हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ उम्रकैद के सात साल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

जगत सिंह बिष्ट

(आदरणीय श्री जगत सिंह बिष्ट जी, मास्टर टीचर : हैप्पीनेस्स अँड वेल-बीइंग, हास्य-योग मास्टर ट्रेनर, लेखक, ब्लॉगर, शिक्षाविद एवं विशिष्ट वक्ता के अतिरिक्त एक श्रेष्ठ व्यंग्यकार भी हैं। ई-अभिव्यक्ति द्वारा आपका प्रसिद्ध व्यंग्य एक व्यंग्यकार की आत्मकथा 28 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित किया था.)

एक व्यंग्यकार की आत्मकथा की कुछ पंक्तियाँ …….

यह एक व्यंग्यकार की आत्मकथा है।  इसमें आपको ’एक गधे की आत्मकथा’ से ज़्यादा आनन्द आएगा।  गधा ज़माने का बोझ ढोता है, व्यंग्यकार समाज की विडम्बनाओं को पूरी शिददत से मह्सूस करता है।  इसके बाद भी दोनों बेचारे इतने भले होते हैं कि वक्त-बेवक्त ढेंचू-ढेंचू करके आप सबका मनोरंजन करते हैं।  यदि आप हमारी पीड़ा को ना समझकर केवल मुस्कुराते हैं तो आप से बढ़कर गधा कोई नहीं।  ……….

शेष रचना को आप निम्न लिंक्स पर पढ़ /सुन सकते हैं  >>>>  

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☆ हिंदी साहित्य ☆ व्यंग्य ☆ उम्रकैद के सात साल ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆

(लगभग 31 वर्ष पहले, ‘उम्रकैद के सात साल’ शीर्षक से प्रकाशित हास्य-व्यंग्य रचना. ये उम्रकैद आज भी बदस्तूर जारी है. पढ़ें और आनंदित हों.. श्री जगत सिंह बिष्ट)

हम अपनी बीवी के शुक्रगुज़ार हैं कि तमाम लापरवाहियों के बावजूद, वह इन सात सालों में रसोई-घर में दुर्घटनाग्रस्त होने से किसी तरह बची रहीं, वरना अख़बारों में एक बार फिर सुर्ख़ियों में छपता – ‘एक और दहेज़ हत्या’ – और भारतीय डंडा संहिता की आड़ में, किसी खाकी वर्दीधारी को हमारी सूखी हजामत बनाने का मौका मिल जाता. इस तरह के अप्रत्याशित खतरों से घिरा होने के बाद भी बेचारा पुरुष अब तक बेड़ियों से मुक्त होने के मूड में नहीं आया है. इसे कहते हैं गुलाम मानसिकता.

उधर, हमारे जीवन को रंगीन और फिर संगीन बनाने वाली जीवन-संगिनी, इन सब बातों से बेखबर, ‘वूमेंस लिब’ की खुली हवा में स्वच्छंद विहार कर रही है. सात चक्कर में पड़ने से पहले, हम भी ‘चंद्रमुखी, सूरजमुखी, ज्वालामुखी’ वाले चुटकुले पर हंसा करते थे.उस उम्र में धर्मपत्नी के धार्मिक रोले को समझने में हमारी बुद्धि असमर्थ थी.

इन सात सालों में, हमारे विचारों में ऊपर से नीचे तक परिवर्तन हुआ है. आज हम – अन्य पति कहलाने वाले जीवों कि तरह – दावे के साथ कह सकते हैं कि हमारी ‘मधुमुखी’ पत्नी के व्यंग्य के डंक की चोट, अच्छे-अच्छे व्यंग्यकारों से कहीं अधिक है. मधु, यदि कभी रहा भी हो तो, हमारे हिस्से में नहीं आया.

चलिए, आपको फ्लैशबैक में लिए चलते हैं..

वधु की विदाई की ह्रदय-द्रावक बेला है. फिल्मों में ऐसे सीन फिल्माने के लिए कनस्तर भर ग्लिसरीन खर्च हो जाती है. हमारे ससुरजी डबडबाई आखें लिए विवश खड़े हैं. रौबदार मूछों वाला ऐसा भयंकर व्यक्तित्व, जिसे देखते ही अच्छे-अच्छे मलखान सिंह भी उनकी बेटी को छोड़कर भाग जायें. एक नज़र हमने उनकी चमचमाती चाँद पर डाली, जो फिसलकर उनकी चाँद जैसी छुई-मुई बेटी पर पहुँच गयी.

