हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 139 ☆ हरियाली ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता “हरियाली”।)  

☆ कविता # 139 ☆ हरियाली ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

तुम्हारा हरियाली से 

इस तरह नाराज होकर 

सूख जाने का कोई 

न कोई मतलब होगा 

तुम्हारा इस तरह से 

नाराज होकर सूख जाना 

फिर सूख कर खड़े रहना 

हरियाली को आहत करता है

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 83 ☆ # जुहू चौपाटी पर एक शाम # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# जुहू चौपाटी पर एक शाम #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 83 ☆

☆ # जुहू चौपाटी पर एक शाम # ☆ 

(मुंबई दर्शन में जुहू चौपाटी परजो देखा उसको शब्दों में पिरोया है…)

जुहू की एक शाम

आप सबके नाम

शाम धीरे धीरे ढल रही थी

किनारे किनारे लाइटें

धीमें धीमें जल रही थी

ठंडी ठंडी हवा बह रही थी

आलिंगन बध्द युगलों को

कुछ कह रही थी

आ रहे थे रेले के रेले

लग रहे थे मेले के मेले

सज रही थी चौपाटी

सजे हुए थे ठेले

समंदर में ऊंची ऊंची

उठ रही थी लहरें

सिहर उठे थे लोग

जो थे किनारे पर ठहरे

शुभ्र शुभ्र लहरें

पांवों को चूम रही थी

छोटे, बड़े, तरूनाई

मस्ती में झूम रहीं थी

रेत के छोटे छोटे कण

पांव की उंगलियों में सज रहे थे

बिछिया बनकर

 धीमे धीमे चुभ रहे थे

रात धीरे धीरे आगे सरक रही थी

पागल पवन मदहोश हो

बहक रही थी

चांद तारे अंबर में

चमक रहे थे

भीगे भीगे वस्त्रों में

यौवन आग से दहक रहे थे

 

हम भी अपनी पत्नी के साथ

लेकर हाथ में हाथ

हमको भी लहरों के बीच

होना पड़ा खड़ा

पत्नी को खुश करने

लहरों से भीगना पड़ा

हम किनारे पर आकर बैठ गए

किराए की चटाई पर लेट गए

लहरों ने हमको

छेड़ना नहीं छोड़ा

यहां पर भी

भिंगोना नहीं छोड़ा

हम पुरानी यादों में खो गये

जवानी के दिन हमको

याद आ गये

विमान की गड़गड़ाहट ने

हमारी शांति लूटी

हमारी तंद्रा टूटी

हमने पाव भाजी खाई

आसमान के चांद को दी बधाई

धीरे धीरे ढल रही थी

मदहोश रात

बादलों में छुपी हुई थी

तारों की बारात

लहरें अभी भी

आ रही थी, जा रही थी

अपने प्रियतम समुद्र में

समा रहीं थी

और

हम दोनों

हाथों में हाथ लिए

निश:ब्द बिना कुछ कहे

आंखों में आंखें डालें

जज़्बातों को

संभाले संभाले

चल रहे थे

अपने अपने

ठिकाने की तरफ

धीरे धीरे ——!

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 19 (1 – 5) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -19

रघुवंश के तब जितेन्द्रिय सुदर्शन ने हो वृद्ध ‘अग्निवर्ण’ को राजा बनाया

था अग्नि सा तेज उसका हो आश्वस्त उसे नैमिषारण्य आवास भाया।।1।।

 

वहां तीर्थजल वावली से सुखद था, बिछी कुश घनी भूमि शैय्या से सुन्दर।

लगी पर्णशाला महल से भी अच्छी, भुला सब इसी से हुये तप में तत्पर।।2।।

 

पा पिता के उपार्जित राज्य को अग्निवर्ण ने सुखोपभोग साधन बनाया।

है राज कर्तव्य जन-धन सुरक्षा ही शायद ये उसकी समझ में न आया।।3।।

 

कुछ वर्षों खुद देख शासन व्यवस्था राजा ने सचिवों पै सब भार डाला।

यौवन को अग्निवर्ण ने और अपने केवल रमणियों के लिए ही संभाला।।4।।

 

मृदंगों की ध्वनि बढ़ चली राज भवनों में उत्सव हुये जो कि होते नहीं थे।

सदा कामनियों की ललित काम क्रीडायें होती थी अग्निवर्ण सोते नहीं थे।।5।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 94 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 94 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 94) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 94 ?

☆☆☆☆☆

कांटा क्या चुभा पैर में

एक आस सी बंध गई

कोई तो गुलाब जरूर

होगा इस गली में …!  

Just a thorn prick in the foot,

kindled a ray of hope

That atleast a rose must be

there in this street…!

