☆ “दिसलीस तू फुलले ऋतू…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर☆
भावना त्यालाच कळतात ज्याला त्याची जाणीव असते.
तारुण्याच्या त्या टप्प्यावर तुझं माझ्या आयुष्यात येणं.. हा खरोखरच नियतीचा योगायोग होता… पहिल्या नजर भेटीतच कलिजा खलास झाला होता… कळले नाही कधी मी नजरकैदेत बंदिस्त कसा झालो… हरवले भान स्व:ताचे…. जगणेच विसरून गेलो… बस्स तोच एक क्षण आला नसता आयुष्यात तेव्हा! .. असे त्या भेटीनंतर कैकदा वाटून गेले… मिळणार नाही साथ तिची हेही तेव्हाच कळून चुकले.. सौंदर्यवतीचे चाहते लाखो असले, तरी भाग्यवान तो एकच असतो… पण पण जुनी ओळख ती कुठे तरी हृदयाच्या कप्यात दडून राहीली होती तिच्याही नि माझ्याही.. पुन्हा कधीच न उचंबळून न येणारी… ताटातूट ठरलेली घडलीच काही क्षणातच… अन दोन वळून वळून बघणारे चेहरे काही अनामिक भावनांचे कंगोरे घेऊन समोरून निघून गेले.. दोन ओंडक्यांची पुन्हा कधीच घडणार नसते गाठभेट हे ही तितकेच सत्य असते… अबोल नि असफल प्रीतीच्या वेलीचे सलणारे काटे… मनाला घायाळ करतात.. समजूत घालता घालता मनं थकून जातं.. काळाचं औषध विरहाचं दु:ख विसरायला लावतो… आणि दुसऱ्या प्रेमाच्या तडजोडीने मनाची तगमग दूर करायची मदत घेतो… आता सारं काही आलबेल नि आनंदाच्या लहरीवर जीवनाचे तरंग तुषार उधळण करत जात असतं… आणि आणि एक दिवस नियतीला पुन्हा खोडसाळपणा करण्याची हुक्की येते…
ध्यानीमनी नसताना एक दिवस सकाळी मार्निंग वाॅकला बागेत असताना तिचे माझ्या सामोरी येणे… अगदी तसेच पहिल्या त्या भेटीसारखे… नजरेला नजर मिळताना… ओळख आहे का? असा निशब्द प्रश्न त्यातून विचारला जाताना.. डोळेच ते एकमेकांना भिडल्या भिडल्या अनेक गोष्टी नजरेने नजरेला नजर करूनही गेले… शब्दांची वाट न पाहता… काही क्षणातच आम्ही दोघं एकमेकांच्या समोरूनच गेलो… आणि गुंतलेले हट्टी मन ओढून घेण्यासाठी पुन्हा पुन्हा मागे वळून पाहताना मात्र मनाची चलबिचल वाढवत गेले… ती जुनी ओळख कुठे तरी हृदयाच्या कप्यात दडून बसलेली, तिच्याही नि माझ्याही.. पुन्हा एकदा उचंबळून येते… तेही क्षणैक ठरते… आता देहाचं तारूण्य ओसरून कधीच गेलेलं असतं, वार्धक्याची रूपेरी देहावर पसरलेली असते… तरीही अजूनही मनात कोवळे तृणांकूर उमलू पाहतात… आम्ही एकमेकांना पाहिलेलं असतं तेव्हा… भावभावनांची खळबळ उरात उठते.. अजूनही आपण तुला विसरलेलो नाही हेच नजरेतून सांगणे असते… काही गोष्टींमुळे आपण एकत्र जरी आलो नाही, आणि कितीही दूर दूर अंतरावर आपण असलो तरीही मनातल्या प्रेमरज्जूने आपण एकमेकांशी कायमचे बांधले गेलो आहोत… हे ही नसे थोडके… होय ना! …
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” ।)
☆ शेष कुशल # 50 ☆
☆ व्यंग्य – “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…”– शांतिलाल जैन ☆
गुलज़ार के लिखे गाने की पंक्ति में छेड़छाड़ करने का अपन का कोई इरादा नहीं है, मगर सच तो यही है साहब कि एक आदमी के तौर पर हम अपनी पहचान साबित करने के तौर-तरीके खोते जा रहे हैं. ये केप्चा तय करेगा कि आप आदमी ही हैं. कम्प्यूटर स्क्रीन पर आड़े तिरछे कटे फटे अंग्रेजी अक्षरों को जस का तस लिखकर बताना पड़ता है – ‘जी हाँ, मैं होमो सेपियन ही हूँ’. मैं अब तक सैकड़ों बार बता चुका हूँ कि मैं एक इंसान हूँ, मानव हूँ, हाड़-मांस का पुतला हूँ, थोड़ी सी बुद्धि भी रखता हूँ, अक्षर ज्ञान जितनी अंग्रेजी आती है, केप्चा पढ़कर लिख सकता हूँ. कम्प्यूटर है कि हर बार सबूत मांगता है. आपने एक बार सही केप्चा दे दिया, वेरी गुड, अब आप अगला केप्चा दिए जाने तक अपने आपको आदमी मान सकते हैं. कभी ‘आर’ को ‘टी’ पढ़ लिया तो दन्न से केप्चा इनवैलिड. शांतिबाबू तुम आदमी हो कि…., एक छोटी सी भूल और आपके वजूद का नकार.
