हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 108 – लघुकथा – प्रायश्चित ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय लघुकथा  “प्रायश्चित”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 108 ☆

? लघुकथा – प्रायश्चित ?

चमचमाती कार से उतरकर जिस घर के सामने सेठ रूपचंद खड़ा था। मन में घबराहट, बेचैनी और बेटी के बाप होने की वजह से अब वह स्वयं दबा जा रहा था। डोर बेल बजने पर चमकीली साड़ी, गहने से लदी सौम्य सुंदर महिला को देखकर थोड़ी देर बाद ठिठक गया।

पसीने से तरबतर बड़े ही गौर से उसे देखने लगा। बिजली सी कौंध गई। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। वर्षों पहले फुलवा से दोस्ती की थी। बात शादी तक पहुंच गई थी। शादी के बहकावे में आकर विश्वास में फुलवा अपना सर्वस्व निछावर कर बैठी थी।

लेकिन रूपचंद ने अपनी अमीरी और उसकी गरीबी का मजाक उड़ाते उसे एक ऐसी जगह ला छोड़ा था, जहां से उसे निकलना भी मुश्किल था। समय पंख लगा कर उड़ा। फुलवा का बेटा बाहर नौकरी करता था और रूपचंद की बेटी से बहुत प्यार करता था।

बस आज अपनी बिटिया के लिए वह फुलवा के घर आया था। परंतु उसे नहीं मालूम था कि जिसको वह ठुकरा कर किसी और के हाथों बेच गया था, उसी के घर उसकी अपनी बिटिया शादी करेगी।

“नमस्कार” फुलवा ने कहा “आइए मुझे इसी दिन का इसी पल का इंतजार बरसों से था। बस ईश्वर से एक ही प्रार्थना करती थी कि तुम से एक मुलाकात जरूर हो। पर ऐसी मुलाकात होगी मैंने नहीं सोचा था। अब तुम ही बताओ इस रिश्ते को मैं क्या करूं?” रूपचंद फुलवा के पैरों गिर पड़ा गिड़गिड़ाने लगा।

“मेरी बेटी को बचा लीजिए। मैं कहीं का नहीं रह जाऊंगा। सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी।” फुलवा ने देखा रूपचंद रो-रो कर परेशान हो रहा था। आज उसके हाथ जोड़ने और आंखों से गिरते आंसू बता रहे थे कि बेटी का दर्द क्या होता है। फुलवा का बेटा कमरे से बाहर आया। निकलते हुए बोला “माँ यही है मीनू के पिता जी। इनकी बेटी से मैं बहुत प्यार करता हूं और ये शादी की बात करने हमारे यहां आए हैं।”

फुलवा ने कहा – “बेटा मुझे तुम्हारी पसंद से कोई शिकायत नहीं है। परंतु कुछ घाव भरने के लिए सेठ रूपचंद जी को अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम करनी होगी। और तभी मैं इनको अपना संबंधी बना पाऊंगी।” हमेशा दहेज के खिलाफ बोलने वाली माँ के मुंह से दहेज की बात सुनकर उसका बेटा थोड़ा परेशान हुआ। और सेठ जी ने देखा कि बात तो बिल्कुल सही कह रही है यदि इस प्रकार का सौदा है तो भी वह फायदे में ही रहेगा। क्योंकि शायद वह उसका प्रायश्चित करना चाह रहा था।

तुरंत हाँ कहकर उसने अपनी बेटी मीनू की शादी फुलवा के बेटे से तय करने का निश्चय किया और बदले में फुलवा से कहा – “जो बात बरसों पहले हो चुकी। उसे भूल कर मुझे माफ कर देना। शायद यही मेरी सजा है।” बेटे को कुछ समझ नहीं आया। माँ से इतना जरूर पूछा – “आप तो हमेशा दहेज के खिलाफ थी पर आज अचानक आपको क्या हो गया?” फुलवा ने हँसते हुए कहा – “पुराना हिसाब बराबर जो करना है।”

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हमसफ़र ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा ‘हमसफ़र’।)

