हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #279 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 279 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #52 – नवगीत – कटी शाख है बरगद की… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतकटी शाख है बरगद की

? रचना संसार # 52 – गीत – कटी शाख है बरगद की…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पूछ रहा उर बना शिला,

कब आयेंगे राम।

फिर दें तार अहिल्या सा,

नित्य जपूँ मैं नाम।।

मुरझाती घर की बगिया,

शूल बिछे हैं राह।

रिश्ते तुलते पैसों से,

निकले उर से आह।।

मुँहजोर हुए सब अपने,

बिक जाते बेदाम।

 *

कटी शाख है बरगद की,

रोता शीशम आज।

छाया को पंछी तरसें,

सिर बबूल के ताज।।

चोटिल है फूल चमेली,

पथिक झेलते घाम।

 *

शोषण बच्चों का होता,

सूखे नद तालाब।

लाखों बंधन समाज के,

मुख पर लगा नकाब।।

रोती है घर की तुलसी,

जाना है प्रभु-धाम।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #279 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 279 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

लगा रखी हैं बंदिशें, कैसे भरूँ उड़ान।

मन तो काबू में रहा, हुई नहीं  हैरान।।

 *

आँसू निकले सोच में, सुमिर मुझे वह रात।

प्रेम किया था आपसे, प्यारी  मीठी बात।।

 *

बदल रही सब सोचना, पढ़ने में है ध्यान।

तोड़ी सारी बंदिशे, ऊँची उड़ी उड़ान।

 *

रखी नहीं हैं बंदिशे, डरे नहीं इंसान।

नर-नारी सब एक हैं, अपनी शुभ पहचान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #261 ☆ संतोष के दोहे – इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – इंसानियत आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 261 ☆

संतोष के दोहे इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज लापता हो रहा, मानवता का धर्म

यहाँ धर्म के नाम पर, खूब करें दुष्कर्म

*

कौन धर्म सिखला रहा, दंगे और फसाद

निर्दोषों को मारकर, चाहें हों आबाद

*

लूट-खसोट अरु उपद्रव, जिन्हें लगे आसान

जिनकी है यह संस्कृति, वही करें नुकसान

*

ममता की ममता गई, और गया ईमान

है सत्ता की भूख बस, भूल गई इंसान

*

न्यायालय लेता नहीं, स्वयं आज संज्ञान

बे गुनाह मारे गए, जागो अब श्रीमान

*

राजनीति हर बात पर, नेता करते आज

सच को सच कहते नहीं, झूठ करे पर राज

*

हे मालिक सुन ले जरा, जन-जन की यह पीर

प्रभु ऐसा कुछ कीजिए, संकट है गंभीर

*

मरी यहाँ इंसानियत, है जाग्रत शैतान

बनें धर्म के नाम पर, हिंसक क्यों इंसान

*

भाई को चारा समझ, ग्रास बनायें आज

ऐसे मुश्किल दौर में, कैसे जुड़े समाज

*

समरसता सौहार्द बिन, बढ़ता जन आक्रोश

सुख-शांति संतोष तब, खड़े रहें खामोश

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ दिसलीस तू फुलले ऋतू.… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “दिसलीस तू फुलले ऋतू…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

भावना त्यालाच कळतात ज्याला त्याची जाणीव असते.