☆☆☆☆☆

तेरी आँखों में पढ़ लेते हैं *

लोग मेरे इश्क की आयतें,

*किसी के दिल में इतना *

बस जाना भी अच्छा नहीं होता…

People read in your eyes

the verses of my love,

Staying so much in someone’s

heart is also not good…

☆☆☆☆☆

हम किसी और के हो जायें

तो हैरत कैसी…

तुमने जो जख्म दिए हैं

उन्हें भरना भी तो है…

Why should you be surprised

if I become someone else’s

The wounds that you gave,

too, have the right to heal…

☆☆☆☆☆

किसने किसको छोड़ा

इससे क्या फ़र्क पड़ा,

तन्हा तुम भी हुए

तन्हा हम भी रहे…

Who left  whom,

what difference does it make

You too became alone

I too remained lonely only

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 94 ☆ सॉनेट – दर्पण… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित सॉनेट – दर्पण… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 94 ☆ 

☆ सॉनेट – दर्पण…  ☆

दाएँ को बायाँ दिखलाए

फिर भी दुनिया यह कहती है

दर्पण केवल सत्य बताए।

असत सत्य सम चुप तहती है।

 

धूल नहीं मन पर जमती है

सही समझ सबको यह आए

दर्पण पोंछ धूल जमती है।

मत कह मन दर्पण कहलाए।

 

तेरे पीछे जो रहती है

वस्तु उसे आगे दिखलाए

हाथ बढ़ा तो कब मिलती है?

दर्पण हरदम ही भरमाए।

 

मत बन रे मन मूरख भोले।

मत कह दर्पण झूठ न बोले।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२४-५-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #125 ☆ कविता – सब सूखा सूखा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 125 ☆

☆ ‌ कविता – सब सूखा सूखा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(आज मानव की स्वार्थपरता के चलते पर्यावरण असंतुलन अपने घातक स्तर को पार कर चुका है, परिणाम सूखा, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा जिसका जनक मानव  स्वयं है,  धरती आग का गोला बन धधकती दीख रही है, जिसके चलते पर्यावरणीय विद्रूपता स्पष्ट रूप से  दीख रही है जिसका संदेश रचना कार अपने रचना के माध्यम से  देना चाहता है।)

धरती सूखी अंबर सूखा, सूख गये सब  स्रोत सजल।

आते जाते रहते बादल, देते नहीं मेघ अब जल।

सावन सूखा  सूखी हरियाली, बदला बदला मौसम  निर्जल।

बंजर बांझ हुइ  भूमी,   सूखे पेड़ नहीं है फल ।

आग बरसती अंबर से, धधक रही  बन  दावानल।।

 

उड़ते गिरते पंख पखेरू, और तड़पती मछली।

पानी बिन सावन उदास है, रोती तीज़ अरू कजली।

हरियाली अब खत्म हुई है,  मुरझाए सब फूल।

बगिया में भी उग आए, अब कीकड़ और बबूल।।

 

ताल तलैए सारे सूखे, निर्झरिणी का सूखा स्रोत।

मरते जीव जगत के प्राणी, बिनु पानी के प्यासे लोग।

पेड़ कटे सब दरवाजे के, उजड़ा है चिड़ियों का नीड़।

 रिस्तों में ममता है सूखी, कौन सुने रिस्तों की पीड़।

आंखों के आंसू बनकर पीड़ा, ढुरके बन कर मोती।

 अब भी चेत अरे! ओ मानव, कर ले नेकी की खेती।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (46-53)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (46 – 53) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

जिस आयु में अक्षर ज्ञान भी विधिवत पूरा कोई नहीं पाता।

उस आयु में भी सुन सीख बड़ों से नीति ‘सुदर्शन’ था गाता।।46।।

 

बालक के लघु वक्ष मे स्थान कम देख करते हुये प्रौढ़ता की प्रतीक्षा।

लक्ष्मी लजाती सी छत्र रूप में ही छू उसकों करती थी निज पूर्ण इच्छा।।47।।

 

भुजायें सुदर्शन की थी नहीं धुर सम नहीं धनुष संधान की उनमें क्षमता।

न ही असि उठाया था उसने कभी किन्तु थी राज्य-रक्षा की पूरी सबलता।।48।।

 

समय साथ केवल न ही देह के अंग, विकसित हुये वरन गुण, वृद्धि पाये।

सब शौर्य, औदार्य, कुल-गुण जो थे सूक्ष्म, भी हुये विकसित प्रजा मन को भाये।।49।।

 

पूर्व जन्म में जैसे देखी गई सी सुपरिचित सभी नीति वह समझ पाया।

सुगम बनाते गुरूजनों का कठिन कार्य अर्थ, धर्म, दण्ड, नीतियाँ सीख पाया।।50।।

 

उत्तरार्ध को तान, कस केश, मुड़ बाँयें, जब खींचता कान तक बाण था वो।

अभ्यास करते धनुष साधने का बहुत प्यारा लगता था तब दर्शकों को।।51।।

 