अपना कर्त्तव्य पालन करते हुए, हम उनकी तथाकथित सुन्दर, गौरवर्ण, सुशिक्षित और घरेलु कामकाज में दक्ष कन्या को सोफे, पलंग और अलमारी सहित बड़ी शान से विदा कर लाये. परदे के पीछे, शहनाई की धुन थमने के पहले ही, हमारी नयी-नवेली श्रीमतीजी ने ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के नक़्शे जैसे रोटियाँ बनाकर, तत्पश्चात जलाकर, अपने होमेस्सिएंस के ज्ञान को प्रमाणित करना प्रारंभ कर दिया.

उनके परिवार की आधुनिकता का सम्मान करते हुए हमने, अपने सास-ससुर को तीर्थ-स्थल की बजाय ‘हिल-स्टेशन’ माना. गर्मियों में तो सभी राहें, ससुराल की तरफ जाती ही हैं, हम सर्दियों में भी वहाँ ‘स्नो-फॉल’ देखने के बहाने, जाने लगे. बरसातों में, काली घटाएं सालीजी का संदेश लाकर, हमें वहाँ खींच ले जातीं.

इसके आलावा, धर्मपत्नी के इशारे को धर्म समझकर, हम उनके दूर-दूर के चचेरे, ममेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहनों के शादी-ब्याह-मुंडन में बिना नागा शामिल होने लगे. पत्नी ही हमारी ‘फैमिली’ बन गयी. अपने ओरिजिनल मां-बाप को हमने प्राचीन सभ्यता के जर्जर खंडहरों की तरह अलग-थलग छोड़ दिया – इस उम्मीद के साथ कि देर-सबेर पुरातत्त्व विभाग उन्हें अपने संरक्षण में ले ही लेगा.

महान भारतीय मानवों की गौरवशाली परंपरा को निभाते हुए, हमने भी मानव संसाधन विकास मंत्रालय का मान रखा और देश को अपना अमूल्य योगदान दिया. विवाहित जीवन का अगला दौर प्रारंभ हुआ. ईश्वर की असीम अनुकम्पा से प्राप्त पुत्ररत्न की, कभी पीली तो कभी हरी चड्ढीयां, बिना नाक-भौं सिकोड़े, उतारने और धोने का सुगन्धित दौर. 

हमारा बेटा किसी टाईमटेबल का पाबंद नहीं था. न ही अमरीका और स्कैनडीनेविया के देशों  की तरह हमारे दफ्तर में पैतृत्व अवकाश का कोई प्रावधान था. राजू की मम्मी चैन से अपनी ‘ब्यूटी-स्लीप’ पूरी करती और हम अपने बेटे का घोड़ा बना करते. उसकी मम्मी की निगाहों में गधे तो हम पहले ही थे.

अपनी तमाम हरी-पीली नादानियों के बावजूद हमें राजू बड़ा प्यारा लगता है. वैसे ही जैसे सबकुछ जानने-समझने के बाद भी दूसरों की बीवियां अच्छी लगती हैं. राजू कन्धों पर किताबों का बोझ लादे स्कूल जाने लगा है – शायद भविष्य में घोड़ा और गधा बनने का अभ्यास कर रहा है. सुबह हम उसे तैयार करवाते हैं और शाम को उसका होमवर्क करवाते हैं.

इस बीच राजू की गुड़िया जैसी बहन के लिए कुछ फरमाइशें हमें प्राप्त हुई हैं लेकिन हमने ठान ली है की हम तो वही करेंगे जो रात को ठीक नौ बजे दूरदर्शन पर साफ़-साफ़ बताया जाता है. (अगर आप अब भी नहीं समझे हों तो कभी आकर हमारे होनहार बेटे को गुनगुनाते हुए सुन लीजिये – ज़रा सी सावधानी, ज़िन्दगी भर आसानी.)

यूँ उम्रकैद के सात साल कट गए हैं. पहले स्कूल जाती बालिकाएं ‘अंकल’ कहा करती थीं, अब कॉलेज जाती किशोरियां भी हमारे लिए इस संबोधन का प्रयोग करने लगी हैं. शायद हमारी अर्धांगिनी ने भी कबूल कर लिया है की हम युवावस्था की ड्योढ़ी लांघ चुके हैं. तभी तो आस-पड़ोस की गोलमटोल भाभियों से हमारी नोकझोंक को अब वह नज़रंदाज़ कर देती हैं.

हम जानबूझकर थोड़ा ऊँचा सुनने लगे हैं. पत्नी की कई बातों को हम सुनकर भी अनसुना कर देते हैं. पत्नी के आंशिक अंधेपन और हमारे आंशिक बहरेपन की बदौलत हम लोग आंशिक रूप से सुखी हैं.

कल हमारी शादी की सातवीं सालगिरह है. विवाहित जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आपके साथ बांटने के लिए हमने कल शाम को खट्टी-मीठी चाट पार्टी का आयोजन किया है. आप सभी इसमें शामिल होने के लिए सादर आमंत्रित हैं.

