हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सिक्का ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सिक्का ? ?

समूह-एकांत,

सामाजिक-अंतर्मुखी,

मुखर-मौन,

काँटा-छापा,

विरोधाभासी एक ही

धरातल पर खड़े होते हैं,

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं।  

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

नवरात्रि साधना के लिए मंत्र इस प्रकार होगा-

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता,

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 191 ⇒ व्यंग्य के सरपंच… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका ललित आलेख – “व्यंग्य के सरपंच”।)

?अभी अभी # 191 ⇒ व्यंग्य के सरपंच… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो अंतर हास्य और व्यंग्य में है, वही अंतर एक पंच और सरपंच में है। पंच और हास्य में एक समानता है, दोनों ही ढाई आखर के हैं। वैसे भी पढ़ा लिखा पंच नहीं मारता, बहुत बड़ा हाथ मारता है। सरपंच और व्यंग्य की तो बात ही अलग है। प्रेमचंद की भाषा में तो पंच ही परमेश्वर है, जब कि व्यंग्य की दुनिया में तो सभी सरपंच ही विराजमान है।

अगर इस अभी अभी का शीर्षक पंच और सरपंच होता, तो कुछ लोग इसे राग दरबारी की तरह पंचायती राज से जोड़ देते। जिन्होंने राग दरबारी नहीं पढ़ी, वे उसे आसानी से संगीत से जोड़ सकते हैं।।

वैसे हास्य का संगीत से वही संबंध है जो व्यंग्य का पंच से है। हाथरस हास्य का तीर्थ ही नहीं, वहां प्रभुलाल गर्ग उर्फ काका हाथरसी का संगीत कार्यालय भी है। छोटे मोटे पंच मारकर कुछ लोग हास्य सम्राट बन बैठते हैं, जब कि व्यंग्य की पंचायत में कई सरपंच रात दिन नि:स्वार्थ भाव से सेवारत हैं।

अकबर के नवरत्नों में पंच प्रमुख बीरबल का वही स्थान था, जो नवरस में हास्य रस का होता है। हमारे आज के जीवन में भी अगर हास्य पंच है तो व्यंग्य सरपंच। जैसे बिना पंच के पंचायती राज नहीं, वैसे ही बिना पंच के हास्य नहीं। बिना सरपंच के कहां पंचायत बैठती है और, बिना व्यंग्य के सरपंच के, कहां व्यंग्य की दाल गलती है।।

जिसके व्यंग्य में अधिक पंच होते हैं, वे व्यंग्य के सरपंच कहलाते हैं। इन सरपंचों के अपने संगठन होते हैं, जिनकी समय समय पर गोष्ठियां और सम्मेलन भी होते हैं। सरपंचों को पुरस्कृत और सम्मानित भी किया जाता है। इनमें युवा वृद्ध, महिला पुरुष सभी होते हैं।

पंच बच्चों का खेल नहीं !

वैसे तो व्यंग्य के पंच अहिंसक होते हैं, लेकिन मार भारी करते हैं। कभी कभी जब पंच व्यंग्य पर ही भारी पड़ जाता है, तो सरपंच के लिए सरदर्द बन जाता है। माफीनामे से भी काम नहीं चलता और नौकरी जाने का अंदेशा तक बना रहता है।।

आए दिन बिनाका गीत माला की तरह व्यंग्य के सरपंचों की सूची जारी हुआ करती है। निष्पक्ष होते हुए भी इसके दो पक्ष होते हैं, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। हम आचार्य रामचंद्र शुक्ल की नहीं, श्रीलाल शुक्ल की बात कर रहे हैं। कुछ त्यागी सरपंच ऐसे भी हैं, जो सभी प्रपंचों से दूर हैं।

व्यंग्य के सरपंचों में ज्ञान और विवेक की भी कमी नहीं। हलाहल पीने वाले हरिशंकर और जोशीले शरद निर्विवाद रूप से व्यंग्य के सरपंचों में सर्वोपरि हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -4 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग – 4 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[4]

