हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नज़्म – अनसुनी दास्ताँ – ☆ डॉ रेनू सिंह ☆

(ई-अभिव्यक्ति में प्रतिष्ठित साहित्यकार डॉ. रेनू सिंह जी का हार्दिक स्वागत है। आपने हिन्दी साहित्य में पी एच डी की डिग्री हासिल की है। आपका हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी और उर्दू में भी समान अधिकार है। एक प्रभावशाली रचनाकार के अतिरिक्त आप  कॉरपोरेट वर्ल्ड में भी सक्रिय हैं और अनेक कंपनियों की डायरेक्टर भी हैं। आपके पति एक सेवानिवृत्त आई एफ एस अधिकारी हैं। अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद आप  साहित्य सेवा में निरंतर लगी रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी नज़्म – “अनसुनी दास्ताँ”।)

? नज़्म – अनसुनी दास्ताँ डॉ. रेनू सिंह ?

न मंज़िल थी कोई, न था रास्ता,

दीन दुनिया से उसको, न था वास्ता,

उलझी – उलझी लटें, मैला सा पैरहन,

होंठ सूखे हुये मुरझाया सा तन,

चेहरा बेनूर सा, बिखरा बिखरा सा मन ,

सुबह के दीप से, टिमटिमाते नयन

कंपकंपाती हुई, बुदबुदाती हुई

लड़खड़ा के वो फिर-फिर संभलती हुई,

न जाने ,वो किस बाग़ का फूल थी,

वक़्त की आँधियों में हुई धूल थी,

वो तो टूटा हुआ ऐसा एक साज़ थी

न कोई गीत जिसमें, न आवाज़ थी,

ऐसा पंछी कि जिसकी न परवाज़ थी,

ऐसी नदिया न जिसमें कोई धार थी,

वो मुझे एक दिन राह में मिल गई

उसने देखा मुझे और ठिठक सी गई

उसकी नज़रें मेरे रूख़ पे जम सी गईं,

तीर की तरह दिल में उतर सी गईं,

उसकी नज़रों में ऐसे सवालात थे,

जवाब जिनके न कोई मेरे पास थे…

जो सुनी ना किसी ने, वो फ़रियाद थी,

जो भुला दी थी अपनों ने, वो ‘याद’ थी,

जी रही थी मगर ,घुल रही साँस थी,

उसको जीवन से फ़िर भी कोई आस थी,

पूछना था उसे, है कहाँ उसका रब?

जानना था उसे ज़िन्दगी का सबब,

वो उदासीन है उसकी हस्ती से क्यूँ?

तोलता है तराज़ू में इंसाँ को क्यूँ

एक इंसाँ को देता है महल-ओ-हरम,

दूजे को बाँट देता है सब रहने-ग़म?

भेजेगा वो मसीहा भी ऐसा कभी?

जो मिटा देगा दुनिया से दुखड़े सभी,

गीत खुशियों भरे, वो भी फिर गायेगी,

किसी मजबूर को न कभी ठुकरायेगी,

जो दिया है ज़माने ने उसको यहाँ,

किसी और के संग ना कभी दोहराएगी,

क्या वो भी कभी मुस्कुरा पाएगी?

या ब्याबाँ में यूँही दफ़्न हो जाएगी?

बैठ कर राहगुज़र में वो शाम-ओ- सहर,

पूछती थी यही बात सबसे मगर,

न पाया कभी उसने इसका जवाब,

एक हँसी बन गयी उसकी आँखों का ख़्वाब,

उन सवालों के आगे मैं भी थी ला-जवाब,

उसके आगे ठहरने की न थी मुझमें ताब,

उससे नज़रें चुरा आगे मैं बढ़ गई,

ग़ुबार उड़ता रहा वो खड़ी रह गयी,

फ़िर सवालातों में वो बुनी रह गई,

वो ठगी सी खड़ी की खड़ी रह गयी,

दर्द की दास्ताँ अनसुनी ही रह गई

दर्द की दास्ताँ अनसुनी ही रह गई..!