केप्चा में अंग्रेजी के कटे-फटे हर्फों के बाद अब गणित की भी इंट्री हो गई है. अपन की नानी तो इन्हीं दो विषयों में हमेशा मरती रही. काऊ का ऐसे और लीव एप्लीकेशन रटकर अंग्रेजी में तो जैसे तैसे पास हो लिए मगर गणित में हर साल सप्लिमेंटी आती रही. अब फिर वही दौर लौट आया है. ‘सेवेंटी थ्री माइनस ट्वेंटी थ्री इज इक्वल टू ?’ सही सही बताना पड़ता है वरना वही इनवैलिड शांतिबाबू. भयभीत कि इस नामुराद का क्या भरोसा, किसी दिन पूछ बैठे – गुलाम वंश के आखिरी शासक का नाम क्या था ? शाहजहाँ की तीसरी बेगम कौन थी? उलान बटोर किस देश की राजधानी है? केप्चा क्रेक करने से यूपीएससी क्रेक करना ज्यादा आसन है.
चलिए मान लिया कि आप आदमी हैं मगर आपको शांतिबाबू कैसे मान लें? ओटीपी दीजिए. सारी कायनात आपको शांतिबाबू मान रही है मगर आप ही का खरीदा हुआ कम्पयूटर आपको शांतिबाबू नहीं मान रहा, आप ओटीपी नहीं दे पा रहे. बेईज्जती की इंतेहा तो तब है साहब जब ओला का ड्राईवर आपको बिना ओटीपी के अपने ऑटो में घुसने तक नहीं देता. तांगा याद आता है, न कभी घोड़े ने ओटीपी माँगा न उसके मालिक हाफ़िज़ मियाँ ने.
फिर ‘ओटीपी’ के बारे में तो और क्या ही कहें साहब, नामुराद जनरेट बाद में होता है एक्सपायर पहले. अकसर जब मैं फोन वाईब्रेंट मोड़ में रखकर बॉस की डांट खा रहा होता हूँ तभी बेटर-हॉफ़ को ओटीपी की जरूरत आन पड़ती है. मुआ हर तीस सेकंड्स में एक्सपायर हो जा रहा है. फोन बार-बार वाईब्रेट कर रहा है. बॉस मेरे चेहरे पर उड़ती हवाईयों को समझ पा रहा है और मेरे मज़े लेने के लिए जानबूझ कर मुझे लेट कर रहा है. बॉस की भी एक वाईफ़ है जो घर में उसकी बॉस है. वो भी इन स्थितियों से गुजरता है. कल ही जब वो अपने ऑफिस वाले बॉस की डांट खा रहा था तभी उसकी वाईफ़ भी कार्ड से शॉपिंग कर रही थी. रीसेंड करने पर भी ओटीपी आ ही नहीं रहा था. सूखता गला, पीला पड़ता चेहरा, थर-थर कांपते बॉस, नेटवर्क डिले में अटका हुआ ओटीपी. छह अंको का छोटा सा समुच्चय शरीर से बेहिसाब पसीना बहने का सबब बन सकता है. शायद इन्हीं क्षणों में आदमी को खतरे से आगाह करने के लिए स्मार्ट वॉच में ईसीजी और ब्लड प्रेशर बताने की सुविधा दी गई है.
डायरिया हो जाए तो आदमी कुछ देर प्रेशर रोक सकता है, ओटीपी रोक पाना इम्पॉसिबल है. दुनिया का कोई काम इतना अर्जेंट नहीं है साहब जितना ओटीपी देना. पेट में गुड़गुड़ हो रही है, पतले लगे हैं, सुबह से आप चौथी बार टॉयलेट में हैं, ओटीपी तब भी चला आ रहा है जिसे दिए बगैर आपका असिटेंट सर्वर ऑन कर नहीं कर पा रहा. अजीब सा मंज़र है साहब. मौके की नज़ाकत समझकर मोबाइल आप टॉयलेट में ले गए हैं, वहीं से ओटीपी बता भी रहे हैं. असिटेंट नाक पर रुमाल रखकर अपवित्र ओटीपी लगा रहा है, मगर सर्वर को अपने यूजर्स पर रहम नहीं आ रहा.
