मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 12 – कौतुक आणि टीका ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनका आलेख कौतुक आणि टीका ।  प्रत्येक साहित्यकार को जीवन में कई क्षणों से गुजरना होता है। कुछ कौतूहल के तो कुछ आलोचनाओं के; कभी प्रशंसा तो कभी हिदायतें। सुश्री प्रभा जी ने इन सभी को बड़े सहज तरीके से अपने जीवन में ही नहीं साहित्य में भी जिया है। मुझे आलेख के अंत में उनकी कविता के अंश को पढ़ कर डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र” जी के एक पत्र की कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो उन्होने आज से लगभग 37 वर्ष पूर्व मुझे लिखा था। उन्हें मैं आपसे साझा करना चाहूँगा। “एक बात और – आलोचना प्रत्यालोचना के लिए न तो ठहरो, न उसकी परवाह करो। जो करना है करो, मूल्य है, मूल्यांकन होगा। हमें परमहंस भी नहीं होना चाहिए कि हमें यश से क्या सरोकार।  हाँ उसके पीछे भागना नहीं है, बस।” 

सुश्री प्रभा जी का  पुनः आभार अपने संस्मरण साझा करने के लिए। आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 12 ☆

 

☆ कौतुक आणि टीका ☆

१९७४/७५  सालापासून मला छापील प्रसिद्धी मिळते आहे. रेडिओ सिलोन च्या श्रोतासंघांच्या रेडिओ पत्रिकेत हिंदी कविता प्रकाशित झाल्या, राजबिराज- नेपाळ हून एका वाचकाचं पत्र आलं, “आपकी रचना सबसे सुंदर है !” छान वाटलं पण फार हुरळून गेले नाही!

१९७५ मध्ये मनोरा मासिकातून पत्र आलं, “कविता स्विकारली आहे, भेटायला या ” त्यांनी काही सूचना केल्या, शुद्धलेखनाच्या चुका होता कामा नयेत वगैरे….

माझ्या बहुतेक कवितांचे वाचकांनी कौतुकच केले आहे, “लोकप्रभा” मध्ये प्रकाशित झालेल्या कवितेला सुमारे चाळीस प्रशंसा पत्रे आली!

अजूनही लोक काही वाचलं की फोन करून, व्हाटस् अप वर आवडल्याचे सांगतात, एकदा माझी एक विनोदी कथा वाचून निनावी पत्र आलं, “तुम्ही कथा लिहू नका फक्त कविताच करा” पण ह.मो.मराठे यांनी ती कथा वाचल्याचे आणि आवडल्याचे एकदा कार्यक्रमात भेटले तेव्हा सांगितलं!

आपण कसं लिहितो,याची आपल्याला साधारण कल्पना असते, मी खुप प्रयत्नपूर्वक काही लिहित नाही…सहज सुचलं म्हणून लिहिते, फार नोंद घेतली जावी असं ही काही नाही….पण रवींद्र पिंगे,लीला दीक्षित, निर्मलकुमार फडकुले,  रवींद्र शोभणे आणि मधु मंगेश कर्णिक यांनी  लेखनाचं कौतुक केलेलं खुप आनंददायी वाटलं होतं!

माझे मामा नेहमीच माझ्या कवितेची टिंगल करतात, ते “दावणी ची गाय” वगैरे ऐकवत जाऊ नकोस वगैरे, एकदा त्यांचा मला फोन आला, टीव्ही वर अमुक तमुक च्या गझल चा कार्यक्रम लागला आहे पहा तुला काही शिकता आलं तर तिच्याकडून!!!

त्यानंतर दोन वर्षांनी ती गझलकार आणि मी एका मुशाय-यात एकत्र होतो…तिच्या पेक्षा माझ्या गझल निश्चितच चांगल्या गेल्या…ही आत्मस्तुती नाही…तुलना मी मुळीच करत नाही पण…तिच्या कडून मी काही शिकावं असं काही नव्हतं, टीका करणारे करतात,आपला आवाका आपल्याला माहित असतोच टीकेचा किंवा कौतुकाचा माझ्यावर फारसा परिणाम झालेला नाही!

 

मी माणूस आहे

संत नव्हे

माझी कविता, एक वेदना

अभंग नव्हे

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4 ☆ चले जाने तलक ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “चले जाने तलक”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 4   

 

☆ चले जाने तलक ☆

 

तेरे चेहरे पर यह मुस्कान बनी रहेगी कब तलक?

