मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ भगवंत सगळे बघत असतो… ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

📖 वाचताना वेचलेले 📖

☆ भगवंत सगळे बघत असतो… ☆ प्रस्तुती – श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे ☆

महेशचं घर एका देवळासमोर होतं. पहाटेच लोक मंदिरात यायला लागायचे. एक दिवस महेश उठून पाहतो तर काय, रस्त्यावर असलेल्या त्याच्या गाडीला मागून कोणीतरी धडक दिलेली होती.

चडफडत महेश गाडीजवळ गेला, किती नुकसान झालंय ते बघायला.  तर काचेवर एक चिठ्ठी अडकवलेली होती. त्या चिठ्ठीवर एक नाव आणि फोन नंबर लिहिलेला होता, आणि फोन करण्यास सांगितले होते.

त्याने त्या नंबरवर फोन लावला. 

पलीकडचा माणूस म्हणाला, ‘‘ मी वाटच पाहत होतो तुमच्या फोनची. तुमच्या गाडीला धडक देणारा मीच. 

मी काकड आरती करून बाहेर आलो. चुकीचा गियर पडल्यामुळे गाडी मागे जायच्याऐवजी पुढे गेली आणि तुमच्या गाडीवर आदळली. पहाटे तुम्हाला त्रास द्यायला नको म्हणून चिठ्ठी ठेवली. मी तुमचं सगळं नुकसान भरून देतो.’’

त्याने सगळं नुकसान भरूनही दिलं, आणि तो माफीही मागत होता. 

महेशला काही राहवेना. त्याने विचारलं, ‘‘ तुम्हाला धडक देताना कोणीही पाहिलं नव्हतं. आपणहून कबूल कसं काय केलंत? हे सगळं टाळू शकला असतात.”

यावर तो माणूस म्हणाला…

“कोणी बघत नव्हतं कसं? भगवंत सगळं बघत असतो आणि रोज पहाटे दर्शन घेऊन माझ्या अंगात एवढाही प्रामाणिकपणा नसेल तर— तर माझ्यासारख्या माणसाला मंदिरात जाण्याचा काय अधिकार? “ 

संग्राहक : श्री शामसुंदर महादेवराव धोपटे

चंद्रपूर,  मो. 9822363911

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ ‘अल्याड-पल्याड’ —अलक संग्रह… म.ना.दे ( होरापंडीत मयुरेश देशपांडे) ☆ परिचय – परिचयकर्ता — प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ ☆

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ ‘अल्याड-पल्याड’ —अलक संग्रह… म.ना.दे ( होरापंडीत मयुरेश देशपांडे) ☆ परिचय – परिचयकर्ता — प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ ☆

पुस्तकाचे नाव —अलक -संग्रह ” अल्याड- पल्याड ” 

लेखक –- म.ना.दे ( होरापंडीत मयुरेश देशपांडे )

प्रकाशक –-परीस पब्लिकेशन – सासवड , जि. पुणे.

पृष्ठ संख्या– ११२.

मूल्य- रु.८०/-,

मयुरेश देशपांडे यांनी लिहिलेला ‘अल्याड पल्याड’ हा अलक कथासंग्रह आज वाचून संपवला. एका बैठकीत नाही. कारण त्यातील प्रत्येक कथा आकाराने लहान असली तरी मानवी जीवनातील काही विदारक तर काही सुखांत सत्त्ये  पानोपानी आढळून येतात. म्हणून बारकाईने सगळ्या अलक वाचल्यावर माझी मतं लिहितो.

