(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे।
इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 99 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 5 ☆ आचार्य भगवत दुबे
(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”
दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ “जीवन का राग”।)
☆ दस्तावेज़ # 28 – जीवन का राग☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆
एक ज़माना था जब ज़िन्दगी घड़ी की सुईयों से नहीं, सुरों की लय से चलती थी। वह समय कुछ यूं बीतता था जैसे कोई हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत का आलाप—धीरे, शांत, मन को छूता हुआ। फिर जैसे-जैसे दिन चढ़ता, लय और ताल भी बदलती— विलंबित से द्रुत की ओर, ठहराव से गति की ओर।
तब दिन की शुरुआत होती थी राग अहीर भैरव और नट भैरव से, जिन्हें सरोद पर बड़े सलीके से प्रस्तुत करते थे उस्ताद अली अकबर खां साहब। उनके सुर कानों में नहीं, आत्मा में उतरते थे—मानो उजाले की पहली किरण दिल को छू जाए।
थोड़ी देर बाद, पंडित रविशंकर का सितार, जिसमें मिश्र पीलू राग के सुर झूमते थे। दोपहर अपने आप शांति ओढ़ लेती थी।
शाम को बांसुरी की बारी आती थी—पन्नालाल घोष की, और राग दरबारी की। उसमें एक शाही ठहराव था, एक गहराई, जो भीतर तक उतर जाती थी।
और जब दुनिया सो जाती थी, तब आता था राग सोहनी का जादू, संतूर पर पंडित शिवकुमार शर्मा के सुरों में। जैसे चांदनी रात में जल की सतह पर हल्की-हल्की लहरें नाच रही हों।
A Treasure Trove of Indian Classical Music – 1
मेरे पास एक अनमोल खज़ाना था—ग्रामोफोन रिकॉर्ड्स का। हर रिकॉर्ड जैसे कोई पुरातन मूर्ति। उन्हें छूना, देखना, बजाना—ये सब किसी साधना से कम नहीं था। डिस्क का घूमना, उसमें से उठता हुआ संगीत… समय मानो थम जाता था।
जब भी मैं चाहता—विलायत खां, बिस्मिल्लाह खां, वी जी जोग, इमरत हुसैन खां, अब्दुल हलीम जाफर खां, अमजद अली खां, हरि प्रसाद चौरसिया और बृजभूषण काबरा—सब मेरे लिए प्रस्तुत होते।
आज भी वह संग्रह मेरे पास है… लेकिन अब समय बदल गया है। भीतर कहीं एक हूक उठती है—काश, समय को पीछे ले जा पाता।
काश, एक बार फिर सुन पाता निर्मला देवी, हीरा देवी मिश्रा, गिरजा देवी, परवीन सुल्ताना, लक्ष्मी शंकर और शोभा गुर्टू की ठुमरियां—जिनमें श्रृंगार, विरह और राग की अनुभूति बसती थी।
शामें फिर से संगीतमय हो जातीं अगर मैं सुन पाता—पंडित जसराज, भीमसेन जोशी, किशोरी अमोनकर, प्रभा अत्रे और उस्ताद नासिर अमीनुद्दीन डागर की– स्वर साधना।
A Treasure Trove of Indian Classical Music – 2
और सप्ताह के अंत में दोस्तों संग आयोजित करता महफिलें जिनमें होती—मेहदी हसन, बेग़म अख्तर, ग़ुलाम अली, मुन्नी बेगम, भूपिंदर, पंकज उधास, सलमा आगा, और जगजीत-चित्रा सिंह की– ग़ज़लों की मिठास।
कुछ यादें निर्गुण भजन गाने वाले कुमार गंधर्व की हैं—अलौकिक, पारलौकिक। कुछ मीरा के भजनों की हैं—वाणी जयराम की आवाज़ में, पंडित रविशंकर की धुनों पर। और फिर—‘दमादम मस्त कलंदर’—नूरजहां, रेशमा, रुना लैला, ग़ुलाम नबी और सईं अख्तर की आवाज़ों में। आत्मा क्यों न झूम उठे!
