हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #242 – 127 – “कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे…” ।)

? ग़ज़ल # 127 – “कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

एक साल धरा पर  बीत गया,

दिल हार गया मन जीत गया।

*

सधता कब सब कुछ जीवन में,

कुछ सुलझा कुछ विपरीत गया।

*

कुछ  रिश्तों  के  पोखर सूखे,

मन झरने  से  संगीत  गया।

*

बीता  साल  उमंग  भरा था,

समय गुज़रते वो  रीत गया।

*

महत्व   पाने  की  इच्छा  में,

व्यर्थ  जीवन   व्यतीत  गया।

*

यमदूत  सधा  काल नियम से,

मेरा  मन तो  भयभीत  गया।

*

बिछड़ कर वह रहा दिल में ही,

आतिश का पर  मनमीत गया।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 398 ⇒ स्वप्न से निवृत्ति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वप्न से निवृत्ति।)

?अभी अभी # 398 ⇒ स्वप्न से निवृत्ति? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी प्रवृत्ति के लिए हमारी वृत्ति जिम्मेदार है। क्या वृत्ति का हमारी स्मृति से भी कुछ लेना देना है। वैसे वृत्ति का संबंध अक्सर चित्त से जोड़ा गया है। जोड़ने को ही योग भी कहते हैं। योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः यानी चित्त वृत्ति के निरोध को ही योग कहा गया है। अगर प्रवृत्ति संग्रह है तो निवृत्ति असंग्रह। निरोध ही निवृत्ति का मार्ग है।

चेतना के चार स्तर माने गए हैं, जिन्हें हम अवस्थाएं भी कह सकते हैं, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीयावस्था।

सुषुप्ति अवस्था : गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु। अगर गहरी नींद ना हो, तो हमारे शरीर और मन को आराम नहीं मिल सकता।

आठ घंटे की स्वस्थ नींद में हम कितनी गहरी नींद सोते हैं, कितनी नींद कच्ची होती है, और कब स्वप्न देखते हैं इसका लेखा जोखा इतना आसान भी नहीं। लेकिन गहरी नींद एक स्वस्थ मन की निशानी है और कच्ची नींद और स्वप्न एक चंचल मन की अवस्था है। स्वप्नावस्था में अवचेतन मन नहीं सोता।

चित्त के संचित संस्कार, और स्मृति के साथ साथ हर्ष, शोक और भय के संस्कार भी स्वप्न में प्रकट होते रहते हैं।।

अच्छे स्वप्न हमें एक चलचित्र की तरह मनोरंजक लगते हैं तो बुरे सपने हमें नींद में ड्रैकुला की तरह डराने का काम करते हैं। अवचेतन का भय और दबी हुई इच्छाएं

स्वप्न के रास्ते मन में प्रवेश करती हैं। परीक्षा का भय भी कई वर्षों तक मन में बैठा रहता है और व्यक्ति स्वप्न में ही बार बार परीक्षा दिया करता है।

योग द्वारा चित्त वृत्ति का निरोध हमारे चेतन और अवचेतन दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। हमारा शरीर केवल पांच तत्वों से ही नहीं बना, इसमें सात चक्र भी है और पांच महाकोश भी।

षट्चक्र भेदन से शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञा चक्र से होती हुई सहस्रार तक पहुंच सकती है।।

अन्नं प्राणो मनो बुद्धिर्– आनन्दश्चेति पञ्च ते। कोशास्तैरावृत्तः स्वात्मा, विस्मृत्या संसृतिं व्रजेत्।

योग की धारणा के अनुसार मानव का अस्तित्व पांच भागों में बंटा हुआ है। इन्हें हम पंचकोश कहते हैं। इन पंचकोश में पहला अन्नमय कोश, दूसरा प्राणमय कोश, तीसरा मनोमय कोश, चौथा विज्ञानमय कोश और पांचवा व अंतिम आनंदमय कोश है।

