हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 37 – देश-परदेश – उल्टा समय☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 37 ☆ देश-परदेश – उल्टा समय ☆ श्री राकेश कुमार ☆

कुछ दिनों से प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे विज्ञापनों की बाढ़ आ गई है, जो उधार लेकर बिना आवश्यकता के सामान खरीदने के लिए आकर्षित ही नहीं बाध्य कर रहे हैं।

हमारी संस्कृति या सामाजिक व्यवस्था में उधार लेना बुरी बात मानी जाती हैं।

बाजारू ताकतें हमारी अदातें बदल कर हमें मजबूर कर रही हैं। बैंक और अन्य वाणिज्यिक संस्थाएं भी खजाने खोल कर बैठी हैं, लोन देने के लिए। आप बस कोरे कागज़ात पर हस्ताक्षर करने के लिए हामी भर देवें।

उपरोक्त विज्ञापन कह रहा है “आज उधार :कल नगद”  जबकि हमारे यहां तो व्यापारिक संस्थानों में इसका उल्टा “आज नगद: कल उधार” की सूचना लिखी रहती थी। विज्ञापन में ये भी लिखा था “नगद देकर शर्मिंदा ना करें” जबकि ये मूलतः उधार मांग कर शर्मिंदा ना करें था। “नौ नगद ना तेरह उधार” के सिद्धांत पर ही सदियों से हमारी अर्थव्यवस्था चल रही थी। तो अब ये क्या बातें हो रही है, कि खपत बढ़ानी चाहिए तभी हमारी अर्थव्यवस्था चल सकती है।

हम तो बचत कर क्रय करने की परंपरा वाले समाज से आते हैं, उल्टी गंगा बहाई जा रही हैं। अनावश्यक सामान या पूरे वर्ष में खपत होने वाली जिंसो को लेकर घर भर लो, ताकि खपत भी बढ़ जाए और बड़े उद्योगपतियों की पौ बारह हो जाए।

उधार प्रेम की कैंची है, जैसे शब्द प्राय सभी फुटकर विक्रतों के यहां लिखे हुए देखे जाते थे, जो अब नादरत हो चुके हैं। पहले हमारी फिल्मों में गांव के महाजन/ सेठ हीरो की मां कंगन रख कर कठिन समय में पैसे उधार लेती थी, और फिर उनके अत्याचार सहती थी। अब ये बड़े बड़े कॉर्पोरेट/ निर्माता उधार पर सामान देकर बाद में वसूली करते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 61 ⇒ क्रोध और अपमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “क्रोध और अपमान।)  

? अभी अभी # 61 ⇒ क्रोध और अपमान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्रोध और अपमान एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। क्या कभी ऐसा हुआ है कि किसी ने आपका सम्मान किया हो, और आपको क्रोध आया हो। क्रोध को पीकर किसी का सम्मान भी नहीं किया जा सकता। इंसान और पशु पक्षियों की तरह, शब्द भी अपनी जोड़ी बना लेते हैं। खुदा जब हुस्न देता है, तो नज़ाकत आ ही जाती है। बांसुरी कृष्ण के मुंह लग जाती है और गांडीव अर्जुन के कंधे पर ही शोभायमान होता है। हुस्नलाल के साथ भगतराम ही क्यों ! शंकर प्यारेलाल की जोड़ी नहीं बनी, लक्ष्मीकांत जयकिशन के लिए नहीं बने। जहां कल्याणजी हैं, वहां आनंदजी ही होंगे, नंदाजी अथवा भेरा जी नहीं। धर्मेंद्र हेमा की जोड़ी भी रब ने क्या बनाई है। शब्दों की ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे।

करेला और नीम चढ़ा ! भाई तुम आम के पेड़ पर भी चढ़ सकते थे। अगर आपका सार्वजनिक सम्मान हो रहा हो तो आपके मन में लड्डू ही फूटेंगे, आप अपमान के घूंट थोड़े ही पिएंगे। हंसी के साथ खुशी है, वार के साथ त्योहार, आदर के साथ अगर सत्कार है तो नौकरी के साथ धंधा। आसमान में अगर खुदा है तो ज़मीन पर बंदा है। धंदा जो कभी तेज रहा करता था, आजकल मंदा है। सूरज है तो किरन है, चंदा है तो चांदनी है।।

शब्दों में आपस में दोस्ती भी है और दुश्मनी भी। जब दुश्मनी की बात आएगी तो सांप – नेवले, भारत – पाकिस्तान और भारत – चीन का जिक्र होगा। कांग्रेस मोदीजी को फूटी आंखों नहीं सुहाएगी और कंगना कभी शिव सेना को माफ नहीं कर पाएगी। देव – असुर कभी एक थाली में बैठकर खाना नहीं खाएंगे, मोदीजी अब कभी चाय पीने लाहौर नहीं जाएंगे। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी।

जिस तरह बर्फ कभी जमती और कभी पिघलती है, शब्द भी कभी कभी जमते और पिघलते रहते है। ये ही शब्द कभी शोले बन जाते हैं तो कभी शब्दों को सांप सूंघ जाता है। शब्दों की मार से ही कभी किसी को सदमा होता है तो किसी को दमा। शब्द कानों में शहद भी घोल सकते हैं और ज़हर भी। कभी शब्द आंसू बनकर बह निकलते हैं तो कभी आग उगलने लगते हैं।।

शब्द ही भ्रम भी है और ब्रह्म भी। शब्दों का भ्रम जाल ही माया जाल है। शब्द ही जीव है, शब्द ही ब्रह्म। कभी नाम है तो कभी बदनाम। सस्ता शब्द अगर मूंगफली है तो महंगा शब्द बादाम। राम तेरे कितने नाम।

क्या कोई ऐसी रामबाण दवा है इस संसार में कि दुर्वासा को कभी क्रोध न आवे, चित्त की ऐसी स्थिति बन जावे कि मान अपमान दोनों उसमें जगह न पावे। शब्द मार करने के पहले ही पिघल जावे, तो शायद हमें क्रोध ही न आवे। शकर आसानी से पानी में घुल जाती है, सभी रंग मिलकर एक हो जाते। हमारा चित्त बड़ा विचित्र। यहां शब्द ही नहीं पिघल पाते। काश क्रोध और अपमान भी आसानी से द्रवित हो जावे। कितना अच्छा हो यह चित्त, बाल मन हो जावे, सब कुछ अच्छा बुरा, बहुत जल्द भूल जावे। लाख डांटे – डपटे, मारे मां, बच्चा मां से ही बार बार जाकर लिपट जावे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “विश्व पर्यावरण दिन-५ जून २०२३…” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ ♻️ “विश्व पर्यावरण दिन-५ जून २०२३…” 🌻 ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार पाठकों,

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के नेतृत्व में १९७३ से हर साल ५ जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। विश्व पर्यावरण दिवस २०२३ की थीम है ‘Beat Plastic Pollution’ अर्थात, ‘प्लास्टिक पॉल्यूशन पर काबू पाओ’, क्योंकि बढ़ता प्लास्टिक प्रदूषण पर्यावरण प्रदूषण का एक प्रमुख कारण पाया गया है। हर साल ४०० मिलियन टन से अधिक प्लास्टिक का उत्पादन होता है, जिसमें से आधे को केवल एक बार उपयोग करने के लिए डिजाइन किया गया है (एकल उपयोग प्लास्टिक अर्थात सिंगल यूज प्लास्टिक)| आज की तारीख में अत्यावश्यक होने के कारण २०२३ की थीम के अंतर्गत प्लास्टिक प्रदूषण पर काबू पाने के लिए सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के साथ-साथ नागरिकों की भागीदारी के साथ वैश्विक पहल लागू की जाएगी।

