हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #279 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 279 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

●●●●

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #52 – नवगीत – कटी शाख है बरगद की… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतकटी शाख है बरगद की

? रचना संसार # 52 – गीत – कटी शाख है बरगद की…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पूछ रहा उर बना शिला,

कब आयेंगे राम।

फिर दें तार अहिल्या सा,

नित्य जपूँ मैं नाम।।

मुरझाती घर की बगिया,

शूल बिछे हैं राह।

रिश्ते तुलते पैसों से,

निकले उर से आह।।

मुँहजोर हुए सब अपने,

बिक जाते बेदाम।

 *

कटी शाख है बरगद की,

रोता शीशम आज।

छाया को पंछी तरसें,

सिर बबूल के ताज।।

चोटिल है फूल चमेली,

पथिक झेलते घाम।

 *

शोषण बच्चों का होता,

सूखे नद तालाब।

लाखों बंधन समाज के,

मुख पर लगा नकाब।।

रोती है घर की तुलसी,

जाना है प्रभु-धाम।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खुली आँख से ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – खुली आँख से ? ?

अपनी ही दृष्टि से,

देखना होता है जगत,

अपने विश्लेषण से

टटोलना होता है जगत,

आचार-विचार, संस्कार

बनते विश्लेषण का आधार,

विचार सकारात्मक हों

तो भाव पवित्र होते हैं,

पवित्रता होती है निष्पाप,

निष्पाप रखता है विश्वास,

विश्वास फिर प्राय:

भोगता है विश्वासघात,

अनुभव, विश्लेषण को पीछे कर

सारा सच बोल देता है,

मनुष्य का अमानुषी व्यवहार,

अच्छे-अच्छों की आँखें खोल देता है…!

?

© संजय भारद्वाज  

दोपहर 12: 44 बजे, 6.6.2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

 

🕉️ हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।💥

💥 इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

💥 संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Beguiling Spell… ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present Capt. Pravin Raghuvanshi ji’s amazing poem “~ Beguiling Spell… ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) and his artwork.) 

? ~ Beguiling Spell…??

 

Though we  grasp  the truth,

yet we tend to fall for the lie,

Our discerning  minds, still

get fooled by guile and guise

 *

The charlatans weave their

enchanting  chiming  bells

And we, the mesmerized ones

get trapped, in deceitful spell

 *

In blind endearment, we

surrender our mind & sight,

And with the truth, distorted,

our wisdom loses its light

 *

The wise  and the fools, both

succumb to the temptations,

And in the darkness, we succumb

to such impulsive inclinations

~Pravin Raghuvanshi

 © Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Articles ☆ # 03: Effortless practices for Happiness and Stress Management ☆ Shri Jagat Singh Bisht ☆

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

Authored six books on happiness: Cultivating Happiness, Nirvana – The Highest Happiness, Meditate Like the Buddha, Mission Happiness, A Flourishing Life, and The Little Book of HappinessHe served in a bank for thirty-five years and has been propagating happiness and well-being among people for the past twenty years. He is on a mission – Mission Happiness!

# 03: Effortless practices for Happiness and Stress Management

STRETCH, BEND, TWIST, TURN

“Walking is the best possible exercise. Habituate yourself to walk very far.”

Thomas Jefferson

Exercise freestyle. Do not stress, let it be fun. Stretch, bend, twist, turn, whirl, move, and jump.

Getting up early and going to a park in the neighbourhood could be a rewarding habit to develop. It gives you a whiff of fresh air and sunshine that makes you feel refreshed the whole day. Once you add it to your routine, you will start looking forward to the morning, and it will become a rewarding hour of the day for you.

Start with a gentle walk and then walk briskly. Twenty to thirty minutes of walking every day can do wonders for you in the long run. It is good for your circulatory system and relaxes you a great deal.

Watching the trees and the flowers while walking gives a healing and soothing touch to your senses. It relaxes your eyes and is good for your eyesight too! Walking is not just an exercise, it reduces stress. You feel relaxed.

Exercises are not only good for your body. They bring happiness and well-being. Whenever you feel low, get up and move out to the neighbourhood park.

