हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 108 ☆ लघुकथा – मान जाओ ना माँ ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील, हृदयस्पर्शी एवं विचारणीय लघुकथा ‘मान जाओ ना माँ !’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा  रचने   के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 108 ☆

☆ लघुकथा – मान जाओ ना माँ !  ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

मम्माँ किसी से मिलवाना है तुम्हें।

अच्छा, तो घर बुला ले उसे, पर कौन है? 

मेरा एक बहुत अच्छा दोस्त है।

मुझसे भी अच्छा? सरोज ने हँसते हुए पूछा।

इस दुनिया में सबसे पहले तुम ही तो मेरी दोस्त  बनी। तुम्हारे जैसा तो कोई हो ही नहीं सकता मम्माँ, यह कहते हुए विनी माँ के गले लिपट गई।

अरे ! दोस्त है  तो फिर पूछने की क्या बात है इसमें, आज शाम को ही बुला ले।  हम  सब  साथ में ही चाय पियेंगे।

सरोज ने शाम को चाय – नाश्ता  तैयार कर लिया था और बड़ी बेसब्री से विनी और उसके दोस्त का इंतजार कर रही थी। हजारों प्रश्न मन में उमड़ रहे थे। पता नहीं किससे मिलवाना चाहती है? इससे पहले तो कभी ऐसे नहीं बोली। लगता है इसे कोई पसंद आ गया है। खैर, ख्याली पुलाव बनाने से क्या फायदा, थोड़ी देर में सब सामने आ ही जाएगा, उसने खुद को समझाया। 

तभी दरवाजे की आहट सुनाई दी। सामने देखा विनी किसी अधेड़ उम्र के व्यक्ति के साथ चली आ रही थी।

मम्माँ ! आप  हमारे कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर  हैं – विनी ने कहा।

नमस्कार, बैठिए – सरोज ने विनम्रता से हाथ जोड़ दिए। विनी बड़े उत्साह से प्रोफेसर  साहब  को अपनी पुरानी फोटो  दिखा रही थी। काफी देर तक तीनों बैठे बातें  करते रहे। आप लोगों के साथ बात करते हुए समय का पता ही नहीं चला, प्रोफेसर  साहब ने घड़ी देखते हुए कहा – अब मुझे चलना चाहिए।

सर ! फिर आइएगा विनी बोली।

हाँ जरूर आऊँगा,  कहकर वह चले गए।

सरोज के मन में उथल -पुथल मची हुई  थी। उनके जाते ही विनी से बोली – तूने प्रोफेसर  साहब की उम्र देखी है? अपना दोस्त कह रही है उन्हें? कहीं कोई गलती न कर बैठना विनी – सरोज ने चिंतित स्वर में कहा।

विनी मुस्कुराते हुए बोली – पहले बताओ तुम्हें कैसे लगे प्रोफेसर  साहब? 

बातों से तो भले आदमी लग रहे थे पर – 

तुम्हारे लिए रिश्ता लेकर आई हूँ प्रोफेसर साहब का, बहुत अच्छे इंसान हैं। मैंने उनसे बात कर ली है। सारा  जीवन तुमने मेरी देखरेख में गुजार दिया। अब अपनी दोस्त को  इस घर में अकेला छोड़कर मैं  तो शादी नहीं  कर सकती।  मान जाओ ना माँ !

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 127 – “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है सुश्री दामिनी खरे जी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “अर्घ…” पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 127 ☆

☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆

पुस्तक चर्चा

अर्घ, कविता संग्रह

दामिनी खरे

आवरण.. यामिनी खरे

प्रकाशक … कृषक जगत, भोपाल

काव्य रचनाओ  को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे परिवेश के अनुकूल लिखित कविताओं को  पाठक उसी पृष्ठभूमि से  हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके,  जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के  पिछले आवरण पर  रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. प्रस्तुत कृति अर्घ का  आवरण चित्र प्रसिद्ध अव्यवसायिक महिला चित्रकार यामिनी खरे ने बनाया है, छोटे छोटे चित्रों से बना कोलाज ठीक वैसे ही हमारी संस्कृति के विभिन्न आयाम मुखरित करता है जैसे शब्द चित्र किताब की कविताओं से अभिव्यक्त होते हैं ।  आत्मकथ्य में कवियत्री ने लिखा है की उनके रचनात्मक व्यक्तित्व पर उनके पिता की छाप है, मैंने स्व  वासुदेव प्रसाद खरे जी की देवयानी सहित कुछ रचनाएँ सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ी हैं, मैं कह सकता हूँ की दामिनी जी की लेखनी में पिता की  प्रति छाया शैली, छंद विधान, शब्द सागर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। भारतीय सामाजिक परिवेश में अनेक महिलाएं विलक्षण व्यक्तित्व रखती हैं किन्तु विवाह के उपरांत परिवार, बच्चो तथा पति के साथ कदमताल करते हुए उनका निजी व्यक्तित्व शनैः शनैः कहीं खो जाता है, दामिनी जी जैसी बिरली महिलाये ही अपने भीतर उस क्षमता को दीर्घ काल तक सुशुप्त रहते हुए भी प्राणवान बनाये रख पाती हैं।