प्लास्टिक प्रदूषण के कारण

प्लास्टिक का उत्पादन जीवाश्म ईंधन का उपयोग करता है, जो ग्रीनहाउस गैस (कार्बन डाइऑक्साइड) को बाहर फेंकता है और वैश्विक तापमान में वृद्धि करता है। एकल उपयोग प्लास्टिक, मुख्य रूप से प्लास्टिक बैग, स्ट्रॉ और पानी की बोतलों का अत्यधिक उपयोग, बढ़ते प्लास्टिक प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है। प्लास्टिक का गलत प्रबंधन (मुख्य रूप से कचरे का गैर-पृथक्करण) और प्लास्टिक कचरा कूड़ेदान या अन्य जगहों पर फेंकने से जलमार्गों और महासागरों में प्रवेश करते हुए समुद्री जीवन और पर्यावरण को नुकसान पहुँचा सकता है। इस प्लास्टिक के विघटित होने में १००० वर्ष से अधिक समय लगता है और ये विघटित प्लास्टिक जहरीले रसायनों के रूप में पर्यावरण को प्रदूषित करते रहते हैं। प्लास्टिक प्रदूषण से समुद्री जीवन प्रभावित होता है। महासागरों में कछुओं, मछलियों और अन्य जलीय जीवों की मृत्यु होती है। जलमार्ग भी प्रभावित होते हैं। नदियाँ और नाले प्लास्टिक कचरे से भर सकते हैं, जिससे बाढ़ और प्रदूषण हो सकता है। यह हमारे पीने के पानी को भी प्रदूषित करता है। इसके कारण जैव विविधता (biodiversity) कम हो रही है। प्लास्टिक में मौजूद जहरीले रसायन मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालते हैं।

प्लास्टिक प्रदूषण को मात देने के तरीके

प्लास्टिक प्रदूषण पर काबू पाने के लिए रिड्यूस, रीयूज और रीसायकल ये तीन आवश्यक R अर्थात उपाय हैं। एकल उपयोग प्लास्टिक का उपयोग कम करें और टिकाऊ विकल्प यानि, प्राकृतिक सामग्री का उपयोग करें। इस लड़ाई में जन जागरूकता जरूरी है। सामाजिक जागरूकता अभियान के साथ-साथ समाज प्रबोधन के लिए सोशल मीडिया बहुत प्रभावी है। एकल उपयोग प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को सीमित करने वाली सरकारी नीतियों और नियमों का सख्त पालन आवश्यक है। हम प्लास्टिक प्रदूषण को दूर करने के लिए समुद्र तटों, बगीचों, अन्य सार्वजनिक स्थानों और परिसरों में स्वच्छता अभियान चलाकर प्लास्टिक कचरे का नियोजन कर सकते हैं।

‘स्वच्छ रुणवाल’ अभियान

हम न केवल प्लास्टिक का उपयोग करते हैं, बल्कि उसे अपने घरों के बाहर, परिसर में, सड़कों पर और यहां तक कि कूड़ेदान होते हुए भी उसके बाहर फेंकते हैं। यह कचरे का योग्य नियोजित नहीं है। इस संबंध में, रुणवाल गार्डन सिटी, ठाणे पश्चिम के हमारे परिसर में जनवरी २०१७ से ‘स्वच्छ रुणवाल’ नामक उपक्रम चल रहा है। स्वच्छ रुणवाल परियोजना बिसलेरी-बॉटल फॉर चेंज, एंटी प्लास्टिक ब्रिगेड चैरिटेबल ट्रस्ट, परिसर भगिनी विकास संघ, ऊर्जा फाउंडेशन और ठाणे महानगर निगम के सहयोग से कार्यान्वित की जा रही है। आज तक हम २७००० किलो से अधिक प्लास्टिक को पुनर्चक्रण के लिए दान कर चुके हैं, इसपर अभियान में शामिल निवासी और स्वयंसेवक (मैं भी एक स्वयंसेवक हूं) बहुत गर्व महसूस कर रहे हैं। इसी उपक्रम द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे और थर्मोकोल को भी रिसाइकिल करते हैं। वृक्षारोपण अभियान के माध्यम से हरियाली और स्वच्छता को बढ़ावा दिया जाता है। हमारे कुछ स्वयंसेवकों ने ठाणे के पास समुद्र तट सफाई के सरकारी अभियान में योगदान दिया है।

हमने जनवरी २०१७ में प्लास्टिक संग्रह शुरू किया। एकत्रित प्लास्टिक कचरे को स्वयंसेवक अपने वाहनों में पुनर्चक्रण के लिए ऊर्जा फाउंडेशन केंद्रों तक पहुँचाते थे| कॉम्प्लेक्स का योगदान बढते गया, इसलिए हमने ‘बॉटल फॉर चेंज’ और ‘एंटी प्लास्टिक ब्रिगेड चैरिटेबल ट्रस्ट’ के साथ करार किया। अगस्त २०१९ से इसमें तेजी आई है। अब रुनवाल गार्डन सिटी के निवासी हर हफ्ते के आड़े शनिवार को इमारतों के कुछ स्थानों पर प्लास्टिक कचरे को जमा करके प्लास्टिक रीसाइक्लिंग अभियान जारी रखते हैं।हमारा परिसर ‘बॉटल्स फॉर चेंज’ परियोजना के तहत पंजीकृत है। यह संस्था आपकी सोसायटी से प्लास्टिक कलेक्ट करने के लिए आपके घर तक अपनी गाड़ी भेजती है और उनके एप के जरिए ऐसा करना बेहद आसान है| यह एप हमारे परिसर द्वारा एकत्र किए गए प्लास्टिक कचरे का सही वजन बताता है।

प्लॉगिंग

प्रिय पाठकों, हमारे परिसर में ‘प्लॉगिंग’ (यानि जॉगिंग या अन्य व्यायाम करते करते प्लास्टिक का कचरा इकठ्ठा करना तथा उसका योग्य नियोजन करना) भी किया जाता है| हर रविवार को हमारे इस अभियान के सदस्य तथा बच्चे इस बिखरे प्लास्टिक को चुनकर, तो कभी खोद निकालकर सफाई कर्मचारियों के भांति वह जमा करते रहते हैं| इसके अलावा कुछ खास दिनों में (उदा. होली के रंगोत्सव का दूसरा दिन-८ मार्च २०२३ और विश्व वसुंधरा दिवस-२२ अप्रैल २०२३) इनका काम जोर शोर से किया जाता है|

जनजागरण

ये स्वयंसेवक जन जागरूकता पैदा करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते हैं। इस परिसर के हर सार्वजनिक कार्यक्रम में इनकी अपील होती है! कभी सोशल मीडिया संदेश, वीडियो (मुख्यतः व्हाट्सएप और फेसबुक), कभी भाषण, कभी सुंदर नुक्कड़ नाटक, कभी पोस्टर, पेंटिंग प्रतियोगिताएं! इन सबके बीच यह काम निरन्तर जारी है। सबसे आशाजनक और आनन्ददायक बात यह है, कि इस गतिविधि में छोटे और बड़े बच्चे बहुत उत्साह और चाव के साथ सहभागी होते हैं।

