☆ ‘कोरडा भवताल’ – श्री आनंदहरी ☆ परिचय – श्री रमेश नागेश सावंत☆
कवितासंग्रह – कोरडा भवताल
लेखक : आनंदहरी
प्रकाशक : प्रभा प्रकाशन, कणकवली
पृष्ठसंख्या : ८४
कोरडा भवताल —- जगण्याच्या मुळाशी भिडणारी कविता
कवी आनंदहरी यांच्या ‘ कोरडा भवताल’ या नव्या कवितासंग्रहातील कविता भवतालात घडणा-या घटितांवर लक्ष्यवेधी भाष्य करतात. आनंदहरी यांच्या संवेदनशील दृष्टीला जाणवलेले जगण्याचे भान त्यांच्या कवितांतून संयत भाषेत व्यक्त झाले असले तरी या कविता वाचकाच्या संवेदनशील मनाच्या तळाचा ठाव घेणा-या आहेत. ज्येष्ठ साहित्यिक आणि समीक्षक डॉ.गोविंद काजरेकर यांनी त्यांच्या विश्लेषक प्रस्तावनेत नमूद केले आहे की कवी आनंदहरी समकाळाची स्पंदने टिपण्यात यशस्वी झाले आहेत. आपला भवताल कोरडा असल्याची कवीची जाणीव ही अभावाची आहे आणि त्यामुळे त्यांच्या कवितेतून जगण्यातील अर्थशून्यता निदर्शनास येते. म्हणूनच सामान्य माणसाच्या जीवनसंघर्षाचा वेध घेणारी ही कविता वर्तमान काळाचा अवकाश व्यापून टाकणारी आहे. कवी आत्मनिष्ठ कवितेच्या दिशेने वाटचाल करत असताना त्याच्या कवितेचा सूर सामाजिक निष्ठेकडे वळलेला दिसून येतो. ‘मी साधेच शब्द लिहिले’ या पहिल्याच कवितेत अव्यक्त राहिलेल्या माणसांबद्दल कविला वाटणा-या सहसंवेदनेची ही जाणीव तीव्रतेने प्रकट झाली आहे.
“फक्त लागावा असा लळा
की ज्याला व्यक्त होता येत नाही त्याच्यासाठीच
माझ्या कवितेचे शब्द बोलत राहावेत
आयु्ष्यभर”
समकालीन मराठी कवितेत रुजलेला सामाजिक जाणिवेचा स्वर कवी आनंदहरी यांच्या कवितेतूनही प्रखरतेने उमटतो. ‘दिशा ‘ या कवितेत कविच्या सामाजिक अनुभूतीचे व्यामिश्र रंग उमटले आहेत.
भिरभिरलो दाहीदिशी आणि उतरलो धरेवर
सारा आसमंत कवेत घेऊन
आणखी कुणाच्याही दिशा
हरवून जाऊ नयेत म्हणून
कवीला त्याच्या आसपास दिसणा-या ‘ कोरड्या भवताला’ बद्दल वाटणारी संवेदना ‘आजचा काळ’, ‘वेदनेचे उठत राहतात तरंग’, ‘उपासमार’, ‘वासुदेव’, ‘मला माणूस म्हणू्न जगयाचंय’ या कवितांतून प्रकट झाली आहे. ‘आजचा काळ’ या कवितेतून कवीने सध्याच्या काळात मानवजातीवर घोंघावत असलेल्या असहिष्णुतेच्या वादळावर अतिशय मार्मिक शब्दांत आघात केला आहे.
वादळ कधीच करत नाही भेद
पाहत नाही रंग झाडापेडांचा, घरादाराचा आणि माणसांचाही
आजचा काळ असाच तर आहे असहिष्णुतेचा !
कोणत्याही कवीला शब्दांचा, प्रतिमांचा आणि प्रतिकांच प्रचंड सोस असतो. परंतु अल्प शब्दांत नेमक्या प्रतिमा वापरून आशयघन कवितेचे बिंब तयार करण्याचे कसब कवी आनंदहरी यांना जमले आहे. ‘ उपासमार ‘ या कवितेतून त्यांच्या काव्यगत प्रतिभेचे प्रत्यंतर येते.
तरीही मी राखलंय बियाणं शब्दांचं
रूजवू पाहतोय मनाच्या शेतात
निदान उद्या तरी डवरतील
शब्दांची कणसं
साध्या आणि सरळ भाषेत व्यक्त होतानाही मोठा आशय मांडणारी ही कविता थेट वाचकांच्या काळजालाच हात घालते. ‘ बांद’ या बोली भाषेत लिहिलेल्या गावरान बाजातल्या कवितेत ग्रामीण जीवनाचे चित्र कवीने आत्मीयतेने साकारले आहे. या कवितेतील ‘ बाप ‘ आणि ‘ आजा ‘ वाचकांना भावूक करून आठवणी चाळवणारा आहे.