बहरहाल, आप ही शांतिबाबू हैं ये आपकी आवाज़, आपके मैनरिज्म और अगले की स्मृति पर निर्भर नहीं करता, आपको एम्ऍफ़ए (मल्टी फेक्टर अथान्टिकेशन) के मराहिलों से गुजरना पड़ता है. पासवर्ड, केप्चा, ओटीपी, फिंगरप्रिंट, फेस स्कैन. आपको एनक्रिप्ट किया जा चुका है और आपको पता भी नहीं चला. तुर्रा ये कि, ये सब आपको सुरक्षित रखने के नाम पर किया जा रहा है. वो दौर चला गया जब बाहर से “मैं हूँ, मुन्नी का पापा” कहना पर्याप्त हुआ करे था. अब अंगूठे की छाप लगानी पड़ती है. तकनालॉजी ने ‘भाई साहब, आपको कहीं देखा है’ जैसे मुहावरे चलन से बाहर कर दिए हैं. मेरी आवाज़ ही अब मेरी पहचान नहीं है.
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है डॉ. संजीव कुमार जी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “ज्योत्स्ना…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 182 ☆
☆ “ज्योत्स्ना” – कवि डॉ. संजीव कुमार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक समीक्षा: “ज्योत्स्ना”
कवि: डॉ. संजीव कुमार
☆ “छायावादी कोमलता” और आधुनिक विषाद का सेतु – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
हिंदी काव्य के मानक सिद्धांतों के आलोक में बहुविध कवि, लेखक, संपादक डॉ संजीव कुमार की कृति ज्योत्स्ना का विश्लेषण संग्रह को हिंदी काव्य परंपरा में “छायावादी कोमलता” और आधुनिक विषाद के सेतु के रूप में स्थापित करता है।
संजीव जी काव्य के मानक सिद्धांतों के अनुशासन में रहकर भी नवीन बिंब तथा भाव अभिव्यक्तियों का सृजन करने में सफल हैं। कविताओं का भाव-पक्ष, रस, ध्वनि एवं भावाभिव्यक्ति की विवेचना करें तो रस सिद्धांत के अनुसार संग्रह की सभी कविताओ में शांत रस, आत्मिक शांति और करुण रस, व्यथा से संचालित उद्गार दिखते हैं। “जीवन दुख की आस भरा” जैसी रचनाओं में वेदना की अभिव्यक्ति है। भारतीय काव्यशास्त्र के अनुरूप ये कविताएं स्थायी भाव, दुःख, विरह प्रतिपादित करती है।
ध्वनि सिद्धांत “मौन व्यथाओं का…” जैसी पंक्तियों में व्यंजना शक्ति द्वारा अप्रकट भाव जैसे आध्यात्मिक अनुसंधान साधे गए हैं, जो पाठक के काव्य गत आनंद को बढ़ाता है।
प्रकृति के माध्यम से भावों का प्रतीकात्मक चित्रण जैसे “स्तब्ध जगत, संध्या श्यामल” भावाभिव्यक्ति अलंकारिक उदाहरण है।
शिल्प-पक्ष, भाषा, छंद एवं अलंकार, मानक हिंदी का स्वरूप, काव्य संरचना की भाषा परिनिष्ठित खड़ी बोली है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्द जैसे ज्योतिर्मय, प्रलय और सरल उर्दू-फारसी शब्द जैसे मखमल, आभास का सामंजस्य युक्त उपयोग किया गया है। यह मानक हिंदी की शुद्धता एवं बोधगम्यता के सिद्धांतों के अनुरूप है।
अधिकांश रचनाएँ मुक्तछंद में हैं, किंतु “पुलक मन…” जैसी कविताओं में गेयता बनाए रखने हेतु लयबद्धता साधी गई है। डॉ. कुमार के “छंद-विन्यास” का कलात्मक प्रभाव है। उपमा “तम की कज्जल छाया… मोम सा” रूपक “जीवन दुख की आस भरा आकुलता का सावन” अनुप्रास “मैं विकल-श्रांत सरि के तट पर“, ये सभी अलंकारशास्त्र के मानकों को पूर्ण करते हैं।
कविताओं की प्रासंगिकता की चर्चा करें तो आधुनिकता एवं सामाजिक संवेदनशीलता आधुनिक जीवन की व्यथा, “अवसाद”, “अकेलापन” जैसे विषय समकालीन मानसिक संघर्षों से जुड़ते हैं, जो डॉ. संजीव कुमार की सामाजिक संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।
आध्यात्मिक समाधान के उद्देश्य, वेदना से मुक्ति हेतु “ज्योत्स्ना” (आत्मज्ञान) की अवधारणा भारतीय दर्शन के मोक्ष सिद्धांत से प्रेरित है। “जग-जीवन हो ज्योतिर्मय” जैसी पंक्तियाँ रचनाकार की आशावादी दृष्टि को प्रतिबिंबित करती हैं।
मानक काव्य सिद्धांतों से विचलन एवं नवीनता भरे प्रयोग, पारंपरिक सीमाओं का अतिक्रमण भी सुंदर तरीके से मिलता है। उदाहरण स्वरूप “तुम छू लो मुझको” जैसी रचनाएँ भक्ति काव्य की परंपरा (सखी-भाव) को आधुनिक प्रेमालाप से जोड़ती कही जा सकती हैं।
मुक्तछंद की प्रधानता क्लासिकल छंदबद्धता से विचलन है, किंतु यह हिंदी काव्य की आधुनिक प्रवृत्ति के अनुसार उचित ही है।
