श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “फूल और पत्थर…“।)
अभी अभी # 703 ⇒ फूल और पत्थर
श्री प्रदीप शर्मा
बच्चे फूल से नाजुक होते हैं, फूल से भी नाजुक नन्हीं नन्हीं कलियां होती हैं। फूलों का राजा गुलाब होता है, गुलाब में कांटे भी होते हैं और खुशबू भी। सार सार को ग्रहण करने वाला चतुर इंसान गुलाब से तो प्रेम करता है लेकिन कांटों में नहीं उलझता। वह किसी कली के फूल बनने का इंतजार भी नहीं करता। गुलाब की कलियां बारातियों को पेश की जाती हैं जो बाद में मसल दी जाती हैं। जिन फूलों को मंदिर में अपने आराध्य को चढ़ाया जाता है, वे ही फूल नेताओं के स्वागत में भी बरसाए जाते हैं। फूल को कोई ऐतराज नहीं, उसकी बनी माला इष्ट को समर्पित की जाए अथवा किसी मुख्य अतिथि के गले में अर्पित कर दी जाए। जन्म से विवाह, और विवाह से अंतिम यात्रा तक पुष्प को अनासक्त रूप से अर्पित और समर्पित ही होना है।
आप चाहें गुलाब को पांवों तले रौंदें अथवा उसका गुलाब जल अथवा गुलकंद बना लें, चम्पा, चमेली, जूही का गजरा बना लें, वेणी की तरह बालों में सजा लें, राजेंद्रकुमार की तरह एक फूल किसी के जूड़े में सजा दें, पुष्प को कोई ऐतराज नहीं। एक कवि भले ही पुष्प की अभिलाषा को अभिव्यक्त कर दे, पुष्प का समर्पण तो अव्यक्त और अहैतुक ही होता है। ।
जो रास्ते का एक पत्थर है, अथवा एक राहगीर के लिए मील का पत्थर है, जिस पत्थर की सीढ़ियों पर चलकर हम पहाड़ चढ़े हैं, जिस पत्थर ईंट से हमने घर बनाया है, उसी पत्थर की मूरत की जब मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हो जाती है, तो वह भगवान हो जाता है।
फूल पत्थर की मूर्ति पर माला बन प्रतिष्ठित हो जाता है। फूल और पत्थर दोनों धन्य हो जाते हैं।
जिस पत्थर से हमने कभी ठोकर खाई है, उसी पत्थर को जब हम भगवान के रूप में पूजते हैं, तो वहां मत्था टेकते हैं, विनती करते हैं, गिड़गिड़ाते हैं, प्रेमाश्रु बहाते हैं और पूछते हैं ;
ओ रूठे हुए भगवान
तुझको कैसे मनाऊं
तुझको कैसे मनाऊं ?
फूल जहां भी गया, सबके चेहरों पर खुशियाँ बिखेरते गया, गम और खुशी दोनों में फूल ने हमारा साथ निभाया लेकिन पत्थर बड़ा पत्थर दिल निकला। ऐसा क्यों है, जब हमें गुस्सा आता है, हम कोई फूल नहीं तोड़ते, रास्ते पर पड़ा कोई पत्थर उठा लेते हैं। पत्थर एक ऐसा सर्वगुण संपन्न अस्त्र है जो फेंककर मारा जाता है। सिर्फ पत्थर फेंकने से भी गुस्सा शांत हो जाता है। मैने बचपन में अपने कई साथियों को, जब घर में मार पड़ती थी, तो उसका गुस्सा उन्हें सड़क पर राह चलते कुत्ते और सुअर को पत्थर मारकर उतारते देखा है। पहले गुस्सा किया जाता है, फिर किसी पर उतारा जाता है।
हमने भी बचपन में बहुत पत्थर फेंके हैं। गणेश चतुर्थी की रात को पहले चंद्रमा को देखना, फिर दूसरों की छत पर पत्थर फेंककर, चोरी के इल्जाम से बचने के लिए, प्रायश्चित करना। ।
कौन जानता था, जो पत्थर कभी बचपन में, बचपने में, अनजाने में, बिना किसी का अहित किए फेंके गए, समय के साथ ऐसा विकराल रूप धारण कर लेंगे। दुष्यंत ने तो यूं ही कह दिया था, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों, कौन कहता है, आसमान में सूराख नहीं होता। क्या एक फेंका गया पत्थर इतना बड़ा सूराख कर सकता है कि वहां से पत्थरों की बारिश ही होने लग जाए।
अगर किसी ने गलती से मधुमक्खी के छत्ते को छेड़ा भी है तो अब सिर्फ आग और धुआं ही हमें मधुमक्खी के हमले से बचा सकता है। जिन हाथों में फूल होने चाहिए वहां पत्थर शोभा नहीं देते।
पत्थर तो खैर पत्थर है, लेकिन पत्थर फेंकने वाला नादान नहीं। कोई क्षमादान नहीं। हम अगर पत्थर को पूजना जानते हैं तो पत्थर फेंकने वालों की पूजा करना भी जानते हैं।
आज दुष्यंत होते तो शायद वे भी यही कहते, इन पत्थर फेंकने वालों का तबीयत से इलाज करो यारों। ।
जो जग को जीतना जानते हैं, मनजीत भी हैं, उनका स्वागत है, आगे आएं, कुछ ऐसा कर पाएं, कि जहां से पत्थरों की बारिश हो रही है वहां से कल पुष्प वर्षा हो।
प्रेम से पत्थर को पिघलते जिन्होंने देखा है, उन्होंने ही बियाबान में फूलों को भी खिलते देखा है ..!!
© श्री प्रदीप शर्मा
संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर
मो 8319180002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