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक?

 

क्या तेरे मन को यह कोई अधूरी सी ख्वाहिश है

जो तुझे ख़ुशी देगी सिर्फ तेरी गली आने तलक?

 

या फिर यह कोई ठहरी सी दिल की तमन्ना है

जो तेरे साथ चलेगी सिर्फ मेरे वापस जाने तलक?

 

सुन, तू ज़हन को हर एहसास से आज़ाद कर दे,

मुस्कान का रिश्ता हो जहाँ भी झलके तू पलक!

 

ख़ुशी और जुस्तजू अपनी रूह में तू ऐसी भर दे,

कि जब-जब तू पंख फैलाए, नज़र आये फ़लक!

 

तेरे हर लम्हे में तब सुकून होगा जो न बदलेगा

मेरे आने तलक या फिर मेरे चले जाने तलक!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 12 – लाल जोड़ा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “लाल जोड़ा”। यह लघुकथा हमें परिवार ही नहीं पर्यावरण को भी सहेजने का सहज संदेश देती है। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के माध्यम से  समाज  को अभूतपूर्व संदेश देने के लिए  बधाई ।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 12 ☆

 

☆ लाल जोड़ा ☆

 

बहुत बड़ी स्मार्ट सिटी। चारों तरफ से आवागमन के साधन। स्कूल, कॉलेज, सिनेमा घर, बाजार, अस्पताल, सभी प्रकार की सुविधा। सिटी से थोड़ी दूर बाहर करीब 50 किलोमीटर के पास एक छोटा सा तालाब वहां 60-65 मकान जो झुग्गी झोपड़ी नुमा। शहर के वातावरण से बिल्कुल अनजान। अपने में ही मस्त रहना। और चाहे दुख हो चाहे सुख, बस वही सभी को निपटना। गांव से शहर कोई आता, जरूरत का सामान ले जाता। गाय भी पाले परंतु दूध अपने उपयोग के लिए नहीं करना। शहर में बेच कर पैसे कमाना। किसी के यहां मुर्गी का दड़बा भी है। बकरियां भी पाल रखे हैं। छोटे- बड़े, बच्चे, महिला, लड़कियां, सभी आपस में ही मिलकर रहना यही उनकी जिंदगी है।

रोज शाम को काम से सभी लौटने के बाद खाना बनाने वाले खाना बनाते हैं बाकी सब एक गोल घेरा बनाकर बैठे दिन चर्चा करते। किसी की बेटी की शादी, किसी के बेटे का ब्याह, सभी आसपास ही होता था।

उन्हीं घरों में बैदेही अपने माता – पिता के साथ रहती थी। जैसा नाम वैसा ही उसका काम। सभी का काम करती। बड़े – बुजुर्गों के काम पर चले जाने के बाद खुद 14 साल की बच्ची परंतु, अपने से छोटे सभी का ध्यान रखती थी। स्कूल तो जैसे किसी ने देखा ही नहीं। कभी गए, कभी नहीं गए। क्योंकि, जाने पर घर का काम कौन करता। अक्षर ज्ञान सभी को आता था।

बैदेही पढ़ने में होशियार थी। उसके अपने साथ की सहेली उससे कहती “बैदेही तुम तो निश्चित ही शहर जाओगी।” परंतु बेहद ही कहती “अरे नहीं इस मिट्टी को छोड़कर मैं कहीं भी नहीं जाऊंगी। देखना इसी मिट्टी पर मेरा अपना घर होगा।”

दिन बीतते गया। बैदेही का ब्याह तय किया माँ बापू ने। एक लड़का पास के गांव में स्कूल में चौकीदार का काम करता था। सभी बस्ती के लोग बहुत खुश थे, बैदेही के ब्याह को लेकर। बाजे – गाजे बजने लगे, सुहाग का जोड़ा भी आ गया। बैदही के लिए सभी लाल सुर्ख जोड़े को देखकर प्रसन्न थे।

दिन में पूजन का कार्यक्रम चल रहा था बस्ती के सभी महिलाएं पुरुष पास में मंदिर गए हुए थे। छोटा सा पंडाल लगा था बैदही के घर। घर में कुछ छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे। बैदेही को हल्दी लगनी थी।  सारी तैयारियां चल रही थी। खाना भी बन रहा था।