जो बात-बात पर अपने घर

प्रतिदिन महाभारत करते हैं

जो जड़, जमीन, जोरू के लिए

अपने अपनों से लड़ते हैं

क्या याद दिलाऊँ उनको आज

कौरवों का था क्या हश्र हुआ

उनके शव पर रोने वाला

ना बचा कोई वंशज हुआ

दुष्कर्मों का परिणाम कभी

अपने हक़ में कब आया है

यह सत्य आज समझना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

जहाँ गली-गली में आए दिन

अबला का चीर हरा जाता

जहाँ जनता मूक खड़ी होकर

देखे मृत्यु-तांडव  शीष झुका

यों शून्य हो चुकी चेतना को

अब तो जागृत होना होगा

शिथिल पड़ी मानवता को

संवेदनशील होना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 152 ☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “राष्ट्रहित में सोचिये” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “राष्ट्रहित में सोचिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “राष्ट्रहित में सोचिये” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

राष्ट्रहित में सोचिये, कर्त्तव्य पथ पर आइये

 झूठ-लालच स्वार्थ तज, सच नीति-नय अपनाइये

 राष्ट्रहित में सोचिये, कर्तव्य पथ पर आइये।

 

कर रही है स्वार्थवश हो राजनीति अपार क्षति

 कैसे इस दुर्भावना से भला संभव कोई प्रगति ?

 

बढ़ती जाती आये दिन, नई-नई समस्यायें कई

 हरेक निर्णय से उभरती हैं जटिलतायें नई।

 

क्यों हुआ है मन यों मैला, क्यों नजर दुर्बुद्धि की ?

 जरूरत है आत्मचिन्तन की औं जीवन शुद्धि की।

 

नामसझ लोगों से दिखते अधिकतर व्यवहार हैं।

 जनता की मुश्किलें बढ़ गईं, बढ़ें भ्रष्टाचार हैं।

 

कठिन होती जा रही है जिन्दगी तकरार से। 

समस्या तो हल हुआ करती है मिलकर प्यार से।

 

सभी का दायित्व है कि हों सुरक्षित सही हल

 देश की उन्नति हो जिससे और सुखदायी हो कल ।

 

तेजगति से हमारे भारत का उचित विकास हो ।

भावनायें हों न कुण्ठित, सबकी पूरी आश हो।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 88 ☆ मुक्तक ☆ ।।कर्म पूजा, कर्म ऊर्जा, कर्म ही सफलता का मन्त्र है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 88 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।कर्म पूजा, कर्म ऊर्जा, कर्म ही सफलता का मन्त्र है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

घना कोहरा आगे अंधेरा नज़र कुछ आता न हो।

हो अवसाद व  तनाव  और  कुछ भाता न हो।।

पर मत सोचना फिर भी कोई नकारात्मक विचार।

जो सकारात्मक ऊर्जा को जीवन में लाता न हो।।

[2]

आपकी सोच विचार ऊर्जा जीत आधार  बनती है।

आपकी उचित जीवन शैली  कारगार बनती है।।

कर्म ही  पूजा  कर्म ही  मन्त्र है सफलता का।

उत्साह से ही जाकर जिंदगी शानदार बनती है।।

[3]

संकल्प, दृढ़ दृष्टिकोण हों जीवन के प्रमुख अंग।

अनुशासन  हीनता हो तो लग जाती है जंग।।

सतत कोशिश और बार बार का करना अभ्यास।

निरंतर प्रयास हो और कभी ध्यान नहीं हो भंग।।

[4]

जीवन एक कर्मशाला जग ये ऐशो आराम नहीं है।

है यह संघर्ष तपोवन कोई घृणा का मैदान नहीं है।।

मत पलायन से बदनाम कर इस अनमोल जीवन को।

बिना पूरे किये फर्ज जीवन के उतरते एहसान नहीं है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अवलिया… ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ अवलिया… ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

ओलांडुनिया पाचही पर्वत

एक अवलिया आला कोणी

भणंग भटका लक्तरलेला

तुटकी झोळी हाती घेउनी

 

तळव्यावरच्या भेगांमधुनी

रक्त ठिबकले, रक्त गोठले

अंगावरच्या रेषा दाविती

किती सोसले, किती भोगले

 

दिठीत दुख-या रुतून बसली

युगायुगांची अटळ व्यथा

रुख्या-सुख्या अधरांवरती

ओघळती मग करूण कथा

 

रुद्ध जाहले अवखळ निर्झर

मोती-दाणे झोळीत ओतूनी

मूक जाहले मर्मर मधुस्वर

स्वरवलयाचे  देणे देवूनी

 

रंगरुपाचे वैभव अर्पून

पुष्पपाकळ्या विकल जाहल्या.