☆ लघुकथा – हमसफ़र ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

आंदोलन ख़त्म होते ही राजधानी की सीमा पर बने अस्थायी घर टूटने लगे। सारा सामान ट्रॉलियों पर लादा जाने लगा। मानसा ज़िले के एक गाँव के कुछ किसान जिस घर में रह रहे थे, उस घर के टूट जाने के बाद सारा सामान ट्रॉली पर लाद रहे थे। थोड़ी दूरी पर एक पिल्ला चुपचाप खड़ा उन्हें ऐसा करते देख रहा था। वह अपनी जगह पर इतना स्थिर था कि जैसे वहीं उगा कोई पेड़ हो। उसे देख कर एक किसान ने कहा, “ओये देखो यारो, यह कितना उदास दिख रहा है।”

“उदास तो होणा ही है। अपणी दी रोटी खाता था, अपणे ही पास सो भी जाता था। अज्ज आपां जा रहे हैं। सच्ची दसणा, आपां उदास नईं? लगदा, जैसे अपणा घर छूट रहा है। अपणा यह हाल है तो इसका तो होणा ही है।” दूसरे ने कहा।

“इसको समझ नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है, ये सब लोग कर क्या रहे हैं, कोई अनहोनी तो नहीं वापर गई!” तीसरे ने कहा।

“यारो यह पिल्ला हमारे आंदोलन के दौरान की पैदाइश ही है। हमारे सहारे का इसको भरोसा था, अब यह किसके सहारे? कल्ला रहेगा तो मर नहीं जायेगा?” चौथे ने कहा।

“ओये नहीं रहेगा यह कल्ला! यह अपणे साथ रहता था, अपणे साथ ही रहेगा। आपां ने इसको बेसहारा नईं होणे देणा।” यह कहते हुए एक किसान ने उसे उठाकर ट्रॉली में बिठा दिया।

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #72 – गलती स्वयं सुधारें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #72 – गलती स्वयं सुधारें ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार गुरू आत्मानंद ने अपने चार शिष्यों को एक पाठ पढाया। पाठ पढाने के बाद वह अपने शिष्यों से बोले – “अब तुम चारों इस पाठ का स्वाध्ययन कर इसे याद करो। इस बीच यह ध्यान रखना कि तुममें से कोई बोले नहीं। एक घंटे बाद मैं तुमसे इस पाठ के बारे में बात करुँगा।“

यह कह कर गुरू आत्मानंद वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद चारों शिष्य बैठ कर पाठ का अध्ययन करने लगे। अचानक बादल घिर आए और वर्षा की संभावना दिखने लगी।

यह देख कर एक शिष्य बोला- “लगता है तेज बारिश होगी।“

ये सुन कर दूसरा शिष्य बोला – “तुम्हें बोलना नहीं चाहिये था। गुरू जी ने मना किया था। तुमने गुरू जी की आज्ञा भंग कर दी।“

तभी तीसरा शिष्य भी बोल पड़ा- “तुम भी तो बोल रहे हो।“

इस तरह तीन शिष्य बोल पड़े, अब सिर्फ चौथा शिष्य बचा वो कुछ भी न बोला। चुपचाप पढ़ता रहा।

एक घंटे बाद गुरू जी लौट आए। उन्हें देखते ही एक शिष्य बोला- “गुरूजी ! यह मौन नहीं रहा, बोल दिया।“

दुसरा बोला – “तो तुम कहाँ मौन थे, तुम भी तो बोले थे।“

तीसरा बोला – “इन दोनों ने बोलकर आपकी आज्ञा भंग कर दी।“

ये सुन पहले वाले दोनों फिर बोले – “तो तुम कौन सा मौन थे, तुम भी तो हमारे साथ बोले थे।“

