श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  नौवीं कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 9 ☆

 

☆ क्या चल रहा है? ☆

 

इन दिनों एक विज्ञापन जोरों पर है-‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिलता है-‘फलां-फलां बॉडी स्प्रे चल रहा है।’ इसी तर्ज़ पर एक मित्र से पूछा,‘क्या चल रहा है?’ उत्तर मिला,‘यही सोच रहा हूँ कि इतना जीवन बीत गया, क्या किया और क्या कर रहा हूँ? जीवन में क्या चल रहा है?’ उत्तर चिंतन को दिशा दे गया।

वस्तुतः यह प्रश्न हरेक ने अपने आपसे अवश्य करना चाहिए-‘क्या चल रहा है?’ दिन में जितनी बार आईना देखते हो, उतनी बार पूछो खुद से-‘क्या चल रहा है?’ बकौल डॉ. हरिवंशराय बच्चन-‘जीवन सब बीत गया, जीने की तैयारी में।’ चौबीस घंटे भौतिकता के संचय में डूबा मनुष्य जीवन में भौतिकता का भी उपभोग नहीं कर पाता। संचित धन को निहारने, हसरतें पालने और सब कुछ धरा पर धरा छोड़कर चले जानेवाले से बड़ा बावरा भिखारी और कौन होगा? पीछे दुनिया हँसती है-‘संपदा तो थी पर ज़िंदगी भर ‘मंगता’ ही रहा।’…बड़ा प्रश्न है कि क्या साँसें भी विधाता द्वारा प्रदत्त संपदा नहीं हैं? प्राणवायु अवशोषित करना-कार्बन डाय ऑक्साइड उत्सर्जित करना, इतना भर नहीं होता साँस लेना। मरीज़ ‘कोमा’ में हो तो रिश्तेदार कहते हैं-‘ कुछ बचा नहीं है, बस किसी तरह साँसें भर रहा है।’ हम में से अधिकांश लोग एक मानसिक ‘कोमा’ में हैं। साँसें भर रहे हैं, समय स्वतः जीवन में कालावधि जोड़ रहा है। काल के आने से पूर्व मिलनेवाली अवधि-कालावधि। हम अपनी सुविधा से ‘काल’ का लोप कर ‘अवधि’ के मोह में पड़े बस साँसें भर रहे हैं। फिर एक दिन एकाएक प्रकट होगा काल और पूछेगा-‘क्या चल रहा है?’ जीवन भर सटीक उत्तर देनेवाला भी काल के आगे हकलाने लगता है, बौरा जाता है, सूझता कुछ भी नहीं।

एक साधु से शिष्य ने पूछा कि क्या कोई ऐसी व्यवस्था की जा सकती है जिसमें मनुष्य की मृत्यु का समय उसे पहले से पता चला जाए। ऐसा हो सके तो हर मनुष्य अपने जीवन में किए जा सकनेवाले कार्यों की सूची बनाकर निश्चित समय में उन्हें पूरा कर सकेगा, मृत्यु के समय किसी तरह का पश्चाताप नहीं रहेगा। साधु ने कहा, ‘जगत का तो मुझे पता नहीं पर तेरी मृत्यु आठ दिन बाद हो जाएगी। सारे काम उससे पहले कर लेना।’ कहकर साधु आठ दिन की यात्रा पर चले गए।  इधर गुरु का वाक्य सुनना भर था कि शिष्य का चेहरा पीला पड़ गया। वह थरथर काँपने लगा। खड़े-खड़े उसे चक्कर आने लगा। कुछ ही मिनटों में उसने खटिया पकड़ ली। खाना-पीना छूट गया, हर क्षण उसे काल सिर पर खड़ा दिखने लगा। आठ दिन में तो वह सूख कर काँटा हो चला। यात्रा से लौटकर गुरु जी ने पूछा, ‘क्यों पुत्र, सब काम पूरे कर लिए न?’ शिष्य सुबकने लगा। आँखों में बहने के लिए जल भी नहीं बचा था। कहा, ‘गुरु जी, कैसे काम और कैसी पूर्ति? मृत्यु के भय से मैं तो अपनी सुध-बुध भी भूल गया हूँ। कुछ ही क्षण बचे हैं, काल बस अब प्राण हरण कर ही लेगा।’ गुरु जी मुस्कराए और बोले, ‘ यदि मृत्यु की पूर्व जानकारी देने की व्यवस्था हो जाए तो जगत की वही स्थिति होगी जो तुम्हारी हुई है।…और हाँ सुनो, तुमसे असत्य बोलने का प्रायश्चित करने मैं आठ दिन की साधना पर गया था। तुम्हें आज कुछ नहीं होगा। तुम्हारी और मेरी भी मृत्यु कब होगी, मैं नहीं जानता।’

काल आया भी नहीं था, उसकी काल्पनिक छवि से यह हाल हुआ। वह जब साक्षात सम्मुख होगा तब क्या स्थिति होगी? जीवन ऐसा जीओ कि काल के आगे भी स्मित रूप से जा सको, उसके आगमन का भी आनंद मना सको। जैसा पहले कहा गया-साँस लेना भर नहीं होता जीवन। शब्द है-‘श्वासोच्छवास।’ प्रकृति में कोई भी प्रक्रिया एकांगी नहीं है। लेने के साथ देना भी जुड़ा है। जीवन भर लेने में, बटोरने में लगे रहे, भिखारी बने रहे। संचय होते हुए भी देने का मन बना ही नहीं, दाता कभी बन ही नहीं सके।

जीवन सरकती बालू वाले टाइमर की तरह है। रेत गति से सरक रही है, अवधि रीत रही है। काल निकट और निकट, सन्निकट है। कोई पूछे, न पूछे, बार-बार पूछो अपने आप से- ‘क्या चल रहा है?’ अपने उत्तर आप जानो पर हरेक पर अनिवार्य रूप से लागू होनेवाला मास्टर उत्तर स्मरण रहे-काल चल रहा है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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वीनु जमुआर

जीवन सरकती बालू वाले टाइमर की तरह है /..रेत गति से सरक रही है/…अवधि रीत रही है/..काल चल रहा है…
ज्ञान के दीपस्तंभ !! शाश्वत सत्य !!

Sanjay Bhardwaj

धन्यवाद वीनु जी।

Vijaya Tecksingani

संजय जी के पास ज्ञान और साहित्य का संचय हैं जिसे वो साहित्य के खोजीयों में /विद्यार्थीयों में बाँटते हैं।सभी अपना जीवन ,जीवन की तैयारीयॉं कोमावस्था में करने मे लगे होते हैं।
शायद जीने के तरीक़ों का मास्टर जवाब का मर्म वे जान गये है।
हम तो ख़ुशनसीब है ,जो हमें उनका मार्गदर्शन मिलता है।
विजया टेकसिंगानी

Sanjay Bhardwaj

धन्यवाद विजया जी।

Sudha Bhardwaj

सब जानते हुए भी अनजान बने रहना चाहते हैं…..पर काल तो चल रहा है हर पल अनवरत…

Sanjay Bhardwaj

धन्यवाद सुधा जी।

अलका अग्रवाल

जिस तरह मुट्ठी मे बंधी रेत को सरकने से रोका नहीं जा सकता, उसी प्रकार जीवन भी दिन प्रतिदिन रीतता रहता है। आवश्यकता है कि उसके सदुपयोग की।
परमसत्य से साक्षात्कार

Sanjay Bhardwaj

धन्यवाद अलका जी।

लतिका

सृष्टि के नियम समझने के लिए अद्भुत मार्गदर्शन।

Sanjay Bhardwaj

धन्यवाद लतिका जी।