हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #127 – पुरस्कृत बाल कथा – “चाबी वाला भूत” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “चाबी वाला भूत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा – चाबी वाला भूत ☆ 

बेक्टो सुबह जल्दी उठा। आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं। उसे आश्चर्य हुआ। ताले में चाबी कहां से आती है ?

वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था। घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था। कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था। वह अपना ध्यान इसी ओर लगाए हुए था। गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी।  कोई आहट नहीं होती। लाईट नहीं जलती। चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती।

‘‘ हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया। वह डर गया। उस ने यह बात अपने दोस्त जैक्सन को बताई। तब जैक्सन ने कहा, ‘‘ यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है। यह सब मन का वहम है,’’ 

बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘ तू यूं ही डर रहा होगा। ’’

‘‘ नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं। मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं। ’’

‘‘ फिर !’’

‘‘ जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है। ’’

‘‘ यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’

‘‘ कुछ भी हो। यह चाबी वाला भूत हो सकता है।’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ यदि तुझे यकीन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो कर देख है। मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है। ’’

जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था। वह उस की बात मान गया। दूसरे दिन से घर आने लगा। वह बेक्टो के घर पढ़ता। वही पर सो जाता। फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते। दोनों अलग अलग पढ़ने बैठ जाते। इस दौरान वे ताला अच्छी तरह बंद कर देते।

आज भी उन्होंने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया। ताले को दो बार खींच कर देखा था। ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने चाबी अपने पास रख ली।

ठीक चार बजे दोनों उठे। कमरे से बाहर निकले। चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था।  

दोनों पढ़ने बैठ गए। फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए। वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी।

‘‘ देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है। वह रोज चैनल का ताला चाबी से खोल देता है, ’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया। उस ने वहां रखी। चाबी दिखाई।  

‘‘ देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘ चाहे जो हो। मैं भूतवूत को नहीं मानता। ’’

‘‘ फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता।

दोपहर को वह बेक्टो को घर आया। उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे।  

जैक्सन ने उन को देखा। वे एक खूंटी को एकटक देख रहे थे। उन की आंखों से आंसू झर रहे थे।  

‘‘ यार बेक्टो ! ’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘ तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया था। इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा।

‘‘ मुझे नहीं मालूम है, ’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘ कभी कभी मेरे दादाजी आलती पालती मार कर बैठ जाते हैं।  अपने हाथ से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं। फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं। वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’

‘‘ वाकई !’’

‘‘ हां यार। समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यों करते हैं। ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ कभीकभी बैठ जाते हैं। फिर अपना पेट पिचकाते हैं। फुलाते है। फिर पिचकाते हैं। फिर फूलाते हैं। ऐसा कई बार करते हैं। ’’

‘‘ अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बात की है ?। ’’

‘‘ नहीं यार, ’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘ दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घूमने चलो तो मैं बताता हूं। मगर, वे जब घूमने जाते हैं तो तीन चार किलोमीटर चले जाते हैं। इसलिए मैं उन से ज्यादा बात नहीं करता हूं। ’’ 

यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा। वह एक अखबार पढ़ रहे थे।

‘‘ तेरे दादाजी तो बिना चश्मे के अखबार पढ़ते हैं ?’’

‘‘ हां। उन्हें चश्मा नहीं लगता है। ’’ बेक्टो ने कहा।

जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था। वह घर चला गया। फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया। दोनों साथ पढ़े और सो गए। सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘ आज चाहे जो हो जाए। मैं चाबी वाले भूल को पकड़ कर रहूंगा। तू भी तैयार हो जा। हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’

‘‘ नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है, ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू अकेला ही उसे पकड़ना। ’’

जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘ भूतवूत कुछ नहीं होते हैं। यह हमारा वहम है। इन से डरना नहीं चाहिए। ’’ मगर, बेक्टो नहीं माना। उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘ भूत से मुझे डर लगता है। मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा। ’’

‘‘ ठीक है। मैं पकडूंगा। ’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा। वैसे ही मैं मदद करने आ जाऊंगा,’’

दोनों तैयार बैठे थे। उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था।

जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था। बेक्टो के डर लग रहा था। इसलिए उस ने दरवाजा बंद कर लिया था।  

ठीक पांच बजे थे। अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई। यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती।

‘‘ चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा। तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा।

चेनलगेट के पास एक साया था। वह सफेद सफेद नजर आ रहा था। जैक्सन फूर्ति से दौड़ा। चेनलगेट के पास पहुंचा। उस ने उस साए को जोर से पकड़ लिया। फिर चिल्लाया, ‘‘ अरे ! भूत पकड़ लिया। ’’

‘‘ चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया।  

चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मी पापा जाग गए। वे तुरंत बाहर आ गए।

‘‘ अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी।

‘‘ पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया।

‘‘ कहां ?’’