चौथा शिष्य अब भी चुप था।

यह देख गुरू जी बोले – “मतलब तो ये हुआ कि तुम तीनों ही बोल पड़े । बस ये चौथा शिष्य ही चुप रहा। अर्थात सिर्फ इसी ने मेरी शिक्षा ग्रहण की और मेरी बात का अनुसरण किया। यह निश्चय ही आगे योग्य आदमी बनेगा। परंतु तुम तीनों पर मुझे संदेह है। एक तो तुम तीनों ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया; और वह भी एक-दूसरे की गलती बताने के लिये। और ऐसा करने में तुम सब ने स्वयं की गलती पर ध्यान न दिया।

आमतौर पर सभी लोग ऐसा ही करते हैं। दूसरों को गलत बताने और साबित करने की कोशिश में स्वयं कब गलती कर बैठते हैं। उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। यह सुनकर तीनो शिष्य लज्जित हो गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की, गुरू जी से क्षमा माँगी और स्वयं को सुधारने का वचन दिया।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 80 ☆ एक और फोन कॉल … ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है कोविड महामारी की काली छाया में उपजी सच्ची कहानियों पर आधारित हृदय को झकझोरने वाली लघुकथा ‘एक और फोन कॉल ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 80 ☆

☆ लघुकथा – एक और फोन कॉल … ☆

फोन की घंटी बजती तो पूरे परिवार में सन्नाटा छा जाता। किसी की हिम्मत ही नहीं होती फोन उठाने की। पता नहीं कब, कहाँ से बुरी खबर आ जाए। ऐसे ही एक फोन कॉल ने तन्मय के ना होने की खबर दी थी।  तन्मय कोविड पॉजिटिव होने पर खुद ही गाडी चलाकर गया था अस्पताल में एडमिट होने के लिए। डॉक्टर्स बोल रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक है। उसके बाद उसे क्या हुआ कुछ समझ में ही नहीं आया।अचानक एक दिन अस्पताल से फोन आया कि तन्मय नहीं रहा।  एक पल में  सब कुछ शून्य में बदल गया। ठहर गई जिंदगी। बच्चों के मासूम चेहरों पर उदासी मानों थम गई।  वह बहुत दिन तक समझ ही नहीं सकी कि जिंदगी  कहाँ से शुरू करे। हर तरह से उस पर ही तो निर्भर थी अब जैसे कटी पतंग। एकदम अकेली महसूस कर रही थी अपने आप को। कभी लगता क्या करना है जीकर ? अपने हाथ में कुछ है ही नहीं तो क्या फायदा इस जीवन का ? तन्मय का यूँ अचानक चले जाना भीतर तक खोखला कर गया उसे।

ऐसी ही एक उदास शाम को फोन की घंटी बज उठी, बेटी ने फोन उठाया।  अनजान आवाज में कोई कह रहा था – ‘बहुत अफसोस हुआ जानकर कि कोविड के कारण आपके मम्मी –पापा दोनों नहीं रहे।  बेटी ! कोई जरूरत हो तो बताना, मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में ही रहता हूँ।’

बेटी फोन पर रोती हुई, काँपती आवाज में जोर–जोर से कह रही थी – ‘मेरी मम्मी जिंदा हैं, जिंदा हैं मम्मा। पापा को कोविड हुआ था, मम्मी को कुछ नहीं हुआ है। हमें आपकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना  मम्मी —‘

और तब से वह जिंदा है।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 100 – लघुकथा – नेताजी के अरमान ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “नेताजी के अरमान।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 100 ☆

☆ लघुकथा — नेताजी के अरमान ☆ 

नेता ने अपने पास बैठते ही ठेकेदार से कहा, “आजकल बहुत बड़े ठेकेदार बन गए हो। सुना हैं जिसका ठेका मिला है उसे बिना उद्घाटन भी चालू करवाना चाहते हो।”

“जी वह ऐसा है कि….”

“हां, जानता हूं। कोई न कोई बहाना बना कर पैसा बचाना चाहते हो? सोचते हो कि उद्घाटन में जितना पैसा खर्च होगा, उतने में दूसरा अन्य काम कर लोगे? यही ना?”

“नहीं, नेताजी ऐसी बात नहीं है. मैं उद्घाटन तो करना चाहता हूं, मगर, समझ में नहीं आ रहा है कि….”