पुरस्कार

इस अभियान को कई पुरस्कार और प्रमाण पत्र प्राप्त हुए हैं। वर्ष २०२३ के बारे में कहूं तो ८ मार्च को आयोजित ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के अवसर पर संजय भोईर फाउंडेशन द्वारा ‘उषा सखी सम्मान’ इस कार्यक्रम में माननीय श्री संजय भोईर एवं श्रीमती उषा भोईर द्वारा प्रमाण पत्र देकर रुणवाल के इस प्रोजेक्ट में कार्यरत महिलाओं को सम्मानित किया गया| ११ अप्रैल २०२३ को रुणवाल गार्डन सिटी, ठाणे को गोदरेज और बॉयस के सहयोग से ‘द बेटर इंडिया’ द्वारा प्रस्तुत ‘बेस्ट हाउसिंग इंस्टीट्यूशन अवार्ड’ (स्वच्छ पहल श्रेणी में विजेता) प्राप्त हुआ। यह शहरों को रहने योग्य बेहतर स्थान बनाने और समाज के सभी वर्गों के बीच इसके कार्यान्वित करने और जागरूकता निर्माण में एकत्रित कार्य करने के लिए प्राप्त किया हुआ राष्ट्रीय पुरस्कार है।

मित्रों, कोई भी सामाजिक उद्यम, चाहे सरकारी हो या निजी, नागरिकों की भागीदारी के बिना सफल नहीं हो सकता। कोई भी गतिविधि स्वयं से ही शुरू होती है। हम सब को एकल उपयोग प्लास्टिक बैग, पानी की बोतल, प्लेटें, डिब्बे, बर्तन, चम्मच, स्ट्रॉ, कप आदि का उपयोग बंद करना चाहिए। वैकल्पिक सामग्री (जैसे कि, कपडे के थैले, स्टील की पानी की बोतलें, केले के छिलके से बनी प्लेटें, कटोरे आदि) से बनी चीजों का उपयोग करके कई टन प्लास्टिक के उपयोग को रोका जा सकता है। शासन स्तर पर हर परिसर में कूड़ा निस्तारण व अलग से प्लास्टिक के संग्रह की योजना शुरू हो चुकी है, इसे सफल बनाना निवासियों का सामाजिक कर्तव्य है। मेरा मानना है कि, ‘मेरा प्लास्टिक कचरा, मेरी जिम्मेदारी’ इस मंत्र को ध्यान में रखते हुए हम जितना हो सके योगदान दें उतना अच्छा! मित्रों, याद रहे, आप जो भी प्लास्टिक रीसायकल करने के लिए देते हैं, वह हरीभरी वसुंधरा की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है!

धन्यवाद! 🌹

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

टिप्पणी –

ऊपर बताए उपक्रम से सम्बन्धित विडिओ की लिंक लेख के अन्त में दी है। इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग किया है।

कृपया यह प्रतिक्रिया अग्रेषित करनी हो तो, साथ में मेरा नाम तथा फोन नंबर उसमें रहने दें!

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 193 – कबीर जयंती विशेष – साधो देखो जग बौराना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 193 ☆ कबीर जयंती विशेष – साधो देखो जग बौराना ?

आज कबीर जयंती है। यूँ कहें तो कबीर याने फक्कड़ फ़कीर, यूँ समझें तो कबीर याने दुनिया भर का अमीर। वस्तुत: कबीर को समझने के लिए पहले आवश्यक है यह समझना कि वस्तुतः हमें किसे समझना है। पाँच सौ साल पहले निर्वाण पाए एक व्यक्ति को या कबीर होने की प्रक्रिया को? दहन किये गए या दफ़्न किये गए या विलुप्त हो गये  दैहिक कबीर को पाँच सदी की लम्बी अवधि बीत गई। अलबत्ता आत्मिक कबीर को समझने के लिए यह समयावधि बहुत कम है।

प्रश्न तो यह भी है कि कबीर को क्यों समझें हम? छोटे मनुष्य की छोटी सोच है कि कबीर से हमें क्या हासिल होगा? कबीर क्या देगा हमें? कबीर जयंती पर इस प्रश्न का स्वार्थ अधिक गहरा जाता है।

कबीर को समझने में सबसे बड़ा ऑब्सटेकल या बाधा है कबीर से कुछ पाने की उम्मीद। कबीर भौतिक रूप से कुछ नहीं देगा बल्कि जो है तुम्हारे पास, उसे भी छीन लेगा। पाने नहीं छोड़ने के लिए तैयार हो तो कबीर आत्मिक रूप से तुम्हें मालामाल कर देगा।

आत्मिक रूप से मालामाल कर देने का एक अर्थ कबीर का ज्ञानी, पंडित, आचार्य, मौलाना, फादर या प्रीस्ट होना भी है। इन सारी धारणाओं का खंडन खुद कबीर ने किया, यह कहकर,

‘मसि कागद छूयौ नहिं, कलम नहिं गहि हाथ।’

कबीर दीक्षित है, शिक्षित नहीं।

कबीर अंगूठाछाप है। ऐसा निरक्षर जिसके पास  अक्षर का अकूत भंडार है। कबीर कुछ सिखाता नहीं। अनसीखे में बसी सीख, अनगढ़ में छुपे शिल्प को देखने-समझने की आँख है कबीर। हासिल होना कबीर होना नहीं है, हासिल को तजना कबीर है। भरना पाखंड है, रीत जाना आनंद है। पाना रश्क है, खोना इश्क है,

हमन से इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या

रहे।

आज़ाद या जग से, हमन को  दुनिया से यारी क्या।

और जब इश्क या प्रेम हो जाए तो अनसीखा आत्मिक पांडित्य तो जगेगा ही,

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

कबीर सहज उपलब्ध है। कबीर होने के लिए, उसकी संगत काफी है। ओशो ने सहक्रमिकता के सिद्धांत या लॉ ऑफ सिंक्रोनिसिटी का उल्लेख कबीर के संदर्भ में किया है। किसी वाद्य के दो नग मंगाये जाएँ। कमरे के किसी कोने में एक रख दिया जाए। दूसरे को संगीत में डूबा हुआ संगीतज्ञ (ध्यान रहे, ‘डूबा हुआ’ कहा है, ‘सीखा हुआ’ नहीं)  बजाए।  सिंक्रोनिसिटी के प्रभाव से कोने में रखा वाद्य भी कसमसाने लगता है। उसके तार अपने आप कसने लगते हैं और वही धुन स्पंदित होने लगती है।

कबीर का सान्निध्य भीतर के वाद्य को स्पंदित करता है। भीतर का स्पंदन मनुष्य में मानुषता का सोया भाव जाग्रत कर देता है। जाग्रत अवस्था का मनुष्य, सच्चा मनुष्य हो जाता है और बरबस कह उठता है,

साँची कहौ तो मारन धावै झूँठे जग पतियाना।

साधो, देखो जग बौराना।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 60 ⇒ दो जून की रोटी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दो जून की रोटी।)  

? अभी अभी # 60 ⇒ दो जून की रोटी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

दीवाना आदमी को बनाती हैं रोटियाँ ! पूरी दुनिया में लड़ाई का कारण सिर्फ़ रोटी है। इंसान सब कुछ कर सकता है, भूखा नहीं रह सकता ! रोटी का महत्व वे लोग नहीं जान सकते, जो रोज पिज़ा, बर्गर खाते हैं। एक देश में अकाल पड़ा ! रानी के पास शिकायत गई, लोगों के पास खाने को रोटी नहीं है। ये लोग केक क्यों नहीं खाते, रानी ने मासूमियत से पूछा।