‘‘ ये रहा ?’’

तभी उस भूत ने कहा, ‘‘ भाई ! मुझे क्यों पकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? ’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट कर पूछा।

‘‘ दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘ हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी।  

यह सुन कर सभी हंसने लगे। फिर पापाजी ने कहा, ‘‘ बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घूमने की आदत है। किसी की नींद खराब न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं। धीरे से चेनलगेट खोलते हैं। फिर अकेले घूमने निकल जाते हैं। ’’

‘‘ क्या ?’’

‘‘ हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘ चूंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं। मोबाइल नहीं चलाते हैं। इसलिए इन की आंखें बहुत अच्छी है। ये व्यायाम करते हैं। इसलिए अँधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है। इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है। । ’’

यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,। वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘ दादाजी ! मुझे माफ करना। मैं समझा था कि कोई चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है। ’’

‘‘ यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं, ’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे।

बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था। तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चाय☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – चाय ??

…पापा जी, ये चार-चार बार चाय पीना सेहत के लिए ठीक नहीं है। पता नहीं मम्मी ने कैसे आपकी यह आदत चलने दी? कल से एक बार सुबह और एक बार शाम को चाय मिलेगी। ठीक है…?

…हाँ बेटा ठीक है.., कहते-कहते मनोहर जी बेडसाइड टेबल पर फ्रेम में सजी गायत्री को निहारने लगे। गायत्री को भी उनका यों चार-पाँच बार चाय पीना कभी अच्छा नहीं लगता था। जब कभी उन्हें चाय की तलब उठती, उनके हाव-भाव और चेहरे से गायत्री समझ जाती। टोकती,..इतनी चाय मत पिया करो। मैं नहीं रहूँगी तो बहुत मुश्किल होगी। आज पी लो लेकिन कल से नहीं बनेगी दो से ज़्यादा बार चाय।

…पैंतालीस साल के साथ में कल कभी नहीं आया पर गायत्री को गये अभी पैंतालीस दिन भी नहीं हुए थे कि..! …तुम सच कहती थी गायत्री, देखो जो तुम नहीं कर सकी, तुम्हारी बहू ने कर दिखाया…, कहते-कहते मनोहर जी का गला भर आया। जाने क्यों उन्हें हाथ में थामी फ्रेम भी भीगी-भीगी सी लगी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा  “कोविड और जीवनप्रकाश …“।)   

☆ कथा कहानी  # 57 – कोविड और जीवनप्रकाश ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

“जीवनप्रकाश” नाम था उनका घर में और स्कूल में ,पर उन्हें जीवन कहकर ही बुलाया जाता था. “जीवन” उन दिनों के प्रसिद्ध खलनायक थे तो उन्हें जीवन कहकर संबोधित किया जाना पसंद नहीं था पर उस उम्र में विरोध के कोई मायने नहीं होते. पर जब कॉलेज में गये तो अपने नाम का शार्ट फार्म “जेपी” पॉपुलर करने के लिये बहुत मेहनत की और ये हो भी गया. नौकरी बैंक में मिली तो यहां पर भी लोगों द्वारा पहले जेपी और बाद में जेपी सर कहकर संबोधित किये जाते रहे.जेपी अपनी कुछ अच्छी आदतों और सच्चे दोस्तों के मामले में बहुत धनी थे. जब भी कहीं जाना हो तो बाकायदा बोलकर और बैंक में तो अधिकतर लीव स्वीकृत होने पर ही जाते थे. यही नहीं बल्कि काम खत्म करने के बाद शाखा प्रबंधक को गुडनाईट सर कहकर जाने का अटूट सिलसिला उनके रिटायरमेंट तक अनवरत जारी रहा. जब कभी ब्रांचमेनेजर की कुर्सी खाली होती, तब भी खाली कक्ष को भी गुडनाईट सर कहकर ही जाने की उनकी आदत थी. लोग हंसते तो कहा करते थे कि व्यक्ति कोई भी हो, बैठे या न बैठे पर मेरी गुडनाईट बैंक को संबोधित रहती है. उनकी काम के प्रति लगन, कस्टमर्स को मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार उन्हें नगर में लोकप्रिय बनाता गया. ब्रांचमेनेजर भी उन्हें पसंद करने लगे. जब कभी शाम को जाते वक्त जेपी, चैंबर के समीप आते तो शाखाप्रबंधक खुद ही पहल करके बोल देते “गुडनाईट जेपी”. जब उनके बॉस उनका अच्छा काम और कस्टमर्स के प्रति मधुर व्यवहार से प्रभावित होकर प्रमोशन के लिये प्रेरित करने की कोशिश करते तो उनका विनम्र जवाब यही होता “सर मैं अपने तीन दोस्तों के साथ शाम की चाय नहीं छोड़ सकता”. दरअसल बैंक से निकल कर घर पहुंचने से पहले अपने बचपन के मित्रों “हंसमुख, खुशवंत और इस्माइल ” के साथ शाम 6:30 की चाय पीना रोज का कार्यक्रम था, छुट्टियों के दिनों को को छोड़कर क्योंकि वे दिन तो पूरे या तो उन्हीं के साथ गुजरते थे या फिर परिवार के साथ.इनके अलावा उनकी दोस्ती तो किसी से नहीं थी पर पहचान सभी से थी , उनकी मदद करने की आदत और मधुर व्यवहार के कारण़.

