हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 148 –“समीक्षा वार्ता” – संपादक – श्री सत्यकेतु सांकृत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री सत्यकेतु सांकृतजी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका “समीक्षा वार्ता”  पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆

☆ “समीक्षा वार्ता” – संपादक – श्री सत्यकेतु सांकृत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कृति चर्चा

पत्रिका – समीक्षा वार्ता

त्रैमासिक

वर्ष २ अंक २

संपादक सत्यकेतु सांकृत

संपर्क [email protected]

सी ७०१, न्यू कंचनजंगा, सेक्टर २३, द्वारिका, नई दिल्ली ७७

वार्षिक ५००रु

☆ “सोलह पुस्तकों की गंभीर विशद सामयिक समीक्षायें” – विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

अव्यवसायिक साहित्य पत्रिका “समीक्षा वार्ता” १९६७ से २०१० तक स्व गोपाल राय के संपादन में लगातार छपती रही। लघु अनियतकालीन अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाओ का साहित्यिक अवदान महत्वपूर्ण रहा है। वर्तमान परिदृश्य में वास्तव में ऐसी पत्रिकाओं  का प्रकाशन एक जुनून ही होता है। जिसमें आर्थिक प्रबंधन, पत्रिका का स्तरीय कलेवर जुटाना, संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लेकर डिस्पैच तक सब कुछ महज दो चार हाथों ही होता है। एक अंक की बारात बिदा होते ही अगले अंक की तैयारी शुरू हो जाती है। कम ही लोग खरीद कर पढ़ते हैं। डाक व्यय अतिरिक्त लगता है, स्वनाम धन्य रचनाकार तक मिलने की सूचना या प्रतिक्रिया भी नहीं देते। मैं यह सब कर चुका हूं अतः अंतर्कथा और समर्पित प्रकाशक के दर्द से वाकिफ हूं। २०२२ में समीक्षा वार्ता को पुनः मूर्त स्वरूप दिया है वर्तमान संपादक सत्यकेतु जी और रागिनी सांकृत जी ने। नये हाथों में समीक्षा वार्ता के इस नये अभियान को स्व गोपाल राय के सुदीर्घ प्रकाशन से प्रतिबद्ध दिशा, विषय वस्तु और साख मिली हुई है। लैटर कम्पोजिंग प्रेस से १९६७ में प्रारंभ हुई तत्कालीन पत्रिका को यह सीधे ही उडान के दूसरे चरण में ले जाता प्लस पाइंट है।

 संपादकीय में दार्शनिक अंदाज में सत्यकेतु जी ने बिलकुल सही लिखा है ” भारतीय जीवन का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जो मानस में मौजूद नहीं है। राम सर्वत्र हैं। अभिवादन में राम, दुख में हे राम, घृणा में राम राम, और मृत्यु में राम नाम सत्य है। प्रसंगवश मैं इसमें एक आंखों देखी घटना जोड़ना चाहता हूं। हुआ यह था कि एक सार्वजनिक परिवहन में एक ग्रामीण युवा लडकी मुझसे अगली सीट पर बैठी थी, उसके बाजू में बैठे लडके ने उसके साथ कुछ अभद्र हरकत करने का यत्न किया तो उस ग्रामीणा ने जोर से केवल “राम राम” कहा, सबका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया तथा लडका स्वतः दूरी बनाकर शांत बैठ गया। मैने सोचा यही घटना किसी उसकी जगह किसी अन्य शहरी लडकी के साथ घटती या वह राम नाम का सहारा लेने की जगह कोई अन्य प्रतिरोध करती तो बात का बतंगड़ बनते देर न लगती। मतलब राम का नाम सदा सुखदायी।

इस अंक में विद्वान समीक्षको द्वारा की गई सोलह पुस्तकों की गंभीर विशद सामयिक समीक्षायें सम्मलित हैं। पत्रिका के कंटेंट से अपने पाठको को परिचित करवाना ठीक समझता हूं। ‘जयशंकर प्रसाद महानता के आयाम’ पर लालचंद राम का आलेख है। सवालों के रू-ब-रू शीर्षक से सूर्यनाथ ने, भाषा केंद्रित आलोचना। . बली सिंह, दुनिया के व्याकरण के वरअक्स एक रचनात्मक पहल ‘लोकतंत्र और धूमिल ‘ रमेश तिवारी के आलेख पठनीय है। नंगे पाँव जो धूप में चले, शाहीन ने लिखा है। धर्म और अधर्म की ‘राजनीति’ पर भावना ने, ‘आम्रपाली गावा’ के बहाने इतिहास की समीक्षा गोविन्द शर्मा का लेख है। सूर्यप्रकाश जी ने मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियाँ, जीवन का सुंदर विज्ञान है: इला की कविता किरण श्रीवास्तव का आलेख लिया गया है। लघु पत्रिकाओं के बहाने हिंदी साहित्य की पड़ताल, आसिफ खान ने सविस्तार लिखा है। आउशवित्ज : एक प्रेम कथा लिखा है जय कौशल ने।

ऑपरेशन वस्तर प्रेम और जंग (एक रोमांचक उपन्यास) शीर्षक से रश्मि रानी ने लिखा है। चुप्पियों में आलाप : देह की रागात्मकता और वर्जनाओं से छटपटाहट का व्याकुल उद्गार, जितेन्द्र विसारिया। गहरी संवेदनाओं का दस्तावेज लिखा है प्रियंका भाकुनी ने। कालिंजर : भाषा और शिल्प का उत्सव लेख लक्ष्मी विश्नोई का है। कीड़ा जो पहाड़ पर जड़ित है शीर्षक है मो. वसीम के लेख हैं। ललित गर्ग ने पड़ताल की है तितली है खामोश दोहा संकलन की आलेख पुरातन और आधुनिक समय का समन्वय में।

समीक्षा वार्ता 5764/5, न्यू चन्द्रावल जवाहर नगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : 7217610640 से प्रकाशित होती है। लेखक या प्रकाशन ‘समीक्षा वार्ता’ के संपादकीय कार्यालय पर पुस्तक की दो प्रतियाँ भेज सकते हैं। बेहतर होता कि प्रत्येक लेख के साथ एक बाक्स में किताब के विवरण मूल्य प्राप्ति स्थल, किताब की और लेकक तथा समीक्षक के फोटो आदि भी छापे जाते। पत्रिका इंटरनेट पर उपलब्ध करवाई जानी चाहिये जिससे स्थाई संदर्भ साबित हो। पर निर्विवाद रूप से इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास के लिये सत्यकेतु सांस्कृत का अभिनंदन बनता है।  

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 148 – “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अरविंद तिवारी जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह लोकतंत्र से टपकता हुआ लोकपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆

“लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक

अरविंद तिवारी

इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

मूल्य २२५ रु

पृष्ठ १२८

संस्करण २०२३

☆ “अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं” – विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

अरविंद तिवारी तनिष्क के स्वर्ण आभूषणो के शो रूम में आयोजित समारोह में अपनी हास्य-व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं को प्रभावित कर चुके हैं। दरअसल उनकी रचनायें व्यंग्य की कसौटी पर किताबों के शोरूम में सोने सी खरी उतरती हैं। वे बहुविध लेखक हैं व्यंग्य के सिवाय उन्होंने कविता और उपन्यास भी लिखे हैं। मैं उन्हें निरंतर पढ़ता रहा हूं, उनकी कुछ किताबों पर पहले भी लिख चुका हूं। उन्हें पढ़ना भाता है क्योंकि वे उबाऊ और गरिष्ठ लेखन से परहेज करते हैं। शिक्षा विभाग के परिवेश में रहने से वे जानते हैं कि अपनी बात रोचक तरह से कैसे संप्रेषित की जानी चाहिये। परसाई ने लिखा है ” महज दरवाजा खटखटाने से जो मिलता है वह अक्सर अन्याय होता है, दरवाजा तोड़े बिना न्याय नहीं मिलता “, अरविंद तिवारी की व्यंग्य रचनायें दरवाजा तोड़ कथ्य उजागर करने वाली हैं।

लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक किताब के शीर्षक व्यंग्य से ही उधृत कर रहा हूं ” हमारे देश में लोकतंत्र है, (यदि नहीं है तो संविधान के अनुसार होना चाहिये )। …. लोक साहित्य का हिस्सा रहा है, यह संवेदना से भरपूर है। सियासत इस लोक से वह हिस्सा निकालकर तंत्र में जोड़ लेती है जिसमें संवेदना नहीं है। … तंत्र पूरी तरह वैज्ञानिक नियमों से चलता है। …बहरहाल जब तब लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है, जब कहीं चुनाव आता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को खतरा पैदा होता है। इसी खतरे के बरबक्स नेता दल बदलते हैं। … नेता जी के चुनाव जीतते ही लोकतंत्र से खतरा टल जाता है। …”  लोकतंत्र पर हर व्यंग्यकार ने भरपूर लिखा है, लगातार लिख ही रहे हैं। राजनैतिक व्यंग्यों की श्रंखला में में लोकतंत्र ही केंद्रित विषय वस्तु होतेा है। इसका कारण यह है कि लोकतंत्र जहां एक अनिवार्य आदर्श शासन व्यवस्था है, वहीं वह विसंगतियों से लबरेज है। मनुष्य का चारित्र दोहरा है, वह आदर्श की बातें तो करता है, पर उसे आदर्श के बंधन पसंद नहीं है। परसाई ने लोकतंत्र की नौटंकी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, लोकतंत्र पर हावी भीड़ तंत्र, आदि आदि कालजयी रचनायें लिखी हैं। अरविंद तिवारी की रचना “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” भी बिल्कुल उसी श्रेणि का उत्कृष्ट व्यंग्य है, यह ऐसा विषय है जिस पर जाने कितना लिखा जा सकता था किन्तु इस व्यंग्य में सीमित शब्दों में मारक चोट करने में अरविंद जी सफल रहे हैं।

किताब की भूमिका प्रेम जनमेजय जी ने लिखी है। उन्होंने “व्यंग्य के समकाल में ” शीर्षक से संग्रह के चुनिंदा व्यंग्य लेखों की सविस्तार चर्चा की है। वे व्यंग्य तो निराकार है के बहाने बिल्कुल सही लिखते हैं कि ” इन दिनों जुट जाने से व्यंग्य लिख जाता है। परसाई और शरद जोशी के जमाने में जुट जाने की सुविधा नहीं थी। जिसने ठाना वह इन दिनों व्यंग्यकार बन जाता है उसका सामना भले ही विसंगतियों से न हुआ हो। विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर की जरूरत नहीं होती। ”  पर इस संग्रह के व्यंग्य लेखों में विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर सब मिलता है। समुचित मात्रा में पाठक तक कथ्य संप्रेषित करने के लिये जहां जो, जितना चाहिये, उतना विषय वस्तु के अनुरूप, मिलता है। अरविंद जी विधा पारंगत हैं।

संग्रह में राजनीति केंद्रित व्यंग्य नेता जी की तीर्थ यात्रा, चुनावी दुश्वारियां और हम, सियासत भी फर्जी विधवा है, लोकतंत्र और गणतंत्र की पिटाई, बाढ़ का हवा हवाई सर्वे, खादी का कारोबार, भैया जी को टिकिट चाहिये, गणतंत्र दिवस और कबूतर, आदि के सिवाय स्वयं लेखको की मानसिकता तथा साहित्य जगत की विसंगतियों पर लिखे गये व्यंग्य लेखों की बहुतायत है। उदाहरण स्वरूप संग्रह का पहला ही लेख गुमशुदा पाठक की तलाश है। वे लिखते हैं “इन दिनों साहित्य की दीवारों पर पाठकों की गुमशुदगी के इश्तिहार चस्पा हैं ” ….  “जब तक पाठक से पता नहीं चलता तब तक यह पता लगाना मुश्किल है कि किताब कैसी है। ” मुझे इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर आशा है कि अब जब साहित्य प्रकाशन जगत में प्रिंट आन डिमांड की सुविधा वाली प्रिंटिग मशीने छाई हुई हैं और १० किताबों के संस्करण छप रहे हैं, पाठको के बीच “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” लोकप्रिय साबित होगी। हिन्दी के पिटबुल डाग, सर इसे पढ़ने की इच्छा है, अब रायल्टी की कमी नहीं, साहित्य का ड्रोन युग, छपने के लिये सेटिंग, आपदा में टिप्पणी लिखने के अवसर, आ गई आ गई, उपन्यास मोटा बनाने के नुस्खे, वगैरह लेखकीय परिवेश के व्यंग्य हैं। संग्रह में समसामयिक घटनाओ पर लिखे गये कुछ व्यंग्य सामाजिक विषयों पर भी हैं। मसलन उनके कुत्ते से प्रेम, रुपये को धकियाता डालर, एट होम में शर्मसार शर्म, आदि मजेदार व्यंग्य हैं। ” डी एम साहब को पता नहीं होता कि उनके घर की किचन का खर्च कौन चलाता है ” … ऐसे सूक्ष्म आबजर्वेशन और उन्हेंसही मोके पर उजागर करने की शैली तिवारी जी की लेखकीय विशेषता तथा बृहद अनुभव का परिणाम है। संग्रह के प्रायः व्यंग्य नपी तुली शब्द सीमा में हैं, संभवतः मूल रूप से किसी कालम के लिये लिखे गये रहे होंगे जिन्हें अब किताब की शक्ल में संजोने का अच्छा कार्य इण्डिया नेटबुक्स ने कर डाला है। आफ्रीका से लाये गये चीतों पर अहा चीतामय देश हमारा संग्रह का अंतिम लेख है। अरविंद जी लिखते हैं ” उस दिन बहस करते हुये एक दूसरे से कुत्तों की तरह भिड़ गये ” … ” शेर से जब चीता टकराता है तो वह घायल हुये बिना नहीं रहता “।

परसाई की चिंता थी समाज की सत्ता की साहित्य की विसंगतियां। ये ही विसंगतियां इस संग्रह में भी मुखरित हैं। इस तरह व्यंग्य की रिले रेस में अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं। उन्होने लिखा है “अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले लोग गलत जगह वोट डालेंगे तो चुनावों में शुचिता कैसे आयेगी ? किताब पढ़िये, समझिये कुछ करिये जिससे अगली पीढ़ी के व्यंग्य के विषयों में समीक्षकों को बदलाव मिल सकें।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 147 – “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर” – लेखक – श्री राजेंद्र नागदेव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजेंद्र नागदेव जी द्वारा रचित काव्य संग्रह “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत परपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 147 ☆

☆ “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर” – लेखक – श्री राजेंद्र नागदेव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर

राजेंद्र नागदेव

बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य  १५० रु

पृष्ठ १००

राजेंद्र नागदेव एक साथ ही कवि, चित्रकार और पेशे से वास्तुकार हैं. वे संवेदना के धनी रचनाकार हैं. १९९९ में उनकी पहली पुस्तक सदी के इन अंतिम दिनो में, प्रकाशित हुई थी. उसके बाद से दो एक वर्षो के अंतराल से निरंतर उनके काव्य संग्रह पढ़ने मिलते रहे हैं. उन्होने यात्रा वृत भी लिखा है. वे नई कविता के स्थापित परिपक्व कवि हैं. हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक  स्थितियों की विवशता से हम में से प्रत्येक अंतर्मन से क्षुब्ध है. जो राजेंद्र नागदेव जी जैसे सक्षम शब्द सारथी हैं, हमारे वे सहयात्री कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं. राहत इंदौरी का एक शेर है

” धूप बहुत है, मौसम ! जल, थल भेजो न. बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न “

अपने हिस्से के बादल की तलाश में धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर भटकते “यायावर” को ये कवितायें किंचित सुकून देती हैं. मन का पंखी अंदर की दुनियां में बेआवाज निरंतर बोलता रहता है. “स्मृतियां कभी मरती नहीं”, लम्बी अच्छी कविता है. सभी ३८ कवितायें चुनिंदा हैं. कवि की अभिव्यक्ति का भाव पक्ष प्रबल और अनुभव जन्य है. उनका शब्द संसार सरल पर बड़ा है. कविताओ में टांक टांक कर शब्द नपे तुले गुंथे हुये हैं, जिन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकता. एक छोटी कविता है जिज्ञासा. . . ” कुछ शब्द पड़े हैं कागज पर अस्त व्यस्त, क्या कोई कविता निकली थी यहां से “. संभवतः कल के समय में कागज पर पड़े ये अस्त व्यस्त शब्द भी गुम हो जाने को हैं, क्योंकि मेरे जैसे लेखक अब सीधे कम्प्यूटर पर ही लिख रहे हैं, मेरा हाथ का लिखा ढ़ूढ़ते रह जायेगा समय. वो स्कूल कालेज के दिन अब स्मृति कोष में ही हैं, जब एक रात में उपन्यास चट कर जाता था और रजिस्टर पर उसके नोट्स भी लेता था स्याही वाली कलम से.