Physically active people are happier. Also, they have better life-satisfaction, and higher self-esteem. Exercise reduces depression, anxiety, stress, and panic; it betters mental processing, creates longer life, improves sleep quality, and strengthens the immune system.

It is exercise itself that infuses us with happiness. Among various types of activities, exercise is the most reliable happiness boosting activity.

Find a quiet corner for yourself and just stretch, bend, twist, turn, and whirl your body in a freestyle manner. Do not worry too much. Nothing is right or wrong. Do whatever you feel like doing.

FREESTYLE EXERCISES

Walking, coupled with some freestyle exercises in a relaxed manner, brings multiple benefits. It stretches your skeletal structure, improves your blood circulation, and is good for your muscles. It is good for your heart and the respiratory track. This, in turn, activates your endocrine system.

Stand on both your feet in a balanced manner. Cross your palms, fingers interlocked, and stretch your arms straight above your head. Stretch, stretch, stretch! Keeping your palms interlocked, up above your head, bend to the right and then bend to the left. Now, take your palms in front of you, bend forward, and stretch.

Let your hands dangle freely below your waist. Twist your waist sidewise to the right and then to the left. Let your arms move slowly as if a washing machine is in motion. Twist your lower body and keep moving your arms sidewise for some time.

Close your fists and bring them close to tour chest. Twist your upper body and move your arms. keeping them together at chest height.

Raise your arms above your head and gently bend backwards from your waist. Stay there for a while. Then, raise your hands up and go on to bend forward, as far as you can comfortably. Raise your arms up again. Now, repeat the actions and swing your arms rhythmically, bending backward and forward. Inhale as you go up and exhale as you come down.

Open your arms wide, bring them forward crosswise, and hit the back of your shoulders with palms. Swing the arms back to wide open position. Bring them forward again, but this time keep the other arm on the top and hit the back of shoulders with palms. Alternatively, keep one arm on top and the other arm below. Keep on opening your arms and then swinging to hit the back of shoulders for some time.

Dangle your arms by the sides of your waist and then lift them up in a ‘V’ shape. Bring them back to the sides of your waist and then again take them up in a swinging action. Inhale as you go up and exhale as you come down.

Be on your toes and jump upward gently. Continue jumping for some time.

Place both your hands on your waist, breath in deeply through your nose, and exhale through your mouth making an ‘O’ with the lips. Repeat it thrice.

Stand balanced on both your feet. Stretch your arms fully sidewise. Turn to your right and whirl in a clockwise direction. Move slowly. Find an object at a distance and fix your gaze for a moment on it after each round. Go slow. Complete 10 – 20 rounds. Afterwards, stop and be stationary for some time. Do not move abruptly. If you feel dizzy, bend slightly, put your palms on your thighs, and look at the floor.

These exercises are only illustrative. You may add more of your own. Do not stress, let it be fun. Be freestyle. Stretch, bend, twist, turn, whirl, move, and jump. These exercises will make you feel good throughout the day. No equipment is needed. If you do not go out on any day, you may do these exercises at your home too.

EXERCISE

Play like a child.

Take permission from a group of children and join them in play. Play with them like a child.

Run, jump, and shout. Be fully immersed in the game. Forget the world.

Pour all your energy and heart into the game. Put in all your enthusiasm.

Enjoy the game.

Laugh whole heartedly.

Until you merge completely with the children. You are not an outsider who has joined them. Everyone is equal.

Sing, dance, play and laugh in unison with all of them. Enjoy the fun. Be a kid. Until you begin to perspire.

Have a hot shower and relax.

You feel positive and joyous.

 Strenuous exercises may sometimes be harmful but light and freestyle exercises are always good. Go back to your childhood days, remember all the funny exercises you used to do, and try to re-create them. Gentle jogging, half jumps and stretching-bending exercises could be great fun, especially when done with children. The children would also be happy if you join them occasionally.

No equipment is needed, and you are not required to follow strict schedules. No membership fees and no registrations. Just have fun and get all the benefits. Include freestyle exercises in your routine. You will feel free and relaxed throughout the day.

“Physical fitness is the first requisite of happiness.