एक ईश्वरीय चमत्कार इन चारों दोस्तों के साथ यह भी था कि इनके ब्लड ग्रुप एक ही थे AB Negative. बहुत दुर्लभ था तो जरूरत पड़ने पर रक्तदान के लिये ये लोग हमेशा तैयार रहते और जब एक रक्तदान करता तो बाकी दोस्त मज़ाक करते “अरे हमारे लिये भी बचाकर रख, हम किसको ढूंढ़ेगे “

जब कोरोना का संक्रमण काल और लॉकडाऊन शुरु हुआ तब भी बचते बचाते शाम की चाय ये किसी भी एक के यहां उसके घर पर ही पीते, कभी कभी पुलिसवाले इन्हें बाहर निकलते देखकर चमका भी देते और मज़ाक में  कहते भी कि अंकल घर पर रहो वरना इस उम्र में पुलिस के डंडे बर्दाश्त नहीं कर पाओगे.

ये अक्सर आपस में भी मजाकिया लहजे में कहते रहते कि हम पॉज़िटिव नहीं हो सकते, नेगेटिविटी तो हमारे खून में ही है. हमें तो अपने दोस्तों के कंधे पर अंतिम यात्रा करनी है और जरूरत पड़ने पर इनका ब्लड और इनके कंधे ही हमारे काम आने वाले हैं. पर विधाता की मर्जी कुछ और ही थी, जीवनप्रकाश जी कोरोना से संक्रमित होकर हॉस्पिटलाईज हुये और बहुत चाहकर भी ये लोग मिलने जा नहीं सके क्योंकि मिलना पूरी तरह प्रतिबंधित था. एडमिट होने की दूसरी सुबह ही जेपी सर ने कोविड हॉस्पिटल में अंतिम सांस ली, इम्यूनिटी और दोस्तों का अटूट प्रेम भी उन्हें यारों से जुदा होने से नहीं रोक पाया. अंतिम संस्कार भी कोविड गाइडलाईन के अनुसार हुआ और नियमानुसार सिर्फ दो परिवार के सदस्य ही उपस्थित रहने के लिये अनुमत किये गये.

हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत स्तब्ध थे, खामोश थे आंखे सूनी सूनी पर ऑंसुओं से खाली थीं. लोग इन्हें देखते और ये तीनों नज़रें झुकाकर चुपचाप आगे बढ़ जाते. लोग आश्चर्य चकित होकर रह जाते पर बोलते कुछ नहीं. अंतिम संस्कार के दूसरे दिन शाम को ठीक 6 बजे इस्माइल, खुशवंत और हंसमुख तीनों उस गार्डन की बैंच के पास पहुंचे जहां ये कभी कभी सुबह वॉक के बाद बैठकर गपशप किया करते थे, हल्का अंधेरा हो चुका था और कोरोना की दहशत के कारण पार्क खाली था. ये तीनों बैंच के सामने नीचे जमीन पर बैठ गये, इस्माइल ने बैग से फ्रेम की हुई चारों की ग्रुप फोटो निकाली, खुशवंत ने मोमबत्ती निकाल कर जलाई, हवा भी शायद संक्रमण की गंभीरता से डर कर शांत और स्थिर थी, पत्ते तक नहीं हिल पा रहे थे.हंसमुख ने अपने बैग से थर्मस और चार डिस्पोज़ेबल कप निकाले और चाय भरकर बैंच पर ऱख दी. इस्माइल ने धीमी आवाज़ में कहा “जीवन,लो चाय पी लो।”

खुशवंत :उसे जीवन नहीं जेपी कहो, ये नाम उसे कभी पसंद नहीं था.

अचानक न जाने कहां से हवा का तेज झोंका आया, कैंडल बुझ गई और चाय के कप लुड़क गये. तीनों ने मिलकर जेपी की फोटो गिरने से पहले ही उठा ली, तीनों को लगा जैसे हवा के झोंके के साथ जेपी ने भी अपने दिल की बात उनतक पहुंचा दी जिसे सिर्फ वही सुन और समझ सकते थे.