संवेदना हीन होते समाज में लोग मोबाईल पर रिकार्डिंग तो करते हैं, किन्तु मदद को आगे नहीं आते, हाल ही दिल्ली में चलती सड़क किनारे एक युवक द्वारा कथित प्रेमिका की पत्थर मार मार कर की गई हत्या का स्मरण हो आया जब राजेंद्र जी की कविता अस्पताल के बाहर की ये पंक्तियां पढ़ी

” पांच से एक साथ प्राणो की अकेली लड़ाई. . . . . मरे हुये पानी से भरी, कई जोड़ी आंखें हैं आस पास, बिल्कुल मौन. . . . किसी मन में खरौंच तक नहीं, आदमी जब मरेगा, तब मरेगा, पत्थर सा निर्विकार खड़ा हर शख्स यहां पहले ही मर गया है. “

राजेंद्र नागदेव की इन कविताओ का साहित्यिक आस्वासादन लेना हो तो खुद आराम से पढ़ियेगा. मैं कुछ शीर्षक बता कर आपकी उत्सुकता जगा देता हूं. . . संवाद, बस्ती पर बुलडोजर, दिन कुछ रेखा चित्र, मेरे अंदर समुद्र, मारा गया आदमी, अंधे की लाठी, कवि और कविता, सफर, लहूलुहान पगडंडियां, अतीतजीवी, मशीन पर लड़का, जा रहा है साल, कुहासे भरी दुनियां, हिरण जीवन, प्रायश्चित, स्टूडियो में बिल्ली, तश्तरी में टुकड़ा, कोलाज का आत्मकथ्य, टुकड़ों में बंटा आदमी, अंतिम समय में, जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ, उत्सव के खण्डहर संग्रह की अंतिम कविता है. मुझे तो हर कविता में ढ़ेरों बिम्ब मिले जो मेरे देखे हुये किन्तु जीवन की आपाधापी में अनदेखे रह गये थे. उन पलों के संवेदना चित्र मैंने इन कविताओ में मजे लेकर जी है.

सामान्यतः किताबों में नामी लेखको की बड़ी बड़ी भूमिकायें होती हैं, पर धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर में सीधे कविताओ के जरिये ही पाठक तक पहुंचने का प्रयास है. बोधि प्रकाशन, जयपुर से मायामृग जी कम कीमत में चुनिंदा साहित्य प्रकाशित कर रहे है, उन्होंने राजेंद्र जी की यह किताब छापी है, यह संस्तुति ही जानकार पाठक के लिये पर्याप्त है. खरीदिये, पढ़िये और वैचारिक पीड़ा में साहित्यिक आनंद खोजिये, अर्थहीन होते सामाजिक मूल्यों की किंचित  पुनर्स्थापना  पाठकों के मन में भी हो तो कवि की लेखनी सोद्देश्य सिद्ध होगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 146 – “बहेलिया” – लेखक – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी द्वारा रचित उपन्यास  “बहेलियापर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 146 ☆

“बहेलिया” – लेखक – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

उपन्यास – बहेलिया

उपन्यासकार – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

प्रकाशक – इंक पब्लिकेशन, प्रयागराज

पृष्ठ – २१०, मूल्य – २५० रु

मुंशी प्रेमचंद की कहानी बैंक का दिवाला पढ़ी थी, मुजतबा हुसैन की कहानी स्विस बैंक में खाता हमारा पाडकास्ट में सुनी पर बैंकिंग पट दृश्य पर यह पहला ही उपन्यास पढ़ने मिला।

“वक्त ऐसा बेदर्द बहेलिया है जो राजा को रंक बना देता है। मशीनीकरण के बेरहम बहेलिया और इंसानी संवेदनहीनता ने एक जिन्दा दिल जीवट व्यक्ति का शिकार कर लिया। ” ये संवेदना से भरी पंक्तियां प्रभाशंकर उपाध्याय के उपन्यास बहेलिया से ही उधृत हैं, जो उपन्यास के नामकरण को रेखांकित करती हैं। आज हमारे आपके हर हाथ में मोबाईल है, और टेक्नालाजी की तरक्की ऐसी हुई है कि हर स्मार्ट मोबाईल में कई कई बैंक एक छोटे से ऐप में समाये हुये हैं। इलेक्ट्रानिक बैंकिंग के चलते अब सायबर अपराधी किसी की जेब में ब्लेड मारकर थोड़ा बहुत रुपया नहीं मारते वे सुदूर अंयत्र कहीं बैठे बैठे एनी डेस्क एप से मोबाईल हैक करके या किसी के भोले विश्वास की हत्या कर ओटीपी फ्राड करते हैं और पलक झपकते सारा बैंक अकाउंट ही खाली कर देते हैं।

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

उपन्यास बहेलिया बैंकिंग व्यवस्था में लेजर के पु्थन्नो से कम्प्यूटर में ट्रांजीशन के दौर के बैंक परिवेश के ताने बाने पर रचा गया रोचक उपन्यास है। सत्य घटनाओ के कहानीनुमा छोटे छोटे दृश्य कथानक पाठक को बांधे रखने में सक्षम हैं। कथानक का नायक सौरभ, एक बैंक कर्मी है। जो लोग लेखक प्रभाशंकर जी को जानते हैं कि वे स्वयं एक बैंक कर्मी रहे हैं वे सौरभ के रूप में उन्हें कथानक के हर पृष्ठ पर उपस्थित ढ़ूंढ़ निकालेंगे। किन्तु उपन्यास का वास्तविक नायक सौरभ नहीं हरिहर शर्मा उर्फ हरिहर जानी कामरेड उर्फ बड़े बाबू हैं। वे यूनियन लीडर भी हैं, वे साधू वेश में भी मिलते हैं। विभिन्न वेशों में वे जिंदादिल और समावेशी प्रकृति के अच्छे इंसान हैं। वे “उलझा है तो सुलझा देंगे ” वाले मूड में समस्याओ को हल करने के लिये साहब की मेज पर डंक निकले रेंगते बिच्छू को छोड़ने का माद्दा रखते हैं। उनका प्रिंसिपल है कि ” उग्र प्रदर्शन से ज्यादा ताकत मौन विरोध में होती है “। किंतु बदलती बैंकिंग व्यवस्था के चलते तरक्की का लड्डू खाने के बाद वसूली का दायित्व उनकी असामयिक मृत्यु का कारण बनता है, जिसे लेखक ने बहेलिये द्वारा उनके शिकार के रूप में निरूपित करते हुये उपन्यास का मार्मिक अंत किया है।

 जैन साहब ब्रांच मैनेजर, गोयल, चड्ढ़ा, बैंक प्यून, हार्ड नट विथ साफ्ट हार्ट वाले सोमानी सर, अंबालाल, मिस्टर गुप्ता, लढ़ानी जी आदि पात्रो के माध्यम से उपन्यास में राजस्थान में बैंक की कार्यप्रणाली के आंखो देखे दृश्य शब्दो चित्रो में पढ़ने मिलते हैं। कार्यस्थलो पर महिला कर्मियों की सुरक्षा के लिये अब तरह तरह के कानून बन गये हैं, शिकायत और समस्याओ के निराकरण के लिये एस ओ पी बन गई हैं, पर उपन्यास के काल क्रम में महिला पात्र नसरीन उपन्यास में एक बैंक कर्मी के रूप में उपस्थित है। उसके माध्यम से तत्कालीन महिला कर्मियों की रोजमर्रा की आई टीजिंग या शाब्दिक फब्तियों से होती हेरासमेंट जैसी दुश्वारियों और बैंक मैनेजर द्वारा फ्रंट फुट पर आकर उसका हल भी उपन्यास में वर्णित है। आज सहकर्मियों या मातहत कर्मचारी के लिये इतने स्टैंड लेने वाले अधिकारी बिरले ही मिलते हैं। उपन्यास में वर्णित एक अन्य घटना में काउंटर क्लर्क से बेवजह उलझते किसी उपभोक्ता को स्मोक सेंसर को वायस रिकार्डर बताकर मामला सुलझाने की घटना भी मैनेजर की त्वरित बुद्धि की परिचायक है।

बड़े पदों से सेवा निवृत लोगों के पास हमेशा ढ़ेर सारे अनुभव होते हैं। जिन्हें वे आत्मकथा या अन्य तरीको से लिपिबद्ध करते हैं। गोपनीयता कानून से बंधे हुये लोग भी कुछ अरसे बाद अपने कार्यकाल के बड़े बड़े खुलासे करते हैं। बहेलिया में प्रभाशंकर जी ने बैंकिंग की नौकरी के उनके अनुभव उजागर किये हैं। मेरा स्वयं का व्यंग्य उपन्यास “जस्ट टू परसेंट” बड़े दिनों से लेखन क्रम में है। हाल ही केंद्र सरकार ने पेंशन कानून में संशोधन राजपत्र में प्रकाशित किया है, जिसके बाद शायद अब सेवानिवृति के उपरांत नौकरी के अनुभवों पर ज्यादा न लिखा जा सके।