                  

© डा. रेनू सिंह 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी – लघुकथा – पगडंडी)

☆ कथा कहानी ☆  लघुकथा – अनुगूँज ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में बतौर अंग्रेज़ी प्राध्यापिका श्रीमती साक्षी ने जैसे ही कार्यभार ग्रहण किया, स्टाफ़ सदस्यों के बीच रहस्यमय खुसर-पुसर शुरू हो गई। साक्षी ने कार्यभार संभालते ही विभाग के मुखिया से अपना टाइम टेबल मांँगा और घण्टे भर बाद वह कक्षा में थी।

“कमाल है, यह तो क्लास में गई!” एक प्राध्यापक ने कहा।

“आज ही आई है न, इंप्रेस करना चाहती है। दो-चार दिन में दिखाएगी अपना रंग। वो क्या कहते हैं, रंग लाती है हिना…” स्टाफ़ रूम में एक सामूहिक अट्टहास गूंँजा।

समय बीतता गया, साक्षी ने वैसा कोई रंग नहीं दिखाया, जैसी अपेक्षा की गई थी। उसके चेहरे पर उपायुक्त (कलेक्टर) की पत्नी होने का कोई दर्प नहीं दिखा, न व्यवहार में कोई ठसक। वह अपनी स्कूटी पर आती, नियमित रूप से कक्षाएंँ लेती, स्टाफ़ के सभी सदस्यों से सहज ढंग से बात करती और खूब खुलकर हंँसती। महीने भर में ही वह स्टाफ़ और विद्यार्थियों की सबसे आत्मीय पारिवारिक सदस्य हो गई। लगता था, जैसे बरसों से यहीं हो।

एक दिन वह छुट्टी के आवेदन के साथ प्राचार्य के सामने मौजूद थी। वहीं तीन-चार स्टाफ़ सदस्य भी बैठे हुए थे। प्राचार्य ने आवेदन पढ़कर कहा, “आपके मामा की बेटी की शादी है, उन्हें हम सब की ओर से शुभकामनाएंँ दीजिएगा।”

“जी ज़रूर, शुक्रिया।”

“मुझे एक बात समझ में नहीं आई मैम, सिर्फ़ आधे दिन की छुट्टी ले रही हैं आप? बहन की शादी है, खूब एन्जॉय कीजिए। कितने भी दिन लगें, छुट्टी के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं मैम!”

“वो कैसे सर?”

“आप मालिक हैं, जब जी चाहे आएंँ, जी न चाहे तो न आएंँ।”

“मालिक न मैं हूंँ, न आप सर। स्कूल के मालिक तो बच्चे हैं। हम सब उनके नौकर हैं, बेहद प्रतिष्ठित नौकर। और आधे दिन की छुट्टी इसलिए एप्लाई की है कि बच्चों की परीक्षा सिर पर है। उन्हें मेरी ज़रूरत है सर!”

प्राचार्य सकपका गए तो पास बैठे एक शिक्षक ने जैसे सफ़ाई सी देते हुए कहा, “सर का मतलब यह था मैम कि उपायुक्त तो ज़िले के मालिक ही होते हैं।”

“उपायुक्त भी नौकर ही होता है सर, मालिक तो जनता होती है।”

“आपके विचार बहुत अलग हैं मैम, पर पिछले उपायुक्त की पत्नी भी क़रीब साल भर तक इसी स्कूल में टीचर थीं। वे एक दिन भी स्कूल में नहीं आईं। स्कूल का क्लर्क दस-पन्द्रह दिन में एक बार उनकी कोठी में जाकर हाज़िरी लगवा आता था। इसीलिए सर कह रहे थे…”

“यह तो बहुत ग़लत है सर! हमें वेतन टीचर होने के नाते मिलता है या उपायुक्त की बीवी की हैसियत से? आपने उन्हें कभी सख़्ती से टोका क्यों नहीं सर?