आज दो जून है ! हम ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि वो हमें दो जून की रोटी नसीब करवा रहा है। आज की रोटी में ऐसा क्या खास है, रोटी को उलट-पलट कर देखें। कुछ नज़र नहीं आएगा। ।

जून माह साल में एक बार आता है। दूसरा जून फिर अगले साल आएगा। बीच में पूरा एक बरस है। ईश्वर हमें इस जून को रोटी दे रहा है, दूसरा जून जो अगले साल आ रहा है, तब तक हमारी रोटी की व्यवस्था हो जाए, बस यही दो जून की रोटी है।

साईं इतना दीजिये, जा में कुटुंब समाए, मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाए ! पहले लोग साल भर का अनाज घर में भर लेते थे।

दो जून का इंतज़ाम हो गया।

पकवान न सही, प्याज, नमक से भी रोटी खाकर भूख मिटाई जा सकती है। सिर्फ दो रोटी का सवाल है। ।

आजकल लोग दो जून की चिंता नहीं करते ! बहुत दिया है देने वाले ने तुझको। साल भर का अनाज कौन अवेरे ! बाज़ार में इतने रेडीमेड आटे उपलब्ध हैं, अन्नपूर्णा, शक्तिभोग आदि आदि, कौन अनाज की साल भर देखभाल करे। जब भी आटा खत्म हुआ, बिग बाज़ार है, सुपर मार्केट है। और नहीं तो इतनी होटलें तो हैं ही। आज का डिनर बाहर ही सही।

हम शहरी लोग हैं। एक गरीब किसान पर क्या गुजरती है, जब उसकी खड़ी फसल सिंचाई के अभाव में जल जाती है, अथवा तेज़ आँधी बारिश में तबाह हो जाती है। वह कहाँ से लाएगा दो जून की रोटी ? वह तो जब अनाज बेचेगा तब ही उसकी रोटी की व्यवस्था होगी।।

एक मज़दूर जो रोज पसीना बहाता है, रोज कमाता है, रोज खाता है। उसके दो जून की व्यवस्था कौन करता है। उसे तो रोज कुआ खोदना है।

मैं आज दो जून की रोटी खा रहा हूँ। मैं चाहता हूँ यह दो जून की रोटी हर भारतवासी को नसीब हो। किसी को रोटी के लिए भीख न माँगनी पड़े। हर इंसान अपने दो जून की रोटी की व्यवस्था कर पाए, तो मैं समझूँगा स्वर्ग धरती पर आ गया। बड़ी महँगी है, मूल्यवान है, स्वादिष्ट है, यह दो जून की रोटी। आप भी खाकर देखें, किसी को खिलाकर देखें। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 59 ⇒ सृजन सुख… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सृजन सुख “।)  

? अभी अभी # 59 ⇒ सृजन सुख ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जीवन, सृजन का ही तो परिणाम है। सृष्टि का चक्र सतत चलायमान रहता है, यहां कुछ भी स्थिर नहीं हैं। सब अपनी अपनी धुरी पर घूम रहे हैं, घूमते वक्त पहिया हो या चाक, वह स्थिर ही नजर आता है। पंखा गति में चलकर हमें हवा दे रहा है, लेकिन स्थिर नजर आता है। संगीत में, नृत्य में, जितनी गति है, उतनी ही स्थिरता भी है।

एक थाल मोती भरा, सबके सर पर उल्टा पड़ा। लेकिन वह कभी हम पर गिरता नहीं। चलायमान रहते हुए भी स्थिर नज़र आना ही इस सृष्टि का स्वभाव है, इसीलिए इसे मैनिफेस्टशन कहते हैं। इसके ऊपर, अंदर, बाहर, रहस्य ही रहस्य है। ।

इसे मेनिफेस्टेशन इसलिए कहते हैं, क्योंकि इसका कर्ता अदृश्य होता है, आप उसे चाहे जो नाम और रूप दे दें, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वह तो सर्वत्र व्याप्त है, आपके अंदर भी। और आप भी उस मेनिफेस्टेशन के एक आवश्यक अंग हो। आप रहें ना रहें, यह दुनिया यूं ही चलती रहेगी। ।

एक बीज की यात्रा मिट्टी से शुरू होती है, बस यही सृष्टि की शुरुआत है। एक बीज ही पूरा वृक्ष बनता है, फलता फूलता है, फल फूल बिखेरता है। फिर वही फल का बीज पुनः जमीन में जाकर ऐसे कई वृक्षों की बहार लगा देता है।

बीज मंत्र में ही पूरी सृष्टि का सार है। मुर्गी ही अंडा देती है, सृजन का कॉपीराइट महिलाओं के पास रिजर्व है। पुरुष मां नहीं बन सकता। संसार का सबसे बड़ा सृजन का सुख केवल औरत को नसीब है, आप तो बस मर्द और बाप बने घूमते रहो। बच्चे को अपना नाम देकर खुश होते रहो, जब कि वह तो उसकी मम्मा का बेटा है। ।

प्रकृति में यह माता पिता का भेद नहीं। यहां बच्चे का नामकरण नहीं होता। यह प्राणी प्रकृति की संतान है। नर मादा अपना कर्तव्य निभाकर अनासक्त तरीके से उसे उसका आसमान सौंपकर निश्चिंत हो जाते है। ना किसी की शादी ब्याह की चिंता, न नौकरी की चिंता। ।

सृजन कार्य दो व्यक्तियों द्वारा ही निष्पादित किया जाता है, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। परमात्मा की यह देन दोनों की झोली में अवतरित होती है, वे इसके माता पिता कहलाते हैं। वे अचानक दृष्टा से सृष्टा बन जाते हैं। बस वही परिवार एक वृक्ष की भांति फलता फूलता रहता है और आपका वंश धन्य हो जाता है।

पहली बार संतान सुख का एक अलग ही आनंद होता हैं। हमें प्रकृति के रहस्यों का पता चलता है। कितना कुछ मौजूद है, पृथ्वी के इस गर्भ में और प्रथ्वी के इस धरातल पर। रोज फूल खिल रहे हैं, रोज नदियां कल कल बह रही हैं, रोज मंद पवन चल रही है, सूरज की रोशनी से ही तो हमारी सृष्टि है, हमारी दृष्टि है। हमारे लिए ही खेत अनाज उगाते हैं, गायें दूध देती हैं। सृष्टि हमारी मां है, वही हमारा लालन पालन करती है। ।

सृजन के कई आयाम हैं।

पुरुष मात्र, मातृ सुख से ही वंचित हो सकता है, लेकिन उसके लिए भी सृजन के कई द्वार खुले हैं। वह साहित्य का सृजन करे, संगीत का सृजन करे, कोई खोज करे, कोई आविष्कार करे। विभिन्न इल्मी विधाओं में भी सृजन का सुख खोजा जाता है।

प्यार का पहला खत, लिखने में वक्त तो लगता है, वैसे यह बात परिंदों तक चली जाएगी, अतः एक सृजन प्रेमी लेखक को जो सुख सृजन में मिलता है, वह किसी मातृ सुख से कम नहीं होता। पहली रचना अभी नहीं, तो कभी नहीं। यहां कोई परिवार कल्याण नहीं, स्वयं का ही कल्याण होना है, जब आपकी छोटी बड़ी रचनाएं, दैनिक अखबार और साहित्यिक पत्रिकाओं में उछलकूद मचाती नजर आएंंगी तो क्या आपको खुशी नजर नहीं आएगी। ।