थोड़ी देर बाद अचानक आँधी चलने लगी। पंडाल जोर-जोर से हिलने लगा। मिट्टी का मकान सरकने की आवाज से बैदेही चौंक गई। तुरंत बच्चों को बाहर कर दिया और जरूरत का सामान बाहर लाने जा रही थी। हाथ में अपना लाल जोड़ा लेकर बैदेही बाहर दौड़ रही थी परंतु ये क्या! ऊपर से खपरैल वाला छत बैदेही के ऊपर आ गिरा। सैकड़ों लाल खपरैल से बैदेही दब गई। और जैसे आँधी एक बार में ही शांत हो गई। सभी आकर जल्दी-जल्दी बैदेही को निकालना शुरू किए। बहुत देर हो जाने के कारण बैदेही के प्राण- पखेरू उड़ चुके थे। बच्चों की जान बचाते बैदेही अपने सुहाग का जोड़ा हाथ में लिए सदा-सदा के लिए उसी मिट्टी में सो गई थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #12 – पोत माझा ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं।  आज साप्ताहिक स्तम्भ  – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक सामयिक एवं सार्थक कविता  “पोत माझा”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 12 ☆

? पोत माझा ?

 

फक्त दिसतो मी मवाल्यासारखा

पोत माझा हा फुलांच्यासारखा

 

गंध व्हावे अन् फिरावे वाटता

धुंद वारा हा दिवाण्यासारखा

 

सहज येथे गायिला मल्हार मी

नाचला मग मेघ वेड्यासारखा

 

सागराची गाज माझ्यावर अशी

आणि दिसला तू किनाऱ्यासारखा

 

पेटलेला कोळसाही वागतो

ऊब देते त्या मिठीच्यासारखा

 

मोरपंखी पैठणी तू नेसता

पदर वाटे हा पिसाऱ्यासारखा

 

जीवनाचा सपक वाटे सार हा

जीवनी तू या  मसाल्यासारखा

 

गोड कोठे बोलणे शिकलास हे

गायकीच्या तू घराण्यासारखा

 

तख्त ना हे ताज येथे राहिले

ना अशोका तू नवाबासारखा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 – मोर के आँसू ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  नौवीं  कड़ी में उनकी  एक अद्भुत कविता   “मोर के आँसू ”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 9 ☆

 

☆ मोर के आँसू ☆ 

 

जंगल में मोर नाचा …..

किसने देखा?

इसने देखा? उसने देखा?

 

पर अब पता चला कि-

किसी ने भी नहीं देखा।

 

काले-काले  मेघ देखकर,

मोरनी नाचती रहती है,

और

नाम मोर का लगता है।

 

मोरनी जब थक जाती है,

अपने पैर देखकर रोती है।

तब मोर को दया आती है,

और

वह भी आँसू बहा देता है।

 

सारा खेल यहीं हो जाता है,

फिर मोरनी आँसू पी लेती है,

एक जीवन की शुरुआत होती है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #12 – नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज   बरहवीं कड़ी में प्रस्तुत है “नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 12 ☆

 

☆ नैतिकता से स्थाई चरित्र निर्माण ☆

 

सदा से कोई भी गलत काम करने से समाज को कौन रोकता रहा है ? या तो राज सत्ता का डर या फिर मरने के बाद ऊपर वाले को मुंह दिखाने की धार्मिकता, या आत्म नियंत्रण अर्थात स्वयं अपना डर ! सही गलत की पहचान ! अर्थात नैतिकता.

वर्तमान में भले ही कानून बहुत बन गये हों किन्तु वर्दी वालों को खरीद सकने की हकीकत तथा विभिन्न श्रेणी की अदालतों की अति लम्बी प्रक्रियाओं के चलते कड़े से कड़े कानून नाकारा साबित हो रहे हैं. राजनैतिक या आर्थिक रूप से सुसंपन्न लोग कानून को जेब में रखते हैं. फिर बलात्कार जैसे अपराध जो स्त्री पुरुष के द्विपक्षीय संबंध हैं, उनके लिये गवाह जुटाना कठिन होता है और अपराधी बच निकलते हैं. इससे अन्य अपराधी वृत्ति के लोग प्रेरित भी होते हैं.

