मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ सावली दिवाळीची…-सौ.अरुणा प्रकाश गोखले ☆ प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ सावली दिवाळीची… -सौ.अरुणा प्रकाश गोखले ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆ 

(दिवाळी संपली, की एक वेगळीच हुरहुर वाटते. ती व्यक्त केली आहे ,सावली दिवाळीची ..या कवितेतून..) 

दिवाळीच्या दुसऱ्याच दिवशी,

कोणी काही खट्दिशी,

आकाशकंदील काढत नाही,

संपलेली दिवाळी काही,

त्यामुळे वाढत नाही !

 

दोन दिवस अंगणातही ,

रेंगाळत राहतात पणत्या,

स्नेहाच्या गोलांसह,

संध्येच्या दीपरागांसह.

 

पुसटलेल्या रांगोळ्याही,

मंदपणे विस्कटतात,

संपलेल्या दिवाळीचे रंग,

आणखी गडद करतात !

 

हवेतला फटाक्यांचा गंध,

चुकार फटाक्यांचे फाटके अंग,

कण्हत कण्हत सांगतात,

“संपला दिवाळीचा संग !”

 

कँलेंडरमधली चार दिवसांची,

दिवाळी खरं तर संपली,..

पण अजून रेंगाळतेच ना मनात,

तिचीच पुसट सावली !! 

 

-सौ.अरुणा प्रकाश गोखले.

प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

९८२२८४६७६२.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #106 – प्रकाश की ओर….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा  “प्रकाश की ओर…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #106 ☆

☆ प्रकाश की ओर…..

“यार चंदू! इन लोगों के पास इतने सारे पैसे कहाँ से आ जाते हैं, देख न कितने सारे पटाखे बिना जलाये यूँ ही छोड़ दिए हैं। ये लछमी माता भी इन्हीं पर क्यों, हम गरीबों पर मेहरबान क्यों नहीं होती”

दीवाली की दूसरी सुबह अधजले पटाखे ढूँढते हुए बिरजू ने पूछा।

“मैं क्या जानूँ भाई, ऐसा क्यों होता है हमारे साथ।”

“अरे उधर देख वो ज्ञानू हमारी तरफ ही आ रहा है , उसी से पूछते हैं, सुना है आजकल उसकी बस्ती में कोई मास्टर पढ़ाने आता है तो शायद इसे पता हो।”

“ज्ञानु भाई ये देखो! कितने सारे पटाखे जलाये हैं इन पैसे वालों ने। ये लछमी माता इतना भेदभाव क्यों करती है हमारे साथ बिरजू ने वही सवाल दोहराया।”

“लछमी माता कोई भेदभाव नहीं करती भाई! ये हमारी ही भूल है।”

“हमारी भूल? वो कैसे हम और हमारे अम्मा-बापू तो कितनी मेहनत करते हैं फिर भी…”

“सुनो बिरजू! लछमी मैया को खुश करने के लिए पहले उनकी बहन सरसती माई को मनाना पड़ता है।”

“पर सरसती माई को हम लोग कैसे खुश कर सकते हैं” चंदू ने पूछा।

“पढ़ लिखकर चंदू। सुना तो होगा तुमने, सरसती माता बुद्धि और ज्ञान की देवी है। पढ़ लिख कर हम अपनी मेहनत और बुद्धि का उपयोग करेंगे तो पक्के में लछमी माता की कृपा हम पर भी जरूर होगी।”

पर पढ़ने के लिए फीस के पैसे कहाँ है बापू के पास हमें बिना फीस के पढ़ायेगा कौन?”

“मैं वही बताने तो आया हूँ तम्हे, हमारी बस्ती में एक मास्टर साहब पढ़ाने आते है किताब-कॉपी सब वही देते हैं, चाहो तो तुम लोग भी उनसे पढ़ सकते हो।”

चंदू और बिरजू ने अधजले पटाखे एक ओर पटके और ज्ञानु की साथ में चल दिए।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

“असहमत ” से दूसरी मुलाकात मोबाइल स्टोर में हुई. हमने जिज्ञासावश पूछ लिया क्या नया मोबाइल फोन लेने आये हो जिसका नाम अब स्मार्ट फोन हो गया है.

जवाब : देखिये सर आजकल तो हर राहचलता स्मार्ट फोन रख रहा है तो अगर स्मार्ट फोन रखने से स्मार्टनेस आती तो क्या बात होती.

हमने कहा कि भाई ये फोन के लिये उपयोग में आ रही शब्दावली है. आदमी तो वही है, बदला नहीं है. गुडमॉर्निंग गुड नाईट क्या पहले नहीं होते थे, जन्मदिन पर बधाई फोन पर कब कब और किस किस को दिया करते थे, निधन की RIP का संदेश हर जाने अनजाने को किस लिये देते हैं जबकि न तो मृतक उन्हें पढ़ सकता न ही उसके परिजनों को ये संदेश सांत्वना दे पाते हैं.

जन्मदिन पर किसी अज़ीज दोस्त से चंद मिनिट हंसी मजाक कर लेना या उसको बर्थडे पार्टी के लिये मजबूर करने और फिर मित्रों की चंडाल चौकड़ी के साथ पार्टी सेलीब्रेट करने का आनंद ही अलग है जो ये वाट्सएपी फोन कभी नहीं समझ पायेंगे.