“माफ करना दोस्तों, तुमसे बिना कहे बिना मिले जाना पड़ा, हसरत तो थी कि तुम्हारे कंधों पर जाता पर मुमकिन नहीं हो सका. भगवान को भी पता चल गया था कि मुझे “जीवन” शब्द पसंद नहीं है तो बस छीन लिया. अब सिर्फ प्रकाश है जो प्रकाश पुंज से मिलने की यात्रा पर अकेले ही जा रहा है,अलविदा !!!

हंसमुख, इस्माइल और खुशवंत के रुके हुये आँसू सैलाब बनकर निकल पड़े और वो तीनों अनवरत फूटफूटकर रोने लगे. जेपी अपने साथ इस्माइल की Smile, खुशवंत की खुशी और हंसमुख की हंसी, दोस्तों की सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में ले गये. शाम की चाय अनिश्चित काल के लिये बंद हो गई.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ बालदिवस विशेष – “कसक…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ बालदिवस विशेष – “कसक…” ☆ श्री कमलेश भारतीय 

वह घर आया और रूठ कर दादी के पास पहुच गया । उसकी बाजू पकड़कर बोला- दादी , फोन पर मेरी पापा से बात करवा दे।

– कयों ?

– दादी , कहां रहता है , मेरा पापा ?

– वो तो काम के लिए दूर रहता है ।

– बुला उसे अभी ।

– कयों ?

– मैं अभी जाॅय के साथ खेल रहा था । उसका पापा आया और हम दोनों को कार में घुमाने ले गया ।

– फिर क्या हुआ ?

– जब मेरे पापा के पास गाड़ी है , तो मैं जाॅय के पापा की गाड़ी में सैर क्यों करूं ?

– बेटे , तेरे पापा नहीं आ सकते ।

– कह दे फिर मैं उनसे बात नहीं करूंगा ।

-नहीं बेटे , ऐसे नहीं कहते ।

– बस फिर, करवा दे मेरी बात । वह अपनी जिद्द पूरी करके ही माना । उसके बाद सपनों में खो गया और पापा की गाड़ी में सैर करने निकल गया ।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – भाग्यं फलति सर्वत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज बुधवार 9 नवम्बर से मार्गशीष साधना आरम्भ होगी। इसका साधना मंत्र होगा-

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – भाग्यं फलति सर्वत्र ??

“कर्म मैं करता हूँ, श्रेय तुम्हें मिलता है। आख़िर भाग्य के स्वामी हो न”, श्रम ने शिकायती लहज़े में कहा। प्रारब्ध मुस्कराया, बोला, ” सकारात्मक हो या नकारात्मक, भाग्य का स्वामी हर श्रेय अपने माथे ढोता है।”

हाथ पकड़कर प्रारब्ध, श्रम को वहाँ ले आया जहाँ आलीशान बंगला और फटेहाल झोपड़ी विपरीत ध्रुवों की तरह आमने-सामने खड़े थे। दोनों में एक-एक जोड़ा रहता था। झोपड़ीवाला जोड़ा रोटी को मोहताज़ था, बंगलेवाले के यहाँ ऐश्वर्य का राज था।

ध्रुवीय विपरीतता का एक लक्षणीय पहलू और था। झोपड़ी को संतोष, सहयोग और शांति का वरदान था। बंगला राग, द्वेष और कलह से अभिशप्त और हैरान था।

झोपड़ीवाले जोड़े ने कमर कसी। कठोर परिश्रम को अस्त्र बनाया। लक्ष्य स्पष्ट था, आलीशान होना। कदम लक्ष्य की दिशा में बढ़ते गए। उधर बंगलेवाला जोड़ा लक्ष्यहीन था। कदम ठिठके रहे। अभिशाप बढ़ता गया।

काल चलता गया, समय भी बदलता गया। अब बंगला फटेहाल है, झोपड़ी आलीशान है।

झोपड़ी और बंगले का इतिहास जाननेवाले एक बुज़ुर्ग ने कहा, “अपना-अपना प्रारब्ध है।”

फीकी हँसी के साथ प्रारब्ध ने श्रम को देखा। हर श्रेय को अपने माथे ढोनेवाले प्रारब्ध के समर्थन में श्रम ने गरदन हिलाई।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – हवा।)