उपन्यास में संस्कृत की उक्ति सहित उर्दू और अंग्रेजी का भी भरपूर उपयोग मिलता है। संवादों से बुने इस उपन्यास में रोब झाड़ने के लिये परिचय देते हुये पात्र अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, या अधिकारी अपने संवादों में हिन्दी अंग्रेजी मिक्स भाषा का इस्तेमाल करते दिखते हैं। उर्दू के शेर भी पुस्तक में मिलते हैं ” बदलता है, रोज शबे मंजर मिरे आगे ” या ” दुनियां ने तजुर्बातओ हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया वही लौटा रहा हूं मै “। उपन्यास के प्रारंभ में एक अनुक्रमणिका दिये जाने की पूरी गुंजाइश है, क्योंकि कहानी को घटनाओ के आधार पर चैप्टर्स में बांटा तो गया है किन्तु चैप्टर्स की सूची न होने के कारण पाठक सीधे वांछित चेप्टर खोलने में असमर्थ होता है। बुद्धिमान आदमी सदा एक पैर से चलता है, न राज न काज फिर भी राजा बाबू, उभरना एक जांबाज यूनियन लीडर का, एक कौआ मारकर टांग दो तो, भूले बिसरे भेड़ खायी, अब खायी तो राम दुहाई, सारे सांप तो मैने ही पकड़वा दिये थे, आर्डर इज आर्डर इत्यादि रोचक उपशीर्षक स्वयं ही पाठक को आकर्षित करते हैं।

अटैची करती ब्रांच मैनेजरी पढ़कर मुझे याद आया, जब से हमारे कार्यालय में बायो मेट्रिक अटेंडेंस शुरू हुई, मेरे अधीनस्थ एक अधिकारी ठीक समय पर आफिस पहुंचते, सबसे हलो हाय करते अपनी कुर्सी पर अपना कोट टांगते और स्कूटर पर किक मारकर जाने कहां फुर्र हो जाते थे, बुलवाने पर उनका चपरासी रटा हुआ उत्तर देता, अभी तो साहब यहीं थे आते ही होंगे, उनका कोट तो टंगा हुआ है। कहना न होगा कि मोबाईल के जमाने में सूचना उन तक पहुंच जाती और या तो जल्दी ही वे स्वयं प्रगट हो जाते या उनका फोन आ जाता। यूं मुझे इस संदर्भ में जसपाल भट्टी का एक वीडीयो व्यंग्य याद आता है जिसमें वे कहते हैं कि सी एम डी के केबिन में एक तोता बैठा दिया जाना चाहिये जो हर बात पर यही कहे कि कमेटी बना दो, मीटिंग बुला लो। सरकारी तंत्र में यही तो हो रहा है।

बैंकिंग लक्ष्मी की प्रतीक है अतः बैंक में प्रवेश के समय जूते उतारना पुराने लोगों की संस्कृति में था। भारतीय वित्त वर्ष दीपावली से दीपावली का होता है, सेठ साहूकार तब लक्ष्मी पूजा के साथ अपने नये बही खाते प्रारंभ करते हैं। बैंकिंग में वित्त वर्ष अप्रैल से मार्च का होता है। बीच में इसे कैलेंडर वर्ष में जनवरी से दिसम्बर बदलने की चर्चायें भी हुई थीं। बैंक हर किसी की आवश्यकता है, जनधन खातों से तो अब गरीब से गरीब व्यक्ति भी बैंक से जुड़ चुका है। बेंकिंग के प्रत्येक के कुछ न कुछ अपने अनुभव हैं। बैंक कर्मियों पर काम का भारी दबाव है। उपभोक्ता असंतोष हर उस सर्विस सेक्टर की समस्या है जहां पब्लिक विंडो वर्क है। कई बार लगता है कि ऐसी नौकरियां थैंकलेस होती हैं। एक वाकया याद आता है, तब मैं इंजीनियरिंग का छात्र था। हमारे कालेज कैंपस में स्टेट बैंक ने एक कमरे में एक क्लर्क के साथ एक्सटेंशन काउंटर खोल रखा था। मुझे स्मरण है अस्सी के दशक में तब हमारा मैस बिल ९६ रु मासिक आता था। हमारे वार्डन ने मैस बिल एकत्रित करने के लिये बैंक में खाता खुलवा दिया, अब छात्रों की लम्बी कतार रुपये जमा करने के लिये बैंक में लगने लगी, नियमानुसार बैंक रुपये लेने से मना भी नहीं कर सकता था और यदि सबसे रुपये जमा करे तो अकेला व्यक्ति सैकड़ो लड़को के बिल आखिर कैसे ले ? अंततोगत्वा बात प्रिंसीपल तक पहुंची और तब कहीं होस्टल प्रिफेक्ट के माध्यम से राशि जमा होना प्रारंभ हुआ। बैंक ने एटीएम, पासबुक एंट्री मशीन, चैक डिपाजिट मशीन आदि कई नवाचार किये हैं। प्रसंगवश लिखना चाहता हूं कि बैंक बिना हस्ताक्षर मिलाये सौ रुपये भी हमारे ही खाते से हमें ही नहीं देता पर आखिर क्यों और कैसे एक इनक्रिप्टैड अपठनीय मेसेज के आधार पर बिना हस्ताक्षर के हमारा सारा खाता ही मोबाईल और यू पी आई से जोड़ दिया जाता है, जिसके चलते ही कई फ्राड हो रहे हैं। होना तो यह चाहिये कि हस्ताक्षरित पत्र के बाद ही कोई खाता किसी यू पी आई या मोबाईल से जोड़ने का नियम बने, इससे अनेक फ्राड रुक सकेंगे।

बहरहाल बहेलिया के लिये प्रभाशंकर जी को बधाई। व्यंग्य उनकी मूल विधा है, व्यंग्य की उनकी चार पुसतकें प्रकाशित हैं। इस उपन्यास में भी अनेक संवादों में उनका वह व्यंग्य, कटाक्ष लिये ध्वनित है। बैंकिंग की पृष्ठभुमि पर साहित्यिक उपन्यास के रूप में बहेलिया पठनीय विशिष्ट कृति है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 145 – “कोरोना काल में अचार डालता कवि” – लेखक – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री रामस्वरूप दीक्षित जी द्वारा रचित पुस्तक  कोरोना काल में अचार डालता कविपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 145 ☆

☆ “कोरोना काल में अचार डालता कवि” – लेखक – श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

कोरोना काल में अचार डालता कवि

रामस्वरूप दीक्षित

भारतीय ज्ञानपीठ

२०० रु, पृष्ठ १०८

हिन्दी व्यंग्य और कविता में रामस्वरूप दीक्षित जाना पहचाना नाम है। वे टीकमगढ़ जेसे छोटे स्थान से साहित्य जगत में बड़ी उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन में सक्रिय रहे हैं तथा इन दिनो सोशल मीडीया के माध्यम से देश विदेश के रचनाकारों को परस्पर चर्चा का सक्रिय मंच संचालित कर रहे हैं। भारतीय ज्ञान पीठ से २०२२ में प्रकाशित ५३ सार्थक नई कविताओ के संग्रह कोरोना काल में अचार डालता कवि के साथ उन्होंने वैचारिक दस्तक दी है। इसे पढ़ने के लिये भारतीय ज्ञानपीठ से किताब का प्रकाशन ही सबसे बड़ी संस्तुति है। किताब में परम्परा के विपरीत किसी की कोई भूमिका नहीं है। वे बिना प्राक्कथन में कोई बात कहे पाठक को कविताओ के संग साहित्यिक अवगाहन कर वैचारिक मंथन के लिये छोड़ देते हैं। हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक  स्थितियों की विवशता से सभी अंतर्मन से क्षुब्ध हैं। समाज विकल्प विहीन किंकर्तव्यमूढ़ जड़ होकर रह जाने को बाध्य बना दिया गया है। रामस्वरूप दीक्षित जी जैसे सक्षम शब्द सारथी कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं। वे लिखते हैं ” यूं तो कविता कुछ नहीं कर सकती, उसे करना भी नहीं चाहिये, कवि के अंतर्मन के भावों का उच्छवास ही तो है वह…  किन्तु, वे अगली पंक्तियों में स्वयं ही कविता की उपादेयता भी वर्णित करते हैं…कविता कह देती है राजा से बिना डरे कि तुम्हारी आँखो में उतर आया है मोतिया बिंद  ” इस संग्रह की प्रत्येक कविता में साहस के यही भाव पाठक के रूप में मुझे अंतस तक प्रभावित करते हैं। वे अपनी कविताओ में संभव शाब्दिक समाधान भी बताते हैं किन्तु दुखद है कि जमीनी यथार्थ दुष्कर बना हुआ है। लोगों के मनों में शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिये इस संग्रह जैसा चेतन लेखन आवश्यक हो चला है।