वाट्सएप नामक मृगमरीचिका की तो बात ही अलग है. जब तक आदमी इससे अनजान रहता है, बड़ा शांत, स्थिरचित्त और आनंदमय रहता है. पर जैसे ही वो इस एप के मकड़जाल में घुसा तो उसकी स्थिति “अभिमन्युः ” हो जाती है. पहले सुप्रभात फिर बधाई और सांत्वना और फिर गूगल से कॉपी कर कर के विद्वत्ता झाड़ने का शौक उसमें दोस्तों और परिचितों को लाईक के आधार पर वर्गीकृत करने की आदत विकसित कर देता है. लगता यही है कि ये मोबाइल क्रांति पहले तो नयापन को समझने की प्रकृति प्रदत्त उत्सुकता के चलते लोगों को पास लाती है और वे ये छद्मवादी समीपता का आनंद लेते रहते हैं पर धीरे धीरे नयेपन के प्रति आकर्षण उसी तरह कम हो जाता है जैसे…..  के प्रति आकर्षण. फिर वही स्वाभाविक मानवीय दुर्बलतायें हावी होने लगती हैं जो पास आये दिलों के दूर जाने के बहाने बन जाती हैं. चूंकि मुलाकातें होती नहीं हैं या बहुत कम होती हैं तो गलतफहमियों के दूर होने की संभावनायें जो कि मिलने से संभव हो पातीं, अब तकनीकी दौर में कम हो जाती हैं.

फोन से दोस्तियां बनती नहीं हैं बल्कि दोस्तियों में गर्मजोशी की आंच ठंडी होने के ज्यादा चांसेस रहते हैं. हर संबंध चाहे वो दोस्ती हो या प्रेम आंखों के मिलने से, एक दूसरे की धड़कनों के स्पंदन को महसूस करने से पक्का होता है. मीडिया या टेक्नालाजी पर सिर्फ फ्रॉड और धोखाधड़ी ही हो पाते हैं. शायद इसलिए ही ये गीत सालों पहले लिख दिया गया कि “दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं ” इस दिल्लगी शब्द में टेक्नालाजी भी जोड़ना मुनासिब होगा क्योंकि ये  गीत लिखने के उस दौर में टेक्नालाजी शब्द का प्रचलन नहीं था.

यार, आदरणीय असहमत जी हम तो आपको हास परिहास के लिये ढूंढ़ते हैं और आप बड़ी बड़ी गहरी बातें कर जाते हो, पता नहीं वो ये सब पसंद करते भी हैं या “छोटा मुँह बड़ी बात ” का सिक्सर मारकर बॉल बाउंड्री के पार भेज देते हैं.

“असहमत” ने अंत में बड़ी बात कह दी कि “देखिये सर, अगर मुझसे दोस्ती की है तो मेरी छाया याने ‘असहमति’ से मत डरिये”.आप वही करिये जो दिल को सही लगे.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संस्मरण – दीपावली तब, दीपावली अब ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संस्मरण – दीपावली तब, दीपावली अब ??

दीपावली की शाम.., बाज़ार से लक्ष्मीपूजन के भोग के लिए मिठाई लेकर लौट रहा हूँ। अत्यधिक भीड़ होने के कारण सड़क पर जगह-जगह बैरिकेड लगे हैं। मन में प्रश्न उठता है कि बैरिकेड भीड़ रोकते हैं या भीड़ बढ़ाते हैं?

प्रश्न को निरुत्तर छोड़ भीड़ से बचने के लिए गलियों का रास्ता लेता हूँ। गलियों को पहचान देने वाले मोहल्ले अब अट्टालिकाओं में बदल चुके। तीन-चार गलियाँ अब एक चौड़ी-सी गली में खुल रही हैं। इस चौड़ी गली के तीन ओर शॉपिंग कॉम्पलेक्स के पिछवाड़े हैं। एक बेकरी है, गणेश मंदिर है, अंदर की ओर खुली कुछ दुकानें हैं और दो बिल्डिंगों के बीच टीन की छप्पर वाले छोटे-छोटे 18-20 मकान। इन पुराने मकानों को लोग-बाग ‘बैठा घर’ भी कहते हैं।

इन बैठे घरों के दरवाज़े एक-दूसरे की कुशल क्षेम पूछते आमने-सामने खड़े हैं। बीच की दूरी केवल इतनी कि आगे के मकानों में रहने वाले इनके बीच से जा सकें। गली के इन मकानों के बीच की गली स्वच्छता से जगमगा रही है। तंग होने के बावजूद हर दरवाज़े के आगे रांगोली रंग बिखेर रही है।

रंगों की छटा देखने में मग्न हूँ कि सात-आठ साल का एक लड़का दिखा। एक थाली में कुछ सामान लिए, उसे लाल कपड़े से ढके। थाली में संभवतः दीपावली पर घर में बने गुझिया या करंजी, चकली, बेसन-सूजी के लड्डू हों….! मन संसार का सबसे तेज़ भागने वाला यान है। उल्टा दौड़ा और क्षणांश में 45-48 साल पीछे पहुँच गया।

सेना की कॉलोनी में हवादार बड़े मकान। आगे-पीछे खुली जगह। हर घर सामान्यतः आगे बगीचा लगाता, पीछे सब्जियाँ उगाता। स्वतंत्र अस्तित्व के साथ हर घर का साझा अस्तित्व भी। हिंदीभाषी परिवार का दाहिना पड़ोसी उड़िया, बायाँ मलयाली, सामने पहाड़ी, पीछे हरियाणवी और नैऋत्य में मराठी। हर चार घर बाद बहुतायत से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते पंजाबी। सबसे ख़ूबसूरत पहलू यह कि राज्य या भाषा कोई भी हो, सबको एकसाथ जोड़ती, पिरोती, एक सूत्र में बांधती हिंदी।

कॉलोनी की स्त्रियाँ शाम को एक साथ बैठतीं। खूब बातें होतीं। अपने-अपने के प्रांत के व्यंजन बताती और आपस में सीखतीं। सारे काम समूह में होते। दीपावली पर तो बहुत पहले से करंजी बनाने की समय सारणी बन जाती। सारणी के अनुसार निश्चित दिन उस महिला के घर उसकी सब परिचित पहुँचती। सैकड़ों की संख्या में करंजी बनतीं। माँ तो 700 से अधिक करंजी बनाती। हम भाई भी मदद करते। बाद में बड़ा होने पर बहनों ने मोर्चा संभाल लिया।