ज्ञानोदय में छपी यह रचना आपकी है, जी हां अपनी ही है। वाह, क्या कमाल की रचना है। बधाई। क्या यह सुख किसी मातृत्व सुख से कम है। बस फिर तो रचनाएं ना जाने कहां कहां से उतरने लगती हैं, पत्र पत्रिकाओं में छाने लगती हैं। आप भी सोचते हैं, अब इन सबका सामूहिक विवाह कर दूं और एक पुस्तकाकार रूप में पाठकों को समर्पित कर दूं।

बड़े अरमानों के बाद विमोचन के मंडप में आपकी पहली कृति का लोकार्पण होता है। है न यह मातृ सुख और पितृ सुख का मिला जुला तोहफा। बच्चा सबको पसंद आता है, लोग रचना को नेग भी देते हैं, आपकी रचना कमाऊ पुत्री निकल जाती है। ।

आज बाजार में आपकी कई रचनाओं की चर्चा है। किसी रचना को शिखर सम्मान मिल रहा है तो किसी को सरस्वती सम्मान। आप चाहते हैं मेरी किसी रचना को अगर नोबेल ना सही तो साहित्य अकादमी या ज्ञानपीठ पुरस्कार ही मिल जाए, तो मैं भाग्यशाली, खुद ही अपनी पीठ थपथपा लूं। लोग खुश तो होते हैं, लेकिन अंदर से बहुत जलते हैं।

मेरी किसी रचना को किसी की बुरी नजर ना लगे। पिछली बार कोरोना में कुछ रचनाओं को दीमक लग गई थी। आप भी अपनी अच्छी रचना की नज़र उतरवा लें। सृजन है, तो सृजन सुख है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #185 ☆ चिन्ता बनाम पूजा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख चिन्ता बनाम पूजा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 185 ☆

☆ चिन्ता बनाम पूजा 

‘जब आप अपनी चिन्ता को पूजा, आराधना व उपासना में बदल देते हैं, तो संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाता है।’ चिन्ता तनाव की जनक व आत्मकेंद्रितता की प्रतीक है, जो हमारे हृदय में अलगाव की स्थिति उत्पन्न करती है। इसके कारण ज़माने भर की ख़ुशियाँ हमें अलविदा कह रुख़्सत हो जाती हैं और उसके परिणाम-स्वरूप हम घिर जाते हैं– चिन्ता, तनाव व अवसाद के घने अंधकार में–जहां हमें मंज़िल तक पहुंचाने वाली कोई भी राह नज़र नहीं आती।’

वैसे भी चिन्ता को चिता समान कहा गया है, जो हमें कहीं का नहीं छोड़ती और हम नितांत अकेले रह जाते हैं। कोई भी हमसे बात तक करना पसंद नहीं करता, क्योंकि सब सुख के साथी होते हैं और दु:ख में तो अपना साया तक भी साथ नहीं देता। सुख और दु:ख एक-दूसरे के विरोधी हैं; शत्रु हैं। एक की अनुपस्थिति में ही दूसरा दस्तक देने का साहस जुटा पाता है…तो क्यों न इन दोनों का स्वागत किया जाए? ‘अतिथि देवो भव:’ हमारी संस्कृति है, हमारी परंपरा है, आस्था है, विश्वास है, जो सुसंस्कारों से पल्लवित व पोषित होती है। आस्था व श्रद्धा से तो धन्ना भगत ने पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर दिया था। हाँ! जब हम चिन्ता को पूजा में परिवर्तित कर लेते हैं अर्थात् सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं, तो वह प्रभु की चिन्ता बन जाती है, क्योंकि वे हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानते हैं। सो आइए! अपनी चिन्ताओं को सृष्टि-नियंता को समर्पित कर सुक़ून से ज़िंदगी बसर करें।

‘बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय’ इस उक्ति से तो आप सब परिचित होंगे कि जिस मनुष्य पर प्रभु का वरद्हस्त रहता है, उसे कोई लेशमात्र भी हानि नहीं पहुँचा सकता; उसका अहित नहीं कर सकता। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाएं कि अब तो सब कुछ प्रभु ही करेगा। जो भाग्य में लिखा है; अवश्य होकर अर्थात् मिल कर रहेगा क्योंकि ‘कर्म गति टारै नहीं टरै।’ गीता मेंं भी भगवान श्रीकृष्ण ने निष्काम कर्म का संदेश दिया है तथा उसे ‘सार्थक कर्म’ की संज्ञा दी है। उसके साथ ही वे परोपकार का संदेश हुए मानव-मात्र के हितों का ख्याल रखने को कहते हैं। दूसरे शब्दों में वे हाशिये के उस पार के नि:सहाय लोगों के लिए मंगल-कामना करते हैं, ताकि समाज में सामंजस्यता व समरसता की स्थापना हो सके। वास्तव में यही है–सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम राह, जिस पर चल कर हम कैवल्य की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।

संघर्ष को दुआओं में बदलने की स्थिति जीवन में तभी आती है, जब आपके संघर्ष करने से दूसरों का हित होता है और असहाय व पराश्रित लोग अभिभूत हो आप पर दुआओं की वर्षा करनी प्रारंभ कर देते हैं। दुआ दवा से भी अधिक श्रेयस्कर व कारग़र होती है, जो मीलों का फ़ासला पल-भर में तय कर प्रार्थी तक पहुँच अपना करिश्मा दिखा देती है तथा उसका प्रभाव अक्षुण्ण होता है…रेकी इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आजकल तो वैज्ञानिक भी गायत्री मंत्र के अलौकिक प्रभाव देख कर अचंभित हैं। वे इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि दुआओं व वैदिक मंत्रों में विलक्षण व अलौकिक शक्ति होती है। मुझे स्मरण हो रही हैं– स्वरचित मुक्तक-संग्रह ‘अहसास चंद लम्हों का’ की चंद पंक्तियां… जो जीवन मे एहसासों की महत्ता व प्रभुता को दर्शाती हैं– ‘एहसास से रोशन होती है ज़िंदगी की शमा/ एहसास कभी ग़म, कभी खुशी दे जाता है/ एहसास की धरोहर को सदा संजोए रखना/ एहसास ही इंसान को बुलंदियों पर पहुँचाता है।’ एहसास व मन के भावों में असीम शक्ति है, जो असंभव को संभव बनाने की क्षमता रखते हैं।