नवीन प्रतीक जैसे “सावन”, “विद्युत”, “मधुमास” जैसे प्रतीक प्रकृति के माध्यम से मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं, जो धूमिल जैसे आधुनिक कवियों की शैली की याद दिलाते हैं।
शक्ति एवं सीमाएँ .. शक्तियाँ, भावों की गहन अनुभूति एवं प्रतीकात्मक संप्रेषणीयता रचनाओं की विशेषता है।
मानक हिंदी के व्याकरणिक नियमों का पालन, किया गया है। जो कविताओं के शिक्षण एवं शोध हेतु उपयुक्त है।
कुछ रचनाओं में अमूर्त भावबोध सामान्य पाठक की पहुँच से दूर है।
विचारों की पुनरावृत्ति देखने भी मिलती है। काव्य वैविध्य को सीमित करती है।
काव्यशास्त्र के प्रतिमानों में “ज्योत्स्ना” की रचनाएं हिंदी काव्य के मानक सिद्धांतों रस, ध्वनि, अलंकार, मानक भाषा का सफल निर्वाह करती है। यह आधुनिक गीतिकाव्य की उत्कृष्ट कृति है, जहाँ वैयक्तिक पीड़ा सार्वभौमिक आध्यात्मिकता में अभिव्यक्तमिलती है। डॉ. कुमार की रचनाएं बहुआयामी साहित्यिक पहचान स्थापित करती हैं।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।
जीवन के कुछ अनमोल क्षण
तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित।
मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी से भेंट करते हुए।
बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए।
आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हाय रे तिलचट्टा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 54 – हाय रे तिलचट्टा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
कभी-कभी जिंदगी कुछ ऐसी घटनाएँ हमारे सिर पर पटक देती है, जैसे कोई छुट्टी की सुबह, बिना अलार्म के उठा दे। घटना छोटी होती है, पर प्रतिक्रिया में पूरी पंचायत बैठ जाती है — जैसे पकोड़े में मिर्च ज्यादा पड़ गई हो। ये कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जहां एक निरीह से तिलचट्टे ने पूरे दफ्तर को वह नचाया जैसे चुनावी मौसम में वादा। चाय की प्याली से उठती भाप जितनी गरम नहीं थी, उतनी गरमी उस तिलचट्टे की फड़फड़ाहट ने फैलाई।
सुबह का समय था, टिफ़िन में पराठे थे, मन में प्रमोशन की आशा थी, और एक साथी की आँखों में किसी की शादी का ख्वाब था — तभी वह आया। नहीं नहीं, कोई अफसर नहीं… एक तिलचट्टा। जैसे ही वो उड़ा और एक महिला कर्मचारी की बाँह पर उतरा, तो लगा जैसे कोई डॉन ने हेलीकॉप्टर से एंट्री मारी हो। “आईईईईईईई…” एक चीख फूटी, ऐसी कि लग रहा था प्रेमचंद की कहानियों का दुख किसी टी-सीरीज़ की बैकग्राउंड स्कोर में बदल गया हो। कॉफी गिरी, बिस्कुट बिखरे, और एक कर्मचारी तो झोंपड़ी समझकर टेबल के नीचे छिप गया।
तिलचट्टा भी शायद चुनावी नेता था। एक बार में एक जगह नहीं रुकता। कूदता रहा — एक कुर्सी से दूसरी कुर्सी, एक मन से दूसरे मन में डर बोता रहा। पूरा ऑफिस रणभूमि बन चुका था। कोई झाड़ू ढूँढ रहा था, कोई वाइपर, और एक सज्जन तो चप्पल उतारकर — “मारो सालो को…!” मगर साहस नाम की चीज़, वही थी जो पेंडिंग फाइल की तरह सबके दिलों में थी — दबा, बुझा और बेसुध।
उसी समय, प्रकट हुए मैनेजर साहब। बाल खिचड़ी, चाल धीमी, और चेहरा ऐसा शांत कि जैसे सब्जी में नमक कम हो फिर भी कहें — “ठीक है।” उन्होंने तिलचट्टे को देखा, जैसे डॉक्टर मरीज की एक्स-रे रिपोर्ट पढ़ता है। फिर बड़े आराम से पेपर कप से उसे फुसला कर उठाया और खिड़की से बाहर उछाल दिया। कमरे में शांति फैल गई — जैसे अचानक फिल्म में बैकग्राउंड म्यूज़िक बंद हो गया हो। लोगों ने राहत की साँस ली, कुछ ने ताली भी बजाई। लेकिन…
…शांति ज्यादा देर टिकती कहाँ है, ख़ासकर उस जगह जहां व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट हों। एक दम आवाज़ उठी — “क्यों फेंका बाहर?” फिर दूसरा स्वर — “बिचारा जीवित था…!” एक और आवाज़ — “उसे पार्क में छोड़ सकते थे, पौधों के बीच, उसकी बस्ती में।” अचानक, जिसे नायक समझा गया था, वो खलनायक बन गया। तिलचट्टे के प्रति सहानुभूति बहने लगी, और मैनेजर पर आरोपों की बौछार। ये वही लोग थे जो पाँच मिनट पहले कुर्सी पर खड़े होकर चिल्ला रहे थे — “मार दो! बचाओ! मेरी चाय गिर गई!”