दीपावली के दिन तरह-तरह के पकवानों से भर कर थाल सजाये जाते। फिर लाल या गहरे कपड़े से ढककर मोहल्ले के घरों में पहुँचाने का काम हम बच्चे करते। अन्य घरों से ऐसे ही थाल हमारे यहाँ भी आते।

पैसे के मामले में सबका हाथ तंग था पर मन का आकार, मापने की सीमा के परे था। डाकिया, ग्वाला, महरी, जमादारिन, अखबार डालने वाला, भाजी वाली, यहाँ तक कि जिससे कभी-कभार खरीदारी होती उस पाव-ब्रेडवाला, झाड़ू बेचने वाली, पुराने कपड़ों के बदले बरतन देनेवाली और बरतनों पर कलई करने वाला, हरेक को दीपावली की मिठाई दी जाती।

अब कलई उतरने का दौर है। लाल रंग परम्परा में सुहाग का माना जाता है। हमारी सुहागिन परम्पराएँ तार-तार हो गई हैं। विसंगति यह कि अब पैसा अपार है पर मन की लघुता के आगे आदमी लाचार है।

पीछे से किसी गाड़ी का हॉर्न तंद्रा तोड़ता है, वर्तमान में लौटता हूँ। बच्चा आँखों से ओझल हो चुका। जो ओझल हो जाये, वही तो अतीत कहलाता है।

 

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 8:50 बजे, 21.6.2020

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Omnipresent…. ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem  सर्वव्यापी .  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)  

☆ Omnipresent….?

Covering the time

with my shawl,

I keep playing

hide-and-seek…

I only hide myself,

I only find myself,

I stealthily peep

out of my shawl,

Get astonished

not to find it there,

I look again:

Only to find Time

descending down

in every eye..,

What difference does

it make, whether

eyes’re open or closed,

Time is omnipresent now

ubiquitously present,

here, there & everywhere!

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – ☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

श्री भगवान वैद्य प्रखर

(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)

☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा  – भाग – 2 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆

प्रश्न: पहली रचना किस विधा में प्रकाशित हुई?

उत्तर:  लेखन आरंभ हो चुका था। यहां-वहां रचनाएं प्रेषित की जाने लगी थीं। इन्हीं में से ‘रचना’ शीर्षक कविता ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के 1 जुलाई 1973 के अंक में प्रकाशित हुई। यही थी प्रथम प्रकाशित रचना।

प्रश्न : विभिन्न विधाओं में आपकी एक हजार से अधिक रचनाएं स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। यह आपके लिए कैसे संभव हो पाया? क्या संपादकों के साथ व्यक्तिगत संपर्क, वरिष्ठ लेखकों की सिफारिश या किसी और माध्यम से? आपका उत्तर निश्चित ही नये लेखकों के लिए मार्गदर्शक साबित होगा।   

उत्तर: यह आपने अच्छा प्रश्न किया है। आपको बता दूं कि मैं रचना-प्रकाशन के संबंध में आजतक किसी भी संपादक से नहीं मिला।न ही मैंने कभी किसी को उसके लिए फोन किया। मैं लिखताहूँ। रचना किस पत्र-पत्रिका में प्रकाशन-योग्य है, यह विचार करता हूँ और डायरी में नोट करके रचना प्रेषित कर देता हूँ। अपेक्षित अवधि में अगर कोई सूचना नहीं मिली (पहले जवाबी पोस्ट-कार्ड लिखकर  जानने का चलन था। आजकल ‘मेल’ या फोन करता हूँ।) तो रचना अन्यत्र प्रेषित कर देता हूँ। मेरा मानना है, रचना में अगर दम है तो वह पत्र-पत्रिका में खुद अपनी जगह बना लेती है। हां, प्रत्येक पत्र-पत्रिका की अपनी विचारधारा होती है जिससे वाकिफ़ होना जरूरी होता है। इस कारण कभी कोई रचना सामान्य पत्रिका में अस्वीकृत हो जाती है जबकि वही रचना राष्ट्रीय- स्तर की पत्रिका में स्वीकृत हो जाती है। संक्षेप में, आप हिंदी-भाषी हैं, हिंदीतर-भाषी हैं, प्राध्यापक हैं, डॉक्टर हैं या यह सबकुछ नहीं है- यह कुछ माने नहीं रखता। आपकी रचना देखी जाती है और चुनी जाती है। धर्मयुग, साप्ता. हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी से लेकर स्थानीय अखबार तक के बारेमें मेरा यही अनुभव रहा है।                                         

प्रश्न: आपकी रचना-प्रक्रिया कैसी होती है?

उत्तर:  कोई तामझाम नहीं। जब, जहां, जैसे बन पड़ा, लिख लेता हूँ। मन में जब कभी कोई बिम्ब उभरता है तब चलते-फिरते कहीं नोट करके रख लेता हूं।- लेखन के लिए अधिक समय मिलना चाहिए इस कारण भारतीय जीवन वीमा निगम के शाखा प्रबंधक पद से चार साल शेष थे तब सेवा-निवृत्ति ले ली थी। लेकिन लेखन को प्रथम प्राथमिकता कभी न दे सका। आज तक भी नहीं। पहले नौकरी प्रथम क्रमांक पर रही । अब परिवार है, गृहस्थी है, मित्र हैं,सामाजिक दायित्व है । इन सबके बाद समय मिले तब साहित्य-सृजन है। इस कारण लेखन का कोई निश्चित समय नहीं है। जब संभव हो, राइटिंग-पैड लेकर बैठ जाता हूँ। अब लैप-टॉप है। फिर कोई काम आया कि उठ जाताहूँ। मैं नियमित दिनचर्या में विश्वास रखता हूँ। देर तक जाग नहीं सकता। छात्र-जीवन में भी समय पर सो जाता था। जाहिर है, रचना कई-कई बैठकों में पूरी होती है।

प्रश्न: कोई रचना एक बार में लिख लेते हैं या बार-बार सुधार आवश्यक होता है?