उक्त संग्रह की यह पंक्तियां सर्वस्व समर्पण के भाव को अभिव्यक्त करती है…’मैं मन को मंदिर कर लूं / देह को मैं चंदन कर लूं / तुम आन बसो मेरे मन में / मैं हर पल तेरा वंदन कर लूं’…जी हाँ! यह है समर्पण व मानसिक उपासना की स्थिति… जहां मैं और तुम का भाव समाप्त हो जाता है और मन मंदिर हो जाता है। भक्त को प्रभु को तलाशने के लिए मंदिर-मस्जिद व अन्य धार्मिक-स्थलों में माथा रगड़ने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। उसकी देह चंदन-सम हो जाती है, जिसे घिस-घिस कर अर्थात् जीवन को साधना में लगा कर वह प्रभु के चरणों में स्थान प्राप्त करना चाहता है। उसकी एकमात्र उत्कट इच्छा यही होती है कि परमात्मा उसके मन में रच-बस जाएं और वह हर पल उनका वंदन करता रहे अर्थात् एक भी सांस बिना सिमरन के व्यर्थ न जाए। इसी संदर्भ में मुझे स्मरण हो रहा है–महाभारत का वह प्रसंग, जब भीष्म पितामह शर-शैय्या पर लेटे थे। दुर्योधन पहले आकर उनके शीश की ओर स्थान प्राप्त कर स्वयं को गर्वित व हर्षित महसूसता है और कृष्ण उनके चरणों में बैठ कर संतोष का अनुभव करते हैं। सो! वह कृष्ण से प्रसन्नता का कारण पूछता है और अपने प्रश्न का उत्तर पाकर हतप्रभ रह जाता है कि ‘मानव की दृष्टि सबसे पहले सामने वाले अर्थात् चरणों की ओर बैठे व्यक्ति पर पड़ती है, शीश की ओर बैठे व्यक्ति पर नहीं।’ भीष्म पितामह भी पहले कृष्ण से संवाद करते हैं और दुर्योधन से कहते हैं कि मेरी दृष्टि तो पहले वासुदेव कृष्ण पर पड़ी है। इससे संदेश मिलता है कि यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो, तो अहं को त्याग, विनम्र बन कर रहो, क्योंकि जो व्यक्ति ज़मीन से जुड़कर रहता है; फलदार वृक्ष की भांति झुक कर रहता है… सदैव उन्नति के शिखर पर पहुंच सूक़ून व प्रसिद्धि पाता है।’

सो! प्रभु का कृपा-प्रसाद पाने के लिए उनकी चरण-वंदना करनी चाहिए… जो इस कथन को सार्थकता प्रदान करता है कि ‘यदि तुम जीवन में ऊंचाई पाना चाहते हो अथवा उन्नति के शिखर को छूना चाहते हो, तो किसी काम को छोटा मत समझो। जीवन में खूब परिश्रम करके सदैव नंबर ‘वन’ पर बने रहो और उस कार्य को इतनी एकाग्रता व तल्लीनता से करो कि तुम से श्रेष्ठ कोई कर ही न सके। सदैव विनम्रता का दामन थामे रखो, क्योंकि फलदार वृक्ष व सुसंस्कृत मानव सदैव झुक कर रहता है।’ सो! अहं मिटाने के पश्चात् ही आपको करुणा-सागर के निज़ाम में प्रवेश पाने का सुअवसर प्राप्त होगा। अहंनिष्ठ  मानव का वर्तमान व भविष्य दोनों अंधकारमय होते हैं। वह कहीं का भी नहीं रहता और न वह इस लोक में सबका प्रिय बन पाता है; न ही उसका भविष्य संवर सकता है अर्थात् उसे कहीं भी सुख-चैन की प्राप्ति नहीं होती।

इसलिए भारतीय संस्कृति में नमन को महत्व दिया गया है अर्थात् अपने मन से नत अथवा झुक कर रहिए, क्योंकि अहं को विगलित करने के पश्चात् ही मानव के लिए प्रभु के चरणों में स्थान पाना संभव है। नमन व मनन दोनों का संबंध मन से होता है। नमन में मन से पहले न लगा देने से और मनन में मन के पश्चात् न लगा देने से मनन बन जाता है। दोनों स्थितियों का प्रभाव अद्भुत व विलक्षण होता है, जो मानव को कैवल्य की ओर ले जाती हैं। सो! नमन व मनन वही व्यक्ति कर पाता है, जिसमें अहं अथवा सर्वश्रेष्ठता का भाव विगलित हो जाता है और वह विनम्र प्राणी निरहंकार की  स्थिति में आकाश की बुलंदियों को छूने का सामर्थ्य रखता है।

‘यदि मानव में प्रेम, प्रार्थना व क्षमा भाव व्याप्त हैं, तो उसमें शक्ति, साहस व सामर्थ्य स्वत: प्रकट हो जाते हैं, जो जीवन को उज्ज्वल बनाने में सक्षम हैं।’ इसलिए मानव में सब से प्रेम करने से सहयोग व सौहार्द बना रहेगा और उसके हृदय में प्रार्थना भाव जाग्रत हो जायेगा … वह मानव-मात्र के हित व मंगल की कामना करना प्रारंभ कर देगा। इस स्थिति में अहं व क्रोध का भाव विलीन हो जाने पर करुणा भाव का जाग्रत हो जाना स्वाभाविक है। महात्मा बुद्ध ने भी प्रेम, करुणा व क्षमा को सर्वोत्तम भाव स्वीकारते हुए उसे क्रोध पर नियंत्रित पाने के अचूक साधन व उपाय के रूप में प्रतिष्ठापित किया है। इन परिस्थितियों में मानव शक्ति व साहस के होते हुए भी अपने क्रोध पर नियंत्रण कर निर्बल पर वीरता का प्रदर्शन नहीं करता, क्योंकि वह ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ अर्थात् वह बड़ों में क्षमा भाव की उपयोगिता, आवश्यकता, सार्थकता व महत्ता को समझता-स्वीकारता है। महात्मा बुद्ध भी प्रेम व करुणा का संदेश देते हुए स्पष्ट करते हैं कि वास्तव में ‘जब आप शक्तिशाली होते हुए भी निर्बल पर प्रहार नहीं करते– श्लाघनीय है, प्रशंसनीय है।’ इसके विपरीत यदि आप में शत्रु का सामना करने की सामर्थ्य व शक्ति ही नहीं है, तो चुप रहना आप की विवशता है, मजबूरी है; करुणा नहीं। मुझे स्मरण हो रहा है, शिशुपाल प्रसंग …जब शिशुपाल ने क्रोधित होकर भगवान कृष्ण को 99 बार गालियां दीं और वे शांत भाव से मुस्कराते रहे। परंतु उसके 100वीं बार वही सब दोहराने पर, उन्होंने उसके दुष्कर्मों की सज़ा देकर उसके अस्तित्व को मिटा डाला।

सो! कृष्ण की भांति क्षमाशील बनिए। विषम व असामान्य परिस्थितियों में धैर्य का दामन थामे रखें, क्योंकि तुरंत प्रतिक्रिया देने से जीवन में केवल तनाव की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती, बल्कि ज्वालामुखी पर्वत की भांति विस्फोट होने की संभावना बनी रहती है। इतना ही नहीं, कभी-कभी जीवन में सुनामी जीवन की समस्त खुशियों को लील जाता है। इसलिए थोड़ी देर के लिए उस स्थान को त्यागना श्रेयस्कर है, क्योंकि क्रोध तो दूध के उफ़ान की भांति पूर्ण वेग से आता है और पल-भर में शांत हो जाता है। सो! जीवन में अहं का प्रवेश निषिद्घ कर दीजिए, क्रोध अपना ठिकाना स्वत: बदल लेगा।