©  जगत सिंह बिष्ट

इंदौर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 88 ☆ नवगीत: करो बुवाई… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत: करो बुवाई…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 88 ☆ 

☆ नवगीत: करो बुवाई… 

खेत गोड़कर

करो बुवाई…

*

ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.

मँहगाई जी-जाल बड़ी है.

सच मुश्किल की आई घड़ी है.

नहीं पीर की कोई जडी है.

अब कोशिश की

हो पहुनाई.

खेत गोड़कर

करो बुवाई…

*

उगा खरपतवार कंटीला.

महका महुआ मदिर नशीला.

हुआ भोथरा कोशिश-कीला.

श्रम से कर धरती को गीला.

मिलकर गले

हँसो सब भाई.

खेत गोड़कर

करो बुवाई…

*

मत अपनी धरती को भूलो.

जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.

स्नेह-‘सलिल’ ले-देकर फूलो.

पेंगें भर-भर झूला झूलो.

घर-घर चैती

पड़े सुनाई.

खेत गोड़कर

करो बुवाई…

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१०-४-२०१०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #118 ☆ एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 118 ☆

☆ ‌एक आत्म कथा – समाधि का वटवृक्ष  ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

एक बार मैं देशाटन के उद्देश्य से घर से निकला जंगलों के रास्ते गुजर रहा था, कि सहसा उस नीरव वातावरण में एक आवाज तैरती सुनाई दी।अरे ओ यायावर मानव!

कुछ पल मेरे पास रूक और मेरी भी राम कहानी सुनता जा और अपने जीवन के कुछ कीमती पल मुझे देता जा। ताकि जब मैं इस जहां से जाऊं तो मेरी अंतरात्मा का बोझ थोडा़ सा हल्का हो जाय।

जब मैंने कौतूहल बस अगल बगल देखा तो वहीं पास में ही जड़ से कटे पड़े धराशाई वटवृक्ष से ये आवाज़ फिज़ा में तैर रही थी। और दयनीय अवस्था में गिरा पड़ा वह वटवृक्ष मुझसे   आत्मिक संवाद करता अपनी राम कहानी सुनाने लगा था। मैंने जब ध्यानपूर्वक उसकी तरफ देखा तो पाया कि उसके तन पर मानवीय अत्याचारों की अनेक अमानवीय कहानियां अंकित थी।उसका तना जड़ से कटा गिरा पड़ा था और उसके पास ही उसकी अनेकों छोटी-छोटी शाखाएं भी कटी बिछी  पड़ी थी।

वह धरती के सीने पर गिरा पड़ा था, बिल्कुल महाभारत के भीष्म पितामह की तरह, उसके चेहरे पर चिंता और विषाद की असीम रेखाएं खिंची पड़ी थी। वहीं पर उसके हृदय में और अधिक लोकोपकार न कर पाने की गहरी पीड़ा भी थी।

उसका हृदय तथा मन मानवीय अत्याचारों से दुखी एवं बोझिल था। उसने अपने जीवन काल के बीते पलों को अपनी स्मृतियों में सहेजते हुए मुझसे कहा।

प्राकृतिक प्रकीर्णन द्वारा पक्षियों के उदरस्थ भोजन से बीज रूप में मेरा जन्म एक महात्मा की कुटिया के प्रांगण के भीतर धरती की कोख से हुआ था। धरती की कोख में एक नन्हे बीज रूप में मैं पड़ा पड़ा ठंडी गर्मी सहता पड़ा हुआ था कि एक दिन काले काले मेघों से पड़ती ठंडी फुहारों से तृप्त हो उस बीज से नवांकुर फूट पड़े थे।जब मेरी कोमल लाल लाल नवजात पत्तियों पर महात्मा जी की निगाहें पड़ी,तो वे मेरे रूप सौन्दर्य पर रीझ उठे थे। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से मुझे उस कुटिया प्रांगण में रोप दिया था। वे रोज सुबह शाम पूजा वंदना के बाद बचे हुए अमृतमयी गंगाजल  से मेरी जड़ों को सींचते तो उसकी शीतलता से मेरी अंतरात्मा निहाल हो जाती, और मैं खिलखिला उठता।।

इसी तरह समय अपनी मंथर गति से चलता रहा और समय के साथ मेरी आकृति तथा छाया का दायरा विस्तार लेता जा रहा था।इसी बीच ना जाने कब और कैसे महात्मा जी को मुझसे पुत्रवत स्नेह हो गया था।