आनंदहरी यांच्या कवितेची भाषा जितकी सहज, स्वाभाविक तितकीच त्यांची काव्यशैली देखील चिंतनशील प्रवृत्तीची आहे. त्यांच्या कविता जगण्याच्या मुळाशी भिडणा-या असून कविच्या भावना हळुवार शब्दांतून व्यक्त करतात. ‘ ऊनही आताशा’ या कवितेत एकीकडे निराशा आणि कोरडेपणा यांचे चित्रण करताना कविचा सूर भरपूर आशादायी असल्याचे जाणवते.
आशेची पाखरं
अवचितच झेपावतात आकाशात
आकाश पंखात घेण्यासाठी
रणरणत्या टळटळीत दुपारीही!
‘मला माणूस म्हणून जगायचं आहे’ या कवितेतून समाजातील दांभिक प्रवृत्तींचा वेध घेताना कवीने असामाजिक तत्वांवर शाब्दिक कोरडे ओढले आहेत. कवीचा आंतरिक आक्रोश हा जनमानसाचा प्रातिनिधिक आक्रोश आहे. सांप्रत काळात समाजमनावर पडलेला धर्माचा अतिरेकी प्रभाव आणि धर्माचे बदलते स्वरूप याबाबत कविने ‘ धर्म ‘ या कवितेतून प्रश्न उपस्थित केले आहेत. मुक्त छंदातील अशा सामाजिक भान प्रकट करणा-या कवितांबरोबरच ‘ मन वारकरी झाले’ , ‘ माझ्या देहाचे रे झाड’, ‘जन्म तुझा होता बाई’ , या अष्टाक्षरी कविता तसेच ‘ सुने झाले गाव’, ‘ दाटते मनात भय’, ‘लखलाभ तुम्हाला’ या गजला कविच्या बहुपेडी प्रतिभेची जाणीव करून देतात.
या कवितांतून सामाजिक जाणीव व्यक्त करताना कवीने स्त्रियांच्या व्यथा मांडण्याचे भानही जागृत ठेवले आहे. ‘ उसन्या अवसानाने ‘ आणि ‘ नि:शब्द कविता ‘ या कवितांतून पुरूषी अहंकाराची दासी झालेली आधुनिक स्त्री, ‘ ‘तोड’ या कवितेत दारि्द्यावर घाव घालणारी ग्रामीण स्त्री, आणि ‘ती म्हणाली, ‘ शेवटी तू ही पुरूषच’ , या कवितेतील मुक्तीसाठी आसुसलेली स्त्री, अशा स्त्रियांच्या नानाविध रूपांचे वेधक दर्शन कवी आनंदहरी यांनी घडविले आहे. या कवितासंग्रहातील कवितांचे स्वरूप आणि वैशिष्ट्ये पाहता समकालीन मराठी कवितेच्या क्षेत्रात कवी आनंदहरी यांच्या कवितेची योग्य दखल घेतली जाईल ही आशा बळावली आहे.
प्रस्तुति – श्री रमेश नागेश सावंत
मुंबई
संपर्क – 9821262767
≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवणअभिनवगीत – “लो सिमटने लग गईं….”। )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है हिंदी माह पर विशेष अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता ‘भाषा ’).
☆ कविता # 103 ☆ हिंदी माह विशेष – भाषा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक भावप्रवण कविता “# पितृपक्ष #”।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘’मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 106 ☆
☆ व्यंग्य – ‘मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास ☆
मैं अभी तक इस मुग़ालते में था कि भाववाचक संज्ञा का बहुवचन नहीं होता, लेकिन मरहूम यश चोपड़ा की फिल्म ‘मोहब्बतें’ का नाम सुनकर लगा कि शब्दों का हमारा ज्ञान बहुत सीमित है। अब आगे ऐसी फिल्में आएंगीं जिनके नाम ‘इश्कें’, ‘तबियतें’ और ‘नफरतें’ होंगे।
बहरहाल,आपसे गुफ्तगू करने का अपना मकसद कुछ और ही है। जो बात कुछ दिनों से शिद्दत से मुझे खल रही है वह यह है कि हमारे देश के विकास में योगदान देने वाले बहुत से तत्वों का ज़िक्र तो होता है, लेकिन एक ख़ास चीज़ जिसे पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाता है और जिसका हमारे देश की बहबूदी में अहम योगदान है, वह ‘मोहब्बत’ है। दूर क्यों जाएं, ताजमहल को लें, जिसने हिन्दुस्तान को दुनिया के नक्शे पर खड़ा किया और मुल्क के लिए करोड़ों रुपयों की कमाई का सिलसिला बनाया। ताजमहल के लिए सरकार का टूरिज़्म विभाग या पुरातत्व विभाग कितना भी क्रेडिट ले, लेकिन हकीकत यही है कि ताजमहल शाहजहाँ और मुमताज की पाक मोहब्बत का नतीजा है। इसलिए ताजमहल की वजह से देश की झोली में जो भी पैसा आ रहा है वह शुद्ध प्यार-मुहब्बत की कमाई है। न शाहजहाँ-मुमताज का प्यार परवान चढ़ता, न मुल्क के लिए स्थायी मोटी कमाई का ज़रिया बनता। मोहब्बत तुझको मेरा सलाम।
हिन्दुस्तानी फिल्में शुरू से ही प्यार- मोहब्बत की कमाई पर पलती रही हैं। प्यार- मोहब्बत ने फिल्मों को कितनी कमाई दी इसका लेखा-जोखा ज़रूरी है। तभी लोगों को पता चलेगा कि करोड़ों में खेलने वाले फिल्म उद्योग को उसकी वर्तमान ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मोहब्बतों का कितना बड़ा योगदान है।
पुरानी फिल्मों के हीरो प्यार को ही खाते- पीते और ओढ़ते-बिछाते थे। उन दिनों आशिक के बारह घंटे माशूक का मुँह देखने और बारह घंटे चाँद को घूरने में खर्च होते थे। प्यार का काम बहुत आराम और इत्मीनान से होता था। बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी, फटे कपड़े और चेहरे पर बदहवासी सच्चे आशिक के ट्रेडमार्क होते थे। उन दिनों के आशिक त्यागी और बेहद शरीफ होते थे। आजकल के आशिकों की तरह रकीब के पीछे बन्दूक लेकर नहीं पड़ जाते थे। प्रेमिका को कोई दूसरा डोली में बैठाकर ले जाता था और आशिक मियाँ, जंगल की ख़ाक छानते, विरह-गीत गाते रहते थे। यकीन न हो तो दिलीप कुमार की फिल्म ‘देवदास’ देख लीजिए।
बीच में फिल्मवालों को भ्रम हुआ कि मारपीट वाली फिल्में ज़्यादा चल सकती हैं, लेकिन उन्हें जल्दी ही अपनी गलती महसूस हो गयी और वे वापस प्यार-मोहब्बत की पुख्ता ज़मीन पर लौट आये। अब जितनी फिल्में बन रही हैं उनमें से तीन-चौथाई का ताल्लुक दिल के कारोबार से है। जो हीरो ‘मार्शल आर्ट’ में माहिर माने जाते थे वे आजकल नज़र का मोटा चश्मा लगाकर ‘आर्ट ऑफ लव’ के पन्ने पलट रहे हैं।
इस बात पर ग़ौर फरमाया जाए कि मोहब्बत शुरू से देश के विभिन्न महकमों को मज़बूत करने में अपना योगदान देती रही है। एक ज़माना था जब प्रेमपत्र कबूतरों के मार्फत भेजे जाते थे। तब कबूतरों का कारोबार अच्छा ख़ासा पनपता होगा। मेरी दृष्टि में प्रेमपत्र की डिलीवरी के मामले में कबूतर, पोस्टमैन या टेलीफोन से ज़्यादा भरोसेमन्द होता है क्योंकि वह हमेशा महबूबा के कंधे पर बैठता रहा है, पोस्टमैन की तरह उसने कभी महबूबा के वालिद या अम्माँ के हाथ में ख़त नहीं सौंपा। कई पोस्टमैन तो रकीबों को ख़त सौंप देते हैं।