तारुण्याच्या त्या टप्प्यावर तुझं माझ्या आयुष्यात येणं.. हा खरोखरच नियतीचा योगायोग होता… पहिल्या नजर भेटीतच कलिजा खलास झाला होता… कळले नाही कधी मी नजरकैदेत बंदिस्त कसा झालो… हरवले भान स्व:ताचे…. जगणेच विसरून गेलो… बस्स तोच एक क्षण आला नसता आयुष्यात तेव्हा! .. असे त्या भेटीनंतर कैकदा वाटून गेले… मिळणार नाही साथ तिची हेही तेव्हाच कळून चुकले.. सौंदर्यवतीचे चाहते लाखो असले, तरी भाग्यवान तो एकच असतो… पण पण जुनी ओळख ती कुठे तरी हृदयाच्या कप्यात दडून राहीली होती तिच्याही नि माझ्याही.. पुन्हा कधीच न उचंबळून न येणारी… ताटातूट ठरलेली घडलीच काही क्षणातच… अन दोन वळून वळून बघणारे चेहरे काही अनामिक भावनांचे कंगोरे घेऊन समोरून निघून गेले.. दोन ओंडक्यांची पुन्हा कधीच घडणार नसते गाठभेट हे ही तितकेच सत्य असते… अबोल नि असफल प्रीतीच्या वेलीचे सलणारे काटे… मनाला घायाळ करतात.. समजूत घालता घालता मनं थकून जातं.. काळाचं औषध विरहाचं दु:ख विसरायला लावतो… आणि दुसऱ्या प्रेमाच्या तडजोडीने मनाची तगमग दूर करायची मदत घेतो… आता सारं काही आलबेल नि आनंदाच्या लहरीवर जीवनाचे तरंग तुषार उधळण करत जात असतं… आणि आणि एक दिवस नियतीला पुन्हा खोडसाळपणा करण्याची हुक्की येते…

ध्यानीमनी नसताना एक दिवस सकाळी मार्निंग वाॅकला बागेत असताना तिचे माझ्या सामोरी येणे… अगदी तसेच पहिल्या त्या भेटीसारखे… नजरेला नजर मिळताना… ओळख आहे का? असा निशब्द प्रश्न त्यातून विचारला जाताना.. डोळेच ते एकमेकांना भिडल्या भिडल्या अनेक गोष्टी नजरेने नजरेला नजर करूनही गेले… शब्दांची वाट न पाहता… काही क्षणातच आम्ही दोघं एकमेकांच्या समोरूनच गेलो… आणि गुंतलेले हट्टी मन ओढून घेण्यासाठी पुन्हा पुन्हा मागे वळून पाहताना मात्र मनाची चलबिचल वाढवत गेले… ती जुनी ओळख कुठे तरी हृदयाच्या कप्यात दडून बसलेली, तिच्याही नि माझ्याही.. पुन्हा एकदा उचंबळून येते… तेही क्षणैक ठरते… आता देहाचं तारूण्य ओसरून कधीच गेलेलं असतं, वार्धक्याची रूपेरी देहावर पसरलेली असते… तरीही अजूनही मनात कोवळे तृणांकूर उमलू पाहतात… आम्ही एकमेकांना पाहिलेलं असतं तेव्हा… भावभावनांची खळबळ उरात उठते.. अजूनही आपण तुला विसरलेलो नाही हेच नजरेतून सांगणे असते… काही गोष्टींमुळे आपण एकत्र जरी आलो नाही, आणि कितीही दूर दूर अंतरावर आपण असलो तरीही मनातल्या प्रेमरज्जूने आपण एकमेकांशी कायमचे बांधले गेलो आहोत… हे ही नसे थोडके… होय ना! …

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –nandkumarpwader@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 51 ☆ व्यंग्य – “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” ।)

☆ शेष कुशल # 50 ☆

☆ व्यंग्य – “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है… – शांतिलाल जैन 

गुलज़ार के लिखे गाने की पंक्ति में छेड़छाड़ करने का अपन का कोई इरादा नहीं है, मगर सच तो यही है साहब कि एक आदमी के तौर पर हम अपनी पहचान साबित करने के तौर-तरीके खोते जा रहे हैं. ये केप्चा तय करेगा कि आप आदमी ही हैं. कम्प्यूटर स्क्रीन पर आड़े तिरछे कटे फटे अंग्रेजी अक्षरों को जस का तस लिखकर बताना पड़ता है – ‘जी हाँ, मैं होमो सेपियन ही हूँ’. मैं अब तक सैकड़ों बार बता चुका हूँ कि मैं एक इंसान हूँ, मानव हूँ, हाड़-मांस का पुतला हूँ, थोड़ी सी बुद्धि भी रखता हूँ, अक्षर ज्ञान जितनी अंग्रेजी आती है, केप्चा पढ़कर लिख सकता हूँ. कम्प्यूटर है कि हर बार सबूत मांगता है. आपने एक बार सही केप्चा दे दिया, वेरी गुड, अब आप अगला केप्चा दिए जाने तक अपने आपको आदमी मान सकते हैं. कभी ‘आर’ को ‘टी’ पढ़ लिया तो दन्न से केप्चा इनवैलिड. शांतिबाबू तुम आदमी हो कि…., एक छोटी सी भूल और आपके वजूद का नकार.