“मैं क्या टोकता मैम। हैड ऑफिस से आने वाली टीम भी इग्नोर करती थी। दोएक बार मैंने उनसे कहा भी, पर उल्टे उन्होंने मुझे ही चुप रहने की हिदायत दे दी। ऐसे में…”

साक्षी कुछ समय तक चुप बनी रही, फिर कहा, “टीचर को समदर्शी और निष्पक्ष होना ही चाहिए सर। समाज में हमारी प्रतिष्ठा इन्हीं कारणों से होती है। किसी एक व्यक्ति को विशेषाधिकार देने के बाद किसी को कुछ कह पाने का नैतिक आधार हम खो देते हैं। ऐसे में बच्चों को ईमानदारी का पाठ हम कैसे पढ़ा सकते हैं? माफ़ कीजियेगा सर, मैं अगर आप की जगह होती तो उसे स्कूल आने के लिए बाध्य करती, फिर नतीजा चाहे जो होता।”

साक्षी चली गई थी। कई लोगों की मौजूदगी के बावजूद प्राचार्य कक्ष में सन्नाटा था। एक ख़ामोश अनुगूंँज कक्ष में लगातार बनी हुई थी- ‘फिर नतीजा चाहे जो होता…’

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – समग्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – समग्र ??

“चर और अचर के, जीव और जीवन के हर आयाम का समग्रता से प्राप्त अनुभव ही ज्ञान कहलाता है,” एक वक्ता ज्ञान को परिभाषित कर रहे थे।

मेरी आँखों के आगे तैरने लगे वे असंख्य चेहरे, जो नारी से परे रहकर जगत की दृष्टि में ज्ञान की पराकाष्ठा तक पहुँचे थे। विचार उठा, आधी दुनिया को तजकर अधूरी दुनिया से प्राप्त अनुभव समग्र कैसे हो सकता है?

जिन्हें आधी दुनिया कहते हैं, शेष आधी दुनिया भी उन्हीं की कोख से जन्म लेती है।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।🍁

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना आज गुरुवार दि. 9 मार्च से आरम्भ होगी। यह श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च को विराम लेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 139 ☆ जन जागरूकता बढ़ती रहे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जन जागरूकता बढ़ती रहे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 139 ☆

☆ जन जागरूकता बढ़ती रहे  ☆

न नुकुर करते पूरा समय बीतता जा रहा है किन्तु वे टस से मस न हुए, ऐसा किसी व्यक्ति के साथ नहीं बल्कि पूरी उस सामाजिक सोच  के साथ है, जो समय के साथ बदलना ही नहीं चाहती। बस एक जैसा जीवन व्यतीत करते हुए पूरी उम्र बीती जा रही है। जिन मुद्दों को स्वतंत्रता के पूर्व उठाया गया था वही आज भी चले आ रहे हैं। जनता नए विचारों को आत्मसात करती जा रही है, किन्तु कुछ दल आज भी वही पुराना घोषणा पत्र, वही घिसे पिटे तर्क। अब कौन उन्हें समझाए कि  आज हम लोग डिजिटल हो चुके हैं सब कुछ गूगल से सर्च करके ही प्रत्याशी का चयन करते हैं। विभिन्न दलों के प्रवक्ता अपने दलों के समर्थन में जो तर्क देते हैं उन्हें सत्यता की कसौटी में परख कर ही चयन करते हैं। पहले कहा जाता था कि नेता पाँच साल में एक बार मुँह दिखाते हैं किन्तु अब ऐसा नहीं रहा, आगामी चुनावों की तैयारी में पूरा शीर्ष नेतृत्व 24×7, 365 दिन लगा रहता है। अब सबको समझ में आ गया है कि एक- एक पल का हिसाब  जनता  रखती है।

सच्चे मायनों में यही श्रेष्ठ लोकतंत्र का लक्षण है। लोक का ध्यान रखने वाली सरकार ही चुनी जाएगी। लोगों के मन से भय चला जाए, वे निर्भीक होकर  अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकें। सबको समान मौलिक अधिकार मिलें, सभी शिक्षित हों।

अब हम लोग अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अपनी वैचारिक सोच को रख कर निर्णय लेने लगें हैं। वैसे भी सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुंबकम, तमसो मा ज्योतिर्गमय हमारी परंपरा का हिस्सा रहे हैं और रहेंगे भी। तो आइए सद्विचारों के पोषक बनें और सही निर्णय लेने की ओर सदैव अग्रसर रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 199 ☆ व्यंग्य – घोस्ट राइटिंग और प्रचुर लेखन — ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   व्यंग्य  – घोस्ट राइटिंग और प्रचुर लेखन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 199 ☆  

? व्यंग्य – घोस्ट राइटिंग और प्रचुर लेखन – ?