उत्तर: रचना पूरी लिख लेने के बाद उसे कई बार पढ़ता हूँ। कम-अज-कम तीन -चार प्रारूप तो बनते ही हैं। उठते -बैठते मंथन जारी रहता है। सटीक और परिष्कृत शब्द की खोज की धुन अहर्निश सिर पर सवार रहती है। अंतिम प्रारूप के बाद विंडो-ड्रेसिंग। संदेहास्पद हिज्जों की जांच। यह सब होने के बाद कुछ दिनों के लिए ‘रचना’ को भूल जाताहूँ। (अगर कहीं प्रेषित करने की जल्दी न हो तो) एकाध सप्ताह बाद फिर रचना को पढ़ता हूँ लेकिन अबकी अपने नहीं अपितु पाठक /संपादक के नजरिये से। आवश्यकता महसूस हुई तो फिर कोई संशोधन। इसके उपरांत रचना अंतिम रूप से तैयार हो जाती है।बा-कायदा लिफाफा तैयार होता है। जांच-पड़ताल करके पता लिखा जाता है। स्वयं जाकर पोस्ट कर आता हूँ। इसलिए शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैंने रचना पोस्ट की और अपने पते पर नहीं पहुंची। आजकल एक सुविधा हो गयी है। लिफाफे की जगह वैट्‍स-अप अथवा ‘मेल’ ने ले ली है।       

प्रश्न: आपके अबतक 4 व्यंग्य -संग्रह, 3 कहानी-संग्रह, 2-2 लघुकथा और कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 35 कहानियों सहित मराठी की छह पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया है। अर्थात इन सभी विधाओं में आपका उल्लेखनीय योगदान है। इस कारण जानना चाहेंगे कि इन में से किस विधा के साथ अपने आप को सर्वाधिक सम्बद्ध पाते हैं अर्थात अपने आपको किस रूप में पहचाना जाना पसंद करेंगे? व्यंग्यकार, कहानीकार, कवि, लघुकथाकार, अनुवादक या कुछ और?

उत्तर: जो लिख चुका, वही सबकुछ नहीं है। इसलिए वह मेरी पहचान नहीं बन सकता। एक उपन्यास- लेखन की कल्पना मन में है। आत्मकथा की शुरुआत कर चुका हूं। कुछ रेखा-चित्र लिखने हैं। अनुवाद -कार्य अभी संपन्न नहीं हुआ है। इसलिए कह नहीं सकता कि कौन-सी विधा मेरी पहचान बनेगी। आरंभ में जरूर ‘व्यंग्यकार’ के रूप में जाना जाता था। इसलिए जब कोई ‘परिचय’ पूछता है तो ‘साहित्यकार’ या ‘लेखक’  बतलाता हूं।   

प्रश्न: आप विगत 48 वर्षों से लेखन-प्रकाशन से सम्बद्ध हैं। समय के साथ इस क्षेत्र में क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर: वर्तमान समय में सुविधाएं बहुत हो गयी हैं। पहले हाथ से लिखते थे। सुधार के बाद  सिरे से ड्राफ्ट कॉपी करना पड़ता था। कार्बन रखकर प्रतियां निकालते थे। फिर टाईप- मशिनें आ गयीं । अब लैप-टॉप/ पी.सी. पर सब काम होता है। जो चाहे, जितनी बार चाहे, सुधार कर लो। एक क्लिक के साथ प्रिंट- आउट निकल आता है।

प्रश्न : यह तो हुआ लेखकीय- स्तर पर बदलाव। प्रकाशन -स्तर पर क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर:  बदलाव महसूस हो रहा है, संवाद में। लेखक-संपादक अथवा लेखक -प्रकाशक में संवाद की कमी हो गयी है। जितने संवाद के साधन बढ़ गये उतना संवाद का अकाल पड गया। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान , कादम्बिनी, सारिका समान पत्रिकाओं से भी एक रचना के संबंध में चार-चार बार संवाद हो जाता था। पहले स्वीकृति-पत्र, अगर रचना ‘विचारार्थ-स्वीकृत’ है तो पत्र, किस अंक में आ रही है उसकी बा-कायदा सूचना, छपने पर अंक, फिर पत्र के साथ चेक या मनी आर्डर । किसी कारण से रचना में सुधार वांछित हो तो टिप्पणी के साथ रचना वापिस । सुधार के साथ भेजने पर स्वीकृति -पत्र आ जाएगा। नवभारत- टाइम्स को प्रेषित कहानी की लंबाई अधिक थी। विश्वनाथ जी ने कौन-सा हिस्सा कम किया जा सकता है, इस सुझाव के साथ रचना वापिस की । सुधार करके भेजने पर तुरंत छप गयी। रमेश बतरा जी की दृष्टि में  लघुकथा उत्कृष्ट होने के बावजूद उसकी लंबाई किस प्रकार बाधा बनी हुई है, यह टिप्पणी लिखकर रचना वापिस की। ‘धर्मयुग’ में व्यंग्य स्वीकृत हुआ। बा-कायदा स्वीकृति पत्र आया। उसके बाद ‘क्यों लौटाना पड़ रहा है’ इस मजबूरी को व्यक्त करते पत्र के साथ रचना वापिस आयी। …संपादक बदलने के बाद नये संपादक का अपने लेखकों से जुड़ने के लिए रचना आमंत्रित करता हुआ पत्र। -यह गुजरे जमाने का पत्र-व्यवहार अब  ‘धरोहर’ बन कर फाइलों की शोभा बढ़ा रहा है।