‘ आजकाल वाचन कमी होत आहे,वाचनसंस्कृती वाढायला पाहिजे,वाचणं हीच माणसाची खरी ओळख आहे…’ वगैरे वगैरे कितीही म्हटलं तरी एक सत्य आहे -आज माणसांना मिळणारा फावला वेळ कमी असतो, त्यातही आपले प्राधान्यक्रम हेही या तक्रारीमागचं एक मोठं कारण आहे. मला आठवतं, पूर्वी गावात वर्तमानपत्रं फक्त ग्रामपंचायतीत येत. तेही सायंकाळी ती वाचणं हा माझा रोजचा काही तासांचा दैनंदिन उपक्रम असायचा. क्वचित मिळणारी नियतकालिकंही पुरवून पुरवून म्हणजे एकच मजकूर मी अनेकदा वाचून काढी. पुस्तकातल्या कविताच नव्हे तर  काहो धडेही  माझे पाठ होते. आज हे थांबलं ही शोकांतिका असली तरी खरं आहे. आज भेट मिळालेलीच काय अगदी विकत घेतलेली पुस्तकं, अगदी नामवंत लेखकांचीही असली तरी आपण पूर्ण वाचत नाही. समाजमाध्यमं इतकं साहित्य उपलब्ध करून देतात की, काय वाचू आणि कधी हेच ठरवता येत नाही. या पार्श्वभूमीवर  ‘अल्याड पल्याड’  हे पुस्तक अपवाद ठरते. यातील पहिलीच अलक लेखकाने भारतीय समाजात  वंचितांच्या शिक्षणाची मुहूर्तमेढ रोवणा-या ज्ञानज्योती सावित्रीबाई फुले  यांच्याविषयी लिहून औचित्य साधले आहे. सगळ्याच अलक कथा या  अर्थपूर्ण आहेत. अनेक लेखक मराठीच्या आत्यंतिक प्रेमापोटी अनाकलनीय मराठी शब्दांचा प्रयोग करून लिखाण हे बोजड करतात. इथे लेखकाने ते जाणीवपूर्वक टाळले आहे. लेटमार्क,बेस कॅम्प असे शब्द हे दर्शवतात. अनेक अलकमधून  स्थानिक बोलीभाषेची योग्य रचनाही दिसते. समाजातील विदारक सत्ये दाखवताना अनेक विसंगत बाबीही परिणामकारकपणे मांडल्या आहेत.  ‘ वडापाव ‘ या आशयाच्या कथेतून स्त्री सक्षमीकरण, पत्नीची कुटुंबातील महत्त्वाची भूमिका जाणवते. वैद्यकीय उपचारांसाठी घरातल्या बायकोच्या राहिलेल्या मंगळसूत्राकडे पहाणा-या नवऱ्याची अगतिकता प्रभावीपणे एका अलकमधून  उलगडते. भंगार गोळा करणारी स्त्रीही आपले सौंदर्य फुटक्या आरशात पहाते, ही अलक आपल्या समाजातील आजचे एक सत्त्य सांगते. मात्र केवळ दु:ख उगाळत बसणारा हा लेखक नाही, तर ‘ दु:ख उधळण्यास आता आसवांना वेळ नाही ‘ हा बाबा आमटे यांचा  आशावादही इथे ठायीठायी दिसून येतो. सर्वांनी आवर्जून वाचावे असे हे पुस्तक आहे. 

माणूस हा श्रेष्ठ आहे याच भूमिकेतून लिहीत असलेले साहित्यिक मयुरेश देशपांडे यांच्या साहित्यप्रवासाला मनापासून शुभेच्छा.

परिचय – प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ.

मो ९९७५४३५१५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #157 ☆परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 157 ☆

परिस्थितियाँ व पुरुषार्थ ☆

‘पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है; जप से पाप दूर होता है; मौन से कलह की उत्पत्ति नहीं होती और सजगता से भय नहीं होता’ चाणक्य की इस उक्ति में जीवन-दर्शन निहित है। मौन व सजगता जीवन की अनमोल निधियां हैं। मौन से कलह का दूर का भी नाता नहीं है, क्योंकि मौन को नवनिधि की संज्ञा से अभीहित किया जाता है। मौन रहना सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ है, जिससे बड़ी से बड़ी समस्या का स्वत: समाधान हो जाता है,  क्योंकि जब एक व्यक्ति क्रोधवश अपना आपा खो बैठता है और दूसरा उसका उत्तर अर्थात् प्रतिक्रिया नहीं देता, तो वह भी शांत हो जाता है और कुछ समय पश्चात् उसका कारग़र उपाय अवश्य प्राप्त हो जाता है।