विश्व पुस्तक मेले का हाल नंबर 2 हिंदी प्रकाशकों के स्टॉल्स से भरा हुआ है। प्रत्येक प्रकाशक के पास कविता के बाद संभवतः व्यंग्य की ही सर्वाधिक पुस्तकें हों, संकलन या व्यक्तिगत किताबें खूब छप रही हैं। आई एस बी एन सहित और बिना इसके भी। अनेक ओहदों वाले जिनके पास समय ही नहीं, वे भी रातों रात बड़े लेखक बने दिखते हैं।

मेरे पास एक प्रकाशक का प्रस्ताव आया था की मैं कोई सौ पृष्ठ व्यंग्य भेज दूं और राशि ले लूं, घोस्ट राइटर के रूप में। अर्थात व्यंग्यकार के रूप में खुद को स्थापित करने की चाहत रखने वाले हैं, जो बडी राशि देकर घोस्ट राईटिंग खरीद रहे हैं।  ठीक हो सकता है कि ऐसा लेखन जो महज रुपयों या नाम हेतु हो साहित्य  की शास्त्रीयता को नुकसान पहुंचा सकता है।

अन्यथा किसी भी विधा की लोकप्रियता उसे बढ़ाती ही है नुकसान नहीं पहुंचाती।

क्रिकेट का उदाहरण सर्वाधिक सरल है उसकी बढ़ती लोकप्रियता ने नए फार्मेट लाए, खिलाड़ियों को शोहरत और रुपए दिलवाए, किंतु क्रिकेट तो क्रिकेट ही है उसे नुकसान नहीं पहुंचा। टेस्ट मैच की शास्त्रीयता अपनी जगह है ही। इसी तरह साहित्य यदि मौलिक है तो जितना अधिक लिखा जाए, बेहतर ही  होगा।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 150 ☆ बाल कविता – गुड़िया रानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 150 ☆

☆ बाल कविता – गुड़िया रानी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

गुड़िया रानी समझदार हैं

     भोली- भाली पर हैं छोटी।

 

बहुत देर में भोजन करतीं

      थोड़ा खातीं फल औ’ रोटी।।

 

स्वयं कभी ना भोजन खाएँ।

      बाबा, दादी उन्हें खिलाएँ।

 

जॉब करें मम्मी औ’ पापा।

     लेकिन जल्दी खोएँ आपा।।

 

अक्सर होती है तकरार।

     गुड़िया का दोनों से प्यार।।

 

गुड़िया माँ- पापा से बोली।

     बातों में मिसरी – सी घोली।।

 

नहीं सुहाए मुझको झगड़ा।

   मैं डर जाती जब हो तगड़ा।।

 

कोमल मन है मेरा समझो।

     खुशियों को बाँटों ना गम दो।।

 

 समझ गए गुड़िया की बात।

      कटें प्रेम से दिन औ’ रात।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एक झाड गुलमोहोराचं ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ एक झाड गुलमोहोराचं ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित 

गुलमोहोराचं एक झाड असतं प्रत्येकाच्या घरात

आपण मात्र शोधत बसतो जाऊन दूर रानावनात

पहाल तेव्हा डवरलेली ,  चैतन्याने बहरलेली

सकाळपासून रात्री पर्यंत कायम असते फुललेली

वाढतो आपण तिच्याच सावलीत गोळा करत पाकळ्या

ती नेहमीच जपत असते फुलं आणि कळ्या

सारं कसं निसर्गाच्या नियमानुसार चाललेलं

मी नाही पाहिलं कधी गुलमोहोराला वठलेलं

दिसताच क्षणी तिच्याकडे आम्ही जातो आपोआप

आपण कसेही वागलो तरी तिच्या मनात नसते पाप.