पाने पाने झोळीत टाकून

तरुतरुंच्या छाया सुकल्या.

 

भरली झोळी,

फकीर गेला

धुळी-मातीची विभूती लावूनी .

मलीन धुक्याचे लक्तर लेवून

सृष्टी बसली भणंग होऊनी .

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क -17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 175 – जगण्याचे बळ ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 175 – जगण्याचे बळ  ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

जगण्याचे बळ

माऊलीची माया।

तप्त जीवनात

पिता छत्र छाया।

 

साजनाची साथ

सहजीवनात।

जगण्याचे बळ

विश्वासाचा हात।

 

पाडस धरीते

विश्वासाने बोट।

त्याच्या स्वप्नापुढे

सारं जग छोटं।

 

लाखो संकटांचा

दाटता अंधार।

आशेचा किरण

मनाला आधार।

 

जीवनी संघर्ष 

लागे नित्य झळ।

प्रेम,आशा, स्फूर्ती

जगण्याचे बळ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ महिषासूरमर्दिनी.. ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) ☆

सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

?विविधा ?

☆ महिषासूरमर्दिनी.. ☆ सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी) 

झेंडूच्या फुलांच्या पायघड्यांवरून अलगदशी शारदीय नवरात्रीची मंगलमय सुरुवात झाली.तसा सगळीकडेच उत्साह नुसता ओसंडून राहिला आहे.नवरात्र म्हणजे नऊ दिवस, नऊ रात्रीचा आदिशक्ती आदिमातेच्या उपासनेचा दरवर्षी येणारा उत्सव..!

अश्विन शुध्द प्रतिपदेला घटस्थापना होते म्हणजे देवीच्या नवरात्रीची सुरुवात होते.या आदिशक्तिला आपली संस्कृती स्त्रीरुपात पहाते. आपण तिची श्रध्देने पूजा-अर्चा करतो.तिला आई,माता,माय-माऊली संबोधतो.

आपल्या परिवारालाच नाही तर अवघ्या जगताला प्रसन्न करणारी ती जगदंबा जगतजननी आहे.आपल्या पुराणातील कथांमध्ये देवी आणि असुरीशक्ति यांचे द्वंव्द वर्णन केले आहे.त्यातील एक कथा प्रसिद्ध आहे महिषासूर या असुरांच्या राजाने उन्मत्तपणे पृथ्वीवर तर धमाकूळ घातला होताच पण देवतांनाही जिंकून 

घेतले व  स्वर्गावर राज्य करण्याची तयारी केली.तेव्हा ब्रम्हां,विष्णु,शंकर यांनी आपल्या तेजातून एक आदिशक्ती निर्माण केली.तिने नऊ दिवस नऊ रात्र महिषासूराशी युध्द करुन त्याचा वध केला.म्हणजे आसुरीशक्ती नष्ट केली.

प्रत्येक माणसामध्ये चांगली-वाईट प्रवृत्ती असतेच.त्यातील वाईट प्रवृत्ती म्हणजे आपल्या मनांवर ,बुध्दीवर असलेले महिषासूराचे वर्चस्व, साम्राज्य.. ते नष्ट व्हावे,आपणास सदैव सद्बुध्दी लाभावी यासाठी कलश-घट यांची पूजा म्हणजे आपल्याच देहातील आत्म्याची पूजा करुन, अखंड ‘दीप’ लावून आत्मतेज मिळवावे.,ही कल्पनाच किती सुंदर वाटते.

यासाठी श्रध्दा,भक्ती आणि आंतरिक अशी परमेश्वराची ओढ असावी लागते.केवळ कर्मकांड असून चालत नाही.नवरात्रात जागरण म्हणजे देवीचा जागर,पूजापाठ,आरती,ही महत्वाची असली तरी देवीची उपासना करणे हा मुख्य उद्देश आहे.मग देवी कोणत्याही रुपात असो.महाकाली,महालक्ष्मी,महासरस्वती या तीन महाशक्ती यांची उपासना करुन आपण आपल्या षड्रिपूंवर विजय मिळावा, अवगुणांचा -हास व्हावा,संकटांना,वाईट प्रवृत्तींना सामोर जाण्याची क्षमता प्राप्त व्हावी यासाठी या आदिशक्तिला शरण जातो.तिला जोगवा मागतो.’ गोंधळाला ये ‘..अशी आपुलकीची साद घालतो.

