हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मृग तृष्णा। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा

मृग तृष्णा में भटकता रहा जीवन  भर

यहां से वहां इधर से उधर, उस मन मोहक मृग की चाह में

खेलता रहा जो हमेशा लुका छुपी का खेल

मोहक छवि कभी स्वर्ण सा कभी रजत सा दिखता रहा मृग ||

चल पड़ता अदृश्य होते मृग की खोज में

मादक अदा से बार-बार अदृश्य हो कर मुझे छलता रहा मृग

मस्तिष्क-पटल पर हमेशा अवतरित रहा मृग

भूलना चाहा पर फिर मनमोहक अदा दिखा व्याकुल कर जाता मृग ||

कभी स्वर्ण तो कभी रजत सा दिखता मृग

कभी लगती मन की कल्पना तो कभी पूर्वजन्म की अधूरी अभिलाषा

प्रकट हो लुभावनी अदा से आमंत्रित करता मृग

यौवन लील लिया मृग तृष्णा ने,कभी हासिल हो ना सका मोहक मृग ||

मृग का पीछा करते वृद्ध मार्ग तक पहुँच गया

मृग, मोहिनी अदा से सम्मोहित कर वृद्ध मार्ग पर फिर बढ़ जाता आगे

संध्या हो चली जीवन की, मन तृष्णा से व्यथित

अंधकार की और बढ़ता जीवन,चमकते नैनों से आमंत्रित करता रहा मृग ||

बार-बार मोहिनी अदा दिखा आगे बढ़ जाता

उबड़-खाबड़ दुर्गम कंटीले रास्ते पर बहुत आगे तक ले आया मुझे वो

थक कर विश्राम को बैठ गया राह में

शायद ही उसे पा सकूं मगर फिर सामने आकर मुझे रिझा जाता मृग ||

चारों और घनघोर अँधेरा, अमावस्या की स्याह रात

अब कुछ भी  नजर नहीं आ रहा सिवाय दूर चमकते दो मृग नैनों के

थक कर अब और आगे बढ़ ना पाया,

अंतिम छोर तक पहुंचा कर धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गया मृग ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२५॥ ☆

तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं

गत्वा सद्यः फलम अविकलं कामुकत्वस्य लब्धा

तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मात

सभ्रूभङ्गं मुखम इव पयो वेत्रवत्याश चलोर्मि॥१.२५॥

उसी ओर विदिशा बड़ी राजधानी

पहुंच भोग साधन सकल प्राप्त करके

अधरपान रस सम मधुर जल विमल पी

सुभग तटरवा बेतवा उर्मियों से

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 67 ☆ चांदनी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “चांदनी”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 67 ☆

☆ चांदनी

आसमान की चादर पर चांदनी

मस्त हो, इतरा रही थी,

उसकी ग़ज़ब सी नज़ाकत थी,

एक पाँव भी आगे बढ़ाती

तो हवा पायल बन खनक उठती,

और उसकी मुस्कान पर तो

सेंकडों लोग फ़िदा थे –

उनमें से एक उसका आशिक़

बेपरवाह समंदर भी था!

 

समंदर ने उससे कहा,

“बहुत मुहब्बत करता हूँ तुमसे!”

और वो चांदनी इठलाती हुई

उसकी आगोश में समा गयी!

 

चांदनी तो

यह भी न समझ पायी

कि उसका रूप ही बदल गया है

और वो हो गयी है क़ैद

समंदर के घेरे में…

वो तो उसे एक हसीं मकाँ समझ

खुश रहती!

 

यह तो उसने कई दिनों बाद जाना

कि शांत सा समंदर

दिखता कुछ और था

पर उसके मन में कुछ और था;

उसके मन के ऊफ़ान को देख,

और उसका यह बनावटी पहलू देख,

आज़ादी को तरसने लगी!

 

आज मैंने देर रात को देखा

पहुँच गयी थी वापस आसमान में

और फिर मुसकुरा रही थी!

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ पाखंड ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ पाखंड ☆

बित्ता भर करता हूँ

गज भर बताता हूँ

नगण्य का अनगिन करता हूँ

जब कभी मैं दाता होता हूँ..,

 

सूत्र उलट देता हूँ

बेशुमार हथियाता हूँ

कमी का रोना रोता हूँ

जब कभी मैं मँगता होता हूँ..,

 

धर्म, नैतिकता, सदाचार

सारा कुछ दुय्यम बना रहा

आदमी का मुखौटा जड़े पाखंड

दुनिया में अव्वल बना रहा..!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२४॥ ☆

पाण्डुच्चायोपवनवृतयः केतकैः सूचिभिन्नैर

नीडारम्भैर गृहबलिभुजाम आकुलग्रामचैत्याः

त्वय्य आसन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ताः

संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णाः॥१.२४॥

सुमन केतकी पीत शोभित सुखद कुंज

औ” आम्रतरु , काकदल नीड़वासी

लखोगे घिरे वन फलित जंबु तरु से

पहुंचते दशार्ण हंस अल्प प्रवासी

दशार्ण …  अर्थात वर्तमान मालवा मंदसौर क्षेत्र

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )

✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

मौत कहो या जिंदगी, अंधियारे के बीच।

भटके अपने रामजी, रुपयों का मारीच।।

 

लोगों मत अचरज करो, धरो चित्त में बात।

पतझड़ पायी टूठ को, हरा  करे बरसात।।

 

उपन्यास – सा मैं जिया, बहा कि जैसे काव्य।

कथा कहानी की तरह, हर घटना संभाव्य।।

 

मानसरोवर जिंदगी, मन हो गया मराल।

ताल बीच है जालिये, लिए हाथ में जाल।।

 

काव्य उपजता प्रेम से, प्रेम जगाता भाव ।

चोट चुभन भी झेलता, कवि का सरल स्वभाव।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 33 – विचलित सी धुन …☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “विचलित सी धुन… । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 33 ।। अभिनव गीत ।।

☆ विचलित सी धुन … ☆

इस मैली दीप्ति

का उलाहना-

“मँहगा है जी

इज्जत उगाहना”

 

नीम तले आतप

से उद्घाटित

धूप पवन के झोंकों

से बाधित

 

विचलित सी धुन

कई विचारों की

नहीं सुनती गगन

का कराहना

 

चोटियाँ गूँथती

विस्थापित है

आँख में अर्थ में

स्थापित है

 

यों सहज करती

रही स्तवन में

दबी जुबाँ इसकी

ही सराहना

 

बादलों के शाल

में लपेट कर

दिन के संथाल

को समेटकर

 

संध्या ही है जो

समझती है

जानती कैसे

इसे निबाहना

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

17-01-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ कुंदन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ कुंदन ☆

नित्य आग में

जलाया जाना,

तेज़ाब में रोज़

गलाया जाना,

लहुलुहान

की जाती वेदनाएँ,

क्षत-विक्षत

होती संवेदनाएँ,

अट्टहासों के मुकाबले

मेरे मौन पर

चकित हैं,

कुंदन होने की

प्रक्रिया से वे

नितांत अपरिचित हैं!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 6:29 बजे, 25.3.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #26 ☆ मकर संक्रांति ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है जिंदगी की हकीकत बयां करती एक भावप्रवण कविता “मकर संक्रांति”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 26 ☆ 

☆ मकर संक्रांति ☆ 

सुर्य उत्तरायण में आया

एक संदेशा संग-संग लाया

अब कम होगा अंधियारा

बढ़ता जायेगा प्रकाश

पतझड़ बीतेगा पल पल

जगेगी नव जीवन की आस

फूलों के मेले लगेंगे

यौवन के रेले लगेंगे

महकेगा हर आंगन आंगन

चहकेगा हर प्रांगण प्रागंण

ठिठुरन भरा शिशीर जायेगा

रंग बिखेरता बसंत आयेगा

 

देश के हर एक प्रांत में

खुशीयों की भरमार है

भिन्न भिन्न प्रथायें

भिन्न भिन्न त्योहार है

कहीं लोहिड़ी, कहीं पोंगल

कहीं मनी मकर संक्रांति

तिड़-गुड़, मुंगफली बांटकर

मिटा रहे हैं मनकी भ्रांति

तिड़ गुड़ खाओ, मीठा बोलो

बंद दिल के दरवाजे खोलो

गांठें खोलो गले लगाओं

मकर संक्रांति दिल से मनाओ

 

आओ मिलकर पतंग उड़ाये

आसमान में हम छा जाये

रंग बिरंगी अपनी पतंगें

हमारी संस्कृति को दर्शाये

जिसका होगा प्रेम का धागा

स्नेह का मांझा सीदा-सादा

सपनों की उड़ती हुई पतंग

नीलगगन से

करती हो मिलने का वादा

कितने रंगों में रची बसी है

यह मकर संक्रांति

तिलों में तेल बहुत हैं

फिर भी है शांति

हवायें मदहोश है

तिनकों में भी जोश है

कहीं यह फैला ना दे

चारों तरफ अशांति

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२३॥ ☆

 

उत्पश्यामि द्रुतमपि सखे मत्प्रियार्थं यियासोः

कालक्षेपं ककुभसुरभौ पर्वते पर्वेते ते

शुक्लापाङ्गैः सजलनयनैः स्वागतीकृत्य केकाः

प्रतुद्यातः कथम अपि भवान गन्तुम आशु व्यवस्येत॥१.२३॥

कुटज पुष्पगंधी शिखर गिरि ,प्रखर हर

जो ममतोष हित आशु गतिवान तुमको

कही रोक ले तो सखे भूलना मत

रे सुन मोर स्वर ,पहुंचना जिस तरह हो

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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