केप्चा में अंग्रेजी के कटे-फटे हर्फों के बाद अब गणित की भी इंट्री हो गई है. अपन की नानी तो इन्हीं दो विषयों में हमेशा मरती रही. काऊ का ऐसे और लीव एप्लीकेशन रटकर अंग्रेजी में तो जैसे तैसे पास हो लिए मगर गणित में हर साल सप्लिमेंटी आती रही. अब फिर वही दौर लौट आया है. ‘सेवेंटी थ्री माइनस ट्वेंटी थ्री इज इक्वल टू ?’ सही सही बताना पड़ता है वरना वही इनवैलिड शांतिबाबू.  भयभीत कि इस नामुराद का क्या भरोसा, किसी दिन पूछ बैठे – गुलाम वंश के आखिरी शासक का नाम क्या था ? शाहजहाँ की तीसरी बेगम कौन थी? उलान बटोर किस देश की राजधानी है? केप्चा क्रेक करने से यूपीएससी क्रेक करना ज्यादा आसन है.

चलिए मान लिया कि आप आदमी हैं मगर आपको शांतिबाबू कैसे मान लें? ओटीपी दीजिए. सारी कायनात आपको शांतिबाबू मान रही है मगर आप ही का खरीदा हुआ कम्पयूटर आपको शांतिबाबू नहीं मान रहा, आप ओटीपी नहीं दे पा रहे. बेईज्जती की इंतेहा तो तब है साहब जब  ओला का ड्राईवर आपको बिना ओटीपी के अपने ऑटो में घुसने तक नहीं देता. तांगा याद आता है, न कभी घोड़े ने ओटीपी माँगा न उसके मालिक हाफ़िज़ मियाँ ने.

फिर ‘ओटीपी’ के बारे में तो और क्या ही कहें साहब, नामुराद जनरेट बाद में होता है एक्सपायर पहले. अकसर जब मैं फोन वाईब्रेंट मोड़ में रखकर बॉस की डांट खा रहा होता हूँ तभी बेटर-हॉफ़ को ओटीपी की जरूरत आन पड़ती है. मुआ हर तीस सेकंड्स में एक्सपायर हो जा रहा है. फोन बार-बार वाईब्रेट कर रहा है. बॉस मेरे चेहरे पर उड़ती हवाईयों को समझ पा रहा है और मेरे मज़े लेने के लिए जानबूझ कर मुझे लेट कर रहा है. बॉस की भी एक वाईफ़ है जो घर में उसकी बॉस है. वो भी इन स्थितियों से गुजरता है. कल ही जब वो अपने ऑफिस वाले बॉस की डांट खा रहा था तभी उसकी वाईफ़ भी कार्ड से शॉपिंग कर रही थी. रीसेंड करने पर भी ओटीपी आ ही नहीं रहा था. सूखता गला, पीला पड़ता चेहरा, थर-थर कांपते बॉस, नेटवर्क डिले में अटका हुआ ओटीपी. छह अंको का छोटा सा समुच्चय शरीर से बेहिसाब पसीना बहने का सबब बन सकता है. शायद इन्हीं क्षणों में आदमी को खतरे से आगाह करने के लिए स्मार्ट वॉच में ईसीजी और ब्लड प्रेशर बताने की सुविधा दी गई है.