श्री रामस्वरूप दीक्षित

युद्ध की जरूरत में वे लिखते हैं कि जंगल बिना आपस में लड़े बिना बचाये रखते हैं अपना हरापन, …मनुष्य ही है जिसे खुद को बचाने के लिये युद्ध की जरूरत है। हत्यारे शीर्षक से लम्बी कविताओ के तीन खण्ड हैं। तारीफ की बात यह है कि भाव के साथ साथ कोरोना काल में अचार डालता कवि की सभी कविताओ में नई कविता के विधान की साधना स्पष्ट परिलक्षित होती है। मट्ठरता की हदों तक परिवेश से आंखें चुराने वाले समाज के इस असहनीय आचरण को इंगित करते हुये वे लिखते हैं कि ” जब खोटों को पुरस्कृत और खरों को बहिृ्कृत किया जा रहा था तब आप क्या कर रहे थे ? के उत्तर में हम कहेंगें कि हम सयाने हो चुके थे और हमने चुप रहना सीख लिया था “। राम स्वरुप जी की कवितायें जनवादी चिंतन से भरपूर हैं। कुछ शीर्षक देखिये गूंगा, बाज, भेड़िये, मुनादी, मजदूर, ताले, इतवार, खतरनाक कवि, तानाशाह, आदि सभी में मूल भाव सदाशयता और मानवीय मूल्यों के लिये आम आदमी की आवाज बनने का यत्न ही है। पिता, पिता का कमरा, माँ के न रहने पर वे रचनायें हैं जो रिश्तों की संवेदना संजोती हैं। संग्रह की शीर्षक रचना कोरोना काल में अचार डालता कवि में वे लिखते हैं कि अचार डालने में डूबा कवि भूल गया कि बाहरी दुनियां में जिस रोटी के साथ अचार खाया जाता है वह तेजी से गायब हो रही है। इन गूढ़ प्रतीको को डिकोड करना पाठक को साहित्यिक आनंद देता है। अनेक बिन्दुओ पर कथ्य से असहमत होते हुये भी मैने दीक्षित जी की सभी रचनायें इत्मिनान से शब्द शब्द की जुगाली करते हुये तथा उनके परिवेश को परिकल्पित करते हुये पढ़ीं और उनके विन्यास, शब्द योजना, रचना काल तथा भाषाई ट्विस्ट का साहित्यिक आनंद लिया। संग्रह पढ़ने मनन करने योग्य है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 144 – “मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी द्वारा रचित पुस्तक  मौनपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 144 ☆

“मौन” – लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक – मौन

लेखक – श्री प्रतुल श्रीवास्तव

प्रकाशक – पाथेय प्रकाशन जबलपुर

संस्करण – २०२३

अजिल्द, पृष्ठ – ९६, मूल्य – १५०रु

चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

किताब के बहाने थोडी चर्चा पाथेय प्रकाशन की भी हो जाये. पाथेय प्रकाशन, जबलपुर अर्थात नान प्राफिट संस्थान. डॉ राजकुमार ‘सुमित्र’ जी और कर्ता धर्ता भाई राजेश पाठक का समर्पण भाव. बहुतों की डायरियों में बन्द स्वान्तः सुखाय रचित रचनाओ को साग्रह पुस्तकाकार प्रकाशित कर, समारोह पूर्वक किताब का विमोचन करवाकर हिन्दी सेवा का अमूल्य कार्य विगत अनेक वर्षों से चल रहा है. मुझे स्मरण है कि मैंने ही राजेश भाई को सलाह दी थी कि आई एस बी एन नम्बर के साथ किताबें छापी जायें जिससे उनका मूल्यांकन किताब के रूप में सर्वमान्य हो, तो प्रारंभिक कुछ किताबों के बाद से वह भी हो रहा है. तेरा तुझ को अर्पण वाले सेवा भाव से जाने कितनी महिलाओ, बुजुर्गों जिनकी दिल्ली के प्रकाशको तक व्यक्तिगत पहुंच नही होती, पाथेय ने बड़े सम्मान के साथ छापा है. विमोचन पर भव्य सम्मान समारोह किये हैं. आज पाथेय का कैटलाग विविध किताबों से परिपूर्ण है. अस्तु पाथेय को और उसके समर्पित संचालक मण्डल को वरिष्ट पत्रकार एवं समर्पित साहित्य साधक श्री प्रतुल श्रीवास्तव जो स्वयं एक सुपरिचित साहित्यिक परिवार के वारिस हैं उनकी असाधारण कृति “मौन” के प्रकाशन हेतु आभार और बधाई.

किताब बढ़िया गेटअप में चिकने कागज पर प्रकाशित है.

अब थोड़ी चर्चा किताब के कंटेंट की. डा हरिशंकर दुबे जी की भूमिका आचरण की भाषा मौन पठनीय है. वे लिखते हैं छपे हुये और जो अप्रकाशित छिपा हुआ सत्य है उसे पकड़ पानासरल नहीं होता.

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

बिटवीन द लाइन्स के मौन का अन्वेषण वही पत्रकार कर सकता है जो साहित्यकार भी हो. प्रतुल जी ऐसे ही कलम और विचारों के धनी व्यक्तित्व हैं. श्री राजेश पाठक ‘प्रवीण’ ने अपनी पूर्व पीठिका में लिखा है कि बोलना एक कला है और मौन उससे भी बड़ी योग्यता है. मौन एक औषधि है. समाधि की विलक्षण अवस्था है. वे लिकते हें कि प्रतुल जी की यह कृति आत्म शक्ति, आत्म विस्वास और अंतर्मन की दिव्य ढ़्वनि को जगाने का काम करती है.

स्वयं प्रतुल श्रीवास्तव बताते हैं कि जो क्षण मुखर होने से अहित कर सकते थे उन्हें मौन सार्थक अभिव्यक्ति देता है. मौन अनावश्यक आवेगों पर नियंत्रण और संकल्प शक्ति में वृद्धि करता है. मौन के उनके अपने स्वयं के अनुभव तथा साधकों के कथन किताब में शामिल हैं. मौन के रहस्य को समझकर जीवन को तनाव मुक्त और ऊर्जावान बनाना हो तो यह किताब जरूर पढ़िये. पुस्तक में छोटे छोटे विषय केंद्रित रोचक पठनीय तथा मनन करने योग्य २८ आलेख है.

मौन, चुप्पी मौन नहीं, स्वाभाविक मौन छिना, मौन से ऊर्जा संग्रहण, मौन एक साधना, मौन और सृजन, चार तरह के मौन, मौन से जिव्हा परिमार्जन, मौन पर विविध अभिमत, मन के कोलाहल पर नियंत्रण, मौन से शांति-ध्यान और ईश्वर, क्या है अनहद नाद ?, हिन्दू धर्म में मौन का महत्व, मुस्लिम धर्म में मौन, मौन एक महाशक्ति, शब्द संभारे बोलिये, मौन की मुखरता, मौन जीवन का मूल है, मौन से प्रगट हुई गीता, मौन स्वयं से जुड़ने का तरीका, मौन का संबंध मर्यादा से

बातों से प्राप्त क्रोध बर्बाद करता है समय, मौन है मन की मृत्यु, चित्त की निर्विकार अवस्था है मौन, मौनं सर्वार्थ साधनम्, मौन की वीणा से झंकृत अंतस के तार, मौन साधना तथा उसका परिणाम, तथा मौन ध्यान की ओर पहला कदम

शीर्षकों से मौन पर अत्यंत्य सहजता से सरल बोधगम्य भाषा में मौन के लगभग सभी पहलुओ पर विषद विवेचन पुस्तक में पढ़ने को मिलता है.

मौन व्रत अनेक धार्मिक क्रिया कलापों का हिस्सा होता है. हमारी संस्कृति में मौनी एकादशी हम मनाते हैं. राजनेता अनेक तरह के आंदोलनों में मौन को भी अपना अस्त्र बना चुके हैं. गृहस्थी में भी मौन को हथियार बनाकर जाने कितने पति पत्नी रूठते मनाते देखे जाते हैं. पुस्तक को पढ़कर मनन करने के बाद मैं कह सकता हूं कि मौन पर इतनी सटीक सामग्री एक ही जगह इस किताब के सिवाय अंयत्र मेरे पढ़ने में नहीं आई है. प्रतुल श्रीवास्तव जी के व्यंग्य अलसेट, आखिरी कोना, तिरछी नजर तथा यादों का मायाजाल, और व्यक्तित्व दर्शन किताबों के बाद वैचारिक चिंतन की यह पुस्तक मौन उनके दार्शनिक स्वरूप का परिचय करवाती है . वे जन्मना अन्वेषक संवेदना से भरे, भावनात्मक साहित्यकार हैं. यह पुस्तक खरीद कर पढ़िये आपको शाश्वत मूल्यों के अनुनाद का मौन मुखर मिलेगा जो आपके रोजमर्रा के व्यवहार में परिवर्तनकारी शक्ति प्रदान करने में सक्षम होगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 143 – “रेकी हीलिंग …” – रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ जी द्वारा रचित पुस्तक  “रेकी हीलिंग पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 143 ☆

☆ “रेकी हीलिंग …” – रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा 

पुस्तक – रेकी हीलिंग

लेखक – रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ

प्रकाशक – नोशन प्रेस

संस्करण – २०२१

पृष्ठ – २५४, मूल्य – ५९९ रु

पुस्तक चर्चा… विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल  

जान है तो जहान है. अर्थात शारीरिक स्वास्थ्य को लेकर  हमेशा से मनीषियों के चिंतन का चलता रहा है.  आयुर्वेद, यूनानी दवा पद्धती, ऐलोपैथी, सर्जरी, होमियोपैथी,योग चिकित्सा, कल्प, अनेकानेक उपाय सतत अन्वेषण के केंद्र रहे हैं. रेकी भी इन्हीं में से एक विकसित होता विज्ञान है जिसे अब तक प्रामाणिक वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल सकी है. मानवता के व्यापक हित में होना तो यह चाहिये कि एक ही छत के नीचे सारी चिकित्सा पद्धतियों की सुविधा सुलभ हों और समग्र चिकित्सा से मरीज का इलाज हो सके. किन्तु वर्तमान समय भटकाव का ही बना हुआ है.