सजगता से भय नहीं होता से तात्पर्य है कि जो व्यक्ति सजग व सचेत होता है, उसे आगामी आपदा व बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता। दूसरे शब्दों में वह हर कदम फूंक-फूंक कर रखता है, क्योंकि वह व्यर्थ में कोई भी खतरा मोल लेना नहीं चाहता। वह भविष्य के प्रति सजग रहते हुए वर्तमान के सभी कार्य व योजनाओं को अंजाम देता है। सो! मानव को भावावेश में कोई भी निर्णय नहीं लेना चाहिए, बल्कि हर स्थिति में विवेक से निर्णय लेना चाहिए अर्थात् किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले मानव को उसके सभी पहलुओं पर विचार-विमर्श व चिंतन-मनन करने के पश्चात् ही उसे करने का मन बनाना चाहिए। उस स्थिति में उसे भय व शंकाओं का सामना नहीं करना पड़ता। वह निर्भय व नि:शंक होता है तथा उसका तनाव व अवसाद से कोसों दूर का भी नाता नहीं रहता। उसका हृदय सदैव आत्मविश्वास से आप्लावित रहता है तथा वह साहसपूर्वक विषम परिस्थितियों का सामना करने में समर्थ होता है। सो! पुरुषार्थ से दरिद्रता का नाश होता है, क्योंकि जो व्यक्ति साहसी व निर्भीक होता है, उसे अपने परिश्रम पर भरोसा होता है और वह सदैव आत्मविश्वास से लबरेज़ रहता है।

सुखी जीवन जीने के लिए मानव को यह सीख दी गयी है कि ‘अतीत की चिंता मत करो; भविष्य पर विश्वास न करो और वर्तमान के महत्व को स्वीकारते हुए उसे व्यर्थ मत जाने दो।’ दूसरे शब्दों में अतीत अर्थात् जो गुज़र गया, लौटकर नहीं आता। इसलिए उसकी चिंता करना व्यर्थ है। भविष्य अनिश्चित है, जिससे सब अनजान हैं। यह शाश्वत् सत्य है कि संसार में कोई भी प्राणी इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि कल क्या होने वाला है? इसलिए सपनों के महल सजाते रहना मात्र आत्म-प्रवंचना है। परंतु मूर्ख मानव सदैव इस ऊहापोह में उलझा रहता है। सो! संशय अथवा उधेड़बुन में उलझे रहना उसके जीवन का दुर्भाग्य है। ऐसा व्यक्ति अतीत या भविष्य के ताने-बाने में उलझा रहता है और अपने वर्तमान पर प्रश्नचिह्न लगा देता है। सो! वह संशय अनिश्चय अथवा किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति से मुक्ति नहीं प्राप्त सकता। वह सदैव अधर में लटका रहता है और उसका कोई कार्य समय पर संपन्न नहीं होता। वह भाग्यवादी होने के कारण दरिद्रता के चंगुल में फंसा रहता है और सफलता से उसका दूर का संबंध भी नहीं रहता।

कबीरदास जी का यह दोहा ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब/ पल में प्रलय होएगी, मूर्ख करेगा कब’  वर्तमान की महत्ता को दर्शाता है और वे मानव को सचेत करते हुए कहते हैं कि कल कभी आता नहीं। इसलिए मानव को वर्तमान में सब कार्यों को संपन्न कर लेना चाहिए और आगामी कल के भरोसे पर कोई भी काम नहीं छोड़ना चाहिए। यह सफलता प्राप्ति के मार्ग में प्रमुख अवरोध है। दूसरी ओर समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कभी कुछ भी प्राप्त नहीं होता। ‘माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय’ द्वारा भी यह संदेश प्रेषित है कि समय आने पर ही सब कार्य संपन्न होते हैं।