धर्म निरपेक्षता के नाम पर हमने विभिन्न धर्मों की जो अवमानना की है, उसका दुष्परिणाम भी समाज पर पड़ा है. अब लोग भगवान से नहीं डरते. धर्म को हमने व्यक्तिगत उत्थान के साधन की जगह सामूहिक शक्ति प्रदर्शन का साधन बनाकर छोड़ दिया है. धर्म वोट बैंक बनकर रह गया है. अतः आम लोगों में बुरे काम करने से रोकने का धार्मिक डर नहीं रहा. एक बड़ी आबादी जो तमाम अनैतिक प्रलोभनों के बाद भी अपने काम आत्म नियंत्रण से करती थी अब मर्यादाहीन हो चली है.

पाश्चात्य संस्कृति के खुलेपन की सीमाओं व उसके लाभ को समझे बिना नारी मुक्ति आंदोलनो की आड़ में स्त्रियां स्वयं ही स्वेच्छा से फिल्मो व इंटरनेट पर बंधन की सारी सीमायें लांघ रही हैं. पैसे कमाने की चाह में इसे व्यवसाय बनाकर नारी देह को वस्तु बना दिया गया है.

ऐसे विषम समय में नारी शोषण की जो घटनाएँ रिपोर्ट हो रही हैं, उसके लिये मीडिया मात्र धन्यवाद का पात्र है. अभी भी ऐसे ढ़ेरों प्रकरण दबा दिये जाते हैं.

आज समाज नारी सम्मान हेतु जागृत हुआ है. जरूरी है कि आम लोगों का स्थाई चरित्र निर्माण हो. इसके लिये समवेत प्रयास किये जावें. धार्मिक भावना का विकास किया जाए. चरित्र निर्माण में तो एक पीढ़ी के विकास का समय लगेगा तब तक आवश्यक है कि कानूनी प्रक्रिया में असाधारण सुधार किया जाये. त्वरित न्याय हो. तुलसीदास जी ने लिखा है “भय बिन होय न प्रीत”..ऐसी सजा जरूरी लगती है जिससे दुराचार की भावना पर सजा का डर बलवती हो.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? रंजना जी यांचे साहित्य #-11 – सावली ? – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  उनकी उनके भावप्रवण कविता   सावली।  यह कविता उनकी माँ  के प्रति  उनकी संवेदनाएं  व्यक्त करती है। निश्चित ही  यह कल्पनीय है  कि हम सब के जीवन में माँ  की छवि का क्या महत्व है और वह छवि सम्पूर्ण जीवन पर कैसे छाई रहती है। )

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 11 ? 

 

? सावली  ?

 

माय माऊली

माझी सावली।

सुख दुःखात

संगे धावली।

 

बालपणात

लहान झाली।

बोल बोबडे

बोलू लागली।

 

तारूण्यात ही

सखी साजणी।

प्रेम बेडीने

ठेवी बंधनी।

 

माया तोडुनी

धाडे सासरी।

छबी तिची ग

माझ्या अंतरी।

 

तोडली माया

जोडण्या नाती।

सासू सासरे

रूपं भोवती।

 

कधी पाठीशी

कधी सामोरी।

संकटी धीर

देतसे उरी।

 

साथ तुझी ग

पावला धीर।

भेटी साठी ग

मन अधीर ।

 

कालचक्राचे

रूपं भीषण।

लुप्त सावली

सोसेना ऊन।

 

तुटता छत्र

कैसी सावली।

तुझी छबी मी

लाख शोधली।

 

सुटला धीर

खचले पाय।

वाटे संगती

न्यावे तू माय।

 