आजकल ‘रचना के साथ ‘वापसी के लिए टिकट लगा लिफाफा’ भेजने का चलन लगभग बंद हो गया है। ‘डाक’ की बजाए ‘मेल’ या ‘वैट्स-अप’ का चलन बढ़ रहा है। बहुत कम पत्र-पत्रिकाएं स्वीकृति/ अस्वीकृति की सूचना देना जरूरी समझती हैं। रचना प्रकाशन हेतु संबंधित पत्र-पत्रिका की सदस्यता की अनिवार्यता का चलन बढ़ रहा है। पारिश्रमिक देनेवाली पत्रिकाएं वार्षिक शुल्क काटकर पारिश्रमिक दे रही हैं। -लेकिन इन सब बातों के अलावा इधर एक अच्छी बात देखने को मिल रही है। बीच में एक कालखण्ड ऐसा आया जब लघु -पत्रिकाओं का अस्तित्व खतरे में पड़ता नजर आ रहा था। लेकिन अब संख्या बढ़ रही है और लघु- पत्रिकाएं साहित्य-सृजन के क्षेत्र में बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं।              

प्रश्न: पुराने और नये लेखकों में क्या बदलाव महसूस करते हैं?

उत्तर:  पुराने लेखक सृजन में अधिक विश्वास करते थे। उनकी प्रतिबद्धता लेखन के प्रति होती थी। उत्कृष्ट लेखन किस प्रकार होगा, इसकी चिंता लगी रहती थी। उपलब्धि क्या होगी इस ओर ध्यान न था। नया लेखक व्यावहारिक है। लिखते समय सोचता है, इससे मुझे क्या उपलब्ध होगा? किस प्रकार लिखने से छपेगा? कहां छपने से पारिश्रमिक मिलेगा? पुस्तक छपी तो पुरस्कृत कैसे होगी? कभी-कभी लगता है, उनका इस प्रकार सोचना गलत नहीं है। पहले  ‘लेखक’ को समाज में प्रतिष्ठा थी । सम्मान था। सम्मानित व्यक्ति के शब्द को कीमत थी। अब धन सर्वोपरि हो गया हो गया है। समूची व्यवस्था ही बदल गयी है। सम्मान के, संबंधों के मानदण्ड बदल गये हैं। समाज का कोई घटक इससे अछूता न रहा। लेखक भी नहीं।   

प्रश्न: आपके लेखन को जो महत्व मिला या मिल रहा है, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?

उत्तर: जी, सबसे पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं कि मैं लेखन के प्रति प्रतिबद्ध हूं न कि पुरस्कार, सम्मान या और किसी और प्रकार के महत्व के प्रति। उसके बावजूद मैं यह कहना चाहता हूं कि मुझे जो कुछ  मिला और मिल रहा है उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं।  आप विचार कीजिये कि मैं हूं क्या? चलिये, एक वाकया बतलाता हूं। केंद्रीय हिंदी निदेशालय का हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों के लिए एक पुरस्कार है, एक लाख रुपयों का। उसकी पुस्तक मूल्यांकन- समिति पर सदस्य के रूप में मेरा चयन हुआ था, वर्ष 2012 से 2014 के लिए। निदेशालय में बैठक आयोजित थी। दोपहर में भोजन के दौरान वहां के एक वरिष्ठ अधिकारी से यूं ही पूछ लिया, ‘सर, इससे पूर्व तीन मर्तबा बायो-डाटा मँगवाया गया लेकिन चयन नहीं हुआ था।क्या कारण रहा होगा, जान सकता हूं?’ उत्तर मजेदार था। कहने लगे, ‘प्रखर जी, आपका सरनेम है, वैद्य। निखालस महाराष्ट्रीयन। मातृभाषा, मराठी। निवास, महाराष्ट्र में। नाम के आगे न ‘डॉ.’ लगा हुआ है न प्रा. (डॉक्टर या प्राध्यापक) पढ़ाई देखो तो महज बी. ए.। अच्छा, नौकरी भी हिंदी-अध्यापक या प्रशिक्षक आदि नहीं। मतलब प्राइमा-फेसी ‘हिंदी के विद्वान या जानकार’ जैसा कुछ नहीं। अर्थात जब तक पूरा चार पेज का बायो-डाटा न पढ़ो तब तक पता ही नहीं चलता कि  आपका  हिंदी में क्या कुछ योगदान है? और यहां तो ‘प्रा.’ और ‘डॉ.’ की लाइन लगी रहती है?’ -ऐसी स्थिति में आप ही बतलाइए कि मुझे जो मिला वह क्या कम है? एक और रहस्य है। मैंने पाया कि मुझे जो,जब मिलना है, उसके लिए अपने- आप संयोग बन जाता है। मेरा  ‘कथादेश’ का वार्षिक-शुल्क कब का समाप्त हो चुका था फिर भी पता नहीं कैसे, अचानक डाक में एक अंक आ गया। उसमें ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान 2018’ का विज्ञापन था। मैंने रचनाएं भेजीं और पुरस्कार मिल गया।मैं आज भी सोचता हूं, ‘कथादेश’ का वह अंक मुझे कहां से और कैसे आ गया था?

प्रश्न: पाठकों की प्रतिक्रिया के बारे में आपकी क्या राय है?             

उत्तर: भांति-भांति के पाठक मिले। हर वर्ग के, हर आयु के , हर क्षेत्र के। और विभिन्न भाषाओं के भीं। इन सब के इतने प्यारे अनुभव हैं कि बयान करने के लिए एक किताब ही लिखनी पड़ेगी। केवल दो-एक का ही उल्लेख करना चाहता हूं। एक दिन सुबह-सुबह लैण्ड-लाइन पर फोन आया। कहा गया, ‘मैं  न्यूजीलैण्ड के ऑकलैण्ड से मि. कोंडल बोल रहा हूं।’ मैं समझा, कोई मजाक कर रहा है। लेकिन बार-बार दोहराने पर मैंने कहा, ‘चलो, मान लेते हैं।आगे बोलिए।’ अब वे मेरे कहानी-संग्रह ‘चकरघिन्नी’ की कहानियों के नाम बतलाने लगे। जो कहानियां पढ़ ली थीं,उनके बारेमें बतलाने लगे। मैंने उनसे पूछा, आपको किताब कहां से मिली तो बतलाया गया कि वहां की स्टेट -लाइब्रेरी से। उसके बाद मि. और मिसेज कोण्डल दोनों कहानियां पढ़ते और फोन पर देर तक बतियाते रहते। यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। उनसे खासी मित्रता हो गयी। मैंने अपनी कुछ और पुस्तकें उनके पतेपर भेजीं। बाद में प्रकाशक से पता चला कि सरकारी खरीद में ‘चकरघिन्नी’ की कुछ प्रतियां विदेश भेजी गयी थीं उन्हीं में से एक न्यूजीलैण्ड पहुंच गयी थी।      