हमने सुना था कि लोकतंत्र में हर किसी को बोलने का अधिकार है। पर ये किसने कहा था कि हर बात में विरोध का ठेका भी लेना है? ऑफिस की ‘लीडरशिप कमेटी’ एक्टिव हो गई — जिसमें तीन ‘टी पार्टी’ सदस्य, दो ‘दूसरे की टाँग खींचो’ विशेषज्ञ और एक ‘कभी काम ना करने की शपथ’ ले चुका कर्मचारी शामिल थे। मीटिंग हुई — “तिलचट्टा भी तो भगवान की रचना है!” और वही लोग जिन्होंने “चप्पल से मारो इस कीड़े को!” कहा था, अब “जीवन का सम्मान करना चाहिए!” के पोस्टर बना रहे थे।
बात मैनेजर के ‘रवैये’ पर आई। “बहुत रूखे हैं,” “संवेदनशील नहीं,” “हमारे ऑफिस का माहौल बहुत टॉक्सिक हो गया है।” एक ‘सेंसिटिव बॉस’ चाहिए — ऐसा जो पहले तिलचट्टे से पूछे कि “तुम्हें कोई समस्या है?” फिर उसे कॉफी ऑफर करे, उसकी काउंसलिंग कराए, और फिर उसे हंसते-हंसते बाहर भेजे। मैनेजर साहब को मेमो मिला, “आपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई।” अगली मीटिंग में तय हुआ — अगली बार तिलचट्टा आए, तो एक ‘इन्क्लूसिव स्पेस’ बनाया जाएगा — जिसमें वो “कम्फर्टेबल” महसूस करे।
दफ्तर में एक दीवार पर पोस्टर लगाया गया — “हर जीवन है अनमोल। फिर चाहे वह तिलचट्टे का ही क्यों न हो” और नीचे छोटा सा कैप्शन: “आचार से नहीं विचार से काम लें” पोस्टर के नीचे वही लोग सेल्फी ले रहे थे जो दो दिन पहले तिलचट्टे के खात्मे पर ‘थैंक यू मैनेजर सर’ वाला स्टेटस डाले थे। और मैनेजर? वही पुराने डेस्क पर बैठे, ग्रीन टी पीते, किसी इनकम टैक्स फाइल को घूरते रहे — जैसे उसमें भी कोई कॉकरोच छुपा हो।
असल में तिलचट्टा कभी समस्या नहीं था। समस्या तो इंसानी दिमाग है — जो डरते वक्त चिल्लाता है, और सुरक्षित होने पर इल्ज़ाम लगाता है। आदमी को राहत चाहिए, लेकिन उसका तरीका नहीं पसंद। सब चाहते हैं कोई आगे बढ़े, लेकिन जैसे ही कोई बढ़ता है, सबकी उँगली उसी की पीठ पर होती है — “तू क्यों बढ़ा?” और नेतृत्व का बोझ वही समझ सकता है, जिसने कभी सच्चे मन से झाड़ू पकड़ी हो।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उम्मीद जाग्रत रखें…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
संसार रूपी बगिया में फूलों की तरह खिलना, महकना और मुस्कुराहट बिखेरने आना चाहिए। जो हो रहा है उसे स्वीकार कर आगे बढ़ते जाना, कदम से कदम मिलाते हुए जो भी निरंतर चला है उसे न केवल अपनों का साथ मिला है वरन प्रकृति ने भी उसके लिए अपने दोनों हाथ खोल दिये हैं। कहते हैं जो सोचो वो मिलेगा, बस सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ ऊर्जान्वित रहिए। यही सब तो आस्था, संस्कार, श्रद्धा, विश्वास व संस्कृति सिखाती है। बस मनोबल कम नहीं होना चाहिए। उम्मीद की डोर थामे अच्छा सोचें अच्छा करें।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 ₹51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “नियति ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 215 ☆
☆ लघुकथा – नियति ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
” सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,” बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।
” हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथ पैर सही हो जाए।”
बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में… । “
“हां हां, जानता हूं अंकल,” कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा! तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”
यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”
” वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,” कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें ( बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य ) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन।लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित बारह दर्जन से अधिक राजकीय प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र-“नव्या जागी रुजू व्हाल तेव्हा शेगावला जाऊन महाराजांचे आशीर्वाद घेऊन मगच रुजू व्हा. सगळं छान होईल. ” काकू म्हणाल्या.