©  रंजना मधुकर लसणे✍

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 12 – व्यंग्य – उसूलों की लड़ाई ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है  उनकी  व्यंग्य रचना “उसूलों की लड़ाई ”।   लड़ाई वैसे भी कोई अच्छी बात नहीं है। जुबानी लड़ाई में जुबान खराब हो जाती है, मार-पीट की लड़ाई में चोट आने का भय होता है और तरह तरह की लड़ाइयों में तरह तरह के नुकसान की संभावना होती है, जो वास्तव में अच्छी बात नहीं है। किन्तु, जब उसूलों की लड़ाई हो तो लोग अन्य लड़ाइयों की तरह तमाशा देख कर अपने अपने तरह से विचार विमर्श करते हैं, कुछ अफसोस जताते हैं तो कुछ चटखारे ले कर मजे लेते हैं पर चोट किसी को नहीं आती,  मात्र दो लोगों का अंदर ही अंदर खून जलता है और जीतता समय ही है। डॉ परिहार जी ने बड़े ही बेहतरीन तरीके से उसूलों की  सुखांत लड़ाई का वर्णन किया है। आप भी आनंद लें वैसे ऐसी लड़ाइयाँ आपके आसपास भी होती रहती है।  डॉ परिहार जी का लेखक हृदय तो पहुँच जाता है किन्तु, शायद आप कहीं चूक जाते हैं। हम आप तक ऐसा ही  उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 12 ☆

 

☆ व्यंग्य – उसूलों की लड़ाई ☆

आखिरकार बाबू गंगाराम सिमटते-सिकुड़ते, ज़िन्दगी भर पेट पर गाँठ लगाते, दफ्तर से शाल नारियल ग्रहण करके रिटायरमेंट को प्राप्त हो गये और ,जैसा कि ऐसे लोगों के साथ होता है, पेंशन की तरफ टकटकी लगाकर बैठ गये। गंगाराम अपने विभाग में सत्यवादी और सिद्धान्तवादी के रूप में जाने जाते थे, ऐसे कि लाख रुपया रख दो फिर भी भौंह में बल न पड़े।इसीलिए उनकी सिद्धान्तवादिता से नाराज़ लोग उन्हें पीठ पीछे सनकी कहते थे।

गंगा बाबू की पेंशन की फाइल पेंशन मामलों के प्रभारी और विशेषज्ञ झुन्नी बाबू के पास पहुँची। अब जैसे गंगा बाबू सिद्धान्तवादी वैसे ही झुन्नी बाबू कट्टर उसूल वाले। झुन्नी बाबू का उसूल ऐसा कि उन्होंने अपने तीस साल के सेवाकाल में कोई भी फाइल  बिना ‘दस्तूरी’ लिये नहीं निपटायी। सिर्फ शुरू के तीन महीने उन्होंने बिना दस्तूरी लिये काम किया था, लेकिन उस काल को वे ‘बिरथा’ मानते थे। उसके बाद कोई फाइल बिना दस्तूरी के नहीं निपटी।
ऐसा नहीं था कि झुन्नी बाबू पूरी तरह कठोर-हृदय ही थे। सामने वाला आदमी अगर निर्बल हो तो वे दस्तूरी में यथासंभव छूट भी दे देते थे। लेकिन उनका पक्का उसूल था कि हर काम के लिए उनके हाथ में दस्तूरी आना ही चाहिए, भले ही फिर वे एक रुपया रखकर बाकी वापिस कर दें। उनका कहना था कि वे जनता की सेवा के लिए हरदम प्रस्तुत रहते हैं, बशर्ते कि उनके उसूल पर कोई चोट न पहुँचे। कहते हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस के हाथ में पैसा रखने पर उनके हाथ में जलन होने लगती थी। झुन्नी बाबू का हाल उल्टा था।पैसे का स्पर्श उनके शरीर और मन को भारी ठंडक पहुँचाता था।

गंगाराम बाबू की पेंशन फाइल घाट घाट होती हुई झुन्नी बाबू के पास पहुँच गयी थी। झुन्नी बाबू ने तत्काल उसका अवलोकन कर एक पत्र आवेदक को भेज दिया जिसमें लिखा गया कि छः बिन्दुओं पर जानकारी अप्राप्त थी, वह प्राप्त होने पर आगे कार्यवाही संभव हो सकेगी।

पेंशन-पिपासु बाबू गंगाराम ने अविलम्ब सभी बिन्दुओं का स्पष्टीकरण प्रस्तुत कर दिया और फिर पेंशन की आस में बैठ गये। उन्हें पेंशन की जगह पन्द्रह दिन बाद झुन्नी बाबू के करकमलों से लिखित पत्र मिला जिसमें उन्होंने बाबू गंगाराम के द्वारा प्रेषित जानकारी में से चार बिन्दुओं में कुछ महत्वपूर्ण खामी बतायी थी और उन्हें शीघ्र दुरुस्त करने की हिदायत दी थी।