मुझे तो पता ही नहीं चला, वे रोज कभी मेरी जड़ों में खाद पानी डाला करते, और कभी मेरी जड़ों पर मिट्टी डाल चबूतरा बना लीपा पोता करते, और परिश्रम करते करते जब थक कर बैठ जाते तो मेरी शीतल छांव‌ से उनके मन को अपार शांति मिलती। मेरी शीतल घनेरी छांव  उनकी सारी पीड़ा और थकान हर लेती। उनके चेहरे पर उपजे आत्मसंतुष्टि का भाव देख मैं भी अपने सत्कर्मो के आत्मगौरव के दर्प से भर उठता।मेरा चेहरा चमक उठता और मेरी शाखाएं झुक झुक कर अपने धर्म पिता के गले में गल बहियां डालने को व्याकुल हो उठती। गुजरते हुए समय के साथ मेरे विकास का क्षेत्र फल बढ़ता गया। अब मैं जवान हो चला था, और मैंने हरियाली की एक चादर तान दी थी अपने धर्म पिता के कुटिया के उपर तथा सारे प्रांगण को अपनी सघन शीतल छांव से ढंक दिया था। मेरी शीतल छांव‌ का एहसास धूप से जलते पथिक तथा मेरे पके फल खाते पंक्षियो के कलरव से सारा कुटिया प्रांगण गूंज उठता तो उसे सुनकर महात्मा जी का चेहरा अपने सत्कर्मों के आत्मगौरव से खिल उठता और उनके चेहरे का आभामंडल देख मेरा मन मयूर नाच उठता। और उनकी प्रेरणा मेरे सत्कर्मो की प्रेरक बना जाती। और मैं भी लोकोपकार की आत्मानुभूति से संतुष्ट हो जाता। एक संत के सानिध्य का मेरी जीवन वृत्ति पर बड़ा ब्यापक असर पड़ा था। मेरी वृति भी लोकोपकारी हो गई थी। अब औरों के लिए दुख और पीड़ा सहने में ही मुझे आनंद मिलने लगा था। मैं लगातार कभी बर्षा कभी गर्मी की लू कभी पाला और तुषार की प्राकृतिक आपदाओं को झेलते हुए भी निर्विकार भाव से तन कर खड़ा रहा आंधियों तूफानों के झंझावातों को झेल लोककल्याण हेतु तन कर खड़ा  लड़ता रहा। अब औरों के लिए खुद पीड़ा सहने में ही मुझे सुखानुभूति होने लगी थी।और महात्मा जी ने मेरी जड़ों के नीचे बने चबूतरे को ही अपनी साधना स्थली बना लिया था। और लोगों का आना-जाना और सत्संग करना महात्मा जी के दैनिक जीवन का अंग बन गया था। मैंने अपने जीवन काल में महात्मा जी की वाणी और सत्संग के प्रभाव से अनेकों लोगों की जीवन वृत्ति बदलते देखा है। और एक दिन महात्मा जी को जीवन की पूर्णता पर इस नश्वर संसार से विदा होते भी देखा। अब मेरी उस  छाया के नीचे  बने चबूतरे को महात्मा जी का समाधि स्थल बना दिया गया था। तब से अब तक महात्मा जी के सानिध्य में बिताए पलों ‌को अपने स्मृतिकोश में सहेजे, लोककल्याण की आस अपने हृदय में लिए उस समाधि को अपनी घनी शीतल छांव‌ में आच्छादित किए वर्षों से ज्यों का त्यों खड़ा हूं। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। मैं कभी पंछियों का आश्रय बना, तो कभी थके-हारे पथिक की शरणस्थली ।

पर हाय ये मेरी किस्मत! ना जाने क्यूं? ये मानव मुझसे रूठ गया। यह मुझे नहीं पता। वो अब तक अपने तेज धार कुल्हाडे से मुझे चोट पहुंचाता रहा, मैं शांत हो उस दर्द और पीड़ा को सहता रहा और वो अपना स्वार्थ सिद्धि करता रहा।

परंतु आज इन बेदर्द इंसानों ने सारी हदें पार कर दी, और मेरी सारी जड़े काट कर मुझे मरने पर विवश कर दिया। क्यों कि उन बेदर्द इंसानों ने वहां भव्य मंदिर को बनाने का निर्णय ले लिया है, इस क्रम में पहली बलि उन्होंने मेरी ही ली है।

और इस प्रकार मैंने सोचा कि जब मैं इस जग से जा ही रहा हूं तो क्यों न अपनी राम कहानी तुम्हें सुनाता जाऊं, ताकि मरते समय मेरे मन की मलाल पीड़ा और घुटन थोड़ी कम हो जाय, और सीने का बोझ थोडा़ हल्का हो जाय। मैं अपने आखिरी समय में अल्पायु मृत्यु को प्राप्त हो, लोगों की और सेवा न कर पाने की टीस मन में लिए जा रहा हूं। मेरा तुमसे यही निवेदन है कि मेरी पीड़ा और दर्द से सारे समाज को अवगत करा देना। ताकि यह मानव समाज अब और हरे वृक्ष न काटे। इस प्रकार पर्यावरण संरक्षण का संदेश देते देते उस वृक्ष की आंखें छलछला उठी, उसकी जुबां ख़ामोश हो गई। वह वटवृक्ष मर चुका था, उस समाधि के वट वृक्ष की दयनीय स्थिति देखकर मेरा भावुक हृदय चीत्कार कर उठा था मैं इंसानी अत्याचारों का शिकार हुए उस धराशाई वटवृक्ष को निहार रहा था, अपलक किंकर्तव्यविमूढ़ असहज असहाय हो कर।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 16 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #16 (1 – 5) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -16

फिर सात भ्राताओं ने ज्येष्ठ कुश को जो थे गुणी-रत्न, स्वामी बनाया।

क्योंकि ये भ्रातृत्व, रघुकुल प्रथा से था उन सबके तन और मन में समाया।।1।।

 

कृषिकार्य, गजबंध औ सेतु निर्माण, के हेतु सक्षम सभी भाइयों में।

पारंपरिक राज्य सीमाओं को कभी लाँघा नहीं, रह उदधि सम, परिधि में।।2।।

 

उन आठों दानी नृपों से हुआ राम का वंश विस्तृत, सफल और नामी।

जैसे कि मदवाही सुरदिग्गजों का सामवेद उद्भूत था अग्रगामी।।3।।

 

तब मध्य निशि में जग, कुश ने अपने शयन कक्ष में शांत दीपों के जलते।

देखी वियोगिनि अजग नारि को जो थी उस वेश में पति विरह में सी जलते।।4।।

 

उसने खड़े होके उस कुश के आगे, कि जो राज्य-स्वामी थे औ’ बंधुवाले।

तथा जिसने थे शक्र सम शत्रु जीते, के जय-घोष कर नमन हित कर सम्हाले।।5।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १७ एप्रिल – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १७ एप्रिल -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

१७ एप्रिल संपादकीय – वि. आ. बुवा.

वि. आ. बुवा यांचा जन्म ४ जुलै १९२६चा. विनोदी लेखक म्हणून ते प्रसिद्ध होते. .१९५० पासून त्यांनी लेखनाला प्रारंभ केला. त्यांची १५० हून अधीक विनोदी पुस्तके आहेत. त्याचबरोबर आकाशवाणीवर अनेक श्रुतिकांचं लेखन त्यांनी केलय. आकाशवाणीवर त्यांचे ६०० पेक्षा जास्त कार्यक्रम झाले. त्यापैकी ‘-पुन्हा प्रपंच’ या कौटुंबिक  श्रुतिका मालेचे ४०० पेक्षा जास्त भाग त्यांनी लिहीले  आहेत. याशिवाय पटकथा, विनोदी निबंध, तमाशाच्या संहिता, , विडंबने, एकांकिका असे विविध स्वरूपाचे लेखन त्यांनी केलेले आहे.

१९५० मध्ये ‘इंदुकला’ हा हस्तलिखित साहित्याचा अंक त्यांनी प्रकाशित केला होता. त्यात अनेक मान्यवर लेखकांनी लेखन केले आहे. पुढे प्रभाकर पाध्ये यांच्या प्रेरणेने त्यांनी वृत्तपत्रातून लिहावयास सुरुवात केली. सूक्ष्म निरीक्षण शक्ती, कल्पकता, उत्स्फूर्त विनोद ही त्यांच्या लेखनाची वैशिष्ट्ये आहेत. अनेक दिवाळी अंकातून त्यांनी लेखन केले. ‘अकलेचे तारे’ हा त्यांचा पहिला कथासंग्रह १९५३  मध्ये प्रकाशित झाला. महाराष्ट्र शासनाच्या ग्रंथ आणि नाट्य पुरस्कार समित्यांवर ते अनेक वर्षे परीक्षक म्हणून काम बघत होते.    

वि. आ. बुवा यांची काही पुस्तके –

१. अकलेचे दिवे, २.असून अडचण नसून खोळंबा, ३. अफाट बाबुराव, ४. इकडे गंगू तिकडे अंबू,  ५. खट्याळ काळजात घुसली. ६. झक्कास गोष्टी , ७.फजितीचा सुवर्ण महोत्सव, ८. फिरकी, ९. शूर नवरे, १०. हलकं फुलकं

गिरिजा कीर यांनी आपल्या ‘ दीपगृह’ या पुस्तकात वि.आ. बुवांवर लेख लिहिला आहे.

या हरहुन्नरी लेखकाचा आज स्मृतीदिन ( १७ एप्रिल २०११ ) . त्यांना भावपूर्ण श्रद्धांजली ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तिचे घड्याळ ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆

सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ तिचे घड्याळ ☆ सौ.ज्योत्स्ना तानवडे ☆ 

घड्याळाच्या काट्या बरोबर

धावते तिचे  तन-मन

सगळ्यांचा ताळमेळ

घालण्याचेच मनी चिंतन ||

 

काळ वेळाचे गणित हे

सोडवण्याची खटपट

घरदार करिअरची

कामे निभावी पटपट ||

 

प्रत्येक वेळ महत्त्वाचीच

चुकवून कशी चालेल

वेळ गाठण्यासाठी ती

मग धावाधाव करेल ||

 

कधीतरी अचानकच

ऑफ पिरियड मिळतो

सारे व्याप विसरून

मनाशी धागा जुळतो ||

 

घड्याळाची आणि तिची

कायमचीच घट्ट मैत्री

दोघेही देत रहातात

अखंड चालण्याची खात्री ||

 

© सौ.ज्योत्स्ना तानवडे

वारजे, पुणे.५८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सगळंच काही… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆

श्रीमती अनुराधा फाटक

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सगळंच काही… ☆ श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ 

सगळंच काही…

 सगळंच काही नसतं

   घालायचं कंसात !

 कधी लागतो अर्धविराम

तर काहींना स्वल्पविराम

 पूर्णविरामानेही काहींची

 पूर्तता होत नाही…

मग, विचार करायला

लागते प्रश्नचिन्ह !

 चिंतनाच्या गुहेतून

अजाणता येतो उदगार !

पण ते असते स्वगत

 बसत नाही कंसात

त्याचे स्थान फक्त मनात !

© श्रीमती अनुराधा फाटक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जय हनुमान ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

श्री मुबारक उमराणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जय हनुमान… ☆ श्री मुबारक उमराणी ☆

जय हनुमान प्रेमळ दाता

सकल जनांचा तूच त्राता

राम लखन जानकी माता

भक्ती गुण तूच सच गाता

 

मन प्रेमळ भक्त तूच साचा

सूर्य तेज तूच झेप रे घेता

क्षण तन ह्दयी बस जाता

तूच तारक प्रसन्न हो आता

 

मम अंतरी दुःख भर जाता

लोचनी आसू झर कर आता

तुज चरण अश्रू जल रे धोता

कर पावन मनतन जीव आता

 

तूच संजीवन जीवन मज देता

ह्दयी तुझ्या राम जानकी माता

राम नाम फत्तर तर जल तरता

कनक लंका तूच नाश कर देता

 

शक्ती बुध्दी तूच असे हनुमंता

पाप ताप दर्द नाश कर आता

तुज अर्पितो अश्रूजल अक्षता

रुई पर्ण गळा नमीतो मी माथा

 

पंचमुखी हनुमान दर्शन दे आता

माझा खरा तूच आहेस रे त्राता

फुल भक्ती प्रेम संजीवन रे होता

दुःखपाश श्रृंखला तोड रे स्वतः

 

© श्री मुबारक उमराणी

शामरावनगर, सांगली

मो.९७६६०८१०९७.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ मी करवली उमेची..! ☆ सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) ☆

?विविधा ?

🍃 मी करवली उमेची..! 🍃 सौ. शुभदा भा. कुलकर्णी (विभावरी) 

`गुढीपाडव्याची म्हणजे नववर्षाच्या प्रथम दिनाची तयारी करत असतांनाच नेहमीच माझ्या मनात वाजंत्री वाजू लागतात. कशाची म्हणाल तर, माझ्या बहिणीच्यालग्नाची.. . उमेची.. . श्रीपार्वतीदेवीच्या लग्नाची.. ! कारण पण मी करवली आहे तिची.

साताऱ्या जिल्ह्यातील शिखर शिंगणापूर हे माझं माहेरचं मूळ गांव. शिव पार्वती हे माझ्या माहेरचे कुलदैवत. उंच डोंगरावर, भक्कम, दगडांच, हेमाडपंथी, सुरेख गोपुरे,उंच शिखर, कळस,असं शिल्पाकृतींनी नटलेलं महादेवाचं मंदिर हे वास्तुशास्त्राचा सुंदर नमुना आहे. गाभा-यात शिवपार्वतीच्या दोन शाळुंका (पिंडी)आहेत. सभामंडपातील खांब व मूर्ती सुरेख आहेत. डोंगरउतारावरअमृतेश्वर,मंदिरआहे. ,आजूबाजूला उतारावरच गाव वसलं आहे.

माझं माहेरचं आडनाव जिराईतखाने. पार्वती कडून मानकरी. तेथील बडवे पुजारी हे शंकराकडून मानकरी जंगम म्हणजे शैव.. हेही  देवस्थानच्या मानकऱ्यांपैकी एक. चैत्र शुद्ध पंचमीला शिवपार्वती ला लग्नाच्या हळदी लागतात याच रात्री वाड्यावर ताशा वाजंत्री शिंग फुंकत देवस्थानचे सेवेकरी भालदार चोपदार गावातील प्रतिष्ठित हळदीच मानाच बोलावं पण करण्यासाठी आमच्या वाड्यावर येत. मग पुरुष मंडळी सर्वांसह देवळाकडे निघत. हे सर्व अनुभवताना आनंद भक्तिनं मनं भरून येतात.  लहानपणी मी आमच्या दादांना (वडिलांना) सोवळं नेसून असं मानानं जाताना, त्यांच्या चेहऱ्यावर भक्ती मिश्रित तेज पाहिलं आहे. हळद लावण्याचा पहिला मान आमचा नंतर मानाप्रमाणे सर्वजण व भक्तगण हळद लावतात. सगळीकडे `हर हर महादेव ʼचा गजर होत असतो. ही वेळ रात्री बाराची. भक्तगण नुसते पळत ही वेळ गाठतात यानंतर रोज  धार्मिक विधी असतात. मुख्य मंदिर ते अमृतेश्वर मंदिर यांच्या कळसाला हात मागाचा कापडी शेला दोन टोकांनी दोन बाजूंनी बांधतात. त्याला ध्वज असे म्हणतात. ध्वज विणणारा एक मानकरी आहे  रात्रीच्या वेळी ध्वज खाली न टेकवता भक्तीभावाने कुशलतेने करतात. चैत्र शुद्ध अष्टमीला रात्री बारा वाजता शिवपार्वती चे लग्न लागतं. मुलीचे बाजू असूनही आमच्या घराण्याला मान आहे. सारीपाटात हरल्यावर शंकर रुसून या डोंगरावर आले तेव्हा भिल्लिणीच्या रुपात आलेल्या पार्वतीवर, शंकरांनी मोहित होऊन त्यांनी तिला लग्नाची मागणी घातली पार्वतीने बरेच आढेवेढे घेतले अशी आख्ययिका आहे. यामुळे कदाचित तिची बाजू मानाची असावी. आम्हाला तो मान मिळाला नाहीतर वधू पक्षाला एवढा कुठला हो मान?

नवमीला भंडारा असतो त्यावेळी पंक्तीत उदक सोडण्याचा मान असतो. दशमीला कवडी घराण्याचा पुरुष घोड्यावरुन तळ्यापासून सर्व दगडी ,पायर्‍यांना कमानी ना पार करून देवदर्शनाला जातो त्यालाही भालदार चोपदारांचा मानअसतो. एकादशीला सासवडहूनʼ तेल्या भुत्याʼ आडनावाच्या भक्तांची,कावड येते. प्रचंड मोठी जडशीळ कावड आणि त्याला मोठी भगवी निशाण आणि पाण्यानं भरलेलं तांब्यांचे मोठे रांजण भक्तीभावाने चिंब होऊन वाटेत कुठेही न टेकवता अखंड चालत हे भक्त मुंगी घाटातून वर मंदिरात येतात खडकाळ डोंगराचा उंच,  खडा कडाच,भक्तीची परीक्षा घेतो असं वाटतं. वाटेत, सावलीला झाड नाही. भर उन्हाचा चटका, अशा स्थितीत खांद्यावर कावड घेऊन येणं केवळ अवघडच. तोंडानं अखंडʼ हर हर महादेव `ही गर्जना ,धावाही अन् असह्य झालं कि,चक्क`  महाद्या`अशा आपुलकिच्या-हक्काच्या आरोळ्याही. !भक्तांची सगळी जत्रा दिवसभर उन्हातान्हात त्या डोंगर माथ्यावर जमलेली असते सायंकाळी महादेवावर कावडीतल्या,पाण्याचा अभिषेक होतो.

लाखांच्या संख्येनं भक्त दर्शनासाठी धावतात शिवपार्वतीच्या लग्नाच्या वेळी पिंडीवर चांदीचे सुरेख मुखवटे चढवून मुंडावळ्या बांधतात. बाहेरच्या पटांगणात बाजूला होम हवन होतं. पालखी फिरवतात सगळीकडे आनंदाचा ,भक्तीचा जल्लोष आणि `हर हर महादेव ʼची देवाला हाक. ! हा आनंद सोहळा मी लग्नानंतर एकदाच अनुभवला. त्याला आता साठ वर्ष पूर्ण झाली. इतर जत्रा आणि प्रमाणे इथंही दुकान ,सिनेमा इत्यादींची रेलचेल असते. पण आम्हाला पौर्णिमेपर्यंत चालणाऱ्या या विवाह सोहळ्याचं अप्रूप! माझे आजोबा व नंतर आमचे वडील दादा त्यावेळी आवर्जून जात असत. पण सेवानिवृत्तीनंतर व वयोमानाने त्यांना नंतर जमत नसे आता तेथील नातेवाईक यात सहभागी होतात. कधी भाऊही जातात. शिंगणापूर प्रमाणेच माहेर घरी,घाणा भरणे,हळद दळणे,फराळाचे लाडू,इ. पदार्थ, रुखवताचे, डाळं,-शेंगादाणे-चुरमु-याचे लाडू,देवाला हळद लावणे,लग्न असा सोहळा होत असे. भाऊही करतात. म्हणूनच म्हटलं.. “मी करवली आहे, उमेची.. !

©  शुभदा भा.कुलकर्णी (विभावरी)

कोथरूड-पुणे

मो.९५९५५५७९०८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ वाळा….भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

 

? जीवनरंग ❤️

☆ वाळा….भाग 2 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सुरांवरची ताईची पकड मूळातच पक्की होती, ऊपजत होती. आता पुढे..)

एक दिवस पपांचे एक मित्र घरी आले होते. जिन्यातच  त्यांनी पेटीवरचे सूर ऐकले  अन् ते थबकलेच.

“वाजव वाजव बेटा! खरं म्हणजे भूपात निषाद नसतो.पण तू सहजपणे घेतलेला हा कोमल निषाद कानाला मात्र गोड वाटला.

नंतर ते पपांना म्हणाले ,”हिला पाठव माझ्या क्लासमध्ये.रियाज हवा. सराव हवा. मग कला विस्तारते. शिवाय शास्त्रशुद्ध  प्रशिक्षणही मिळेल  हिला. “

ताई जायचीही त्यांच्या  क्लासला . पहाटे उठावं लागतं म्हणून कुरकुरायची. पपा तिला सतत विचारायचे.

“आज काय शिकलीस? दाखव की वाजवून. “

मित्रालाही विचारायचे.

“कशी चालली आहे साधना बाबीची? “

ते म्हणायचे , “ठीक आहे. “

एक दिवस मात्र ते म्हणाले.

“तिच्यात कलाकार आहे पण तो झोपलाय. कुठल्याही  साधनेला एक अंत:स्फूर्ती लागते. एक धार लागते मित्रा. “

पपांना फार वाटायचं,घराच्या अंगणातलं हे कलाबीज का रुजत नाही ? कां उमलत नाही ?

पपांनी तिला इ. एन. टी. तज्ञांकडेही नेले होते.  डाॅक्टरांनी  तिची सखोल तपासणी केली. स्वरयंत्राचे ग्राफ्स काढले. तसे रीपोर्ट्स पाहता सर्व काही नाॅरमल होते. काही ऊपाय करता येईल अशी स्थिती नव्हतीच मुळी.

आजी  म्हणायची,”लहानपणी घसा फुटेपर्यंत ही रडायची. रडून रडून हिचा आवाज असा झाला. “

डाॅक्टर मात्र म्हणाले, असं काही नसतं आजी. ” मग हातऊंचावून आकाशाकडे बघत म्हणायचे, “शेवटी डाॅक्टर म्हणजे काही देव नव्हे,विज्ञानाच्याही काही मर्यादा आहेतच की. चमत्कार होतातही. पण शास्त्रात त्याची ऊत्तरे नाहीत. तशी थिअरी नाही.

एक दिवस ताई चिडूनच पपांना म्हणाली, “हे बघा , उगीच मी गायिका वगैरे बनण्याचं स्वप्न तुम्ही बघू नका. आणि माझ्यावरही ते लादू नका. गाणं मला आवडतं. संगीतात मी रमते. माझ्या पद्धतीने मी त्याचा आनंद घेतच असते. हाय पीचवर माझा आवाज फाटतो. चिरतो. क्लासमधली मुलं मला हसतात. मला नाही जमत पपा.नका अशक्यातली स्वप्नं पाहू! “

त्यादिवशी मात्र ताईच्या डोळ्यात तुडुंब भरलेली विहीर होती.

मनात प्रचंड निगेटीव्हीटी होती. न्यूनगंड होता.

तसे पपाही समंजस होते.त्यांनाही जबरदस्तीचा रामराम नकोच होता. शिवाय अति महत्वाकांक्षा नैराश्य निर्माण करते याच मताचे ते होते.

त्यांनी नाद सोडून दिला असेही नव्हते. संगीताची अनेक पुस्तके त्यांनी आणली. भीमसेन,गंगुबाई हन्गल, शोभा गुर्टु , किशोरी आमोणकर अशा अनेक दिग्गजांच्या ध्वनीमुद्रिकांचा भलामोठा संग्रह गोळा केला. शिवाय रेडियो होताच.

क्रमश:..

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

  1. ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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