हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘हमें वधू चाहिए ’। )

☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए डॉ. कुंवर प्रेमिल 

अखबार में वर वधू  स्तम्भ के अंतर्गत विज्ञप्ति छपी थी।

लिखा था – हमें ऐसी वधू चाहिए जो कार लेकर आए। साथ में नकद भी लाए। अपना एवं अपने पति का खर्च स्वयं चलाए ।

दूसरी विज्ञप्ति – वधूपूरी तरह विश्वसनीय होनी चाहिए।  सास ससुर की देखभाल करें एवं अलग रहने का सपना ना संजोए।

तीसरी विज्ञप्ति – सुंदर सुडौल । मन की साफ हो। पति से चुगली न करे और घर के काम काज में बराबरी से हाथ बटाए।

चौथी विज्ञप्ति – पड़ोसयों से बतियाने की सख्त मुमानियत रहेगी।

– ननद का सम्मान करना जानती हो तथा बार-बार मायके जाने की धमकियाँ न  देती हो।

पाँचवी विज्ञप्ति – हमें विदेश में जॉब करने वाली वधू स्वीकार्य होगी।

अब कोई उनसे जाकर पुछे, क्या ऐसी वधू मिली या उनके लड़के अभी तक कुँवारे ही घूम रहे हैं।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #125 – “संस्कार” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  लघुकथा – “संस्कार”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 125 ☆

☆ लघुकथा – संस्कार ☆ 

जैसे ही अनाथ आश्रम से वृद्ध को लाकर पति ने बैठक में बिठाया वैसे ही किचन में काम कर रही पत्नी ने चिल्लाकर कहा, “आखिर आप अपनी मनमानी से बाज नहीं आए,” वह ज़ोर से बोली तो पति ने कहा, “अरे भाग्यवान! धीरे बोलो। वह सुन लेंगे।”

“सुन ले तुम मेरी बला से। वे कौन से हमारे रिश्तेदार हैं?” पत्नी ने तुनक कर कहा, “मैंने पहले भी कहा था हम दोनों नौकर पेशा हैं। बेटे को उसके मामा के यहां रहने दो। वहां पढ़ लिखकर होशियार और गुणवान हो जाएगा। पर आप माने नहीं। उसे यहां ले आए।”

“हां तो सही है ना,” पति ने कहा, “बुजुर्गवार के साथ रहेगा तो अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा। हमें घर की भी चिंता नहीं रहेगी।”

“अच्छी-अच्छी बातें सीखेगा,” पत्नी ने भौंहे व मुँह मोड़  कर कहा, “ना जाने कौन है? कैसे संस्कार है इस बूढ़े के। ना जाने क्या सिखाएगा?” कहते हुए पत्नी ना चाहते हुए भी बूढ़े को चाय देने चली गई।

“लीजिए! चाय !” तल्ख स्वर में कहते हुए जब उस ने बूढ़े को चाय दी तो उसने कहा, “जीती रहो बेटी!” यह सुनते ही बूढ़े का चेहरा देखते ही उसका चेहरा फक से सफेद पड़ गया।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-05-22

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – गीलापन ??

‘उनके शरीर का खून गाढ़ा होगा। मुश्किल से थोड़ा बहुत बह पाएगा। फलत: जीवन बहुत कम दिनों का होगा। स्वेद, पसीना जैसे शब्दों से अपरिचित होंगे वे। देह में बमुश्किल दस प्रतिशत पानी होगा। चमड़ी खुरदरी होगी। चेहरे चिपके और पिचके होंगे। आँखें बटन जैसी और पथरीली होंगी। आँसू आएँगे ही नहीं।

उस समाज में सूखी नदियों की घाटियाँ संरक्षित स्थल होंगे। इन घाटियों के बारे में स्कूलों में पढ़ाया जाएगा ताकि भावी पीढ़ी अपने गौरवशाली अतीत और उन्नत सभ्यता के बारे में जान सके। अशेष बरसात, अवशेष हो जाएगी और ज़िंदा बची नदियों के ऊपर एकाध दशक में कभी-कभार ही बरसेगी। पेड़ का जीवाश्म मिलना शुभ माना जाएगा। ‘हरा’ शब्द की मीमांसा के लिए अनेक टीकाकार ग्रंथ रचेंगे। पानी से स्नान करना किंवदंती होगा। एक समय पृथ्वी पर जल ही जल था, को कपोलकल्पित कहकर अमान्य कर दिया जाएगा।