डायरिया हो जाए तो आदमी कुछ देर प्रेशर रोक सकता है, ओटीपी रोक पाना इम्पॉसिबल है. दुनिया का कोई काम इतना अर्जेंट नहीं है साहब जितना ओटीपी देना. पेट में गुड़गुड़ हो रही है, पतले लगे हैं, सुबह से आप चौथी बार टॉयलेट में हैं, ओटीपी तब भी चला आ रहा है जिसे दिए बगैर आपका असिटेंट सर्वर ऑन कर नहीं कर पा रहा. अजीब सा मंज़र है साहब. मौके की नज़ाकत समझकर मोबाइल आप टॉयलेट में ले गए हैं, वहीं से ओटीपी बता भी रहे हैं. असिटेंट नाक पर रुमाल रखकर अपवित्र ओटीपी लगा रहा है, मगर सर्वर को अपने यूजर्स पर रहम नहीं आ रहा. 

बहरहाल, आप ही शांतिबाबू हैं ये आपकी आवाज़, आपके मैनरिज्म और अगले की स्मृति पर निर्भर नहीं करता, आपको एम्ऍफ़ए (मल्टी फेक्टर अथान्टिकेशन) के मराहिलों से गुजरना पड़ता है. पासवर्ड, केप्चा, ओटीपी, फिंगरप्रिंट, फेस स्कैन. आपको एनक्रिप्ट किया जा चुका है और आपको पता भी नहीं चला. तुर्रा ये कि, ये सब आपको सुरक्षित रखने के नाम पर किया जा रहा है. वो दौर चला गया जब बाहर से “मैं हूँ, मुन्नी का पापा” कहना पर्याप्त हुआ करे था. अब अंगूठे की छाप लगानी पड़ती है. तकनालॉजी ने ‘भाई साहब, आपको कहीं देखा है’ जैसे मुहावरे चलन से बाहर कर दिए हैं. मेरी आवाज़ ही अब मेरी पहचान नहीं है.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 184 ☆ “ज्योत्स्ना” – कवि डॉ. संजीव कुमार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. संजीव कुमार जी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “ज्योत्स्नापर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 182 ☆

☆ “ज्योत्स्ना” – कवि डॉ. संजीव कुमार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक समीक्षा: “ज्योत्स्ना”

कवि: डॉ. संजीव कुमार

☆ “छायावादी कोमलता” और आधुनिक विषाद का सेतु – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

हिंदी काव्य के मानक सिद्धांतों के आलोक में बहुविध कवि, लेखक, संपादक डॉ संजीव कुमार की कृति ज्योत्स्ना का विश्लेषण संग्रह को हिंदी काव्य परंपरा में “छायावादी कोमलता” और आधुनिक विषाद के सेतु के रूप में स्थापित करता है।

संजीव जी काव्य के मानक सिद्धांतों के अनुशासन में रहकर भी नवीन बिंब तथा भाव अभिव्यक्तियों का सृजन करने में सफल हैं। कविताओं का भाव-पक्ष, रस, ध्वनि एवं भावाभिव्यक्ति की विवेचना करें तो रस सिद्धांत के अनुसार संग्रह की सभी कविताओ में शांत रस, आत्मिक शांति और करुण रस, व्यथा से संचालित उद्गार दिखते हैं। “जीवन दुख की आस भरा” जैसी रचनाओं में वेदना की अभिव्यक्ति है। भारतीय काव्यशास्त्र के अनुरूप ये कविताएं स्थायी भाव, दुःख, विरह प्रतिपादित करती है।

ध्वनि सिद्धांत “मौन व्यथाओं का…” जैसी पंक्तियों में व्यंजना शक्ति द्वारा अप्रकट भाव जैसे आध्यात्मिक अनुसंधान साधे गए हैं, जो पाठक के काव्य गत आनंद को बढ़ाता है।

प्रकृति के माध्यम से भावों का प्रतीकात्मक चित्रण जैसे “स्तब्ध जगत, संध्या श्यामल” भावाभिव्यक्ति अलंकारिक उदाहरण है।

शिल्प-पक्ष, भाषा, छंद एवं अलंकार, मानक हिंदी का स्वरूप, काव्य संरचना की भाषा परिनिष्ठित खड़ी बोली है, जिसमें संस्कृत के तत्सम शब्द जैसे ज्योतिर्मय, प्रलय और सरल उर्दू-फारसी शब्द जैसे मखमल, आभास का सामंजस्य युक्त उपयोग किया गया है। यह मानक हिंदी की शुद्धता एवं बोधगम्यता के सिद्धांतों के अनुरूप है।

अधिकांश रचनाएँ मुक्तछंद में हैं, किंतु “पुलक मन…” जैसी कविताओं में गेयता बनाए रखने हेतु लयबद्धता साधी गई है। डॉ. कुमार के “छंद-विन्यास” का कलात्मक प्रभाव है। उपमा “तम की कज्जल छाया… मोम सा” रूपक “जीवन दुख की आस भरा आकुलता का सावन” अनुप्रास “मैं विकल-श्रांत सरि के तट पर“, ये सभी अलंकारशास्त्र के मानकों को पूर्ण करते हैं।

कविताओं की प्रासंगिकता की चर्चा करें तो आधुनिकता एवं सामाजिक संवेदनशीलता आधुनिक जीवन की व्यथा, “अवसाद”, “अकेलापन” जैसे विषय समकालीन मानसिक संघर्षों से जुड़ते हैं, जो डॉ. संजीव कुमार की सामाजिक संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।

आध्यात्मिक समाधान के उद्देश्य, वेदना से मुक्ति हेतु “ज्योत्स्ना” (आत्मज्ञान) की अवधारणा भारतीय दर्शन के मोक्ष सिद्धांत से प्रेरित है। “जग-जीवन हो ज्योतिर्मय” जैसी पंक्तियाँ रचनाकार की आशावादी दृष्टि को प्रतिबिंबित करती हैं।

मानक काव्य सिद्धांतों से विचलन एवं नवीनता भरे प्रयोग, पारंपरिक सीमाओं का अतिक्रमण भी सुंदर तरीके से मिलता है। उदाहरण स्वरूप “तुम छू लो मुझको” जैसी रचनाएँ भक्ति काव्य की परंपरा (सखी-भाव) को आधुनिक प्रेमालाप से जोड़ती कही जा सकती हैं।

 मुक्तछंद की प्रधानता क्लासिकल छंदबद्धता से विचलन है, किंतु यह हिंदी काव्य की आधुनिक प्रवृत्ति के अनुसार उचित ही है।

नवीन प्रतीक जैसे “सावन”, “विद्युत”, “मधुमास” जैसे प्रतीक प्रकृति के माध्यम से मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति करते हैं, जो धूमिल जैसे आधुनिक कवियों की शैली की याद दिलाते हैं।

शक्ति एवं सीमाएँ .. शक्तियाँ, भावों की गहन अनुभूति एवं प्रतीकात्मक संप्रेषणीयता रचनाओं की विशेषता है।

मानक हिंदी के व्याकरणिक नियमों का पालन, किया गया है। जो कविताओं के शिक्षण एवं शोध हेतु उपयुक्त है।

 कुछ रचनाओं में अमूर्त भावबोध सामान्य पाठक की पहुँच से दूर है।

विचारों की पुनरावृत्ति देखने भी मिलती है। काव्य वैविध्य को सीमित करती है।

काव्यशास्त्र के प्रतिमानों में “ज्योत्स्ना” की रचनाएं हिंदी काव्य के मानक सिद्धांतों रस, ध्वनि, अलंकार, मानक भाषा का सफल निर्वाह करती है। यह आधुनिक गीतिकाव्य की उत्कृष्ट कृति है, जहाँ वैयक्तिक पीड़ा सार्वभौमिक आध्यात्मिकता में अभिव्यक्तमिलती है। डॉ. कुमार की रचनाएं बहुआयामी साहित्यिक पहचान स्थापित करती हैं।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 54 – हाय रे तिलचट्टा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हाय रे तिलचट्टा)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 54 – हाय रे तिलचट्टा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कभी-कभी जिंदगी कुछ ऐसी घटनाएँ हमारे सिर पर पटक देती है, जैसे कोई छुट्टी की सुबह, बिना अलार्म के उठा दे। घटना छोटी होती है, पर प्रतिक्रिया में पूरी पंचायत बैठ जाती है — जैसे पकोड़े में मिर्च ज्यादा पड़ गई हो। ये कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जहां एक निरीह से तिलचट्टे ने पूरे दफ्तर को वह नचाया जैसे चुनावी मौसम में वादा। चाय की प्याली से उठती भाप जितनी गरम नहीं थी, उतनी गरमी उस तिलचट्टे की फड़फड़ाहट ने फैलाई।

सुबह का समय था, टिफ़िन में पराठे थे, मन में प्रमोशन की आशा थी, और एक साथी की आँखों में किसी की शादी का ख्वाब था — तभी वह आया। नहीं नहीं, कोई अफसर नहीं… एक तिलचट्टा। जैसे ही वो उड़ा और एक महिला कर्मचारी की बाँह पर उतरा, तो लगा जैसे कोई डॉन ने हेलीकॉप्टर से एंट्री मारी हो। “आईईईईईईई…” एक चीख फूटी, ऐसी कि लग रहा था प्रेमचंद की कहानियों का दुख किसी टी-सीरीज़ की बैकग्राउंड स्कोर में बदल गया हो। कॉफी गिरी, बिस्कुट बिखरे, और एक कर्मचारी तो झोंपड़ी समझकर टेबल के नीचे छिप गया।

तिलचट्टा भी शायद चुनावी नेता था। एक बार में एक जगह नहीं रुकता। कूदता रहा — एक कुर्सी से दूसरी कुर्सी, एक मन से दूसरे मन में डर बोता रहा। पूरा ऑफिस रणभूमि बन चुका था। कोई झाड़ू ढूँढ रहा था, कोई वाइपर, और एक सज्जन तो चप्पल उतारकर  — “मारो सालो को…!” मगर साहस नाम की चीज़, वही थी जो पेंडिंग फाइल की तरह सबके दिलों में थी — दबा, बुझा और बेसुध।

उसी समय, प्रकट हुए मैनेजर साहब। बाल खिचड़ी, चाल धीमी, और चेहरा ऐसा शांत कि जैसे सब्जी में नमक कम हो फिर भी कहें — “ठीक है।” उन्होंने तिलचट्टे को देखा, जैसे डॉक्टर मरीज की एक्स-रे रिपोर्ट पढ़ता है। फिर बड़े आराम से पेपर कप से उसे फुसला कर उठाया और खिड़की से बाहर उछाल दिया। कमरे में शांति फैल गई — जैसे अचानक फिल्म में बैकग्राउंड म्यूज़िक बंद हो गया हो। लोगों ने राहत की साँस ली, कुछ ने ताली भी बजाई। लेकिन…

…शांति ज्यादा देर टिकती कहाँ है, ख़ासकर उस जगह जहां व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट हों। एक दम आवाज़ उठी — “क्यों फेंका बाहर?” फिर दूसरा स्वर — “बिचारा जीवित था…!” एक और आवाज़ — “उसे पार्क में छोड़ सकते थे, पौधों के बीच, उसकी बस्ती में।” अचानक, जिसे नायक समझा गया था, वो खलनायक बन गया। तिलचट्टे के प्रति सहानुभूति बहने लगी, और मैनेजर पर आरोपों की बौछार। ये वही लोग थे जो पाँच मिनट पहले कुर्सी पर खड़े होकर चिल्ला रहे थे — “मार दो! बचाओ! मेरी चाय गिर गई!”

हमने सुना था कि लोकतंत्र में हर किसी को बोलने का अधिकार है। पर ये किसने कहा था कि हर बात में विरोध का ठेका भी लेना है? ऑफिस की ‘लीडरशिप कमेटी’ एक्टिव हो गई — जिसमें तीन ‘टी पार्टी’ सदस्य, दो ‘दूसरे की टाँग खींचो’ विशेषज्ञ और एक ‘कभी काम ना करने की शपथ’ ले चुका कर्मचारी शामिल थे। मीटिंग हुई — “तिलचट्टा भी तो भगवान की रचना है!” और वही लोग जिन्होंने “चप्पल से मारो इस कीड़े को!” कहा था, अब “जीवन का सम्मान करना चाहिए!” के पोस्टर बना रहे थे।

बात मैनेजर के ‘रवैये’ पर आई। “बहुत रूखे हैं,” “संवेदनशील नहीं,” “हमारे ऑफिस का माहौल बहुत टॉक्सिक हो गया है।” एक ‘सेंसिटिव बॉस’ चाहिए — ऐसा जो पहले तिलचट्टे से पूछे कि “तुम्हें कोई समस्या है?” फिर उसे कॉफी ऑफर करे, उसकी काउंसलिंग कराए, और फिर उसे हंसते-हंसते बाहर भेजे। मैनेजर साहब को मेमो मिला, “आपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई।” अगली मीटिंग में तय हुआ — अगली बार तिलचट्टा आए, तो एक ‘इन्क्लूसिव स्पेस’ बनाया जाएगा — जिसमें वो “कम्फर्टेबल” महसूस करे।

दफ्तर में एक दीवार पर पोस्टर लगाया गया — “हर जीवन है अनमोल। फिर चाहे वह तिलचट्टे का ही क्यों न हो” और नीचे छोटा सा कैप्शन: “आचार से नहीं विचार से काम लें” पोस्टर के नीचे वही लोग सेल्फी ले रहे थे जो दो दिन पहले तिलचट्टे के खात्मे पर ‘थैंक यू मैनेजर सर’ वाला स्टेटस डाले थे। और मैनेजर? वही पुराने डेस्क पर बैठे, ग्रीन टी पीते, किसी इनकम टैक्स फाइल को घूरते रहे — जैसे उसमें भी कोई कॉकरोच छुपा हो।

असल में तिलचट्टा कभी समस्या नहीं था। समस्या तो इंसानी दिमाग है — जो डरते वक्त चिल्लाता है, और सुरक्षित होने पर इल्ज़ाम लगाता है। आदमी को राहत चाहिए, लेकिन उसका तरीका नहीं पसंद। सब चाहते हैं कोई आगे बढ़े, लेकिन जैसे ही कोई बढ़ता है, सबकी उँगली उसी की पीठ पर होती है — “तू क्यों बढ़ा?” और नेतृत्व का बोझ वही समझ सकता है, जिसने कभी सच्चे मन से झाड़ू पकड़ी हो।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 246 ☆ उम्मीद जाग्रत रखें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उम्मीद जाग्रत रखें। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 246 ☆ उम्मीद जाग्रत रखें

हरियाली हो हर मौसम में,

रंग बिरंगी क्यारी हो।

बागों की डाली- डाली भी

अनुपम अद्भुत न्यारी हो।।

*

संस्कार अरु संस्कृतियों का

संगम प्यारा- प्यारा है।

आओ मिल सब सृजन करेंगे

ये संसार हमारा है।।

संसार रूपी बगिया में फूलों की तरह खिलना, महकना और मुस्कुराहट बिखेरने आना चाहिए। जो हो रहा है उसे स्वीकार कर आगे बढ़ते जाना, कदम से कदम मिलाते हुए जो भी निरंतर चला है उसे न केवल अपनों का साथ मिला है वरन प्रकृति ने भी उसके लिए अपने दोनों हाथ खोल दिये हैं। कहते हैं जो सोचो वो मिलेगा, बस सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ ऊर्जान्वित रहिए। यही सब तो आस्था, संस्कार, श्रद्धा, विश्वास व संस्कृति सिखाती है। बस मनोबल कम नहीं होना चाहिए। उम्मीद की डोर थामे अच्छा सोचें अच्छा करें।

गंगा की बहती धारा से,

मन पावन हो जाता है।

सुख -दुख सब इसमें तजकर के,

मनुज मनुज बन पाता है।।

*

अहंकार परित्याग करें तो,

चमन चमन बन जायेगा।

ऋषि मुनि सारे हवन करेंगे

स्वर्ग धरा पर आयेगा।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, chhayasaxena2508@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #215 – लघुकथा – नियति – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा नियति ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 215 ☆

☆ लघुकथा – नियति  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

” सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,”  बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।

” हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?  यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथ पैर सही हो जाए।”

बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में… । “

“हां हां, जानता हूं अंकल,”  कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा!  तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”

यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”

” वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,”  कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-05-2021

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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