कभी-कभी मन करता है कि फिर से सुनूं—जे पी घोष का ड्रम्स ऑफ इंडिया, विजय राघव राव का फैंटेसी ऑफ इंडियन ड्रम्स, नय्यारा सिंग्स फैज़, और इक़बाल सिद्दीक़ी व वंदना बाजपेयी का जाम ओ मीना।
मन करता है मन्ना डे की आवाज़ में बच्चन की मधुशाला फिर से गूंजे, मुकेश की आवाज़ में सुंदरकांड, पंडित जसराज की सूर पदावली, मक़बूल अहमद साबरी का घुंघरू टूट गए, और प्रीति सागर की फन टाइम राइम्स, जो अपने बेटे को सुनाता था—सब लौट आएं।
कभी-कभी ‘संगम’ और ‘उमराव जान’ की प्रेमपूर्ण धुनें भी बुलाने लगती हैं।
दो रिकॉर्ड्स तो आत्मा में बस गए हैं— वेस्ट मीट्स ईस्ट (यहूदी मेनुहिन और रविशंकर), और साउथ मीट्स नॉर्थ (लालगुड़ी जयरामन और अमजद अली खां)। ये सिर्फ संगीत नहीं थे, ये संस्कृतियों का संगम थे।
मैं फ़िर से सुनना चाहता हूं: सावन भादों – मेलोडी ऑफ द रेंस – और बड़े ग़ुलाम अली खां की ठुमरी “आए न बालम”। सितारा देवी के साथ कथक की धुनों पर मैं फ़िर से थिरकना चाहता हूं और वैजयंतीमाला के साथ भरतनाट्यम की सौंदर्य यात्रा पर निकलने को मन करता है।
पूछता हूं मैं खुद से—क्या दुनिया में कोई और कला है जो इतनी सुसंगत, इतनी लयबद्ध, इतनी परिपूर्ण, इतनी आत्मशुद्धि देने वाली हो? क्या कोई संगीत इतना दिव्य हो सकता है?
अगर हम कुछ कर सकते हैं, तो वह यह है कि हम रुकें, सुनें, और फिर से जुड़ें—उस शास्त्रीय संगीत से जो आज भी जीवित है, हमारे भीतर। अपने जीवन को फिर से एक तानपुरे की तरह मिलाएं—कोमल, स्थिर, और पवित्र।
A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Sacred Deposits…~”. We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक विषय पर एक भावप्रवण कविता “पहलगाम में फिर दिया…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरविंद मिश्र जी द्वारा लिखित “शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 178 ☆
☆ “शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें” – व्यंग्यकार… श्री अरविंद मिश्र☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति … शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें
व्यंग्यकार …अरविंद मिश्र
पृष्ठ … १५२
मूल्य २२५ रु
आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
अरविंद मिश्र द्वारा लिखित व्यंग्य की कृति शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें, एक रोचक और विचारोत्तेजक कृति है, जो भारतीय समाज और व्यवस्था में व्याप्त औपचारिकता, दिखावे और विरोधाभासों पर तीखा कटाक्ष करती है। यह पुस्तक व्यंग्य की शैली में लिखी गई है, जो पाठक को हंसाने के साथ-साथ गहरे सामाजिक संदेशों पर चिंतन करने के लिए प्रेरित करती है। मिश्र का लेखन सहज, चुटीला और प्रभावशाली है, जो उनकी भाषा पर मजबूत पकड़ और समाज को गहराई से समझने की क्षमता को दर्शाता है।
पुस्तक का केंद्रीय विषय एक काल्पनिक “शिष्टाचार आयोग” के इर्द-गिर्द घूमता है, जो शिष्टाचार के नाम पर हास्यास्पद और अव्यवहारिक सिफारिशें प्रस्तुत करता है। यह आयोग समाज के विभिन्न पहलुओं-जैसे नौकरशाही, सामाजिक रीति-रिवाज, और व्यक्तिगत व्यवहार-को अपने निशाने पर लेता है। लेखक ने इन सिफारिशों के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे शिष्टाचार के नाम पर अक्सर सतही नियमों को थोपा जाता है, जो वास्तविकता से कोसों दूर होते हैं। उदाहरण के लिए, यह विचार कि हर बात में औपचारिकता को प्राथमिकता दी जाए, भले ही वह कितनी भी बेतुकी क्यों न हो, पाठक को हंसी के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करती है।