घबराकर गंगाराम बाबू ने फिर चार बिन्दुओं पर जानकारी प्रेषित की और फिर पेंशन की उम्मीद में दिन गिनते बैठ गये। पेंशन की जगह उन्हें फिर झुन्नी बाबू का प्रेमपत्र मिला जिसमें उन्होंने दो नये बिन्दुओं पर जानकारी मांगी थी।
फिर यही सिलसिला चल पड़ा। बाबू गंगाराम जानकारी भेजते और झुन्नी बाबू किसी नयी जानकारी की मांग पेश कर देते।

समझदार लोगों ने बाबू गंगाराम को समझाया। कहा कि झुन्नी बाबू का चरित्र दिन की तरह साफ और जगविख्यात और उनकी नीति अटल है। इसलिए बाबू गंगाराम लिखित बिन्दुओं पर ध्यान देने के बजाय अलिखित बिन्दुओं को समझकर उनकी तत्काल आपूर्ति करें और पेंशन प्राप्त कर निश्चिन्त हों।

लेकिन बाबू गंगाराम भी ठहरे उसूल वाले आदमी।उन्होंने घोषणा कर दी कि चाहे पेंशन आजीवन न मिले, वे रिश्वत कदापि नहीं देंगे। बस,दो उसूलवालों के बीच लड़ाई ठन गयी।

अन्ततः बाबू गंगाराम झुन्नी बाबू के दफ्तर के सामने धरने पर बैठ गये। अफरातफरी मच गयी।अखबारबाज़ी शुरू हो गयी।टेलीफोन बजने लगे। चिन्तित अधिकारी झुन्नी बाबू के चक्कर लगाने लगे। लेकिन झुन्नी बाबू सन्तों की मुद्रा में बैठे थे। उनका कहना था कि मामला वित्तीय है, जब तक फाइल का पेट न भरे वे कुछ नहीं कर सकते।

बड़े साहब ने झुन्नी बाबू के सहयोगी मिट्ठू बाबू से गंगाराम की फाइल निपटा देने को कहा। मिट्ठू बाबू हाथ उठाकर बोले, ‘हम तो पाँच मिनट में निपटा दें सर, लेकिन मामला उसूल का है। किसी का उसूल तुड़वाकर हम पाप नहीं लेना चाहते। उसूल जो होता है वह जिन्दगी भर की तपस्या से पैदा होता है।’

लोग कर्मचारी यूनियन के पास दौड़े तो उन्होंने भी टका सा जवाब दे दिया—-‘मामला उसूल का है इसलिए हम इसमें हस्तक्षेप करने में असमर्थ हैं।’

धरने पर बैठे बाबू गंगाराम की हालत बिगड़ने लगी। एक तो रिटायर्ड आदमी, दूसरे पेंशन की चिन्ता,यानी दूबरे और दो असाढ़। लेकिन झुन्नी बाबू चट्टान की तरह दृढ़ थे। उनका कहना था,’एक बार दस्तूरी हमारे हाथ में आ जाए, फिर हम पूरी वापिस कर देंगे। उसूल का सवाल है। उनकी जिद है तो हमारी भी जिद है। उसूल पर चलने वाले को किसका डर? देखते हैं किसका उसूल जीतता है।’

जब झुन्नी बाबू के उसूलों से टकराकर पूरा तंत्र ध्वस्त हो गया और बाबू गंगाराम की हालत दयनीय हो गयी तब कुछ शुभचिन्तक फिर सक्रिय हुए।बाबू गंगाराम के सुपुत्र से गुपचुप वार्ता की गयी ताकि साँप मर जाए और लाठी बची रहे। फिर एक दिन बाबू गंगाराम की नज़र बचाकर सुपुत्र को झुन्नी बाबू के सामने पेश किया गया जहाँ झुन्नी बाबू की हथेली में दस्तूरी रखी गयी और फिर झुन्नी बाबू ने पूरी की पूरी रकम सुपुत्र की जेब में खोंसकर अपनी उदारता और महानता का परिचय दिया। वह दृश्य देखकर उपस्थित लोगों का गला भर आया। दफ्तर में झुन्नी बाबू की प्रतिष्ठा दुगुनी हो गयी।