‘सुमिरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा’ स्वरचित गीत की ये पंक्तियाँ मानव को प्रभु का नाम स्मरण करने को प्रेरित करती हैं, क्योंकि यह मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। इंसान संसार में खाली हाथ आता है और उसे खाली हाथ ही जाना है। परंतु जप व नाम-स्मरण से पापों का नाश होता है। वह मृत्यु के उपरांत भी मानव के साथ जाता है और जन्म-जन्मांतर तक उसका साथ निभाता है। ‘यह दुनिया है दो दिन का मेला/ हर शख्स यहां है अकेला/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जाएगा’ स्वरचित गीत की पंक्तियों से तात्पर्य है कि जो व्यक्ति स्व में केंद्रित व आत्म-मुग्धावस्था में जीना सीख जाता है; उसे ज़माने भर की अलौकिक खुशियाँ प्राप्त हो जाती हैं।

मानव जीवन क्षणभंगुर है और संसार मिथ्या है। परंतु वह माया के कारण सत्य भासता है। सब रिश्ते-नाते झूठे हैं और एक प्रभु का नाम ही सच्चा है, जिसे पाने के लिए मानव को पंच विकारों काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार से मुक्ति पाना आवश्यक है, क्योंकि वही मानव को लख चौरासी से मुक्त कराता है। परंतु यह मानव की नियति है कि वह दु:ख में तो प्रभु का नाम स्मरण करता है, परंतु सुख में उसे भुला देता है। इसीलिए कबीरदास जी सुख में उस अलौकिक सत्ता को स्मरण करने का संदेश देते हैं, ताकि दु:ख उसके जीवन में पदार्पण करने का साहस ही न जुटा सके।

सुख, स्नेह, प्रेम, सौहार्द त्याग में निहित है अर्थात् जिन लोगों में उपरोक्त दैवीय गुण संचित होते हैं, उन्हें सुखों की प्राप्ति होती है और शेष उनसे वंचित रह जाते हैं। रहीम जी प्रेम की महत्ता बखान करते हुए कहते हैं ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै ते गांठ परि जाए।’ मानव को प्रत्येक कार्य नि:स्वार्थ भाव से करना चाहिए और गीता में भी निष्काम कर्म का संदेश प्रषित है, क्योंकि मानव को कर्म करने का अधिकार है; फल की इच्छा करने का नहीं है। जो संसार में जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए मानव को सत्कर्म व सत्संग करना चाहिए, क्योंकि यही मानव की कुंजी है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट जाना है। इसलिए मानव को माया-मोह व राग-द्वेष के बंधनों का त्याग कर प्रभु से लौ लगानी चाहिए।

जीवन संघर्ष का पर्याय है। जो व्यक्ति पुरुषार्थी व परिश्रमी है; जीवन में सदैव सफलता प्राप्त करता है और वह कभी भी दरिद्र नहीं हो सकता। जो मौन साधना करता है; विवादों से दूर रहता है, क्योंकि संवाद संबंधों में स्थायित्व प्रदान करते हैं। संवाद संवेदनशीलता का प्रतीक हैं, परंतु उनमें सजगता की अहम् भूमिका है। रिश्तों में माधुर्य व विश्वास होना आवश्यक है। सो! हमें रिश्तों की अहमियत को स्वीकारना चाहिए। परंतु जब रिश्तों में कटुता आ जाती है, तो वे नासूर बन सालने लगते हैं। इससे हमारा सुक़ून सदा के लिए नष्ट हो जाता है। इसलिए हमें दूरदर्शी होना चाहिए और हर कार्य को सोच-समझकर अंजाम देना चाहिए। लीक पर चलने का कोई औचित्य नहीं है और अपनी राह का निर्माण स्वयं करना श्रेयस्कर है। इतना ही नहीं, हमें तीसरे विकल्प की ओर भी ध्यान देना चाहिए और निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। स्वामी रामतीर्थ के अनुसार प्रत्येक कार्य को हिम्मत व शांति से करो, यही सफलता का साधन है अर्थात् मानव को शांत मन से निर्णय लेना चाहिए तथा साहस व धैर्यपूर्वक प्रत्येक कार्य को संपन्न करना चाहिए। जो व्यक्ति सजगता व तल्लीनता से कार्य करता है और प्रभु नाम का स्मरण करता है– उसके सभी कार्य संपन्न होते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।  आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक लघुकथा ‘हमें वधू चाहिए ’। )

