(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# आजादी की पावन बेला में… #”)
प्रलेस के राष्ट्रीय महाधिवेशन में परसाई छाए रहे! साभार – श्री अनूप श्रीवास्तव ☆
अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस ) का शीर्ष व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को समर्पित अट्ठारहवां राष्ट्रीय सम्मेलन में चप्पे चप्पे पर परसाई छाए हुए थे। हरिशंकर परसाई नगर में आयोजित त्रिदिवसीय समारोह में परसाई जी छाए हुए थे। दीवारों से लेकर मंच तक परसाई के चित्रों, उनके व्यंग्य वचनों के पोस्टर सजे हुए थे। देश और विदेशों से समारोह में आये साहित्यकारों की जबान पर परसाई का ही नाम था। मंच के बाहर पंडाल में लगे स्टालों पर परसाई और राहुल सांस्कृत्यायन, प्रेमचंद, नागार्जुन की पुस्तकें धड़ाधड़ बिक रहीं थीं। आलम यह था कि अट्टहास का परसाई विशेषांक दो घण्टे में ही बिक गया। इसके बाद परसाई विशेषांक को पुनः पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने का आश्वासन देना पड़ा।
भारत के केंद्र बिन्दु पर बसी संस्कारधानी जबलपुर में अखिल भारतीय प्रलेस के 18 वें राष्ट्रीय अधिवेशन में व्यंग्य को समर्पित ‘अट्टहास पत्रिका’ के ‘परसाई विशेषांक’ का ऐतिहासिक विमोचन हुआ। खचाखच भरे मानस भवन सभागार में आयोजित समारोह में साहित्यकार एवं भारत सरकार योजना आयोग की पूर्व सदस्य पदमश्री सैयदा हमीद, प्रलेस राष्ट्रीय महासचिव डॉ सुखदेव सिंह सिरसा, इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रसन्ना, राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष विभूति नारायण राय, ख्यातिलब्ध कवि नरेश सक्सेना, अट्टहास के प्रधान संपादक अनूप श्रीवास्तव, क्यूबा के राजदूत अलेक्जेंड्रा, प्रलेस अध्यक्ष डॉ सेवाराम त्रिपाठी, राजेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र राजन, प्रलेस आयोजन अध्यक्ष डॉ कुंदन सिंह परिहार, महासचिव तरूण गुहा नियोगी, परसाई विशेषांक के अतिथि सम्पादक जय प्रकाश पाण्डेय के अलावा देश विदेश से बड़ी संख्या मेंआये प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति में परसाई विशेषांक के साथ कई अन्य पुस्तको और पत्रिकाओं का विमोचन हुआ। लेकिन केवल परसाई पर समर्पित परसाई अंक ही प्रमुख था।
आमजन की बेहतरी एवं जन पक्षधर व्यवस्था निर्माण की चेतना जगाने वाले व्यंग्य पितामह हरिशंकर परसाई जी की जन्मशती के अवसर पर आयोजित इस समारोह में देश भर से जुटे लेखकों ने लोकतंत्र, समानता, भाईचारा की आवाज को बुलंद किया और मानवता प्रेम, भाईचारा, शान्ति के नारे के साथ 500 लेखकों ने रैली निकाली। सभी लेखकों का मत था कि दुनिया के महान व्यंग्यकारों में बड़ा नाम परसाई का है। उनके लेखन की विशेषता रही है कि उन्होंने जो लिखा वह इतना दूरगामी व व्यंग्यपूर्ण है कि वह हमारी धरोहर के रूप में रहेगा। परसाई का स्मरण करते हुए आयोजन स्थल पर जगह-जगह परसाई की रचनाओं पर आधारित पोस्टर प्रदर्शनी लगाईं गई और विभिन्न सत्रों में विषय विशेषज्ञों ने अपने अपने विचार व्यक्त किए। ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे व संविधान की सुरक्षा और संवर्धन की चुनौतियों’ पर बोलते हुए लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ नवशरण कौर ने कहा कि हमारे रंगकर्मी, लेखकों, किसानों व बुद्धिजीवियों ने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि लोगों की तकदीर संवाद से बदली जाती है आतंक से नहीं। उन्होंने लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने की कोशिश पर निशाना साधा।
आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि परसाई ने जिस ठिठुरते गणतंत्र की बात कही थी आज वह दिख रहा है, आज जिन हालातों में लेखक समागम हो रहा है ऐसी परिस्थिति कभी नहीं थीं। भगवान सिंह चावला ने कहा कि आज हमारे सामने स्वतंत्रता, समता जैसे मूल्यों को बचाने की चुनौती है हमें मिलकर इन मूल्यों की रक्षा करना चाहिए। इतिहासकार एवं प्रखर वक्ता राम पुण्यानी ने कहा कि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने वाला ज्यादा से ज्यादा लेखन करने की आवश्यकता है, आज के नेताओं की चमड़ी ज्यादा मोटी हो गई है। कार्यक्रम में एक ही मंच पर तेलुगू, पंजाबी, हिंदी, तमिल सहित देश की अलग-अलग भाषाओं की लिखी पुस्तकों के विमोचन भी हुए। अट्टहास पत्रिका के विमोचन पश्चात् हरिशंकर परसाई की रचना पर आधारित नाटक निठल्ले की डायरी का शानदार मंचन विवेचना रंगमंडल के कलाकारों ने किया। छत्तीसगढ़ नाचा गम्मत के कलाकारों ने परसाई की रचना टार्च बेचने वाला की नाट्य प्रस्तुति दी। देश भर से आए लेखकों के बीच अट्टहास के परसाई विशेषांक की खूब चर्चा हुई, अधिकांश लेखकों का विचार था कि परसाई पर केंद्रित यह ऐतिहासिक अंक शोधकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी रहेगा, अट्टहास पत्रिका के प्रधान संपादक श्री अनूप श्रीवास्तव एवं अतिथि सम्पादक जय प्रकाश पाण्डेय ने सभी लेखकों का आभार माना
प्रलेस के राष्ट्रीय महाधिवेशन अन्य साहित्यिक अधिवेशनों से अलग दिख रहा था। सत्यरक्षा होटल में बसा हरिशंकर परसाई नगर में लेखक अपने खर्चे पर आए थे। होटल से लेकर आवागमन तक का खर्चा उन्होंने स्वयम उठाया था। जिन्हें जगह नही मिली उल्लास पूर्वक जमीन पर बिछी दरी पर पसरे हुए थे। समारोह में लेखकों के लिए स्वादिष्ट नाश्ते, भोजन की व्यवस्था थी। बिना रोक टोक, भोजन पर्ची के कतार में लेखक लगे थे।
श्री अनूप श्रीवास्तव
प्रलेस के राष्ट्रीय समारोह में जो लेखक। आकर्षण के मुख्य केंद्र थे उनमें वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना, वीरेन्द्र यादव, राकेश वेदा, फारूकी अफरीदी, अलका आग्रवाल सिगतिया, डॉ संजय श्रीवास्तव, रमेश सैनी, जयप्रकाश पांडे, और अट्टहास के परसाई अंक के चलते अनूप श्रीवास्तव प्रमुख थे।
एक दिलचस्प दृश्य उस समय दिखा जब वरिष्ठ साहित्यकार कुछ देर से नाश्ता करने पहुंचे तो उन्हें यह कहकर नाश्ता देने से मना कर दिया गया-सब खत्म हो चुका है, कृपया काउंटर पर जाइये, अब यहां कुछ नही मिलेगा इस स्थिति में आड़े आई बम्बई से पधारी अलका सिगतिया। उन्होंने नरेश जी से आगे बढ़कर पूछा-क्या दो पराठे खाना आप पसन्द करेंगे/नरेश सक्सेना ने पूछा -कुछ अचार भी है। हाँ। नरेश जी के लिए अलका ने कार से नाश्ते का डिब्बा मंगवाया। नाश्ता पाकर नरेश सक्सेना ने कहा- अलका ने मेरे शरीर मे जान डाल दी।
प्रलेस का तीन दिवसीय समारोह कई सत्रों में बंटा था। इन सबसे अलग सत्र भी हुए। संगठन सत्र में अगले अध्यक्ष, महा सचिव, राज्यो के पदाधिकारियों के चयन की खींचा तानी भी चली लेकिन गुपचुप। नरेश सक्सेना का भी राष्ट्रीय अध्यक्ष निर्विरोध बनने का भी प्रस्ताव आया जिसे नरेंश जी ने मना कर दिया अन्ततः राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर पी लक्क्ष्मी नारायण और महा सचिव सुखदेव सिंह सिरसा चुने गए।
समारोह के अगले दिन शाम को कोकिला रेसॉर्ट में रमेश सैनी, जय प्रकाश पांडे, राजस्थान सरकार के मुख्यमन्त्री अशोक गहलोत के विशेषाधिकारी फारूक अफरीदी, विनोद भरद्वाज और व्यंग्यकार और पत्रकार अनूप श्रीवास्तव आदि के बीच विशद परिचर्चा भी हुई जिसमे साहित्य के बिंदुओं पर लंबी बात चीत हुई। सुबह की संगोष्ठी में बम्बई की अलका सिगतिया भी जुड़ीं।
संगोष्ठी का निष्कर्ष था साहित्य वह है जो बेचैनी पैदा करे अनूप जी ने प्रेम चंद का उल्लेख करते हुए कहा भाषा साधन है, साध्य नही। अब हमारी भाषा ने वह रूप प्राप्त कर लिया है। वह भाषा जिसके आरम्भ में बागों बहारऔर बैताल पचीसी की रचना ही सबसे बड़ी साहित्य सेवा थी। अब इस योग्य हो गई है कि उसमें शास्त्र और विज्ञान की भी विवेचना की जा सके। यह सम्मेलन इस सच्चाई की स्पष्ट स्वीकृति है। फारूक अफरीदी का कहना था कि हमारी साहित्यिक रुचि तेजी से बदल रही है। साहित्य केवल मन बदलाव की चीज नही है। जय प्रकाश पांडे का मानना था कि कुछ समालोचको ने साहित्य को लेखक का मनोवैज्ञानिक जीवन चरित्र कहा है। रमेश सैनी ने कहा साहित्य मशाल दिखाते हुई चलने वाली सचाई है।