साहित्यिक पुस्तको पर तो मेरे पाठक हर सप्ताह किसी किताब की मेरी चर्चा पढ़ते ही हैं. किताब के कंटेंट पर बातें करता हूं, पाठको की प्रतिक्रियायें मिलती हैं, जिन्हें पुस्तक चर्चा में कुछ उनके काम का लगता है वे किताब खरीदते हैं.

इस सप्ताह मेरे सिराहने  रेकी हीलिंग पर रेकी ग्रेंड मास्टर संजीव शर्मा और रेकी ग्रेंड मास्टर मंजू वशिष्ठ की नोशन प्रेस से प्रकाशित किताब थी. नोशन प्रेस ने सेल्फ पब्लिशिंग के आप्शन के साथ हिन्दी किताबों को भी बड़ा प्लेटफार्म दिया है. मेरी अमेरिका यात्रा के संस्मरणो की किताब “जहां से काशी काबा दोनो ही पूरब में हैं” मैंने नोशन प्रेस से ही प्रकाशित की है.

इस पुस्तक रेकी हीलिंग के कवर पेज पर ही सेकेंड हेडिंग है अवचेतन का दिव्य स्पर्श. दरअसल रेकी जापान में फूला फला एक आध्यात्मिक विज्ञान है.हमारे कुण्डलिनी जागरण, स्पर्श चिकित्सा, टैलीपेथी का मिला जुला स्वरुप कहा जा सकता है. नकारात्मक विचार, क्रोध, असंतोष, असहिष्णुता जैसे अप्राकृतिक विचार हमारे मन और शरीर में तरह तरह की व्याधियां उत्पन्न करते हैं. रेकी आत्म उन्नयन कर मानसिक ऊर्जा के संचयन से स्वयं का तथा किसी दूसरे की भी बीमारी ठीक करने की क्षमता का विकास करती है. फिल्म मुन्ना भाई एम बी बी एस में जादू की झप्पी का जादू हम सब ने देखा है. मां के स्पर्श से या पिता के आश्वासन और हौसले से रोता चोटिल बच्चा हंस पड़ता है, अर्थात स्पर्श और भावों के संप्रेषण का हमारे शरीर को ऊर्जा मिलती है यह तथ्य प्रमाणित होता है. वैज्ञानिक सत्य है कि ऊर्जा अविनाशी है, हर पिण्ड में ऊर्जा होती ही है, तथा ” यत्पिण्डे तत ब्रम्हाण्डे ” हम सब में वह ऊर्जा विद्यमान है, उसे ईश्वर कहें या कोई अविनाशी वैज्ञानिक शक्ति. हर दो पिण्ड परस्पर एक ऊर्जा से एक दूसरे को खींच रहे हैं यह वैज्ञानिक प्रमाणित सत्य है. इस ऊर्जा के इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन को ही केंद्रीय विचार बनाकर रेकी में रेकी मास्टर स्वयं की धनात्मक ऊर्जा को बढ़ाकर, ॠणात्मक ऊर्जा के चलते बीमार व्यक्ति का इलाज करता है यही रेकी हीलिंग है.

इस किताब में रेकी के इतिहास का वर्णन है. रेकी के सात चक्र मूलाधार, स्वाधिष्टान, मणिपुर चक्र, अनाहत या हृदय चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्त्रधार चक्र परिकल्पित हैं ये लगभग उसी तरह हैं जिस तरह हमारे यहां कुण्डलनी जागरण के चक्र हैं. किताब में  स्वयं पर रेकी, तथा दूसरों पर रेकी का वर्ण किया गया है. रेकी ध्यान अर्थात मेडीटेशन, प्रभा मण्डल अर्थात औरा के विषय में भी बताया गया है. ओम के चिन्ह को ऊर्जा का प्रतिक बताया गया है.इसके साथ ही अन्य प्रतीक चिन्हों का भी विशद वर्णन है. शक्तिपात अर्थात एट्यूनमेंट को ग्रैंडमास्टर स्तर की दीक्षा बताया गया है. टेलीकाईनेसिस के जरिये दूरस्थ व्यक्ति तक शांत चित्त होकर एकाग्र ध्यान से ऊर्जा पहुंचा कर रेकी हीलिंग की जा सकती है.

रेकी विज्ञान के क्षेत्र में प्रारंभिक रुचि रखने वालों को यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी लगेगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 142 – “चित्त शक्ति विलास…” – स्वामी मुक्तानन्द ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है स्वामी मुक्तानन्द जी द्वारा रचित पुस्तक  चित्त शक्ति विलासपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 142 ☆

☆ “चित्त शक्ति विलास…” – स्वामी मुक्तानन्द ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा 

चित्त शक्ति विलास

स्वामी मुक्तानन्द

गुरुदेव शक्ति पीठ, गणेशपुरी

 चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

जीवन क्या है, क्यों है, क्या भगवान कहीं ऊपर एक अलग स्वर्ग की दुनियां में रहते हैं, परमात्मा प्राप्ति का तरीका क्या है, ऐसी जिज्ञासायें युगों युगों से बनी हुई हैं. जिन तपस्वियों को इन सवालों के किंचित उत्तर मिले भी, उन्हें इस ज्ञान की प्राप्ति तक इतने दिव्य अनुभव हो जाते हैं कि वे उस ज्ञान को दूसरों तक पहुंचाने में रुचि खो देते हैं, कुछ अपने मठ या चेले बनाकर इस ज्ञान को एक संप्रदाय में बदल देते हैं. आशय यह है कि यह परम ज्ञान जिसमें हम सब की रुचि होती है, हम तक बिना तपस्या के पहुंच ही नहीं पाता. “चित्त शक्ति विलास” में इस तरह के सारे सवालों के उत्तर सहजता से मिल जाते हैं. भगवान कहीं और नहीं हमारे भीतर ही रहता है. हम भगवान के ही अंश हैं.

गृह्स्थ जीवन में रहते हुये जीवन के इस अति आवश्यक तत्व से आम आदमी अपरिचित ही बना रह जाता है. किन्तु सिद्ध मार्ग के अनुयायी स्वामी मुक्तानन्द के गुरू स्वामी नित्यानंद थे. गुरु के शक्ति पात से स्वामी मुक्तानन्द का कुण्डलनी जागरण हुआ. इस किताब को माँ कुण्डलिनी का वैश्विक विलास कहा गया है. १९७० में प्रथम संस्करण के बाद से अब तक इस किताब की ढ़ेरों आवृत्तियां छप चुकी हैं. यह मेरे पढ़ने में आई यह मुझ पर परमात्मा की कृपा ही है. इसकी किताब की चर्चा केवल इसलिये जिससे जिन तक यह दिव्य ज्ञान प्रकाश न पहुंच सका हो वे भी उससे अवंचित न रह जायें.

सत्य क्या है ? ” शास्त्र प्रतीति, गुरू प्रतीति, और आत्म प्रतिति में अविरोध ही सत्य है.

“मैं, मेरी जाती रहे अल्प भावना, हृद्य में उदय चित्त ज्ञान हो ” यही प्रार्थना स्वामी मुक्तानन्द अपने गुरुदेव से करते हैं, हमें भी इसका अनुसरण करना चाहिये.

