं लाती कई बदलाव

 

रेल पहुँच देती बदल सारा ही परिवेश

सामाजिक बदलाव से बनता सुंदर देश

 छू जाती जिस भाग को आती जाती रेल

होने लगता प्रगति का वहीं मनोहर खेल

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 149 – बाळ गीत – ताई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 149 – बाळ गीत – ताई ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

ताई माझी गुणांची

आहे मोठ्या मनाची ।

लहान-थोर साऱ्यांची

काळजी घेते सर्वांची।

मंजुळ तिचा गळा

गाते जणू कोकिळा।

वाजवून खळखुळुा

समजावते बाळा।

काम करते झरझर

पुस्तक वाचते सरसर।

सारेच करतात वरवर।

सर्वांनाच घालत असते

मायेची तिच्या पाखर।

नाही तिथे काहीच उणे

तिच्या विना घर सुने।

घरात फुलते सदाच

तिचे हास्य चांदणे।

तिचेच हास्य चांदणे।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “जिजी” – लेखिका सौ राधिका भांडारकर ☆ परिचय – सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

?पुस्तकावर बोलू काही?

☆ “जिजी” – लेखिका सौ राधिका भांडारकर ☆ परिचय – सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

पुस्तक परिचय

पुस्तकाचे नाव ~ जिजी 

लेखिका ~ सौ.राधिका भांडारकर,वाकड,पुणे.

प्रकाशिका ~ डाॅ.सौ.स्नेहसुधा कुलकर्णी.

नीहारा प्रकाशन, सदाशीव पेठ, पुणे.

मुद्रक ~ पालवी मुद्रणालय, सदाशीव पेठ, पुणे.

मूल्य ~ ₹१००/—

सौ राधिका भांडारकर

“जीजी” या पुस्तकाचा प्रकाशन सोहळा नुकताच दि.२६ मार्च २०२३ रोजी गुणवंतांच्या उपस्थितीत सुरेख पद्धतीने संपन्न झाला.

अवघ्या ८८ पृष्ठांचे हे पुस्तक जसजशी वाचत गेले तसतशी त्यांत मनाने पार डुंबून गेले,शेवटचे पान वाचेपर्यंत एका जागेवर या पुस्तकाने खिळवून ठेवले.एका  आजीची ही कहाणी अत्यंत ह्रदयद्रावक आणि कुठेतरी भेदून जाणारी…!जीजीचे संपूर्ण चरित्र यात रेखाटले असले तरी ते आत्मचरित्र नाही,किंवा चरित्र या साहित्यप्रकारातही मोडणारे नाही असे मला वाटते.

हे पुस्तक म्हणजे जीजीने स्वतः लिहीलेली तिची कहाणी वाचताना लेखिकेच्या भावनांचा

झालेला हा कल्लोळ आहे.त्यामुळे पुस्तकातील एकेक शब्द,एकेक ओळ वाचकाच्या ह्रदयाला जाऊन भिडते.

अत्यंत सुस्थितीत वाढलेली,सधन कुटुंबात विवाह होऊन आलेल्या जीजीला तिच्या पुढील आयुष्यात नशीबाने अल्पवयात वैधव्य आल्याने,तिने समाजाशी धीराने आणि आत्मविश्वासाने कसा लढा दिला,तिच्या एकमेव पुत्राला उत्तम प्रकारे कसे घडविले हे वाचताना डोळ्यातील आसवे थांबत नाहीत.

अतिशय प्रभावी शब्दांकन…..!अगदी तिर्‍हाईत,अपरिचित वाचकाच्या

नजरेसमोरही ही जीजी उभी रहाते.

सुरवातीलाच राधिकाताई लिहितात,”एक व्यक्ती म्हणून तिला वाचायचं होतं,तिचा शोध घ्यायचा होता.तिच्यातलं स्त्रीत्व जाणायचं होतं.तिच्यातली शक्ती जाणायची होती.आमच्या व्यतिरिक्त तिच्या शब्दातून बघायचं होतं.”

“खरंच बोराच्या झाडासारखंच होतं ना तिचं आयुष्य! काटेरी रक्तबंबाळ करणारं!पण तिने मात्र रुतलेल्या काट्याचा विचार न करता गोड बोरांचाच आनंद उपभोगला.”

ह्या अशाप्रकारच्या लेखनाने जीजी वाचायची वाचकांची उत्सुकता ताणते.त्यामुळे पुस्तक खाली ठेवावेसे वाटत नाही.

जीजीची कहाणी सांगत असताना राधिकाताईंचा जीजीसोबतचा वास आणि घेतलेले अनुभव ह्यामुळे वर्तमान काळात वावरल्यासारखे वाटते.आजही जीजी सोबत आहे असा विचार मनात येऊन काहीतरी आत्मीक बळ आल्यासारखे वाटते.

जीजीचे तिच्या पाचही नातींवरचे नितांत प्रेम हे लेखिकेने स्वानुभवावरून फार समर्थ  शब्दात प्रदर्शीत केले आहे.प्रत्येकच वाचकाला जीजी वाचत असताना स्वतःची आजी कोणत्या ना कोणत्या रूपात दिसल्याशिवाय रहाणार नाही हे निश्चित!त्यामुळे ह्या पुस्तकाविषयी कुठेतरी आत्मीयता वाटते.