☆ लघुकथा – हवा ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

लड़कियाँ देहरी पर खड़ी थीं – इधर जाऊँ या उधर जाऊँ की उलझन में। इधर जाऊँ तो अपमान का डर, उधर जाऊँ तो जान का डर। लड़कियाँ न इधर गईं, न उधर गईं। उन्होंने बुज़ुर्गों से सुना था कि लड़कियाँ हवा से बनी हैं, वे हवा हो गईं। इधर वालों ने उधर वालों से पूछा, उधर वालों ने इधर वालों से पूछा कि कहाँ चली गईं लड़कियाँ? दोनों ने एक-दूसरे से कहा – पता नहीं किधर गईं। इधर वालों ने लड़कियों को भुला दिया, उधर वालों ने भी भुला दिया ; पर अब अक्सर दोनों तरफ़ रात को चीत्कार जैसी सीटियों के साथ हवा की सनसनाहट सुनाई देती थी और सुबह आँगन में हरे पत्ते बिखरे पाए जाते थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 56 – कहानियां – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

कभी, आज का दिन, वह दिन भी होता था जब सुबह का सूर्योदय भी अपनी लालिमा से कुछ खास संदेश दिया करता था. “गुड मार्निंग तो थी पर गुड नाईट कहने का वक्त तय नहीं होता था. ये वो त्यौहार था जिसे शासकीय और बैंक कर्मचारी साथ साथ मिलकर मनाते थे और सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम था कि आज के दिन घर जाने की रेस में वही जीतने वाले हैं. इस दिन लेडीज़ फर्स्ट से ज्यादा महत्त्वपूर्ण उनकी सुरक्षित घर वापसी ज्यादा हुआ करती थी. हमेशा आय और व्यय में संतुलन बिठाने में जुटा स्टॉफ भी इससे ऊपर उठता था और बैंक की केशबुक बैलेंस करने के हिसाब से तन्मयता से काम करता था. शिशुपाल सदृश्य लोग भी आज के दिन गलती करने से कतराते थे क्योंकि आज की चूक अक्षम्य, यादगार और नाम डुबाने वाली होती थी.

आज का दिन वार्षिक लेखाबंदी का पर्व होता था जिसमें बैंक की चाय कॉफी की व्यवस्था भी क्रिकेट मेच की आखिरी बॉल तक एक्शन में रहा करती थी. शाखा प्रबंधक, पांडुपुत्र युधिष्ठिर के समान चिंता से पीले रहा करते थे और चेहरे पर गुस्से की लालिमा का आना वर्जित होता था. शासकीय अधिकारियों विशेषकर ट्रेज़री ऑफीसर से साल भर में बने मधुर संबंध, आज के दिन काम आते थे और संप्रेषणता और मधुर संवाद को बनाये रहते थे. ये ऐसी रामलीला थी जिसमें हर स्टॉफ का अपना रोल अपना मुकाम हुआ करता था और हर व्यक्ति इस टॉपिक के अलावा, बैंकिंग हॉल में किसी दूसरे टॉपिक पर बात करने वाले से दो कदम की दूरी बनाये रखना पसंद करता था. कोर बैंकिंग के पहले शाखा का प्राफिट में आना, पिछले वर्ष से ज्यादा प्राफिट में आने की घटना, स्टाफ की और मुख्यतः शाखा प्रबंधकों की टीआरपी रेटिंग के समान हुआ करती थीं.

हर शाखा प्रबंधक की पहली वार्षिक लेखाबंदी, उसके लिये रोमांचक और चुनौतीपूर्ण हुआ करती थी. ये “वह” रात हुआ करती थी जो “उस रात” से किसी भी तरह से कम चैलेंजिंग नहीं हुआ करती थी. हर व्यवस्था तयशुदा वक्त से होने और साल के अंतिम दिन निर्धारित समय पर एंड ऑफ द डे याने ईओडी सिग्नल भेजना संभव कर पाती थी और इसके जाने के बाद शाखा प्रबंधक “बेटी की शुभ विवाह की विदाई” के समान संतुष्टता और तनावहीनता का अनुभव किया करते थे. एनुअल क्लोसिंग के इस पर्व को प्रायः हर स्टॉफ अपना समझकर मनाता था और जो इसमें सहभागी नहीं भी हुआ करते थे वे भी शाखा में डिनर के साथ साथ अपनी मौजूदगी से मनोरंजक पल और मॉरल सपोर्टिंग का माहौल तैयार करने की भूमिका का कुशलता से निर्वहन किया करते थे और काम के बीच में कमर्शियल ब्रेक के समान, नये जोक्स या पुराने किस्से शेयर किया करते थे. वाकई 31 मार्च का दिन हम लोगों के लिये खास और यादगार हुआ करता था.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 142 – ग्रहण से मोक्ष ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी सामाजिक समस्या बाल विवाह पर आधारित एक प्रेरक लघुकथा “ग्रहण से मोक्ष”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 142 ☆

🌺लघु कथा 🌗ग्रहण से ोक्ष 🌕

नलिनी के जीवन में उस समय ग्रहण लग गया, जब 5 वर्ष की उम्र में धूमधाम से उसका बाल विवाह हुआ।

12 साल का उसका पति अभय नलिनी से ज्यादा समझदार दूल्हे होने की अकड़ और उम्र का बड़ा फासला, परंतु नलिनी इन सब बातों से अनजान खेलकूद, मौज – मस्ती, अपने मित्रों के साथ धमा-चौकड़ी, मोबाइल में गेम खेलना और समय पर पढ़ाई करना। यही उसकी दिनचर्या थी।

पढ़ाई लिखाई में कमजोर अभय हमेशा उस पर अधिकार जमाता रहता। मोहल्ला पड़ोस आस-पास होने की वजह से हर चीज की खबर रखता था। जो नलिनी को बिल्कुल भी पसंद नहीं आता था।

आज घर परिवार में ग्रहण की बात हो रही थी। इसकी राशि में शुभ और किसकी राशि में अशुभ। शुभ फल चर्चा का विषय बना था। पापा पेपर लिए बड़े ही तल्लीनता से पढ़ रहे थे। मम्मी पास में बैठी सब्जी काट रसोई की तैयारी करने में लगी थी।

अचानक दौड़ती नलिनी आई पापा के कंधे झूलते बोली…. पापा मेरी सखियां मुझे चिढ़ाती हैं कि मुझे तो ग्रहण लग गया है। पापा ग्रहण बहुत खतरनाक और भयानक होता है क्या? अभय भी मेरे साथ यही करेगा। पापा मुझे कब छुटकारा मिलेगा।

बिटिया की बातें सुन मम्मी-पापा हतप्रभ हो देखते रहे, उन्हें अपनी गलती का एहसास हो चुका था।

बहुत गलत फैसला है और तुरंत दूसरे कपड़े पहन, चश्मा लगा कुछ कागज, हाथों में ले बाहर जाने लगे।  मम्मी ने आवाज लगाई…. कहां चल दिए।

पापा ने कहा…. अपनी गलती के कारण अपनी बिटिया पर लगे ग्रहण के समय का मोक्ष निर्धारण करके आता हूँ। शायद यही समय उचित रहेगा।

नलिनी खुशी से झूम उठी…. अब मैं सभी फ्रेंड को बता दूंगी मेरा भी ग्रहण को मोक्ष मिल गया। अब कोई अशुभ प्रभाव नहीं पड़ेगा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #167 ☆ कथा – कहानी – मर्ज़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक विचारणीय कथा  ‘मर्ज़ ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 167 ☆

☆ कथा – कहानी ☆ मर्ज़ 

प्रसाद साहब के घर में सुबह से ही तनाव है, उस वक्त से जब से हार के गायब होने का पता चला है। श्रीमती प्रसाद तब से ही खोज-बीन में लगी हैं। थोड़ी देर बैठती हैं, फिर दुबारा चीज़ों को उलट-पलट करने में लग जाती हैं। जहाँ-जहाँ भी संभावना थी वहाँ की खोज-बीन हो चुकी है, लेकिन हार का पता नहीं चला।

प्रसाद साहब कपार पर हाथ धरे सोफे पर बैठे हैं और, जैसा कि अमूमन होता है, वे सवेरे से कई बार पत्नी की लानत-मलामत कर चुके हैं। यह दीगर बात है कि वे खुद खासे भुलक्कड़ हैं और अक्सर छोटी-मोटी चीज़ें खोते रहते हैं। अभी श्रीमती प्रसाद सिद्धदोष हैं और इसलिए प्रसाद साहब को उन पर हावी होने का भरपूर मौका मिला है। अभी तक किश्तों में जो भाषण प्रसाद साहब दे चुके हैं उसका लब्बोलुआब यह है कि श्रीमती प्रसाद आदतन लापरवाह हैं और पति के इतने साल लगातार समझाने के बावजूद उनकी लापरवाही में कोई सुधार नहीं हुआ है।

श्रीमती प्रसाद पर दुहरी मार है। एक तो डेढ़ दो तोले का ज़ेवर जाने का दुख, दूसरा पतिदेव और परिवार के दूसरे सदस्यों की बातें। वे आश्चर्यचकित भी हैं कि घर से अचानक चीज़ गायब कैसे हो गयी। वे इस्तेमाल में आने वाले ज़ेवरों को अलमारी में एक छोटे बैग में रखती थीं। उसकी चाबी अलबत्ता वे कहीं भी रख देती थीं, क्योंकि घर में कोई ऐसा नहीं था जिस पर भरोसा न हो। बेटा मनोज अठारह साल का है और उस से छोटी बेटियाँ हैं, रिंकी और पिंकी। इनके अलावा बस नौकर बिस्सू है जो अभी तेरह चौदह साल का है और पिछले सात-आठ महीने से घर में है। उसकी आदत घर की किसी चीज़ को बिना पूछे छूने की नहीं है। प्रसाद साहब उसके माँ-बाप को तरह-तरह के सब्ज़बाग दिखाकर उसे ले आये थे।