एक और वाकया सुनिये । मेरी एक कहानी है, ‘स्लेट पर उतरते रिश्ते।’ नागपुर के दैनिक ‘लोकमत समाचार’ के साहित्य परिशिष्ट में प्रकाशित हुई। अगले दिन एक प्रतिष्ठित प्राध्यापक हाथ में वह अखबार लेकर सुबह-सुबह घर पहुंच गये। गुस्से में भुनभुनाते हुए। कहने लगे, ‘आप यह बतलाइए कि मेरे घर की यह बात आप तक कैसे पहुंची? मैं हतप्रभ! कुछ समय तक बातचीत के बाद वे सामान्य हो गये और देर तक कहानी की प्रशंसा करते रहे।

‘जिज्ञासा’ कहानी में  एक दिव्यांग बालिका निन्नी अपनी दीदी से छतपर बने पानी के टाँके में तैरती सुनहरी मछली के क्रियापलाप के बारेमें सुनकर मछली देखने के लिए बेताब हो उठती है। उसकी तीव्र जिज्ञासा उसे अगले दिन अल्स्सुबह घर के भीतर बनी सीढ़ियां चढ़कर छतपर पहुंचा देती है। ‘क्या सचमुच वह अपने पोलिओग्रस्त पैरों से ऐसा कर पायी?’ वस्तुस्थिति जानने और निन्नी को देखने की इच्छा रखने वाले पाठकों के कितने फोन, कितने दिनों तक आते रहे, क्या बतलाऊं?

ऐसे हर कहानी, हर लघुकथा ने कितने ही पाठक जोड़े हैं। मैं अपनी कहानी के पात्रों के नाम भूल जाता हूं लेकिन पाठक याद दिला देते हैं तो कहानी का संसार जी उठता है और लेखन के लिए मिलती है नयी ऊर्जा।

प्रश्न:अच्छा हम लोग बातचीत आगे जारी रखेंगे लेकिन जरा यह बतला दीजिए कि कोई रचना इतनी प्रभावशाली कैसे बनती हैं?

उत्तर: इसका एक रहस्य है। रहस्य यह है कि रचना में कोई बात तो ऐसी हो जो ‘सच’ हो। चाहे कितनी भी छोटी, एक बिंदू ही क्यों न हो, पर पूरी तरह ‘सच’ हो। यह ‘सच’ जितना पुख्ता होगा, जितना मजबूत होगा उतनी रचना  प्रभावशाली बनेगी।  पत्रकारिता के बारेमें  कहा जाता है कि पूरी रिपोर्ट में अगर एक छोटा-सा तथ्य भी गलत हो जाये तो पूरी रिपोर्ट की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है। साहित्यिक रचना में अगर एक छोटी-सी बात भी सत्य है तो वह पूरी रचना को प्रभावशाली बना देती है। एक और बात । रचना में कोई घटना, कोई तत्व ऐसा होना चाहिये जिससे पाठक लेखक के साथ  एकाकार हो जाये।अगर यह हो गया तो समझिए आपका लेखन सार्थक हो गया।     

प्रश्न:  क्या आप अपने बारेमें ऐसा कुछ बतलाना चाहते हैं जो मैंने नहीं पूछा।

उत्तर: हां। मैं यह बतलाना चाहता हूँ कि मुझसे किसी की झूठी प्रशंसा नहीं होती। न ही मुझे किसी की झूठी प्रशंसा अच्छी लगती है। मैं क्या हूँ, एक व्यक्ति के रूप में, लेखक के रूप में- यह मैं भलीभांति जानता हूँ। उसी नाप का तमगा बर्दाश्त करता हूँ। उससे अधिक किसी ने पहनाने की कोशिश की तो मैं असहज हो जाता हूँ।

मेरी एक आदत है, जो जानता हूँ कि अच्छी नहीं है। मैं किसी को हद से ज्यादा बर्दाश्त करता हूँ। इतना कि मुझे पीड़ा होने लगती है। लेकिन उसके बाद  भी अगर उस व्यक्ति में बदलाव नहीं आया तो मैं उस व्यक्ति से हमेशा के लिए संबंध तोड़ देताहूँ। इस कदर कि वह व्यक्ति मेरे लिए संसार से ‘कम’ हो जाता है।

प्रश्न: नवोदितों के लिए कोई संदेश?