” Our interpretation of physical fitness is the attainment and maintenance of a uniformly developed body with a sound mind fully capable of naturally, easily, and satisfactorily performing our many and varied daily tasks with spontaneous zest and pleasure.

“To achieve the highest accomplishments within the scope of our capabilities in all walks of life we must constantly strive to acquire strong, healthy bodies and develop our minds to the limit of our ability.”

Return to Life/ Joseph Pilates and William Miller

“Research demonstrates that exercise may be the most reliable happiness booster of all activities.”

Sonja Lyubomirsky

♥ ♥ ♥ ♥

© Jagat Singh Bisht

Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker

FounderLifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #279 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 279 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

लगा रखी हैं बंदिशें, कैसे भरूँ उड़ान।

मन तो काबू में रहा, हुई नहीं  हैरान।।

 *

आँसू निकले सोच में, सुमिर मुझे वह रात।

प्रेम किया था आपसे, प्यारी  मीठी बात।।

 *

बदल रही सब सोचना, पढ़ने में है ध्यान।

तोड़ी सारी बंदिशे, ऊँची उड़ी उड़ान।

 *

रखी नहीं हैं बंदिशे, डरे नहीं इंसान।

नर-नारी सब एक हैं, अपनी शुभ पहचान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #261 ☆ संतोष के दोहे – इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – इंसानियत आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 261 ☆

संतोष के दोहे इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज लापता हो रहा, मानवता का धर्म

यहाँ धर्म के नाम पर, खूब करें दुष्कर्म

*

कौन धर्म सिखला रहा, दंगे और फसाद

निर्दोषों को मारकर, चाहें हों आबाद

*

लूट-खसोट अरु उपद्रव, जिन्हें लगे आसान

जिनकी है यह संस्कृति, वही करें नुकसान

*

ममता की ममता गई, और गया ईमान

है सत्ता की भूख बस, भूल गई इंसान

*

न्यायालय लेता नहीं, स्वयं आज संज्ञान

बे गुनाह मारे गए, जागो अब श्रीमान

*

राजनीति हर बात पर, नेता करते आज

सच को सच कहते नहीं, झूठ करे पर राज

*

हे मालिक सुन ले जरा, जन-जन की यह पीर

प्रभु ऐसा कुछ कीजिए, संकट है गंभीर

*

मरी यहाँ इंसानियत, है जाग्रत शैतान

बनें धर्म के नाम पर, हिंसक क्यों इंसान

*

भाई को चारा समझ, ग्रास बनायें आज

ऐसे मुश्किल दौर में, कैसे जुड़े समाज

*

समरसता सौहार्द बिन, बढ़ता जन आक्रोश

सुख-शांति संतोष तब, खड़े रहें खामोश

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे? ☆ श्री अजय गौतम ☆

श्री अजय गौतम

(ई-अभिव्यक्ति में श्री अजय गौतम जी का हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड (GRSE), (रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार का एक प्रतिष्ठित उपक्रम) में वरिष्ठ प्रबंधक (निगमित संचार) के रूप में कार्यरत हैं। आप इस संगठन में जनसंपर्क, मीडिया समन्वय और रणनीतिक संचार अभियानों का नेतृत्व कर रहे हैं। आपकी रचनात्मक सोच, जिज्ञासा और प्रभावशाली संवाद शैली ही आपकी सबसे बड़ी ताकत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे?)

☆ कविता ☆ पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे? श्री अजय गौतम

माँ, तुम सुनो,

पर सुनकर रूठ न जाना,  

और पापा तुम तो गौर से सुनो,  

वो दिन, दिल से भूल मत जाना,  

 

और भूलना कभी, तो मेरा नाम भूल जाना,  

नाम से ही तो मुझे बेटी बनाया था,  

दस पर्दों के पीछे मुझे ही रखकर तो,  

बेटे का वसीयतनामा करवाया था,  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