श्रीमती प्रसाद को वैसे तो चीज़ के खोने का पता ही नहीं चलता। उस दिन संयोग से वे आम का अचार डालने में लग गयीं और उन्होंने हाथ की दोनों अँगूठियों को बैग में डाल देने की सोची। तभी उनका ध्यान गया कि हार अपनी जगह पर नहीं है। जानकारी होने पर उन्होंने पहले अपने वश भर बिना किसी को बताये ढूँढ़-खोज की ताकि पतिदेव को जानकारी होने से पहले चीज़ मिल जाए, लेकिन उनका दुर्भाग्य कि सारी कोशिशों के बावजूद चीज़ मिली नहीं और बात पतिदेव के कान तक पहुँच गयी। तभी से वे पूरे घर को सिर पर उठाये हैं।

हार कर जी हल्का करने के लिए श्रीमती प्रसाद पड़ोसियों को भी इस नुकसान की बात बता चुकी हैं और घंटे भर में ही ज़ुबान पर चढ़कर बात कॉलोनी के ज़्यादातर घरों में पहुँच चुकी है। कॉलोनी के नीरस जीवन में थोड़ा रस-प्रवाहित हुआ है और लोगों को दिन भर चर्चा करने का विषय मिल गया है।

खबर पाकर शहर में प्रसाद साहब के भाई-बंधु कैफियत लेने और हमदर्दी जताने आने लगे हैं। श्रीमती प्रसाद के लिए यह सुविधाजनक है, क्योंकि संबंधियों के लिहाज में वे पतिदेव के शब्द-बाणों से बची रहती हैं।

रिश्तेदारों के बीच यह कयास लगाया जा रहा है कि यह काम कौन कर सकता है। जब अलमारी अक्सर बन्द रहती थी तो चीज़ गायब कैसे हो गयी? क्या घर के ही किसी आदमी का हाथ है? घर में कौन हो सकता है?

प्रसाद साहब का भतीजा बंटी भी आया है। खूब स्मार्ट, नये फैशन के टी-शर्ट और जींस, कलाई में एकदम मॉडर्न ब्रेसलेट, रंगे हुए बाल, नई बाइक्स को दौड़ाने का शौकीन।  उसकी नज़र बार-बार सब की सेवा में लगे बिस्सू का पीछा करती है। प्रसाद साहब से कहता है, ‘चाचा, कहीं इस लौंडे ने तो हाथ नहीं मारा?’

प्रसाद साहब प्रतिवाद करते हैं, ‘अरे नहीं, लड़का सीधा-सादा है। वह ऐसा नहीं कर सकता।’

बंटी जवाब देता है, ‘आपको तो सब सीधे-सादे नज़र आते हैं। चेहरे से क्या पता चलता है। आज सवेरे से यह कहीं बाहर गया था क्या?’

प्रसाद जी जवाब देते हैं, ‘रोज़ ही जाता है। कुछ न कुछ लाना ही पड़ता है।’

बंटी बोला, ‘तब तो माल दूर निकल गया। ऐसे लड़के दूसरों से मिले होते हैं। वे माल मिलते ही लंबे निकल जाते हैं।’

थोड़ी देर में उसे कुछ सूझता है। बाइक से एक रबर का बड़ा छल्ला निकाल कर लाता है जिससे वह ‘स्ट्रैचिंग’ की कसरत करता है। फिर बिस्सू का हाथ पकड़कर उसे कमरे में ले जाकर दरवाज़ा भीतर से बन्द कर लेता है। थोड़ी देर ऊँचे स्वर में बातचीत की आवाज़ सुनायी पड़ती है, फिर  ‘सप’ ‘सप’ की आवाज़ और बिस्सू का आर्तनाद। घर में सब मौन साधे सुनते हैं।

कुछ देर में दरवाज़ा खोल कर बंटी बाहर निकलता है। पीछे थर-थर काँपता, हिचकी लेता बिस्सू है। बंटी के निकलते ही उसके पिता, यानी प्रसाद साहब के छोटे भाई, उस पर बरस पड़ते हैं,  ‘बेवकूफ, यह कहीं एससी एसटी हुआ तो तू सीधे जेल जाएगा। ज़मानत भी नहीं होगी।’

बंटी चेहरे का पसीना पोंछकर कहता है, ‘यह तो दूसरी ही कहानी बताता है।’

सब प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी तरफ देखते हैं। बंटी कहता है, ‘यह बताता है कि हार मनोज ने अलमारी से निकालकर अपने दराज़ में रख लिया था। इसने देख लिया तो इसे धमकी दी कि अगर बताया तो बहुत मारेंगे।’