मीही हेच ठरवलं होतं. काकूंच्या तोंडून जणूकांही गजानन महाराजच ‘तथास्तु’ म्हणालेत असं वाटलं आणि मी निश्चिंत झालो!
पण हे वाटतं तेवढं सोपं नसून या नंतर येणारा प्रत्येक क्षण माझी कसोटी पहाणारा ठरणार आहे याची पुसटशीही कल्पना मला नव्हती!)
काकूंचा निरोप घेऊन मी बाहेर पडलो. बोलाफुलाला गांठ पडावी तसं त्याच संध्याकाळी मला रिलीव्ह व्हावं लागलं. सामानाची बांधाबांध, रात्रीच्या प्रायव्हेट लक्झरी स्लीपिंग कोचचं रिझर्वेशन हे व्याप होतेच.. पण सर्व स्टाफ मेंबर्सच्या आपुलकीच्या सहकार्यामुळे सगळं सुरळीत पार पडलं. अकोला ब्रँचचा चार्ज ज्या परिस्थितीत मला घ्यावा लागणार होता याचा विचार केला तर तिथं काय वाढून ठेवलं असेल याच विचाराने मी एरवी अस्वस्थ झालो असतो. पण आश्चर्य म्हणजे रात्रभर मनात या कशाचंच दडपण नव्हतं. उद्या अकोल्याला पोचल्यानंतर तातडीने चांगल्या लॉजचा शोध घेऊन, सकाळी ब्रॅंचला रिपोर्ट करण्यापूर्वी शेगावला जाणं कसं जमवायचं याचेच विचार मनात होते. मी अकोल्याला बसमधून उतरलो तेव्हा पहाटेचे चार वाजले होते. तो गुरुवार असणं हा मला एक शुभशकूनच वाटला. मनानं उभारी धरली तरी आदल्या संपूर्ण दिवसभराची दगदग आणि रात्रभराच्या प्रवासातलं जागरण यामुळे शांत झोप नव्हतीच. सगळं शरीर ठणकत होतं. पण आता झोपून चालणार नव्हतं. मी वेळ न दवडता रिक्षा करून स्टॅंडपासून जवळचंच एक लॉज गाठलं, तेव्हा पहाटेचे सव्वा चार वाजले होते.
“इथून शेगावला पहिली बस कधी आहे? ” चेकइनच्या फॉर्मॅलिटीज सुरू असतानाच मी रिसेप्शनला विचारलं.
“आत्ता पाच वाजता. नंतर साधारण दीड दोन तासांच्या अंतरानं. “
‘आता आराम करायच्या मोहात पडायचं नाही. कांहीही झालं तरी पाचची बस चुकवायची नाही.. ‘ मी स्वतःलाच बजावलं आणि…. ,
“रूमवर गरम चहा पाठवून द्या लगेच आणि गरम पाणी असेलच ना आंघोळीसाठी? ” मी विचारलं.
किमान या दोन साध्या गोष्टी माझ्यासाठी त्या क्षणी तरी अत्यावश्यकच होत्या.