योग केवल धारणा का विषय नहीं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का विषय भी है। इससे ना केवल स्वप्न से निवृत्ति संभव है, काम, क्रोध, लोभ, और मोह के संस्कारों पर भी अंकुश लगाया जा सकता है। जाग्रत अवस्था टोटल अवेयरनेस का नाम है जिसमें स्वप्न का कोई स्थान नहीं है।

अध्यात्म के सभी मार्गों में चित्त शुद्धि पर जोर दिया गया है। निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा। निग्रह ही निवृत्ति का मार्ग है। सपनों की खोखली दुनिया से ईश्वर के सुनहरे संसार में आग्रह, पूर्वाग्रह और दुराग्रह का मार्ग त्याग अनासक्त प्रेम और अनासक्त कर्तव्य कर्म का मार्ग ही श्रेयस्कर है। महामानव तो बहुत दूर की बात है, फिलहाल तो हमें मानवता की तलाश है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 120 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।। योग भगाए रोग ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 120 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।। योग भगाए रोग ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

।।विश्व योग दिवस।। – (21 – 06 – 2024)

[1]

योग से   बनता    है   मानव

शरीर   स्वस्थ  आकार।

योग एक  है   जीवन      की

पद्धति स्वास्थ्य आधार।।

योग से निर्मित होता तन मन

और  मस्तिष्क   सुदृढ़।

तभी तो   हम कर   सकते  हैं

हर जीवन स्वप्न साकार।।

[2]

भोग नहीं योग आज  की बन

गया   एक   जरूरत  है।  

रोग प्रतिरोधक क्षमता  से  ही

जीवन बचने की सूरत है।।

दस   वर्ष पूर्व सम्पूर्ण विश्व को

भारत ने दिखाया  रास्ता।

आज तो पूरी  दुनिया में भारत

बन गया योग की मूरत है।।

[3]

नित प्रतिदिन   व्यायाम  ही तो

योग का एक  रूप    है।

व्यवस्थित हो  जाती  दिनचर्या

बदलता    स्वरूप     है।।

निरोगी काया आर्थिक  स्थिति

भी होती योग  से सुदृढ़।

योग तो सारांश में तन मन की

सुंदरता का प्रतिरूप है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “अभी भी बहुत शेष है। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 182 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – दुख से घबरा न मन ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

दुख से घबरा न मन, कर न गीले नयन,

दुख तो मानव के जीवन का सिंगार है ।

इससे मिलता है बल, दिखती दुनियां सकल

आगे बढ़ने का ये सबल आधार है ।।۹ ۱۱

*

सुख में डूबा है जो, मन में फूला है जो,

समझो यह-राह भटका है, भूला है वो ।

दुख ही साथी है जो साथ चल राह में

रखता साथी को हरदम खबरदार है ।। २ ।।

*

सुख औ’ दुख धूप-छाया हैं बरसात की

उड़ती बदली शरद-चाँदनी रात की ।

सुख की साधे ललक, दुख की पाके झलक

जो भी डरता है वो कम समझदार है ।। ३ ।।

*

कर्म-निष्ठा से नित करते रहना करम भूलकर

सारे भ्रम आदमी का धरम फल तो देता है

खुद कर्म हर एक किया फल पै

कोई किसी का न अधिकार है ।। ४ ।।

*

जो भी चलते हैं पथ पै समझ-बूझकर

उन्हें सुख-दुख बराबर, नहीं कोई डर ।

उनकी मंजिल उन्हें देती अपना पता

सहना है जिंदगी – ये ही संसार है ।। ५ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहा – योग भगाये रोग ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ दोहा – योग भगाये रोग ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

(अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस विशेष)

योग भगाता रोग है, काया हो आदित्य।

स्वास्थ्य रहे हरदम खरा, मिले ताज़गी नित्य।।

*

योग कला है, ज्ञान है, रिषियों का संदेश।

तन-मन की हर पीर को, करे दूर, हर क्लेश।।

*

योग साधना मानकर, पाते हम बल-वेग।

गति-मति में हो श्रेष्ठता, मिले खुशी का नेग।।

*

दीर्घ आयु मिलती सदा, अपनाते जो ध्यान।

योग करो, ताक़त गहो, पाओ नित सम्मान।।

*

योग कह रहा नित्य यह, लेना शाकाहार।

तभी मिलेगा हर कदम, जीवन में उजियार।।

*

भारत चिंतन में प्रखर, देता उर-आलोक।

योग-ध्यान से बंधुवर, पास न आता शोक।।

*

योग दिवस मंगल रचे, अखिल विश्व में मान।

योगासन हर मुद्रा, पाती है यशगान।।

*

योग साधना दिव्य है, रामदेव जी संत।

जिन ने भारत से किया, सकल रुग्णता अंत।।

*

योग नया विश्वास है, चोखी है इक आस।

जो जीवन-आनंद दे, रचे नया मधुमास।।

*

योग-ध्यान से नेह कर, गाओ जीवन गीत।

तन-मन को बलवान कर, पाओ हरदम जीत।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – सौ जयश्री पाटील – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

सौ जयश्री पाटील

🏆🏆 अभिनंदन 🏆🏆

आपल्या समुहातील कवयित्री सौ जयश्री पाटील  यांच्या बालजगत’ या कवितासंग्रहाने, अ.भा.शब्दमंथन साहित्य समुह, स्वदेशी भारत सन्मान  पुरस्कार, प्रज्ञा बहुउद्देशीय  संस्था पुरस्कार, तितिक्षा इंटरनॅशनल  आणि अमरेंद्र भास्कर बालकुमार साहित्य संस्था पुणे यांचा पुरस्कार  असे पाच पुरस्कार प्राप्त  केले आहेत.सौ. जयश्री पाटील यांच्या या यशाबद्दल  त्यांचे ई-अभिव्यक्ती समुहाकडून  मनःपूर्वक अभिनंदन आणि पुढील लेखनासाठी शुभेच्छा.!

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ कण… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी ☆

प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ कण… ☆ प्रा डॉ जी आर प्रवीण जोशी 

दुःख दिसलं सुपभर

सुख मिळालं कणभर

डोंगर होता भरल्या काट्यानी

करवंद बसली जाळीवर

*

आवळा बसला झाडावर

भोपळा दिसला वेलीवर

देवा तुझं ईपरीत काहीं

आंबा लोम्बतो वाऱ्यावर

*

सुखातला दुःखाचा बिब्बा

नदीकाठी काळी घागर

अंधारातील खेळ जगाचा

जीवनाचा होतो मग जागर

*

 येळकोट येळकोट घेताना

 म्हाळसाचा होतो विसर

 संबळ डंबळ वाजवताना

  पिवळा भडक होई नांगर

*

 पिकली शेती रांधली चूल

 काळ्या मातीचा होतो चाकर

 चटके हाताला बसताना

 पोटात जाई कोर भाकर

© प्रो डॉ प्रवीण उर्फ जी आर जोशी

ज्येष्ठ कवी लेखक

मुपो नसलापुर ता रायबाग, अंकली, जिल्हा बेळगाव कर्नाटक, भ्रमण ध्वनी – 9164557779 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अंगणासारखे… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अंगणासारखे… ☆ श्री राजकुमार कवठेकर ☆

जगावे कधी मी मनासारखे?

कधी ग्रीष्म ही श्रावणासारखे

*

मला दुष्ट होता न आले कधी

जगा सोसले सज्जनांसारखे

*

उपाशीच अन् फाटका राहिलो

ऋतू हे जरीही सणासारखे

*

न छाया, सुगंधी फुले,ना फळे

जिणे लाभलेले तणासारखे

*

मिळो प्रेम किंवा उपेक्षा मिळो

करा प्रेम ओल्या घनासारखे

*

कुणासारखे मी असाया नको

असावेच मी ‘आपणा’सारखे

*

करंटेपणी भाग्य हे केवढे

मला बाळ हे ‘श्रावणासारखे’

*

मला द्यायचे मान्य केले जरी

दिले सर्व त्यांनी ‘पणा’सारखे

*

न बक्षीस..वा दान ही लाभले

मला जे मिळे ते ऋणासारखे

*

नको दार..वा चौकट्या..या मना

असावे खुल्या अंगणासारखे

*

जरी गोड त्यांचे  हसू… बोलणे

मना शब्द होते घणासारखे

*

मला टाळता लोक आले न ‘ते’

नकोश्याच होते क्षणांसारखे

*

नको श्रेष्ठता तारकांची मला

मिळो भाग्य धूलीकणासारखे

*

उराया नको होऊनी कोळसा

झिजावे तरी चंदना सारखे

*

कृतघ्ने जरी वागले सर्वही

मला वाटले अंजना सारखे

*

नसे स्त्राव नाही जरी वेदना

तुझे राहणे गे व्रणासारखे

*

असे निष्कलंकी प्रतीमा तुझी

तुला मानले दर्पणा सारखे

*

दिसाया जरी मी बटूसारखा

मला रूप ही वामनासारखे

*

मना..पावला भिंगरी लाभली

बसू मी कसे आसना सारखे?

*

इथे सर्व ठायी लढाई…लढे

पडे स्वप्न तेही रणासारखे

*

सुखाला गुरू..मंत्र नाही जरी

नसे सूख रे वाचनासारखे

© श्री राजकुमार दत्तात्रय कवठेकर

संपर्क : ओंकार अपार्टमेंट, डी बिल्डिंग, शनिवार पेठ, आशा  टाकिज जवळ, मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ आधुनिक गुराखी… सौ.सुवर्णा कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुनिता गद्रे  ☆

सुश्री सुनिता गद्रे

 ☆ आधुनिक गुराखी… सौ.सुवर्णा कुलकर्णी ☆ प्रस्तुती – सुश्री सुनिता गद्रे ☆

आत्ताच्या पिढीला “गुराखी” हा शब्दही माहीत नसेल.  पण श्रीकृष्ण कथा ऐकली असेल तर श्रीकृष्ण गुरं हाकायला रानात जात असे आणि त्याच्या बासरी वादनाने गाई गुरं मंत्रमुग्ध होऊन आवाजाच्या मागे मागे जात वगैरे आपण वाचलेलं आहे.

पण आता ना इतकी गुरं ढोरं राहिली, ना कृष्ण अन् त्याची बासरी.

पण इथे ऑस्ट्रेलियात मात्र विस्तीर्ण पसरलेली कुरणं, हजारोनी गुरं ढोरं.

पण ती हाकायला माणसंच नाहीत. इतकी वर्ष मोटार सायकल वर बसून तीन चार माणसांकडून 3000 हेक्टर वर हे काम करून घ्यायचे. .पण शांतपणे चरणा-या गुरांना ऊंच सखल प्रदेशातून फिरताना बरेच वेळा मोटर सायकल वरून गुराखी पडायचे, गुरं दगावायची. सोबत एखाद दोन कुत्रीही सोबतीला द्यायला लागायची. हे सगळं ड्रोननी टाळलं गेलं. एका कळपातून हाकून मूळ जागी परत आणणे, परत दुसरा कळप असे करता करता दूर दूर जावं लागणा-या दुचाकीस्वार गुराख्यालाच घरी जेवायला येता यायचं नाही. ऊंच सखल प्रदेशातून फिरताना बरेच वेळा मोटर सायकल वरून गुराखी पडायचे, गुरं दगावायची. हे सगळं ड्रोननी टाळलं गेलं.

मग आणले हेलीकाॅप्टर… पण ते प्रकरण तसं खर्चिक.  श्रीमंत मालकांनाच ते परवडायचं.

आपल्या भारतात आत्ता आत्ता कुठं तुरळक ड्रोनचा वापर शेतीत औषधं फवारणीसाठी होऊ लागला आहे.  बाकी सगळे ड्रोन हे एकतर भारतीय सैन्याचे नाहीतर लग्नाच्या रिसेप्शनच्या शूटींगचे.

पण इथे जगात प्रथमच एकाने ड्रोननी गुरं हाकायची ठरवली, त्यासाठी साॅफ्टवेअर तयार करवून घेतली आधी ती उडवून प्राणी दिलेल्या कमांड ऐकतात का ते तपासलं आणि हळूहळू त्याचा वापर वाढवत वाढवत हजारोंचा कळपच्या कळप हॅक् हॅक् न करता, पाठीवर दंडुका न मारता , हवा तसा, हव्या त्या दिशेला, थांबा म्हणलं  की थांबणारा, घराकडं चला म्हणल्यावर मुकाट माघारी फिरणारा असा Drone चा भन्नाट वापर सुरू केला आहे.  शेतक-यांना त्याचा उपयोग कसा करायचा याचं प्रशिक्षण देत आहे.  हातासरशी गेलाच आहे ड्रोन 35 मीटर ऊंच तर कुठे पीक किती वाढलं आहे, पाणी आहे शेतात की घालायला हवंय हे सगळं एका जागेवरून ठिम्म न हालता ड्रोनवरील हातसफाईने करत आहे.  गुरांची संख्या पण मोजता येते, आसपास एखादा कोल्हा आला तर त्याला हा  ड्रोन हुसकावतो सुध्दा.  हेलीकाॅप्टरच्या आवाजापेक्षा गाईंना ड्रोनचा आवाज सुसह्यही वाटतोय. त्यांना ड्रोनचा आवाज ऐकला की वाटतं कुठला तरी किडा गुणगुणतोय.

आता पुढचा प्रयोग हे सगळे आख्या जगातून  जिथे कुठे इंटरनेट, GPS आहे अशा कुठूनही करता यायला पाहिजे याची चाचपणी सुरू आहे.

या प्रयोगशील शेतक-याची एकच व्यथा आहे ती म्हणजे त्यांचे संरक्षण खाते, सरकार पटापटा परमिशन देत नाही.  खरेतर सरकारही अजून ह्या बद्दल तितके जागरूक नाही शिवाय अशा वापरास ऊठसूट परवानगी दिली तर देशाच्या सुरक्षेच्या दृष्टीने ड्रोनचा गैरवापर तर होणार नाही ना हे अजमावून पाहात आहे. 

पण एकंदरीत उपयोगिता बघता, हळूहळू का होईना पिझ्झा डिलीव्हरी साठी ड्रोनच्या वापरापेक्षा ह्या अशा उपयुक्त कांमासाठी, जिथे आधीच मनुष्यबळ खूप कमी आहे आणि चराऊ कुरणं नजर ठरत नाही इतकी दूर आहेत, तिथे परवानगी द्यायच्या विचारात सरकार आहे. हेक्टरी फक्त एक डाॅलर खर्च येत असेल तर शेतकरी आग्रह धरणारच ह्या सुविधेचा.  पैसा, वेळ, श्रम वाचणा-या या सुविधेचा लाभ हळूहळू वाढणार आणि  ” Technology –  शाप की वरदान ” अशा निबंध लिहीणा-यांना

 ” वरदान ” मुद्दा पटवायला हा एक किस्सा लिहीता येणार .

गाईंच्या गळ्यातील घंटांचा मंजूsssळ नाद,

सांज ये गोकुळी,

धूळ उडवीत गाई निघाल्या

 

असं काही नसलेल्या देशात

ड्रोन हाच गुराखी!

— समाप्त —

लेखिका – सुवर्णा कुलकर्णी

संग्राहिका – सुश्री सुनीता गद्रे

माधवनगर सांगली, मो 960 47 25 805.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ बॅटरी – भाग 1 – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ ☆

सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

? जीवनरंग ?

☆ बॅटरी – भाग 1 – डॉ हंसा दीप ☆ भावानुवाद – सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ 

डॉ हंसा दीप

भयंकर थंडी! पारा शुन्याहून वीस डिग्री खाली. नाकातली ओल बर्फाचा खडा बनून नाकात टोचत होती. बर्फाचे शुभ्र, लहान लहान कण एकत्र जमून सर्व ठिकाणी आपलं वर्चस्व प्रस्थापित करत होते. डांबरी रस्त्याचा काळेपणा शिल्लक नव्हता, की छताच्या कौलांचा कुठला रंग ! बर्फाच्या या कणांनी मिळून प्रत्येक रंग पांढऱ्या रंगात बदलून टाकला आहे. झाडा झुडुपांच्या फांद्या बर्फांनी लगडून जणू स्वागतासाठी झुकल्या आहेत. एखाद दुसरा चालत जाणारा माणूस बर्फाचं गाठोडं चालत जात असल्यासारखा दिसतोय. त्यांच्या गरम कपड्यांवर आणि जाडजूड बुटांवर सफेद बर्फकण हसत बसले आहेत असं वाटतंय. जमलेल्या बर्फावरही खारी, हिरव्या गवतावर जशा उड्या मारत, बागडत होत्या, तशाच बागडताना दिसताहेत. सुनसान रस्त्यांवर कधी  कधी जंगली प्राणीही दिसून येत असत.

निसर्गाच्या या रूपाला तोंड देण्यासाठी माणसाला फार तयारी करावी लागते. कधी कधी जर माणसाच्या मेंदूची काही चूक झाली, तर “आ बैल मुझे मार” च्या चालीवर “ ये बर्फा, मला गोठवून दाखव” अशा तऱ्हेने सोफीसारखी, जाणून बुजून या बर्फाळ  हवेला आव्हान देण्याची चूक घडून येते. सोफीचा हट्ट म्हणा, की नाईलाज, ती या वेळी, अशा जीवघेण्या हवेत हायवे वर गाडी चालवते आहे. उद्या तिला कामावर हजर व्हायचे आहे. जाणं आवश्यकच आहे. सगळी विमानोड्डाणं रद्द झाल्याने तातडीने तिला हा निर्णय घेणं भाग पडलं. धाडस करणंच भाग पडलं होतं. कॅनडा आणि अमेरिका या दोन्ही देशात रात्रीचं गाडी चालवणं खूप सुरक्षित आणि सोपं असतं. आणि या   बर्फाळ हवेसाठी तिच्या गाडीला स्नो टायर्स पण आहेत. त्यामुळे हवा अधिक बिघडली, तरी ती सुरक्षित राहू शकते. दूरवरच्या ठिकाणी गाडी चालवत जायची क्षमता पण आहे तिच्यात. असा धोका पत्करणं रोमांचक वाटत होतं तिला. तरुण आहे ती, आत्ता नाही धाडस करायचं, तर काय पन्नाशी नंतर करायचं का? तसंही पेईंग गेस्ट म्हणूनच रहात होती ती. सामान म्हणजे, फक्त दोन सुटकेस आहेत, ज्यात तिचे कपडे आहेत. एवढ्या प्रचंड बर्फवृष्टीमधेही रोजचं आयुष्य काही थांबत नाही. टोरांटो पासून न्यूयॉर्क शहरापर्यंतचा प्रवास गाडीने करायचा उत्साह तिला खूप उर्जा देत होता. मधे एखादा स्टॉप घेतला तरी बास आहे. हॉटेलमध्ये सामान टाकून ती लगेच ऑफिसलाच जाईल. हवा कितीही खराब असली तरी सब वे रेल्वे असो किंवा रोजचं आयुष्य सगळं काही त्याच गतीने चालू रहातं.

अमेरिकेची सीमा पार केल्यावर एकाएकी जोरदार वारा आणि बर्फवृष्टीचा हल्ला होऊ लागला. बर्फाळ हवेच्या थपडा गाडीच्या काचेवर वारंवार आदळू लागल्या. अंधाराला चिरत वाऱ्याचा सों सों आवाज गुंजत होता. रस्त्यावर जमलेल्या बर्फाच्या घसरणीमुळे त्या भरभक्कम चाकांनाही धोका निर्माण होत होता. हवा आणखी बिघडू शकते, हे माहित तर होतं, पण अशी वादळी होईल याचा अंदाज नव्हता, बिघडत्या हवेची लक्षणं बघून, तिला वाटायला लागलं की आपला निर्णय चुकीचा होता. अशा प्रकारे धोका पत्करायची काही गरज नव्हती. आता ती मधेच अडकली होती, ना धड इकडे, ना तिकडे! परत जायचं म्हंटलं, तरी तेव्हढाच त्रास होणार होता. गाणी ऐकताना तिच्या लक्षात आलं, की फोन चार्जला लावायला पाहिजे. फोन जर बंद झाला, तर तिचं काही खरं नाही.

गाडीचा वेग सतत कमी होत होता. काळाकुट्ट अंधार आणि समोर सतत उडत असणारा बर्फ यामुळे निर्माण होणाऱ्या धुरकटपणामुळे समोरचं दिसायला त्रास होत होता. गाडीच्या हेडलाईट्सचा प्रकाशही कमी वाटत होता. रस्त्यावर जमा झालेला बर्फ साफ करायला या वेळी कोणी येणार नव्हतं. गाडीत हीटरची सोय असल्यामुळे बाहेर थंडीचा कहर असला तरी सोफीला त्याचा त्रास होत नव्हता. समोरच्या काचेवर पडलेला बर्फ आता घट्ट होऊन काचेवर त्याचा थर जमा होऊ लागला होता. ते साफ करण्यासाठी गाडीचे वायपर्स काहीतरी रसायन त्याच्यावर उडवत होते, पण समोरचा रस्ता काही दिसत नव्हता. तिने विचार केला, गाडी थांबवून पुढच्या-मागच्या काचा, हेडलाईट्स, बाजुच्या काचा आणि गाडीच्या चारी बाजुंना साठलेला बर्फ साफ करून घ्यावा. गाडी बंद करून तिने ब्रश काढला आणि सगळा बर्फ काढून टाकला. परत नव्याने बर्फ पडतच होता, पण तो काढून टाकण्यासाठी वायपर्स पुरेसे होते.

गाडीच्या सगळ्या बाजूंचा बर्फ काढून टाकून परत ती गाडीत येऊन बसली. पण गाडी चालू करण्याआधी हात गरम करण्याची आवश्यकता होती, सगळी बोटं आखडून गेली होती तिची. काही वेळ हातमोजे काढून हात एकमेकांवर घासायला सुरवात केली तिने. सगळं अंग पण गारठून गेलं होतं. हुडहुडी भरली होती. गाडी सुरु करून ती सुटकेचा निश्वास टाकणारच होती, तेवढ्यात तिच्या लक्षात आलं, की गाडी सुरूच झालेली नाही! “अरे! हे काय?” परत सुरु करण्याचा प्रयत्न केला. परत तेवढाच हलकासा आवाज. इंजिन चालू होण्याचा कुठलाच आवाज नाही. परत परत ती बटण दाबत राहिली, पण गाडी एखाद्या हट्टी मुलाप्रमाणे ओठ बंद करून जागच्या जागी थटून उभी राहिली होती. सोफी एकटक त्या मूक झालेल्या बटणाकडे पहात राहिली. अनेक शक्यता तिच्या मनात एकदम घोंघावू लागल्या. असं गाडी सुरु न होणं म्हणजे, बॅटरी बंद पडली असणार. अशा वेळी बॅटरी डेड होणं म्हणजे एक प्रकारे सोफीचंच मरण होतं. हेल्पलाईनला फोन करावा म्हणून तिने फोन हातात घेतला, तर फोन पण डेड झालेला! त्याची बॅटरी चार्जच झालेली नव्हती. आता कोणाला मदतीला बोलावणं पण शक्य नव्हतं. आता काय करायचं? शंका कुशंकांनी तिला घेरून टाकलं. सगळ्यात मोठी धोक्याची घंटा तिच्या डोक्यात घण घालत होती, ती म्हणजे, “आज या थंड रात्रीत ही गाडीच तिची कबर बनणार आहे की काय?”

मागच्या सीटवर ठेवलेलं ब्लॅन्केट तिनं अंगभर लपेटून घेतलं आणि सुन्न होऊन बसून राहिली. या थंडीत शरीर काकडून त्याची बर्फकांडी बनत जाण्याचा अनुभव नरकमय यातना देणारा असणार होता, त्यापेक्षा दुसऱ्या कोणत्याही पद्धतीने मृत्यू आला असता, तर तो ठीक असता असा विचार तिच्या मनात आला. असं वाटायला लागलं, की जणू तिने स्वतःच स्वतःला मृत्युच्या स्वाधीन केलं होतं. संपूर्ण शरीर ब्लॅन्केटमधे गुंडाळून घेतलेलं असूनही थंडीची तीव्रता वाढत होती. थोड्याच वेळात बाहेरच्या ओल्या, तीव्र, हाडं फोडणाऱ्या थंडीने गाडीचा हीटर बंद पाडला. हुडहुडी भरायला लागली होती, दात वाजायला लागले होते. हळुहळू हाताची बोटं गोठणं सुरु झालं. पायात बूट होते, त्यामुळे पाय थोडे उबेत होते. या निर्जन रस्त्यावर, या वेळी दूरवरही कुठे दुसरी कुठली गाडी येईल अशी शक्यता दिसत नव्हती.

मृत्यू पावला पावलांनी जवळ येत शरीर शिथिल करत चालला होता. आता वाचण्याची आशा सोडून देऊन ती आपल्या जवळच्या माणसांची आठवण येऊन हळवी होऊ लागली होती – “माझ्या मृत्यूची बातमी त्यांना केंव्हा कळेल, कोणजाणे! मला इथून कसं घेऊन जातील ते? की इथेच बर्फाखाली दबून, गाडलं जाईल माझं शरीर? मृत्यूची  एक मूक अशी चाहूल कानांना ऐकू येत होती. अरे! कानांना खरंच काहीतरी ऐकू येत होतं. ही चाहूल स्पष्ट होती. असा काही मृत्यूचा आवाज नसतो! पहिलाच अनुभव आहे, काय माहित, कसा असतो ते! कान आता सावध झाले. मेंदूला संदेश मिळाला—“हा तर कुठल्या तरी गाडीचा आवाज आहे”. नसानसात जीवनाशा फुरफुरू लागली. मागून आलेल्या गाडीच्या दिव्यांचा प्रकाश दिसू लागला. मनात आलं, थांबवून मदत मागावी, पण परत वाटलं, की कोणजाणे, कोण असेल? आत्ता तर नुसतं थंडीनीच मरायचं आहे, या गाडीला थांबवून आणि कुठल्या त्रासातून जाऊन मरायची वेळ येईल, कोणजाणे! मरणाची भीति तर होतीच, त्यात अजून एका संकटाच्या भीतीचं भूत मानगुटीवर येऊन बसलं. ती ब्लॅन्केटमधे अजूनच गुरफटून बसली, म्हणजे त्या येणाऱ्या गाडीतल्या माणसाला या गाडीत कोणीच नाहिये असं वाटून तो निघून जाईल. ती श्वास रोखून त्या गाडीच्या निघून जाण्याची वाट बघत होती. तेवढ्यात त्या गाडीचे ब्रेक जोरात दाबले गेले आणि चर्र करत ती थांबली.

– क्रमशः भाग पहिला    

मूळ लेखिका – डॉ  हंसा दीप, कॅनडा

मराठी भावानुवाद  –  सुश्री साधना प्रफुल्ल सराफ

संपर्क – 1565, सदाशिव पेठ, ‘लक्ष्मी सदन’, पी. जोग क्लास लेन, पुणे, ४११०३०. मो. 7709014058.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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