☆ लघुकथा – हमें वधू चाहिए डॉ. कुंवर प्रेमिल 

अखबार में वर वधू  स्तम्भ के अंतर्गत विज्ञप्ति छपी थी।

लिखा था – हमें ऐसी वधू चाहिए जो कार लेकर आए। साथ में नकद भी लाए। अपना एवं अपने पति का खर्च स्वयं चलाए ।

दूसरी विज्ञप्ति – वधूपूरी तरह विश्वसनीय होनी चाहिए।  सास ससुर की देखभाल करें एवं अलग रहने का सपना ना संजोए।

तीसरी विज्ञप्ति – सुंदर सुडौल । मन की साफ हो। पति से चुगली न करे और घर के काम काज में बराबरी से हाथ बटाए।

चौथी विज्ञप्ति – पड़ोसयों से बतियाने की सख्त मुमानियत रहेगी।

– ननद का सम्मान करना जानती हो तथा बार-बार मायके जाने की धमकियाँ न  देती हो।

पाँचवी विज्ञप्ति – हमें विदेश में जॉब करने वाली वधू स्वीकार्य होगी।

अब कोई उनसे जाकर पुछे, क्या ऐसी वधू मिली या उनके लड़के अभी तक कुँवारे ही घूम रहे हैं।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – अक्षय ??

मैं पहचानता हूँ

तुम्हारी पदचाप,

जानता हूँ

तुम्हारा अहंकार,

झपटने, गड़पने

का तुम्हारा स्वभाव भी,

बस याद दिला दूँ,

जितनी बार गड़पा तुमने,

नया जीवन लेकर लौटा हूँ मैं,

तुम्हें चिरंजीव होना मुबारक

पर मेरा अक्षय होना

नहीं ठुकरा सकते तुम..!

© संजय भारद्वाज

12.11 बजे, 22.10.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #157 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से \प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 157 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

कलकल बहती जा रही, पीर सहे चुपचाप।

नदी सुनाती है हमें, गाथा अपनी आप।।

 

पथरीले राह चलती, है हमको अहसास।

सभ्यता की हूं जननी, पढ़ लो तुम इतिहास।।

 

पर्वतों से निकल रही, गंग जमुन की धार।

निर्मल नदिया बह रही, मिलती सागर पार।।

 

घाट -घाट ढूंढ रही, कहां छुपे घन श्याम।

यमुना मिलने जा रही, वो मोहन के धाम।।

 

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #143 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “सन्तोष के नीति दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 143 ☆

 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

पूँजीवादी दौर में, दिखतीं दो ही जात

अमीर-गरीब इसी की, सामाजिक सौगात

 

जीवन के किस मोड़ पर, हो जीवन का अंत

इसे न कोई जानता, कहें श्रेष्ठजन, संत

 

चलती दुनिया देखकर, चलो समय के साथ

चूक करे जो भी जरा, पकड़े खुद फिर माथ

 

बोलने के पूर्व करें, चिंतन मनन विचार

पछताना न पड़े कभी, हो ऐसा व्यवहार

 

जाति-पाँति अरु धर्म में, बाँटा सकल समाज

नफरत चढ़ कर बोलती, प्रेम मौन है आज

 

भोजन संयत कीजिये, और करें नित योग

होगा तन-मन स्वस्थ तब, दूर भगेंगे रोग

 

मात-पिता की बात को, कभी न टालें आप

इनके प्रति अनुराग से, मिटें जगत के ताप

 

कथनी करनी में नहीं, रखें कभी भी भेद

दृढ़ता रखें विचार में, हो न बाद में खेद

 

स्वार्थ भरे इस दौर में, झूठ पसारे पाँव

रिश्ते भी अब रिस रहे, सत्य खोजता ठाँव

 

कलियुग में “संतोष” अब, मतलब के सब यार

झूठी लगती दोस्ती, झूठा लगता प्यार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जरा अलगद… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जरा अलगद 🪔 डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

जरा अलगद उचला

या विझलेल्या पणत्यांना

काल अंधाऱ्या रात्री ज्यांनी

प्रकाश दिलाय आपल्याला

खूप सोसलं असेल यांनी..

कधी हळूवार तर कधी

सोसाट्याचा वारा..!

 

झेलली असतील अनेक वादळं

अंधारलेला पावसाळा !

 

कोणालातरी वा काहीतरी जाळून

आनंद नाही त्यांनी निर्माण केला

स्वतः जळून, पेटत राहून

उजेड दिलाय आपल्याला

जरा हळूच उचला

या विझलेल्या पणत्यांना..!

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #149 ☆ देव देव्हार्‍यात नाही …! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 149 – विजय साहित्य ?

☆ देव देव्हार्‍यात नाही …! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

पैशामधे मोजमाप

देव देव्हार्‍यात नाही

शोधूनीया पाही

जगतात . . . !

 

सेवाभाव जाणायला

हवे नात्यांचे गोकुळ

विसंवादी मूळ

देखाव्यात. . . !

 

देवरुप जाणायला

नररूप आधी जाण

देव्हार्‍याची खाण

सापडेल. . . !

 

अशा देव्हार्‍यात

देव राही जागा

ह्रदयाचा धागा

विचारात.

 

देवरूप शोधायला

मायबाप आधी जाणा

कैवल्याचा राणा

अंतरात. . . . !

 

गरजेस बघा

येतो धावून माणूस

नसे मागमूस

उपकारी.. . . !

 

अशा देवासाठी

मनी हवी भूक

देव्हार्‍याचे सुख

कश्यासाठी. . . . !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ गूढ असं बरंच कांही… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ गूढ असं बरंच कांही… ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

स्वप्न म्हंटलं किं ‘मुंगेरीलालके हसीन सपने’ आठवणं सहाजिकच आहे.पण ‘स्वप्न’ म्हणजे फक्त तेवढंच नव्हे.मुंगेरीलालसारखे दिवास्वप्ने पहाणारे जसे आहेत तसेच आयुष्यातलं नेमकं उद्दीष्ट ठरवून त्यादिशेने प्रदीर्घकाळ अथक, प्रयत्न न् कष्ट करीत ध्येय प्राप्तीनंतरचा स्वप्नपूर्तीचा कधीच न विरणारा आनंद मिळवणारे आणि जपणारेही आहेतच. दिवास्वप्नं पहात स्वप्नरंजनात मश्गूल रहाणाऱ्यांबाबतची किंव आणि स्वप्नपूर्तीसाठी जीवाचं रान करणाऱ्यांबद्दलचा कौतुकमिश्रित आदर यांना निमित्त होणाऱ्या स्वप्नांच्या या दोन रुपांमधे गूढ असं कांहीच नाहीय.पण प्रत्येकालाच सुप्तावस्थेत दिसणाऱ्या स्वप्नांमधे मात्र कधीच थांग न लागणारं गूढ ठासून भरलेलं आहं.ती स्वप्ने हेच एक गूढ विश्व आहे. जाणवतं, दिसतं.. पण ते जसंच्या तसं इतरांना त्याचवेळी दाखवता मात्र येत नाही. ते खास ज्याचं त्याचंच असतं. त्या क्षणांपुरतं त्याच्यासाठी अगदी खरं..तरीही तो एक भासच.भास-आभासाचा चकवा देत रहाणारा एक खेळ!

‘स्वप्न’ मला एखाद्या भरकटत गेलेल्या नाटक किंवा सिनेमासारखं वाटतं.बघताना त्यात गुंतत जात असलो तरी त्यातून बाहेर पडल्यावर न पटणारं, असंबद्ध, अविश्वसनीय सगळं कृत्रिम,तद्दन काल्पनिक, कशाचा कशाला मेळ नसणारं असं काहीसं वाटत रहाणारं..!

खरंतर स्वप्न एखाद्या नाटक किंवा सिनेमातल्या प्रसंगांच्या विखुरलेल्या तुकड्यांसारखंच तर असतं.आपल्या मन:पटलाच्या रंगभूमीवर दिसणारं नाटक किंवा मन:पटलाच्या पडद्यावर दिसणाऱ्या सिनेमासारखं..!स्वप्न आपण समोर बसून नाटक-सिनेमासारखं पहातही असतो आणि अकल्पितपणे त्याचाच एक भाग बनून स्वतः त्यात भूमिकाही करत असतो. तरीही आपला स्वतःचाच मन:पटलावरचा आपलाच वावर समोर बसून पहावा तसं पाहूही शकत असतो.सगळंच गूढ.. अतर्क्य..!

हे स्वप्न पडणं जसं तसंच त्यांचं विरणंही तितकंच गूढ!त्याचा थांगच लागू नये असं.मला स्वतःला आजपर्यंत पडलेल्या असंख्य स्वप्नांपैकी अगदी मोजकीच स्वप्ने आज आठवतात हे जसे , तसेच इतर न आठवणाऱ्या स्वप्नांचे विरुन जाणेही मला अनाकलनीय वाटतं आलंय हेही खरेच.स्वप्न पहात असताना त्यातले सगळेच घटना-प्रसंग एखाद्या वास्तव क्षणांसारखे अनुभवत असताना त्या क्षणी मनाला झालेल्या त्या स्वप्न-घटनादृश्यांच्या स्पर्शांची जाणिव, त्या स्पर्शांमधला त्या त्या वेळचा दिलासा,आनंद किंवा दुःख, वेदना,थरारही लख्ख जाणवत राहिलेला पुढे बराच वेळ. पण दचकून जाग येताच कुणालातरी ते स्वप्न, तो अनुभव सांगावं असं उत्कटतेने वाटत असतानाच जादूची कांडी फिरावी तसं सगळंच विरून गेलेलं..! हे विरुन जातंच कसं आणि कुठे हे प्रश्नही स्वप्ने कां आणि कशी पडतात या प्रश्नांसारखीच अनुत्तरीत, अनाकलनीयच! या प्रश्नांची उत्तरे शोधण्याचं काम मानसशास्त्रीय संशोधनाद्वारे अखंडपणे सुरु आहेही.पण ‘आपल्या मनातल्या सुप्त इच्छा,भावनांचा कल्लोळ, दडपणं,नैराश्य,अस्वस्थ करणारे त्रासदायक विचार..असं सगळ्याचं आपल्या सुप्तावस्थेत चित्रभाषेत प्रकट होणं म्हणजे स्वप्न’ यासारखे आजवरच्या संशोधनाचे निष्कर्ष मला तरी अनेक शक्यतांपैकी फक्त एक शक्यता आहे असेच वाटते. एखाद्या हिमनगाचे टोक दिसावे तसे न् तेवढेच.स्वप्नाच्या गूढ अर्थांच्या एका सूक्ष्म कणाएवढे!कारण स्वप्नांच्या इतर अतर्क्य, सूचक,प्रेरणादायी,दृष्टांतसदृश स्वप्न-प्रकारांचा थांग या निष्कर्षानंतरही अद्याप कुणालाच लागलेला नाहीय.अगदी तो अनुभव,त्यातली उत्कटता ज्याने स्वतः अनुभवलीय त्यालाही नाही.

या अतर्क्य अशा सूचक स्वप्नांचा मी स्वतःही अनुभव घेतलेला आहे.अतिशय उत्कट आनंदानुभव दिलेले ते क्षण आणि त्यातील बारकाव्यांसकट ते मोजके स्वप्नानुभवही मी इतक्या वर्षांनंतरही विसरु शकत नाहीय..!आणि तरीही त्यामागील गूढ मात्र अथक प्रयत्नांनंतरही मला उकललेलं नाहीय.निदान ते उकलेपर्यंततरी ‘स्वप्न’ म्हणजे अतिशय गूढ असं बरंच कांही.. असंच म्हणावं लागेल.

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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