सगळीकडे भ्रष्टाचार, अत्त्याचार, हिंसाचार, व्देष,नैसर्गिक आपत्ती,रोगराई पसरली असेल अशावेळी आत्मतेज वाढवून, दुर्जनांचा नाश करुन,प्रतिकूल परिस्थितीतही आपल्याला तारुन नेणाऱ्या आदिमातेला -शक्तीला

मनांपासून प्रार्थना करुयात..

‘हे महिषासूरमर्दिनी…’

आई तुझ्या पदाचा..

देई सर्व काल संग..।

दावी तुझ्या कृपेचे..

तेजोमयी तरंग..।।

या मनांपासून दिलेल्या सादाला ती

जगत् जननी नक्कीच धांवून येईल.

तिच्या चरणाशी दुजाभाव नसतोच.

सगळी तिचीच लेकरे!मग वाईट गोष्टींतून केवळ वर्तमान काळच नव्हे तर आपला भविष्यकाळही कायमचा मुक्त होईल…अन् खऱ्या अर्थाने विजयोत्सव साजरा करण्याचा,विजयपताका फडकविण्याचा ‘दसरा ‘ उजाडेल.!

‘सोनियाचा दिवस’ म्हणून सोने लुटतांना आगळाच आनंद लुटता येईल…!

© सौ. शुभदा भास्कर कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे .३८

मो.९५९५५५७९०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ घराचं वाटणीपत्र… – भाग-१ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ घराचं वाटणीपत्र… – भाग-१ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

सकाळी वर्तमानपत्र वाचत बसलो होतो. “काय कधी आलास?” असं विचारतच भास्कर आत आला. बऱ्याच वर्षानी त्याला पाहत होतो. दाढीचे खुंट वाढलेले. अंगात अघळपघळ सदरा पायजमा. भास्कर आमच्या पूर्वीच्या घराशेजारी असायचा. अर्थात अजूनही तिथेच राहतो. 

त्याची आई कुठल्या तरी सरकारी डिपार्टमेंटमध्ये क्लार्क होती. आपल्या दोन्ही मुलांना शिकवायचा तिने खूप प्रयत्न केला. मुलगी सुनिता पदवीधर झाली, मात्र भास्कर मॅट्रिकही पास होऊ शकला नाही. मग त्याने खाजगी नोकरी धरली. 

मी विचारलं, “आई कशी आहे?” 

त्यावर मान खाली घालून बोलला, “बरी असेल. वडील गेल्यानंतर आईला काही दिवसांसाठी घेऊन जाते म्हणून सुनिता घेऊन गेली. नंतर आम्ही आईला नीट सांभाळू शकणार नाही म्हणून तिला परत पाठवायचं नांवच काढत नाही. 

या गोष्टीला तीन वर्ष झालीत. सुरक्षिततेच्या नांवाखाली आईचे सगळे दागिने आधीच सुनिताने स्वत:च्या ताब्यात घेतले. तिचा खरा डोळा आईच्या हजारांच्या पेन्शनीवरही होता. हे सगळं पूर्वनियोजित होतं. माझ्या वाटणीला तेवढं भाड्याचं राहतं घर आलंय बघ.”

एक मात्र खरं की भास्करचं त्याच्या आईवर निस्वार्थी प्रेम होतं, यात शंकाच नाही. ही विलक्षण गोष्ट ऐकून मी चाटच पडलो. 

तो पुढे म्हणाला, “बरं ते जाऊ दे. तुझा मित्र सतीश भेटला होता. त्याने तुझी आठवण काढली. गेल्यावर्षी त्याला स्ट्रोक आला होता. पठ्ठा चिवट आहे. जरा हालचाली मंद झाल्या आहेत, पण तो आपल्या पायावर उभा आहे. जमलंच तर भेट त्याला.” असं म्हणून भास्करने निरोप घेतला.      

मध्यंतरी मी सांगलीला असताना माझा एक वर्गमित्र मला भेटायला आला होता. व्यापाराच्या निमित्ताने आला होता. आम्ही जवळच्याच हॉटेलात जेवायला गेलो. भरपूर गप्पा मारल्या. “गावी आल्यावर नक्की फोन कर” असं म्हणून त्यानं निरोप घेतला.