आमुख में ही वे इस दिव्य ज्ञान को उजागर करते हुये स्वामी मुक्तानन्द लिखते हें कि “

संसारी जन अपने सभी व्यवहारों के साथ सिद्ध योग का अभ्यास सहजता से कर सकते हैं. यह मार्ग सभी के लिये खुला है. यह कुण्डलिनी शक्ति पदावरूपिणी महादेवी है। इसे कुण्डलिनी के नाम से पुकारते हैं, जो मूलाधार कमल के गर्भ में मृणाल मालिका के समान निहित है। यह कुण्डल आकार में रहती है. वह स्वर्णकान्तियुक्त, तेजोमय है। यह परंशिव की परम निर्भय शक्ति है। वही नर या नारी में जीवरूपिणी शक्ति है। यह प्राणरूप है। मानव अपनी इस अन्तरंग शक्ति को जानकर संसार में रहते हुए उसका उपयोग कर सके इसी उद्देश से मैं इस शक्ति का वर्णन कर रहा हूँ। कुण्डलिनी प्राणवस्वरूप है। उस पारमेश्वरी कुण्डलिनी शक्ति के जग जाने पर जो संसार रुखा, सूखा, रसहीन, असन्तोषयुक्त दिखता है वही रसवान, हराभरा, पूर्ण सन्तोषरूपी बन जाता है।

जो आल्हादिनी, विश्वविकासिनी, पारमेश्वरी शक्ति है, जो चिति भगवती है। वही कुल-कुण्डलिनी है। वह कुण्डलाकार में मूलाधार में स्थित होकर हमारे सर्वांग के व्यवहारों को नियमबद्ध करती है। वह श्रीगुरुकृपा द्वारा जागकर सर्वाग- सहित मानव के इस संसार को उसके अदृष्टानुरूप विकसित करके संसार के जनो में एक दूसरे के प्रति परम मैत्रीपूर्ण ‘परस्पर देवो भव’ की भावना का उदय करते हुए, संसार को स्वर्गमय बनाती है। संसार में जो कुछ भी अपूर्ण है उसे पूर्ण करती है।

यह पारमेश्वरी शक्ति जिस पुरुष में अनुग्रहरूप से जगती है, उसका कायापलट हो जाता है। यह ज्ञान न कल्पित है और न केवल मुक्तानन्द का ही श्रुतिवाक्य है। रुद्रहृदयोपनिषद् का एक सत्य, प्रमाण-मन्त्र है :

 “रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।”

अर्थात इससे ऐसा ज्ञान उदित होता है कि जो आदि-सनातन सत्य, साक्षी परमेश्वर, जगत का मूल कारण, परमाराध्य, निर्गुण, निराकार एवं अज है, वही नर है।

नाम प्रकट परमात्मा है। इसलिये भगवान नाम जपो। नाम ध्याओ’ नाम गाओ । नाम का ही ध्यान करो। नाम जप होता है या नहीं इतना ही ध्यान बहुत है। नाम जपसाधना में रुचि और गुरू में प्रेम पूर्ण | ध्यान की कला देता है। प्रेम की प्रतीति देता है। नाम चिन्ता मणि है। नाम कामधेनु है। नाम कल्पतरू है। दाता है। सच पूछों तो भगवान का नाम वह मंत्र है जो तुमको गुरु से मिला है।

किताब में पहले खण्ड में सिद्धमार्ग के अंतर्गत परमात्मा प्राप्ति के उपाय बताये गये हैं. संसार सुख के लिये ध्यान की आवश्यकता समझाई गई है. जो जिसका ध्यान करेगा उसे वही प्राप्त होता है. परमात्मा का ध्यान करें तो परमात्मा ही मिलेंगे. हर व्यक्ति व स्थान का एक आभा मण्डल होता है अतः एक ही स्थान पर ध्यान करना चाहिये तथा उस स्थान की आभा बढ़ाते रहना चाहिये. स्वामी जी ने उनके साधना काल की अनुभूतियों का भी विशद वर्णन किया है. द्वितीय खण्ड में सिद्धानुशासन के अंतर्गत स्पष्ट बताया गया है कि भगवतत् प्राप्ति के लिये संसार मेंरहते हुये भी मैं और मेरा का त्याग करो, घर का नहीं. सिद्ध विद्यार्थियों के अनुभव भी परिशिष्ट में वर्णित हैं.

यह एक दिव्य ग्रंथ है जो जन सामान्य गृहस्थ को कुण्डलिनी जागरण से परमात्मा प्राप्ति के अनुभव करवाता है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 141 – “टिकाऊ चमचों की वापसी…” – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अशोक व्यास जी की संपादित पुस्तक  “टिकाऊ चमचों की वापसीपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 141 ☆

☆ “टिकाऊ चमचों की वापसी...” – श्री अशोक व्यास ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक चर्चा 

टिकाऊ चमचों की वापसी

श्री अशोक व्यास

भावना प्रकाशन, दिल्ली

संस्करण २०२१

अजिल्द, पृष्ठ १२८, मूल्य १९९ रु

चर्चा. . . विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

टिकाऊ चमचों की वापसी वैचारिक व्यंग्य संग्रह है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

किताब की शुरुवात लेखक के मन में उद्भूत विचारों से होती है. लेखक लिखता है. कम्पोजर कम्पोज करता है. अक्षर शब्द और शब्द वाक्य बन जाते हैं, भाव मुखर हो उठते हैं. प्रकाशक छापता है. समारोह पूर्वक किताबों के विमोचन होते हैं. समीक्षक चर्चा करते हैं. किताब विक्रेता से होते हुये पाठक तक पहुंचती है. पाठक जब पुस्तक पढ़कर लेखक की वैचारिक यात्रा में बराबरी से भागीदारी करता है, तब किंचित यह यात्रा गंतव्य तक पहुंचती लगती है. रचना के दीर्घगामी प्रभाव पड़ते हैं. लेखक सम्मानित होते हैं, पाठक रचनाकार के प्रशंसक, या आलोचक बन जाते हैं. अर्थात किताब की यात्रा सतत है, लम्बी होती है. अशोक व्यास व्यंग्य के मंजे हुये प्रस्तोता हैं. टिकाऊ चमचों की वापसी उनकी दूसरी किताब है. सुस्थापित लोकप्रिय, भावना प्रकाशन से यह कृति अच्छे गेटअप में प्रकाशित है.

सूर्यबाला जी ने प्रारंभिक पन्नो में अपनी भूमिका में पाया है कि लेखक अपने व्यंग्य कर्म में कहीं भी असावधान नहीं है. लालित्य ललित ने संग्रह के व्यंग्य पढ़कर आशा व्यक्त की है कि अपने आगामी संग्रहों में लेखक की चिंताये और व्यापक व अंतर्राष्ट्रीय हों. इस संग्रह में बत्तीस व्यंग्य हैं. पाठको के लिये विषयों पर सरसरी नजर डालना जरूरी है. अंग्रेजी घर पर है?, अजब गजब मध्य प्रदेश, अध्यक्ष जी नहीं रहे. अध्यक्ष जी अमर रहें, आइए सरकार, जाइए, आभासी दुनिया का वास्तविक बन्दा, कलयुग नाम अधारा आपका आधार कार्ड, कृत्रिम बुद्धिमत्ता का भारतीय तरीका, कोरोना कल्चर का प्रभाव, कोरोना की कृपा, गोद ग्रहण समारोह, जा आ आ जा आ आ दू! जा आ आ दू, टिकाऊ चमचों की वापसी, ताली बजाओ ताल मिलाओ, दामाद बनाम फूफाजी, बुरा नहीं मानेंगे. . . चुनाव है, भारत निर्माण यात्रा, मध्यक्षता करा लो. . . मध्यक्षता, रंगबाज राजनीति, लिव आउट अर्थात् छोड़ छुट्टा, विश्व युद्ध की संभावना से अभिभूत, सड़क बनाएँ, गड्ढे खोदें, सतर्क मध्यमार्गी, सत्तर प्लस का युवा गणतन्त्र, साहित्यमति का बाहुबली साहित्यकार, सेवा के लिए प्रवेश, ज्ञान के लिए प्रस्थान, सोशल मीडिया के ट्रैफिक सिग्नल, हलवा वाला बजट, हाँ. मैं हूँ सुरक्षित!, होली के रंग बापू के संग, ईश्वर के यहाँ जल वितरण समस्या, जैसे दूरदर्शन के दिन फिरे, और पोस्ट वाला ऑफिस डाकघर शीर्षकों से हजार, पंद्रह सौ शब्दों में अपनी बात कहते व्यंग्य लेखों को इस पुस्तक का कलेवर बनाया गया है. टाइटिल लेख टिकाऊ चमचों की वापसी से यह अंश उधृत करता हूं, जिससे आपको रचनाकार की शैली का किंचित आभास हो सके. ” प्लास्टिक के चमचों की जगह फिर धातुओ के चम्मचों का इस्तेमाल पसंद किया जा रहा है, यूज एण्ड थ्रो के जमाने में स्थायी और टिकाउ चमचों की वापसी स्वागत योग्य है. वह चमचा ही क्या जो मंह लगाने के बादस फेंक दिया जाये. . . जैसे स्टील के चमचों के दिन फिरे ऐसे सबकें फिरें. . . . अशोक व्यास अपने इर्द गिर्द से विषय उठाकर सहज सरल भाषा में व्यंग्य के संपुट के संग थोड़ा गुदगुदाते हुये कटाक्ष करते दिखते हैं.

