English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 48 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 48 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 48) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 48☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

हुजूर, दोस्ती में कहाँ

कोई उसूल होता  है

जो  जैसा  है  वैसे

ही  कुबूल  होता  है..!

 

When does friendship

 follow any principle

Friends  are  always

accepted as they are!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

कब धूप चली, कब शाम ढली

किस  को  ख़बर  है…

इक उम्र से मैं अपने ही

साये  में  खड़ा  हूँ…

 

Who knows if it was sunshine

or when would Sun set in,

I’ve just been standing in my

own  shadow  since  ages..!

  ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

खाक उड़ती है रात भर मुझ में

कौन फिरता है दर-ब-दर मुझ में,

मुझको खुद में जगह नहीं मिलती,

तू  है मौजूद इस  कदर  मुझ में…!

 

Dust blows into me 

through out the night

Who is that always

wanders around in me…

 

I do not find a place

for myself in me…

You are filled in me

to  such  an  extent…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

फिर मेरे हिस्से में आएगा

समझौता  कोई…

आज फिर कोई कह रहा था

समझदार  हो  तुम…

 

Yet again a compromise

will be coming in  my share…

Today again someone was

saying you are intelligent…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 49 ☆ सरस्वती वंदना अलंकार युक्त ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  एक रचना   ‘सरस्वती वंदना अलंकार युक्त। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 49 ☆ 

☆ सरस्वती वंदना अलंकार युक्त ☆

*

वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ

– वृत्यानुप्रास  (आवृत्ति व्)

कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ

-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)

*

नित सूरज  दैदीप्य हो, करता तव वंदन

– श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)

ऊषा गाती-लुभाती, करती अभिनंदन

– अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती) 

*

शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार

– वैणसगाई (श, क) 

हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार

– लाटानुप्रास (हंस)

*

बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार

– पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)

जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार

– यमक (जल = पानी, आँसू)

*

मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव

– श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)

रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव? 

– वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा)  

*

कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम 

– पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)

मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम

– उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), – अनन्वय (शारद)

*

सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो ‘सलिल’ चकोर 

– रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)

शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर 

– व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 81 ☆ लोकगीत – मरल बेचारा गांव …. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावपूर्ण रचना  “मरल बेचारा गांव….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 81 ☆ लोकगीत – लोकगीत – मरल बेचारा गांव…. ☆

घरे के उजरल ओर बड़ेर,

सगरो उजरल गाॅव।

दुअरा के कुलि पेड़ कटि गयल,

ना बचल दुआरें छांव।

खतम हो गइल  पोखर ताल ,

सूखि गइल कुअंना गांवे कै‌।

खतम भयल पनघट राधा के,

बांसुरी मौन भईल मोहन के।।१।।

 

कउआ गांवै छोडि परइलै ,

गोरिया के सगुन बिचारी के।

सुन्न हो गयल पितर पक्ख,

आवा काग पुकारी के।

झुरा गइल तुलसी कै बिरवा,

अंगना दुअरा के बुहारी के।

लोक परंपरा लुप्त भईल ,

एकर दुख धनिया बनवारी के।।२।।

 

बाग बगइचा कुलि कटि गइलै,

आल्हा कजरी बिला गयल।

चिरई चहकब खतम भयल,

झुरमुट बंसवारी कै उजरि गयल।

नाहीं बा घिसुआ कै मड़ई,

नाहीं रहल अलाव।

अब नांहीं गांवन में गलियां,

नाहीं रहल ऊ गांव।।३।।

 

अब नांही बा हुक्का-पानी,

ना गांवन में लोग।

जब से छोरियां गइल सहर में,

ली आइल बा प्रेम का रोग।

जब से गगरी बनल सुराही,

शहर चलल गांवों की ओर।

लोक धुनें सब खतम भइल,

खाली डी जे कै रहि गयल शोर।

अब गावें से खतम भयल बा,

गुड़ शर्बत औ पानी।

अब ठेला पर बिकात हौ,

थम्स अप कोका बोतल में पानी।।४।।

 

जब-जब सूरू भइल गांवे में,

आधुनिक दिखै के अंधी रेस।

गांव में गोधना मजनूं बनि के,

धइले बा जोकर कै भेष ।

जवने दिन शहर गांव में आइल,

उजरि गइल ममता कै छांव।

सब कुछ खतम भयल गांवें से,

मरल बेचारा प्यारा गांव।।५।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 65 – समन्वय ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 65 – समन्वय ☆

समन्वय  सुख दुःखाचा

मार्ग सुलभ जगण्याचा।

मन बुद्धी या दोहोंचा

मेळ घडावा सर्वांचा।

 

यश कीर्तीच्या शिखरी

उत्तुंग मनाची भरारी।

परी असावे रे स्थिर

ध्येय असावे करारी |

 

घेता सुखाचा अस्वाद

राहो दुःखीतांचे  भान।

क्षण दुःखी वा सुखद

मिळो समबुद्धी चे दान

 

हक्क कर्तव्य कारणे

राही  सदैव तत्पर ।

लेवू हक्काची भूषणे

करू कर्तव्ये सत्वर ।

 

जीवन उत्सवा आवडी

प्रेम रागाची ही जोडी।

लाभो द्वेषालाही थोडी

प्रेम वात्सल्याची गोडी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हिमालय ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

सुश्री शिल्पा मैंदर्गी 

(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)

☆ कवितेचा उत्सव ☆ हिमालय ☆ सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆

ओढ लागली हिम शिखरांची .

देव भूमीच्या ऐश्वर्याची

गिरी शिखरांच्या सौंदर्याची

हिम राशींच्या वर्षावाची ॥ धृ ॥

 

ऋषीमुनींच्या पदस्पर्शाची

गंगेच्या त्या दिव्य जलाची.

पार्वतीच्या तपोभूमी ची

अन् शिवशंभूच्या भेटीची

हिमालयाच्या भव्यतेची, दिव्यतेची, उतुंगतेची ॥ १ ॥

 

हिम शिखरांची उंची गाठता

मी पण माझे गळून जावे

देवभूमीच्या दिव्यदर्शनी

स्वत्व माझे सरून जावे

गिरीशिखरांच्या सौंदर्याने

गर्वाचेही गर्व हरण व्हावे.

ऋषि मुनींच्या पदस्पर्शाने

जीवन माझे पावन व्हावे ॥ 2 ॥

 

शुभ्र हिमकण पडता गाली

सर्वस्वाचे भान हरावे

हिमराशींच्या वर्षावाने

निसर्गाशी समरस व्हावे.

पाहुनी शुभ्र हिमकळ्या

हिम देवीचे मन पुलकीत व्हावे.

गंगेच्या त्या दिव्य जलाने

विचारधन अभिमंथित व्हावे ॥ 3 ॥

 

पार्वतीसम तप आचरिता

शिवशक्ति चे मिलन व्हावे

शिवशंभूच्या भेटीने जिवाशिवाचे ऐक्य घडावे

अनुभूती येण्या रिमालयाच्या

भव्यतेची

दिव्यतेची

उतुंगतेची

मन माझे शिवशंकर व्हावे

शिवशंकर व्हावे.

 

© सुश्री शिल्पा मैंदर्गी

दूरभाष ०२३३ २२२५२७५

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग – २४) – ‘एकमेवाद्वितीय आशाबाई’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग – २४) – ‘एकमेवाद्वितीय आशाबाई’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

आपलं बालपण आणि मग पर्यायानं जगणं समृद्ध करण्यात अनंत गोष्टींचा हातभार असतो. माझ्या पिढीच्या बालपणाचा विचार केला तर ‘आकाशवाणी केंद्र’ आणि त्यामुळं वाट्याला आलेले दर्जेदार सूर, शब्द, विचार ह्या गोष्टींचा वाटा फारच मोलाचा आहे. म्हटलं तर ह्या सगळ्या गोष्टींत खूप वैविध्य होतं… फक्त सुराचा विचार केला तरी किती विविध सूर ह्या रेडिओ नावाच्या अद्भुत यंत्रानं आयुष्यात आणले. किशोरीताई, भीमसेनजी, कुमारजी, जसराजजी, शोभाजी, आशाबाई, लताबाई, सुधीर फडके, सुमनताई, वाडकरजी, अनुराधाजी हा प्रत्येकच आणि असे अनेक सूर म्हटलं तर किती वेगळे पण तितकेच देखणे! गुलाब, मोगरा, शेवंती, अबोली, जाई-जुई अशा प्रत्येकच फुलाचं सौंदर्य वेगळं… त्यांत तुलना कशी आणि कोणत्या निकषावर करणार!? माझ्याही मनात ह्या प्रत्येक सुरानं सौंदर्याची व्याख्या जास्त गडद आणि विस्तृत करत नेली. त्यांचे ऋण हे शब्दातीत आहेत.

मागच्या आठवड्यात आशाबाईंना ‘महाराष्ट्र भूषण’ सन्मान घोषित झाला. खरंतर, मुळातच दैवी अंशानं सन्मानित झालेल्या व्यक्तींना मिळालेला कोणताही सन्मान, पुरस्कार हा त्या पुरस्काराचाच दर्जा वाढवणारा असतो. त्यामुळं त्याविषयी लिहिण्याचं काही प्रयोजनच नाही. मात्र ह्या बातमीच्या निमित्तानं पुन्हा आपसूक माझ्या मनोविश्वातला ‘आशा भोसले’ हा अमाप देखणा कोपरा धुंडाळला गेला. आशाबाईंच्या गळ्यातल्या बहुपैलुत्वाविषयी मी नव्यानं काही लिहावं इतका माझा वकुब नाही. म्हणून माझ्या त्या सुराशी असलेल्या नात्याला निरखावं हा सोपा मार्ग मी निवडला. आशाबाईंचा सूर हा खूप आपुलकीनं आपल्याला हृदयाशी धरतो असं मला वाटतं. एखाद्या शब्दलेण्याच्या अर्थाकाराशी एकरूपत्व साधत त्या भावविश्वात एका असोशीनं स्वच्छंदपणे किंबहुना स्वैरपणे स्वत:ला झोकून देण्याचा आशाबाईंच्या सुराचा जो स्वभावधर्म आहे त्याला अक्षरश: तोड नाही! अशा त्या झोकून देण्यातलं उन्मुक्तपणच मग ऐकणाऱ्याला आवेगानं येऊन भिडतं आणि तिथेच आशाबाई ह्या ‘एकमेवाद्वितीय’ ठरतात.

तैयार, संस्कारी गळा हे तर गाणाऱ्याचं माध्यम! मात्र आपल्या सुरानं ऐकणाऱ्याच्या भावविश्वात घरटं बांधणं हे अलौकिकत्वाचं देणं आणि ते फेडताना ज्या काळजातून तो सूर उमटतो त्या काळजाचंही तावून-सुलाखून निघणं ओघानं आलंच! म्हणूनच तर ‘भारतीय नागरिकाचा घास रोज अडतो ओठी, सैनिक हो तुमच्यासाठी’ हे गाताना हुंदके देत ढसाढसा रडणाऱ्या आशाबाई आणि त्यामुळं त्यादिवशी कितीतरीवेळा स्थगित झालेलं रेकॉर्डिंग, ही कथा ऐकायला मिळते. अशी संवेदनशीलता राखल्याशिवाय तो सूर ऐकणाऱ्यांची मनं आरपार छेदून जाणं कसं शक्य होईल!? एखाद्या सुरातल्या रसरशीत जाणिवाच तर ऐकणाऱ्याच्या मनात उतरतात आणि जाणिवांची ती अपार तरलता आशाबाईंच्या सुरांत लख्ख दिसते, म्हणून त्या आपल्या काळजाशी इतक्या सहजी संधान बांधू शकतात.

कोणताही गीतप्रकार असो… प्रत्येकच गीत `हे आशाबाईच गाऊ शकतात’ असं वाटायला लावतं, ह्याचं कारण म्हणजे केवळ त्यांना लाभलेला दैवी सूर नव्हे तर त्यांचा समर्पणभाव! पाणी जसं स्वत:चं वेगळं अस्तित्व विसरून आपल्याला येऊन मिळणाऱ्या रंगात रंगून जातं तसं आशाबाई त्या-त्या रचनेच्या शब्द-सुरांशी एकाकार होऊन जातात आणि मग तिथं काहीच ‘टिपिकल’ न उरता खास त्या-त्या रचनेचा असावा तोच रंग आशाबाईंच्या सुरांतून ओतप्रोत ओसंडत राहातो. ह्या सुराच्या किती आणि कायकाय आठवणी सांगाव्या… आणि सांगायला गेलंच तरी त्या कुठून सुरू कराव्या आणि कुठं व कसं थांबावं तरी!…

‘गोरी गोरी पान फुलासारखी छान’, ‘चंदाराणी का ग दिसतेस थकल्यावाणी’, ‘झुकुझुकु झुकुझुकु आगीनगाडी’, ‘नाच रे मोरा नाच’, ‘शेपटीवाल्या प्राण्यांची भरली होती सभा’ अशी गीतं ऐकताना अगदी लहान, गोंडस, गोबऱ्या गालांचं मूल ज्यांच्या सुरांतून हसताना स्पष्ट जाणवतं तोच सूर ‘कुठं कुठं जायाचं हनिमुनला’ ह्या शब्दांना न्याय देताना तसूभरही मागं राहात नाही. ‘अजि मी ब्रम्ह पाहिले’, ‘ब्रम्हा विष्णु आणि महेश्वर’ ह्या शब्दांतलं ब्रम्ह ज्यांच्या सुरांतून प्रकट होतं, ‘हरिनाम मुखी रंगते, एकतारी करी वाजते’ ह्या शब्दांतला मीरेचा प्रेमभाव ज्या सुरांतून झरलेला ऐकताना डोळ्यांच्या कडा ओलावतात, ‘जन्मभरीच्या श्वासांइतुके मोजियले हरिनाम, बाई मी विकत घेतला श्याम’ ह्या भाबड्या शब्दांतला अतूट भक्तिभाव जे सूर स्पष्ट दाखवतात तेच सूर ‘जा जा जा रे नको बोलू जा ना’, ‘हवास मज तू, हवास तू’, ‘शारद सुंदर चंदेरी राती’ ‘चढाओढीनं चढवित होते, बाई मी पतंग उडवित होते’, ‘एक झोका चुके काळजाचा ठोका’, ‘येऊ कशी प्रिया’, ‘जांभुळपिकल्या झाडाखाली’, ‘बाई माझी करंगळी मोडली’, ‘रुपेरी वाळूत माडांच्या बनात ये ना’ असे कित्येक अनोखे भावही अगदी नेमकेपणी टिपून ते आपल्या मनात उतरवतात. ह्यातल्या कुठल्याच रंगात रंगून जाताना तो सूर जराशीही गल्लत करत नाही.

‘तरुण आहे रात्र अजुनी’ मधल्या ऐन तारुण्यात वैधव्य भाळी आलेल्या सैनिकाच्या पत्नीचा तो मूक आकांत, ‘चांदण्यात फिरताना माझा धरलास हात’ ऐकताना श्वासांत जाणवू लागलेली थरथर, ‘का रे दुरावा का रे अबोला’ मधली ती काळजाला हात घालणारी मनधरणी,  ‘देव जरी मज कधी भेटला’ मधे उतरलेलं मूर्तिमंत आईचं काळीज, ‘नभ उतरू आलं’ मधलं त्या सुराचं झिम्माडपण, ‘गेले द्यायचे राहून’ मधली जखम भळभळत ठेवणारी खंत, ‘दिसं जातील दिसं येतील’ मधल्या संयमी सुरांतून डोकावणारा आशावाद, ‘केव्हांतरी पहाटे’ मधल्या सुरांतला गूढ चांदणभास, ‘मल्मली तारुण्य माझे,  तू पहाटे पांघरावे’ मधली ती प्रणयोत्सुकता, ‘जिवलगा राहिले रे दूर घर माझे’ म्हणत त्या परमोच्च शक्तीला घातलेली विरक्तीभरली साद, ‘पाण्यातले पाहाता प्रतिबिंब हासणारे’ ऐकताना ओठांवर येणारं लाजरं हसू आणि मनात उमलणारे ते नवखे भाव, ‘भोगले जे दु:ख त्याला’ मधली मन कुरतडणारी वेदना,

‘खेड्यामधले घर कौलारू’ मधली डोळ्यांसमोर सुरम्य खेडं उभं करणारी रमणीयता, ‘समईच्या शुभ्र कळ्या’मधलं एक अगम्यपण, ‘एका तळ्यात होती बदके पिले सुरेख’ म्हणतानाचं सुरूपता वाट्याला न आल्यातलं दुखरेपण आणि एके क्षणी सत्य उमजल्यावर सुरांत उतरलेला त्या पिल्लाच्या देहबोलीतला डौल, ‘मी मज हरपुन बसले गं’ म्हणतानाचं ते सुराचं हरपलेपण, ‘स्वप्नात रंगले मी’ ऐकणाना आपलं भावविभोर होत गुंगून जाणं, ‘स्वप्नातल्या कळ्यांनो उमलू नकाच केव्हां’ मधल्या अपूर्णतेतल्या गोडीनं अवघा जीव व्यापून टाकणं… हा प्रत्येक आणि असे अजून कित्येक भावरंग नेमकेपणी अनुभवताना आपण आशाबाईंच्या सुराचं न फेडता येण्यासारखं देणं लागतो.

आजच्यासारखी ‘ब्रेक-ब्रेक के बाद’ रेकॉर्डिंगची सोय उपलब्ध नसताना ‘जिवलगा कधी रे येशील तू’ सारखी पाच रागांत बांधलेली अवघड रचना सहजसुंदर सुरांत पेलणं, ‘घनरानी साजणा’ मधली सुराची जितकी उंची तितकीच खोलीही सहजी जपणं, ‘चांदणे शिंपीत जाशी’ मधली चंचलता सांभाळतानाही सुराचं नेमकेपण जपणं, वडील मा. दीनानाथांच्या शैलीत त्यांनी सादर केलेली नाट्यपदं अशा कित्येक गोष्टी दैवदत्त देखण्या सुराला आशाबाईंनी मेहनतीनं पाडलेले पैलूही दाखवतात… अर्थात मी करत असलेलं हे सगळंच वर्णन म्हणजे मुळाक्षरं गिरवत असलेल्या चिमुरड्यानं अनभिज्ञतेच्या कोषात असताना एखाद्या प्रतिभासंपन्नतेची स्तुती करण्याइतकं बालिश आहे. मात्र ह्या असामान्य सुरावर वेडं प्रेम करायला तर कोणत्याच गुणवत्तेचा निकष लागू होत नाही. त्याच प्रेमभावानं आज मी ‘ज्योतीनं तेजाची आरती’ असा प्रकार केलाय. अक्षरश: तसाच प्रकार… म्हणून केवळ बसल्याबसल्या मनात सहजी उमटलं ते लिहीत गेले, एक सामान्य पण वेडं प्रेम करणारी रसिक म्हणून! त्यांच्या सगळ्या कामाचा हा धावता आढावा म्हणावं इतकाही ह्याचा आवाका नाही. त्यांचा उर्दू, हिंदी ह्या भाषांचा अभ्यास आणि त्यातलं अजोड असं सांगितिक कर्तृत्व ह्या गोष्टीकडे वळायचं तर यादी संपता संपणार नाही. मराठीतलीच आधी कुठं संपलीये म्हणा!

आशाबाई, तुमच्या सुराविषयी, तुमच्या संगीतप्रवासाविषयी नुसतं लिहायच्या कल्पनेनंही दमछाक होतेय! तुमचा सूर, त्याचं अलौकिकत्व, समर्पणभावानं तुमचं त्याच्याशी तादात्म्य पावणं हे आम्ही फक्त अनुभवावं आणि त्या दिव्य अनुभूतीच्या ऋणात राहावं! तुम्ही आणि तुमचा सूर चिरंतन होवो, ही त्या विश्वनियंत्याकडे आम्हा संपूर्ण ई-अभिव्यक्ती परिवाराची मन:पूर्वक प्रार्थना!

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 36 ☆ रामायण मन मोहिनी ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “रामायण मन मोहिनी“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 36 ☆

☆ राम जाने कि – रामायण मन मोहिनी ☆

रामायण है मन मोहिनी पावन कथा श्री राम की

संसार में नित्य धर्म और अधर्म के संग्राम की

 

कष्ट कितना भी हो आखिर सत्य की होती विजय

दुराचार का अंत होता पाता निश्चित ही पराजय

 

सादगी और सच्चाई में ही शक्ति होती है बड़ी

तपस्या और त्याग होते ही हैं जादू की छड़ी

 

सुलझती हैं समस्याएं न्याय सद्व्यवहार से

जो सताती दूसरों को ऐंठ औ अधिकार से

 

उदाहरण करता है प्रस्तुत आचरण श्रीराम का

दुराचारी राक्षसों का दर्प था किस काम का

 

प्रेम है वह तत्व जिससे बदल जाते दुष्ट मन

सद्भाव आत्मविश्वास से सब काम जाते सहज बन

 

सदाचार व प्यार नित कर्तव्य और संवेदना

धैर्य करुणा निपुणता देते रहें यदि प्रेरणा

 

शांति मिलती है सदा तो मन को हर प्रतिकार से

सिखाती रामायण जग को जीतना नित प्यार से

 

धर्म ही सबसे बड़ा साथी है इस संसार में

चाहिए हम रखें मन को अपने नित अधिकार में

 

मनोभावों का बड़ा होता है जीवन में असर

मन अगर वश में है तो दुर्भावनाओं का न डर

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #3 – गढ़चिरौली की रूपा ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है  तीसरी प्रेमकथा  – गढ़चिरौली की रूपा )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #3 – गढ़चिरौली की रूपा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

कैलाश मेश्राम की स्टेट बैंक के भोपाल स्थित स्थानीय कार्यालय में पदस्थी के दौरान सुरेश से हुई मुलाक़ात मित्रता में बदल गई। कुछ समय बाद कैलाश की पदोन्नति सहायक महाप्रबंधक की श्रेणी में होने के साथ उनका तबादला अंकेक्षण (Audit) विभाग में हो गया। दोनों पर्यटन के शौक़ीन थे इसलिए कैलाश जहाँ भी आडिट करने जाते वहाँ उनको घूमने-फिरने बुलाते। अनेकों बार कार्यक्रम बनता परंतु किन्ही कारणों से परवान न चढ़ता था।  नवम्बर 2020 के पहले हफ़्ते में कैलाश को आडिट हेतु पंद्रह दिन गढ़चिरौली में रहना था। उन्होंने उनको गढ़चिरौली भ्रमण हेतु आमंत्रित किया।

सुरेश ने गढ़चिरौली के वनीय वैभव, गोंडी-तेलुगु-मराठी लोगों की मिलीजुली जीवंत संस्कृति, बाबा आमटे के पुत्र प्रकाश आमटे एवं उनकी पत्नी मंदाकिनी आमटे द्वारा पलकोटा, वेडिया और इंद्रावती नदियों के त्रिवेणी संगम पर स्थापित लोक बिरादरी सेवा आश्रम, अल्लापल्ली के प्रसिद्ध सागौन वन क्षेत्र और मार्क्सवादी नक्सल आतंकवाद के मायके के नाम से मशहूर कमलापुर वनक्षेत्र के बारे में सुन रखा था। गढ़चिरौली भ्रमण की बड़ी पुरानी इच्छा कुलबुला उठी। वह 09 नवम्बर 2020 को कार के टैंक में सिरे तक पेट्रोल भराकर सुबह छः बजे भोपाल से गढ़चिरौली के लिए निकल गया।

उसने ठंडी हवा के झोंकों से बतियाते हुए जैसे ही अब्दुल्लागंज पार किया विंध्याचल पर्वत के सुहाने दृश्य और ताज़ी हवा के झोंकों ने मन मोह लिया लेकिन वह प्रसन्नता अधिक देर नहीं टिकी रह सकी क्योंकि आगे आठ-दस किलोमीटर लम्बा धूल भरा ट्रैफ़िक जाम उसका स्वागत करने को तैयार था। वाहन फ़र्स्ट ग़ैर में घिसटते-घिसटते एक घंटे का रास्ता तीन घंटों में पूरा कर इटारसी पार करके केसला और पथरौटा से गुज़र कर शाहपुर पहुँचने ही वाला था कि सतपुड़ा की लुभावनी हरीतिमा को छूकर आए हवा के झोंकों ने उसकी तबियत खुश कर दी। पता चला कि बैतूल ज़िला लग चुका है। हरे भरे पहाड़ों से घिरे एक ढ़ाबे पर मुँह-हाथ धोकर घर से लाया टिफ़िन ख़ाली करके पेट में भरा और वहाँ पड़ी खटिया पर पटिया को सिरहाना बनाकर लेट गया। लेटते ही दिमाग़ में बैतूल ज़िले की भौगोलिक संरचना और बसावट के विचार तरंगित होने लगे।

बैतूल समुद्र तल से 2,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित वनों और जैव विविधता से समृद्ध क्षेत्र  है, जिस कारण यहाँ जलवायु पूरे वर्ष सुखद व मनमोहक बनी रहती है। यह सतपुड़ा रेंज के मैदानी इलाकों में स्थित होने से धूल भरे शहर के जीवन से अलग एक सुखद, शांतिपूर्ण भ्रमण हेतु उपयुक्त स्थान है। बैतूल ज़िला मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 180 किलोमीटर दूर छिंदवाड़ा, नागपुर, खंडवा, होशंगाबाद, हरदा जिलों की गोद में सतपुड़ा पर्वत के दक्षिणी पठार से नागपुर की तरफ़ फैले मैदान तक फैला हुआ है। उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, बैतूल क्षेत्र बदनूर का इलाक़ा के नाम से जाना जाता था। इस स्थान और ज़िले का वर्तमान नाम इसके दक्षिण में लगभग 5 किमी की दूरी पर बसे एक छोटे से शहर बैतूल-बाजार के कारण पड़ा है। लेकिन बैतूल शब्द कहाँ से आया? बैतूल का शाब्दिक अर्थ होता है “बिना बाढ़” का। इस क्षेत्र के चारों तरफ़ कपास की खेती बहुतायत से होती थी। किसानों ने यहाँ भी कपास लगाना शुरू किया लेकिन यहाँ की ज़मीन पथरीली और जलवायु नम होने से यहाँ कपास का पौधा बढ़ता (तूल) नहीं था। जैसे “बातों को तूल  न देना” याने  न बढ़ाना एक मुहावरा है। वैसे ही कपास के पौधों का न बढ़ना बैतूल हो गया। वहाँ आदिवासियों की छोटी हाट लगती थी जिसे बैतूल बाज़ार पुकारा जाने लगा। उन्नीसवी सदी में उड़ीसा और छत्तीसगढ़ फ़तह करके लौटते वक्त चौथ-सरदेशमुखी वसूली हेतु बिरार का इलाक़ा शिवाजी के वंशज राघोजी भोसले को सौंपा गया था। मराठा साम्राज्य विखंडन होने पर अंग्रेजों ने बैतूल को राजस्व तालुक़ा बना दिया। 1822 में जिला मुख्यालय को वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित कर दिया गया, तभी से स्थानीय बोली में बदनूर इलाक़ा बैतूल के नाम से जाना जाने लगा।

अमरावती जिले में हाटीघाट और चिकलदा पहाड़ियों के किनारे ताप्ती की सहायक नदियाँ मोरंड और गंजल बैतूल ज़िले की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा निर्धारित करती  हैं। मोरंड नदी और ढोढरा मोहर रेलवे स्टेशन के आगे से तवा नदी ज़िले की उत्तरी सीमा बनाती हैं।  पूर्वी सीमा छोटी नदियों और पहाड़ियों से गुलज़ार हैं। जिनमें से खुरपुरा और रोटिया नाला बरसात के दिनों में बादलों से ढँके अनेकों प्रपातों का निर्माण करते  हैं। गोंड, कोरकु, भरिया, कुर्मी, कुनबी, मेहरा और चमार इस ज़िले के मुख्य निवासी हैं। क़रीब आधा घंटा आराम के बाद पुनः यात्रा शुरू करके शाम को पाँच बजे के आसपास नागपुर शहर के मकान दिखने लगे। इतिहास की इन अठखेलियों से विचरते हुए भोपाल  से नागपुर की 350 किलोमीटर यात्रा पूरी हो चुकी थी। नागपुर से चंद्रपुर 160 किलोमीटर और चंद्रपुर  से गढ़चिरौली 80 किलोमीटर यानि कुल 590  किलोमीटर अच्छी-बुरी सड़क से यात्रा तय करके रात्रि नौ बजे गढ़चिरोली गेस्ट हाऊस में जाकर गरम पानी से नहाकर खाना खाया और ग्यारह बजे पलंग पर लिहाफ़ में घुसते ही नींद ने आ दबोचा।

उन्होंने अगला  पूरा दिन गढ़चिरोली भ्रमण में बिताया। दूसरे दिन सुबह उठकर गढ़चिरौली ज़िले की अहेरी तहसील में स्थित सघन सागौन वन की सैर को निकल गए। गढ़चिरौली जिला महाराष्ट्र के उत्तरी-पूर्वी कोने में स्थित है। यह पश्चिम में चंद्रपुर, उत्तर में  गोंदिया, पूर्व में  छत्तीसगढ़ राज्य के दुर्ग, राजनांदगाँव, बस्तर और जगदलपुर ज़िले और दक्षिण पश्चिम में  तेलंगाना  राज्य के करीमनगर और आदिलाबाद जिलों से घिरा है। गढ़चिरौली  आदिवासी  ज़िला है। मुख्य निवासी गोंड और माडिया आदिवासी समुदाय के लोग है। यहाँ 1972 में बंगाली समुदाय के शरणार्थी पुनर्वास करके बसाए गए हैं।

प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर राष्ट्रकूट, चालुक्य, देवगिरि के यादव और बाद में गढ़चिरौली के गोंडों का शासन था। 13 वीं शताब्दी में खांडक बल्लाल शाह ने चंद्रपुर की स्थापना की और इसे अपनी राजधानी बनाया। चंद्रपुर बाद में मराठा शासन में आया। 1853 में, बरार जिसमें चंद्रपुर (जिसे चंदा कहा जाता था) का हिस्सा भी था, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया था। 1854 में चंद्रपुर सेंट्रल प्राविन्स एंड बेरार का एक स्वतंत्र जिला बन गया। लॉर्ड कर्ज़न की राज्य पुनर्गठन योजना के अंतर्गत 1905 में अंग्रेजों ने चंद्रपुर और ब्रम्हपुरी से एक-एक जमींदारी संपत्ति का हस्तांतरण करके गढ़चिरौली तहसील बनाई। यह 1956 तक सेंट्रल प्रांत का हिस्सा था, जब राज्यों के पुनर्गठन के साथ, चंद्रपुर को बॉम्बे राज्य में स्थानांतरित कर दिया गया था। 1960 में, जब महाराष्ट्र बनाया गया, चंद्रपुर नए राज्य का एक जिला बन गया। गढ़चिरौली जिले का गठन 26 अगस्त 1982 को चंद्रपुर से गढ़चिरौली और सिरोंचा तहसीलों को अलग करके किया गया था। गढ़चिरौली में नक्सलवाद की जड़ें जमी हैं। जिसमें छापामार लड़ाके पहाड़ियों और घने जंगलों में रहते हैं और इसे रेड कॉरिडोर के हिस्से के रूप में नामित किया गया है।

गढ़चिरौली से तेलंगाना राज्य की सीमा पर दक्षिण दिशा में अल्लापल्ली नाम का वन आच्छादित गाँव है। अल्लापल्ली आमतौर पर गोंडवाना गांव है, लेकिन अब, कई लोग शिक्षा, व्यवसाय और जीविका कमाने के उद्देश्य से वहां आ बसे  हैं। अल्लापल्ली के जंगल विश्व प्रसिद्ध सागौन की लकड़ी के ख़ज़ाने हैं। अल्लापल्ली से परमिली-भामरागढ़ रोड पर 07 किलोमीटर दूर 100 साल पहले वैज्ञानिक प्रबंधन के तहत मूल जंगल के रूप में संरक्षित ‘ग्लोरी ऑफ अल्लापल्ली’ वन पारिस्थितिकी के एक जीवित संग्रहालय के रूप में प्रसिद्ध है। जहाँ पर 500  वर्ष पुराने सागौन के 120 फ़ुट ऊँचे पेड़ मौजूद हैं। जिसे आज सागौन कहा जाता है वह साग का पेड़ है, एक जगह पर बहुत अधिक संख्या में साग के पेड़ होने से उसे सागवन पुकारा जाने लगा, वही सागवन कालांतर में सागौन हो गया।

पहले अल्लापल्ली हैदराबाद के निज़ाम के नियंत्रण में था। बाज़ीराव ने मराठवाड़ा को जीतकर नियंत्रण में लिया तब इस इलाक़े को नागपुर के राघोजी भोसले के अधीन रख दिया। इसलिए अल्लापल्ली तहसील की जनसंख्या मुख्यतः तेलुगु भाषी है लेकिन गावों में गोड़ों की बसावट है। वर्तमान में अल्लापल्ली महाराष्ट्र के गढ़चिरौली ज़िले की तहसील ऐटापल्ली का एक ब्लॉक है।

फ़ारेस्ट रेंज आफ़िसर गणेश लाँड़गे ने बताया कि जिस गेस्ट हाऊस में हम रुके हैं वह अंग्रेजों द्वारा 1910 में बनाया गया था। अल्लापल्ली से 130 किलोमीटर दक्षिण दिशा में हत्थी केम्प बनाया गया है। लकड़ी उठाने और ढ़ोने के लिए कुछ हाथी आसाम के काज़ीरंगा पार्क से लाए गए थे। मशीनीकरण से बेरोज़गार हाथियों को सेवानिवृत्त करके एक पहाड़ी इलाक़े में रखा गया है। जहाँ उन्हें सप्ताह में दो बार चावल गुड घी और केलों का भोजन कराने हेतु एक तालाब के बीच बने हत्थी केम्प में लाया जाता है। उनके पैरों में लोहे की मोटी ज़ंजीर बांधी गई है जिनके घिसटने से भूमि पर बनने वाले निशानों से वनरक्षक उनकी गतिविधियों पर नज़र रखते हैं और भोजन  के दिन उन्हें हाँका लगाकर हत्थी केम्प लाते हैं। सबसे वयोवृद्ध हथिनी का नाम रूपा है, उसकी उम्र अस्सी साल बतायी जाती है। अल्लापल्ली की पुरानी हथिनी बसंती वहाँ के सबसे पुराने हाथी महालिंगा के संसर्ग से बच्चा नहीं दे रही थी इसलिए रूपा को हाथियों की संख्या बढ़ाने हेतु नागझिरा से अल्लापल्ली लाया गया। रूपा के पहुँचने से बसंती के कान खड़े हो गए। उसने महालिंगा पर कड़ी नज़र रखना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ़ बसंती रूपा को चिंघाड़ कर चुनौतीपूर्ण धमकी देने लगी। एक दिन महालिंगा नज़र बचाकर रूपा के नज़दीक पहुँच सूँड़ से प्रेम का इज़हार करने लगा तो बसंती क्रोध से उफनते हुए रूपा पर टूट पड़ी। उसे धमकाकर घने जंगल में पहुँचा कर ही दम लिया। इस घटना के बाद वन अधिकारियों ने रूपा को तालाब की दूसरी तरफ़ आधे किलोमीटर लम्बी ज़ंजीरों से बांधकर वहीं उसके भोजन का इंतज़ाम कर दिया ताकि बसंती के दाम्पत्य जीवन में व्यवधान उत्पन्न न हो।

रूपा को अल्लापल्ली जंगल में बच्चे पैदा करके हाथियों की वंशवृद्धि का उद्देश्य पूरा न होते देख वन अधिकारियों ने केरल और आसाम से पशु विशेषज्ञ बुलाकर बसंती को एक साल तक कुछ इंजेक्शन दिए तो वह गर्भवती हुई और उसने बीस महीनों के बाद एक बच्चा जना, जिसका नाम प्रसिद्ध फ़िल्मी खलनायक अजीत के नाम पर रखा गया। बदली हुई परिस्थितियों में यह विचार करके कि शायद माँ बनने के बाद बसंती अब महालिंगा से रूपा को गर्भवती होने देगी। रूपा को उसके नज़दीक लाने की कोशिश की लेकिन बसंती ने अपनी मातृ सत्तात्मक पकड़ ज़रा सी भी ढ़ीली नहीं की। रूपा फिर एक बार मायूस हुई। कुछ सालों बाद अजीत जवान हो गया। रूपा की निगाह अजीत पर पड़ी। उसे भरोसा था कि बसंती अपने बच्चे अजीत के समागम से प्रजनन नहीं करेगी तो अजीत अंततोगत्वा उससे संसर्ग करेगा क्योंकि उस इलाक़े में उसके अलावा कोई और मादा नहीं है। बसंती को रूपा के इरादे भाँपते देर न लगी। अजीत भी अकसर भागकर रूपा के आसपास मँडराने लगा। जब अजीत उठाव पर आया तो बसंती ने उसके संसर्ग से एक और बच्चा दिया जिसका नाम एक अन्य फ़िल्मी विलेन रंजीत के नाम पर रखा गया। रूपा फिर एकबार मायूस हुई। बसंती का पुराना साथी महालिंगा उम्रदराज़ होकर मरा तब रूपा बसंती के परिवार को सांत्वना जताने आई परंतु बसंती ने उसे आते देख मुँह फेर लिया। अब रूपा ने हालात से समझौता करके जीना सीख लिया है, वह अकेली रहती है। हत्थी केम्प पहले आकर और भोजन करके चली जाती है। बसंती सपरिवार दूर खड़ी उसके चले जाने का इंतज़ार करती है। उसके जाने के बाद अपने परिवार को लेकर भोजन कराने आती है। मनुष्यों की तरह पशुओं में भी सौंतिया डाह के संघर्ष होते हैं।

हत्थी केम्प से लौटते समय मस्तिष्क में विचार आया कि पुरानी बाइबिल में लिखी अब्राहम, साराह और हागार की कहानी के पात्र महालिंगा, बसंती और रूपा के रूप में देखकर वापस लौट रहे हैं। अब्राहम पत्नी साराह और सेविका हागार के साथ दजला-फ़रात के मैदान में बसे कन्नान में रहते थे। साराह को बच्चे नहीं हो रहे थे इसलिए उसने अब्राहम से परिवार बढ़ाने के लिए सेविका हागार से बच्चा पैदा करने को कहा। अब्राहम और हागार से इस्माइल का जन्म हुआ। उसके बाद अब्राहम और साराह का भी  एक बच्चा इशाक नाम का हो गया। सुंदर सेविका हागार का बच्चा बड़ा होने से साराह में सौंतिया डाह विकसित हुआ तो वह हागार और इस्माइल पर अत्याचार करने लगी। हागार पीड़ित होकर इस्माइल को लेकर अरब देश में मक्का पहुँची जहाँ इस्माइल के वंश में मुहम्मद का जन्म हुआ था जिन्होंने इस्लाम धर्म चलाया।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#48 – कौन सा रास्ता सही? ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#48 – कौन सा रास्ता सही? ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक गरीब युवक, अपनी गरीबी से परेशान होकर, अपना जीवन समाप्त करने नदी पर गया, वहां एक साधू ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। साधू ने, युवक की परेशानी को सुन कर कहा, कि मेरे पास एक विद्या है, जिससे ऐसा जादुई घड़ा बन जायेगा जो भी इस घड़े से मांगोगे, ये जादुई घड़ा पूरी कर देगा, पर जिस दिन ये घड़ा फूट गया, उसी समय, जो कुछ भी इस घड़े ने दिया है, वह सब गायब हो जायेगा।

अगर तुम मेरी 2 साल तक सेवा करो, तो ये घड़ा, मैं तुम्हे दे सकता हूँ और, अगर 5 साल तक तुम मेरी सेवा करो, तो मैं, ये घड़ा बनाने की विद्या तुम्हे सिखा दूंगा। बोलो तुम क्या चाहते हो, युवक ने कहा, महाराज मैं तो 2 साल ही आप  की सेवा करना चाहूँगा , मुझे तो जल्द से जल्द, बस ये घड़ा ही चाहिए, मैं इसे बहुत संभाल कर रखूँगा, कभी फूटने ही नहीं दूंगा।

इस तरह 2 साल सेवा करने के बाद, युवक ने वो जादुई घड़ा प्राप्त कर लिया, और अपने घर पहुँच गया।

उसने घड़े से अपनी हर इच्छा पूरी करवानी शुरू कर दी, महल बनवाया, नौकर चाकर मांगे, सभी को अपनी शान शौकत दिखाने लगा, सभी को बुला-बुला कर दावतें देने  लगा और बहुत ही विलासिता का जीवन जीने लगा, उसने शराब भी पीनी शुरू कर दी और एक दिन नशें में, घड़ा सर पर रख नाचने लगा और ठोकर लगने से घड़ा गिर गया और फूट गया.

घड़ा फूटते ही सभी कुछ गायब हो गया, अब युवक सोचने लगा कि काश मैंने जल्दबाजी न की होती और घड़ा बनाने की विद्या सीख ली होती, तो आज मैं, फिर से कंगाल न होता।

“ईश्वर हमें हमेशा 2 रास्ते पर रखता है एक आसान -जल्दी वाला और दूसरा थोडा लम्बे समय वाला, पर गहरे ज्ञान वाला, ये हमें चुनना होता है की हम किस रास्ते पर चलें?”

“कोई भी काम जल्दी में करना अच्छा नहीं होता, बल्कि उसके विषय में गहरा ज्ञान आपको अनुभवी बनाता है।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 72 – पडवी…! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #72 ☆ 

☆ पडवी…! ☆ 

हल्ली शहरात आल्या पासून

गावाकडंची खूप आठवण येऊ

लागलीय..

गावाकडची माती,गावाकडची माणसं

गावाकडचं घर अन्

घरा बाहेरची पडवी

घराबाहेरची पडवी म्हणजे

गावाकडचा स्मार्टफोनच…!

गावातल्या सर्व थोरा मोठ्यांची

हक्काची जागा म्हणजे

घराबाहेरची पडवीच…!

जगातल्या प्रत्येक गोष्टीवर इथे

चर्चासत्र रंगतं

आणि कोणत्याही प्रश्नावर इथे

हमखास उत्तर मिळतं

दिवसभर शेतात राबल्यावर

पडवीत बसायची गंमतच

काही और असते..

अन् माणसां माणसांमध्ये इथे

आपुलकी हीच खासियत असते

पडवीतल्या गोणपाटावर अंग

टाकलं की..,

आपण कधी झोपेच्या

आधीन होतो हे कळत सुध्दा नाही

पण शहरात आल्या पासून ,

ह्या कापसाच्या गादीवर

क्षण भर ही गाढ झोप लागत नाही…!

घराबाहेरचं सारं जग एकाएकी

अनोळखी वाटू लागलंय….

अन् ह्या चार भितींच्या आत

आज.. डोळ्यांमधलं आभाळं देखील

नकळतपणे भरून आलंय

कधी कधी वाटतं

ह्या शहरातल्या घरांना ही

गॅलरी ऐवजी पडवी असती तर

आज प्रत्येक जण

स्मार्टफोन मधे डोकं

खुपसून बसण्यापेक्षा

पडवीत येऊन बसला असता…

आणि खरंच..

गावाकडच्या घरासारखा

ह्या शहरातल्या घरानांही

मातीचा गंध सुटला असता….!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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