किया प्राप्त यौवन सुदर्शन ने फिर जो कि, प्रमदाओं को मधुर अमृत सदृश है।

जो कल्पतरू का महकता हुआ पुष्प, अनुराग-पल्लव छलकता सा रस है।।52।।

 

सुन्दर अधिक स्वप्न-सुन्दरियों से भी, आनीत सविचों से धार्मिक विद्या से।

धरित्री औ’ धनश्री की बनने सपप्नी, वरण किया कई ने उसे तब प्रथा से।।53।।

अठारहवाँ  सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #144 – ग़ज़ल-30 – “पैमाना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “पैमाना…”)

? ग़ज़ल # 30 – “पैमाना …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हर दुनियावी शख़्स का होता एक तय पैमाना है,

तौल कर देखिए हम सबका एक तय पैमाना है।

 

ज़िंदगी का ज़हर लोग गले में धीरे-धीरे उतारते,

बाहरी खोल जो हमें दिखता एक तय पैमाना है।

 

चाहत है खिला सकूँ मौज़ू चेहरों को महफ़िल में,

आँसुओं में झिलमिलाती रोशनी तय पैमाना है।

 

तिरछी होती जा रहीं महफ़िल में कुछ निगाहें,

मजलिस में मौजू दिमाग़ों  का तय पैमाना है।

 

नज़रों में पानी की कैफ़ियत अलग होती है हुज़ूर,

कद्रदाँ पेशानी पर उभरती रेखाएँ तय पैमाना है। 

 

फ़िरक़ों में बाँट कर रख दी खूबसूरत ज़िंदगी,

ईसा ओ मुहम्मद का भी एक तय पैमाना है।

 

हिंद की खुली फ़िज़ाओं में ज़िंदगी गुज़ार देखो,

जिसके गुलशन में ख़ुश्बू का नहीं तय पैमाना है।

 

मुनासिब नहीं हर शेर पर हौसला अफजाई हो,

चुप हाज़िरान भी उनकी तारीफ़ का पैमाना है।

 

मासूम माथे पर लिख दिया इंजीनियर डॉक्टर,

हँसते-खेलते बचपन का मार्कशीट तय पैमाना है।

 

तुम रिश्तों में भावना की असलियत न पूछो,

बैंक पास बुक में असल रक़म तय पैमाना है।

 

माना बहुत बेरंग चेहरा उस रोशन दिमाग़ का,

आख़िर वो किसी न किसी ढंग का पैमाना है।

 

तुम्हें क्या पता शायर को क्या मुश्किल आती है,

‘आतिश’ दिल को पिघला कर ढालता पैमाना है।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 83 ☆ गजल – ’’जुड़ गया है आंसुओं का…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “जुड़ गया है आंसुओं का …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 83 ☆ गजल – जुड़ गया है आंसुओं का…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बीत गये जो दिन उन्हें वापस कोई पाता नहीं

पर पुरानी यादों को दिल से भुला पाता नहीं।

बहती जाती है समय के साथ बेवस जिंदगी

समय की भँवरों से बचकर कोई निकल पाता नहीं।

तरंगे दिखती हैं मन की उलझनें दिखती नहीं

तट तो दिखते हैं नदी के तल नजर आता नहीं।

आती रहती हैं हमेशा मौसमी तब्दीलियॉ

पर सहज मन की व्यथा का रंग बदल पाता नहीं।

छुपा लेती वेदना को अधर की मुस्कान हर

दर्द लेकिन मन का गहरा कोई समझ पाता नहीं।

उतर आती यादें चुप जब देख के तन्हाइयाँ

वेदना की भावना से कोई बच पाता नहीं।

जगा जाती आके यादें सोई हुई बेचैनियाँ

किसी की मजबूरियों को कोई समझ पाता नहीं।

जुड़ गया है आंसुओं का यादों से रिश्ता सघन

चाह के भी जिसको कोई अब बदल पाता नहीं।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (41 – 45) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

सिंहासन पर बैठे राजा के लधु आलक्तक-युक्त चरण।

जो पाद-पीठ पर जम न सकें, राजाओं ने उनको किया नमन।।41।।

 

ज्यों इन्द्रनील मणि छोटा भी कहलाता गुण से महानील।

त्यों ही महाराज सुदर्शन नाम था सार्थक देख शील।।42।।

 

चामर से नित जिसके गालों पै खेलती थी काली अलकें।

उस बाल नृपति की आज्ञा हित जल-निधि तक उत्सुक थी पलकें।।43।।

 

स्वर्णाभूषण-भूषित ललाट पै तिलक सजाये राजा ने।

हँसते हँसते की तिलक हीन अरि की सब सुन्दर वनितायें।।44।।

 

था कुसुम शिरीष सदृश कोमल, थक देता था भूषण उतार।

फिर भी सक्षमता से अपनी धारे था, धरती राज्य भार।।45।।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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