शीर्षक व्यंग्य से यह अंश पढ़िये … ” समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो खूब इधर-उधर करते है,
लेकिन उनकी दाल आसानी से नहीं गलती। नीचे निगाह करके रास्ता पार करने से भी राह चलतों को दाल में काला नजर आने लगता है। समाज में बहुत से जन-जागरण के लिए समर्पित सदाचारियों का काम केवल आते-जाते लोगों पर निगाह रखना होता है। आस-पड़ोस, मुहल्ले के निवासी यदि बहुत समय तक सुख से रहते हैं तो इन चौकीदारों को अजीर्ण हो जाता है। इस प्रकार के समाज सेवी बंधुओं को अपना मुँह दर्पण में देखने की फुर्सत नहीं होती। जहाँ तक शिष्टाचार आयोग की कार्य प्रणाली का प्रश्न है तो यह अशिष्ट व्यक्तियों से सदैव सावधान रहता है। “
“भ्रष्टाचार निवारण मंडल में कार्यरत् कर्मचारी इस बात की भरसक कोशिश करते हैं कि जनता का आचरण शुद्ध न रहे। भला उन्हें अपने विभाग को जीवित जो रखना है। यह उन कर्मचारियों की निष्ठा का उदाहरण है। अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी कौन मारना चाहेगा। “
अरविंद मिश्र की शैली में एक खास बात यह है कि वे जटिल मुद्दों को सरल और हल्के-फुल्के अंदाज में पेश करते हैं। उनकी भाषा में हिंदी की मिठास और लोकप्रिय मुहावरों का प्रयोग देखने को मिलता है, जो व्यंग्य को और भी प्रभावी बनाता है। हालांकि, कुछ जगहों पर पाठक को लग सकता है कि व्यंग्य की गहराई या मौलिकता थोड़ी कम हो गई है, खासकर जब विषय पहले से चर्चित सामाजिक समस्याओं की ओर मुड़ता है। फिर भी, लेखक की यह कोशिश सराहनीय है कि उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी से उदाहरण चुनकर पाठकों से सीधा संवाद स्थापित किया।
कुल मिलाकर, शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें एक मनोरंजक और विचारशील पुस्तक है, जो व्यंग्य के प्रेमियों के लिए एक सुखद अनुभव प्रदान करती है। यह न केवल हल्के-फुल्के पठन के लिए उपयुक्त है, बल्कि समाज के उन पहलुओं पर भी प्रकाश डालती है, जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। अरविंद मिश्र ने इस कृति के जरिए अपनी लेखन कुशलता का परिचय दिया है और इसे पढ़कर पाठक निश्चित रूप से मुस्कुराएंगे और सोच में डूब जाएंगे।
किताब फेडरेशन आफ इण्डियन पब्लिशर्स से पुरस्कृत प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल से छपी है। मैं इसे व्यंग्य में रुचि रखने वाले अपने पाठको को पढ़ने की संस्तुति करता हूं।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “वात्सल्य धर्मिता”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 226 ☆
🌻लघुकथा🌻 वात्सल्य धर्मिता 🌻
पहलगाम घटना के बाद सोशल मीडिया पर धर्म को लेकर बड़ा उछाल होने लगा। आज सिध्दी अपने होटल पर परिवार वालों के साथ बैठी थी। अच्छी खासी भीड़ थी।
वह एक गायक कलाकार था। होटल में गाना गाता था। लोगों के बीच गाना गा रहा था परन्तु डर और बेबसी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