उन्होंने लिखा ही है

“करके अपना ही पिंड दान, बन दीप शिखा जलती जाती “, बेटियां  शीर्षक से लिखी गई यह कविता उनका भोगा हुआ यथार्थ है।  उनके सुपुत्र ने लैंडमार्क के बहाने उनकी लेखन प्रतिभा को पुनः जागृत करने में  भूमिका निभाई, और लेखिका संघ के व्हाट्स अप ग्रुप ने वह  धरातल दिया जहां बचपन से अब तक के उनके संवेदनशील मन ने जो मानस चित्र बना रखे थे वे शब्दों का रूप लेकर कागज पर उभर सके। पिता के काव्य संस्कारो को पति  का साथ मिला और यह किताब हिंदी जगत को मिल सकी ।  छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण,समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रचनाओं के पुस्तकाकार  प्रकाशन से साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेखिका ने उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाने की कोशिश की  है जिसकी छटपटाहट उनमें कविताओं के लेखन काल से रही होगी.कविताओ  में शाश्वत तथ्य मुखरित हुए हैं। यथा..

“ सुख दुःख में गोते लगाना है जीवन, हर पल ख़ुशी से बिताना है जीवन “

संग्रह में कुल ६१ कविताये हैं, प्रकृति, नारी, राष्ट्र, लोकचेतना, समाज जैसे विषयों पर कलम उठाई गई है।   मैं लेखिका की  कलम की उसी यात्रा में अपने आप को सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं,स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं. लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे मां को इंगित करते हुए लिखती हैं ” धैर्य धरा सा तुमसे सीखा, सीखा कर्म किये जाओ, फल देना ईश्वर के हाथो, तुम केवल चलते जाओ “

बादलों को लक्ष्य कर वे लिखती हैं “कनक कलश से छलक रहे ये वन उपवन को महकाते, नहीं जानते लेना ये बस देना ही देना जाने “

“ जीवन है इक भूल भुलैया, रह ढूँढना रे मन, नई  राह पर चलते चलते धैर्य न खोना रे मन “  इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.

धूप का टुकड़ा शीर्षक से एक रचना का अंश है.. ” सुनो संगीत जीवन का, नहीं मालूम क्या हो कल, मुझे भाता है संग इनका, तुम्हें भी रास आएगा”  जीवन विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये  दामिनी जी किसी परिपक्व वरिष्ठ कवि की तरह  उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.

अर्घ, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं…

भावना के अर्घ देकर चल मना

लौ प्रकम्पित कर रहा मन अर्चना

पंछियों सी अब गगन में उड़ चली

फलक पर नित नवल करती सर्जना

भारत माता शीर्षक से वे लिख रही हैं ” लेते हैं हम शपथ विश्व मे उन्नत मां  का भाल करे, सेवा का प्रण लेकर हम सब सदा स्वार्थ का त्याग करें  ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो दामिनी जी  की लेखनी सफल हो जावे.

उनका  ज्ञान व चिंतन परिपक्व है.  एक रचना अंश  उधृत है ” नैन कह जाते अकथ कहानी, मुखर ह्रदय की वाणी, शीतल सरिता के स्वर, नैन झरे झर झर “

छंद, शब्द सामर्थ्य, बिम्ब योजना हर दृष्टि से कवितायेँ  पठनीय तथा मनन, चिंतन योग्य सन्देश समाहित किये हुए है।  अपनी ” मौन स्वर “कविता में वे लिखती हैं ” जिंदगी के इस सफर में त्याग ही अनुगामिनी है,मौन स्वर तू रागिनी है “

प्रत्येक  रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते  आप को इस कृति  पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

वर्तमान मे – न्यूजर्सी अमेरिका

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आपबीती ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

श्री भास्कर साधना आरम्भ हो गई है। इसमें जाग्रत देवता सूर्यनारायण के मंत्र का पाठ होगा। मंत्र इस प्रकार है-

💥 ।। ॐ भास्कराय नमः।। 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि –  आपबीती ??

मैं डुबकी लगाना

चाहता था गहरी,

सो गहरे लोगों की

संगत करने की सूझी,

फिर समय ने बताया,

अनुभव ने दोहराया,

आपबीती से पता चला था,

मैं उथला ही भला था..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 7:20, 23 दिसम्बर 2022

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गुरु ही सर्वोपरि है… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆ आलेख ☆ गुरु ही सर्वोपरि है… ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

महान कोई नही बनना चाहता? लेकिन महान बनने के लिए हर इंसान को ज्ञान की आवश्यकता होती है, जो हमें मिलता है गुरु से। हर सफल इंसान के जीवन में गुरु का अति विशिष्ट स्थान  होता है। भगवान से भी ऊंचा दर्ज़ा होता है गुरु का। ज्ञान प्राप्ति का कोई भी मार्ग हो, कोई भी क्षेत्र हो,हर जगह से ज्ञान बटोर लेने में कोई हर्ज नही है। ज्ञान देने वाला उम्र में छोटा हो या बड़ा, वह हमारा गुरु ही होता है। गुरु किसी भी रूप में हमको ज्ञान अर्जित करने के रास्ते दिखाता है, जैसे माता- पिता, भाई- बहन, दोस्त, छोटा बच्चा,  अजनबी, राहगीर आदि।

गुरु ही सर्वोपरि, होता है। भविष्य का निर्माता होता है। समाज की नींव होता है।

 जिसके प्रति भी मन में सम्मान होता है,

जिसकी डांट में भी एक अद्धभुत ज्ञान होता है,

जिसके पास हर मुश्किल का समाधान होता है,

जन्म देता है कई महान शख्सियतों को, वो गुरु तो सचमुच बहुत महान होता है।

शुरू होती है माँ के गर्भ से, सीखने की अभिलाषा।

प्रथम गुरु है मेरी माता,

जिसने मुझे चलना सिखलाया

अँगुली पकड़ कर ,मुश्किल राह पर ,

आगे बढ़ना है सिखलाया।

कैसे करूँ बखान गुरु का,

गुरु तो असीमित भंडार होता है ज्ञान का।

ऐसा कोई कागज़ नही,जिसमे वो शब्द समाए,

ऐसी कोई  स्याही नहीं,

जिससे सारे गुरु गुण लिखे जाएं।

मेरी बाणी क्या बोलेगी,

कितनी कलम चलाऊँ मैं।

दूर -दूर तक सोचूँ जितना भी,

गुरु गुण लिख ना पाऊं मैं।

गुरु ने ही अन्धेरी राहों में,

रोशनी की किरण दिखलाई है।

जीवन के सारे दुख हर कर,

खुशियों की फसल उगाई है।

निस्वार्थ भाव की सेवा देकर,

अच्छे गुण सिखलाये है।

कठिन राह में हिम्मत देकर,

आगे वही बढ़ाये हैं।

मैं थी अज्ञानी -अनजानी,

ज्ञान राग सिखलाई है।

दुनियां के अनजान सफर में ,

मेरी पहचान बनाई है।

अक्षर – अक्षर मुझे सिखाकर,

शब्द – शब्द का अर्थ बताकर,

सही -गलत का ज्ञान कराकर,

मुश्किल सवाल का हल बताकर,

जीवन के हर मूल्य बताकर,

 कभी प्यार कर, कभी डाँटकर,

बेड़ा पार लगाई है।

 गुरु को मेरा प्रथम अभिनंदनं,

जीवन बना दिया मेरा चंदन।

©  डॉ निशा अग्रवाल

(ब्यूरो चीफ ऑफ जयपुर ‘सच की दस्तक’ मासिक पत्रिका)

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर ,राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नई जनरेशन ☆ श्री अखिलेश श्रीवास्तव ☆

श्री अखिलेश श्रीवास्तव 

(ई-अभिव्यक्ति में श्री अखिलेश श्रीवास्तव जी का स्वागत। विज्ञान, विधि एवं पत्रकारिता में स्नातक। 1978 से वकालत, स्थानीय समाचार पत्रों में सम्पादन कार्य। स्वांतः सुखाय समसामयिक विषयों पर लेख एवं कविताओं की रचित / प्रकाशित। प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “नई जनरेशन”।)

☆ कविता  – नई जनरेशन ☆ श्री अखिलेश श्रीवास्तव ☆

रंग ढंग नई जनरेशन के

हमको समझ न आए ।

सदी बीस को छोड़ के

ये इक्कीसवीं सदी में आए ।।

 

देर रात तक जगने की

आदत इनके मन भाए ।

नौ बजे के बाद ही इनकी

गुडमॉर्निंग  हो पाए ।।

 

शर्ट-पेंट  ये नहीं पहनते

इन्हें टी शर्ट -जीन्स ही भाए ।

फटी जीन्स दाड़ी कपड़ों में

कूल लुक कहलाए ।।

 

चाचा -चाची बुआ -फूफा

कहने में ये शर्माएं ।

बोलकर अंकल -आंटी

 सबको ये मार्डन कहलाएं ।।

 

छोटी जगह में रहना

इनको बड़ा कष्ट पहुंचाए ।

देख शहर की चकाचौंध

इन्हें शहर में रहना भाए ।।

 

हिन्दी बोलन में शर्माएं

अंग्रेजी गले लगाएं ।

अपनी माता को छोड़ के

ये स्टेप मदर अपनाएं ।।

 

रिश्ते नाते नहीं मानते

दोस्त ही मन में भाए ।

अपनों से ये बात करें न

दूजों से बतयायें ।।

 

पापा-मम्मी नहीं बोलते

मोम डेड कहलाएं ।

भाई बहिन आपस में

सिस -ब्रो बन जाएं ।‌।

 

 घर परिवार के रिश्तों

और बूढ़ों से ये कतराएं ।

रिश्ते वही निभायें जो

इनके मन को भाएं।।

 

बड़ों के पैरों को छूने में

इनको शर्म है आए ।

हैलो हाय करके ये

अपना शिष्टाचार निभाएं ।।

 

बर्थ डे घर में नहीं मनाते

होटल में ये जाएं ।।

घर के देशी व्यंजन छोड़

 ये पिज़्ज़ा बर्गर खाएं ।।

 

चाय -छांछ पीने वाले तो

बेक वर्ड  कहलाएं ।

सिगरेट और शराब पियें

तो फारवर्ड बन जाएं ।।

 

खेलकूद इनको न भाए

इससे ये कतराएं

नेट -टेब मोबाइल में

ये अपना समय बिताऐं

 

बड़ी विडंबना है इनकी

अब इन्हें कौन समझाए।

विश्व में भारत की संस्कृति

 ही सर्वश्रेष्ठ श्रेष्ठ कहलाए ।।

© श्री अखिलेश श्रीवास्तव

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 140 ☆ बाल गीत – हँसी का छक्का… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 140 ☆

☆ बाल गीत – हँसी का छक्का… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

नयन लड़ावें चुन्ना – मुन्ना।

मिट्टी से लिखते किटकन्ना।।

 

प्यारी जोड़ी भोली – भाली।

खूब बजाते जमकर ताली।।

 

कभी ठुमककर लाड़ जतावें।

लप्पा – लोरी खूब सुनावें।।

 

खूब खेलते घोड़ा – घोड़ी।

मन को भाएँ सेव , पकोड़ी।।

 

गिनती करते एक दो तीन।

एबीसीडी बोल प्रवीन।।

 

कभी मारते हँसी का छक्का।

प्यार लुटाएं कक्की – कक्का।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ठिपका… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ठिपका… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

युद्ध लादले जर नियतीने

नियतीशीही झुंजत राहू

अखेरच्या अन् चिंधीलाही

निशाण बनवत फडकत ठेऊ !

 

     आपण ओंजळ.. ते तर सागर

     न्यून कधी हे उरी न जपणे

     झुळझुळ मंजुळ..रौद्र गाज ती

     आपण गावे अपुले गाणे !

 

स्वप्नपंथ हा अग्निपंथही

दाह तरीही साहत राहू

जरी गगन ना कवेत आले

उरि नक्षत्रे तेवत ठेवू !

    

     जीवन ही तर गळकी घागर

     किती भरावी तरी रिती रे

     शापालाही उ:शापाची

     दैव देतसे कधी हमी रे

 

स्वत: पारचे विश्व विलक्षण 

दृश्य विहंगम त्याचे पाहू

रणे  नंदने  तीर्थस्थाने

सारे सारे ह्रदयी घेऊ !

 

     अपुल्यास्तव जे तमात जळले

     त्या दीपांना तारण जीवन

     ज्या ताऱ्याचा वसा घेतला

     अवघे जीवन त्यास समर्पण !