नंतर एकदा गावी गेल्यावर त्या मित्राला मोबाईल लावला. मी ‘हॅलो’ म्हणताच तिकडून आवाज आला. “हां बोल, कसा काय फोन केलास? काही काम होतं कां?”

त्याच्या अशा अनपेक्षित कोरड्या प्रतिसादाने मी चांगलाच वरमलो. “अरे नाही. चुकून तुझा नंबर लागला वाटतं. आय अ‍ॅम सॉरी!” म्हणून फोन कट केला. त्यानंतर कधी कुणा मित्राला फोन करण्याच्या किंवा भेटण्याच्या फंदात पडलो नाही….                

सतीश माझा खूप जवळचा मित्र होता. आमचे जिव्हाळ्याचे संबंध होते. ‘चला मित्राला भेटू या’ म्हणून मी स्कूटीवरुन निघालो. वीसेक वर्षानंतर मी त्या परिसरात जात होतो. सगळंच कसं बदलून गेलं होतं. शोधत शोधत सतीशच्या घराजवळ आलो. उन्हं उतरली होती. बाहेर सहा सात मुलं अंगणात खेळत होती. त्या मुलांना सतीशच्या विषयी विचारलं. त्यांनी तिथेच झाडाखाली खुर्ची टाकून बसलेल्या गृहस्थाकडे बोट दाखवत, ओरडून सांगितलं, “आजोबा तुमच्याकडे कोण आलंय पहा.” मी गाडी लावली. 

बऱ्याच कालावधीनंतर मी सतीशला भेटत होतो. खूपच कोमेजलेला दिसत होता. मुळांपासून उखडलेल्या झाडाची जशी स्थिती होते तसा तो खुर्चीत आक्रसून बसला होता. आपल्या नेहमीच्याच चिरपरिचित पांढरा पायजमा आणि कुर्ता या वेषांत होता. त्याच्या मनाच्या स्थितीप्रमाणेच कपड्यांवर देखील सुरकुत्या पडल्यामुळे तो केविलवाणा दिसत होता. मला आश्चर्य वाटलं. तो किती ऐटीत असायचा. मी पहिल्यांदाच त्याला असा पाहत होतो. 

माझ्या डोक्यावरील कॅपमुळे त्यानं मला लगेच ओळखलं नाही. कॅप काढताच, खुर्चीतून सावकाश उठून उभा राहिला आणि हात हातात घेऊन म्हणाला, “अरे, किती वर्षांनी तुला माझी आठवण आली? चक्क दहा वर्षानंतर भेटतोयस. तुझी वहिनी नेहमी तुझी आठवण काढायची.”

एव्हाना लांबून पाहणाऱ्या मुलांच्या लक्षात आलं की ‘हा कुणीतरी आजोबांचा जवळचा मित्र असणार’. ते धावतच आले. 

सतीशने त्या पोरांना सांगितलं, “बाळांनो, आत जाऊन दोन कप चहा टाकायला सांगा.”

पोरं पळतच आत गेली. जीभ जड झाल्यानं, त्याला बोलायला काहीसं अवघड जात होतं.   

मी विचारलं,“कसा आहेस?” तर खिन्नपणे म्हणाला, “बरा आहे म्हणायचं. आला दिवस ढकलायचा. तुझी वहिनी सोडून गेली, एकटा पडलो.”

मी म्हटलं, “वहिनी अशा अचानक निघून जातील असं वाटलं नव्हतं.”

सतीश घुश्शातच म्हणाला, “जाऊ दे, गेली तर गेली. मला काही फरक पडत नाही.” 

खरं तर हा वरवरचा त्रागा होता. वयाच्या अठराव्या वर्षीच सतीशचं लग्न झालं होतं. त्यांचं एकमेकावरचं घट्ट प्रेम काही झाकलेलं नव्हतं. मी त्याच्या खांद्यावर हात ठेवताच, कसाबसा हुंदका दाबत तो म्हणाला, “अरे, तिने तरी असं मध्येच दगा द्यायला नको होतं. आताच मला तिच्या सहवासाची खरी गरज होती.”

