हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नामकरण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना🌻

आज का साधना मंत्र  – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

(साधको! मार्गशीर्ष साधना आज सम्पन्न हो जाएगी)

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – नामकरण ??

हार्ट अटैक..,

ब्रेन डेड..,

मृत्यु के

नये नाम गढ़ रहे हम,

सोचता हूँ,

संवेदनशून्यता को

मृत्यु कब घोषित करेंगे हम?

© संजय भारद्वाज 

(10:55 सुबह, 30.8.22)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 127 ☆ बहुत जरूरी: मोह माया ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बहुत जरूरी: मोह माया । इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 127 ☆

☆ बहुत जरूरी: मोह माया ☆ 

एक पद का भार तो सम्हाले नहीं सम्हलता  और आप हैं कि सारा भार मेरे ऊपर सौंप कर जा रहे हैं ।

अरे भई आपको मुखिया बनाना है पूरी संस्था का , वैसे भी सबको जोड़ कर रखने में आपको महारत हासिल है । बस इतना समझ लीजिए कि चुपचाप रहते हुए कूटनीति को अपनाइए ।इधर की ईंट उधर करते रहिए लोगों का जमावड़ा न हो पाए ।ज्यादा तामझाम की जरूरत नहीं है कमजोर कड़ी को तोड़कर मानसिक दबाब बनाइए । जब कार्य की अधिकता सामने वाला देखेगा तो घबराकर भाग जाएगा । बस फिर क्या आपका खोटा सिक्का भी चलने लगेगा । भीड़ तंत्र को प्रोत्साहित करिए ,संख्या का महत्व हर काल में रहेगा ।अब संघ परिकल्पना को साकार करते हुए आपको कई संस्थाओं का मुखिया बनना होगा ।

सब कुछ बन जाऊँ पर क्या करूँ मोह माया से बचना चाहता हूँ ।

मोह माया का साथ बहुत जरूरी है क्योंकि बिना माया काया व्यर्थ है । काया मोह लाती ही है ।

कुछ भी करो पर करते रहो ,आखिर मोटिवेशनल स्पीकर यही कहते हैं कि निरंतरता बनी रहनी चाहिए । आजकल तो रील वीडियो का जमाना है जो करना- कराना है इसी माध्यम से हो ताकि डिजिटल इम्प्रेशन भी बढ़े । जब लोग उपलब्धि के बारे में पूछते हैं तो बताने के लिए खास नहीं होता है ,अब तो हर हालत में विजेता का ताज पहनना है भले ही वो मेरे द्वारा प्रायोजित क्यों न हो ।

वाह, आप तो दिनों दिन होशियार होते जा रहें हैं, अब लगता है मुखिया बनकर ही मानेंगे ।

हाँ, अब थोड़ा- थोड़ा समझ में आ रहा है कि कुर्सी बहुत कीमती चीज है इसे पकड़ कर रखना है नहीं तो अनैतिक लोग नैतिकता का दावा ठोककर इसे हथिया लेंगे ।

बहुत खूब ऐसी ही विचारधारा बनाए रखिए ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चलता हुआ आदमी ☆ श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

श्री रामस्वरूप दीक्षित

(वरिष्ठ साहित्यकार  श्री रामस्वरूप दीक्षित जी गद्य, व्यंग्य , कविताओं और लघुकथाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। धर्मयुग,सारिका, हंस ,कथादेश  नवनीत, कादंबिनी, साहित्य अमृत, वसुधा, व्यंग्ययात्रा, अट्टाहास एवं जनसत्ता ,हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा,दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, नईदुनिया,पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका,सहित देश की सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित । कुछ रचनाओं का पंजाबी, बुन्देली, गुजराती और कन्नड़ में अनुवाद। मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन की टीकमगढ़ इकाई के अध्यक्ष। हम समय समय पर आपकी सार्थक रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास करते रहते हैं।

☆ कविता  – चलता हुआ आदमी ☆श्री रामस्वरूप दीक्षित ☆

बिना थके

बिना रुके

लगातार चलता हुआ

एक

निडर , निहत्था आदमी

 

खींच देता है

तानाशाह की नींद की चादर

 

और बिखर जाते हैं

चादर की तहों में लिपटे

खूंखार सपने

 

एक मेमना

खींच देता है

शेर के कान

 

शेर की दहाड़

 तोड़ देती है दम

उसी के गले में

 

जंगल देखने लगा है

आजादी का स्वप्न

 

चलता हुआ आदमी

एक बयान है

ठहरे हुए समय के खिलाफ

 

