(प्रस्तुत है श्रीमति सुजाता काले जी की एक भावप्रवण कविता । यह सच है कि सिर्फ समुद्र का पानी ही खारा नहीं होता। आँखों का पानी भी खारा होता है। हाँ, यह एक प्रश्नचिन्ह है कि स्त्री और पुरुष दोनों की आँखों का खारा पानी क्या क्या कहता है? किन्तु, एक स्त्री की आँखों के खारे पानी के पीछे की पीड़ा एक स्त्री ही समझ सकती है। इस तथ्य पर कल ई-अभिव्यक्ति संवाद में चर्चा करूंगा । )
प्रिय,
तुम्हारा मुझसे प्रश्न पूछना,
“तुम कैसी हो?”
और मेरा
आँखों का खारा पानी
छिपाकर कहना,
“मैं ठीक हूं।”
तब तुम्हारी व्यंग्य भरी
हँसी चुभ जाती थी
और गहरा छेद करती थी
हृदय में।
आज उसी प्रश्न का
उत्तर देने के लिए
आँखें डबडबा रही हैं।
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। जीवन के कटु सत्य को उजागर करती हृदयस्पर्शी कविता।)
(सुश्री सुषमा सिंह जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। सुश्री सुषमा सिंह जी की कविता “छल” एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता है जो पाठक को अंत तक एक लघुकथा की भांति उत्सुकता बनाए रखती है। सुश्री सुषमा जी की प्रत्येक कविता अपनी अमिट छाप छोड़ती है। उनकी अन्य कवितायें भी हम समय समय पर आपसे साझा करेंगे।)
हाथों में थामे पाति और अधरों पर मुस्कान लिए
आंखों के कोरों पर आंसु, और मन में अरमान लिए
हुई है पुलिकत मां ये देखो, मंद मंद मुस्काती है
मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।
बार-बार पढ़ती हर पंक्ति, बार-बार दोहराती है
लगता जैसे उन शब्दों को पल में वो जी जाती है
अपलक उसे निहार रही है, उसको चूमे जाती है
मेरे प्यारे बेटे ने मुझको भेजी पाति है।
परदेस गया है बेटा, निंदिया भी तो न आती है
रो-रो कर उस पाति को ही बस वो गले लगाती है
पढ़ते-पढ़ते हर पंक्ति को, जाने कहां खो जाती है
खोज रही पाति में बचपन, जो उसकी याद दिलाती है
कितनी हो बीमार, हो कितना भी संताप लिए
खिल जाए अंतर्मन उसका, जब बेटे की आती पाति है
फिर से आई एक दिन पाति, वो तो जैसे हुई निहाल
बेटे की पाति पाकर के, खुशी से खिला था उसका भाल
उसे देख पाने की इच्छा, मन में कहीं दबाए थे
अंखियां थी अश्रु से भीगी, सबसे रही छिपाए थी
अंतिम सांसे गिनते-गिनते, सभी पातियां रही संभाल
पीड़ा थी आंखों में उसके, खोज रही थीं अपना लाल
आंचल में उस दुख को समेटे, और दिल पर लिए वो भार
दर्द भरी सखियों को संग ले, अब वो गई स्वर्ग सिधार।
बीते दिन किसी ने पिता से पूछा, क्या आई बेटे की पाति है?
मौन अधर अब सिसक पड़े थे, अश्रु बह निकले छल-छल
अब न आएगी कोई पाति, अब न होगा कोलाहल
मैं ही भेजा करता था पाति, मैं ही करता था वो छल
अब न आएगी कोई पाती, अब न होगी कोई हलचल
उस दुखिया मां को सुख देने को, मैं ही करता था वो छल।
(प्रस्तुत है डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”। संयोगवश आज ही के अंक में भगवान शिव जी परआधारित श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक और रचना “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा” प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के सममानीय कवियों का हार्दिक आभार।)
(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की कविता “वह दूर हैं शिवालय, शिवका मुझे सहारा”। संयोगवश आज ही के अंक में भगवान शिव जी परआधारित डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जीकी एक और रचना “शिवो अहं शिवो अहं शिवो अहं”प्रकाशित हुई है। दोनों ही कविताओं के भाव विविध हैं। दोनों कविताओं के सम्माननीय कवियों का हार्दिक आभार।)
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। एक माँ के जज़्बातों को एक माँ ही महसूस कर सकती हैं। डॉ मुक्ता जी की परिकल्पना में निहित माँ -बेटे के स्नेहिल सम्बन्धों और माँ के वात्सल्यमयी अपेक्षाओं को इससे बेहतर लिपिबद्ध करना असंभव है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को नमन ।)
(सुश्री सुषमा भंडारी जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। आप साहित्यिक संस्था हिंदी साहित्य मंथन की महासचिव एवं प्रणेता साहित्य संस्थान की अध्यक्षा हैं ।आपको यह कविता आपको ना भाए यह कदापि संभव नहीं है। आपकी विभिन्न विधाओं की रचनाओं का सदैव स्वागत है। )