पर पापा, तुमने ही तो सबके सामने,  

मुझे घर की मर्यादा बुलाया था,  

और उससे थोड़ी देर पहले ही तो सबको,

बेटे का नाम, कुलदीपक बताया था।  

पापा, दुनिया देखनी थी मुझे भी,  

लेकिन घर के अंदर की नहीं,  

एक दहलीज लांघनी थी मुझे भी,  

लेकिन बिस्तर के तकिए की नहीं।  

आसमान की पहली परत उकेरनी थी मुझे,  

पर स्याही से भीगी चादर की नहीं,  

अपने आप में सिमटना था पापा,  

घूंघट की किसी ओट में नहीं।  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

चूल्हे से गैस में जब खाना बना,  

तो तुमने कहा, “ये तुम्हारे लिए है”,  

और पतंग–मांझे की डोर पकड़ाकर,  

भाई से कहा, “ये तेरे लिए है”।  

कितनी और डोर मेरी उड़ान की,  

ऐसी ही काट दी तुमने, पापा,  

मेरी खुशियों की सहेजी गुल्लक,  

कहीं और ले जाकर बांट दी, पापा।  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

कभी मुझे भी बाजार जाते हुए,  

पैसे देते हुए, एक बार कह देते,  

जो जी में आए, ले लेना,  

पैसों की फिक्र मत करना। 

दो थप्पड़ भाई को लगाकर कहते,  

मेरे न होने पर भी,  

कभी भूलकर भी,

अपनी बहन पर हाथ मत उठाना।”  

मुझे मारने से पहले, पापा,  

मुंह से निकली बात भी तो सोच लेते।  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

मेरे बस्ते की किताबों को,  

सहेजकर रखने में क्या हर्ज़ था, पापा?  

क्यूं फाड़ लेते थे रोज़ एक पन्ना,  

सिंगड़ी में आग जलाने को?  

भाई को हर तकलीफ से बचाने का,  

ये कैसा मर्ज़ था, पापा?  

और मेरे बस हाथ पीले करने का,  

ये कैसा फ़र्ज़ था, पापा?  

ये कहकर कि,

मेरा जन्म ही निराधार है,  

और मेरा अस्तित्व, 

एक गिरवी नाव की पतवार है।  

 

अपने मन में मेरे तिरस्कार की,  

कभी तो गांठे खोल देते।  

कंधों पे आंसुओं का बोझ रखने को,  

कभी तो अपनी बाहें खोल देते।  

पापा थोड़ा मुझसे सुन लेते,  

और थोड़ा मुझे भी सुना देते।  

 

उन्हीं दस लोगों के सामने,  

एक दिन का तो बेटा बना लेते।  

हाँ पापा! सच में क्या ये गलत होता,  

जो मारकर, कई बार मुझे,  

एक बार ना चाहकर भी बुला लेते ,

और फिर जल्दी गले से लगा लेते।

 

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!!

 

 

हम तो अंधेरों स्वागत भी

दीप जलाकर ही करते हैं

कहीं अंधेरे को

ठोकर ना लग जाए..!!

©  श्री अजय गौतम 

ई-मेल : ajaygautamatry@gmail.com 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मलिहाबाद की आमसभा ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

श्री तीरथ सिंह खरबंदा

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री तीरथ सिंह खरबंदाजी का हार्दिक स्वागत। आपने विधि विषय में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की है। व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सतत सक्रिय, विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन-प्रकाशन तथा हलफनामा, इक्कीसवीं सदी के अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार एवं हमारे समय के धनुर्धारी व्यंग्यकार, साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। वर्ष 2023 में पहला व्यंग्य संग्रह “सुना है आप बहुत उल्लू हैं” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2024 में दूसरा व्यंग्य संग्रह “झूठ टोपियाँ बदलता रहा” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2022 में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा स्पंदन साहित्य सम्मानसंप्रति : इंदौर में विधि एवं साहित्य के क्षेत्र में सतत सक्रिय। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – मलिहाबाद की आमसभा।)

☆ व्यंग्य ☆ मलिहाबाद की आमसभा ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

