मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 83 – विजय साहित्य – ओवी बद्ध रामायण – काही ओव्या  ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 83 – विजय साहित्य ☆ ओवी बद्ध रामायण – काही ओव्या  ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

(ओवी बद्ध रामायण या खंडकाव्य यातील काही ओव्या… काव्य प्रकारसाडे तीन चरणी ओवी)

 

धर्मपरायण राजा , शोभे अयोध्या नरेश

अवतारी परमेश , राजगृही.. . !  25

 

पोटी नाही पुत्र सौख्य, पूर्ण व्हावे मनोरथ

खंतावला दशरथ,  मनोमनी. . . !   26

 

वसिष्ठांना पाचारण काश्यपांना निमंत्रण

जाबालींना आमंत्रण, धर्मकार्ये.. . !  27

 

पुत्रकामेष्टीचा यज्ञ,  शृंगऋषी पुरोहित

दथरथे समर्पित, यज्ञाहूती . . . !  28

 

गोरस नी गोधृताने, आरंभीला यज्ञयाग

यथोचित द्रव्यभाग, केला दान.. !   29

 

दानधर्म, कुलाचार,  आणि पुण्याहवाचन

वेदमंत्रांचे पठण,  यज्ञस्थली.. . !   30

 

अग्निदेव प्रगटले ,  दिले पायसाचे दान

पुत्रसौख्य वरदान, चिरंजीवी  . . . !  31

 

आनंदल्या तिन्ही राण्या, केले पायस भक्षण

गर्भी आले नारायण,  कौसल्येच्या.. . ! 32

 

चैत्र मासी नवमीस , राणी कौसल्येस राम

आनंदाने भरे धाम , जन्मोत्सव . . !  33

 

माध्यान्हीला जन्मोत्सव  कौसल्येचे नुरे भान

रामजन्मी गाती गान, प्रजाजन   . .!  34

 

सूर्यवंशी रामराया , विष्णू रूप अवतार

बालरूप  अंगीकार ,मोहमयी . . . ! 35

 

राजा दशरथापोटी ,जन्मा आले पुत्र चार

झाला राम  अवतार,  अयोध्येत .. !  36

 

चार पुत्र तेजोमय, यश, कीर्ती समाधान

विष्णूरूप शोभे सान,  रामचंद्र … ! 37

 

माता कौसल्येचा राम, राम सुमित्रा नंदन

चाले वात्सल्य मंथन,  कैकेयीचे.. . !  38

 

लक्षुमण , शत्रुघ्नाची, सुमित्रेस लाभे ठेव

वात्सल्याचे फुटे पेव, बालांगणी . . !  39

 

राजराणी कैकयीने , दिला जन्म भरताला

धन्यवाद संचिताला,  पुत्रजन्मी.. . ! 40

 

राम लक्षुमण जोडी, शत्रुघ्नाचा बंधुभाव

भरताच्या ह्रदी ठाव, स्नेहपाश .. . ! 41

 

धन्य कौसल्या जननी , हट्ट करी नारायण

आसवांचे पारायण , राम कुक्षी. .!  42

 

जगावेगळेच खेळ, हवे विश्व खेळायला

राम लागे मागायला ,साप दोरी . . ! 43

 

आकाशीचा चंद्र मागे,बाललीला बालपणी

दमवतो रघुमणी, प्रासादास  . . ! 44

 

काय वर्णू बालरूप , हरितेज सामावले

नरदेही विसावले ,परब्रह्म   . . !  45

 

दुडू दुडू धावताना, प्रासादाचे होई रान

हरपले देहभान, रामरंगी   . . . !  46

 

वात्सल्यात तिन माता, बालहट्टी सुखावल्या

रामरंगी तेजाळल्या , दिन रात.. !  47

 

रघुकुल शिरोमणी, वेड लावी चक्रपाणी

कौतुकाची बोलगाणी ,  आप्तेष्टांची .! 48

 