“समझना क्या है। अच्छासा कार्यक्रम रखो। लोगों को बुलाओ। हम वहां अपने चुनाव का प्रचार भी कर लेंगे और तुम्हारे कार्य का अच्छा आरम्भ भी हो जाएगा।”

“मगर, मैं नहीं चाहता कि उसका उद्घाटन हो।” ठेकेदार अपने कागज पर कुछ हिसाब लिखते हुए बोला, “आप को कुछ पैसा देना था?”

“लेना देना चलता रहेगा। आपको दूसरा ठेका भी मिल जाएगा। मगर इस ठेके का क्या हुआ, जो आपने सीधे-सीधे कार्यालय से ले लिया था। जिसकी भनक तक हमें लगने नहीं दी। मगर इस बार चुनाव है। हम आपका पीछा नहीं छोड़ेंगे। इसका उद्घाटन बड़े धूमधाम से करवाएंगे।”

“हम इसका उद्घाटन नहीं कर सकते हैं नेताजी,” ठेकेदार ने नेताजी की जिद से घबराकर नेताजी को समझाना चाहा। लेकिन नेताजी सुनने के मूड में नहीं थे।

यह सुनते ही नेताजी को गुस्सा आ गया, “जानते हो तुम, हमारे साथ रहकर ठेकेदारी करना सीखे हो। हमारा साथ रहेगा तभी आगे बढ़ पाओगे। फिर इसका उद्घाटन धूमधाम से क्यों नहीं करवाना चाहते हो? या हमारा प्रचार करने में कोई दिक्कत हो रही है?”

“जी नहीं, नेताजी। हम आपके साथ हैं। मगर आप जानते हो हमने किसका ठेका लिया है? जिसका आप धूमधाम से उद्घाटन करना चाहते हो,” ठेकेदार ने सीधे खड़े होकर कहा, “वह श्मशान घाट के अग्निदाह के कमरे का ठेका था। वहाँ किसका उद्घाटन करके भाषण दीजिएगा?”

यह सुनते ही नेताजी को साँप सूँघ गया और उन्हें अपनी मनोकामना की लाश अग्निदाह वाले कमरे में जलती नजर आने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मोर्चा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

?संजय दृष्टि – मोर्चा  ??

फिर एक घटना घटी थी। फिर वह उद्वेलित हुआ था। घटना के विरोध में आयोजित होने वाले मोर्चों, चर्चाओं, प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए हमेशा की तरह वह तैयार था। उसके दिये नारे मोर्चों की जान थे।

आज की रात स्वप्न में भी मोर्चा ही था। एकाएक मानो दिव्य प्रकाश फूटा। अलौकिक दृष्टि मिली। मोर्चे के आयोजकों के पीछे खड़ी आकृतियाँ उभरने लगीं। लाइव चर्चाओं से साधी जाने वाली रणनीति समझ में आने लगी। प्रदर्शनों के पीछे की महत्वाकांक्षाएँ पढ़ी जा सकने लगी। घटना को बाजार बनाने वाली ताकतों और घटना के कंधे पर सवार होकर ऊँची छलांग लगाने की हसरतों के चेहरे साफ-साफ दिखने लगे। इन सबकी परिणति में मृत्यु, विकलांगता, जगह खाली कराना, पुरानी रंजिशों के निबटारे और अगली घटना को जन्म दे सकने का रॉ मटेरिअल सब, स्लाइड शो की तरह चलने लगा।

सुबह उसके घर पर ताला देखकर मोर्चे के आयोजक मायूस हुए।

उधर वह चुपचाप पहुँचा था पीड़ित के घर। वहाँ सन्नाटा पसरा था। नारे लगाती भीड़ की आवाज़ों में एक कंधे का सहारा पाकर परिवार का बुजुर्ग फफक-फफक कर रो पड़ा था।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 11 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