      

चिरंतनाचा गंध मृण्मया

देता देता विरून जाऊ

नक्षत्रांच्या रांगोळीचा

जाता जाता ठिपका होऊ !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #141 ☆ संत मुक्ताबाई… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 141 ☆ संत मुक्ताबाई… ☆ श्री सुजित कदम ☆

ज्ञाना निवृत्ती सोपान

बंधू संत मुक्ताईचे

सांप्रदायी प्रवर्तक

बाळकडू अध्यात्माचे…! १

 

आदिमाता मुक्ताईस

ब्रम्हचित्कलेचा मान

मंत्र सोहम साधना

ज्ञानदेव देई ज्ञान…! २

 

करी मुक्ता उपदेश

गुरू बंधू ज्ञानदेवा

केले लेखन प्रवृत्त

दिला ज्ञानमयी ठेवा…! ,

 

बेचाळीस रचनांनी

सजे ताटीचे अभंग

मुक्ता बाई योग राज्ञी

विश्व कल्याणात दंग..! ४

 

ज्ञानेश्वर संवादाने

दिली सनद मानाची

झाली प्रकाश मुक्ताई

ज्ञानगंगा ज्ञानेशाची…! ५

 

भक्त श्रेष्ठ मुक्ताबाई

प्रबोधन गुणकारी

ताटीच्याच अभंगाने

झाली संकट निवारी…! ६

 

गुरू विसोबा खेचर

संकीर्तनी विवेचन

संतश्रेष्ठ सहवास

अध्यात्मिक प्रवचन…! ७

 

योगीराज चांगदेवे

मुक्ताईस केले  गुरू

पासष्ठीचा अर्थबोध

गुरू शिष्य नाते सुरू…! ८

 

अंगाईच्या अभंगांने

मुक्ता झाली रे मुक्ताई

ज्ञानबोध हरिपाठ

अनुबंध मुक्ताबाई…! ९

 

नाथ संप्रदायातील

पहिल्याच सद्गुरू

मुक्ताबाई सांगतसे

उपदेश मनीं धरूं…! १०

 

मुक्ताबाई मुक्तीकडे

करी जीवन प्रवास

संत साहित्य प्रेरक

लाभे संत सहवास…! ११

 

गुरू गोरक्षनाथांचा

झाला कृपेचा वर्षाव

संजीवन अमृताचा

पडे सर्वांगी प्रभाव..! १२

 

समाधीचे आले अंग

मुंगी उडाली आकाशी

धन्य धन्य मुक्ताबाई

झेप घेई अवकाशी…! १३

 

जळगावी तापीतीरी

मुक्ता स्वरूपा कारात.

वैशाखात दशमीला

मुक्ता मुक्तीच्या दारात…! १४

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆☆ (आपण) लोक सिरियल्स का बघतात (बघतो)? – भाग 1 ☆ सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ ☆

सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

? विविधा ?

(आपण) लोक सिरियल्स का बघतात (बघतो)? – भाग 1 ☆ सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

विचार करा बरं एकदा! का बघतो आपण टी. व्ही. वरच्या सिरियल्स?  टाईम पास, मनोरंजन हे तर आहेच. करोनाच्या काळात तर घराबाहेर पडणंसुद्धा काहीजणांसाठी अवघडच झालेलं होतं, त्यामुळे टी. व्ही. वरच्या मालिका बघणं हा या काहीजणांसाठी, आणि ज्यांना एरवीही घराबाहेर जाणं अशक्य आहे, अशांसाठीही जीवनावश्यक विधी झालेला आहे! अर्थात, काही लोक तर व्यसन लागल्यासारखे टी. व्ही.बघत असतात!

 पूर्वी जेंव्हा फक्त दूरदर्शनच दिसत असे, तेंव्हा आठवड्यातून एकदाच ठराविक वेळेला ठराविक मालिका दिसत असत. तेंव्हा त्या मालिकांना काहीतरी स्टॅन्डर्ड असायचं, पुढच्या भागाबद्दल उत्सुकता असायची. आणि आठवड्यातून एकदाच बघायला मिळत असल्यामुळे, त्यांचं अप्रूपही असायचं. पण आता टी. व्ही. वर चॅनल्सचा इतका सुळसुळाट झालेला आहे, की विचारायची सोय नाही! आणि वेळकाळ याचंही काही बंधन नाही! 24 तास टी. व्ही. सुरूच! आणि मग आलटून पालटून त्याच त्याच मालिकांचे ‘रिपीट एपिसोड’! बघा लेको, केंव्हाही!

या मालिकांची काही वैशिष्ट्यं आहेत बरं का! मालिकेत खलनायिका असलीच पाहिजे, त्या शिवाय, बहुतेक मालिका दाखवायला परवानगी मिळत नसावी! तिचे एकदोन जोडीदार तर हवेतच! आणि हे सगळे नायक-नायिकेच्या घरातले लोकच असतात बरं! आपल्याच घरातल्या लोकांना असा त्रास देताना या लोकांना अगदी आंनदाच्या उकळ्या फुटत असताना पण दाखवतात! आणखी श्रीमंती तर दाखवलीच पाहिजे मालिकांमधे! हिंदी मालिका बघितल्या, तर भारतात कुठे दारिद्र्य आहे, हे खरंच वाटणार नाही! त्या मानाने मराठी मालिकांमधली श्रीमंती मर्यादित प्रमाणात दाखवली जाते! आणखी एक, त्या नायक-नायिकांना सुखानं जगू द्यायचंच नाही, असा विडा खलनायिकेनं आणि मालिकेच्या दिग्दर्शकानंही मिळून उचललेला असतो! याच्या मागे काय कारण असावं, हे काही माझ्यासारख्या पामराला तरी कळत नाही बुवा! खलनायिकेचं एक ठीक आहे, पण दिग्दर्शकाचं काय घोडं मारलेलं असतंय नायक-नायिकेनं देवच जाणे! आणखी एक मज्जा म्हणजे, खलनायक, तिचे जोडीदार अत्यंत हुशार आणि जितके म्हणून चांगले लोक असतील मालिकेत, ते, अगदी नायक-नायिका धरून, ते सगळे बिनडोक! सतत खलनायिका या लोकांवर मात करत रहाणार आणि ह्यांना कळतच नाही, कोण सगळं वाईट घडवतंय आपल्या आयुष्यात ते! अगदी मालिका संपेपर्यंत हा लपंडाव चालूच! शिवाय, हे नायक-नायिका, विशेषतः नायिका तर संत महंतच जणू! आसपासच्या सगळ्या लोकांशी इतकं चांगलं वागणार, की त्या चांगुलपणाचं अजीर्ण व्हावं! सगळ्यांसाठी सतत त्याग करत रहाणार, कशाचा ना कशाचा. असे दोन प्रकार माणसांचे, एक पूर्णतः काळी छटा असलेला, आणि एक पूर्ण, पवित्र शुभ्र रंगाचा! सामान्यतः प्रत्येक माणसात दोन्ही छटा मिसळलेल्या असतात. कोणीच पूर्णतः वाईट किंवा पूर्णतः, म्हणजे, अती चांगला नसतो. खरोखरचे संत-महात्मे सोडून! पण नायिका गुणांची पुतळीच दाखवली पाहिजे असाही नियम असावा, मालिका बनवण्यासाठी.

बरं, एखादी मालिका आधी विनोदी म्हणून जाहिराती करतात, आपल्याला वाटतं, चला, त्या सासवा-सुनांच्या मालिकांपेक्षा काहीतरी वेगळं बघायला मिळेल, म्हणून आपण ती मालिका बघायला सुरुवात करतो, पण थोड्याच दिवसात आपला भ्रमनिरास करून त्या मालिकेत खलनायिका घुसवली जाते आणि सुरु होतं परत तेच दळण! क्वचित काही मालिका या सगळ्याला अपवाद ठरतात आणि बघायला आवडतात.  उदा. ‘साराभाई व्हर्सेस साराभाई’ सारखी निखळ विनोदी मालिका. आजही त्या मालिकेच्या नुसत्या आठवणीने सुद्धा हसू येतं. ही हिंदी मालिका होती. पण अशा निखळ विनोदी मालिका फार दिवस चालू ठेवणं अवघड असतं. कारण सातत्त्यानं निखळ विनोदी लिहिणं ही खूप अवघड गोष्ट आहे. पु. लं. सारखे जीनियस या क्षेत्रात कमीच असतात.

मराठीतही सुरुवातीच्या काळात चांगल्या मालिका असायच्या. पूर्वीच्या, फक्त दूरदर्शन होतं, त्या काळातल्या ‘बुनियाद’ आणि ‘हम लोग’ या मालिकांनी लोकप्रियतेचा कळस गाठलेला होता. तसेच ‘तमस’ ही देशाच्या फाळणीबद्दलची मालिका, सई परांजपे यांची ‘अडोस-पडोस’ या काही दर्जेदार मालिका आजही लक्षात आहेत.  ‘झोका’, ‘अग्निहोत्र’, ‘असंभव’, ‘आनंद भुवन’ इ. मी बघितलेल्या काही मराठी मालिकाही आजही आठवतात. पण हळूहळू रोजच्या मालिकांचा रतीब जसा सुरु झाला, तसतसा मालिकांचा दर्जा घसरत गेला. आणि पूर्वी मालिकांना तेरा भागांचं बंधन असायचं, आता तशी काही मर्यादाच नसल्यामुळे प्रेक्षकांच्या सहनशक्तीचा अंत बघत आणि वाट्टेल तशा भरकटत मालिका वर्ष नु वर्षे चालूच रहातात.