© सुहास रघुनाथ पंडित 

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ बरोबरी नको… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ बरोबरी नको… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

तू कोणाशी बरोबरी करु नकोस,

तू सदैव एक पाऊल पुढे आहेस..!

 

तू जन्मदात्री, तू संगोपन करणारी

तू शेतीचा शोध लावणारी

त्यागाची परिभाषा तू

सती जाणारी ही तूच

युद्धापेक्षा बुद्ध मानणारी तू

तू कोणाशी बरोबरी करु नको,

तू सदैव एक पाऊल पुढे आहेस..!

 

तू जिजाऊ, तू सावित्री

तू झाशीची राणी, तू रणरागीणी

तू इंदिरा, तू कल्पना चावला,

अनेक रुपात, अनेक क्षेत्रात

पाय रोवून उभी आहेस तू,

तू कोणाशी बरोबरी करु नको,

तू सदैव एक पाऊल पुढे आहेस..!

 

तू सुंदर आहेस, कर्तृत्वान आहेस

चेहऱ्याला लेप लावून सजवू नकोस

तू नितळ, निर्मळ, प्रेमळ, आहेस

तू निधर्मी व विज्ञानवादी हो

तू दैववादात अडकू नकोस,

प्रयत्नवाद कधी सोडू नकोस

तूच कुटुंबाचा गाभा आहेस..

तू कोणाशी बरोबरी करु नको,

तू सदैव एक पाऊल पुढे आहेस..!

 

तुला कुणी विकू नये.

तुला कुणी विकत घेऊ नये..

अशी आईच्या हृदयाची माणसं

तूच घडवू शकतेस..

बलात्कार, अन्याय, अत्याचार तू

स्वतःच थांबवू शकतेस…

तू सर्व सामर्थ्याने पेटून उठू शकतेस

तू कोणाशी बरोबरी करु नको,

तू सदैव एक पाऊल पुढे आहेस..!

 

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #151 ☆ नरहरी दास…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 151 ☆ नरहरी दास…! ☆ श्री सुजित कदम

विश्व कर्मा ब्राह्मणात

जन्मा आले नरहरी

वंश परंपरा थोर

श्रद्धा भक्ती परोपरी..! १

 

कर्ते मुरारी अच्युत    

आणि कृष्णदास हरी

पणजोबा आजोबांची

कृपादृष्टी सर्वांवरी…..! २

 

सोनाराच्या व्ववसायी

पारंगत नरहरी

मुळ नाव महामुनी

शैव उपासना करी….! ३

 

संत नरहरी यांसी

जाहलासे साक्षात्कार

शिव विठ्ठल एकच

ईशकृपा चमत्कार….! ४

 

पांडुरंग परमात्मा

तोच शिव भगवान

नरहरी सोनारांस

प्राप्त झाले दिव्य ज्ञान. ५

 

शैव वैष्णवांचा  त्यांनी

दूर केला विसंवाद

अध्यात्मिक अभंगाने

नित्य साधला संवाद .. !  ६

 

शतकात  चौदाव्या त्या

शिवभक्ती आचरीली

संसारीक कार्य सिद्धी

सदाचारे स्विकारीली…! ७

 

उदावंत कुलातील 

शिवभक्त चराचरी

संकीर्तनी असे दंग

अहोरात्र नरहरी…! ८

 

असे कुशल सोनार        

 निर्मीतसे अलंकार

हरी आणि हर दोघे

परब्रम्ह अवतार….! ९

 

शिव पिंडीमध्ये पाही

विठ्ठलाचे निजरुप

वैष्णवांचा दास सांगे

हरीहर एकरुप…! १०

 

एका सोनसाखळीने

घडविला चमत्कार

पाही रूप नरहरी

शिव पांडुरंगा कार…! ११

 