धनवान दिन में तीन बार एक-एक गिलास पानी पी सकेंगे। निर्धन को तीन दिन में एक बार पानी का एक गिलास मिलेगा। यह समाज रस शब्द से अपरिचित होगा। गला तर नहीं होगा, आकंठ कोई नहीं डूबेगा। डूबकर कभी कोई मृत्यु नहीं होगी।’

…पर हम हमेशा ऐसे नहीं थे। हमारे पूर्वजों की ये तस्वीरें देखो। सुनते हैं उनके समय में हर घर में दो बाल्टी पानी होता था।

..हाँ तभी तो उनकी आँखों में गीलापन दिखता है।

…ये सबसे ज्यादा पनीली आँखोंवाला कौन है?

…यही वह लेखक है जिसने हमारा आज का सच दो हजार साल पहले ही लिख दिया था।

…ओह ! स्कूल की घंटी बजी और 42वीं सदी के बच्चों की बातें रुक गईं।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कथा श्रंखला  “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

ये बैंक में प्रमोशन और फिर ट्रांसफर का किस्सा है, हकीकत भी तो यही है. किसी शहर मे रहने के जब आप आदतन मुजरिम बन जाते हैं, आपके अपने टेस्ट के हिसाब से दोस्त बन जाते है, पत्नी की सहेलियां बन जाती हैं और किटी पार्टियां अपने शबाब पर होती हैं, बच्चे उनके स्कूल से और दोस्तों से हिलमिल जाते हैं. आप ये जान जाते हैं कि डाक्टर कौन से अच्छे हैं, रेस्टारेंट कौन सा बढ़िया है, चाट कौन अच्छी बनाता है और आप समझदार हैं कि बाकी चीज़ें कंहा कहां अच्छी मिलती हैं, डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है, तब बैंक प्रमोशन टेस्ट की घोषणा कर देता है. मंद मंद गति से बहती, हवा और चलती ट्रेन रुक जाती है. कई तरह की प्रतिक्रियायें होना शुरु हो जाता है.

शायद यह शाश्वत सत्य है कि प्रमोशन का अविष्कार पत्नियों ने किया है. ईमानदारी की बात तो ये भी है कि कोई भी समझदार पर विवाहित पुरुष प्रमोशन चाहता नहीं है क्योंकि बाद में होने वाली  खौफनाक पोस्टिंग से उसको भी डर लगता है पर पत्नी जी का क्या? और अगर आप किसी बैंक कालोनी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि कैसे कैसे ताने, उलाहने, चुनोतियों का सामना करना पड़ता है. “देखिये जी ! इस बार अच्छे से तैयारी करना, फेल मत हो जाना हर बार की तरह, वरना आपका क्या आप तो हो ही बेशरम, मुझे तो कालोनी में सबको फेस करना पड़ता है, या तो अच्छे से पढ़कर पास होना वरना फिर मकान बदल लेना. आप करते क्या हो बैंक में. सबसे पहले बैंक जाते हो, सबसे बाद में आते हो फिर आपका क्यों नहीं होता प्रमोशन. वो देखिये, शर्मा जी अभी दो साल पहले तो आये थे और फिर प्रमोट होकर जा रहे हैं. आप भी कुछ सीखो, भोले भंडारी बने बैठे हो. काम करने से कुछ नहीं होता, बॉस को भी खुश रखना पड़ता है. याने बैंक में काम करने वाले पतियों से बेहतर उनकी पत्नियों को मालुम रहता है कि बैंक में प्रमोशन कैसे लिया जाता है. “