वास्तव में दो वस्तुओं के द्वंद्व अर्थात् अहं के टकराने से संघर्ष का जन्म होता है। सो! पारिवारिक सौहार्द बनाए रखने के लिए अहं का त्याग अपेक्षित है, क्योंकि संघर्ष व पारस्परिक टकराव से पति-पत्नी के मध्य अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसका ख़ामियाज़ा बच्चों को एकांत की त्रासदी के दंश रूप में झेलना पड़ता है। सो! संयुक्त परिवार-व्यवस्था के पुन: प्रचलन से जीवन में खुशहाली छा जाएगी। सत्संग, सेवा व सिमरन का भाव पुन: जाग्रत हो जाएगा अर्थात् जहां सत्संगति है, सहयोग व सेवा भाव अवश्य होगा, जिसका उद्गम-स्थल समर्पण है। सो! जहां समर्पण है, वहां अहं नहीं और जहां अहं नहीं, वहां क्रोध व द्वंद्व नहीं– टकराव नहीं, संघर्ष नहीं, क्योंकि द्वंद्व ही संघर्ष का जनक है। यह स्नेह, प्रेम, सौहार्द, त्याग, विश्वास, सहनशीलता व सहानुभूति के दैवीय भावों को लील जाता है और मानव चिन्ता, तनाव व अवसाद के मकड़जाल में फंस कर रह जाता है… जो उसे जीते-जी नरक के द्वार तक ले जाते हैं। आइए! चिंता को त्याग व अहं भाव को मिटा कर संपूर्ण समर्पण करें, ताकि संघर्ष दुआओं में परिवर्तित हो जाए और जीते-जी मुक्ति प्राप्त करने की राह सहज व सुगम हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 58 ⇒ अमृत वेला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अमृत वेला”।)  

? अभी अभी # 58 ⇒ अमृत वेला? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

रात्रि के चौथे पहर को अमृत वेला कहते हैं। परीक्षा समय में कुछ बच्चे रात रात भर जागकर पढ़ते थे, तो कुछ केवल ब्रह्म मुहूर्त में जागकर ही अपना पाठ याद कर लेते थे। ब्रह्म मुहूर्त सुबह ४ से ५.३० का माना गया है, जब कि अमृत वेला का समय सुबह ३ से ६ का माना गया है।

ऐसी धारणा है कि अमृत वेला योगियों के जागने की वेला है। गुरु ग्रंथ साहब के अनुसार अमृत वेला नाम से जुड़ने की वेला है। सतनाम वाहे गुरु। ।

फिलहाल हम भरत वंशियों का वैसे भी अमृत काल ही चल रहा है। अमृत वचन, अमृत कुण्ड और अमृत धारा किसी संजीवनी से कम नहीं।

समुद्र मंथन भी अमृत प्राप्ति के लिए ही हुआ था। जिसे बल से अगर असुर प्राप्त करना चाहते थे, तो छल से देवता। कभी मोहिनी अवतार तो कभी वामन अवतार, देवताओं को स्वर्ग भी चाहिए और अमृत भी। बस एक भोलेनाथ शिव शंकर ही तो नीलकंठ हैं। अमृत की एक बूंद के लिए तो कुंभ स्नान भी बुरा नहीं।

यह अभी अभी भी अमृत वेला की ही प्रेरणा है, कुछ अमृत बूंदें हैं विचार प्रवाह की। यह सिलसिला कब शुरू हुआ, रब ही जाने। कोई अलार्म नहीं, बस सुबह तीन बजे आंखें खुल जाना, और आदेश, अमृत वेला में सुबह पांच बजे तक जो विचार आए, वह अभी अभी का हिस्सा बन जाए। अमृत वेला, इस परीक्षार्थी के लिए मानो परीक्षा काल हो गई हो। ठीक पांच बजे, आपसे उत्तर पुस्तिका छीन ली जाएगी, जो आप लिख पाए, वही आपकी परीक्षा। अब आप दो शब्द लिखें अथवा सौ शब्द।।

धीरे धीरे यह अमृत वेला मेरी नियमित दिनचर्या में शामिल हो गई। कोई प्रश्न नहीं, कोई पाठ्य पुस्तक नहीं, कोई कोर्स नहीं, कोई पूर्व तैयारी नहीं। ध्यान कहें, धारणा कहें, ईश्वर प्राणिधान कहें, विचार कहें, सब कुछ अमृत वेला में घटित होता रहता है। जो बूंदें शब्द बन स्क्रीन पर प्रकट हो गईं, वे ही अभी अभी है, एक ऐसी उत्तर पुस्तिका है, जिसे रोज कौन जांचता है, उत्तीर्ण अथवा अनुत्तीर्ण का परीक्षा फल घोषित करता है, मुझे नहीं पता, क्योंकि अमृत वेला में मेरा कुछ नहीं, तेरा तुझको अर्पण। तू तो बस इस बहाने अमृत वेला में, नाम जप में, धारा सदगुरु में स्नान कर ले, डूब जा।

अभी अभी एक जागता हुआ सपना है, आधी हकीकत है, आधा फसाना है, तेरी मेरी बात है, तो कभी व्यर्थ का उत्पात है। बस जो भी है, जैसा भी है, अगर कुछ अच्छा है, तो अमृत वेला का प्रसाद है, अगर नापसंद है तो बस वही इस परीक्षार्थी का परिश्रम है, पुरुषार्थ है, गुस्ताखी है।।

ठीक पांच बजे आदेश हो जाएगा, आपका समय समाप्त हुआ, अपनी उत्तर पुस्तिका परीक्षक के हाथों सौंप परीक्षा हॉल के बाहर। और मेरी अभी अभी की उत्तर पुस्तिका, जो मैने अमृत वेला को समर्पित की थी, आप सुधी पाठक, उसके परीक्षक बन बैठते हैं। मुझे तो यह परीक्षा अमृत वेला में रोज देनी है, जब तक सांस है, शुभ संकल्प है, ईश्वर और सदगुरु की कृपा है, और अकर्ता का भाव है।

कौन सुबह मुझे मेरी मां की तरह नींद से, प्यार से रोज नियमित रूप से, अमृत वेला में जगाता है, कौन वेद व्यास मुझ गोबर गणेश से कुछ लिखवाते हैं। जब वेद व्यास लिखवाते हैं, तो मैं भी श्रीगणेश कर ही देता हूं, लेकिन जब मैं कुछ लिखता हूं, तो गुड़ गोबर तो होना ही है। लेकिन मुझे भरोसा है, पूरा यकीन है, अमृत वेला ब्रह्म मुहूर्त की वह वेला है, जब आकाश से, और चिदाकाश से अमृत ही बरसता है, फूल ही बरसते हैं, अमृत धारा ही बहती है। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 57 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गधा, घोड़ा और खच्चर।)  

? अभी अभी # 58 ⇒ गधा, घोड़ा और खच्चर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

एक गधा एक घोड़ा कहावत।घोड़ा एक उच्च नस्ल का प्राणी है, मनुष्य जब उसकी सवारी करता है तब वह घुड़सवार कहलाता है। शादी के वक्त जीवन में एक बार तो हर दूल्हा घोड़ी चढ़ता ही है। यह सुख गधे के नसीब में नहीं। कोई समझदार इंसान गधे की सवारी नहीं करता ! कोई दूल्हा भूल से भी कभी एक गधी पर चढ़ तोरण नहीं मारता।

आखिर घोड़े गधे में फ़र्क होता है ! लेकिन यह भी सनातन सत्य है कि अगर गधे के सींग नहीं होते, तो घोड़े के भी नहीं होते। अगर गधा घास खाता है, तो घोड़ा कोई बिरयानी नहीं खाता। दोनों के एक एक पूँछ होती है। हाँ गधा हिनहिना नहीं सकता और सावन के घोड़े को सब जगह हरा नहीं दिखता।।

घोड़े को अश्व भी कहते हैं और महालक्ष्मी में घोड़े की ही रेस होती है, गधों की नहीं। इतिहास गवाह है कि पुराने ज़माने के राजाओं की सेना में युद्ध के लिए घोड़े, हाथी, और अश्व-युक्त रथ होते थे, लेकिन किसी भी सेना में गधे को स्थान नहीं मिला। जब कि यह कछुए जितना स्लो भी नहीं।