समरसतेचा पंथ

नाही मनी कामक्रोध

केला प्रचार प्रसार

भक्ती मार्ग नितीबोध…! १२

 

केली प्रपंचात भक्ती

अक्षरांत विठू माया

अभंगात गुंफीयली

दैवी हरीहर छाया…! १३

 

ज्ञानयोगी कर्मयोगी

नऊ दशके प्रवास

सुवर्णाचे अलंकार

अनुभवी शब्द खास…! १४

 

माघ कृष्ण तृतीयेला

पुण्यतिथी महोत्सव

हरिऐक्य दिन जगी

सौख्य शांतीचा उत्सव…! १५

 

पंढरीत महाद्वारी

समाधिस्थ नरहरी

नोंद भक्ती भावनांची

अभंगात दिगंतरी…! १६

 

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘स्त्री’ला धैर्यमूर्ती मानणारे तात्या !’ ☆ श्री पार्थ बावीसकर ☆

?  विविधा ?

☆ ‘स्त्री’ला धैर्यमूर्ती मानणारे तात्या !’ ☆ श्री पार्थ बावीसकर ☆

(आजची स्त्री कशी असावी ? याबद्दल सावरकरांच्या दृष्टीकोनातून हिंदुस्थान पोस्टला लिहिलेला लेख !)

….विनायकाची आई तो लहान असतानाच देवाघरी गेली, आईनंतर आईच्याच मायेने येसूवाहिनीने त्यांच्यावर प्रेम केलं, सावरकर कुटुंब एकत्र होऊन वाढलं, आणि देशासाठी लढलं सुद्धा ! विनायकराव परदेशात असतांना इकडे भारतात त्यांच्या दोन्ही बंधूंना अटक झाली, घरावर जप्ती आली आणि सावरकर कुटुंबातील दोन्ही स्त्रिया उघड्यावर पडल्या…अशा अवस्थेत आपल्या परमप्रिय वहिनीला लिहिलेल्या पत्रात विनायकराव म्हणतात,

तू धैर्याची अससी मूर्ती | माझे वहिनी, माझे स्फूर्ती

रामसेवाव्रतांची पूर्ती | ब्रीद तुझे आधीच

“सांत्वन” नावाचं हे सावरकरी काव्य ! इतकी उलथापालथ घडूनही, आभालाहून मोठं संकट येऊनही आपली वहिनी, आपली बायको, खंबीरपणे सगळ्यावर मात करेल हा त्या स्त्रीवर दाखवलेला विश्वास, विनायकरावांचा एक निराळा पैलू आपल्यासमोर आणतो. पुरुष संकटात असला तर स्त्रीने पुढे होऊन पुरुषालाही बळ द्यावे आणि स्वत: जबाबदारीने संकटाशी सामना करावा असेच तात्या सुचवतात, होय ना !

विनायक जिथे वाढला तो भाग आणि तो काळ एका संकुचित, रूढीग्रस्त मानसिकतेत जगणारा. रांधण्यात आणि वाढण्यात जन्म घालवावा बायकांनी, बाकी रमूच नये कशात अशीच तेंव्हाची रीत. पण चूल आणि मुल वाट्याला येण्याआधीच ज्यांच्या आयुष्यातील सुखाचे क्षण दुर्दैवाने ओढून नेले अशांचे अभाग्यांचे काय ? अशांच्या भाळी लिहिल्या होत्या अबोल यातना फक्त ! या निष्पाप स्त्रियांच्या वेदनांना शब्दरूप दिलय विनायकाने. बालविधवांचे दु;खस्थिती कथन हे विनयकाचे काव्य अशा अनेक मूक प्रश्नांना वाचा फोडणारे आहे. “ही विवाहव्यवस्था आहे ही वैधव्यव्यवस्था” असा करडा सवाल विनायकराव करतात तो उगाच नाही, स्त्रीने सती जाणे हे धर्माला मान्य नाहीच शिवाय ते माणुसकीलाही लाज आणणारे आहे असं विनायकराव सप्रमाण पटवून देतात हे विशेष !

गुलामगिरी मान्यच नव्हती तात्यांना ! माझी भारतमाता जशी पारतंत्र्यात राहू नये, तिची गुलामगिरी संपावी तशीच आजची स्त्रीसुद्धा मुक्त व्हावी, मुक्तपणे तिने करावा संचार या मताचे होते तात्या ! “राज्याची सूत्र हातीघे तो तो पुरुष थोर आहेच, पण पाळण्याची दोरी जीच्या हाती ती स्त्री काही कमी थोर नव्हे !’’ असं म्हणत सहजीवनाचा केवढा आदर्श सांगितलाय तात्यांनी !

“स्त्रीने तेवढे लग्न होईतो अखंड कौमार्य असले पाहिजे, पुरुषाने कसेही असले तरी हरकत नाही ही जुनाट नितीमत्ता पक्षपाती नि टाकाऊ आहे” हे तात्यांचे वाक्य वाचले की वाटते हा माणूस वैचारिक दृष्ट्‍या सगळ्या समकालीन नेत्यांच्या किती पुढे गेला असेल, किती प्रगल्भ असेल.

हा माणूस सौंदर्याचा उपासक होता. जे जे उत्तम उदात्त उन्नत्त महन्मधुर त्याचा ध्यास घेतलेला होता. जीवनात कुठल्याही बाबतीत कुरूपता याला नकोच होती. आपल्या दूरस्थ वहिनी आणि पत्नीला “नवकुसुमयुता” असं लोभसपणाने म्हणणारे विनायकराव समस्त स्त्रीवर्गाला  सांगतात…“…लावण्यवती कुमारीनो, जननिंनो, तुम्हाला जन्मतःच निसर्गाने दिलेल्या ह्या दैवी देणगीला, तुमच्या सौंदर्याला आपल्या पूर्वपुण्याईचं वरदान माना आणि ते सौंदर्य जपा ! हल्लीच्या आधुनिक काळात, सौंदर्य प्रसाधने वापरा, खुलून दिसा !” …विनायकराव हा विचार अशा काळात सांगत होते जिथे त्यांचे हे शब्द ऐकून बायका गालातल्या गालात, खुदकन् हसून लाजेने चूर होण्याचीच शक्यताच जास्त होती, पण आजच्या बायका तात्यांचा हा सल्ला खुबीने राखताहेत खऱ्या…!

एके ठिकाणी मॅझिनीच्या विचाराचा संदर्भ देतांना विनायकराव म्हणालेत, “पुढील शतकात स्त्रीजाती आपले राजकीय हक्क स्थापित केल्यावाचून राहणार नाहीत.” हा विचार देऊन आताशा पन्नास वर्ष उलटूनही गेली असावीत. तात्यांच्या कल्पनेतली शिक्षित आणि स्वतःच्या पायावर उभी राहिलेली स्त्री निर्माण होतांना फार वर्ष लागलेले नाहीत. अवघ्या एका शतकाच्या आत त्यांचे शब्द खरे ठरलेत. आज घराघरात, आणि घराबाहेरही, पुरुषाच्या खांद्याला खांदा लावून बाई मोठ्या अभिमानाने उभी आहे, संकटे झेलते आहे, वादळ पेलते आहे, आणि लढते आहे.

तिच्या प्रत्येक भरारीसोबत एक नवं आव्हान तिच्यासमोर उभ आहे. बलात्कार, जाळपोळ, मारहाण, हिंसाचार ह्या दृश्य घटना झाल्या, पण अश्या कित्येक अदृश्य घटना अजून समोर आलेल्यासुधा नाहीत. या मुक्या वेदना समोर येतील तेंव्हा काय होईल ? कोणते नवे प्रश्न उभे रहातील ? यापैकी अगदी सगळ्याच नाही पण यातल्या काही प्रश्नांची उत्तरे या “सावरकरी” विचारातून मिळोत, अशी अशा करायला काय हरकत आहे !

© श्री पार्थ बावसकर

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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