या मालिकांमधून न पटणाऱ्या, वर्तमान जगाशी सुसंगत नसलेल्या गोष्टीही इतक्या घुसडलेल्या असतात, की विचारायची सोय नाही! हल्ली कोणत्या तरुण मुली साड्या नेसतात? तरुण जाऊ दे, सासू, आई, आज्जी या स्त्रियाही हल्ली फक्त सणा-समारंभातच साडी नेसतात. ही अगदी सामान्य गोष्ट झालेली आहे. पण या मालिकांमधल्या मुली लग्नाआधी ड्रेस वगैरे घालत असल्या तरी लग्न झाल्या क्षणापासून साड्याच नेसायला लागतात. नाहीतर त्या मग वाईट चालीच्या असतात! आता या कर्माला काय म्हणावं? दुष्ट, खलनायिका यांनाच ड्रेस घालायची परवानगी असते मालिकांमधे! आणि सासू, सुना, आत्या, मावशी जी काही स्त्री पात्रं असतील, त्या दिवसरात्र झगमगीत भारी साड्या आणि भरपूर दागदागिने घालून सदैव लग्न समारंभासाठी तयार असल्यासारख्या वावरत असतात मालिकेत! आणि तरीही कुठे बाहेर जायचं असेल तर “मैं तयार हो के आती हूं”, अरे काय! हे हिंदी मालिकांचं जग आहे. हल्ली मराठीमध्ये बहुतेक इतका भडक प्रकार नसतो, पण लग्नानंतर साडी कम्पल्सरी! आणखी एक गम्मत! आपल्यासारख्या सामान्य माणसांचा पोलिसांशी असा कितीकसा संबंध येतो? फार फार तर एखादे वेळी सिग्नल तोडला, किंवा वन वे मधून उलटं जाताना पकडलं गेल्यास दंड भरण्यापुरता! हो की नाही? पण या प्रत्येक मालिकेत या सामान्य घरातला एक तरी माणूस तुरुंगात गेलेला  दाखवलाच पाहिजे, असाही नियम असावा! साध्या-सरळ, सज्जन लोकांचा अतोनात छळ झालेला दाखवला, की या लेखक -दिग्दर्शकांना कसला आसुरी आनंद मिळतो, कोणजाणे!

ऐतिहासिक मालिका बघणं तर मी कधीच सोडून दिलंय. त्यात अभिव्यक्ती स्वातंत्र्याच्या नावाखाली इतिहासाची एवढी मोडतोड करतात, की जे लोक अगदी थोडंफार जाणतात, वाचतात त्यांनाही ते बघवू नये! काही अपवाद असतीलही, पण सर्वसाधारण अनुभव काही चांगला नाही! पौराणिक मालिकांमधे, किंवा देव देवतांवर काढलेल्या मालिकांमधे तर काहीही दाखवायची प्रचंड मुभाच मिळालेली असते, या लोकांना. कारण, त्यात खरं खोटं कसं आणि कोण सांगणार? पहिल्या ‘महाभारत’ आणि ‘रामायणा’ मधील चमत्कारांनीच त्याची सुरुवात करून दिलेली आहे. पण ते आपले टी. व्ही. बघण्याचेच सुरुवातीचे दिवस होते, म्हणून त्या मालिका प्रचंड लोकप्रिय झाल्या. आणि हल्ली परत परत नव्याने त्यांच्या नवीन आवृत्त्या निघत असतात. पण त्या नव्या बघितल्यावर मात्र त्या जुन्या कितीतरी चांगल्या होत्या, असं म्हणायची वेळ येते! 

क्रमशः…

© सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

संपर्क – 1565, सदाशिव पेठ, ‘लक्ष्मी सदन’, पी. जोग क्लास लेन, पुणे, ४११०३०. मो. 7709014058.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मात… भाग – 3 (भावानुवाद) – सुश्री भावना ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर☆

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

? जीवनरंग ❤️

☆ मात… भाग – 3 (भावानुवाद) – सुश्री भावना ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

(पूर्वसूत्र : अक्षयला एक कळून चुकलं होतं, की बाईक उडवणं, दिलखेचक हसणं वगैरे गोष्टींनी शालिनीवर प्रभाव पडणार नाही… आता पुढे…)

कित्येक आठवड्यांनंतर, एका रात्री तिच्या आईच्या पोटात खूप दुखायला लागलं. तेव्हा शेजारधर्म म्हणून पापा त्यांच्याकडे गेले. माझ्यासाठी हा चांगला योग ठरला. कारण नंतर ती कधी आईला घेऊन, तर कधी नुसतंच सांगून औषध न्यायला आमच्या घरी यायला लागली.

नेहमीचा आळस सोडून लवकर लवकर आंघोळबिंघोळ करून पापांच्या क्लिनिकच्या वेळात मी जवळपास घोटाळत राहायचो. सकाळी भेटली नाही, तर हा कार्यक्रम संध्याकाळी ठेवायचो.