प्रमोशन प्रक्रिया में पहले लिखित परीक्षा होती है. पहले तो स्केल 5 तक के लिये written test होते थे. हमारे बैंक में लोग परीक्षा के लिये पढ़ाई करते थे तो दूसरे बैंक इस cooling period में नये बिजनेस एकाउंट कैप्चर कर लेते थे. समझ से बाहर था कि बीस साल की नौकरी के बाद भी साबित करो कि आप बैंकिंग जानते हो. खैर बाद में ये सुधार हुआ और बैंक ने बिज़नेस को priority दी. प्रमोशन होने के बाद और पोस्टिंग के पहले के दिन उसी तरह तनाव मुक्त होते हैं जैसे शादी के बाद और गौने के पहले वाले दिन. ब्रांच में आपको भी काबिल मान लिया जाता है हालांकि पीठ पीछे की कहानी अलग होती है. ” कैसे हो गया यार, आजकल कोई भी हो जाता है, मुकद्दर की बात है वरना अच्छे अच्छे लोग रह गये और इनकी लाटरी निकल गई, कोई बात नहीं, हम तो कहते हैं अच्छा ही हुआ, कम से कम ब्रांच से तो जायेगा. इस सबसे बेखबर खुशी में मिठाई बांटी जाती हैं, दो तीन तरह की पार्टियां दी जाती हैं. फिर आता है पोस्टिंग का टाईम और फिर शुरु होता है जुगाड़ या फरियाद का दौर. यूनियन, ऐसोसियेशन, मैनेजमेंट हर तरफ कोशिश की जाने लगती है. ऐसे नाज़ुक वक्त पर सबसे ज्यादा मजे लेते हैं HR वाले केकयी बनकर. उनके डायलाग, “देखो इंटर माड्यूल की तो पालिसी है, प्रमोटी तो रायपुर ही जाते हैं और फिर वहां से बस्तर रीज़न”, आप निराश होकर और बस्तर को अपना राज्याभिषेक के बाद अपना वनवास मानकर फिर फरियाद जब करते हैं कि आप की तो वहां पहचान है कुछ ठीक ठाक पोस्टिंग करवा दीजिये तो मंथरा की मुस्कान के साथ आश्वस्त करते हैं कि यार 300 किलोमीटर के बाद तो सर्किल ही बदल जाता है, उससे आगे तो चाहेंगे तो भी नहीं कर पायेंगे. फिर तो लगने लगता है कि बैंक में हैं या Border Security Force में. जबलपुर के सदर के इंडियन काफी हाउस में वेज़ कटलेट और फिल्टर काफी का सेवन करने वाला बंदा सुकमा या बीजापुर पोस्टिंग के शुरुआती दौर में वहां भी इंडियन काफी हाउस ढूंढता है, फिर कुछ वहां के स्टाफ के समझाने से ये समझ पाकर कि इंडियन तो हर जगह हैं, काफी बाजार से खरीद कर अपने जनता आवास में खुद बनाकर पीता है और किशोर कुमार का ये गाना बार बार सुनता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”.

जारी रहेगा…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा – “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे”)  

☆ लघुकथा # 161 ☆ “उल्टा चोर कोतवाल को डांटे” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

 – लोग उनको उच्च क्वालिटी का मंत्री बताते हैं।

-उनके एक खास भक्त ने कालेज की जमीन में कब्जा करके बाउंड्री वॉल बनाना चालू किया तो कालेज के प्रिंसिपल ने आपत्ति जताई।

– भक्त ने प्राचार्य को ट्रांसफर की धमकी दे दी।

– प्रिंसिपल की उचक्के मंत्री के दरबार में पेशी हुई।

– मंत्री ने ऐंठकर कहा- तुमने हमारे अंधमूक प्रिय भक्त के काम में बाधा पहुंचाने की कोशिश की ?

– प्राचार्य ने डरते हुए जबाब दिया -सर वो तो कालेज की जमीन है।

– भक्त ने डांटते हुए कहा-   कालेज तो सरकारी है, मंत्री जी की सरकार है और जमीन तुम्हारे बाप की नहीं है, तो आपत्ति करने वाले तुम कौन होते हो ?

– मंत्री ने पूछा -कहां जाना चाहते हो,या सस्पेंड होकर घर बैठना चाहते हो?