आज मलिहाबाद के आमबाग में पहली आमसभा होने जा रही थी। यह आमतौर पर होने वाली किसी नेता की आमसभा से अलग थी। सही अर्थों में यह एक अनूठी और सच्ची आमसभा थी। इस आमसभा की अध्यक्षता का दायित्व सहारनपुर से पधारे हाथीझूल आम के मजबूत कंधों पर डाला गया था। जिन्हें लोग प्यार से नूरजहां कहकर भी बुलाते थे। यह एक अकेला आम चार-पाँच किलो पर भी भारी था। अनूठे डील-डौल वाला उसका व्यक्तित्व अध्यक्ष पद के सर्वथा अनुकूल और प्रभावशाली था। मंचासीन, कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सिंदूरी आम मंच की शोभा बढ़ाने के साथ ही चर्चा का भी विषय बने हुए थे।

अध्यक्ष ने आमबाग की महती आमसभा को संबोधित करते हुए कहा – साथियों हम यह बात हमेशा याद रखें कि- हम सबकी, पहली और असली पहचान है कि हम सब आम हैं। हममें कोई भी खास नहीं है।

हमारी दूसरी असल पहचान है कि हम सब एक हड्डी से बने जीव हैं इन्सानों की रीढ़ से कहीं ज्यादा मजबूत हमारी एक ही हड्डी है। यदि हम गुणों की बात करें तो दुनिया में हमारा मीठापन हमारी मूल पहचान है। हम इस दुनिया में अपने गुणों के कारण ही जाने और पहचाने जाते हैं और इसी की बदौलत दुनिया में हमारा मान है।

यह हमारी पहली आमसभा है। अभी तक हमने इन्सानों की जनसभाओं के बारे में सुना था जिसे वे आमसभा कहते नहीं थकते हैं। दरअसल वे अभी तक हमारे नाम का दुरुपयोग कर लोगों को भ्रमित करते रहे हैं।

दुनिया भर में हमारी सैकड़ों जातियाँ-प्रजातियाँ पाई जाती हैं और पता नहीं कितनी ही जंगली और बीजू प्रजातियाँ भी हमारे वृहद परिवार का एक अटूट हिस्सा हैं। किन्तु हमें गर्व है कि हमारी अलग-अलग, जातियां-प्रजातियां होने के बावजूद हम सबकी राशि और गुण एक समान हैं। हम यूं ही फलों के राजा नहीं कहलाते हैं। हम हमारी मिठास और खुशबू के कारण दुनिया में जाने जाते हैं। हमारा इतिहास जितना पुराना है उससे कहीं ज्यादा वह मीठा और सरस है।

हमारे इस वृहद्द परिवार के कुछ सिद्धान्त हैं – पहला सिद्धान्त है कि हम रंगों के आधार पर आपस में कभी कोई भेदभाव नहीं करते हैं। जहां हरा रंग हमारी प्रथम पहचान है वहीं पीला, केसरिया और सिंदूरी रंग हमारे व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। हमारे सारे रंग अपने गुणों में समाहित होकर एकरंग हो जाते हैं।

हमारा दूसरा सिद्धान्त है कि हम वर्ण भेद एवं नस्ल भेद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते हैं। क्षेत्रवाद शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं है। हमारे बीच जो भी जातियाँ और प्रजातियाँ बनी हैं, वे सभी इन्सानों की बनाई हुई हैं। उन्होंने ही हमें अलग-अलग नाम दिए हैं। किन्तु याद रहे जन्म से हम सभी सिर्फ आम हैं और आम ही रहेंगे। हममें से कोई कभी भूलकर भी खास बनने का विचार नहीं करेगा।

आज की इस आमसभा में देश-दुनिया के अलग-अलग भागों से आए प्रतिनिधि बड़ी संख्या में शामिल हुए हैं। आज हमारे बीच जापान से पधारे मियाजाकी जी एवं गुजरात से आए केसरिया जी की सुगंध सारे वातावरण को महका रही है। कुरनूल से बंगिनापल्ली, महाराष्ट्र से रत्नागिरि, बिहार से चौसा, कर्नाटक से रसपुरी, पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा के प्रतिनिधि हिमसागर, बिहार से मालदा, उत्तरप्रदेश से लंगड़ा एवं दशहरी, लखनऊ से सफेदा, के अलावा फजली, बंबई ग्रीन, नई पीढ़ी के मल्लिका, आम्रपाली, रत्ना, अर्का अरुण, अर्मा पुनीत, अर्का अनमोल, पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की मशहूर किस्में किशन भोग, हिमसागर नवाबपसंद एवं बेगमपसंद भी इस सभा में शिरकत कर रहे हैं, अपने नाम से अंग्रेज़ियत की महक देने वाले अल्फ़ान्सो (हाफूस) रत्नागिरी महाराष्ट्र से आए एक कीमती आम हैं। दक्षिण भारत से पधारे लोकप्रिय तोतापुरी आम तोते जैसी चोंच के कारण अपनी अलग विशिष्ट पहचान रखते हैं। मंचासीन सिंदूरी जी अपने सौंदर्य के कारण अलग ही चमक रहे हैं। बादामी जी की सादगी देखते ही बनती है। इसके अलावा भी कई किस्में स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में आज की आमसभा में शामिल हुई हैं।