फिर दो दिन के अन्दर बाबू गंगाराम की फाइल का निपटारा हो गया और उन्हें पेंशन प्राप्त होने का रास्ता चौपट खुल गया। बाबू गंगाराम पूरी उम्र इस मुग़ालते में रहे कि उनके उसूल के सामने झुन्नी बाबू का उसूल मात खा गया,जबकि हकीकत इसके उलट थी, जैसा कि आपने खुद देखा। जो भी हो, हम तो यही मनाते हैं कि जैसे झुन्नी बाबू गंगाराम जी पर अन्ततः द्रवित हुए, उसी तरह हर दफ्तर के झुन्नी बाबू जनता-जनार्दन पर कृपालु हों।

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #9 – क्या चल रहा है? ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 9 ☆

 

☆ क्या चल रहा है? ☆

 

इन दिनों एक विज्ञापन जोरों पर है-‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिलता है-‘फलां-फलां बॉडी स्प्रे चल रहा है।’ इसी तर्ज़ पर एक मित्र से पूछा,‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिला,‘यही सोच रहा हूँ कि इतना जीवन बीत गया, क्या किया और क्या कर रहा हूँ? जीवन में क्या चल रहा है?’ उत्तर चिंतन को दिशा दे गया।

वस्तुतः यह प्रश्न हरेक ने अपने आपसे अवश्य करना चाहिए-‘क्या चल रहा है?’ दिन में जितनी बार आईना देखते हो, उतनी बार पूछो खुद से-‘क्या चल रहा है?’ बकौल डॉ. हरिवंशराय बच्चन-‘जीवन सब बीत गया, जीने की तैयारी में।’ चौबीस घंटे भौतिकता के संचय में डूबा मनुष्य जीवन में भौतिकता का भी उपभोग नहीं कर पाता। संचित धन को निहारने, हसरतें पालने और सब कुछ धरा पर धरा छोड़कर चले जानेवाले से बड़ा बावरा भिखारी और कौन होगा? पीछे दुनिया हँसती है-‘संपदा तो थी पर ज़िंदगी भर ‘मंगता’ ही रहा।’…बड़ा प्रश्न है कि क्या साँसें भी विधाता द्वारा प्रदत्त संपदा नहीं हैं? प्राणवायु अवशोषित करना-कार्बन डाय ऑक्साइड उत्सर्जित करना, इतना भर नहीं होता साँस लेना। मरीज़ ‘कोमा’ में हो तो रिश्तेदार कहते हैं-‘ कुछ बचा नहीं है, बस किसी तरह साँसें भर रहा है।’ हम में से अधिकांश लोग एक मानसिक ‘कोमा’ में हैं। साँसें भर रहे हैं, समय स्वतः जीवन में कालावधि जोड़ रहा है। काल के आने से पूर्व मिलनेवाली अवधि-कालावधि। हम अपनी सुविधा से ‘काल’ का लोप कर ‘अवधि’ के मोह में पड़े बस साँसें भर रहे हैं। फिर एक दिन एकाएक प्रकट होगा काल और पूछेगा-‘क्या चल रहा है?’ जीवन भर सटीक उत्तर देनेवाला भी काल के आगे हकलाने लगता है, बौरा जाता है, सूझता कुछ भी नहीं।

एक साधु से शिष्य ने पूछा कि क्या कोई ऐसी व्यवस्था की जा सकती है जिसमें मनुष्य की मृत्यु का समय उसे पहले से पता चला जाए। ऐसा हो सके तो हर मनुष्य अपने जीवन में किए जा सकनेवाले कार्यों की सूची बनाकर निश्चित समय में उन्हें पूरा कर सकेगा, मृत्यु के समय किसी तरह का पश्चाताप नहीं रहेगा। साधु ने कहा, ‘जगत का तो मुझे पता नहीं पर तेरी मृत्यु आठ दिन बाद हो जाएगी। सारे काम उससे पहले कर लेना।’ कहकर साधु आठ दिन की यात्रा पर चले गए।  इधर गुरु का वाक्य सुनना भर था कि शिष्य का चेहरा पीला पड़ गया। वह थरथर काँपने लगा। खड़े-खड़े उसे चक्कर आने लगा। कुछ ही मिनटों में उसने खटिया पकड़ ली। खाना-पीना छूट गया, हर क्षण उसे काल सिर पर खड़ा दिखने लगा। आठ दिन में तो वह सूख कर काँटा हो चला। यात्रा से लौटकर गुरु जी ने पूछा, ‘क्यों पुत्र, सब काम पूरे कर लिए न?’ शिष्य सुबकने लगा। आँखों में बहने के लिए जल भी नहीं बचा था। कहा, ‘गुरु जी, कैसे काम और कैसी पूर्ति? मृत्यु के भय से मैं तो अपनी सुध-बुध भी भूल गया हूँ। कुछ ही क्षण बचे हैं, काल बस अब प्राण हरण कर ही लेगा।’ गुरु जी मुस्कराए और बोले, ‘ यदि मृत्यु की पूर्व जानकारी देने की व्यवस्था हो जाए तो जगत की वही स्थिति होगी जो तुम्हारी हुई है।…और हाँ सुनो, तुमसे असत्य बोलने का प्रायश्चित करने मैं आठ दिन की साधना पर गया था। तुम्हें आज कुछ नहीं होगा। तुम्हारी और मेरी भी मृत्यु कब होगी, मैं नहीं जानता।’