 ** होली स्पेशल सीरीज़ **

इस बार असहमत अपने पिताजी का escort बनकर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के बाद, कोविड वैक्सीन लगवाने  प्राइवेट चिकित्सालय पहुँचा कि शायद यहाँ भीड़  न हो पर अनुमान के विपरीत भीड़ थी जो कोविड प्रोटोकॉल के पालन से बेखबर होने का पालन कर रहे थे. सोशल डिस्टेंसिंग से ‘सोशल’ और ‘डिस्टेंस’ दोनों ही गायब थे, परिचित भी अपरिचितों जैसा व्यवहार कर रहे थे. असहमत और उसके पिता तो मॉस्क पहनकर आये थे पर ये अनुशासन बहुत कम ही दृष्टिगोचर हो रहा था. मौसम गर्म था और सीनियर सिटीज़न या तो कतार में त्रस्त थे या फिर थकहार कर छाँह की तलाश में नज़र दौड़ा रहे थे.  प्रसिद्ध मंदिरों के समान VIP दर्शन /इंजेक्शन की विशेष व्यवस्था यहाँ भी थी पर उसकी पात्रता से असहमत हमेशा की तरह दूर ही था और उसे ये चिंता सता रही थी कि संक्रमण कहीं ‘क्यू’ याने ‘कतार में ही तो नहीं खड़ा होकर अपना शिकार तलाश रहा हो.

अचानक ही असहमत की नज़र कार से उतर रही युवती पर पड़ी और उसे B. Sc. First year की क्लास याद आ गई. “सन्मति कुलश्रेष्ठ ” जो शायद अब डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ बन चुकी थी, किसी जमाने में असहमत की सिर्फ इस क्लास की क्लासफेलो थी. सन्मति के फॉदर नगर के जानेमाने सर्जन थे और सन्मति का टॉरगेट भी वही था. जब व्यक्ति लक्ष्य निश्चित कर के समर्पित होकर आगे बढ़ता है तो अगले मोड़ पर सफलता खड़ी रहती ही है. सन्मति, सौंदर्य, स्मार्टनेस और बुद्धिमत्ता का विधाता का रचा गया कांबिनेशन थी या है . सन्मति कुलश्रेष्ठ  कभी असहमत की भी क्लासफेलो थी और क्लास के बहुत से छात्र जिनकी कोई क्लास नहीं थी,  “ईश्वर अल्लाह तेरो नाम हमको सन्मति दे भगवान ” भजन अक्सर गाया करते थे. सन्मति के जीवन में उस समय भी इस फिल्मी चोंचलेबाजी से कहीं अलग अपने निर्धारित लक्ष्य को पाने की प्राथमिकता सबसे ऊपर थी. तो सन्मति का सिलेक्शन नगर से दूर के मेडीकल कॉलेज में MBBS के लिये हो गया और लक्ष्यहीन मस्तीखोर असहमत और उसके साथी  ग्रेजुएशन पूरा करने की लक्ष्यहीन और “सन्मतिहीन ” यात्रा में आगे बढ़ गये. असहमत का ग्रुप शेयर करने में विश्वास रखता था और ये भावना उनके इक्ज़ाम्स के रिजल्ट में भी नजर आती थी. 100% मार्क्स में ग्रास मार्क्स मिलाकर तीन दोस्त पास हो जाते थे. इस % पर साईंस फैकल्टी में पोस्टग्रेजुऐशन में एडमीशन मिलना तो संभव ही नहीं था पर लक्ष्यहीन छात्रों के लिये मॉस्टर ऑफ आर्टस फैकल्टी के दरवाजे हमेशा की तरह खुले थे जो वेस्ट waste प्रोडक्ट को रिसाइकल करके नेचरल गैस बनाने की वैज्ञानिक प्रक्रिया का प्रयोग करती रहती थी. इस फैकल्टी में अगर पोस्टग्रेजुऐशन में अच्छे नंबर आ गये तो हो सकता है कि रजिस्ट्रेशन  P. HD. के लिये हो जाये.फिर बाल पकते पकते थीसिस कंप्लीट हो कर अवार्ड हो जाये और ग्रेज्यूयेशन की नाम के पहले डॉक्टर लिखने की इच्छा पूरी हो जाय.और अगर PHD नहीं कर पाये या इसके लिये सिलेक्ट नहीं हो पाये तो बहुत सारे विषय हैं जिनमें एक के बाद एक M.A.की जा सकती है जब तक कि कोई जॉब न मिल जाय या फिर कोई  स्टार्ट अप प्रोजेक्ट शुरू न हो जाय. बहुत सारे दोस्त कॉलेज जाने के आकर्षण के चलते दो तीन विषयों में एम. ए. करने में व्यस्त हो गये पर असहमत ने  सिर्फ इकॉनामिक्स में  MA करने के बाद MBA करना ज्यादा सही समझा और आज उसके पास एक गुमनाम सेठ कॉलेज की MBA की डिग्री भी आ चुकी है.