राजा दशरथ धन्य, धन,धान्य करी दान

वस्त्र, दक्षिणा, गोदान, मुक्तहस्ते. . . ! 49

 

चार बोबडेसे वेद, दिसामासी झाले मोठे

बाल कुमार छोटे ,तेजाळले. . ! 50

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 66 ☆ आग ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  एक विचारणीय लघुकथा आग।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 66 ☆

☆ आग ☆

तपती धूप में वह नंगे पैर कॉलेज आता था । एक नोटबुक हाथ में लिए चुपचाप आकर क्लास में पीछे बैठ जाता। क्लास खत्म होते ही  सबसे पहले बाहर निकल जाता। मेरी नजर उसके नंगे पैरों पर थी। पैसेवाले घरों की लडकियां गर्मी में सिर पर छाता लेकर चल रही हैं और इसके पैरों में चप्पल भी नहीं। एक दिन वह सामने पडा तो मैंने बिना उससे कुछ पूछे चप्पल खरीदने के लिए पैसे दिए। उसने चुपचाप जेब में  रख लिए।

दूसरे दिन वह फिर बिना चप्पल के दिखाई दिया। अरे! पैर नहीं जलते क्या तुम्हारे ?  चप्पल क्यों नहीं खरीदी ? मैंने पूछा।  बहुत धीरे से उसने कहा  – पेट की आग ज्यादा जला रही थी मैडम।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। 
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है।  एक विषय पर अनेक लघुकथाएं  लिखकर। इस श्रृंखला में  नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत  करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की  लघुकथा  ये तो नारियल है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )

☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆

गंगा घाट पर श्रद्धालुओं की भीड़ जयकारे लगा रही थी – जय गंगा मैया, जय हो पाप नासनी।

भीड़ गंगा में साबुत नारियल फेंक रही थी।

खूब नारियल बिक रहे थे।दूकानदार मौज में गा रहा था- ‘ये तो नारियल है रे__ये तो नारियल है ये।’

श्रद्धालु साबूत नारियल गंगा में फेंक रहे थे।

लोग बहती गंगा से बटोरकर दूकानदार को आधे में नारियल बेच रहे थे।

दुकानदार उन्हें फिर पूरी कीमत में बेच रहा था। मुनाफा ही मुनाफा।

उसका दो मंजिला मकान नारियलों ने बनवा दिया था।

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 63 ☆ अधूरे हिसाब ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “अधूरे हिसाब”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 63 – अधूरे हिसाब

मोबाइल की गैलरी से सारे चित्र तो एक झटके में रिमूव हो जाते हैं, किंतु क्या मानस पटल पर अंकित चित्रों से हम दूर हो सकते हैं। इसी उधेड़बुन में  दो घण्टे बीत गए। दरसल कोरोना का टीका तो लगवा लिया पर उसकी फोटो नहीं खिंचवा पाए थे। अब सारे डिजिटल फ्रैंड  हैशटैग कर अपनी-अपनी फोटो मेरी वाल पर चस्पा किए जा रहे हैं और एक मैं इस सुख से अछूती ही रह गयी।

मेरी पक्की सहेली ने समझाया कोई बात नहीं ऐसा करो कि डिजिटल सर्टिफिकेट ही पोस्ट कर दो, अपने नाम वाला, उससे भी काम चल जायेगा। मन को तसल्ली देने के लिए मैंने मैसेज खंगालना शुरू किया तो वहाँ भी मेरा नाम नदारत था। कोई प्रूफ ही नही टीकाकारण का ,अब तो मानो मेरे पैरो तले जमीन ही खिसक गई हो। खैर बुझे मन से स्वयं को समझाते हुए 6 हफ्ते बीत जाने की राह ताकने लगी, पर कहते हैं कि जब भाग्य रूठता है तो कोई साथ नहीं देता, सो जिस दिन बयालीस दिन पूरे हुए उसी दिन ये खबर मिली कि अब तीन महीनें  बाद टीका लगेगा। डॉक्टरों की टीम ने नई रिसर्च के बाद कहा कोविशिल्ड वैक्सीन के दूसरे डोज में जितनी देरी होगी उतना ज्यादा लाभ होगा।

लाभ और हानि के बारे में तो इतना ही पता है कि कोई डिजिटल प्रमाण न होने से टीके की फोटो पोस्ट नहीं हो पाई ,चिंता इस बात की है कि जब दोनों प्रमाणपत्र एक साथ पोस्ट करूँगी तो मेरा क्या होगा? मैंने तो सबकी दो पोस्टों पर लाइक करूँगी पर मेरी तो एक ही पोस्ट पर होगा।

आजकल अखबारों में मोटिवेशनल कॉलम की धूम है और मैं तो पूर्णतया सकारात्मक विचारों को ही आत्मसात करती हूँ, तो सोचा चलो टीकाकरण केंद्र में जाकर ही पता करते हैं। झटपट गाड़ी उठाई और पहुँची तो पता चला ये केंद्र बंद हो चुका है। अब आप दूसरी जगह जाइए। उम्मीद का दामन थामें दूसरे केंद्र में पहुँची। वहाँ पर पूछताछ की तो उन्होंने कहा अभी बहुत भीड़ है, कुछ देर बाद बतायेंगे। पर अब तो 18 प्लस का जलवा चल रहा था तो वे लोग धड़ाधड़ आकर टीका लगवाते जा रहे थे और हाँ सेल्फी लेना भी नहीं भूलते। ये सब देखकर जितनी पीड़ा हो रही थी उतनी तो पहला टीका लगवाने के बाद भी नहीं हुई थी। शाम चार बजे जाकर मेरा नंबर आया तब कंप्यूटर ऑपरेटर ने सर्च किया और माथे पर हाथ फेरते हुए बोला अभी सर्वर डाउन है, कुछ पता नहीं चल पा रहा है, आप कल सुबह 9 बजे आइए तब कुछ करते हैं।

उदास मन से अपना मुँह लिए, मंद गति से गाड़ी चलाते हुए, चालान से बचने की कोशिश कर रही थी। घर पहुँचने ही  वाली थी तभी , बहन जी गाड़ी रोकिए की आवाज कानों में पड़ी। किनारे गाड़ी लगाकर खड़ी की तब तक लेडी पुलिस आ गयी।

कहाँ घूम रहीं हैं , लॉक डाउन है पता नहीं है क्या ?

जी, मैं तो टीका लगवाने का प्रमाणपत्र लेने गयी थी।

अच्छा कोई और बहाना नहीं मिला।

मेम, मुझे दो महीने पहले ही टीका लग चुका है, पर कोई प्रूफ नहीं था, सो उसे ही लेने के लिए टीका केंद्र गयी थी।

कहाँ है दिखाओ ?

वहाँ सर्वर डाउन था इसलिए नहीं  मिला।

कोई बात नहीं चलो 500 रुपये निकालो, चालान कटेगा , तब आपके पास प्रूफ होगा।

मैंने बुझे मन से 500 दिए और  तेजी से गाड़ी भगाते हुए घर पहुँची।

बच्चे गेट पर ही इंतजार कर रहे थे।उतरा हुआ चेहरा देखकर बच्चों ने पूछा क्या हुआ ?

चालान की पर्ची दिखाते हुए मैंने कहा, काम तो हुआ नहीं, 500 की चपत ऊपर से लग गई।

तभी मेरी बिटिया ने तपाक से कहा कोई बात नहीं मम्मी, आप इसी की फोटो खींच कर पोस्ट कर दो, कम से कम एक प्रूफ तो मिला कि आप दूसरी डोज वैक्सीन की लगवाने के लिए कितनी जागरूक है।

तभी मेरे दिमाग़ की बत्ती जल उठी कि सही कह रही है, अब मैं फेसबुक व इंस्टा पर यही पर्ची पोस्ट कर लाइक व कमेंट के अधूरे हिसाब पूरे करूँगी।   

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 106 ☆ सब याद है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की  एक भावप्रवण कविता – सब याद है।  इस भावप्रवण रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 105☆

?  सब याद है  ?

 

प्रथम पूज्य गणेश

एक  गिनती की शुरुवात

अ पहला अक्षर

सब याद है

 

पहली फिल्म जो देखी थी थियेटर में

होश में किया पहला सफर

साइकिल पर वह पहली सवारी

सब याद है

 

वह पहली रात जब

घर से दूर

होस्टल में गया था पढ़ने

पहली नौकरी

पहली तनख्वाह

वो पहली हवाई यात्रा

सब याद है

 

वह सिहरन

जब तुम्हें छुआ था पहली बार

वह पहला चुम्बन

उन्माद

भूलता कहां है

पहला प्यार

सब याद है

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 – लघुकथा – नियति ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है  “लघुकथा  – नियति।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 ☆

☆ लघुकथा – नियति ☆ 

“सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,”  बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।

“हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?  यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथपैर सही हो जाए।”

बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में…..”

“हां हां, जानता हूं अंकल,”  कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा!  तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”

यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”

“वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,”  कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-05-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र
ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 70 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – नवम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  नवम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 70 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – नवम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का नवम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

परम् गुह्य ज्ञान

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को परम गुह्य ज्ञान के बारे में इस प्रकार बताया

 

हे अर्जुन मेरी सुनो, तुम हो प्रिय निष्पाप।

गुह्यज्ञान-अनुभूति से, मिट जाते सब पाप।। 1

 

सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है, गोपनीय यह तथ्य।

करे शुद्ध मन-आत्मा, अविनाशी यह कथ्य।। 2

 

श्रद्धा-निष्ठा जो रखें, वे ही मुझको पायँ।

भक्ति भाव से रहित नर, जनम-मरण घिर जायँ।। 3

 

व्याप्त रूप अव्यक्त यह, माया का संसार।

रहें जीव मुझमें सभी, मैं ही सबका सार।। 4

 

जीवों का पालन करूँ, मेरी सृष्टि अपार।

मैं कण-कण में व्याप्त हूँ, यही योग का सार।। 5

 

प्रबल वायु रहती गगन, श्वांसों का है सार।

सब जीवों में मैं रहूँ, मेरी सृष्टि अपार।। 6

 

अंत समय कल्पांत में, प्राणी करें प्रवेश।

कल्प होय आरंभ जब, देता नया सुवेश।। 7

 

सकल जगत ये सृष्टि ही, मेरे सभी अधीन।

प्रलय-सृष्टि सब मैं करूँ,देता दृष्टि नवीन।। 8

 

कर्म मुझे बाँधें नहीं, कर्म स्वयं आधीन।

भौतिक कर्मों से विरत, मैं हूँ श्रेष्ठ प्रवीन।। 9

 

मैं सबका अध्यक्ष हूँ, सब ही रहें अधीन।

प्राणी सचराचर सभी, बनें-मिटें सब लीन।। 10

 

मनुज रूप प्रकटा कभी, मूर्ख करें उपहास।

दिव्य स्वभावी रूप का, अर्जुन कर तू भास।। 11

 

मोह ग्रस्त जो जन रहें, चित आसुरी  प्रभाव।

जाल मोह-माया घिरे,रखें न श्रद्धा-भाव।। 12

 

मोह मुक्त जो भी रहें, उन पर देव प्रभाव।

मैं अविनाशी ईश हूँ, प्रेम रखूँ सद्भाव।। 13

 

भक्ति भाव अर्पित करें, और करें नित ध्यान।

मेरी महिमा जो भजें, कर देता कल्यान।। 14

 

ज्ञान, यज्ञ-शीलन करें, भजें सदा प्रभु नाम।

विविधा रूपों में भजें, करते मुझे प्रणाम।। 15

 

कर्मकांड हूँ यज्ञ का, तर्पण करते लोग।

मैं ही आहुति अग्नि-घृत, मैं पितरों का  भोग।। 16

 

मात-पिता हूँ पितामह, चेतन हूँ ब्रह्मांड।

ज्ञेय-शुद्ध ओंकार हूँ, सब वेदों का प्राण।। 17

 

पालक-स्वामी-धाम हूँ, शरण लक्ष्य प्रिय मित्र।

मसृष्टि -प्रलय संहार हूँ, मैंअविनाशी पित्र।। 18

 

ताप-शीत में दे रहा, वर्षा करता मित्र।

मृत्यु और अमरत्व मैं, सत्य-असत का पित्र।। 19

 

मैं वेदों का सोमरस, करें अर्चना लोग।

मैं ही देता स्वर्ग हूँ, देवों-का-सा भोग।। 20

 

पुण्य कर्म जब क्षीण हों, हटे स्वर्ग का भोग।

इन्द्रिय सुख चाहे मनुज,जनम-मरण  का योग।। 21

 

जो अनन्य भावी भजें, मेरा दिव्य स्वरूप।

इच्छा-रक्षा मैं करूँ, मैं ही सबका  भूप।। 22

 

जो जन पूजें देव को, भक्ति पावनी छोड़।

ऐसा कर गलती करें, पर मैं लेता ओढ़।। 23

 

सब यज्ञों का भोक्ता, स्वामी-दिव्या भूप।

जो जन मुझे न जानते, गिर जाते वह कूप।। 24

 

जो जैसी पूजा करें, वैसा ही फल पायँ।

देव-भूत जो पूजते, शरण उन्हीं की जायँ।। 25

पितरों की पूजा करें, जाएँ पितरों पास।

जो मेरी पूजा करें, पाए मम उर वास।।

 

पत्र-पुष्प-फल प्रेम से, अर्चन करते लोग।

जल को भी स्वीकारता, प्रेमिल श्रद्धा-भोग।। 26

 

अर्जुन जो भी तुम करो, अर्पित करना मित्र।

दान-तपस्या जो करो, ये ही प्रीत पवित्र।। 27

 

जो अर्पित मुझको करें, सारे अपने कृत्य।

भव सागर से मुक्त हों, मोक्ष मिले ध्रुव सत्य ।। 28

 

 पक्षपात या द्वेष की,करता कभी न बात।

मैं रहता समभाव हूँ, भक्ति करो दिन-रात।। 29

 

हो जघन्य यदि पाप भी, करें भक्ति औ’ योग।

तर जाते ऐसे मनुज, मिट जाते सब शोग।। 30

 

शक्ति मिले मम् भक्ति से, मिले शान्ति का योग।

भक्ति करे मेरी सदा, रहता सुखी निरोग।। 31

 

जो आते मेरी शरण, स्त्री-वैश्या-शूद्र।

परमधाम पाते वही, कभी न रहते छूद्र।। 32

 

भक्त हृदय धर्मात्मा, पाएँ मेरा लोक।

प्रेम-भक्ति मम् लीन जो, मिट जाते सब शोक।। 33

 

नित मम चिंतन तुम करो, करो भक्ति औ’ प्यार।

मुझको सब अर्पण करो, वंदन बारंबार।। 34

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” राजविद्याराजगुह्ययोग ” नामक नवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूर संगत~मानवी जीवन आणि संगीत.. ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

? सूरसंगत ?

☆ सूर संगत~ मानवी जीवन आणि संगीत ☆ सुश्री अरूणा मुल्हेरकर ☆ 

मानवी जीवन आणि संगीत यांचे अतूट नाते आहे.

टॅहॅं टॅहॅं असे एका लयीत गातच, (आपण त्याला रडणे म्हणतो) बालक  जन्माला येते.

रांगायला लागते तेही एका विशिष्ठ तालात. आई बाळाला निजण्यासाठी अंगाईगीत गाऊन मांडीवर थोपटते ते एका ठराविक लयीत.बाळ मोठे होत होत पहीली पावले टाकू लागते तेव्हा त्याच्या पायातील पैंजण रुणुझुणु नाद करतात आणि बाळ कसे ठुमकत ठुमकत चालत असते. अशावेळी स्मरते ते तुलसीदासांचे भजन”ठुमक चलत रामचंद्र।बाजत पैंजनिया”

ह्रदयाची धडधड,शरीरांतून रक्ताची एका विशिष्ट लयीत प्रवाहीत होण्याची क्रिया हे ईश्वरनिर्मीत संगीतच आहे. एखाद्या तरूणीच्या मादक कटाक्षाने मनाची झालेली थरथर

संगीतांतील एखाद्या भावविव्हळ तानेसारखीच असते. जीवन म्हणजे चैतन्य आणि जेथे चैतन्य तेथे संगीत हा निसर्ग नियमच आहे. पाण्याची खळखळ, वार्‍याची फडफड, समुद्राची गाज, पानांची सळसळ, पक्षांचा कलरव, कोकिळेचे कूजन, भ्रमराचे गूंजन हे जर शांतपणे ऐकले की असे लक्षात येते की या सर्वांमध्ये एक नाद, ताल, लय आहे, निबद्धता आहे, संगीत आहे.

मानवाच्या जीवनांत संगीत म्हणजे कंठातून उत्पन्न होणारे सुरांचे प्रकटीकरणगायन, स्वरवाद्यांतून उत्पन्न होणारे सादरीकरणस्वरवादन आणि पदन्यास व हस्तमुद्रांद्वारे केलेला भावनाविष्कार~नर्तन.

जीवनाचे हे तारू भवसागरांतून पार करीत असतांना प्रत्येक मानवाचे गायन, वादन, नर्तन चालूच असते.

टाळ वाजवत, लेझीमांच्या तालावर तोंडाने हरिनामाचा गजर करत आषाढी कार्तिकीला पंढरीला निघाले वारकरी नाचत  असतो. देवळांतून चालत असलेली भजन कीर्तने, आरत्या टाळ्या वाजवत गात असतो. मशीदीतून आलेली बांग,चर्चमधून घंटानाद आपण ऐकत असतो.

लग्न,मुंज,वाढदिवस,साठीसमारंभ,धार्मिक कृत्ये साजरी करतांना सनईसारखी मंगलवाद्ये असावीच लागतात.

गणपतीची अथवा इतर कोणत्याही विजयाच्या मिरवणूकीत ढोल ताशा हवाच.

माणसाला गजराबरोबरच शांतीचीही तितकीच आवश्यकता आहे. भरकटलेल्या, अशांत मनाला शांति मिळते ती स्वरांनीच. लतादिदींच्या मधूर लकेरीत, जसराजजींच्या मोहमयी आलापीत, किशोरीताईंच्या चपल तानेत, अनूप जलोटांच्या भजनांत, शोभा गुर्टूंच्या श्रृंगारीक दादरा/ठुमरीत, जगजित सिंग/पंकज ऊधास यांच्या गझलेत किंवा रवीशंकराच्या जादुभर्‍या सतारीत, अमजदअलींच्या सरोद वादनात अथवा शिवकुमार शर्मांच्या छेडलेल्या संतुराच्या तारांत ज्या दिव्य आनंदाचा लाभ होतो, मनःशांति मिळते ती अनुभूति शब्दांत वर्णिताच येत नाही.

स्वरलहरींचा प्रभाव किती विलक्षण आहे हे शास्त्रानेही मान्य केले आहे. अनेक व्याधींवर विविध रागांतील स्वर औषधांसारखे गुणकारी आहेत हे शास्त्राद्वारे मान्य झाले आहे.

सुलभ प्रसूतीसाठी अडाण्याचे झंझावाती स्वर फार परिणामकारक आहेत हे सिद्ध झाले आहे. आॅपरेशन थिएटरमध्ये बरेच डाॅक्टर आॅपरेशन चालले असताना मंद वाद्यसंगीत लावतात. आॅफीसेसमध्येही कामाचा ताण हलका करण्यासाठी आणि कार्यक्षमता वाढविण्यासाठी पार्श्वसंगीताचा उपयोग करण्याची प्रथा हळूहळू रुजू लागली आहे.

माणूसच काय पण पशुपक्षी व फुलापानांवरही संगीताचा पोषक प्रभाव पडू शकतो हे शास्त्रीय प्रयोगाने सिद्ध होत आहे.

संगीताविना जीवन नाही हेच खरे.

©  सुश्री अरूणा मुल्हेरकर

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 92 – नदी है विश्राम में…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता   ‘नदी है विश्राम में….। )

☆  तन्मय साहित्य  # 92  ☆

 ☆ नदी है विश्राम में…. ☆

नदी है विश्राम में

बहना हुआ है बंद

गीत का भटकन

विलोपित हो रहे हैं छन्द।

 

चिलचिलाती रेत

नौकाएँ हुई गुमसुम

अब न पूजा अर्चना

अक्षत कपूर कुमकुम,

आरती के स्वस्ति स्वर

होने लगे हैं मंद

गीत का भटकन……

 

मछलियाँ बेचैन

कछुए स्वयं में खोये

वन्य पशु-पक्षी तृषित

दृग अश्रु से धोये,

तटीय पौधे फूल पत्ते

हो रहे निर्गन्ध

गीत का भटकन

विलोपित हो रहे हैं छंद।

 

आग उगले सूर्य

चेहरे हो गए बदरंग

कैद दोपहरी घरों में

बदलते से ढंग,

सूर्य सागर अवनि में

नवसृजन के अनुबंध

गीत का भटकन

विलोपित हो रहे हैं छंद।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #75 – 13 – जिम कार्बेट से भोपाल ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. पर्यटन आपकी एक अभिरुचि है। इस सन्दर्भ में श्री अरुण डनायक जी हमारे  प्रबुद्ध पाठकों से अपनी कुमायूं यात्रा के संस्मरण साझा कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है  “कुमायूं  – 13 – जिम कार्बेट से भोपाल ”)

☆ यात्रा संस्मरण ☆ कुमायूं #76 – 13 – जिम कार्बेट से भोपाल ☆ 

जिस दिन हमें जिम कार्बेट , रामनगर से भोपाल के लिए वापस निकलना था, उस रोज मैं अकेला ही सडक के किनारे  घने जंगलों को निहारता हुआ,शुद्ध हवा को अपने फेफड़ों में भरते हुए कोसी नदी के किनारे- किनारे  जंगल के रास्ते गिर्जिया देवी के मंदिर तक का भ्रमण को निकल पडा । यह मेरा नेचर वाक था बिना किसी गाइड के । इस सड़क मार्ग में  जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान के सागौन के  जंगल एक ओर हैं तो सड़क के उस पार अल्मोडे से उद्गमित कोसी नदी कल-कल करती बहती है। रास्ते में झूला पुल है जो शायद सौ वर्ष से भी अधिक पुराना होगा। गिर्जिया देवी के विषय में जो जानकारी मैंने ग्रामीणों से जानी वह भी  कम रोमांचक नहीं है । यह स्थल इतना अच्छा था कि मैं सपिरवार वापसी के पूर्व इस स्थान पर पुन: आया ।

रामनगर से 10 कि०मी० की दूरी पर ढिकाला मार्ग पर गर्जिया  गाँव के पास कोसी  नदी के बीचों-बीच ही कहना चाहिए देवी का मंदिर है। गिर्जिया तो लगता है अपभ्रंश है हिम पुत्री गिरिजा का। देवी गिरिजा जो गिरिराज हिमालय की पुत्री तथा संसार के पालनहार भगवान शंकर की अर्द्धागिनी हैं, कोसी (कौशिकी) नदी के मध्य एक  ऊँचे टीले पर यह मंदिर स्थित है। अनेक दन्तकथाएं इस  स्थान  से जुडी हुई हैं । पूर्व में  इस मन्दिर विराजित  देवी को उपटा देवी (उपरद्यौं) के नाम से जाना जाता था । जनमानस की मान्यता हैं कि वर्तमान गर्जिया मंदिर जिस टीले में स्थित है, वह कोसी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपरी क्षेत्र से बहकर आ रहा था। मंदिर को टीले के साथ बहते हुये आता देख भैरव देव द्वारा उसे रोकने के प्रयास से कहा गया- ठहरो, बहन ठहरो, यहां पर मेरे साथ निवास करो, तभी से गर्जिया में देवी उपटा में निवास कर रही है। इस मन्दिर में मां गिरिजा देवी की शांति स्वरूपा मूर्ति है और श्रद्धालु उन्हें नारियल, लाल वस्त्र, सिन्दूर, धूप, दीप आदि चढ़ा कर मनोकामना पूर्ण होने का आशीर्वाद मांगते है ।  नव विवाहित स्त्रियां यहां पर आकर अटल सुहाग की कामना करती हैं। निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिये माता में चरणों में झोली फैलाते हैं। मनोकामना पूर्ण होने पर   श्रद्धालु घण्टी या छत्र चढ़ाते हैं ।

अगले दिन कार्तिक पूर्णिमा थी और इस पावन अवसर  पर माता गिरिजा देवी के दर्शनों एवं पतित पावनी कौशिकी (कोसी) नदी में स्नानार्थ भक्तों की भारी संख्या में भीड़ उमड़ने वाली थी । हमें तो वापस आना था सो नीचे बाबा भैरव की पूजा कर हम अपने गंतव्य की ओर चल दिए ।

जब जिम कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान से लौट रहे थे उसी दिन ख़बरें आ रही थी की उत्तराखंड के किसान भी आन्दोलन में शामिल होने दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं । हम दिल्ली पहुँचने को लेकर कुछ चिंतित हुए और हमारे वाहन चालक भी रास्ते भर अपने स्त्रोतों से स्थिति की जानकारी ले रहे थे और हमें चिंतामुक्त कर रहे थे । मोगा में एक ढाबे पर किसानों का हूजूम दिखा। वे सब उधमसिंह नगर उत्तराखंड से ट्रेक्टर पर दिल्ली जाने रवाना हुए हैं। रास्ते भर हमें कोई बीस ऐसे ट्रैक्टर दिखाई दिए जिनकी ट्राली काली त्रिपाल से ढकी थी और आगे काला झंडा लहरा रहा था। ट्रालियों में अंदर दस से पंद्रह हष्ट पुष्ट किसान बहुत अच्छे कपड़े पहने, हाथ में मंहगा मोबाइल लिए बैठे थे। मोगा के ढाबे में भी वे बढ़िया खाना खा रहे थे। मैंने उनसे चर्चा की तो बोले मोदीजी से मिलने जा रहे हैं। उन्हें मालूम है कि इस बिल से उन्हें क्या नुकसान होने वाला है। वे जानते हैं कि अगर देश के सेठों ने उनकी फसल का मूल्य नहीं चुकाया तो बिल पास होने के कारण उन्हें एसडीएम कोर्ट के चक्कर लगाने पड़ेंगे और प्रशासन कितनी ईमानदारी से गरीबों की बात सुनता है यह  हम सब जानते हैं। उन्हें भय है कि सरकार का अगला कदम एमएसपी हटाने का होगा और इसके लिए वे आंदोलन कर रहे हैं। सरदारजी कहते हैं कि क्या छोटा क्या बड़ा सभी किसानों की बरबादी इस बिल में छिपी हुई है।उधर दिल्ली बार्डर पर जब हम पहुंचे तो पुलिस बल तैनात था। पुलिस वैन और रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों को हमने कतार में देखा। खैर हम निर्विघिन्न हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पहुँच गए, पुत्री ने जोमेटो से खाना मंगाया, ट्रैन में बैठकर हम सबने रात्रि का भोजन व शयन  किया और जब नींद खुली तो स्वयं को भोपाल रेलवे स्टेशन  पर पाया ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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