© रामस्वरूप दीक्षित

सिद्ध बाबा कॉलोनी, टीकमगढ़ 472001  मो. 9981411097

ईमेल –[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 137 ☆ बाल कविता – सूरज जी नारंगी जैसे…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 137 ☆

☆ बाल कविता – सूरज जी नारंगी जैसे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

सूरज जी बच्चे – से बनकर

प्राची में  निकले हैं गोल।

नारंगी – से दिखें एकदम

जाने कितना इनका मोल।।

 

कोहरे की चादर में लिपटे

धीरे – धीरे ऊपर आए।

तुलसी अदरक चाय मिली तब

थोड़ा कोहरे से बच पाए।।

 

ज्यों – ज्यों बढ़ते ऊपर को तब

किरणें स्वर्णिम खूब बिखेरीं

शरद धूप तन उर्जित करती

सबके ही अनुकूल उजेरी।।

 

वर्षा गई उड़न छू गरमी

शरद ऋतु है मुस्काई।

छोटे दिन भी प्रीत लिख रहे

बहती शीतल पुरवाई।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बावरे प्रेम… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बावरे प्रेम… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆ 

मी कलंदर हिंडणारा दशदिशा मज मोकळ्या

प्रीतीच्या पाशात का बंदिस्त मज केलेहस तू

कोण मी कुठला प्रवासी काय माझे प्राक्तन

डोळ्यातून पण बोलक्या संकेत मज केलास तू

 

पापण्या झुकल्या जरा अन उमटली गाली खळी

लाजरा मुखचंद्रमा तव कोरला हृदयात मी

सोडताना हा किनारा पेटतो वणवा उरी

आसवांची शपथ राणी परतुनी येईन मी

 

स्पर्शिले हळुवार तू अन्.. ग्रीष्म सारा लोपला

माध्यान्हीच्या जळत्या उन्हाचे चांदणे केलेस तू

याद ही रोमांचकारी नित्य राहील साथीला

निद्रिस्त तारा अंतरीच्या छेडल्या आहेस तू

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #138 ☆ ज्ञानयोग..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 138 ☆ ज्ञानयोग..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

संतश्रेष्ठ मांदियाळी

नाम  माउलीचे घेऊ

ज्ञानदेव कृष्णरूप

काळजाच्या पार नेऊ…! १

 

संत निवृत्ती सोपान

मुक्ता बहिण धाकली

वंशवेल अध्यात्माची

भावंडात सामावली…! २

 

ग्रंथ भावार्थ दीपिका

तमा अखिल विश्वाची

संत कवी ज्ञानेश्वर

तेज शलाका ज्ञानाची..! ३

 

ग्रंथ अमृतानुभव

विशुद्धसे तत्वज्ञान

जीव ब्रम्ह ऐक्य साधी

माऊलींचे भाषा ज्ञान…! ४

 

मराठीचा अभिमान

कर्म कांड दूर नेली

ज्ञानेश्वरी सालंकृत

मोगऱ्याची शब्द वेली…! ५

 

नऊ सहस्त्र ओव्यांचा

कर्म ज्ञान भक्ती योग

दिला निवृत्ती नाथाने

अनुग्रह ज्ञानयोग…! ६

 

चांगदेव पासष्टीत

ज्ञाना करी उपदेश

पत्र पासष्ठ ओव्यांचे

अहंकार नामशेष…! ७

 

सांप्रदायी प्रवर्तक

योगी तत्वज्ञ माऊली

ग्रंथ अमृतानुभव

गीता साराची साऊली…! ८

 

भागवत धर्म तत्वे

अद्वैताचे तत्वज्ञान

आलें प्राकृत भाषेत

वेदांताचे  दैवी ज्ञान…! ९

 

चंद्रभागे वाळवंटी

अध्यात्मिक लोकशाही

पाया रचिला धर्माचा

सांप्रदायी राजेशाही…! १०

 

माऊलींची तीर्थ यात्रा

हरीपाठ बोधामृत

देणे पसाय दानाचे

अभंगांचे सारामृत…! ११

 

इंद्रायणी तीरावर

संपविला अवतार

संत ज्ञानेश्वर नाम

हरिरुप शब्दाकार…! १२

 

संजिवन समाधीचे

झाले चिरंजीव रूप

घोष माऊली माऊली

पांडुरंग निजरूप…! ,१३

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ शिक्षकी पेशा… अनामिक ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?  विविधा  ?

☆ शिक्षकी पेशा… अनामिक ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

(मूळ इंग्रजीतील पोस्टचा प्रकाश भागवत कृत मराठी अनुवाद- वाचनिय आणि चिंतनशील सुद्धा.)