वह मेनैजर से बात करने लगी। बातों के इशारे को गायक को समझते देर न लगी। मेनैजर बता रहा था–हम तो अभी निकाल दे मेडम आप कहें तो?? लेकिन यह कमाने वाला अकेला माँ बाप और भाई बहन का बोझ लिए यह काम करता है और शाम को हमारे होटल में 4-5 घंटे गाना गाता है। आवाज अच्छी है।
सिध्दी ने कागज नेपकिन में कुछ रुपये बाँधे जाते समय उसे देते बोली–खुश रहो धर्म नही तुम एक अच्छे गायक हो। कला का सम्मान करो।
पैरों पर गिर पड़ा। मेरा-नाम धर्म जो भी है मेडम, मुझे आपके वात्सल्य धर्मिता की पहचान हो गई है। मै जीवन पर्यन्त आपकी भावनाओं का सम्मान करुंगा।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 129 ☆ देश-परदेश – सड़क संगीत ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सड़क पर यातायात रोक कर कई स्थानों पर संगीत की महफिलें सजाई जाती हैं। अभी विवाह का सीजन भी चल रहा है, बैंड वादक सड़कों पर नागिन, भांगड़ा, ट्विस्ट और लोक संगीत की धुनें खूब बजती हैं।
उपरोक्त समाचार पढ़ा तो मन अत्यंत प्रसन्न हुआ, कि अब कान फाड़ू, तीखे और प्रैशर हॉर्न नहीं बजेंगे। उसके स्थान पर अब बांसुरी, तबला, वीणा और हारमोनियम जैसे भारतीय वाद्य यंत्रों की धुनों वाले हॉर्न बजेंगे।
कितना अच्छा समय होगा, आप को जब संगीत सुनने का मन कर रहा हो, किसी भी लाल बत्ती के पास किनारे पर खड़े होकर संगीत का लाभ ले सकते हैं। हम तो विचार कर रहें है, कि अपना निवास किसी हाइवे के पास ले लेवें। अभी नई योजना है, बाद में तो हाइवे के आसपास के घरों की कीमत बेहतशा बढ़ जाएगी।
आप कल्पना कीजिए सड़क पर एक गाड़ी तबला बजा रही है, तो दूसरी हारमोनियम क्या जुगलबंदी का माहौल बन जाएगा।
घर के बाहर जब कोई वीणा की आवाज सुनाई देगी या दूसरी कोई वाद्य यंत्र की आवाज ही उसकी पहचान बन जाएगी। हम बच्चों को बता सकेंगे कि तुम्हारा बांसुरी वाला दोस्त आया था या तबले वाली कुलीग आई थी। मोहल्ले में लोग आपके बच्चों के वाहन में लगे हुए वाद्य यंत्र के हॉर्न से पहचाने जाएंगे। हारमोनियम वाले का बाप या तबलची की अम्मा इत्यादि।
हमारे मोबाइल की ट्यून कब भारतीय वाद्य यंत्रों पर आधारित होगी, इंतजार हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पेन पेंसिल…“।)
अभी अभी # 668 ⇒ पेन पेंसिल श्री प्रदीप शर्मा
जीवन, पढ़ने लिखने का नाम, पढ़ते रहो सुबहो शाम ! हमारे जमाने में ऐसी कोई नर्सरी राइम नहीं थी।
हम जब पैदा हुए थे, तब सुना था, हमारी मुट्ठी बंद थी, और हमसे यह पूछा जाता था, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है, तब तो हम जवाब नहीं दे पाए, क्योंकि उनके पास अपना खुद का जवाब मौजूद था, मुट्ठी में है, तकदीर हमारी। लेकिन हमने तो जब हमारी मुट्ठी खोली तो उसमें हमने पेन – पेंसिल को ही पाया।
न जाने क्यों इंसान को अक्षर ज्ञान की बहुत पड़ी रहती है। जिन बच्चों के हाथों में झुनझुना और गुड्डे गुड़िया होना चाहिए, उन्हें अनार आम, और एबीसीडी भी आनी ही चाहिए। सबसे पहले एक गिनती वाली पट्टी आती थी, जिसमें गोल गोल प्लास्टिक की रंग बिरंगी गोलियां दस तार वाले खानों में जुड़ी रहती थी। एक से सौ तक की गिनती उन प्लास्टिक की गोलियों से सीखी जाती थी और पट्टी, जिसे स्लेट कहते थे, पर चार उंगलियों और एक अंगूठे के बीच मिट्टी की कलम, जिसे हम पेम कहते थे, पकड़ा दी जाती थी। जब तक आप ढंग से पेम पकड़ना नहीं सीख लेते, आपकी अक्षर यात्रा शुरू ही नहीं हो सकती।।