हमारे सभी साथी अपनी अलग-अलग मौलिक पहचान रखते हुए भी आखिर में सभी सिर्फ आम हैं। आम ही हमारा धर्म है आम ही हमारा नाम है। हममें से हरेक का अपना स्वाद और अपनी फैन फॉलोइंग है। हम सब आपस में कजिंस हैं। हम आप सभी का खटमिट्ठा, रसभरा स्वागत करते हैं।

यद्यपि हमारा स्वभाव बाल्यपन तक थोड़ा खट्टा होता है किन्तु समय के साथ हम इस खट्टेपन को भूल मिठास को अपना लेते हैं। हालांकि इन्सानों ने हमारे खट्टेपन के भी खूब चटकारे लिए। हमारे कटे पर नमक, मिर्च और विविध मसाले लगाकर फिर हमें तेल में डुबोकर वे उसके चटकारे लेते रहे। हमारा अचार बनाकर और खाकर वे अत्यंत प्रसन्न होते। अपनी जुबान के स्वाद के लिए हमारी चटनी बनाने से भी वे नहीं चूके।

हमारे नाजुक शरीर को आग पर उबालकर अथवा तपा कर वे तरह तरह के पेय एवं खाद्य पदार्थ बनाते हैं। जिसके उन्होंने झोलिया, पना, लौंजी जैसे अजीबोगरीब नामकरण किए हैं। आप सभी जानते हैं कि चतुर इंसान प्रजाति ने हमारा कितना दोहन किया है। उसने हमें बाज़ार दिया और अपने आर्थिक हित साधने के लिए आम के आम और गुठलियों के दाम तक वसूले।

मौसम आए जब हम पर भरपूर यौवन चढ़ता है तब इंसान हमें अपनी ललचाई आँखों से निहारते, हमें पाने के लिए अत्यंत लालायित रहते हैं। हमें देखते ही उनके मुंह में पानी भर आता है। वैसे खुदगर्ज इन्सानों ने हमेशा अपनी पसंद अनुसार या तो हमें चूसा है या फिर काटा है। किन्तु हम चाहे चूसे गए अथवा काटे गए, हमने अपना मूल गुण कभी नहीं छोड़ा और अपनी मिठास से कभी कोई समझौता नहीं किया। जबकि इंसान हमारे गुणों की कद्र करने के बजाए हमेशा हमारा मोल भाव करते रहे हैं।

आम बनते ही हमारी धमनियों में मीठा रस प्रवाहित होने लगता है। जो प्राणियों की रसना पर चढ़कर उन्हें परम आनंद की अनुभूति करवाता है। जब-जब आम चूसा जाता है तब-तब क्या आम और क्या खास सब उसका आनंद उठाते हैं।

लालच में डूबे इन्सानों ने हमें समय से पहले जवान करने के चक्कर में तरह तरह के केमिकल इस्तेमाल करके हमें असमय ही बूढ़ा कर दिया। ऐसे में उन्होंने अपनी प्रजाति का भी ध्यान न रखा। उनसे कीमत लेकर बदले में उन्हें मीठी किन्तु खतरनाक बीमारियाँ दे डालीं। पैसे के लालच में इंसान खुद तो विदेशों की ओर पलायन करने लगे साथ ही हमें भी विदेशों में निर्यात करना शुरू कर दिया।