– पीए को बुलाया गया और प्राचार्य का नाम नोट कर राजधानी मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी को फोन लगाकर तुरंत कार्यवाही करने के आदेश मंत्री ने दे दिए।

– प्रिंसिपल हाथ जोड़े बड़बड़ाता रहा, फिर गार्ड ने घसीटते हुए बंगले के बाहर कर दिया।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

श्री सदानंद आंबेकर

(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। भारतीय स्टेट बैंक से स्व-सेवानिवृत्ति के पश्चात गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार   के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर योगदान के लिए आपका समर्पण स्तुत्य है। आज प्रस्तुत है श्री सदानंद जी  की एक भावप्रवण एवं प्रेरक लघुकथा भविष्य निधि – दीप दीपावली के। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन।

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – भविष्य निधि – दीप दीपावली के ☆ श्री सदानंद आंबेकर ☆

दिवाली के दिन पूर्वान्ह में गांव के प्राथमिक विद्यालय के प्रांगण में खड़ा एक अधेड़ चुपचाप शाला के भवन को देख रहा था। यह व्यक्ति जिले के हायर सेकेंडरी विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य महेश पाठकजी थे।

शाला के भवन को देखते- देखते वे पुरानी स्मृतियों में खो गये। बचपन में छोटे से गांव की इसी शाला से उन्होंने पढ़ाई का श्रीगणेश किया था। उस समय से देखते देखते इसका भवन पुराना होकर गिरता ही चला गया था। जिले में रहते हुये उन्हें गांव आने पर इसे देखने का अवसर चलते फिरते मिलता रहता था। भवन जर्जर होने के कारण उसमें नियमित कक्षायें लगना भी धीरे धीरे कम होने लगी, स्थानीय शिक्षकों की इसी कारण रुचि भी घटने लगी पर सबसे अधिक हानि हुई उन छोटे-छोटे बच्चों की, जिनके विद्यारंभ का एकमात्र आधार यही शाला थी। बच्चे चाह कर भी पढ़ने नहीं आ सकते थे।

पाठक जी को यह बात बहुत कचोटती थी। इसके जीर्णाेद्धार के लिये पंचायत विभाग से बहुत जुगत भिड़ाई पर सरपंच के रुचि नहीं लेने के कारण काम हो नहीं पाया।

एक वर्ष पूर्व वे सेवानिवृत्त हो गये और अपने मूल निवास वाले गांव में पत्नी सहित लौट आये। एक दिन अचानक उन्हें अपनी समस्या का समाधान मिल गया। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी अतः अब घर में केवल वे दो ही जीव थे सो एक दिन अपने मन की बात पत्नी से कह ही दी। वह भी सीधी-सादी सी थी तो तत्काल स्वीकृति दे दी और अपने भविष्य निधि के संचित धन को उन्होंने इसमें लगा कर शाला में पांच पक्के कमरे बनवा कर ऊपर टिन की छत डलवा दी। एक कोने में शौचालय बनवा दिया। अपने सेवाकाल में परिचित व्यवसायी से उचित दामों में मेज कुर्सी भी बनवा कर लगवा दी।  बच्चों के कक्षा की समस्या एकाएक सुलझ गई थी और अब शाला भी नियमित चल सकती थी।  

आज उसी नये भवन की  पहली दीपावली के लिये बच्चे सजावट कर रहे थे और खुशी से शोर मचाते हुये दौड़ते फिर रहे थे। सुबह की धूप में उन बच्चों की चमकती हुई आंखों को देख कर पाठक जी को ऐसा लगा मानो दीपावली की सांझ के दीपक उनके विद्यालय के आंगन अभी से जगमगा उठे हों।

©  सदानंद आंबेकर

भोपाल, मध्यप्रदेश 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 112 – ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #112 🌻  ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ेगी 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

एक राजा बहुत ही महत्वाकांक्षी था और उसे महल बनाने की बड़ी महत्वाकांक्षा रहती थी उसने अनेक महलों का निर्माण करवाया!

रानी उनकी इस इच्छा से बड़ी व्यथित रहती थी की पता नहीं क्या करेंगे इतने महल बनवाकर!

एक दिन राजा नदी के उस पार एक महात्मा जी के आश्रम के पास से गुजर रहे थे तो वहाँ एक संत की समाधि थी और सैनिकों से राजा को सूचना मिली की संत के पास कोई अनमोल खजाना था और उसकी सूचना उन्होंने किसी को न दी पर अंतिम समय में उसकी जानकारी एक पत्थर पर खुदवाकर अपने साथ ज़मीन में गड़वा दिया और कहा की जिसे भी वह खजाना चाहिये उसे अपने स्वयं के हाथों से अकेले ही इस समाधि से चौरासी हाथ नीचे सूचना पड़ी है निकाल ले और अनमोल सूचना प्राप्त कर लें और ध्यान रखे कि उसे बिना कुछ खाये पीये खोदना है और बिना किसी की सहायता के खोदना है अन्यथा सारी मेहनत व्यर्थ चली जायेगी !

राजा अगले दिन अकेले ही आया और अपने हाथों से खोदने लगा और बड़ी मेहनत के बाद उसे वह शिलालेख मिला और उन शब्दों को जब राजा ने पढ़ा तो उसके होश उड़ गये और सारी अकल ठिकाने आ गई!

उस पर लिखा था हे राहगीर संसार के सबसे भूखे प्राणी शायद तुम ही हो और आज मुझे तुम्हारी इस दशा पर बड़ी हँसी आ रही है तुम कितने भी महल बना लो पर तुम्हारा अंतिम महल यही है एक दिन तुम्हें इसी मिट्टी मे मिलना है!

सावधान राहगीर, जब तक तुम मिट्टी के ऊपर हो तब तक आगे की यात्रा के लिये तुम कुछ जतन कर लेना क्योंकि जब मिट्टी तुम्हारे ऊपर आयेगी तो फिर तुम कुछ भी न कर पाओगे यदि तुमने आगे की यात्रा के लिये कुछ जतन न किया तो अच्छी तरह से ध्यान रखना की जैसे ये चौरासी हाथ का कुआं तुमने अकेले खोदा है बस वैसे ही आगे की चौरासी लाख योनियों में तुम्हें अकेले ही भटकना है और हे राहगीर! ये कभी न भूलना कि “मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी मे मिलना है बस तरीका अलग-अलग है।”

फिर राजा जैसे-तैसे कर के उस कुएँ से बाहर आया और अपने राजमहल गया पर उस शिलालेख के उन शब्दों ने उसे झकझोर कर रख दिया और सारे महल जनता को दे दिये और “अंतिम घर” की तैयारियों मे जुट गया!

हमें एक बात हमेशा याद रखना चाहिए कि इस मिट्टी ने जब रावण जैसे सत्ताधारियों को नहीं बख्शा तो फिर साधारण मानव क्या चीज है? इसलिये ये हमेशा याद रखना कि मुझे भी एक दिन इसी मिट्टी में मिलना है क्योंकि ये मिट्टी किसी को नहीं छोड़ने वाली है!

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – नए ज़माने की दुआ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – नए ज़माने की दुआ।)

☆ लघुकथा – नए ज़माने की दुआ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

“इस घर में कुलदीपक पैदा हुआ है, इस साधु को भी कुछ बधाई दो बच्चा!” गेरुए वस्त्र धारण किए एक बाबा ने घर के भीतर प्रवेश करते हुए कहा। नवजात शिशु के पिता ने पूछा, “आपको कैसे पता चला बाबा कि लड़का हुआ है?”

“तुम्हारे घर के दरवाज़े पर नीम के पत्ते और खिलौने टँगे हैं। बाबा का भी मुँह मीठा कराओ।”

नवजात का पिता भीतर से मिठाई ले आया, साथ ही दो सौ का एक नोट भी बाबा की हथेली पर रख दिया। बाबा ने ख़ुश होकर दुआ दी, “ईश्वर बच्चे और उसके माँ-बाप की उम्र लम्बी करे। मेरी दुआ और आशीर्वाद है कि बच्चा बड़ा होकर बाहर के देश में जाए।”

“यह कैसी दुआ है बाबा, वह बाहर क्यों जाए भला?” बच्चे के बाप ने जैसे नाराज़ होते हुए कहा।

“तुम्हें बुरा लगा हो तो क्षमा करना बच्चा, पर आजकल तो हर युवा बाहर मुल्क में जाने की जीतोड़ कोशिश कर रहा है। कितने युवा हैं जो बाहर जाने में सक्षम होने के बावजूद इस देश में रहना चाहते हैं?”

बाबा चला गया था पर बच्चे का पिता समय के साथ आकार लेने वाली भविष्य की कई दुआओं के बारे में एक साथ सोच गया- बच्चा नशे और माफ़ियाओं से बचा रहे, बच्चा धर्मांध भीड़ का हिस्सा होने से बचा रहे, उसके बड़े होने तक रोज़गार बचे रहें, पीने के लिए पानी बचा रहे… और… और… सर्दी का मौसम था और बच्चे का पिता पसीने से भीग गया था।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ और, मंजिल मिल गयी… ☆ श्री विजयानन्द विजय ☆

श्री विजयानन्द विजय

☆ हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – और, मंजिल मिल गयी… ☆ श्री विजयानन्द विजय ☆ ☆

” स्साली नौकरी न हुई, बेगारी हो गयी है। सुबह से शाम तक बस चाय पिलाओ, नाश्ता कराओ। जैसे और कोई काम ही नहीं है। ” – रामबाबू चाय की केतली लिए बड़बड़ाता हुआ दुकान से ऑफिस की ओर जा रहा था।

राज्य पुलिस में पाँच वर्षों से वह सिपाही के रूप में काम कर रहा था।मगर उसका काम था बस, कुछ फाईल वर्क करना और साहब लोगों को नाश्ता कराना और चाय पिलाना। रोज – रोज के इसी काम से वह ऊब-सा गया था।वह भी चाहता था कि हाथों में बंदूक लेकर दूसरे सिपाहियों की तरह डीएसपी साहब के साथ बाहर जाए।अपराध और अपराधियों का खात्मा करने में अपना भी योगदान दे।आखिर उसकी नियुक्ति भी तो इसी काम के लिए हुई है ? मगर इन पाँच वर्षों में ऐसा मौका उसे कभी मिला ही नहीं।

घर की आर्थिक स्थिति खराब रहने की वजह से माँ-बाबूजी उसे पढ़ा नहीं पाए।किसी तरह उसने मैट्रिक की परीक्षा पास की और पुलिस विभाग में सिपाही बन गया, ताकि घर और माँ-बाबूजी को सँभाल सके। बहन की शादी कर सके।           

धीरे-धीरे उसकी कमाई से घर की स्थिति भी सुधरने लगी।बाबूजी ने गाँव में कुछ जमीन खरीद ली।वे उस पर खेती करने लगे। वे मजदूर से खेतिहर बन गये। बहन की शादी भी उसने धूमधाम से अच्छे घर में कर दी।

अपनी इच्छा को मारकर ऑफिस में उसे वह सब कुछ करना पड़ता था, जो वह नहीं चाहता था। मगर वह कर भी क्या सकता था ? हाँ, इस बीच उसने पढ़ाई से अपना मन नहीं हटाया और दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से स्नातक की परीक्षा पास कर ली।

उस दिन पहले ही की तरह डीएसपी साहब ने उसे चाय लाने के लिए भेजा था।दुकान पर जाकर उसने केतली दी और चार चाय का आर्डर दिया। तभी उसका मोबाईल फोन बजा। उसके दोस्त का फोन था।

चाय की केतली और कप लेकर जब वह पुलिस स्टेशन पहुँचा, तो सभी उसे देखकर खड़े हो गये।

सामने दीवार पर लगी टीवी पर न्यूज चल रही थी – ” जिले में पदस्थापित पुलिस के जवान रामबाबू आईएएस बने। “

© श्री विजयानन्द विजय

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 103 ☆ लड़की की माँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा लड़की की माँ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 103 ☆