अचानक ही किसी के छींकने की आवाज़ से अतीत की सोच को छोड़कर असहमत वर्तमान में आया और अपने पिताजी को वेक्सीन लगवाने की प्रक्रिया में व्यस्त हो गया. वेक्सीन लगने के बाद तीस मिनट के ऑब्जरवेशन पीरियड के दौरान पिताजी को मित्र मिल गये तो उन्हें गपशप करने के लिये छोड़कर और “just coming कहकर हॉस्पिटल का राउंड लगाने चल दिया. दिल के किसी कोने में डॉक्टर सन्मति को फिर से देखने की हसरत तो थी पर साहस नहीं था. क्लास की डेस्क की नजदीकियां कैरियर और स्टेटस के आधार पर कब दूरियों में बदल जाती हैं पता नहीं चलता. वैसे भी कुत्तों से डरना और लड़कियों से शरमाना असहमत के जन्मजात गुण थे.पर अचानक ही उसका सामना, सामने से राउंड पर आती डॉक्टर सन्मति कुलश्रेष्ठ से हो ही गया.

क्रमशः….

**कहानी जारी रहेगी**

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 107 – लघुकथा – तलाश ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय लघुकथा  “तलाश ” । इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 107 ☆

? तलाश ?

बारात के साथ सिर पर लाईट का सामान लेकर चली जा रही, लाईन पर एक महिला के साथ-साथ करीब आठ साल का बच्चा अपनी मां का आंचल पकड़े-पकड़े चले जा रहा था।

कंपकंपी सी  ठंड से हाथ पैर सिकुड़े चले जा रहे थे। मनुष्य न जाने कितने-कितने स्वेटर-शाल ओढ़े चल रहे थे। परंतु, वह बच्चा एक साधारण सी स्वेटर पहने माँ का आँचल पकड़कर चल रहा था। सभी की नजर पड़ रही थी परंतु कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था।

बारात के साथ-साथ चलते-चलते दूल्हे के ताऊजी लगातार उस बच्चे को देखते पूछते और कहते चले जा रहे थे-  “क्यातुम्हें ठंड नहीं लग रही?” बार-बार के पूछने पर बच्चे ने उनसे कहा – “आज मां के दोनों हाथ ऊपर लाईट पकड़े हुए हैं और वह मुझे आज अपने आंचल से नहीं भगा रही है। इसलिए मुझे ठंड नहीं लग रही आज माँ  के साथ-साथ मैं चल रहा हूं मुझे बहुत अच्छा लग रहा, ठंड नहीं लग रही है।“

बारात अपने गंतव्य पर पहुँच चुकी थी। स्वागत सत्कार होने लगा।  दूल्हे के ताऊ जी ने पता लगाया कि वह उसकी अपनी संतान नहीं है, उसके पति की पहली बीवी का बच्चा है जो उसे छोड़कर मर चुकी है।

स्वागत के बाद सभी खाना खाने पंडालों की ओर बढ़ने लगे। अचानक आर्केस्ट्रा पर गाना बजने लगा…