दीक्षांत समारोहात भाषण करतांना प्रमुख वक्ते जे स्वतः एका शिक्षण संस्थेत प्राचार्य पदावर होते, ते म्हणाले,  डॉक्टर असणाऱ्या बापाला आपल्या मुलांनाही डॉक्टर व्हावं असं वाटतं, इंजिनीयर बापाला आपल्या मुलांनाही आपल्यासारखंच इंजिनियर व्हावं असं वाटतं, उद्योग धंदा करणाऱ्या बापाला आपल्या मुलांना एखाद्या कंपनीचा सीईओ व्हावं असं वाटतं. तसं शिक्षकी पेशा असणाऱ्या बापालाही आपल्या मुलानं यांच्यापैकीच कांहीतरी एक व्हावं असं वाटत असतं पण शिक्षक व्हावं असं कुणालाही स्वतःहून वाटत नाही.

ही परिस्थिती दुर्दैवी आहे परंतु हीच वास्तविकता देखील आहे.

रात्रीभोजच्या प्रसंगी जेवायला आलेले पाहुणे जेवणाच्या टेबल भोवती बसून आपापसात चर्चा करीत होते. त्यापैकी एक व्यक्ती जो एका कंपनीमध्ये सीईओ होता, त्याला शिक्षण क्षेत्राबद्दल फारशी आस्था नव्हती. हे क्षेत्र समाजोपपोगी नसल्याचं त्याचं मत होतं. तो म्हणाला, “ज्यानं केवळ शिक्षक होणं हाच आपल्या जीवनातला सर्वोत्तम पर्याय आहे असं ठरवलं तो मुलांसमोर काय आदर्श ठेवणार बोडख्याचा?*”

आपला मुद्दा पुढे रेटत तो बाजूलाच बसलेल्या एका शिक्षिकेला बोलला, ” दातार ताई, तुम्ही स्वतः एक शिक्षक आहात, अगदी प्रामाणिकपणे सांगा तुम्ही काय असं महत्वाचं कार्य करता तुम्हाला वाटतं?”

दातार ताई आपल्या प्रामाणिकपणाबद्दल आणि फटकळपणाबद्दल प्रसिद्ध होत्या. त्या म्हणाल्या, मी काय काम करते हे तुम्हाला ऐकायचय ना ऐका तर मग?

त्या एक क्षणभर थांबल्या आणि मग त्यांनी बोलायला सुरुवात केली.

आपण जितके परिश्रम करू शकतो असं मुलांना वाटतं त्यापेक्षा अधिक परिश्रम मी मुलांकडून करवून घेते.

शिक्षिका होऊन मला अतिशय मोलाचा पुरस्कार मिळाला आहे असं मला वाटतं.

मुलांचे आई-बाप स्वतःच्याच मुलांना आय पाॅड, गेम क्यूब किंवा टीव्हीवर सिनेमा दाखविल्याशिवाय पाच मिनिटं देखील एका ठिकाणी बसवून ठेवू शकत नाहीत आणि मी या सर्वच मुलांना वर्गामध्ये ४० मिनिट किंवा त्याहीपेक्षा जास्त वेळ बसवून ठेवू शकते.

मी काय करते हे तुम्हाला जाणून घ्यायचं आहे ना? एक दीर्घ श्वास घेत त्या टेबलभोवती जमलेल्या सर्व पाहुण्यांकडे बघत म्हणाल्या –

मी मुलांचं शैक्षणिक मनोरंजन करते.

मी त्यांना प्रश्न विचारायला लावते.

मी त्यांना माफी मागायला शिकवते आणि माफी का मागायची त्याचं कारणही त्यांना सांगते. संस्कार, संस्कृती, सदाचार आणि नैतिकता शिकवून त्याप्रमाणे वागायला सांगते.

मी त्यांना इतरांबद्दल आदर बाळगायला शिकवते आणि त्यांनी केलेल्या कृत्याबद्दल जबाबदारी घ्यायलाही शिकवते.

मी त्यांना सुंदर हस्ताक्षरात लिहायचं कसं हे शिकवते आणि त्यांच्याकडून लिहूनही घेते.

केवळ अभ्यास करवून घेणं हेच काही सर्वस्व नाही, मी त्यांना सतत (पुस्तकं) वाचायला लावते.

मी त्यांच्याकडून प्रत्यक्ष आकडेमोड करवून घेते. मुलांनी, देवानं दिलेल्या त्यांच्या बुद्धिचा वापर करायला हवा माणसानं बनविलेल्या कॅल्क्युलेटरचा नव्हे.