१०० वर्षापूर्वीच्या काळातील जीजी आणि तिने दिलेले आधुनिक संस्कार या विषयी राधिकाताई सांगतात,”मुलीच्या जातीला हे शोभत नाही बरे?असा पळपुटा,मळकट,कडू संस्कार मात्र तिने आमच्यावर कधीही केला नाही.आयुष्यात अनेक चढउतार आले,रस्ते काही नेहमीच गुळगुळीत नव्हते,दगड,खडे,काटे सारे टोचले.अपरंपार अश्रू गाळले पण कणा नाही मोडला,”जीजीने तिच्या कुटुंबाला(मुलगा/सून आणि पाच नाती) समर्थ बनविले.

राधिकाताईंच्या प्रभावी लेखनशैलीमुळे जीजी प्रत्येकाला आपली वाटते हेच या व्यक्तीचित्रणाचे यश आहे.

सर्वांनी वाचावे आणि जीवनात सकारात्मकतेचा बोध घ्यावा असे हे पुस्तक जीजी.

पुस्तकाच्या मुखपृष्ठासंबंधी थोडेसे~ मुखपृष्ठावर ज्या काही ओळी छापलेल्या दिसतात ते जीजीचे हस्ताक्षर आहे आणि तिच्या फोटोचे स्केच तिची सगळ्यात

धाकटी नात,जिचे तीन महिन्यापूर्वीच निधन झाले ती उषा ढगे हिने केले आहे.

जीजीच्या बाकीच्या चार नातींनीही त्यांच्या व जीजीच्या एकत्रीत सहवासाचे विविध अनुभव लिहीले आहेत.

राधिकाताईंची ही वाटचाल अशीच सतत चालत राहो आणि त्यांची विविध विषयावरील पुस्तके झपाट्याने प्रकाशित होवोत ह्या माझ्या त्यांना शुभेच्छा!

पुस्तक परिचय – सुश्री अरुणा मुल्हेरकर 

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #179 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 179 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद 

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #177 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 177 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

कस्तूरी

कस्तूरी कुंडल बसे, ढूँढे मृग चहुँ ओर।

भटक भटक के खोजता, आता वापस छोर।।

खेत

बीजारोपण कर रहा, खेतों खेत किसान।

खुश होकर वह झूमता,फसल देखता धान।।

दृष्टि

देख रहे हैं वो हमें, दृष्टि है इसी ओर।

समझ रहे हैं हम उसे, बंधी प्यार की डोर।।

कबूतर

संदेशा कबूतर से, भेजा अपना प्यार ।

आएगा अब एक दिन, प्यार का इजहार।।

आम

झूम झूमकर गिर रहे, मीठे मीठे आम

भिन्न भिन्न हैं जातियाँ, लगड़ा प्रिय बदाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #164 ☆ “संतोष के दोहे… कर्म” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे … कर्म ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 164 ☆

☆ “संतोष के दोहे … कर्म ” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कर्मों पर होता सदा,कर्ता का अधिकार

कर्म कभी छिपते नहीं,करते वो झंकार

कर्मों से किस्मत बने,कर्म जीवनाधार

कभी न पीछा छोड़ते,फल के वो हकदार

जैसी करनी कर चले,भरनी वैसी होय

कर्मों की किताब कभी,बांच सके ना कोय

सबको मिलता यहीं पर,पाप पुण्य परिणाम

जो जिसने जैसे किये,बुरे भले सब काम

तय करते हैं कर्म को,स्व आचार- विचार

कर्मों से सुख-दुख मिलें,तय होते व्यबहार

पाप- पुण्य की नियति से,करें सभी हम कर्म

सदाचरण करते चलें,यही हमारा धर्म

अंत काम आता नहीं,करो कमाई लाख

साथ चले नेकी सदा,तन हो जाता राख

गया वक्त आता नहीं,समझें यह श्रीमान

करें समय पर काम हम,रखें समय का मान

कर्म करें ऐसे सदा,जिसमें हो “संतोष”

कोई कभी न दे सके,जिसकी खातिर दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #171 ☆ दिलाची सलामी…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 171 – विजय साहित्य ?

☆ डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर – दिलाची सलामी…!✒ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

बसा सावलीला, जिवा शांतवाया

शिवारात माझ्या, रूजे बापमाया .

परी बापमाया, कशी आकळेना ?

दिठीला दिठीची, मिठी सोडवेना.

घरे चंद्रमौळी, तुझ्या काळजाची

तिथे माय माझी, तुला साथ द्याची

मनाच्या शिवारी ,सुगी आसवांची

तिथे सांधली तू, मने माणसांची.

जरी दुःख  आले, कुणा गांजवाया

सुखे बाप धावे , तया घालवाया

किती भांडलो ते, क्षणी आठवेना

परी याद त्याची, झणी सांगवेना.

कुणा भोवलेली , कुणी भोगलेली

सदा ती गरीबी, शिरी खोवलेली .

कधी ऊत नाही, कधी मात नाही

शिळ्या भाकरीची,  कधी लाज नाही.

कधी साहिली ना , कुणाची गुलामी

झुके नित्य माथा, सदा रामनामी .

सणाला सुगीला , तुझा देह राबे

तरी सावकारी, असे पाश मागे .

जरी वाहिली रे , नदी आसवांची

तिथे नाव येई , तुझ्या आठवांची

गरीबीतही तू , दिले सौख्य नामी

तुला बापराजा , दिलाची सलामी.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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