ढाई अक्षर तो बहुत दूर की बात है, जिन हाथों में हमारी तकदीर बंद है, वह जिन्दगी की स्लेट पर एक लकीर ढंग से नहीं खींच पा रहा है। आज जिसे इमोजी कहा जा रहा है, ऐसे कई इमोजी बन जाने के बाद, जब तक, अ अनार का, A, एबीसीडी का, और चार अंक, १, २, ३, ४ के नहीं लिख लिए जाते, भैया होशियार नहीं कहलाए जाते थे। एक, दो, तीन, चार, लो भैया बन गया होशियार।
तुमने कितनी पेम तोड़ी है, और कितनी पेम खाई है, आज हमसे कोई हिसाब भले ही ना मांगे, लेकिन हमने पेम भी खाई है, और मार भी खाई है। मिट्टी में पैदा हुए, अपने देश की मिट्टी ही खाई है, कोई रिश्वत नहीं खाई। ।
लेकिन हम पेम वालों को समय रंग बिरंगे पेन और पेंसिलों से ज्यादा दूर नहीं रख पाया। हमारे हाथ में स्लेट और पेम पकड़ाकर जब बड़ा भैया कागज पर पेन पेंसिल से लिखता था, तो हम सोचते थे, कल हम भी बड़े होंगे, शान से पट्टी पेम की जगह, कॉपी में पेंसिल पेन से लिखेंगे। लेकिन हमारे भैया ने कभी हमें कभी पेन पेंसिल को हाथ नहीं लगाने दिया। गर्व से डांटकर कहता, तुम अभी बच्चे हो, तोड़ डालोगे। और हमारा दिल टूट जाता।
पेम से ढाई आखर सीखने के बाद, हमारी नर्सरी में कागज और पेंसिल का प्रवेश होता था। बहुत टूटती थी, पेंसिल की नोक, तब हम शार्पनर नहीं समझते थे। नादान थे, ब्लेड से पेंसिल छीलने पर उंगली भी कटती थी, और मार भी खाते थे।
तकदीर का लिखा तो खैर, कौन मिटा सकता है, लेकिन पेंसिल का लिखा, जरूर इरेज़र से मिटाया जा सकता है।।
हम तब तक पेन के बहुत करीब आ गए थे। कलम दवात, पेन का ही अतीत है। पुरातन और सनातन तक हम नहीं जाएंगे, बस सरकंडे की कलम थी, जो बाद में होल्डर बन गई और स्याही दवात में बंद हो गई।
पेन, पेंसिल और होल्डर में एक समानता है, इनमें नोक होती है। बस यही नोक ही लेखन की नाक है। पेंसिल की नोक की तरह पेन देखो, पेन की धार देखो।
Pen is mightier than sword. किसी ने लिख मारा। और पढ़े लिखे लोगों में आपस में तलवारबाजी चलने लगी। ।
आज के इस हथियार को जब हम कल देखते, तो बड़ा आश्चर्य होता था, ढक्कन वाला पेन, जिसमें एक स्टैंड भी होता था, खीसे में लगाने के लिए। पीतल की, स्टील की अथवा धारदार निब,
जिसके नीचे एक सहारा और बाद में आंटे वाला हिस्सा, जिसे खोलकर पेन में ड्रॉपर से स्याही, यानी camel ink, भरी जाती थी। गर्मियों में कितने हाथ खराब हुए, कितने कंपास, बस्ते और कपड़े इस पेन के चूने से खराब हुए, मत पूछिए। आज कोई यकीन नहीं करेगा।
पेन पेंसिल का साथ जितना हमें मिला, उतना आज की पीढ़ी को नहीं मिल रहा। सुंदर लेखन, स्वच्छ लेखन और शुद्ध लेखन, मन और विचार दोनों को बड़ा सुकून देता है। बिना पढ़े लिखे, कोई हस्ताक्षर कभी बड़ा नहीं बनता। समय का खेल है। Only Signatories become Dignitaries.
आज हो गए हम डिजिटल, पढ़ लिख लिए, ईको फ्रेंडली हो गए, कागज़ बचाने लग गए, घर में ही एंड्रॉयड प्रिंटिंग स्टूडियो और फोटो स्टूडियो खोलकर बैठ गए। आप चाहो तो घर में ही एकता कपूर बन, एक फिल्म प्रोड्यूस कर नेटफ्लिक्स पर डाल दो।
अपने अतीत को ना भूलें। बच्चों को पट्टी पेम, काग़ज़, किताबें और पैन पेंसिल से भी जोड़े रखें। स्कूल भी ब्लैक बोर्ड और चॉक खड़ू (crayon) से जुड़े रहें। ऑनलाइन से कभी कभी ऑफलाइन भी हो जाएं।
जीवन में थोड़ा नर्सरी, के.जी. भी हो जाए। पट्टी के साथ पहाड़ा भी हो जाए ..!!