हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 136 – “उलझ गई संध्या फिर…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  उलझ गई संध्या फिर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 136 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

उलझ गई संध्या फिर ☆

खेत गुनगुनाते हैं सटे हुये

गैल के

टिप्पणियाँ व विचार

सुनते अप्रैल के

 

पलपल हैं बाँट रहे

सुषमा भिनसार से

फसल कटी, दिखे ठूँठ

बासी अखवार से

 

रोचक हैं सब पदान्त

मुस्काते छन्दों के

बजती हैं  घंटियाँ

गले बँधी बैल के

 

बहुत सरसराहट है हवा

की तरोताजा

भूल गये आज कहीं

यही गली महाराजा

 

समय के चितेरे कुछ

उड़े फड़फड़ा पाँखें

लौट नहीं पाया सच

उनकी खपरैल से

 

छाती में इंतजार का

छँटना तय लेकर

देहरी की ओट चमक

जाते हैं नथ बेसर

 

दुलहिने दिशाओं की

दबे छिपे बतियातीं

उलझ गई संध्या फिर

बालों में छैल के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

29-04-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सूत्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सूत्र ??

झूठ की नींव पर

सच की मीनार खड़ी नहीं होती,

छोटे मन से कोई यात्रा

कभी बड़ी नहीं होती..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना 🕉️

अवधि – 6 अप्रैल 2023 से 19 मई 2023 तक।

💥 इस साधना में हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ प्रेम गली अति सांकरी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “प्रेम गली अति सांकरी”।)  

? अभी अभी ⇒ प्रेम गली अति सांकरी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या प्रेम का राजमार्ग भी होता है ! क्या हम ऐसा नहीं कर सकते,राजमार्ग पर प्रेम करें,और पतली गली से निकल जाएं।

दिल के बारे में खूब बढ़ा चढ़ाकर कहा जाता है,;

बंदा परवर, थाम लो जिगर

बन के प्यार फिर आया हूं।

खिदमत में, आपकी हुज़ूर

फिर वही दिल लाया हूं।।

प्रेम दिल से किया जाता है,या मन से,इसमें थोड़ी उलझन हो सकती है,मतांतर भी हो सकता है लेकिन दिल का क्या है,आज इसे दिया,कल उसे दिया। कभी टूट गया,कभी तोड़ा गया। हर बार इसे फिर जोड़ा गया। लेकिन मन में तो बस एक ही छवि बसी रहती है ;

तुम्हीं मेरे मंदिर तुम्हीं मेरी पूजा

तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो।।

हम आज दिल की नहीं,सिर्फ मन की बातें करेंगे। उस मन की बात,जिसमें सिर्फ प्रेम का वास है। मन से प्रेम,सड़कों पर नहीं होता, कुंज गलियों में ही होता है। अब यह भी क्या बात हुई ;

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा

उस गली से हमें तो गुजरना नहीं

मीराबाई को तो गलियन में गिरधारी ही नजर आते थे,इसलिए वह लाज के मारे छिप जाती थी। और जब दुनिया उनके और कृष्ण प्रेम के बीच आती थी तो वे निराश होकर कह उठती थी ;

गली तो चारों बंद हुई

मैं हरि से मिलने कैसे जाऊं।।

गोपियों का प्रेम भी अजीब था। उन्होंने अपने कन्हैया को मन में बसा लिया था और दिन रात बस कृष्ण की माला जपा करती थी। कृष्ण निष्ठुर थे,फिर भी गोपियों का हाल जानते थे। जो ज्ञान उन्होंने कालांतर में अर्जुन को दिया,वहीं ज्ञान गोपियों को देने के लिए अपने ज्ञानी मित्र उद्धव को गोपियों के पास बृज में भेज ही दिया।

ज्ञानी उद्धव गोपियों को ज्ञान की महिमा बता रहे हैं,कर्म की महत्ता गिना रहे हैं, और गोपियां एक ही बात पर अड़ी हुई हैं, उधो, मन न भए दस बीस। केवल   एक ही था,जो तुम्हारा श्याम सुंदर चुराकर ले गया। चोरी और सीना जोरी। और तुम हमें निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान बांटने चले आए।

तुम्हें लाज नहीं आती।।

बेचारे उद्धव की हालत तो उद्धव ठाकरे से भी अधिक गई गुजरी हो गई। वे बेचारे निर्गुण ब्रह्म को टॉप गियर में ले जाएं,उसके पहले ही गोपियां उन पर चढ़ाई कर देती हैं। तुम्हारा ज्ञान का रास्ता हमारे पल्ले नहीं पड़ता। उद्धव ! क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि प्रेम की गली इतनी संकरी होती है कि इसमें कोई दूसरा समा ही नहीं सकता। जहां कृष्ण के प्रति प्रेम है,वहां तुम कितने भी ज्ञान और वैराग्य के डंके बजाओ,तुम्हें no entry का बोर्ड ही लगा मिलेगा। निर्गुण ब्रह्म के लिए प्रवेश निषेध। यह गली अत्यधिक संकरी है। इसलिए अपना ज्ञान का टोकरा वापस ले जाओ,और श्री कृष्ण से जाकर कह दो ;

तुम हमें भूल भी जाओ

तो ये हक है तुमको

हमारी बात और है कृष्ण !

हमने तो बस तुमसे,

निष्काम प्रेम किया है।।

इस संसार में हम अपने प्रिय परिजनों को दिल से प्यार करते हैं। कोई भी छोटा बच्चा नजर आता है,उसे उठाकर सीने से लगा लेने का मन करता है। प्यार बांटने की चीज है। लेकिन यह भी सच है कि प्रेम की एक पतली गली भी है हमारे मन में,जिसमें केवल एक ही समा सकता है।  आपके मन में कौन है,आप जानें,हमने तो बस उस गली का नाम प्रेम गली रखा है।

वह एकांगी है और वह रास्ता केवल उस निर्गुण निराकार ब्रह्म के पास जाता है,जिसे गोपियां कृष्ण प्रेम कहती हैं। प्रेम में भेद बुद्धि नहीं रहती। जग में सुंदर हैं दो नाम चाहे कृष्ण कहो या राम।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “नासै रोग हरे सब पीरा” का बागेश्वर धाम संत पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी महाराज द्वारा लोकार्पित” ☆ ज्योतिषी पं. अनिल पाण्डेय ☆

💐 “नासै रोग हरे सब पीरा” का बागेश्वर धाम संत पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी महाराज द्वारा लोकार्पित” 💐 ज्योतिषी पं. अनिल कुमार पाण्डेय ☆

ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान आसरा ज्योतिष के संस्थापक पं. अनिल कुमार पाण्डेय जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘नासै रोग हरे सब पीरा’ का बागेश्वर धाम संत पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी महाराज द्वारा दिनांक 28 अप्रैल 2023 को रात्रि 8 बजे सागर मध्य प्रदेश में एक भव्य कार्यक्रम में लोकार्पण हुआ।

ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय

पं.श्री अनिल पाण्डेय जी ने सर्वाधिक नवीन दृष्टि से विभिन्न ग्रंथो के संदर्भ तथा उद्धरण देते हुये गोस्वामी तुलसी रचित श्री हनुमान चालीसा के शब्द शब्द की समीचीन व्याख्या की है। संयोग से ई-अभिव्यक्ति द्वारा इस पुस्तक को श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित किया गया था जिसे प्रबुद्ध पाठकों का भरपूर स्नेह व प्रतिसाद प्राप्त हुआ।  

ई-अभिव्यक्ति परिवार द्वारा ज्योतिषाचार्य पं अनिल कुमार पाण्डेय जी को  ‘नासै रोग हरे सब पीरा’ की सफलता के लिए मंगलकामनाएं 💐

“नासै रोग हरे सब पीरा” पर श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के विचार — 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

☆ पुस्तक चर्चा ☆  कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसे नहीं जात है टारो.. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

रामचरित मानस के सुन्दर काण्ड के महा नायक भगवान हनुमान से गोस्वामी तुलसीदास कहलवाते हैं-

‘प्रात लेहि जो नाम हमारा-तेहि दिन ताहि न मिले अहारा’,

यह श्री हनुमत चरित्र में विनम्रता की पराकाष्ठा है. विश्व भर में जहां भी हिन्दू धर्म के मतावलंबी हैं, वे दिलों में भगवान श्री हनुमान जी को संकट मोचक के रूप में स्मरण करते विद्यमान बनाये रखते हैं. हमारी अवधारणा के अनुसार श्री हनुमान जी सदा जीवंत हैं. जहां कहीं श्री रामकथा होती है, भगवान हनुमान वहां पहुंच जाते हैं, एक भक्त की तरह. वे स्वयं अपनी भक्ति की जगह अपने आराध्य प्रभु श्रीराम और माता सीता की भक्ति करने वालों पर प्रसन्न हो जाते हैं. भगवान हनुमान अपने अनुयायियों का कोई अलग वर्ग नहीं बनाते, वरन वे अपने भक्तों सहित अपने स्वामी श्रीराम की भक्ति में निमग्न रहते हैं। स्वामी- सेवक की ऐसी अनूठी मिसाल विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है. गोस्वामी तुलसी दास, श्री हनुमत चरित्र के माध्यम से ‘स्वामी- ‘सेवक’ संबंधों की यह गहन मीमांसा कर, हमें निरभिमान, विनम्र सेवा भाव की शिक्षा देते हैं. हनुमत कृपा को निराभिमानी सच्चे भक्त हमेशा से अनुभव करते रहे हैं, यही कारण है कि जगह जगह विशाल, भव्य, महाकाय हनुमत मूर्तियों की स्थापना होती जा रही हैं और हनुमान भक्तों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है.

भगवान विष्णु के ही कृष्णावतार में श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत अपनी अंगुली पर उठा लिया था, और ‘गिरिधारी’ नाम से हम भगवान का जप करते हैं किन्तु विनम्र सेवा भावी श्री हनुमंत चरित्र में हम पाते हैं कि भगवान राम के परम सेवक श्री हनुमान, शेषावतार श्री लक्ष्मण को शक्ति लगने पर उनके उपचार हेतु रात्रि के अल्प समय में संजीवनी पर्वत को न केवल धारण करते हैं वरन उसे उठाकर, उड़ाकर ले आते हैं किन्तु कोई उन्हें ‘गिरिधारी’ नहीं कहता. वे संकटमोचक के रूप में जाने जाते हैं. क्योंकि भगवान सबके संकट निवारण करते हैं किन्तु स्वयं भगवान पर आये संकट का निवारण करने का श्रेय श्री हनुमान जी को है.

भगवान हनुमान वीरता के पर्याय हैं। वे अकेले ही लंका में घुसकर रावण की सभा में अपनी प्रभुता स्थापित करने में सक्षम हैं. वे लंका दहन कर सकते हैं, वे अक्षय कुमार का भी क्षय अर्थात वध करते हैं.  वे सबके बड़े से बड़े संकट क्षण में दूर कर देते हैं किन्तु वे ही हनुमान जी स्वयं भगवान राम और मां भगवती जानकी के सम्मुख एक ऐसे भोले भाले वानर के रूप में प्रतिष्ठित होने में ही प्रसन्नता अनुभव करते हैं जो अपने सारे शरीर पर केवल इसलिये सिंदूर मल लेते हैं, क्योंकि मां जानकी भगवान राम के लिये अपनी मांग में सिंदूर भरती हैं. श्री हनुमान मोती की माला के हर मोती को तोड़कर देखना चाहते हैं कि उसमें भगवान राम, उनके स्वामी की छवि है या नहीं क्योंकि वे स्वयं तो ‘हृदय राखि कौशल पुर राजा के विनम्र भाव से ही ‘प्रबिसि नगर कीजै सब काजा’, करने में भरोसा रखते हैं.

गीता में भगवान यही तो उपदेश देते हैं तुम सब कुछ मुझे समर्पित कर तटस्थ भाव से कार्य करो फिर मैं तुम्हारे समस्त कार्य कर दूंगा. इस तरह ‘हनुमान चरित्र’, गीता ज्ञान को आत्मसात करने का सबसे बड़ा उदाहरण है. 

वीरता में ही नहीं, कूटनीति, मंत्रणा, सही सलाह और मार्गदर्शन देने में भी प्रभु श्री हनुमान का चरित्र अति विलक्षण है। सुग्रीव जब वर्षा ऋतु बीत जाने पर भी श्री राम की सीता जी की खोज में सहायता करने की बात भूल रहे थे, तब उसे हनुमान जी ही सही समय पर सही मित्रवत सलाह देते हैं और सुग्रीव भगवान श्री राम के साथ हो लेता है.  विभीषण को भगवान श्रीराम की शरणागति में लाने की कूटनीति और विभीषण को प्रेरणा हनुमंत चरित्र की विशेषता है.

श्री हनुमान सर्वमुखी प्रतिभा संपन्न हैं, क्योंकि उनके साथ स्वयं प्रभु श्रीराम हैं.  वे संजीवनी लाते हुये भरत से तार्किक संवाद करने की प्रतिभा रखते हैं. वे लंका की राजसभा में अकेले ही प्रभु श्री राम का नाम गुंजायमान करने का साहस, तर्क और प्रतिभा रखते हैं. लेकिन वे ही हनुमान जी अपने स्वामी श्री राम के सम्मुख जमीन पर आसन ग्रहण करते हैं.  वे प्रभु के सोते-जागते पल-पल उनके साथ  समर्पित सेवा भावना से सजग रहते हैं.

रामचरित मानस में वर्णित चरित्र के आधार पर  हनुमान जी की भगवान श्रीराम जी से भेंट तब हुई, जब प्रभु सीता माता की खोज में वन वन भटक रहे थे,  अपनी विनम्र सेवा एवं सर्वोन्मुखी प्रतिभा तथा वीरता से जल्दी ही हनुमान जी न केवल श्री राम के वरन मां सीता के भी अतिप्रिय बन गये और श्रीराम पंचायतन में प्रभु श्री राम के परिवार का हिस्सा ही बन गये. भगवान हनुमान के बिना श्रीराम चरित और चित्र अधूरा सा लगता है.

ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान आसरा ज्योतिष के संस्थापक पं. अनिल पाण्डेय जी विद्युत मण्डल के सेवाकाल में मेरे वरिष्ठ रहे हैं. वे परम हनुमत भक्त हैं. मुझे स्मरण है कि जो भी उनसे किसी कार्यवश मिलता था तो वे पर्स में रखा जा सकने योग्य श्री हनुमान चालीसा उसे भेंट करते थे. उन्होने न जाने कितनी प्रतियां हनुमान चालीसा इस तरह बांटी हैं.  आज कोई हनुमान चालीसा की व्याख्या मैनेजमेंट के नये सिद्धांतो के अनुरूप कर रहा है तो कोई इसमें जीवन मंत्र ढ़ूंढ़ रहा है. किन्तु विश्व भ्रमण कर चुके, अपनी शासकीय सेवा में भांति भाति के व्यापक अनुभव कर चुके पं.श्री अनिल पाण्डेय ने एक सर्वाधिक नवीन दृष्टि से विभिन्न ग्रंथो के संदर्भ तथा उद्धरण देते हुये गोस्वामी तुलसी रचित श्री हनुमान चालीसा के शब्द शब्द की समीचीन व्याख्या की है, जो पुस्तकाकार प्रकाशित हो गई है, यह उन पर श्री हनुमत कृपा ही है. मेरी अनंत स्वस्ति कामनायें सदैव इस किताब के पाठको, प्रकाशक और लेखक पं अनिल पाण्डेय जी के साथ हैं.

ओम श्री हनुमते नमः.

पुस्तक चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी, भोपाल ४६२०२३

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 186 ☆ “खामोशी की आवाज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – खामोशी की आवाज”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 186 ☆ “खामोशी की आवाज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

चूहा – प्रिये, देख लिया न मेरा जलवा,मेरे जीते-जी किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई मेरे बिल में हाथ डाले, एक मेहमान आये थे तो कुछ बिल्ले चिल्ला रहे थे कि इस चूहे के बिल को हेडक्वार्टर बनाने की घोषणा कर दो, यहां ‘जे’ कर दो यहां ‘वो’ कर दो। प्रिये, तुम देख तो रही हो, बहुत आये और गए, हम अपने बिल के क्षेत्र को सबसे पिछड़ा क्षेत्र बनाना चाहते हैं, जहां कोई घुस न सके, विकास से कोसों दूर रखना चाहते हैं, ताकि लोग हजारों साल बाद भी याद रखेंगे कि चूहों को ऐसा भी सरदार मिला था, जो सबको खामोशी से कुतर देता था। भूल जाओ विकास। विकास का मतलब जानते नहीं और विकास -विकास का पहाड़ा पढ़ते हो।

चुहिया – मुझे प्रिये मत बोलना समझे। तुमने हम लोगों को ठगा है जीवन भर से तुम जिस थाली में खाते रहे उसी में छेद करते रहे, क्रीम लगाकर गोरे बनने का कितना भी प्रयास करो मन काला है तुम्हारा। हमारी खामोशी का मजाक मत उड़ाओ…

‘कभी-कभी खामोशी की आवाज

खंजर से भी खतरनाक होती है..!’

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्रमिकों की वंदना” ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

“श्रमिकों की वंदना☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

मजदूरों का नित है वंदन, जिनसे उजियारा है।

श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।।

खेत और खलिहानों में जो, राष्ट्रप्रगति- वाहक हैं।

अन्न उगाते,स्वेद बहाते, सचमुच फलदायक हैं।।

श्रम के आगे सभी पराजित, श्रम का जयकारा है।

श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।।

सड़कों,पाँतों,जलयानों को, जिन ने नित्य सँवारा ।

यंत्रों के आधार बने जो, हर बाधा को मारा ।।

संघर्षों की आँधी खेले, साहस भी वारा है।

श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।।

ऊँचे भवनों की नींवें जो, उत्पादन जिनसे है।

हर गाड़ी,मोबाइल में जो, अभिनंदन जिनसे है।।

स्वेद बहा,लाता खुशहाली, श्रमसीकर प्यारा है।

श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।।

गर्मी,सर्दी,बरसातों में, श्रम करने की लगन लिए।

करना है नित कर्म, यही मन में है अपने अगन लिए।।

श्रम से ही सब कुछ संवरेगा, एक यही बस नारा है।

श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 127 ☆ # तुम्हारे बिना… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# तुम्हारे बिना… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 127 ☆

☆ # तुम्हारे बिना… # ☆ 

तुम्हारे बिना

कल भी जी रहा था मैं

आज भी जी रहा हूँ

और कल भी जीऊँगा

तुम्हारे विरूद्ध

कभी कुछ नहीं कहा है

आज और कल भी

कुछ नहीं कहूँगा

 

तुमने जो हंसते हंसते

जख्म दिए हैं

उन्हें आज और कल भी

हँसते हँसते सहूँगा

तुमने मझधार में

छोड़ दिया था

रिश्ता तोड़ दिया था

उसे आज और कल भी

तुम्हारी सौगात समझ

बस मैं चुप चाप रहूँगा

 

तुमने जो गुलाब का

पौधा लगाया था

वो अब वृक्ष बन गया है

फूल और कांटे साथ साथ है

वो हर पल तुम्हें ढूंढता है

उसके साथ मैं भी

आज और कल भी

तुम्हें ढूँढता रहूँगा  

 

तुम्हारी यादें

जो मेरे हृदय में

रोम रोम में बसी है

उन्हें आंसूओं में बहाकर

आज और कल भी

मैं सदा यूं  ही बहूँगा

 

तुमने जो प्रेम रस पिलाया है

कुछ पल मदहोशी में जिलाया है

उसे अपना भाग्य मानकर

आज और कल भी

हर प्यास के साथ पीऊँगा  

 

तुम्हारे बिना

तब भी जी रहा था मैं

आज भी जी रहा हूँ

और कल भी जीऊँगा   /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माणूस ती… ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

माणूस ती..! ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

ना गंगा भागिरथी। ना सौभाग्यवती 

स्वतंत्र, सक्षम व्यक्ती । माणूस ती ।

 

लक्ष्मी ना सरस्वती । ना अन्नपूर्णा, 

सावित्रीची लेक । माणूस ती ।

 

गृहिणी, नोकरीधारी । कुटुंब असेल

वा असेल एकटी । माणूस ती ।

 

शिक्षित,अशिक्षित । गरीब, श्रीमंत 

सशक्त वा दुर्बल । माणूस ती ।

 

दुर्गा,अंबिका । कालिका, चंडिका

देव्हारा नको । माणूस ती ।

 

प्रजननक्षम तरी । नाकारेल आईपण

निष्फळ वा ट्रान्सजेन्डर। माणूस ती !

 

काळी वा गोरी । कुरूप वा सुंदरी

विदुषी वा कर्तृत्ववान । माणूस ती !

 

पूजा नको । दुय्यमत्व नको

समतेची भुकेली । माणूस ती !

 

ना अधिकार कुणा ।  छळण्याचा

गर्भात संपवण्याचा । माणूस ती ।

 

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 129 ☆ अष्ट-अक्षरी…ऊन पावसाचा खेळ… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 129 ? 

☆अष्ट-अक्षरी…ऊन पावसाचा खेळ

ऊन पावसाचा खेळ

जाणा जीवनाचा सार

नका करू वळवळ

वेळ बाकी, थोडा फार.!!

 

ऊन पावसाचा खेळ

सुख दुःख रेलचेल

कधी हसावे रडावे

मन असते चंचल.!!

 

ऊन पावसाचा खेळ

उष्ण थंड अनुभव

सर्व असूनी परंतु

राहे सदैव अभाव.!!

 

ऊन पावसाचा खेळ

सुरु आहे लपंडाव

अश्रू येतात डोळ्याला

काय निमित्त शोधावं.!!

 

ऊन पावसाचा खेळ

भासे दुर्धर कठीण

राज अबोल अबोल

तोही स्वीकारी आव्हान.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 65 – याची देही याची डोळा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 65 – याची देही याची डोळा ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

भारतभूमीवर पाऊल ठेवले आणि स्वामीजींचे स्वागत सोहोळे व स्वामीजींना भेटायला ,पाहायला येणार्‍यांची ही गर्दी या वातावरणाने सारा प्रदेश भारून गेला होता. २७ जानेवारीला स्वामीजी जाफन्याहून पांबन येथे आले. ते रामनाद संस्थानमध्ये उतरले. संस्थांनचे राजे भास्कर सेतुपती स्वत: स्वामीजींना सन्मानपूर्वक घेऊन आले.आल्या आल्याच स्वामीजींना त्यांनी व सर्व अधिकार्‍यानी साष्टांग नमस्कार केला. खास शामियान्यात औपचारिक स्वागत झालं.विवेकानंदांनी सर्वधर्म परिषदेला शिकागोला जावे म्हणून प्रयत्न करणार्‍यात राजे भास्कर सेतुपती होते. स्वागत समारंभा ठिकाणी घोडा गाडीने नेण्यात येत असताना लगेचच गाडीचे घोडे काढून लोकांनी स्वता ती गाडी ओढली आणि एव्हढेच काय स्वता राजे सुधा गाडी ओढण्यात सहभागी झाले होते स्वामीजीं बद्दल एव्हढा आदर सर्वांनी दाखवला. एका संस्थांनाचा अधिपति एका संन्याश्याची गाडी ओढत होता हे दृश्य प्राचीन परंपरेची आठवण करून देत होते.

पांबन नंतर ते रामेश्वरला गेले. स्वामीजी स्वागताला उत्तर देण्यासाठी भाषणकर्ते झाले. त्यांच्या इंग्रजी भाषणाचे तमिळ भाषेत रूपांतर करून सांगण्यात येत होते. सर्वश्रेष्ठ धर्मपुरुषाचा सन्मान मंदिरातील पुजारी व व्यवस्थापक यांनी केला. सजवलेले ऊंट, हत्ती, घोडे असलेली मिरवणूक काढून रामेश्वर मंदिरापर्यन्त नेण्यात आली. इथल्या भाषणात त्यांनी सांगितले की, “केवळ मूर्तिपूजा करण्यापेक्षा दरिद्री माणसाला दोन घास अन्न आणि अंग झाकण्यासाठी वस्त्र देणे हाच खरा धर्म आहे”.

रामेश्वर नंतर रामनाद च्या सीमेवर जोरदार स्वागत करण्यात आले. स्वामीजींच्या आगमनार्थ तोफांची सलामीदिली, भुईनळे आतषबाजी केली, हर हर महादेव च्या प्रचंड घोषणा देण्यात आल्या. रामनाद चे राजे स्वता स्वामीजींच्या गाडी समोर पायी चालत होते, पुढे पुढे तर स्वामीजींना घोडागाडीतून ऊतरवून, सजवलेल्या पालखीत बसविण्यात आले, भाषणे झाली, नक्षीकाम केलेल्या सोन्याच्या करंडकातून स्वामिजिना मानपत्र अर्पण केले गेले. सत्कारादाखल उत्तर देताना स्वामीजी म्हणाले, “प्रदीर्घ कालावधीची रात्र संपत आहे, अत्यंत क्लेशकारक दु:ख मावळू लागले आहे, मृतप्राय वाटणार्‍या शरीरात नवी चेतना जागी होत आहे, जाग्या होणार्‍या या भारताला आता कोणी रोखू शकणार नाही, तो पुन्हा निद्रित होणार नाही, बाहेरची कोणतीही शक्ति त्याला मागे खेचू शकणार नाही. अमर्याद सामर्थ्य असणारी ही भारतभूमी आपल्या पायांवर ताठ उभी राहत आहे”. केवळ या सुरुवातीच्या स्वागतासाठी उत्साहाने जमलेल्या स्वदेशातील बांधवांकडे बघून स्वामीजींना एव्हढा विश्वास वाटला होता. आणि आपला देश आता पुढे स्वत:च्या बळावर ताठपणे उभा राहील अशी खात्री त्यांना वाटली होती. एका निष्कांचन संन्याशाचा उत्स्फूर्तपणे होणारा गौरव ही स्वामीजींच्या जगातील कामाची पावती होती.

रामनाद सोडल्यानंतर स्वामी विवेकानंद मद्रासच्या दिशेने रवाना झाले. आतापर्यंत छोट्या छोट्या शहरात व गावातील उत्साह आणि आनंद एव्हढा होता, आता तर मद्रास सारख्या मोठ्या शहरात मोठ्या लोकवस्तीच्या ठिकाणी भव्य सोहळे होणार होते. रामनाद, परमपुडी, मानमदुराई,मीनाक्षी मंदिरचे मदुराई,तंजावर असे करत स्वामीजी कुंभकोणमला आले.कुम्भकोणम नंतरच्या एका रेल्वे स्थानकावर गाडी थांबणार नव्हती तिथेही लोक स्वामीजींना बघायला आणि एकदा तरी त्यांचे दर्शन घ्यायला प्रचंड प्रमाणात जमले होते. गाडी थांबणार नाही असे दिसताचा लोक रेल्वे रुळांवर आडवे झाले आणि गाडी थांबवावी लागली तेंव्हा स्वामीजी डब्यातून बाहेर येऊन शेकडो लोकांनी  केलेले स्वागत स्वीकारले, छोटेसे भाषण केले. त्यांच्याप्रती आदर दाखवला.

कुंभकोणमहून स्वामीजी मद्रासला आले. हिंदू धर्माचे प्रतिनिधित्व करण्यासाठी स्वामीजींनी अमेरिकेला जावे यासाठी मद्रास मध्ये खूप प्रयत्न केले गेले होते. त्यामुळे पाश्चात्य देशात उदंड किर्ति मिळवून वेदांतचा प्रचार करून आलेल्या स्वामी विवेकानंद यांच्या स्वागताची तयारी खूप आधीपासून केली होती, एक स्वागत समिति स्थापन करण्यात आली होती, पद्धतशीरपणे  नियोजन केले गेले होते. वृत्तपत्रातून लेख प्रसिद्ध केले गेले. स्वामीजींच्या धडक स्वागत समारंभाची  वृत्ते प्रसिद्ध होत होती. त्यांनी पाश्चात्य देशात केलेल्या कामांवर अग्रलेख लिहिले गेले. विविध शाळा, संस्था, महाविद्यालये बाजारपेठा सार्वजनिक ठिकाणे येथे स्वामीजींना बोलावण्याचा धडाका सुरू होता. मद्रास मध्ये रस्ते, विविध १७ ठिकाणी कमानी, फलक,पताका, असे उत्सवी वातावरण होते. एगमोर स्थानकावर उतरल्यावर (६ फेब्रुवारी १८९७) स्वागत समितीने स्वागत केले. घोष पथकाने स्वागतपर धून वाजविली. मिरवणूक काढण्यात आली दुतर्फा लोक जमले होते, मोठ्या संख्येने स्त्रिया, मुले, प्रौढ, सर्व सामान्य नागरिक ते सर्व क्षेत्रातील नामवंत मंडळी आवर्जून उपस्थित होती.

मद्रासमध्ये ९ दिवस मुक्काम होता. अनेक कार्यक्रम झाले, वेगवेगळ्या भाषेतील २४ मानपत्रे त्यांना देण्यात आली. खेतडीचे राजा अजितसिंग यांनी मुन्शी जगमोहनलाल यांच्याबरोबर स्वागत पत्र पाठवले होते. कोणी स्वागतपर संस्कृत मध्ये कविता लिहून सादर केली.

७ फेब्रुवारीला मद्रास मध्ये विक्टोरिया हॉल मध्ये मद्रास शहराच्या वतीने स्वामीजींचा मोठा सत्कार समारंभ झाला. जवळ जवळ दहा हजार लोक उपस्थित होते. असे सत्कार स्वामीजींनी याची देही याची डोळा अनुभवले, लोकांचे प्रेम आणि असलेला आदर अनुभवला. पण मनात, शिकागो ल जाण्यापूर्वी आणि शिकागो मध्ये गेल्यावर सुद्धा ब्राम्हो समाज आणि थिओसोफिकल सोसायटीने जो विरोध केला होता, असत्य प्रचार केला होता, वृत्तपत्रातून लेख, अग्रलेख यातून स्वामीजींची प्रतिमा मलिन करण्याचा प्रयत्न केला होता त्याचे शल्य होतेच, त्याचे तरंग आता मनात उमटणे साहजिकच होते. यातील काही अपप्रचाराला उत्तर देण्याची खर तर संधी आता मिळाली होती आणि ती थोडी स्वामीजींनी घेतली सुद्धा. त्यांनी भाषण करताना अनेक खुलासे केले. धर्म नाकारणार्‍या समाज सुधारकांचा परखड परामर्श घेतला. भारताचे पुनरुत्थान घडवायचे असेल तर त्याचा मूळ आधार धर्म असायला हवा असे विवेकानंद यांना वाटत होते. भारतातील सुधारणावाद्यांचा भर सतत धर्मावर आणि भारतीय संस्कृतीवर केवळ टीका करण्यावर होता ते स्वामीजींना अजिबात मान्य नव्हते. मद्रासला त्यांची या वेळी चार  महत्वपूर्ण प्रकट व्याख्याने झाली. एका व्याख्यानात त्यांनी म्हटले की, “आम्हाला असा धर्म हवा आहे की, जो माणूस तयार करील, आम्हाला असे विचार हवे आहेत की, जो माणूस उभा करतील”.

स्वामीजींचे मद्रासला आल्यावर जसे जोरदार स्वागत झाले तसे ते नऊ दिवसांनी परत जाताना त्यांचा निरोप समारंभसुद्धा जोरदार झाला. इथून ते कलकत्त्याला गेले. स्वामीजींचे मन केव्हढे आनंदी झाले असणार आपल्या जन्मगावी परतताना, याची कल्पना आपण करू शकतो. बंगालचा हा सुपुत्र त्रिखंडात किर्ति संपादन करून येत होता.                  

कलकत्त्याला स्वागता साठी एक समिति नेमली होती, अनेक जण ही धावपळ करत होते. कलकत्त्यातील सियालदाह रेल्वे स्थानकावर स्वागतासाठी वीस हजार लोक जमा झाले होते.फलाट माणसांनी फुलून गेला होता. त्यांच्या बरोबर काही गुरु बंधु, संन्यासी, गुडविन, सेव्हियर पती पत्नी, अलासिंगा पेरूमल, नरसिंहाचार्य या सगळ्यांचे स्वागत केले गेले. सनई चौघड्याच्या निनादात आणि जयजयकारांच्या घोषणेत स्वामीजींचे पुष्प हार घालून स्वागत केले गेले. यावेळी परदेशातून सुद्धा अनेक मान्यवरांनी गौरवपर पत्रे पाठवली, त्याचे ही वाचन झाले व सर्वांना ती वाटण्यात आली.केवळ चौतीस वर्षाच्या युवकाने आपल्या कर्तृत्वाचीअसामान्य छाप उमटवली होती, त्याने बंगाली माणसाची मान अभिमानाने उंचावली होती. रिपण महाविद्यालय, बागबझार,काशीपूरचे उद्यान गृह, आलम बझार मठ, जिथे गुरूंचे कार्य पुढे नेण्याचा संकल्प सारदा देवींसमोर सहा वर्षापूर्वी नरेंद्रने सोडला होता तिथे पाय ठेवताच आपण दिलेले वचन पुरे केले याचे समाधान स्वामीजींना वाटले, येथे रामकृष्णांनंद आणि अखंडांनंद यांनी दाराताच आपल्या नरेन चे स्वागत केले. पुजाघरात जाऊन श्रीरामकृष्णांना नरेन ने कृतार्थ होऊन अत्यंत नम्रतेने नमस्कार केला. नरेन ने ठाकूरांना नमस्कार केला तो क्षण गुरुबंधुना पण धन्य करून गेला.आता पुढच्या कार्याची आखणी व दिशा ठरणार होती.

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