अब घर में फिर सन्नाटा है। लोग घूम कर देखते हैं तो पाते हैं कि मनोज अंतर्ध्यान हो गया है। प्रसाद साहब एक बार फिर पत्नी पर बरसते हैं, ‘यह सब तुम्हारे लाड़ प्यार का नतीजा है। मैंने कहा था कि लड़के पर नज़र रखो।’

पत्नी और बेटियाँ मनोज की खोज में गायब हो गयी हैं। थोड़ी देर में खबर मिलती है कि हार मिल गया है। लेकिन अब घर में शर्म और असमंजस का वातावरण है।

प्रसाद साहब फिर सिर पकड़े बैठे हैं। करुणा-विगलित स्वर में कहते हैं, ‘मेरा बेटा और चोरी करे! हमारे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ। डूब मरने की बात है।’

सब मौन,उनके चेहरे की तरफ देखते  खड़े हैं।

थोड़ी देर में उनके भाई उनके कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं, ‘भाई साहब, हम इज़्जतदार लोग हैं। हमारे बच्चे चोरी नहीं कर सकते। दरअसल यह एक दिमागी बीमारी है जिसे क्लैप्टोमैनिया कहते हैं। हम मनोज को काउंसिलिंग के लिए ले चलेंगे। ठीक हो जाएगा। परेशान मत होइए।’

उनकी बात सुन कर घर में सबका जी हल्का हो जाता है। चोरी की आदत नहीं, क्लैप्टोमैनिया है। प्रसाद साहब के मन से बोझ उतर जाता है। दोनों बेटियाँ ‘क्लैप्टोमैनिया’ ‘क्लैप्टोमैनिया’ बुदबुदाती घर में घूमती हैं। फिर उसे कॉपी में नोट कर लेती हैं। एक नया शब्द मिला है।

श्रीमती प्रसाद बेटे को समझाने चल देती हैं कि वह शर्मिन्दा न हो क्योंकि वह चोर नहीं, एक मर्ज़ का शिकार है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

श्री कमलेश भारतीय जी की यह लघुकथा आप एएनवी न्यूज चैनल पर सुश्री मिष्ठी राणा की आवाज में इस लिंक पर क्लिक कर देख-सुन सकते हैं 👉  लघुकथा – “आज के संजय…”

☆ कथा – कहानी   ☆ लघुकथा – “आज के संजय…” ☆ श्री कमलेश भारतीय  

सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा है । महाभारत के युद्ध की दोनों सेनायें अपने अपने शिविरों में लौट रही हैं । रथों के घोड़े हिनहिना रहे है । कौन आज युद्ध में वीरगति पा गये और कौन कल तक बचे हुए हैं । संजय यह आंखों देखा हाल धृतराष्ट्र को सुना रहे हैं । महाराज व्यथित होकर दिन भर का हाल सुन रहे हैं । गांधारी भी पास ही बैठी हैं ।

वह एक युग था । तब संजय जन्मांध धृतराष्ट्र को युद्ध का हाल बताने के लिए मिली दिव्य शक्ति से सब वर्णन करते थे । कहा जा सकता है कि उस युग के पत्रकार थे संजय ।
अब युग बदल गया । इन दिनों चुनाव की महाभारत है । महाभारत अठारह दिन चली थी लेकिन यह चुनाव प्रचार की महाभारत पूरे इक्कीस दिन चलती है । यहां किसी एक संजय को दिव्य शक्ति नहीं दी जाती । यहां तो सैंकड़ों संजय हैं जो ‘वीडियो’ नाम की दिव्य शक्ति लेकर आये हैं और कुछ भी वायरल कर देने की शक्ति रखते हैं ! मनचाहा वीडियो बना कर सारा आंखों देखा हाल सुनाने में जुटे हैं । संजय तो एक राष्ट्रीय पत्रकार था और राष्ट्र की सेवा में जुटा था । निष्पक्ष ! निरपेक्ष ! ये आज के युग के संजय तो निष्पक्ष और निरपेक्ष नहीं । इन्हें तो रोटी रोटी कमानी है, अपनी गृहस्थी चलानी है । मनभावन शौक पूरे करने हैं । खाना पीना है और वह दिखाना है जो सामने वाला चाहता है लेकिन इसकी एक निश्चित कीमत है ! जो चुकाये वह पा मनचाहा पा ले ! नहीं चुकाये तो हश्र भुगते !

ये कैसे संजय हैं ?

ये कलियुग के महाभारत के संजय हैं ! जो अंधे लोगों को युद्ध का हाल नहीं सुनाते बल्कि ऐसा हाल सुनाते हैं कि आंखों वालों को ही अंधा बना रहे हैं ! आप इन्हें पहचानते हैं

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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