☆ लघुकथा –लड़की की माँ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अरे! जल्दी चलो सब, बारात दरवाजे पर आ गई है। भारी भरकम साड़ी पहने और कंधे पर बड़ा सा पर्स टांगे वह तेज कदमों से मुख्य द्वार की ओर चल दी। बैंड-बाजों की तेज आवाजें उसकी धड़कन बढ़ा रही थीं। द्वार तक पहुंचते पहुंचते वह कई बार मन में दोहरा चुकी थी – लड़के के माता – पिता, बहन – बहनोई सबके पाँव पखारने हैं, पहले जल से, फिर दूध से और कपड़े से पैरों को पोंछना है। उसके बाद सभी महिलाओं को हल्दी – कुंकुम लगाना है। ना जाने कितनी परीक्षाएं उसने पास की थीं पर आज का यह पाठ पता नहीं क्यों बड़ा कठिन लग रहा है। बेटी के ससुरालवालों ने कहलाया था कि हमारे यहाँ द्वार-  पूजा में लड़की की माँ ही सबके पाँव पखारती है। बेटी का खुशी से दमकता चेहरा देख वह यंत्रवत काम करती जा  रही थी।

वह हांफ रही थी तेज चलने से नहीं, भीतरी द्वंद्व से। सब कुछ करते हुए कहीं कुछ खटक रहा है। दिमाग के किसी एक कोने में उथल –पुथल मची हुई थी जिसने उसे बेचैन कर रखा है। उसके विचार और वास्तविकता के बीच  भयंकर द्वंद्व  चल रहा है। परंपरा और अपनी आधुनिक सोच के मकड़जाल में वह घुट रही थी। दिल कहा रहा था – जैसा बताया है, करती जा चुपचाप, अपनी बेटी की खुशी देख, बस –।  ये सब परंपराएं हैं, सदियों से यही हो रहा है लेकिन दिमाग वह तो मानों घन बजा रहा था – सारी रस्में लड़की की माँ के लिए ही बनी हैं? क्यों भाई? दान – दहेज, लेना – देना सब लड़कीवालों के हिस्से में? वह बेटी की माँ है तो? क्यों बनाईं ऐसी रस्में?‘ कन्यादान’  शब्द सुनते ही ऐसा लग रहा है मानों किसी ने छाती पर घूंसा मार दिया हो, रुलाई फूट पड़ रही है बार- बार, कुछ उबाल सा आ रहा है दिल में। ऐसा अंतर्द्वंद्व जिसे वह किसी से बाँट भी नहीं सकती। जिससे कहती वही ताना मारता – अरे ! यही तो होता आया है। लड़कीवालों को झुककर ही रहना होता है लड़केवालों के सामने। हमारे यहाँ तो — इसके आगे सामनेवाला जो रस्मों की पिटारी खोलता, वह सन्न रह जाती। उसके पिता का कितना रोब- दाब था समाज में लेकिन फेरे के समय वर पक्ष के सामने सिर झुकाए समर्पण की मुद्रा में बैठे थे।

उसने अपने को संभाला – नहीं- नहीं, यह ठीक नहीं है। इस समय अपनी शिक्षा,अपने पद को दरकिनार कर वह एक लड़की की माँ है, एक सामान्य स्त्री और कुछ नहीं ! पर दिमाग कहाँ शांत बैठ रहा था उसकी बड़ी – बड़ी डिग्रियां उसे कुरेद रही थीं, उफ! काश डिलीट का एक बटन यहाँ भी होता, उसने विचार झटक दिए। वह तेजी से मुख्य द्वार पर पहुँची। द्वार पर वर, बेटी के सास – ससुर, नंद – ननदोई, उनके पीछे रिश्तेदार और पूरी बारात खड़ी थी। सजे – संवरे,  उल्लसित  चेहरे। पाँव पखारने की रस्म के लिए वे सब अपनी चप्पल उतारकर खड़े थे। मुस्कुराते हुए चेहरे से उसने मेहमानों का स्वागत किया और झुक-  झुककर, वर, उसके माता – पिता , बहन – बहनोई के  पाँव धोए, पहले पानी से फिर दूध से और साफ कपड़े से पोंछती  जा रही थी। उसे लग रहा तथा कि पढ़े – लिखे जवान बच्चों में से कोई तो कहेगा – नहीं, आप हमारे पैर मत छुइए। पर कोई नहीं बोला। समाज द्वारा लड़की की माँ के लिए बनाई गई रस्मों पर उसकी आँखों में  आँसू छलक उठे। 

उसकी छलकती आँखें खुद को अपने बेटे की शादी में वधू के माता – पिता के पैर पखारते, आरती करते देख मुस्कुरा रही थीं।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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