तुझे सूरज कहूँ  या चंदा

तुझे दीप कहूँ  या तारा

मेरा नाम करेगा रोशन

जग में मेरा राज दुलारा

धूम-धड़ाके के बीच और सभी एक दूसरे का मुँह  देखने लगे।

तभी दूल्हे के ताऊ जी का स्वर सुनाई दिया – “आज मेरी तलाश पूरी हो गई है। आज मुझे मेरा बेटा मिल गया है। आप सभी मुझे कहते रहे कि- कोई बच्चा गोद क्यों नहीं ले रहे हो। मैंने आज इस बच्चे को गोद लिया है। अब यही मेरी संतान है। बाकी की कानूनी कार्रवाई कल समय पर हो जायेगी।”

यह बात बच्चे को कुछ समझ में नहीं आ रही थी । पर खुशी से उसके चेहरे पर मुस्कान फैल रही थी कि वह किसी सुरक्षित आदमी की गोद में है।

ताऊ जी की कोई संतान नहीं थी।  ताऊ जी ने बाकी की कार्यवाही दूसरे दिन समय पर पूरी करने का आश्वासन दे बच्चे को अपने साथ ले लिया।

आज उनकी तलाश पूरी हो चुकी थीं।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 118 ☆ दरवाज़े ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 118 ☆  दरवाज़े ?

एक समय था जब लोगों के घरों के दरवाज़े दिन भर खुले रहते थे। समय के साथ विचार बदले, स्थितियाँ बदलीं और अब अधिकांश घरों के दरवाज़े बंद रहने लगे हैं।

सुरक्षा की दृष्टि से दरवाज़ा बंद रखना समकालीन आवश्यकता हो सकता है। तथापि स्थूल का प्रभाव, सूक्ष्म पर भी होता है।

एक प्रसंग सुनाता हूँ। एक धनी व्यक्ति एक महात्मा के पास आया। धनी का महल आलीशान था। उसके मन में इच्छा हुई कि अपना महल महात्मा को दिखाए। बहुत ना-नुकर के बाद महात्मा उसका महल देखने के लिए राजी हो गए। धनी ने जब अपना महल महात्मा को दिखाया तो वे हँस पड़े। धनी आश्चर्यचकित हुआ। फिर तनिक नाराज़गी के साथ बोला, ” महात्मन! यह दुनिया का सबसे सुरक्षित महल है।” महात्मा ने पूछा, “कैसे?” धनी बोला,” मैंने इसके सारे दरवाज़े चुनवा दिये हैं। इसमें केवल एक ही दरवाज़ा रखा है जिसके चलते शत्रु का भीतर प्रवेश करना असंभव-सा हो चला है।” इस बार महात्मा ठहाका लगाकर हँसे। फिर बोले, ” यह एक दरवाज़ा भी क्यों छोड़ दिया? यदि इसे भी बंद कर दो तो शत्रु का तुम तक पहुँचना असंभव-सा नहीं अपितु असंभव ही होगा।”  धनी ने महात्मा के ज्ञान के कई प्रसंग लोगों से सुने थे। उसे लगा, सारे प्रसंग झूठे हैं। महात्मा तो सामान्य बात भी समझ नहीं पाते। सो चिढ़कर बोला, “महात्मन, यदि यह एकमात्र दरवाज़ा भी बंद कर दिया तब तो मेरे प्राण जाना निश्चित है। ऐसी सूरत में यह महल, महल न रहकर कब्र में बदल जाएगा।”  इस बार  गंभीर स्वर में महात्मा बोले, ” जब तुझे बात का भान है कि एक दरवाज़ा बंद करने से तेरी मृत्यु हो जाएगी तो इतने सारे दरवाज़े बंद करके कितनी बार मर चुका है तू?”