काल आया भी नहीं था, उसकी काल्पनिक छवि से यह हाल हुआ। वह जब साक्षात सम्मुख होगा तब क्या स्थिति होगी? जीवन ऐसा जीओ कि काल के आगे भी स्मित रूप से जा सको, उसके आगमन का भी आनंद मना सको। जैसा पहले कहा गया-साँस लेना भर नहीं होता जीवन। शब्द है-‘श्वासोच्छवास।’ प्रकृति में कोई भी प्रक्रिया एकांगी नहीं है। लेने के साथ देना भी जुड़ा है। जीवन भर लेने में, बटोरने में लगे रहे, भिखारी बने रहे। संचय होते हुए भी देने का मन बना ही नहीं, दाता कभी बन ही नहीं सके।

जीवन सरकती बालू वाले टाइमर की तरह है। रेत गति से सरक रही है, अवधि रीत रही है। काल निकट और निकट, सन्निकट है। कोई पूछे, न पूछे, बार-बार पूछो अपने आप से- ‘क्या चल रहा है?’ अपने उत्तर आप जानो पर हरेक पर अनिवार्य रूप से लागू होनेवाला मास्टर उत्तर स्मरण रहे-काल चल रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #16 – माणूस असला की गरज लागते… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

 

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की  सोलहवीं  कड़ी  माणूस असला की गरज लागते…।  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं।  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं। यह सत्य है कि  जीवन  का कोई भी कार्य  किसी  के बिना रुकता नहीं है। समय पर हम उस व्यक्ति का स्मरण अवश्य करते हैं, जो अब नहीं है, किन्तु, कार्य यथावत चलता रहता है।समय हमें समय समय पर शिक्षा देता रहता है बस आवश्यकता है हमारी छाया हमारे साथ चलती रहे और यही समय की आवश्यकता भी है। कभी कल्पना कर देखिये।  आरुशी जी के  संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।) 

 

? साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #16 ?

 

☆ माणूस असला की गरज लागते… ☆

 

माणूस असला की गरज लागते…

आणि नसला तर????

गरज संपत नाही, पण कदाचित त्या गरजेची प्रायोरिटी बदलते… आणि आयुष्याशाला वेगळी कलाटणी मिळते… ती व्यक्ती नाही, हे स्वीकारण्याची गरज निर्माण होते आणि त्या पातळीवर काम सुरू होतं…

ह्या प्रवासात, प्रवाहात वाहताना कुठे थांबायचं, कुठे वळण घ्यायचं हे ठरवता आलं पाहिजे… त्याचबरोबर काही मागे सोडून देता आलं पाहिजे, हो ना !

मान्य आहे की प्रत्येक वेळी हे शक्य होणार नाही… पण आयुष्याशी दिशा ठरलेली असली की काम थोडं सोपं होतं…. गरजेचं भान असलं पाहिजे, ती पूर्ण करताना लय ताल मोडून चालत नाही… सगळ्यांना सोबत घेऊनच पुढे जावं लागेल…

खूप गोष्टी शिकवून जातं हे नसणं आणि असणं… आपण फक्त त्या सावळ्याला सांभाळून घे बाबा, असं सांगत राहायचं… हो ना!

 

© आरुशी दाते, पुणे 

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