“कॅन्टीन सहाला सुरू होईल साहेब.. आणि गरम पाणी सात नंतर. “
यावर बोलण्यासारखं काही नव्हतंच. नाईलाजाने मी रूम गाठली. पाय धुऊन कपडे बदलले. तातडीनं शेगावच्या बससाठी बाहेर पडणं आवश्यक होतं आणि माझं थकलेलं शरीर तर अंथरुणाला पाठ टेकायला आसुसलेलं होतं! ही बस चुकली तर सगळं वेळापत्रकच विस्कळीत होणार होतं पण त्याला आता नाईलाज होता. कारण आंघोळ न करता शेगावला जाणं योग्य वाटेना. अखेर आता तातडीने शेगावसाठी निघणं शक्य नाही हे मी मनाविरुद्ध स्वीकारलं आणि अंथरुणाला पाठ टेकली. तो एकच क्षण आणि त्यानेच जादूची कांडी फिरवावी तसं झालं! सहजच माझं लक्ष समोरच्या भिंतीकडे गेलं आणि समोर जे पाहिलं त्या दृश्यानेच गारूड केलं. मी भान हरपून पहातच राहिलो! त्या संपूर्ण भिंतीवर गजानन महाराजांचं खूप मोठ्ठं अतिशय जिवंत असं चित्र रंगवलेलं होतं! त्यांच्या मिष्कील हसऱ्या नजरेने ते माझ्याकडेच पहात असल्याचा भास मला झाला न् मी ताडकन् उठून बसलो. घड्याळ पाहिलं. साडेचार वाजून गेले होते. बॅग उचकटून मी घाईघाईने टॉवेल /कपडे घेऊन बाथरूमकडे धावलो. गार पाण्याचे चार तांबे अंगावर घेऊन आंघोळ उरकली. तेवढ्यानंही प्रवासाचा शीण निघून गेल्यासारखं मन प्रसन्न झालं. घाईघाईने कपडे बदलून, सॅक घेऊन बाहेर धावलो. रिसेप्शनजवळ किल्ली दिली आणि गडबडीने बाहेर पडलो. जवळपास रिक्षा दिसत नव्हती आणि रिक्षासाठी थांबायला माझ्याकडे वेळ नव्हता. स्टॅन्ड जवळ आहे हा अंदाज होताच. मी क्षणाचाही विलंब न लावता स्टॅंडच्या दिशेने धाव घेतली तेव्हा पावणेपाच वाजून गेलेले होते. स्टॅण्ड जवळ जाताच त्याक्षणीच्या अनिश्चित परिस्थितीत धीर न सोडता निकराचा एक शेवटचा प्रयत्न म्हणून थेट स्टॅंडवर जाऊन चौकशी करून प्लॅटफॉर्म शोधण्यात वेळ न घालवता मी बसेस् बाहेर पडतात तिथून आत जायचा निर्णय घेतला. त्या दिशेने धावत फारतर दोन-चार पावलेही गेलो नसेन तेवढ्यांत समोरून एक बस बाहेर पडताना दिसली. प्रयत्न करूनही अंधारात बस वरचा बोर्ड दिसत नव्हता. पुढे झेपावत हात हलवून मी बस थांबवायचा केविलवाणा प्रयत्न केला. बस थांबली. कंडक्टरने दार उघडलं. बस कुठं जाणाराय याची चौकशी केली. आश्चर्य म्हणजे ती शेगावला जाणारीच बस होती. मी गडबडीने बसमधे चढलो न् पाहिलं तर बस पूर्ण रिकामी होती. बसमधे फक्त कंडक्टर. जणू खास माझ्यासाठीच ती बस सोडलेली असावी तसा मी एकटाच प्रवासी आहे हे लक्षांत येताक्षणी मनाला स्पर्शून गेलेलं अतीव समाधान तोवरच्या धावपळीचा सगळा शीण नाहीसा करणारं होतं! !
आजवरच्या असंख्य प्रवासांमधला तो प्रवास मी कधीच विसरू शकणार नाही. तो प्रवास फक्त शेगावचा नव्हता. कारण मी थेट महाराजांपर्यंत जाऊन पोचल्याचा आभास निर्माण व्हावा असे अनेक अनुभव पुढे अकोल्याच्या माझ्या त्या अल्प वास्तव्यात मला आले. अकोल्यातलं जेमतेम सहा महिन्यांचं माझं वास्तव्य. या दरम्यान दर पौर्णिमेला शेगावला दर्शनाला जाण्याचे योग सहज जुळून येत असत. शेगावहून मुद्दाम आणलेली गजानन महाराजांची पोथी मी याच अल्पवास्तव्यात सर्वप्रथम वाचली, तेव्हा.. ‘ तू स्वतःच ती पोथी एकदा वाच म्हणजे तुझं तुलाच समजेल हे गजानन महाराज कोण ते.. ‘ हे माझ्या ताईचे शब्द शब्दश: खरे झाल्याची मनाला स्पर्शून गेलेली अनुभूति मला अनेक अर्थाने समृध्द करणारी होती! माझ्या अंतर्मनातला तो आणि गजानन महाराजांसारख्यांचं अवतारी रूप यांच्यामधलं अद्वैत मला लख्खपणे जाणवलं ते ही पोथी वाचल्यानंतरच!