इतर देशातल्या माझ्या विद्यार्थ्यांना, त्यांची वैशिष्ट्यपूर्ण सांस्कृतिक ओळख अबाधित राखील, भारताबद्दल त्यांना जे काही जाणून घ्यावयाचे आहे त्याचा अभ्यास त्यांना करायला लावते.

माझ्या सर्व विद्यार्थ्यांना  सुरक्षित वाटेल असा माझा वर्ग असावा हा माझा प्रयत्न असतो.

आणि शेवटचं हे की मी त्यांना हे समजावून सांगते की तुम्हाला देवाकडून जी कांही देणगी मिळाली आहे तिचा जर तुम्ही उपयोग करून घेतलात, खूप परिश्रम केलेत, आणि आपल्या मनाचं ऐकून वागलात तर जीवनात तुम्ही यशस्वी होऊ शकाल.

श्रीमती दातार पुन्हा काही क्षण थांबून म्हणाल्या, पैसा हेच काही सर्वस्व नाही असं मानणार्‍या मला, जेव्हा लोक मी काय काम करते यावरून माझी समाजातली पत ठरवतात तेव्हा मी माझं डोकं वर करून जगात वावरते आणि अशा लोकांकडे मी ढुंकूनही पाहात नाही कारण ते निर्बुद्ध, अशिक्षित, अज्ञानी, तर्कशुन्य आणि तत्वहीन असतात. मी काय करत असते ते तुम्हाला जाणून घ्यायचंय?

मुलांना शिक्षण देऊन मी त्यांना त्यांनी डॉक्टर, इंजिनियर किंवा सीईओ होण्यासाठी तयार करते. तुम्ही काय करता मिस्टर सीईओ फक्त पैसा मिळवता?

तुम्ही डॉक्टर, इंजिनिअर, सीईओ किंवा यशस्वी उद्योजक होतात पण भावी पिढीला तेच बनण्यासाठी त्यांचा प्राथमिक स्तर किंवा पाया उभारु शकत नाहीत.

आता त्या सीईओ चं ‘थोबाड’ पाहण्यासारखं झालं होतं. तो गप्प बसला. क्षणभरच तिथे शांतता पसरली आणि त्यानंतर प्रत्येक जण आदरानं उभा राहून टाळ्या वाजवू लागला.

अनुवादक: प्रकाश भागवत

प्रस्तुती: सौ.उज्वला केळकर

मो. 9403310170 email-id – [email protected]  

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पाटीवर मांडलेली नाती – भाग 1 (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ?

☆ पाटीवर मांडलेली नाती – भाग 1 (भावानुवाद) – भगवान वैद्य `प्रखर’ ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे  

‘‘ वहिनी, ऑपरेशनचा निर्णय असा अचानक का बदलला गेला, हे जाणून घेण्यासाठी मी फार अधीर झालो आहे. सगळंच तर ठरलं होतं… अपोलो हॉस्पिटलने तारीखही दिली होती, आणि आज रेल्वेचं रिझर्वेशनसुद्धा करायचं होतं… मग अचानक असं झालं तरी काय?”

“ हे सगळं तुम्ही तुमच्या भावालाच विचारा… तेच तुम्हाला सगळं सांगतील. तुम्ही बसा. मी आत गॅसवर दूध ठेवलंय्…” आणि एवढं बोलून वहिनी, म्हणजे सौ.आगरकर आत निघून गेल्या.

मी फार अस्वस्थ झालो होतो… वैतागलो होतो. सकाळी मस्त चहा पीत बसलो होतो, तेवढ्यात फोन आला होता…

‘‘रवी, मी अप्पा बोलतोय्.”

‘‘ बोला अप्पासाहेब.”

‘‘ तू अजून रिझर्वेशन केलं नाहीयेस ना?”

‘‘ नाही. पण आता अंघोळ करून, पंधरा मिनिटातच निघणार आहे स्टेशनवर जाण्यासाठी.”

‘‘आज नको जाऊ मग.”

‘‘ का?”

‘‘ काही नाही रे. जरा विचार करतो आहे, की ऑपरेशन नाही केलं तरी चालण्यासारखं आहे. अजून दोन-चार वर्षं ढकलली गेली तरी पुरे. वर्षं काय… दोन…चार महिने गेले तरी पुरे. तसंही आता पुढचं आयुष्य म्हणजे बोनस मिळाल्यासारखंच आहे ना !”

‘‘ अप्पा, हे असं काय काहीतरी बोलताय् तुम्ही? मी आधी रिझर्वेशन करून टाकतो, आणि तिथून तसाच थेट तुमच्या घरी येतो. वाटलं तर नंतर रद्द करता येईल.”

‘‘ नाही रवी, आता ऑपरेशन वगैरे काही करून घ्यायचं नाही, असा निर्णय घेतलाय् मी…” असं म्हणून त्यांनी फोन कट केला. मी पुन्हा त्यांना फोन लावला. पण फोन उचललाच गेला नाही. माझ्या उत्सुकतेची जागा आता अस्वस्थपणाने घेतली होती.

दोन मुलं, दोन सुना, एक नातू, अप्पासाहेब, त्यांची बायको, आणि अन्वर… इतकी सगळी माणसं रहातात या घरात. पण इथे हे सगळं घर किती सुनंसुनं वाटतयं.. तेही इतक्या सकाळी-सकाळी. जशी काही रात्रभर वादळाशी झुंज देत होतं हे घर… इथे रहाणारे सगळे… हॉलमध्ये टांगलेल्या घड्याळाची टिकटिक तेवढी ऐकू येते आहे… अरेच्चा, हे घड्याळ तर अगदी तस्संच आहे… डॉ.अख्तर यांच्या हॉस्पिटलमध्ये पाहिलं होतं तसं. आणि त्यादिवशी अप्पासाहेबांना नेमक्या त्याच हॉस्पिटलमध्ये तर घेऊन गेलो होतो आम्ही… काय करावं हे तर थोडावेळ सुचलंच नव्हतं आम्हाला. फार तर सकाळचे सात वाजले असावेत तेव्हा… मालटेकडीवरून उतरून, स्टेशनच्या रस्त्याने आम्ही घरीच परतत होतो. सकाळी फिरायला जातानाचा आमच्या सगळ्यांचा हा ठरलेला रस्ता आहे. रेल्वेचा पूल क्रॉस करून राजकमल चौकात यायचं, आणि तिथे एकेक कप चहा प्यायचा, हेही ठरलेलंच होतं. चहाचे पैसे कुणी द्यायचे, यावरून आम्ही एकमेकांना कंजुष ठरवून टाकायचो. मग सगळ्यांनी मिळून पैसे द्यायचे असं ठरवलं जायचं. असा मजेत, गप्पा मारत वेळ घालवत असतांना, कुणीतरी स्वत:ला आवडणारं वर्तमानपत्र विकत घ्यायचा. आणि मग तिथून आम्ही आपापल्या घरची वाट धरायचो… पण एक दिवस, याच सगळ्या गोष्टी सुरू असतांना अचानक लक्षात आलं की अप्पासाहेब मागेच राहिले होते.

माझी आणि अप्पासाहेबांची ओळख खूप जुनी आहे. पण सकाळी फिरायला जाण्याच्या आमच्या या ग्रुपमध्ये ते गेल्या वर्षीपासूनच यायला लागले आहेत. पण या वर्षभरात, मालटेकडी चढतांना ते मागे पडलेत, किंवा रस्त्यावरून चालतांना ते मागे राहिलेत, असं कधीच झालेलं नव्हतं. त्रेसष्ठ वर्षांच्या अप्पासाहेबांना आम्ही कधी कधी चेष्टेच्या सुरात म्हणायचो सुद्धा, की, ‘‘अप्पासाहेब, ‘रजिस्ट्रार ऑफ को.ऑप.सोसायटीज्’ या पदावरून तुम्ही निवृत्त झाल्यापासून, तुमचं वय वाढण्याऐवजी दिवसेंदिवस कमीच व्हायला लागलंय् असं वाटतंय्”… पण त्या दिवशी मात्र छातीत प्रचंड दुखायला लागल्यामुळे कळवळणा-या अप्पासाहेबांना पाहून, आमच्या या ग्रुपमधल्या आम्हा सहाही जणांना अक्षरश: घाम फुटला होता…

‘‘नमस्कार  साहेब. वहिनीसाहेबांनी तुमच्यासाठी चहा पाठवलाय्. साहेब पूजा करून यायलाच लागलेत.”

‘‘अरे अन्वर, इतका वेळ कुठे होतास तू? दिसला नाहीस.”

‘‘ मी मागच्या बाजूच्या कुंड्यांना पाणी घालत होतो.”

‘‘ आणि इतर कुणी दिसत नाहीयेत्. अंकितही नाही दिसला.”

‘‘ हो अंकितबाबा शाळेत गेलाय्. सूरजदादा सकाळीच कॉलेजला गेलेत. जातांना वहिनीसाहेबांना सांगितलं त्यांनी की त्यांचे एक ज्येष्ठ सहकारी रजेवर आहेत, त्यामुळे त्यांचे तासही दादांनाच घ्यावे लागत आहेत. मोठ्या वहिनीपण विदर्भ महाविद्यालयात पार्ट-टाईम काम करतात, त्यांची जायची वेळ होत आली आहे, म्हणून त्या आवरताहेत.”

‘‘आणि दीपकदादा? ”

‘‘ ते धाकट्या वहिनींना स्टेशनवर पोहोचवायला गेले होते ना पहाटेच. मग आता आल्यावर झोपलेत. ते उशिरानेच जातात फॅक्टरीत.”

… अन्वरने घरातल्या सगळ्या माणसांची अगदी पूर्ण माहिती दिली खरी मला, पण का कोण जाणे, मला असं वाटत होतं, की त्याने खूप काही लपवलंही होतं माझ्यापासून. घरातल्या मोजक्या सगळ्या व्यक्तींबद्दल आत्ता मला माहिती देणारा अन्वर, हा तो अन्वर नाहीये, जो डॉ.अख्तर यांच्या हॉस्पिटलमध्ये वीस दिवस अप्पासाहेबांची चोवीस तास सेवाशुश्रुषा करत होता. ते वीस दिवस अनेक जणांना अन्वर एकच एक प्रश्न वारंवार विचारत होता… ‘‘अप्पासाहेब पूर्ण बरे होतील ना साहेब?” अप्पासाहेब आणि अन्वर, दोघे एकाच ऑफिसमध्ये होते. आणि एकाच दिवशी निवृत्त झाले होते, हा जरी एक निव्वळ योगायोग असला, तरी दोघांनीही एकमेकांची साथ सोडली नव्हती. निवृत्त झाल्याच्या लगेच दुस-या दिवशी, अप्पासाहेबांचा हा ऑफिसमधला चपराशी, त्यांचा मदतनीस म्हणून, सकाळपासून रात्री उशिरापर्यंत आता त्यांच्या घरी ड्यूटी करायला लागला होता…

‘‘अच्छा, तू आला आहेस तर… तुला रहावलं नाही ना? मी ऑपरेशनचा विचार का सोडून दिला, याच्यावर भांडणार आहेस का आता माझ्याशी? ”

‘‘नाही अप्पासाहेब. अहो वयाने तुमच्यापेक्षा लहान आहे मी… तुमच्याशी कसला भांडणार? पण एक गोष्ट माझ्या लक्षात येत नाहीये… डॉक्टरांनी जर अगदी स्पष्ट सांगितलंय् की ‘ बायपास करणं अत्यावश्यक आहे, आणि तेही जितक्या लवकर शक्य असेल, तितक्या लवकर…’ मग तुम्ही…”

‘‘ हे बघ रवी. मी डॉक्टरांना त्यांचा सल्ला विचारला होता. म्हणून त्यांनी तो दिला. कोणत्याही गोष्टीवर सल्ला द्यायचा असेल तर सरकार सल्लागार-समिती स्थापन करते. पण त्या समितीचा सल्ला ऐकणं हे सरकारसाठी अनिवार्य तर नसतं ना?”

‘‘आप्पासाहेब, पण आत्ता आपण सरकारी कामाबद्दल बोलत नाही आहोत. तुम्ही चेष्टा करणं बंद करा आणि मुद्द्यावर या.”

‘‘ तू वैतागशील हे मला माहितीच होतं. चल बाहेर अंगणात जाऊन बसू… हो… अगदी हळूहळू चालत येतो मी. तिथेच बसून बोलू या. खूप दिवस झाले, तुझ्याबरोबर पायी चालणं झालंच नाहीये माझं…”

अंगणात एक जरासं छोटेखानी आंब्याचं झाड होतं. अप्पासाहेबांनी अगदी हौसेने त्याला लागून पार बांधला होता. आम्ही हळूहळू चालत त्या पारावर जाऊन बसलो.

— क्रमशः भाग पहिला 

मूळ हिंदी  कथा – ‘स्लेटपर उतरते रिश्ते’ –  कथाकार – भगवान वैद्य `प्रखर’

अनुवाद – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ झंडू बाम… ☆ संग्रहिका – सुश्री आनंदी केळकर

? इंद्रधनुष्य ? 

झंडू बाम… ☆ संग्रहिका – सुश्री आनंदी केळकर ☆

जावईबापूंच्या डोक्याचा ताप कमी करण्यासाठी भटजींनी झंडू बाम बनवला…..!!!!

१५० वर्षांपूर्वीची गोष्ट…… 

तो इंग्रजी राज्यसत्तेचा काळ होता. गुजरातच्या काठियावाड प्रांतात जामनगर संस्थानमध्ये राजवैद्य होते विठ्ठल भट. आयुर्वेदाचे ते मोठे अभ्यासक होते. त्यांचा हातगुण चांगला होता. त्यांची प्रसिद्धी पंचक्रोशीत पसरलेली होती.

त्यांच्या मुलाचं नाव करुणाशंकर भट. पण त्याला झंडू भटजी म्हणून ओळखायचे. हे झंडू भटजीदेखील आयुर्वेदाचार्य होते. वैद्य विठ्ठल भट यांच्या हाताखाली ते तयार झाले होते. बापसे बेटा सवाई अशी त्यांची ख्याती झाली होती. स्वतःची औषधे तयार करण्यासाठी त्यांना रसशाळा सुरू करायची होती.

जामनगरचे महाराज जामसाहेब हे झंडू भट्जी यांच्या ज्ञानावर प्रसन्न झाले. त्यांनी आपल्या संस्थानात रंगमती नदीच्या किनाऱ्यावर थोडीशी जमीन झंडू भटजींना बहाल केली. येथेच १८६४ साली झंडू भट्जींनी आपली आयुर्वेद रसशाळा स्थापन केली—- आणि झंडू ब्रॅण्डचा जन्म झाला. झंडू भटजींची औषधे फक्त जामनगर नाही तर अख्ख्या काठियावाड मध्ये फेमस होती. दूरदूरहून लोक त्यांच्याकडे आपल्या रोगाचे निदान होईल या आशेने येत असत. झंडू भटजींची रसशाळा भारतभर गाजू लागली होती.

या भट कुटुंबाच्या ज्ञानाला आधुनिक रुपात आणायचे श्रेय मात्र त्यांचा नातू जुगतराम वैद्य यांना जाते.

झंडू यांचे नातू जुगतराम वैद्य यांनी केमिस्ट्री व फिजिक्सचे आधुनिक शिक्षण घेतले होते. त्यांनी राजकोटमधील ब्रिटिश प्रोफेसर ली यांच्या लॅबमध्ये काम केलं होतं. आपली पारंपरिक औषधे जर आधुनिक रुपात आणली तर ती जगभरात पोहचवता येतील हे जुगतराम वैद्य यांच्या लक्षात आलं. पण आजोबा झंडू भटजी यासाठी तयार होत नव्हते.

एवढंच काय त्यांच्या कुटुंबातील कोणीही त्यांना साथ देत नव्हतं. फक्त एकजण तयार झाला —- झंडू यांचा जावई प्रभाशंकर पट्टानी. 

हे प्रभाशंकर पट्टानी भावनगरच्या राजाचे पंतप्रधान होते. खरंतर त्यांचंदेखील आडनाव भट्ट होतं. सुरवातीला त्यांची परिस्थिती गरिबीची होती. त्याकाळी डॉक्टर व्हायचं म्हणून ते मुंबईला गेले, पण ते जमलं नाही. राजकोटला परत आल्यावर त्यांनी मास्तरकी सुरू केली. झंडू भटजींच्या मुलीशी त्यांचं लग्न झालं होतं, पण सासरकडच्या कोणीतरी त्यांचा डॉक्टर न झाल्यावरून अपमान केला व प्रभाशंकर यांनी पट्टानी हे आडनाव धारण केल.

प्रभाशंकर मुळात हुशार होते. राजकोटमध्ये शिकायला आलेल्या भावनगरचा राजकुमार भावसिंग याला त्यांची खाजगी शिकवणी लावण्यात आली. हा भावसिंग कायम डोकेदुखीने त्रस्त असायचा. त्यामुळे चिडचिड होऊन स्वभाव रागीट बनला होता. त्याच्या प्रकृतीचा पट्टानी यांच्या डोक्याला ताप होऊन बसला होता. त्याला बरे करण्यासाठी प्रभाशंकर यांनी आपल्या सासऱ्यांना सांगून बनवलेलं एक खास बाम आणून दिल.

ते बाम लावल्यावर राजकुमाराची डोकेदुखी पळून गेली.—– तेच ते आजचे सुप्रसिद्ध झंडू बाम.

त्यानंतर भावसिंग यांचा प्रभाशंकर यांच्यावरचा विश्वास वाढला. पुढे ते जेव्हा भावनगरच्या राजेपदी आले तेव्हा या आपल्या गुरूला त्यांनी पंतप्रधान बनवलं. प्रभाशंकर पट्टानी यांनी पुढची तीस चाळीस वर्षे काटेकोरपणे राज्यकारभार चालवला. भारताच्या राजकीय वर्तुळात त्यांचे मोठे वजन होते. महात्मा गांधीजींचेही ते खास मित्र होते.

अस सांगितलं जातं की जेव्हा असहकार आंदोलनावेळी चौरीचौरा प्रकरण घडलं, तेव्हा पट्टानी यांनी ‘ तुमच्या आंदोलनात हिंसा होत आहे ‘ असं सांगून गांधीजींचे कान धरले व त्याचाच परिणाम गांधीजींनी ब्रिटिश सत्तेविरुद्धचं असहकार आंदोलन मागे घेतले.

ज्या जावयाचा झंडू भटजींच्या कुटूंबाने अपमान केला, त्याचीच मदत घ्यायची वेळ त्यांच्या नातवावर आली.

पण मनात कोणताही पूर्वग्रह न बाळगता प्रभाशंकर यांनी जुगतराम वैद्य यांना राजाकडून सर्वतोपरी साहाय्य मिळवून दिले व या दोघांनी मिळून १९१० साली झंडू फार्मसिटीकल कंपनीची स्थापना केली.

अगदी काही काळातच झंडू बाम तुफान फेमस झाले. डोकेदुखीपासून अंगदुखीपर्यंत प्रत्येक गोष्टीवरील रामबाण उपाय म्हणून त्याला पाहिलं गेलं.

पुढच्या ९ वर्षात ही कंपनी शेअर बाजारात देखील आली.

झंडू भटजींनी रसशाळा सुरू केली त्याला जवळपास १५० वर्षे झाली. या कंपनीचा विस्तार शेकडो कोटींचा बनला आहे. आता या कंपनीची मालकी झंडू भटजींच्या कुटुंबाकडे राहिली नाही. पण फक्त भारतातच नाही तर परदेशातही त्यांची उत्पादने पोहचली आहेत.

‘दबंग ‘  मधली मलायका अरोरा देखील ‘  झंडू बाम हुई डार्लिंग तेरे लिए ‘ जेव्हा म्हणते तेव्हा या आयुर्वेदिक औषधीचा सबंध भारतीय समाजावर झालेला परिणाम दिसून येतो.

डॉक्टरच्याआधी मदतीला येणारा, प्रत्येक घरात हमखास दिसणारा झंडू भटजींचा ‘ झंडू बाम ‘  १५० वर्षांचा झाला तरी त्याचा इफेक्ट कमी झाला नाही हे नक्की.

संग्राहिका : आनंदी केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ आतून तुटलेली माणसं ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ आतून तुटलेली माणसं ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे  ☆

आतून तुटलेली माणसं मनाने अतिशय ठाम होत जातात, प्रॅक्टिकल होत जातात.  त्यांचं इमोशनल होणं कालांतराने बंद होत जातं.

आतून तुटलेली माणसं फारशी व्यक्त होत नाहीत. त्या लोकांपुढे तर बिलकुलच नाही, ज्यांच्यामुळे त्यांना सहन करावं लागलं असेल काहीतरी.

२+२=५ कुणी म्हणालं तरी ते “it’s okay” म्हणून निघून जातात.

ती माणसं वाद टाळतात, माणसांशी बोलणं टाळतात. एका पॉइंट नंतर त्यांचा realisation sense झपाट्याने वाढलेला असतो. समोरचा माणूस किती खरं बोलतोय, किती खोटं बोलतेय, फायद्यासाठी बोलतोय की स्वार्थ आहे हे पटकन समजून येतं.

काहीच रिॲक्ट न करता ती माणसं पुढे निघून जातात,आणि यातच खरा शहाणपणा असतो.

थोड्या कालावधीनंतर ही माणसं सेल्फ motivated होऊन जातात. कुणाचा सल्ला नको असतो, कुणाचा interference  नको असतो.  कारण जेव्हा खऱ्या आधाराची गरज असते तेव्हा ती गोष्ट मिळालेली नसते, म्हणून मग ते  सेल्फ dependent होतात.

आतून तुटलेल्या माणसाला वादळाची भीती नसते, संकटांची काळजी नसते.  कारण आपण लढू शकतो याची खात्री मनाला पटलेली असते. छोट्या छोट्या गोष्टीमुळे इमोशनल होण्यापासून ते mindset प्रॅक्टिकल होण्यापर्यंतच्या प्रवासाची सुरुवात आतून तुटण्यापासून होते….!

म्हणून……

” कभी कभी दर्द भी अच्छा होता है । “

संग्राहिका : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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