अंग्रेज़ घोड़ों की सवारी ही नहीं करते थे, उस पर बैठ पोलो भी खेलते थे। अंग्रेज़ चले गए, पोलोग्राउण्ड छोड़ गए। सेना में आज भी अच्छी नस्ल के घोड़ों की उपयोगिता है। बीएसएफ की ही तरह एसएएफ की बटालियन भी होती है, जिसे अश्ववाहिनी भी कहते हैं।।

गधे और घोड़े के बीच की एक नस्ल होती है, जिसे खच्चर कहते हैं। आप इसे दलित अश्व भी कह सकते हैं। यूँ तो गधे और खच्चर दोनों पर समान रूप से सामान लादा जा सकता है, लेकिन खच्चर पहाड़ों पर आसानी से बोझा ढो सकता है। गधा इसीलिए गधा रह गया कि वह कभी पहाड़ नहीं चढ़ा।।

जो खच्चर पहाड़ों पर बोझा ढो सकता है, वह सैलानियों और तीर्थ यात्रियों को भी  सवारी के लिए अपनी  आपातकालीन सेवाएं प्रस्तुत कर सकता है। पहाड़ पर यह खच्चर कई लोगों को रोजगार उपलब्ध करवाता है। तराई से पहाड़ों पर आवश्यक सामग्री पहुँचाने का काम ये खच्चर ही करते हैं।

मनुष्य बड़ा मतलबी इंसान है ! घोड़े और खच्चर को तो उसने अपना लिया लेकिन गधे को नहीं अपनाया। यहाँ तक तो चलो ठीक है। लेकिन जो इंसान भी उसके काम का नहीं, उसे भी गधा कहने में उसे कोई संकोच नहीं।

लेकिन वह यह भूल जाता है कि मतलब पड़ने पर गधे को ही बाप बनाया जाता है, घोड़े को नहीं।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 56 ⇒ कंडक्टर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कंडक्टर”।)  

? अभी अभी # 56 ⇒ कंडक्टर? श्री प्रदीप शर्मा  ?
वैसे तो कंडक्टर का कंडक्ट से कोई लेना-देना नहीं होता, लेकिन इसमें भी दो मत नहीं कि कंडक्टर शब्द कंडक्ट से ही बना है। फिजिक्स में गुड कंडक्टर भी होते हैं और बेड-कंडक्टर भी। मैं अपने कड़वे अतीत को भूल जाना चाहता हूँ, इसलिए फिजिक्स का पन्ना यहीं बंद करता हूँ।

कंडक्टर को हिंदी में परिचालक कहते हैं। बिना चालक के परिचालक का कोई अस्तित्व नहीं। चालक सिर्फ़ बस चलाता है, परिचालक सवारियों को भी चलाता है। ।

न जाने क्यों, जहाज के पंछी की तरह बार बार कांग्रेस काल में प्रवेश करना पड़ता है। हमारे प्रदेश के राज्य परिवहन निगम का इंतकाल हुए अर्सा गुज़र गया ! वे लाल डिब्बे के दिन थे। 3 x 2 की बड़ी-बड़ी बसें, जिनकी सीटों का फोम अकसर निकाला जा चुका होता था, लकड़ी के बचे हुए पटियों पर बिना काँच की खिड़कियों में सफर करने का मज़ा कुछ और ही था। हॉर्न को छोड़ सब कुछ बजने के मुहावरे पर रोडवेज का ही अधिकार था।

जब किसी मंत्री का, चुनाव में अनियमितता के कारण हाईकोर्ट के निर्णय पर, मंत्री-पद से इस्तीफा ले लिया जाता था, तो उन्हें तुरंत पुरस्कार-स्वरूप किसी बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया जाता था। परिवहन निगम भी ऐसे ही किसी काबिल अध्य्क्ष की भेंट चढ़ जाता था। ।

वह कम तनख्वाह और अधिक काम का ज़माना था। बसों में चालक और परिचालक को छोड़ अन्य के लिए धूम्रपान वर्जित था। ईश्वर आपकी यात्रा सुरक्षित सम्पन्न करे, जेबकतरों से सावधान, और यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करे के अलावा बिना टिकट यात्रा करना अपराध है, जैसी चेतावनियां, यथासंभव शुद्ध हिंदी में, बसों में लिखी, देखीं जा सकती थी।

पुलिस की पसंद खाकी वर्दी, चालक-परिचालक को पोशाक के रूप में प्रदान की जाती थी, जिसे वे शॉल की तरह एक तरह से ओढ़े रहते थे। बस में थूकना मना रहता था, इसलिए लोग खिड़की वाली सीट अधिक पसंद करते थे। ।

कंडक्टर का खाकी लबादा किसी सांता-क्लाज़ के परिवेश से कम नहीं रहता था। सुविधा के लिए लोग इसे खाकी-कोट भी कहते थे। एक कोट की ही तरह इसमें एक जेब सीने से लगी होती थी, तो दो बड़ी जेब नीचे, जिन्हें बीच के खुले बटन कभी आपस में मिलने नहीं देते थे। वह मोबाइल का ज़माना नहीं था। इसलिए बस जहाँ भी खराब होती थी, बस वहीं अंगद के पाँव की तरह पड़ी रहती थी, और यात्री अपनी ग्यारह नम्बर की बस के भरोसे, अर्थात पैदल ही किसी दूसरे विकल्प की तलाश में निकल पड़ते थे।

कंडक्टर के बैग में यात्रियों के लिए टिकट घर की भी व्यवस्था रहती थी। जो यात्री किसी कारणवश टिकट खिड़की से टिकट नहीं खरीद पाते थे, उन्हें त्वरित सेवा के तहत वहीं टिकट प्रदान कर दिया जाता था। एक कार्बन बिछाकर कान में लगी पेंसिल से भीड़ में खड़े-खड़े कोई कंडक्टर ही टिकट काट सकता है। हमारे सरकारी बाबू तो कुर्सी मेज पर पंखे-कूलर में बैठकर भी कभी कलम खोलने की तकलीफ नहीं करते। कंडक्टर, तुम्हें सलाम। ।

ऐसा नहीं कि कंडक्टर को फुर्सत नहीं मिलती थी। फुर्सत के क्षणों में वह एक शीट भरा करता था, जिसमें सवारियों का ब्यौरा होता था। कोई भी फ्लाइंग स्क्वाड कहीं भी, कभी भी, किसी आतंकवादी की तरह, बस को रोक सकती थी। सवारियों को पहले गिना जाता था। फिर कंडक्टर को दूर झाड़ की आड़ में खड़ी जीप के पास ले जाया जाता था और कुछ ले-देकर बस की रवानगी डाल दी जाती थी।

पुलिस के थानों की तरह ही, बस के रूट भी कंडक्टरों के ऊपरी कमाई के साधन थे। जिन रूटों पर अधिक कमाई होती थी, वहाँ कर्मचारी छुट्टी भी कम ही लेते थे। बिना मेहनत-मजदूरी के भी कहीं पापी पेट, और परिवार का हिंदुस्तान में पालन-पोषण हुआ है। यात्रियों से दिन-रात की मगजमारी, यात्रा के सभी जोखिमों से जूझना कंडक्टर के लिए किसी यातना से कम नहीं होता। आप क्या समझोगे, केवल ऑनलाइन टिकट बुक कराकर, चार्टर्ड ए.सी. बसों में यात्रा करने वाले यात्रियों ..!। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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