पापांनी तिला हाक मारली, तेव्हा तिचं नाव समजलं. मग अगदी काळजीयुक्त स्वरात मी तिच्या आईची चौकशी करू लागलो, “आंटी कशा आहेत आता, शालिनीजी.?”

ती यायची बंद झाली, तेव्हा मीच तिच्या घरी जाऊन धडकलो.

“कशा आहेत आई? मला वाटलं, तुमचीही तब्येत बिघडली की काय? नोकरी, त्यात त्यांचं आजारपण…. खूप स्ट्रेन पडला असेल ना?”

तिने काही बोलायच्या आतच मी, रिहर्सल करून घटवलेली वाक्यं अगदी उदासपणे म्हटली, ” खरं सांगायचं तर, मला आई नाही….इंटरपर्यंत भोपाळला होतो. आता इथे आलोय. म्हणून तर…. कोणाच्या आईच्या आजारपणाविषयी कळलं की मी अस्वस्थ होतो. “

मी विनम्र आणि संवेदनशीलही होऊ शकतो, या गोष्टीने ती जास्तच प्रभावित झाली असावी. मी विचारपूर्वक आखलेल्या व्यूहाची ती एका चाल होती, हे तिला कळणं शक्य नव्हतं.

नव्याने मिळालेल्या या विजयाची मला नशा चढली. तीही त्या मॅग्निफाईंग ग्लासमध्ये बघून माझ्या राईएवढ्या महानतेचा पर्वत करू लागली आणि खूश होऊ लागली. यालाच म्हणतात प्रेम. एकंदरीत पाहता आम्ही दोघंही खूश होतो. हे सगळं जाणून -समजून घ्यायची माझ्या वडिलांना गरजही नव्हती आणि फुरसतही. तिच्या सर्वसामान्य परिवाराला मात्र माझ्यासारख्या प्रतिष्ठित स्थळाविषयी कळल्यावर आनंदच झाला.

तर आमच्या भेटीगाठी सुरू झाल्या – हॉटेल, सिनेमा, अमुक आर्ट गॅलरी, तमुक फॅशन शो…. शालिनीला भारावलेलं बघितलं, की मला वेगळाच आनंद व्हायचा.

अशी एक -दोन वर्षं गेल्यानंतर मात्र माझा शालिनीतला इंटरेस्ट कमीकमी होत गेला. आणि साहजिकच माझ्या मनात प्रश्न उठला – ‘शालिनीशी लग्न करून मी सुखी होईन का?’ मग मी तिच्याकडे चिकित्सक दृष्टीने बघू लागलो.’छे! अशी सर्वसामान्य, मठ्ठ मुलगी, माझी बायको कशी होऊ शकेल?’ मी मित्रांबरोबर मन रिझवायचा प्रयत्न केला. रोमान्सच्या एक -दोन जुन्या ठिणग्यांना फुंकर मारून फुलवायचा प्रयत्न केला. मनात चीड उफाळून यायची. मी स्वतःलाच सांगायचो, ‘हीच संधी आहे. तिला विसरायचा प्रयत्न कर. शेवटी स्वातंत्र्य हा आपला जन्मसिद्ध हक्क आहे.’

शेवटी पिताश्री मला डॉक्टर करू शकले नाहीतच. त्या बाबतीत हार मानून त्यांनी मला औषधांची एजन्सी उघडून दिली.त्यातही यशस्वी झालो, असं म्हणता यायचं नाही. विक्रीतून मिळालेले पैसे माझ्या हातून कुठे खर्च व्हायचे, त्याचा मलाही पत्ता लागायचा नाही. काही वर्षं, नवा स्टॉक भरण्यासाठी पैसे देऊन पापांनी मला मदत केली. पण शेवटी त्यांनीही हात टेकले.

तेव्हा सेठ हरकिसन पांड्याजी देवासारखे धावून आले. इंडस्ट्रियल एरियात मिळत असलेला एक प्लॉट विकत घेऊन तिथे काम सुरू करायची आयडिया तर त्यांनी दिलीच, शिवाय लोनही दिलं. नंतरही ते ऍडव्हान्स आणि लोन देतच होते.

त्यांची नजर शालिनीवर आहे, हे माझ्या लक्षात आलं होतं. म्हणून मी मुद्दामहून शालिनीला बरोबर नेत असे. मी तिला आमिष म्हणून वापरत होतो. पांड्याची बुभुक्षित नजर माझ्यापासून लपली नव्हती. मला वाटायचं, काहीही करून शालिनीने पांड्याला खूश ठेवावं आणि माझा खिसा भरत राहावा.

क्रमश:…

मूळ हिंदी  कथा – सुश्री भावना  

भावानुवाद –  सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