उत्तर: क्या संदेश दूं? इतने साल से लिख रहा हूं पर अब भी स्वयं को नवोदित ही मानता हूं। नयी पीढ़ी प्रतिभाशाली है, ऊर्जावान भी है। पर ‘जल्दी’ में है। उसके पास न पढ़ने के लिए समय है न सहिष्णुता। आठ – दस रचनाओं में उसे वह सब चाहिए जो प्राप्त करने के लिए बरसों लग जाते थे। मेरे एक मित्र म. रा. हिन्दी साहित्य अकादमी के सदस्य थे। उनसे एक नये लेखक का फोन पर वार्त्तालाप मैंने सुना। कह रहा था, ‘मैंने अपना एक कविता -संग्रह अकादमी को पुरस्कार के लिए प्रस्तुत कर दिया है। आप  कुछ कीजिए कि उसे पुरस्कार घोषित हो जाये।’ मित्र उसे कई प्रकार से समझाने की कोशिश कर रहे थे। आखिर में, लेखक ने यहां तक कह दिया कि अगर आप पुरस्कार न दिलवा सके तो फिर आपके अपने शहर से ‘अकादमी के सदस्य’ होने का क्या लाभ? -यह है मानसिकता! सब कुछ तुरंत चाहिए। नहीं मिला तो जैसे सारी दुनिया ने उन पर अन्याय कर दिया! नहीं छपा, तो संपादक जैसे ‘शत्रु’ हो गया। -इस प्रकार की मानसिकता ‘साहित्य-सृजन’ ही नहीं अपितु किसी भी कला-क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं है । ध्यान रहे, लेखकीय-कर्म जिम्मेवारी भरा कार्य है। साहित्य अंधेरे में रोशनी की तरह काम करता है।  वह समाज को बनाता भी है और बिगाड़ता भी है। दूसरी बात । लेखन के रास्ते पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं, रास्ता बजाए प्रशस्त होने के, संकरा होता जाता है। लेखक को अपने ही वर्ग के लोगों से जूझते हुए आगे बढ़ना होता है। उस समय केवल ‘परिश्रम’ हमारा साथ देता है। परिश्रम कोई विकल्प नहीं है। और है तो वह है, ‘कठिन परिश्रम।’ शब्द-सामर्थ्य और सम्प्रेषण-शक्ति में वृद्धि के लिए पठन-पाठन  और अभ्यास आवश्यक है। अंतत: यही कहना चाहूंगा कि जितना पढ़ेंगे, उतना बढेंगे। अपनी कलम पर भरोसा रखें, सब का एक समय आता है। साधना पूरी हो जाएगी तो मंजिलें  पता पूछते हुए खुद चली आएंगीं।

❐❐❐

© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

संपर्क : 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607

मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 7 – बिझुका !☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 7 ☆ हेमन्त बावनकर

 ☆ बिझुका ! ☆

तुम

ड्राइंग रूम में

टी वी के समक्ष

ब्रेकिंग न्यूज़ में

खो गए हो

आस पास की दुनिया भूल

बिझुका हो गए हो।

 

तुम्हें

ब्रेकिंग न्यूज़ का नशा हो गया है

वही पक्ष देखते हो

जो तुम्हें दिखाया जाता है

और

अंजाम से भटकाया जाता है।

 

तुम्हारे कंधों पर बैठकर

लोकतन्त्र के विभिन्न स्तंभों के पक्षी

कांव कांव करते हैं

और तुम

चुपचाप देखते – सुनते रहते हो

बस

बिझुका की यही गति है 

और  

तुम्हारी यही नियति है।  

 

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 7 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #7 (16-20) ॥ ☆

यों सुंदरी नारियों से कथा रम्य सुनते हुये कर्ण प्रिय कीर्ति गाथा

पहुँचे वहाँ अज जहाँ महल में विवाह हित रम्य मंडप सजा था ॥ 16॥

 

उतर के हथिनी से शीघ्र अज वह जो काम से अति कांतिवाला

सुनारियों के हृदय में बसता सा, नृप के द्वारा गया संभाला ॥ 17॥

 

आसीन हो मंच पै अर्ध्य – मधुपई पा अज ने वस्त्रादि औं रत्न पाये

औं साथ ही चितवनें जो देती थे नारियों के नयन लजाये ॥ 18॥

 

ज्यों चंद्र किरणों बढ़ा उदधि को सफेद लहरों के पास लाती

त्यों नारियाँ कुछ ले साथ अज को, दिखीं वहाँ इन्दु के पास जातीं ॥ 19॥

 

फिर, राजपंडित ने प्रज्जवलित की हवन करा यज्ञ की अग्नि ज्वाला

औं वर – वधु का कर ग्रंथिबंधन, कर अग्नि साक्षी, रच ब्याह डाला ॥ 20॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १० नोव्हेंबर – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? १० नोव्हेंबर  –  संपादकीय  ?

कुसुमावती देशपांडे– (१० नोहेंबर १९०४ ते १७ नोहेंबर १९६१ ) 

कुसुमावती देशपांडे कमल देसाई आणि सानिया  या तिघीही  नामांकित लेखिका. तिघींचाही जन्म १० नोहेंबरचा. या तिघीही प्रयोगशील लेखिका असून मराठीला त्यांनी नवे रूप व नवचैतन्य दिले. तीघींचाही मराठी आणि इंग्रजी वाङ्मयाचा दांडगा व्यासंग होता

कुसुमावतींनी इंग्लंडमध्ये जाऊन इंग्रजी विषयात बी.ए. ची पदवी मिळवल्यानंतर, नवी दिल्ली इथे आकाशवाणीवर स्त्रिया आणि मुलांच्या कार्यक्रमाच्या प्रमुख निर्मात्या होत्या. त्यांचा कवी आनिल यांच्याशी १९२९ साली प्रेमविवाह झाला. तो त्या काळात खूप गाजला. कॉलेजमध्ये असल्यापासून त्यांचा परस्परांशी पत्रव्यवहार होता. त्यातील निवडक पत्रांचे सांपदन म्हणजे ‘कुसमानिल’ हे पुस्तक. दीपकळी, दीपदान, दीपमाळ, मोळी हे त्यांचे काही कथासंग्रह. नवकथापूर्व काळात त्यांच्या कथा वैशिष्ट्यपूर्ण ठरल्या, त्या तंत्रापेक्षा त्यांनी मांडलेल्या दृष्टीकोनामुळे. ‘मराठी कादंबरीचे पहिले शतक’ (१९५३) हे पुस्तक त्यांच्या व्यासंगाची आणि समालोचनात्मक लेखनशैलीची ग्वाही देते. मराठी वाङमय समीक्षेच्या क्षेत्रात त्यांनी केलेले लेखन अतिशय महत्वाचे मानले जाते.  ‘पासंग’ या पुस्तकात त्यांचे लेख आहेत.