ध्यान देनेवाली बात है कि  दरवाज़े सर्वदा बंद रखने के लिए होते तो बनाये ही क्यों जाते? उनके स्थान पर भी दीवारें ही खड़ी की जातीं।

दरवाज़े बार-बार खुलते रहने चाहिएँ, ताज़ा हवा का झोंका भीतर आते रहना चाहिए। खुले दरवाज़ों से नयापन और ताज़गी भीतर आते रहते हैं, प्रफुल्लता बनी रहती है।

…अंतिम बात,  घर के हों या मन के, यह सूत्र दोनों प्रकार के दरवाज़ों पर लागू होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #71 – सबसे कीमती गहने ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #71 – सबसे कीमती गहने ☆ श्री आशीष कुमार

एक बार बाजार में चहलकदमी करते एक व्यापारी को व्यापार के लिए एक अच्छी नस्ल का ऊँट नज़र आया।

व्यापारी और ऊँट बेचने वाले ने वार्ता कर, एक कठिन सौदेबाजी की। ऊँट विक्रेता ने अपने ऊँट को बहुत अच्छी कीमत में बेचने के लिए, अपने कौशल का प्रयोग कर के व्यापारी को सौदे के लिए राजी कर लिया। वहीं दूसरी ओर व्यापारी भी अपने नए ऊँट के अच्छे सौदे से खुश था। व्यापारी अपने पशुधन के बेड़े में एक नए सदस्य को शामिल करने के लिए उस ऊँट के साथ गर्व से अपने घर चला गया।

घर पहुँचने पर, व्यापारी ने अपने नौकर को ऊँट की काठी निकालने में मदद करने के लिए बुलाया। भारी गद्देदार काठी को नौकर के लिए अपने बलबूते पर ठीक करना बहुत मुश्किल हो रहा था।

काठी के नीचे नौकर को एक छोटी मखमली थैली मिली, जिसे खोलने पर पता चला कि वह कीमती गहनों से भरी हुई है।

नौकर अति उत्साहित होकर बोला, “मालिक आपने तो केवल एक ऊँट ख़रीदा। लेकिन देखिए इसके साथ क्या मुफ़्त आया है?”

अपने नौकर के हाथों में रखे गहनों को देखकर व्यापारी चकित रह गया। वे गहने असाधारण गुणवत्ता के थे, जो धूप में जगमगा और टिमटिमा रहे थे।

व्यापारी ने कहा, “मैंने ऊँट खरीदा है,” गहने नहीं! मुझे इन जेवर को ऊँट बेचने वाले को तुरंत लौटा देना चाहिए।”

नौकर हतप्रभ सा सोच रहा था कि उसका स्वामी सचमुच मूर्ख है! वो बोला, “मालिक! इन गहनों के बारे में किसी को पता नहीं चलेगा।”

फिर भी, व्यापारी वापस बाजार में गया और वो मखमली थैली ऊँट बेचने वाले को वापस लौटा दी।

ऊँट बेचने वाला बहुत खुश हुआ और बोला, “मैं भूल गया था कि मैंने इन गहनों को सुरक्षित रखने के लिए ऊँट की काठी में छिपा दिया था। आप, पुरस्कार के रूप में अपने लिए कोई भी रत्न चुन सकते हैं।”

व्यापारी ने कहा “मैंने केवल ऊँट का सौदा किया है, इन गहनों का नहीं। धन्यवाद, मुझे किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं है।”

व्यापारी ने बार बार इनाम के लिए मना किया, लेकिन ऊँट बेचने वाला बार बार इनाम लेने पर जोर डालता रहा।

अंत में व्यापारी ने झिझकते और मुस्कुराते हुए कहा, “असल में जब मैंने थैली वापस आपके पास लाने का फैसला किया था, तो मैंने पहले ही दो सबसे कीमती गहने लेकर, उन्हें अपने पास रख लिया।”

इस स्वीकारोक्ति पर ऊँट विक्रेता थोड़ा स्तब्ध था और उसने झट से गहने गिनने के लिए थैली खाली कर दी।

वह बहुत आश्चर्यचकित होकर बोला “मेरे सारे गहने तो इस थैली में हैं! तो फिर आपने कौन से गहने रखे?

“दो सबसे कीमती वाले” व्यापारी ने जवाब दिया।

“मेरी ईमानदारी और मेरा स्वाभिमान”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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