बड़े बड़े राजा, महाराजा और शंहशाह तक हमें बहुत पसंद करते और हमारी प्रशंसा करते न थकते थे। ये सब इसलिए नहीं था कि हम कुछ खास थे दरअसल हमने अपना आमपन कभी नहीं छोड़ा था। वे एक दूसरे को अक्सर हमें उपहार में देते। हमने कई बार उनके संबंधों के बीच की खाइयों को पाटकर उनके संबंध मधुर बनाने में पुल का काम किया। हम हमारी भरपूर प्रशंसा से भी कभी विचलित न हुए, और अपना मूल स्वभाव कभी नहीं बदला।

समय समय हम पर कई हमले हुए, हमारी नस्लों को बदलने की साजिश भी कुछ कम न हुई। हमने कभी किसी को छोटा या बड़ा न समझा। हम सभी हमेशा वक्त की तराजू पर तोले गए। यदि इन्सानों ने हमें तोलने में भी बेईमानी की हो तो यह उनका कर्म है। उनमें और हममें एक खास अंतर है कि हम अंदर से मीठे हैं और वे सिर्फ बाहर से, जुबान के मीठे हैं। पहले कभी हमारी कीमत हमारी संख्या से लगाई जाती थी किन्तु अब वे दिन हकीकत नहीं रह गए, अब हमारी कीमत हमारे गुणों से तय होती है। किन्तु इन्सानों की कीमत अब गुणों की बजाए संख्या से तय होने लगी है।

हम बेर के आकार से लेकर मेरे जैसे विशाल आकार के भी पाए जाते हैं किन्तु अनेक किस्में होने के बावजूद हमारे बीच कोई बैर नहीं है। यह सुनकर उपस्थित सभी आम मंद-मंद मुस्कुराने लगे और गर्व से भर गए।

हम जहाँ एक ओर कुलीन वर्ग के भोजन की शोभा बने। वहीं दूसरी ओर हम गरीबों की पहुँच से भी कभी बाहर नहीं रहे। हमने कभी किसी को भी हमारी कमी महसूस नहीं होने दी।

यद्यपि हमें कुछ अँग्रेजी नाम देकर हमारी संस्कृति पर हमला भी किया गया। अपने अँग्रेजी नाम के बल पर रौब गालिब करना इन्सानों की दुनिया में चलता होगा आम की दुनिया में यह खास नहीं चल पाता है। ऊपर वाले ने हमें आम बनाया है इसलिए उसके न्याय पर भरोसा रखें और आम ही बने रहें आम से खास बनने की इन्सानों की फ़ितरत से हमेशा दूर रहें। हमारा परम सौभाग्य है कि प्रकृति ने हमें मिठास दी है। अतः हमारा फर्ज़ है कि हम दुनिया में हमेशा मिठास बाँटकर उसका शुक्रिया अदा करें।

©  श्री तीरथ सिंह खरबंदा

ई-मेल : tirath.kharbanda@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फूल और पत्थर।)

?अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बच्चे फूल से नाजुक होते हैं, फूल से भी नाजुक नन्हीं नन्हीं कलियां होती हैं। फूलों का राजा गुलाब होता है, गुलाब में कांटे भी होते हैं और खुशबू भी। सार सार को ग्रहण करने वाला चतुर इंसान गुलाब से तो प्रेम करता है लेकिन कांटों में नहीं उलझता। वह किसी कली के फूल बनने का इंतजार भी नहीं करता। गुलाब की कलियां बारातियों को पेश की जाती हैं जो बाद में मसल दी जाती हैं। जिन फूलों को मंदिर में अपने आराध्य को चढ़ाया जाता है, वे ही फूल नेताओं के स्वागत में भी बरसाए जाते हैं। फूल को कोई ऐतराज नहीं, उसकी बनी माला इष्ट को समर्पित की जाए अथवा किसी मुख्य अतिथि के गले में अर्पित कर दी जाए। जन्म से विवाह, और विवाह से अंतिम यात्रा तक पुष्प को अनासक्त रूप से अर्पित और समर्पित ही होना है।