काही वेळ स्तब्धतेत गेला. घसा खाकरत सतीश पुढं सांगत होता, “तुला तर माहीत आहे. आमचं एकत्र कुटुंब होतं. सगळ्या भावांचा वेगळा व्यवसाय होता. खरेदी विक्रीत मिळणारी दलाली हा माझा बिनभांडवली धंदा होता. सचोटीच्या व्यवहारामुळे मी भरपूर पैसे मिळवत होतो. मी एकटाच निस्वार्थीपणाने घरात लागेल तो खर्च करीत होतो.

‘जो पर्यंत तुम्ही बाजारात उभे असाल तोपर्यंत तुमचे उत्पन्न चालू राहील. त्यानंतर काय? आपल्या म्हातारपणासाठी चार पैसे मागे टाका.’ असं तुझी वहिनी सारखं सांगायची पण मी कधी मनावर घेतलं नाही. 

ती जिवंत होती तेव्हाच मी गंभीरपणे आजारी पडलो. सहा महिने बिछान्याला खिळून होतो. उत्पन्नाचं साधन गेलं. 

भावांची मुलं कर्तीसवरती झाली होती आणि घर सांभाळायची जबाबदारी जेव्हा त्यांच्यावर आली तेव्हा अचानक वेगळे होण्याचा प्रस्ताव पुढे आला. अखेर भावाभावांच्यात घराच्या वाटण्या झाल्या. माझ्या हिश्श्याला त्या कोपर्‍यातल्या तीन खोल्या आल्या.”

आत डोकावून पाहिलं. भिंती बांधून वाड्याचं रूपांतर असंख्य खोल्यांत झालं होतं. 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “कंडक्टर…” भाग-२ – लेखक : श्री सुधीर खांडेकर ☆ प्रस्तुती – श्री विनय माधव गोखले ☆

श्री विनय माधव गोखले

? मनमंजुषेतून ?

☆ “कंडक्टर…” भाग-२ – लेखक : श्री सुधीर खांडेकर ☆ प्रस्तुती – श्री विनय माधव गोखले ☆

(माझं रूटीन चालूच होतं. दीड दोन वर्षे पूर्ण झाली असावीत या घटनेला.) इथून पुढे — 

नेहमीप्रमाणे वाशीच्या बस स्थानकात वेलचीचं बाजकं घेऊन उभा होतो. आज पुण्यात लवकर पोचायचं म्हणून मिळेल त्या पहिल्या बसनं जायचं ठरवलं होतं. नेमकी कर्नाटकची बस आली,  बस कोथरूड वरून जाते याची खात्री करून घेतली आणि बसमध्ये बसलो. वेलचीचं बाजकं सिटखाली ठेवलं. कंडक्टर आला, तिकीट देताना त्याला वेलचीचा वास जाणवला असणार, त्यानं मला एकदा निरखून पाहिलं आणि मला म्हणाला काही वर्षापूर्वी तुम्ही एका बाईला तिकीट काढायला पैसे दिले होते का? माझ्या डोक्यात एकदम प्रकाश पडला की अरे हिच ती बस आणि हाच तो कंडक्टर. मी हो म्हणालो.

तो काही न बोलता पुढे निघून गेला. सर्व प्रवाशांची तिकीटं झाली आणि नंतर तो माझ्या बाजूला येऊन बसला. आणि म्हणाला, “अहो साहेब मी तुम्हाला किती शोधत होतो. तुम्ही बुधवारी इथूनच पुण्याला जातो असं  म्हणाला होता म्हणून कितीतरी वेळा बस वाशी स्टॅंडवर थांबवत होतो. खाली उतरून तुम्ही कुठे दिसताय का बघत होतो, आणि आज दोन वर्षांनी भेटलात.”

 नंतर त्यानं जे सांगितले ते ऐकून अक्षरशः थक्क झालो. 

त्यानं सांगितलेली ती घटना अशी होती….

त्यादिवशी ज्या बाईला मदत केली होती तिला त्यानं दुसऱ्या दिवशी सकाळी तिच्या गावाकडे जाणा-या बसमध्ये बसवून दिलं आणि थोडेफार पैसे पण खर्चासाठी दिले. आणि त्याचं दिवशी दुपारी ती बाई आपल्या वडिलांना घेऊन स्टॅंडवर आली आणि या कंडक्टरला शोधून काढलं. हातात ४००/- रू. असलेलं पाकीट आणि शेतातील भुईमूगाच्या शेंगांची पिशवी त्याच्या हातात दिली आणि ह्या दोन्ही गोष्टी त्या “अण्णाला ” म्हणजे मला द्या असं विनवू लागली. कंडक्टर म्हणाला, “ अहो, असा पॅसेंजर काय रोज रोज भेटत 

नसतोय “ . पण त्यांनी आग्रह करून दोन्ही गोष्टी घ्यायला लावल्या आणि “ माझा नवरा पण आज येणार आहे आणि आम्ही परत भांडणार नाही. एक दोन दिवसांनी मी पण परत मुंबईला जाणार आहे नव-याबरोबर, हे पण त्या अण्णाला सांगा “  असं बोलून आणि नमस्कार करून तिच्या गावाकडे परत गेली. 

आता त्या कंडक्टर पुढे धर्मसंकट उभं राहिलं. कसं शोधायचं मला ? मग वर सांगितल्याप्रमाणे दर बुधवारी तो माझा शोध घेत राहिला. महिनाभरानंतर त्या शेंगा त्याने इतर प्रवाशांमधे वाटून टाकल्या. 

एवढं बोलून तो उठून उभा राहिला आणि त्याच्या सिटकडे गेला, वर ठेवलेली त्याची बॅग काढून उघडली आणि काहीतरी घेऊन पुन्हा माझ्याजवळ आला आणि एक मळकट खाकी पाकीट माझ्याकडे दिलं.

‘हे काय आहे ‘ असं मी प्रश्नार्थक नजरेने त्याच्याकडे पाहत राहिलो तेव्हा तो जे म्हणाला ते ऐकून मी सुन्नच झालो. तो म्हणाला, ” साहेब, ही तुमची अमानत आहे, गेली दोन वर्षे मी सांभाळून ठेवली होती, आता तुमची तुम्ही घ्या आणि मला मोकळं करा.” ते ऐकून मला काय बोलायचं हेच सुचेना. मी ते पाकीट फोडून बघितलं तर काय….. आत मध्ये १०० च्या चार नोटा….. बरेच दिवस पाकीटात बंद असल्याने चिकटून गेल्या होत्या. नकळत डोळ्यांच्या कडा पाणावल्या. आवंढा गिळून एवढंच म्हणालो  की ‘ नाही नाही हे पैसे मी घेऊच शकत नाही.’ त्यावर कंडक्टर एवढंच म्हणाला की “ अहो त्या बाईला मी कबूल केलंय की तुमचे पैसे तुम्हाला परत करेन, आता तुम्हीच सांगा या पैशांचं करायचं काय ….”  नंतर लगेच तो म्हणाला की 

“एखाद्या संस्थेला मदत करू किंवा एखाद्या देवळात देवापुढे ठेवून देवू .’  मग मीच तोडगा काढला. त्याला सांगितलं की पुढे मागे एखाद्या पॅसेंजरला अशी अडचण आली तर तू हे पैसे वापरून टाक. बोलेबोलेपर्यंत माझा थांबा आला म्हणून मी उतरण्याआधी त्या कंडक्टरला घट्ट मिठी मारली. आणि आभाळभरल्या डोळ्यांनी खाली उतरलो. त्या सुहृद कंडक्टरचं नाव चिदानंद हेगडे.  गुलबर्गा डेपो . त्यांचा फोटो त्यांनी काढू दिला नाही किंवा मोबाइल नंबर पण दिला नाही.

या गोष्टीला आता ८/९ वर्षं झाली. पण अजून माझा गोंधळ होतो की , सचोटी आणि प्रामाणिकपणा जर उणे अधिक करायचा असेल तर तो कुणाचा करायचा….. कबूल केल्याप्रमाणे तिकीटाचे पैसे न विसरता परत करणा-या त्या माऊलीचा, की ते पैसे मिळाल्यावर अफरातफर न करता २ वर्षं व्यवस्थित सांभाळून मूळ मालकाच्या स्वाधीन करणा-या चिदानंद हेगडे यांचा…

तुम्हीच सांगा…

– समाप्त – 

लेखक : श्री सुधीर खांडेकर, पुणे. 

संग्राहक – श्री विनय माधव गोखले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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