‘आपल्या घरी चालत आलेला दत्तसेवेचा राजमार्ग सोडून ताई ही पोथी कां वाचते? ‘ या त्यावेळी केवळ अज्ञान आणि अहंकारातून माझ्या मनात निर्माण झालेल्या प्रश्नाचं उत्तर ही पोथी वाचूनच मला मिळालं! किंबहुना माझ्या मनातल्या तेव्हाच्या त्या प्रश्नातली निरर्थकताही मला नेमकी जाणवली. जसा कांही तो प्रश्न मी महाराजांनाच विचारला असल्यासारखं त्या प्रश्नाचं नेमकं उत्तर महाराजांनी १९ व्या अध्यायात मला दिलं असल्याचं प्रथम वाचनातच माझ्या लक्षात आलं. या अध्यायात श्री वासुदेवानंद सरस्वती टेंबे स्वामी आपल्याला भेटायला येणार असल्याचा संकेत गजानन महाराजांना मिळतो तेव्हा गजानन महाराज त्यांच्या सेवेकऱ्याला यांची पूर्वकल्पना देताना म्हणतात, ” अरे बाळा, उदयिक माझा बंधू येतो देख मज साठी भेटण्या, त्याचा आदर करावा l” ती भेट कशी तर फक्त कांही सेकंदांची! ‘एकमेकांसी पहाता, दोघे हसले तत्वता l हर्ष उभयतांच्या चित्ता, झाला होता अनिवार ll ‘ असं नेमक्या शब्दातलं त्यांच्या भेटीचे वर्णन!
ही नजर भेट होताच एकमेकांकडे पाहून स्मितहास्य आणि.. ” बंधो, आम्ही निघतो.. ” असे टेंबे स्वामी महाराजांचे अनुमती मागणारे मोजके शब्द आणि त्यानंतर गजानन महाराजांनी होकारार्थी मान हलवताच त्यांचे निघून जाणे… सगळंच अतर्क्य! श्री गजानन महाराज आणि टेंबे स्वामी महाराज दोघेही समकालीन आणि दोघांचेही नियत कार्य पूर्ण होताच त्यांची झालेली अवतार समाप्ती! या अवतारी पुरूषांच्या अवतारकार्याचे प्रयोजन आणि नियोजन या दोन्हींमागचं गूढ म्हटलं तर अनाकलनीय पण तरीही सहजसोपंसुध्दा! आता हेच पहा ना. श्री. टेंबे स्वामी अतिशय कर्मठ आणि गजानन महाराज अतिशय साधे, सोवळ्या-ओवळ्याचा कसलाच विधिनिषेध न बाळगणारे… आणि तरीही त्या दोघांमधे हे सख्य आणि हे अद्वैत कसं? हाच प्रश्न त्यांच्या सेवेकऱ्याच्या मनात निर्माण झाल्याचे जाणवताच त्या शंकेचे निरसन करताना कर्म, भक्ती आणि योग या परमेश्वरापाशी नेणाऱ्या तीनही वाटांचं गजानन महाराजांनी केलेले नेमकं निरूपण मुळातूनच वाचावं असंच आहे. माझ्या अंतर्मनातल्या ‘ तो’ चं खरं स्वरूप मला लख्खपणे जाणवलं म्हटलं ना ते हे सगळं समजून घेतल्यानंतरच, हे मला आवर्जून सांगावंसं वाटतं!
“नव्या जागी रुजू व्हाल तेव्हा शेगावला जाऊन महाराजांचे दर्शन घ्या आणि मगच रूजू व्हा. सगळं छान होईल” असं काकू मला म्हणाल्या होत्या. मीही तेच ठरवलं होतं. म्हणूनच काकूंच्या तोंडून गजानन महाराजच ‘तथास्तु’ म्हणालेत असंच मला वाटलं होतं. यातल्या ‘सगळं छान होईल’ म्हणजे नेमकं काय आणि कसं याचा प्रत्यय, कलियुगातला एखादा चमत्कार घडावा तसाच माझ्या अकोल्यातील वास्तव्यात लवकरच मला अगदी अकल्पितपणे येणार होता, पण त्याबाबतीत मी स्वत: मात्र तेव्हा अनभिज्ञच होतो! !
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “निशाने पर सभी हैं…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #282 ☆
☆ निशाने पर सभी हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लंबे दिन”।)
जय प्रकाश के नवगीत # 106 ☆ लंबे दिन ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