परसाई जी ने लिखा था ” बलात्कार कई रूपों में होता है. बाद में हत्या कर दी जाती है. बलात्कार उसे मानते हैं जिसकी रिपोर्ट थाने में होती है. पर ऐसे बलात्कार असंख्य होते हैं जिनमें न छुरा दिखाया जाता है न गला घोंटा जाता है, न पोलिस में रपट होती है “

अशोक जी ने हम सबके रोजमर्रा जीवन में हमारे साथ होते विसंगतियों के ऐसे ही बलात्कारों को उजागर किया है, जिनमें हम विवश यातना झेलकर बिना कहीं रिपोर्ट किये गूंगे बने रहते हैं. उनकी इस बहुविषयक रिपोर्टो पर क्या कार्यवाही होगी ? कार्यवाही कौन करेगा ? सड़क पर लड़की की हत्या होती देखने वाला गूंगा समाज ? व्हाटस अप पर क्रांति फारवर्ड करने वाले हम आप ? या प्यार को कट पीसेज में फ्रिज में रखकर प्रेशर कुकर में प्रेमिका को उबालकर डिस्पोज आफ करने वाले तथाकथित प्रेमी ? हवा के झोंके में कांक्रीट के पुल उड़ा देने वाले भ्रष्टाचारी अथवा सत्ता के लिये विदेशों में देश के विरुद्ध षडयंत्र की बोली बोलने वाले राजनेता ? इन सब के विरुद्ध हर व्यंग्यकार अपने तरीके से, अपनी शैली में लेखकीय संघर्ष कर रहा है. अशोक व्यास की यह कृति भी उसी अनथक यात्रा का हिस्सा है. पठनीय और विचारणीय है.

मैं कह सकता हूं कि टिकाऊ चमचों की वापसी वैचारिक व्यंग्य संग्रह है. अशोक व्यास संवेदना से भरे, व्यंग्यकार हैं. संग्रह खरीद कर पढ़िये आपको आपके आस पास घटित, शब्द चित्रों के माध्यम से पुनः देखने मिलेगा. हिन्दी व्यंग्य को अशोक व्यास से उम्मीदें हैं जो उनकी आगामी किताबों की राह देख रहा है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “सूर्यांश का प्रयाण”… – श्री महेश श्रीवास्तव ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा ☆

श्री प्रियदर्शी खैरा

पुस्तक चर्चा ☆ “सूर्यांश का प्रयाण”… – श्री महेश श्रीवास्तव ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा ☆

पुस्तक – सूर्यांश का प्रयाण

रचनाकार – श्री महेश श्रीवास्तव

प्रकाशक – इंदिरा पब्लिशिंग हाउस, भोपाल

मूल्य – ₹165

☆ गागर में सागर – सूर्यांश का प्रयाण ☆ श्री प्रियदर्शी खैरा  ☆

पत्रकारिता के पुरोधा, मध्य प्रदेश गान के रचयिता श्री महेश श्रीवास्तव के नव प्रकाशित प्रबंध काव्य “सूर्यांश का प्रयाण” को आत्मसात करने के लिए आपको उसी भाव भूमि पर उतरना होगा, जिसमें खोकर कवि ने सृजन किया है। साहित्यकारों एवं कलाकारों को कर्ण का चरित्र सदा से ही आकर्षित करता रहा है। किंतु,कवि ने उसे यहां नई दृष्टि से देखा है। मृत्यु शैया पर लेटे कर्ण के मस्तिष्क में उठ रहे विचारों को व्यक्त करना अपने आप में विलक्षण कार्य है। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय बीता हुआ जीवन चलचित्र की भांति समक्ष में दिखाई देने लगता है। इस स्तर पर रचना करने के लिए आपका विशद अध्ययन एवं अनुभव आवश्यक है और उसे काव्य में अभिव्यक्त करना और भी दुश्कर कार्य है। इस प्रबंध काव्य में कवि का अध्ययन,अनुभव, चिंतन,मनन एवं विषय पर पकड़ स्पष्ट झलकती है।

कवि ने “सूर्यांश का प्रयाण” को पांच खंडो में विभाजित किया है, यथा कुंती, द्रोपदी, युद्ध, दान और विदा, संक्षेप में कहें तो जन्म से मृत्यु।

कुंती ने जन्म दिया, द्रोपदी,युद्ध और दान के बीच जिया और अंत में कवि ने उसके जीवन को चार पंक्तियों में समेटे हुए विदा दी-

     विदा-कुंवारी मां के प्रायश्चित की पीड़ा

     विदा-त्याज्य को पुत्र बनाने वाली माता  

     विदा- लालसा भरे, नीति रीते दुर्योधन

     विदा- अस्मिता की रक्षा की अग्नि शलाका।

यदि पांच सर्गों का दार्शनिक विश्लेषण करें तो पंचतत्व की भांति कुंती सर्ग पृथ्वी है, द्रोपदी जल, तो युद्ध अग्नि, दान  वायु और विदा आकाश। इन सभी में गूढार्थ छिपे हैं,जिन का विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है। कवि का दार्शनिक अध्ययन भी कई स्थानों पर दृष्टिगत होता है-

   दुख मत कर मां

   सभी को कब मिला सब

   सुख पक्षी हैं उड़ेंगे घोंसलों से।

   बांधती जो डोर सुख की पोटली को

   वह स्वयं बनती दुखों की ही बटों से।

एक और उदाहरण देखिए-

    किसी के हाथ में है सूत्र

    हम तो मात्र अभिनेता, नियंत्रित पात्र

    बंधन में बंधे कर्तव्य के

    अभिनय निभाना है

    स्वयं की भावना इच्छा

    किसी आकांक्षा का मूल्य क्या

    बहती नदी में पात

    हमको डूबते, तिरते

    कभी मझधार में बहते

    कभी तट से लिपटते

    उस विराट समुद्र तक

    चुपचाप जाना है।

देखिए इन चार पंक्तियों में कैसा दर्शन छिपा है-

    क्षमा,दंड, प्रशस्ति, लाभ अलाभ हो

    अंत सबका मृत्यु के ही हाथ में

    और जीव ही केवल न मरता मृत्यु में

    मृत्यु की भी मृत्यु होती साथ में।

इस प्रकार के कितने ही प्रसंग इस पुस्तक में आए हैं। कर्ण, कृष्ण से प्रभावित है। हर सर्ग में कृष्ण किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं। कृष्ण की तरह कर्ण का जन्म कुंती की  कोख से हुआ तो पालन पोषण राधे मां ने किया। कर्ण की यह व्यथा कुंती सर्ग में परलक्षित होती है।

कर्ण पर  तीन महिलाओं का विशेष प्रभाव रहा है, जननी कुंती, ममत्व और अपनत्व देने वाली राधे मां और चिर प्रतिक्षित द्रोपदी । द्रोपदी सर्ग में प्रश्न और उनके समाधान को प्राप्त करता हुआ कर्ण, अपनी पूर्ण प्रखरता के साथ प्रस्तुत हुआ है। इस खंड में महाभारत काल में महिला अधिकारों की बात कवि ने की है जो आज भी प्रासंगिक है –

    स्वयंवर में वस्तु वधू होती नहीं

    स्वयं का चुनने भविष्य स्वतंत्र

    खूंटे से बंधी निरीह

    बलि पशु सी विवश होती नहीं।

           अथवा

     हां किये स्वीकार मैंने पांच पति

     देह मन मेरे मुझे अधिकार है

     धर्म सत्ता सब पुरुष के पक्षधर

     स्त्री द्रोही नियम अस्वीकार है

युद्ध खंड में कवि और भी मुखर हुआ है। उसने धर्म युद्ध पर भी प्रश्न उठाया है-

     प्राण लेना लूटना है युद्ध तो

     मृत्यु तब बलिदान कैसे हो गई

     युद्ध सत्ता के लिए जाता लड़ा

     क्रूर हत्या धर्म कैसे हो गई।

दान खंड की इन पंक्तियों में कृष्ण और द्रोपदी

 के प्रति कर्ण के विचार प्रकट हुए हैं-

    —तुम्हारे प्रति गुप्त श्रद्धा

    द्रोपदी के प्रति असीमित प्रेम के हित

   स्वयं के हाथों स्वयं बलदान अपना कर दिया है।

विदा खंड में कर्ण कृष्ण को पहचान गया है-

    जब भी देखा लगा स्वयं तुम चमत्कार हो

    सम्मोहन का मंत्र,मुक्ति के सिंहद्वार हो

    तुम अनंत के छंद, देह होकर विदेह हो

    मुक्त चेतना में जैसे तुम आर पार हो।

यह काव्य मुक्त छंद में लिखा गया है। पर कविता में लय है,गति है, माधुर्य है। कविता नदी की तरह कलकल बहती हुई बढ़ती है, आनंद देती है और सोचने को विवश करती है। कवि  महाभारत में आए कर्ण से संबंधित  प्रसंगो को स्पर्श करते हुए आगे बढ़ता है।कवि ने गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया है।यही कवि की सफलता है। यह पुस्तक हिंदी साहित्य जगत में मील का पत्थर साबित होगी।

चर्चाकार… श्री प्रियदर्शी खैरा

ईमेल – [email protected]

मो. – 9406925564

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print