ग्वाल्हेर येथे १९६१ साली झालेल्या अखिल भारतीय मराठी साहित्या संमेलनाच्या त्या अध्यक्ष होत्या. १८७८पासून अखिल भारतीय मराठी साहित्य संमेलनाला सुरुवात झाली. त्यानंतर कुसुमावती या पहिल्या महिला संमेलांनाध्यक्षा होत्या.  

अनंत देशमुख यांनी कुसुमावतींच्या वाङ्मायाचा चिकित्सक अभ्यास करून ‘कुसुमावती देशपांडे ‘ हे पुस्तक सिद्ध केले.

☆☆☆☆☆

कमल देसाई – (१० नोहेंबर १९२८ ते १७ जून २०११ )  

कमलताई या प्रयोगशील लेखिका म्हणून ओळखल्या जातात. त्यांच्या बहुतेक कथा ‘सत्यकथा’मधून प्रकाशित झाल्या. सामान्य माणसाच्या अस्तित्वाचा अर्थ लावणारं आणी चिंतन करणारं लेखन त्यांनी केलं. विद्रोही, स्त्रीवादी लेखन , देव, धर्म, विश्व, लैंगिकता, पुरुषी दृष्टीकोनाचे वर्चस्व आशा विषयांवर आपल्या लेखनातून त्यांनी स्वतंत्र विचार मांडले. रंग-१, रंग- २, रात्रंदिन आम्हा युद्धाचा प्रसंग, काळासूर्यं आणि हॅट घालणारी बाई, इ. त्यांची पुस्तके. त्यांच्या बव्हंशी कथा दुर्बोध आहेत. त्यांनी सौंदर्यशास्त्रावर व्याख्याने दिली. त्या प्राध्यापिका होत्या. विवरणाची आणि समजावून देण्याची त्यांची पद्धत मात्र अतिशय सुबोध होती. ‘जय हो’ हे त्यांचे आत्मकथन आहे. आधुनिकतेचा स्पर्श त्यांच्या कथांना आहे. कथा, कादंबरी, समीक्षा, नाटके, कविता, अनुवाद असे त्यांनी विविधांगी लेखन केले आहे.

☆☆☆☆☆

  सानिया (१० नोहेंबर १९५२)

सानिया म्हणजे सुनंदा कुलकर्णी. स्त्रीच्या स्वातंत्र्याचा आणि आत्मभानाचा  वेध सानियांनी आपल्या कथातून घेतला. ‘अशी वेळ, अवकाश, आवर्तन, खिडक्या, ओमियागे, परिणाम, प्रतीति, प्रवास, वलय इ. त्यांचे कथासंग्रह आहेत. त्यांच्या अनेक कथा, कन्नड, गुजराती, उर्दू, बंगाली, इंगलीश, जर्मन इ. भाषांमधून अनुवादीत झाल्या आहेत. आपल्या कथांमधून त्यांनी माणसा-माणसातील, नातेसंबंध, भाव-भावना आनंद, सुख-दु:ख यांचा शोध घेतला आहे. त्यांच्या नायिका चारचौघींपेक्षा वेगळ्या आहेत. स्वतंत्र विचार करणार्‍या, जगावेगळं जीवन जगणार्‍या आहेत.

☆☆☆☆☆

ल.रा. पांगारकर (३जुलै १८६२ ते १० नोहेंबर १९४१ )

लक्ष्मण रामचंद्र पांगारकर हे अगदी जुन्या पिढीतले लेखक. ते अध्यात्ममार्गी होते. संत साहित्याचे अभ्यासक होते. त्यांनी लिहिलेले ‘भक्तिमार्ग प्रदीप’ हे प्रचंड खपाचे पुस्तक त्या काळाइतकेच आजही लोकप्रिय आहे. आजही अनेक घरातून हे पुस्तक आढळते. हे पुस्तक म्हणजे भक्तिपर वेच्यांचा संग्रह आहे. ‘मुमुक्षू ‘ या साप्ताहिकाचे ते १३ वर्षे संपदक होते. त्यांनी संत एकनाथ. संत ज्ञानेश्वर यांची चरित्रे लिहिली. ‘मोरोपंतांचे चरित्र आणि काव्यविवेचन’ हा ग्रंथ लिहिला. याशिवाय त्यांनी आनंद लहरी (काव्यसंग्रह ) , चरित्रचन्द्र ( आत्मचरित्र ), नवविद्या भक्ति , पारिजातकाची फुले , मराठी भाषेचे स्वरूप इ. पुस्तके लिहिली. त्यांचे सगळ्यात मोठे कार्य म्हणजे मराठी वङ्मयाचा इतिहास, खंड १ व २  यांचे संपादन होय.

‘‘भक्तिमार्ग प्रदीप’ च्या माध्यमातून घरा-घरात पोचलेल्या ल.रा. पांगारकर यांना आज स्मृतीदिनानिमित्त सादर वंदन. 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई – अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : १.शिक्षण मंडळ कर्‍हाड: शताब्दी दैनंदिनी  २.इंटरनेट    

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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सूचना/Information ☆ सम्पादकीय निवेदन – श्री प्रमोद वामन वर्तक – अभिनंदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

? श्री प्रमोद वामन वर्तक – अभिनंदन ?

? अ  भि  नं  द  न ?

आपल्या समुहातील साहित्यीक श्री प्रमोद वामन वर्तक यांचा साहित्य सेवेबद्दल सन्मान झाला आहे. त्यांचे अभिव्यक्ती समुहातर्फे मनःपूर्वक हार्दिक अभिनंदन??

संपादक मंडळ

ई अभिव्यक्ती मराठी

? ई – अभिव्यक्तीतर्फे त्यांचे अभिनंदन व पुढील वाटचालीसाठी शुभेच्छा.  ?

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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