आप चाहें गुलाब को पांवों तले रौंदें अथवा उसका गुलाब जल अथवा गुलकंद बना लें, चम्पा, चमेली, जूही का गजरा बना लें, वेणी की तरह बालों में सजा लें, राजेंद्रकुमार की तरह एक फूल किसी के जूड़े में सजा दें, पुष्प को कोई ऐतराज नहीं। एक कवि भले ही पुष्प की अभिलाषा को अभिव्यक्त कर दे, पुष्प का समर्पण तो अव्यक्त और अहैतुक ही होता है। ।

जो रास्ते का एक पत्थर है, अथवा एक राहगीर के लिए मील का पत्थर है, जिस पत्थर की सीढ़ियों पर चलकर हम पहाड़ चढ़े हैं, जिस पत्थर ईंट से हमने घर बनाया है, उसी पत्थर की मूरत की जब मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है, तो वह भगवान हो जाता है।

फूल पत्थर की मूर्ति पर माला बन प्रतिष्ठित हो जाता है। फूल और पत्थर दोनों धन्य हो जाते हैं।

जिस पत्थर से हमने कभी ठोकर खाई है, उसी पत्थर को जब हम भगवान के रूप में पूजते हैं, तो वहां मत्था टेकते हैं, विनती करते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, प्रेमाश्रु बहाते हैं और पूछते हैं ;

ओ रूठे हुए भगवान

तुझको कैसे मनाऊं

तुझको कैसे मनाऊं ?

फूल जहां भी गया, सबके चेहरों पर खुशियाँ बिखेरते गया, गम और खुशी दोनों में फूल ने हमारा साथ निभाया लेकिन पत्थर बड़ा पत्थर दिल निकला। ऐसा क्यों है, जब हमें गुस्सा आता है, हम कोई फूल नहीं तोड़ते, रास्ते पर पड़ा कोई पत्थर उठा लेते हैं। पत्थर एक ऐसा सर्वगुण संपन्न अस्त्र है जो फेंककर मारा जाता है। सिर्फ पत्थर फेंकने से भी गुस्सा शांत हो जाता है। मैने बचपन में अपने कई साथियों को, जब घर में मार पड़ती थी, तो उसका गुस्सा उन्हें सड़क पर राह चलते कुत्ते और सुअर को पत्थर मारकर उतारते देखा है। पहले गुस्सा किया जाता है, फिर किसी पर उतारा जाता है।

हमने भी बचपन में बहुत पत्थर फेंके हैं। गणेश चतुर्थी की रात को पहले चंद्रमा को देखना, फिर दूसरों की छत पर पत्थर फेंककर, चोरी के इल्जाम से बचने के लिए, प्रायश्चित करना। ।

कौन जानता था, जो पत्थर कभी बचपन में, बचपने में, अनजाने में, बिना किसी का अहित किए फेंके गए, समय के साथ ऐसा विकराल रूप धारण कर लेंगे। दुष्यंत ने तो यूं ही कह दिया था, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों, कौन कहता है, आसमान में सूराख नहीं होता। क्या एक फेंका गया पत्थर इतना बड़ा सूराख कर सकता है कि वहां से पत्थरों की बारिश ही होने लग जाए।

अगर किसी ने गलती से मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा भी है तो अब सिर्फ आग और धुआं ही हमें मधुमक्खी के हमले से बचा सकता है। जिन हाथों में फूल होने चाहिए वहां पत्थर शोभा नहीं देते।

पत्थर तो खैर पत्थर है, लेकिन पत्थर फेंकने वाला नादान नहीं। कोई क्षमादान नहीं। हम अगर पत्थर को पूजना जानते हैं तो पत्थर फेंकने वालों की पूजा करना भी जानते हैं।

आज दुष्यंत होते तो शायद वे भी यही कहते, इन पत्थर फेंकने वालों का तबीयत से इलाज करो यारों। ।

जो जग को जीतना जानते हैं, मनजीत भी हैं, उनका स्वागत है, आगे आएं, कुछ ऐसा कर पाएं, कि जहां से पत्थरों की बारिश हो रही है वहां से कल पुष्प वर्षा हो।

प्रेम से पत्थर को पिघलते जिन्होंने देखा है, उन्होंने ही बियाबान में फूलों को भी खिलते देखा है ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares