श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 118 ☆  दरवाज़े ?

एक समय था जब लोगों के घरों के दरवाज़े दिन भर खुले रहते थे। समय के साथ विचार बदले, स्थितियाँ बदलीं और अब अधिकांश घरों के दरवाज़े बंद रहने लगे हैं।

सुरक्षा की दृष्टि से दरवाज़ा बंद रखना समकालीन आवश्यकता हो सकता है। तथापि स्थूल का प्रभाव, सूक्ष्म पर भी होता है।

एक प्रसंग सुनाता हूँ। एक धनी व्यक्ति एक महात्मा के पास आया। धनी का महल आलीशान था। उसके मन में इच्छा हुई कि अपना महल महात्मा को दिखाए। बहुत ना-नुकर के बाद महात्मा उसका महल देखने के लिए राजी हो गए। धनी ने जब अपना महल महात्मा को दिखाया तो वे हँस पड़े। धनी आश्चर्यचकित हुआ। फिर तनिक नाराज़गी के साथ बोला, ” महात्मन! यह दुनिया का सबसे सुरक्षित महल है।” महात्मा ने पूछा, “कैसे?” धनी बोला,” मैंने इसके सारे दरवाज़े चुनवा दिये हैं। इसमें केवल एक ही दरवाज़ा रखा है जिसके चलते शत्रु का भीतर प्रवेश करना असंभव-सा हो चला है।” इस बार महात्मा ठहाका लगाकर हँसे। फिर बोले, ” यह एक दरवाज़ा भी क्यों छोड़ दिया? यदि इसे भी बंद कर दो तो शत्रु का तुम तक पहुँचना असंभव-सा नहीं अपितु असंभव ही होगा।”  धनी ने महात्मा के ज्ञान के कई प्रसंग लोगों से सुने थे। उसे लगा, सारे प्रसंग झूठे हैं। महात्मा तो सामान्य बात भी समझ नहीं पाते। सो चिढ़कर बोला, “महात्मन, यदि यह एकमात्र दरवाज़ा भी बंद कर दिया तब तो मेरे प्राण जाना निश्चित है। ऐसी सूरत में यह महल, महल न रहकर कब्र में बदल जाएगा।”  इस बार  गंभीर स्वर में महात्मा बोले, ” जब तुझे बात का भान है कि एक दरवाज़ा बंद करने से तेरी मृत्यु हो जाएगी तो इतने सारे दरवाज़े बंद करके कितनी बार मर चुका है तू?”

ध्यान देनेवाली बात है कि  दरवाज़े सर्वदा बंद रखने के लिए होते तो बनाये ही क्यों जाते? उनके स्थान पर भी दीवारें ही खड़ी की जातीं।

दरवाज़े बार-बार खुलते रहने चाहिएँ, ताज़ा हवा का झोंका भीतर आते रहना चाहिए। खुले दरवाज़ों से नयापन और ताज़गी भीतर आते रहते हैं, प्रफुल्लता बनी रहती है।

…अंतिम बात,  घर के हों या मन के, यह सूत्र दोनों प्रकार के दरवाज़ों पर लागू होता है।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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