कुल मिलाकर हर समारोह की तरह प्रलेस के समारोह में संगति के साथ् विसंगति भी दिखी-परसाई की स्मृति के ताम झाम के साथ समारोह पर परसाई जी के तीन दिन तक पोस्टर लगे रहे, स्टालों पर परसाई का साहित्य बिकता रहा लेकिन मंच पर परसाई पर कोई सत्र कब कहाँ चला, किसने उन पर कब कहाँ बोला इसकी जानकारी अन्ततः नही मिल सकी।
साभार – श्री अनूप श्रीवास्तव, संपादक अट्टहास
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
☆ अखिल हिंदु विजयध्वज गीत… स्व. वि. दा. सावरकर ☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆
☆ अखिल हिंदु विजयध्वज गीत…. स्व. वि. दा. सावरकर ☆
अखिल – हिंदु – विजय – ध्वज हा उभवुया पुन्हा ॥ध्रु॥
या ध्वजासची त्या काली । रोविती पराक्रमशाली
रामचंद्र लंकेवरती । वधुनि रावणा ॥१॥
करित जैं सिकंदर स्वारी । चंद्रगुप्त ग्रीकां मारी
हिंदुकुश – शिखरी चढला । जिंकुनि रणा ॥२॥
रक्षणी ध्वजाला ह्याची । शालीवाहनाने साची
उडविली शकांची शकले । समरि त्या क्षणा ॥३॥
हाणिले हुसकिता जेथे । हूणांसि विक्रमादित्ये
हाच घुमवि मंदसरच्या । त्या रणांगणा ॥४॥
जइं जइं हिंदू सम्राटे । अश्वमेध केले मोठे
करित पुढती गेला हाचि । विजय घोषणा ॥५॥
उगवुनि सूड हिंदूंचा । मद मर्दुनि मुस्लीमांचा
शिवराय रायगडी करिती । वीरपूजना ॥६॥
ध्वज हाच धरुनि दिल्लीला । वीरबाहु भाऊ गेला
मुसलमीन तख्ता फोडी । हाणुनि घणा॥७॥
पुढती नेम कांही ढळला । ध्वज जरी करातुन गळला
उचलुया पुनरपि प्राणा । लावुनि पणा ॥८॥
(आंग्ल दैत्य तोचि आला । सिंधुतूनि घालुनि घाला
बुडविला सिंधुतचि त्याही । करुनि कंदना ॥८॥)
– कवी – वि. दा. सावरकर
☆ रसग्रहण – सुश्री शोभना आगाशे ☆
भारत पारतंत्र्यात असताना १९३८ साली सावरकरांनी ही कविता लिहिली होती. त्यावेळी त्या कवितेत पहिली आठ कडवी होती. स्वातंत्र्यप्राप्तीनंतर १९५१ साली या कवितेतलं आठवं कडवं बदलून, त्याजागी सावरकरांनी वर कंसात दिलेलं आठवं कडवं जोडलं.
या देशातल्या पौराणिक व ऐतिहासिक वीरांनी परकीय आक्रमणाला कसं तोंड दिलं, शत्रूला पळवून लावलं आणि हिंदूंचा विजयध्वज कसा फडकत ठेवला याचं वीरश्रीपूर्ण वर्णन या कवितेत केलेलं आहे. कवितेतले जोशपूर्ण शब्द, काळजाला भिडणारे प्रसंग, प्रत्येक कडव्याच्या शेवटी येणारे, यमक साधणारे खणखणीत शब्द, भारतीयांची छाती अभिमानाने फुगविणारे इतिहासातले दाखले देऊन हिंदुंच्या वीरश्रीला साद घालणारी, त्यांचा आत्मविश्वास वाढविणारी विजयाची वर्णने अपेक्षित परिणाम नक्कीच साधतात, रोमांचित करतात. सावरकर या कवितेत, प्रभू रामचंद्रांनी केलेला रावणवध, सम्राट चंद्रगुप्ताने सिकंदराचा पराभव करून त्याचा सेनापती सेल्युकसला, त्याच्या ग्रीक सैन्यासह हिंदुकुश* पर्वतापर्यंत घ्यायला लावलेली माघार, शक व हूणांचा* शालिवाहन व विक्रमादित्य* यांनी केलेला पराभव, मुस्लीम पातशाही नेस्तनाबूत करण्यासाठी शिवाजी महाराजांनी उभारलेला स्वातंत्र्यलढा व मिळवलेले विजय, सदाशिवभाऊ पेशव्यांच्या नेतृत्वाखाली दक्षिणेची मोहिम फत्ते केल्यानंतर उत्तरेच्या मोहिमेत २ ऑगस्ट १७६० रोजी मराठ्यांनी जिंकलेलं दिल्लीचं तख्त* या व अशा ओजस्वी इतिहासाची हिंदु बांधवांना आठवण करून देऊन, इंग्रजी सत्तेविरुद्ध लढण्यासाठी व हिंदू विजयध्वज फडकविण्यासाठी कवी या कवितेद्वारे हिंदूंना उद्युक्त करीत आहेत.
*हिंदुकुश पर्वत = हिमालयीन पर्वत रांगांचा अफगाणिस्तान पासून ताजिकिस्तान पर्यंत पसरलेला पश्चिमेकडील भाग.
*शक व हूण = पूर्व/मध्य आशियातील रानटी, लुटारू टोळ्या
*शालिवाहन = गौतमीपुत्र सातवाहन/ सालाहन/ सालीहन ( इ स ७२ ते ९५) म्हणजेच शकारी किंवा शककर्ता शालीवाहन. शकांवरील विजयाचे (इ.स.७८) स्मरण म्हणूनच त्याने चैत्र शुद्ध प्रतिपदेपासून सुरू होणारे शालिवाहन शक १९४५ वर्षांपूर्वी सुरू केले. हे युद्ध आताच्या नाशिक परिसरात झालं, कारण नाशिकला लागूनच गुजरात व राजस्थान इथं शक राजा नहापानने आपली सत्ता प्रस्थापित केली होती.. याविषयीचा शिलालेख नाशिक येथे उपलब्ध आहे.
*विक्रमादित्य = दुसर्या चंद्गुप्ताचा नातू स्कंदगुप्त. याने देखिल आपल्या आजोबांप्रमाणे विक्रमादित्य हे बिरुद धारण केले होते.
*मंदसर(मंदोसर/मंदसौर)= मेवाड व माळवा यांच्या बाॅर्डरवरील शहर. येथे अफूची शेती होते. हे रावणपत्नी मंदोदरीचं माहेर मानलं जातं. येथे झालेल्या युद्धात विक्रमादित्याने हूणांचा दारूण पराभव केला. त्यानंतर ४०/५० वर्षे हूणांनी भारतावर आक्रमण केले नाही.
*दोन ऑगस्ट १७६० रोजी दिल्ली जिंकल्यानंतर दोन महिन्यांनी मराठ्यांनी १० ऑक्टोबर रोजी शाह आलम या मुघल वंशजाला दिल्लीच्या गादीवर बसवलं.
प्रत्येकालाच जीवन हे जन्मानंतर लाभतं.कसं असतं बरं मानवी जीवन ?जीवन हवहवसं तेंव्हाच वाटतं जेंव्हा तुम्ही त्यात काही आनंदाचे ,सुखाचे क्षण निर्माण करता.जन्मानंतर जेंव्हा तुम्ही मोठे होता,संस्कारातून सुजाण बनता,तेंव्हा मंगेश पाडगावकर जी म्हणतात त्याप्रमाणे “या जन्मावर,या जगण्यावर शतदा प्रेम करावे ,”या त्यांच्या गीतानुसार
जीवनाची वाटचाल आनंदानं,प्रेमानं,स्नेह जोपासत करणं श्रेयस्कर ठरतं.जीवनात प्रत्येक वेळी समोर सुखच येतं असं नाही पण भगवदगीतेत भगवान श्रीकृष्णांनी सांगितल्यानुसार
“सुखदु:ख समेत्कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ” ही वृत्ती जर आपण ठेवली तर सुख लाभो किंवा वाट्याला दु:ख येवो,यश मिळो किंवा पराभवाचा सामना करायला लागो,आपण दोन्ही गोष्टींकडे तटस्थ वृत्तीने पाहावे हे तत्वज्ञान अंगिकारता येते.अर्थात हे सोपे नाही.
जीवन प्रत्येकाला जसं तो पाहतो तसं त्याच्या दृष्टिकोनानुसार भासतं.दृष्टीकोनाबाबत बोलताना मला नुकतीच वाचलेली एक गोष्ट आठवते.एके ठिकाणी तीन पाथरवट दगडावर छिन्नीचे घाव घालीत होते.जवळच बांधकाम सुरू असलेलं एक मंदिर होतं.रस्त्याने एक वाटसरू चालला होता.त्याने त्या तिघांपैकी एकाला विचारले,”तू काय करतो आहेस ?”तो त्रासिक स्वरात उत्तर देतो,”मी छिन्नीने दगड फोडतो आहे.त्रासाचं काम बघा.”नि घाम पुसतो.वाटसरु दुसर्या पाथरवटास तोच प्रश्न विचारतो.तेंव्हा तो मोठा उसासा टाकतो नि म्हणतो,”अरे बाबा,पैटासाठी कष्टाचं काम करतोय मी.”वाटसरु तिसर्या पाथरवटासही तोच प्रश्न विचारतो,”बाबा रे,काय चाललय तुझं?” तेंव्हा तो मात्र अभिमानाने म्ज्ञणतो,इथं हे जे मंदिर उभं होतय ना,ते बांधण्यास मी मदत करीत आहे.”तीनही पाथरवट एकच काम करीत होते.दगडाला आकार देण्याचे.पण एकाला ते त्रासिक,कंटाळवाणे वाटत होते,दुसर्याला पोटासाठी राबणे वाटत होते नि तिसर्याला मात्र एका सुंदर निर्मितीस आपण हातभार लावीत आहोत याचा अभिमान वाटत होता -आनंद वाटत होता. तसच कोणाला जीवन पहाटेच्या सुंदर दवासारखं वाटतं,तर कोणाला शीतल वायुच्या झुळकी सारखं, एखाद्या खवय्याला ते रसास्वादी जिव्हेच्या तृप्तीसारखं भासतं,तर एखाद्या लढवय्याला ते रणांगणासारखं वाटतं.नि मल्लाला आखाड्यासारखं.जीवन हवहवसं तेंव्हाच वाटतं जेंव्हा आपण प्रत्येक क्षणी ते समरस होऊन जगतो.आपल्या जीवनात बालपणापासून वार्धक्यापर्यंत आपल्या वाट्याला अनेक भूमिका येतात.बालपणी विद्यार्जन,ज्येष्ठांच आज्ञापालन केलं तर शिक्षणात यवस्वी होऊन आपण नोकरी किंवा व्यवसायात स्थिरस्थावर होतो.विविध भावना नि नात्यांची जपणूक करुन वृद्धापकाळी आपण मार्गदर्शकाची भूमिका पार पाडू शकतो.फक्त जीवनात उद्योग शीलता जपणे महत्त्वाचे ठरते.एक सुभाषितच सांगते –
उद्यमेनहि सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृग: ॥
याचा अर्थ असा कि, उद्योग केल्यानेच आपल्या मनातील इच्छा पूर्ण होतात झोपलेल्या सिंहाच्या तोंडात हरिण आपोआप प्रवेश करीत नाही. तर त्यासाठी त्याला शिकार करावी लागते.
जीवनात कुठेतरी श्रद्धा नि समोर एखादे ध्येय असूल तर जीवनाचा प्रवास योग्य दिशेनं होतो.नाहीतर ते भरकटते.अलिकडे वृत्तपत्रात जीवनाचा आस्वाद न घेताच ते संपवू पाहणारी तरुणाई दिसते नि मन अगदी विषण्ण होतं.विवेकाने,सकारात्मक दृष्टिकोनातून जर विचार पूर्वक वर्तन केलं तर जीवन हवहवसं वाटतंनि सार्थकी लावता येतं.आकाशातील इंद्रधनुष्य जसं तानापिहिनिपाजातुन खुलतं ,तसं मानवता,श्रम , सहिष्णू वृत्ती,प्रमाणिकपणा,सत्शील वृत्ती,त्याग,प्रेम,यासारख्या सदगुणातून बुद्धीला कृतीची जोड देऊन मानवी जीवन सार्थकी लागततं.म्हणून शेवटी इतकं म्हणावं वाटतं
☆ आंबटगोड नातं…– भाग- २ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆
(माझ्याकडून तुम्हाला हा घ्या किंडल रीडर !. मी पैजेतून जिंकलेल्या आणि माझ्या बचतीच्या पैशातून घेतला आहे, बरं का !” असं म्हणून पैठणी घेऊन वहिनी आत गेल्या.) – इथून पुढे –
मी साहेबांना विचारलं, “ साहेब, वहिनींशी कसली पैज लावली होती हो? ”
साहेब मिश्कीलपणे म्हणाले, “अरे, काय आहे ना, तिने आजवर मला कित्येक वेळा बुद्धिबळाच्या डावांत हरवत पैजा जिंकल्या आहेत.”
मी म्हटलं, “ साहेब, काय सांगताय? तुम्ही तर बुद्धिबळातले चॅम्पियन ! तुम्हाला हरताना मी तरी कधीच पाहिलं नाही.”
“वसंता, अरे दिवसभर टीव्ही किती वेळ पाहत बसणार? काहीतरी विरंगुळा हवा ना? मग एकदा बुद्धिबळाचा डाव मांडला. दोन तीन चालीतच मी तिला शह दिला. त्यानंतर ती पुन्हा खेळायलाच तयार होत नव्हती. मग एकदा पैज लावली. तिनं मला हरवलं तर मी पाचशे रूपये द्यायचे आणि ती हरली तर तिने काहीच द्यायचे नाहीत. बराच वेळ खेळून झाल्यावर मी मुद्दामच हरलो. त्यानंतर मी दरवेळी मुद्दामच हरत गेलो. माझ्या टाईमपासची सोय झाली आणि पैसे काय माझ्या पाकिटातून तिच्या पर्समध्ये!” मला टाळी देत साहेबांनी खुलासा केला.
इतक्यात सुधा वहिनी व सविता तयार होऊन आल्या. धूपछांव रंगांची पैठणी नेसलेल्या सुधावहिनींना साहेब कौतुकाने न्याहाळत होते. आम्ही चौघे कॅंडल डिनरसाठी एका हॉटेलात गेलो. हलकंफुलकं खाऊन परत आलो.
सकाळीच जाग आली ती वहिनींच्या बडबडण्याने. “ किती वेळा सांगून झालं, लाद्या पुसत जाऊ नका म्हणून.. एक शब्द ऐकतील तर शप्पथ. अचानक पाय घसरून पडले तर कितीला पडेल ते…”
“तू ऐकतेस काय माझं? कंबर दुखेपर्यंत एक एक फरशी घासत बसतेस ते.” साहेब बोलत होते. मला पाहताच म्हणाले, “ वसंता, चल बाहेर चक्कर टाकून येऊ.” मी हो म्हणून तोंडावर पाणी मारून कपडे करून आलो.
“सुधा, अग माझ्या चपला कुठायत? रात्री इथंच काढून ठेवल्या होत्या. ह्या बाईला सवयच आहे माझ्या चपला लपवायची..”
“समोर शूज दिसताहेत ना, निमूटपणे घालून जा. एक तर मधुमेह. पायाला जपायचं नावच नाही. शूज असले तरी चपलाच पाहिजेत..” वहिनींचा तोंडाचा पट्टा सुरू होता.
साहेब शूज घालून निघाले. वॉकिंग ट्रॅक असलेली बाग खूपच छान होती. आम्ही फिरून आलो. आल्या आल्या वहिनींनी फक्कड चहा दिला.
मी म्हटलं, “अहो, वहिनी बाग छान आहे हो. मी तर म्हणतो, तुम्हीही साहेबांच्या बरोबर रोज जायला हवं.”
“तुमचे साहेब सकाळी उठून चोरासारखे कधी बाहेर पडतात हे मला कळायला हवं ना. मगच त्यांच्याबरोबर जायचा विचार करता येईल.” असं ताडकन बोलून त्या आत गेल्या.
साहेब मला हळूच म्हणाले, “अरे, माझं काय, मी बेडवर पडल्या पडल्या डाराडूर झोपतो. पण तिला लवकर झोपच लागत नाही. पहाटे पहाटे तिला छान झोप लागलेली असते. साखरझोपेतून तिला कशासाठी उठवा, म्हणून मी हळूच सटकतो.”
“साहेब, आज कामवाली आली नाही का? तुम्ही लादी पुसत होता म्हणून ….” मी सहज विचारलं.
“ती नाही आली. ती आमची कामवाली बाई नाही, ती आमची केअरटेकर आहे. अरे तिच्या मुलीचं बाळंतपण ह्याच आठवड्यात आहे. बिचारी काल दुपारीच गेलीय. वसंता, तुला एक सांगू? एका विशिष्ट मर्यादेपलिकडे वय वाढल्यावर माणसाला कुठलंही काम केलं की थकायला होतं. कुठलीही दगदग नकोशी वाटायला लागते. हळूहळू ही माणसे मग कृतिशील आयुष्यातून निवृत्त होत जातात. निवृत्ती म्हणजे विश्रांती. पण निवृत्ती म्हणजे चोवीस तास रिकामपण असेल तर मात्र त्याचाही कंटाळा आल्यावाचून राहात नाही. त्याकरिता आपल्या प्रकृतीला झेपतील अशा बेताने आपण आपली कामे करायला हवीत.”
“तुला सांगतो, बागेत रोपे लावून, त्यांची निगा ठेवत राहिल्याने सुद्धा आपल्याला बाह्य जगाशी जिवंत संबंध जोडल्याचा आनंद मिळतो. परिणामी आपले मन ताजे व टवटवीत रहाते. बरेच लोक फ्यूज जोडायचं काम स्वत: करतात. स्क्रू ड्रायव्हर वगैरे हत्यारे घरी ठेवतात आणि सवड असेल तेव्हा छंद म्हणून का होईना छोटीमोठी कामे करत असतात. हे लोक कधीच कंटाळलेले नसतात. ह्या उलट आपल्या कौशल्याचा उपयोग करण्याची संधी मिळाल्याबद्दल ते स्वत:वरच खूश असतात. ‘बोअरडम’ विषयी मोराव्हिया नावाच्या लेखकाने लिहिलेलं असंच काहीबाही वाचलेलं मला आठवतं.”
“वसंता, आमची मुलं गुणी आहेत. त्यांचं आमच्यावर खूप प्रेम आहे. पण निवृत्तीनंतर मला जाणवायला लागलं की आम्ही दोघे एकमेकांच्या आनंदासाठी कधी जगलोच नव्हतो. फक्त मुलांच्या स्वप्नपूर्तीसाठीच जगत होतो. मी तेव्हाच ठरवून टाकलं की जीवनाच्या ह्या सांजसमयी आम्ही दोघांनी एकमेकांचे आधार बनून राहायचे. आयुष्यात उरलेले अनमोल क्षण एकमेकांच्या आनंदासाठी समर्पित करायचे. मी तर म्हणतो वृद्धापकाळातच पतीपत्नींच्या नात्यातल्या सहवासाची खुमारी अधिकच वाढायला लागते.”
दोन दिवसानंतर अगदी जड मनाने आम्ही त्या उभयतांचा निरोप घेऊन बाहेर पडलो. थ्री टायर एसीच्या बोगीत येऊन बसलो. थोडेसे स्थिरस्थावर झाल्यावर, सविता म्हणाली, “आपले चार दिवस इथे किती मजेत गेले ना? त्या दोघांची दिवसभर कशी अविरत जुगलबंदी चाललेली असते. नवरा-बायको या नात्याची गंमतच काही और असते. काय ते, लुटुपुटीचं भांडण आणि काय तो एकमेकांचा प्रेमाचा वर्षाव. त्या दोघांच्या दरम्यान असलेलं आंबटगोड नातं मला पहिल्यांदाच इतक्या जवळून पाहायला मिळालं.”
“अग, मी सुद्धा पहिल्यांदाच साहेबांचे आणि वहिनींचे हे रूप पाहत होतो. त्यांचा एकमेकांवरचा लटका राग, लोभ, त्यांचे रुसवे, फुगवे, त्यांचे परस्परांतील प्रेम, आदर सगळं काही किती लोभस वाटत होतं. चपला लपवल्या म्हणून रागावणारे साहेब आणि मधुमेही साहेबांच्या पायांची काळजी करणाऱ्या वहिनी, कामवाली बाई आली नाही म्हणून लाद्या पुसणारे साहेब आणि ‘अचानक पाय घसरून पडले तर’ म्हणून काळजी करणाऱ्या वहिनी, वहिनींच्या आवडीची पैठणी आणणारे साहेब आणि साहेबांच्या वाचनाची आवड ओळखून त्यांना किंडल रीडर भेट देणाऱ्या वहिनी …. अशी कितीतरी मनोहर रूपं आपल्याला पाहायला मिळाली. पण एक जाणवलं, त्या दोघांच्या एकमेकांच्या विरूद्धच्या तक्रारीत, लुटुपुटीच्या भांडणात तर त्यांचं परस्परांविषयी असलेलं प्रगाढ प्रेम व काळजीच दडलेली जाणवत होती. सगळं कसं स्वच्छ, पारदर्शी असं ते आंबटगोड नातं ! ”
“सविता, तू पाहिलंस ना, लिंबाचं लोणचं जितकं अधिक मुरत जातं, तितकी तिची चव अधिकच बहारदार होत जाते. अगदी तसंच, साहेबांचे आणि वहिनींचे हे नाते प्रेमाने छान मुरत गेलेले आहे. नवरा बायकोचे नाते असेच असते कधी गोड तर कधी आंबट. लग्नानंतर फुलत फुलत जाणारे हे नाते आयुष्यात सुखाचा गोडवा घेऊन येते. वैवाहिक जीवन हे वेगवेगळ्या अनुभवांनी समृद्ध होत जाते. कधी प्रेम तर कधी भांडणे अशा प्रकारे आयुष्य पुढे सुरु राहते. आंबट गोड असे हे नाते हळुवारपणे जपायचे असते. लुटुपुटीची भांडणं हा सहजीवनाचा एक अविभाज्य भाग आहे. त्या भांडणातून प्रेम वाढत जायला हवे आणि परस्परांतील नाते आणखी फुलत जायला हवे.”
“होय ना? मग आजपासून आपणही तसंच भांडायचं का? ” असं म्हणत सविता जोरजोरात हसत होती आणि मीही मनमोकळेपणाने हसत तिच्या हास्यात सामील झालो. आजूबाजूचे लोक आमच्याकडेच पाहत होते…!
(तसे न करता आपण त्यांना नको तेवढी स्पेस देवून आपल्या जन्मदात्यालाच बेडरूममधे झोपायला स्पेस नाही, असे म्हणत असू ,तर ही स्पेस नात्याच्या, जिव्हाळ्याच्या, कुटुंबव्यवस्थेच्या विनाशाकडे नेणारी आहे, हे निश्चित.) – इथून पुढे —-
कुणीतरी आपल्याला निमंत्रण देतो, घरी बोलावतो, आपण जातो. यजमानांचा मुलगा दहावीला असतो. परीक्षेला अजून ५ महिने बाकी असतात. मुलगा त्याच्या बेडरुममध्ये असतो. आई त्याला बोलवायला जाते. हेतू हा, की बाहेर येऊन आपल्याला त्याने भेटून मग जावे. आई, दारावर हळूच टकटक करते. “काका-काकू आले आहेत, थोडावेळ बाहेर येवून भेट त्यांना”. आतून नकार येतो. आई नाराज होऊन बाहेर येते. “उद्या क्लासमध्ये त्याची परीक्षा आहे, अभ्यास झालेला नाही “, असे सांगून, वेळ मारुन नेते. दुसरा असाच प्रसंग. आपण नातवाईकांकडे जातो. चहा-पोहे, गप्पा सर्व होतात. एक तासाने आपण जायला निघतो. त्यावेळी सहजच त्यांच्या दहा वर्षाच्या मुलाची, अमितची आठवण होते. आपण सहजच म्हणतो, “अमित शाळेत असेल ना! त्याला सांगा ,आठवण काढली काकांनी.” असे म्हटल्यावर अमितचे बाबा म्हणतात, “अरे सॉरी, त्याला आज सुट्टीच आहे.त्याला बोलवायला विसरलो. आहे त्याच्या रुममध्ये, बोलवतो” आणि ते त्याला हाक मारतात. “अरे काका निघाले आहेत, लवकर ये” तो येतो. तोपर्यंत आपण लिफ्टच्या दारात असतो. या दोन्ही प्रसंगात प्रश्न निर्माण होतात की, आई-बाबा या मुलांना, “ते काही नाही. दोन मिनिटे बाहेर ये, नमस्कार कर आणि पुन्हा जा”, असे दटावून का सांगू शकत नाहीत? त्यांचा त्यांच्या मुलावरचा हक्क गमावला गेला आहे? की ही नाती पुढच्या पिढीने सांभाळायची आवश्यकता नाही, असेच संस्कार त्यांना करायचे आहेत ? की मुलांना स्पेसमधून बाहेर काढले की ते उगाच नाराज होतील, ही भीती त्यांना सतावते आहे?
या आणि याला आनुषंगिक अशा असंख्य प्रश्नांची गर्दी डोक्यात होत असते.याची उत्तरे आपल्याला आणि त्या मुलांच्या आईबाबांनाही ठाऊक असतात.आपल्या पेक्षा त्यांना त्यांच्या मुलांची मने जपणे,ती दुखवू न देणे हे प्राथम्याचे असते,हे आपल्याला समजून घ्यावे लागते. त्यांच्यात आणि आपल्यात मोठी स्पेस आहे,हे सत्य स्वीकारावे लागते.
कुटुंबात परस्परांना इतकी स्पेस दिली जाते, घेतली जाते की, नात्यात नकळत भावनिक अंतर पडायला लागते आणि एकमेकांवरचे प्रेमाचे हक्क गमावले जावू लागतात. घरी कोणीही नातेवाईक, कुटुंबातील कुणाचेही मित्र, मैत्रिण आले आहेत समजल्यावर खरे तर प्रत्येकाने आपली स्पेस सोडून स्वतःहून बाहेर येऊन त्या व्यक्तीला अल्पवेळ का होईना भेटणे, बोलणे आवश्यक आहे. अर्थात वर म्हटल्याप्रमाणे या सवयी बालवयातच लावणे आवश्यक आहे.
पूर्वीच्या आणि आताच्या कुटुंबसंस्थेतील नातेसंबंधावर, व्यवहारांवर एका हिंदी विचारवंताचे खूप छान भाष्य आहे. ते म्हणतात, “पहले सबकुछ दिलसे होता था, क्योंकि दिल को दिमाख नही था… अब दिल को दिमाख आ गया है”. हदयाला स्वार्थी बुद्धीचे कोंब फुटले आहेत. माझे अस्तित्व, माझे हक्क, माझे विचार, माझे सुख या केंद्राभोवती ज्याची त्याची स्वतः ची वर्तुळे तयार होत आहेत. ही वर्तुळे कुटुंबाच्या वर्तुळात
गुण्यागोविंदाने राहतात तोपर्यंत ठिक आहे. पण त्यापलिकडे ती विस्तारायला लागली की नात्यात सुवर्णमध्य गाठणे कठिण होऊन बसते. हदयाला बुद्धीचे कोंब फुटणे हे डोळसपणा म्हणून चांगलेच.पण ते केवळ स्वार्थबुध्दीचे कोंब नकोत स्वार्थबुद्धीबरोबरच विवेकबुद्धीचेही त्याला कोंब फुटावेत आणि हे विवेकबुद्धीचे कोंब स्वार्थबुद्धीपेक्षा मोठे असावेत. तरच स्पेस घेतांना सुवर्णमध्य साधला जातो. कुटुंबाची सोनेरी झळाळी आणि नात्यातली ओल, हिरवेपण टिकून राहते.
नात्यात अधिकाधिक वेळ स्पेस घ्यायला मोबाईलचे आक्रमण हेही एक कारण आहे.हातात मोबाईल आल्यापासून तर प्रत्येक जण त्याला हवी तेव्हा हवी तेवढी स्पेस घेत असल्याचे दिसते. याला मी, तुम्ही कुणीही अपवाद नाही. पण याचा सुवर्णमध्य साधला गेला पाहिजे. संध्याकाळी सर्वजण कामावरुन, शाळेतून, व्यवसायाच्या ठिकाणाहून घरी येतात, एकत्र जमतात. अशावेळी तरी थोडा वेळ दिवसभरातल्या गंमतीजमती, घडामोडी यावर गप्पा व्हायला हव्यात. तेव्हाही दिवाणखान्यात बसून सर्वजण मोबाईलमध्ये डोके घालून बसली असतील तर ही स्पेस नात्यात, अंतराळात असते तशी पोकळी निर्माण करणारी ठरते. कुछ ऐसे हो गए इस दौर के रिश्ते…आवाज अगर तुम न दो तो बोलते वह भी नही.. अशावेळी कुटुंबात एकतरी जागरुक सदस्य असावा की जो सर्वांना “मोबाईल खाली ठेवा, आता थोडे बोलू या”, असा आवाज देईल. नाहीतर घराचे घरपण संपून त्याला लॉजिंग बोर्डींगचेच स्वरुप येईल.
स्पेस घेण्यावरच्या मर्यादा या कुटुंबव्यवस्था, आपापसातले प्रेम, आपुलकी, संवाद टिकविण्याच्या दृष्टीने आवश्यक आहेत.म्हणून त्या ठळकपणे सांगितल्या. पण मुलांचे करियर, उज्वल भविष्य घडायला हवे असेल आणि त्यासाठी त्यांना घडवायचे असेल तर त्यांना स्पेस द्यावीच लागेल आणि ती देणे योग्यही. मूले म्हणतात, “तुम्हाला काय म्हणायचे आहे ते कळले आहे. फक्त तसे करायला थोडा स्पेस द्या आम्हाला” इथे स्पेस म्हणजे ‘वेळ’ ते मागत असतात. ही स्पेस त्यांना द्यायला हवी. कधी ती म्हणतात, “तुम्ही सांगता ते योग्य आहे. ते करेनही मी. पण तुम्ही म्हणता त्याच पद्धतीने करायचा आग्रह धरु नका. मला थोडी स्पेस द्या”. इथे ते स्पेस म्हणजे करण्याच्या पद्धतीचे स्वातंत्र्य मागत असतात. ही स्पेसही त्यांना द्यायला हवी. बऱ्याचदा एखादी गोष्ट त्यांना करायची नसते. पण ती करण्याचा आग्रह होण्याची शक्यता जिथे असते, तिथे जाणे ते टाळतात. तिथे त्यांना ही स्पेस म्हणजेच न येण्याचे स्वातंत्र्य घेऊ द्यावे. त्यांचे करियर,जीवनाच्या वाटा, मूल्ये याबाबत घरातल्या मोठ्यांच्या सांगण्याशी तत्वतः सहमत होऊन वाटचाल करताना त्यांनी त्यांना हवा तेव्हढा वेळ घेतला,हवी तशी पद्धत अंगिकारली तर त्यांचे हे स्पेस घेणे सुवर्णमध्य साधणारे होते. कोणीही दुखावले जात नाही.दोघानाही वेळ आली तर सहजपणे एक पाऊल मागे म्हणजेच बॅकस्पेसला सहज येता येते. नात्यांची वीण घट्ट राहते. अतिप्रेमाने नाती गुदमरत नाहीत वा कमी प्रेम मिळाले, अशी नात्यांत तक्रारही राहत नाही. एका मोठ्या वर्तुळात प्रत्येकाची वर्तुळे हातात हात घालून सुखात राहतात.
स्पेस तर प्रत्येकालाच हवी. पण ती अशी घ्यावी की, तेवढ्या काळात ताजेतवाने होऊन, उत्साहित होऊन पुन्हा बॅकस्पेसला जावून, उमटलेल्या नकारात्मक गोष्ट डिलीट करुन तिथे नवीन प्रेमाची, आपुलकीची अक्षर उमटविणे सहज शक्य होईल.स्पेस हवी,असे कोणी म्हटला,तर त्याला सांगू या,स्पेस जरूर घे..पण एकच अट..दूर रहकर भी दूरियां न लगे ,बस इतनासा रिश्ता बनाए रखना…