जब डाक का ज़माना आया तब प्रेमपत्रों ने डाकतार विभाग को काफी काम मुहैया कराया। कागज़ और रोशनाई की बिक्री भी इश्क की बदौलत काफी बढ़ी क्योंकि ख़त बीस बीस पेज के लिखे जाते थे और उनमें काफी स्याही खर्च होती थी। कई आशिक लाल स्याही से ख़त लिखते थे और डींग मारते थे कि ‘ख़त लिख रहा हूँ ख़ून से, स्याही न समझना।’ उन दिनों आशिक- माशूक काफी रोमांटिक और नाजुक होते थे। आहें भरने, तारे गिनने और ख़त लिखने में काफी वक्त ज़ाया होता था। उन दिनों वाहनों का चलन कम था, प्रेमपत्रों को ढोने का काम पैदल ही होता था। यह कल्पना सिहराने वाली है कि कंधे पर प्रेमपत्र ढोने वाले पोस्टमैनों की हालत कैसी होती होगी।
अब टेलीफोन और इंटरनेट के कारोबार में भी इश्क अपना भरपूर योगदान दे रहा है। देश में मोबाइल का उत्पादन और उसकी खपत तेज़ी से बढ़ी है। इसमें प्रेमियों का कितना योगदान है यह अध्ययन का विषय है। मोबाइल के आने से प्रेमियों का सरदर्द ज़रूर कम हुआ है। लैंडलाइन के ज़माने में जब महबूब का प्रेम-सन्देश आता था तभी बगल के कमरे में पिताजी दूसरा चोंगा उठाकर सारी गुफ्तगू सुन लेते थे, भले ही वह उनके सुनने लायक न रही हो।
तब टेलीफोन-बूथ वाले, आशिकों के इंतज़ार में आँखें बिछाये रहते थे क्योंकि वे लंबी बात करते थे और कभी हिसाब देखने की घटिया बात नहीं करते थे। किसी पब्लिक टेलीफोन-बूथ में आशिक का प्रवेश हो जाए तो बाहर खड़े लोगों की इंतज़ार करते करते हालत ख़राब हो जाती थी।
यह खुशी की बात है कि प्रेम में निहित संभावनाओं पर लोगों की नज़र जाने लगी है। जिस देश में प्यार-व्यार को तिरछी नज़र से देखा जाता था उसमें ‘वेलेंटाइन डे’ मनाया जाने लगा है, यद्यपि अभी भी दकियानूसी लोग आशिक- माशूकों को खुलेआम प्यार का इज़हार करते देख मारपीट पर उतर आते हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से अभी ‘डेटिंग’ जैसी प्रथा शुरू नहीं हो पायी है। सरकार को चाहिए कि प्यार के इन दुश्मनों से सख्ती से निपटे ताकि प्यार बन्द कमरों से निकल कर खुली हवा में साँस ले सके।
मेरा सुझाव है कि प्यार की एक वेबसाइट बनायी जानी चाहिए जिसमें मुल्क के जाँबाज़ आशिक-माशूकों के बारे में तफ़सील से जानकारी हो। अभी कितने लोगों को मालूम है कि लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, शीरीं-फ़रहाद, सोहनी- महिवाल और सस्सी-पुन्नू किस देश के और किस जाति के थे, और इश्क के अलावा वे और क्या कारोबार करते थे?इस वेबसाइट में उन सभी जगहों का अता-पता होना चाहिए जो प्यार के लिए आदर्श हैं, जहाँ प्यार के मार्ग में कोई रोड़े नहीं हैं और जहाँ प्यार को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उपयुक्त वातावरण है।
सरकार को भी चाहिए कि वह प्यार में छिपी व्यापार की असीम संभावनाओं को पहचाने और प्यार करने वालों को वे सभी सुविधाएँ मुहैया कराए जिनके वे हकदार हैं। प्यार करने वालों के लिए ऐसी जगहों पर ख़ास होटल और रेस्ट-हाउस बनाए जाने चाहिए जहाँ की ज़मीन प्यार के हिसाब से मौजूँ है। अभी तो मुंबई में प्यार करने वाले जोड़ों को पुलिस मैरिन-ड्राइव से खदेड़ रही है, जिस पर मैं अपना सख़्त एतराज़ दर्ज़ कराना चाहता हूँ।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 105 ☆ समुद्र मंथन ☆
स्वर्ग की स्थिति ऐसी हो चुकी थी जैसे पतझड़ में वन की। सारा ऐश्वर्य जाता रहा। महर्षि दुर्वासा के श्राप से अकल्पित घट चुका था। निराश देवता भगवान विष्णु के पास पहुँचे। भगवान ने समुद्र की थाह लेने का सुझाव दिया। समुद्र में छिपे रत्नों की ओर संकेत किया। तय हुआ कि सुर-असुर मिलकर समुद्र मथेंगे।
मदरांचल पर्वत की मथानी बनी और नागराज वासुकि बने रस्सी या नेती। मंथन आरम्भ हुआ। ज्यों-ज्यों गति बढ़ी, घर्षण बढ़ा, कल्पनातीत घटने की संभावना और आशंका भी बढ़ी।
मंथन के चरम पर अंधेरा छाने लगा और जो पहला पदार्थ बाहर निकला, वह था, कालकूट विष। ऐसा घोर हलाहल जिसके दर्शन भर से मृत्यु का आभास हो। जिसका वास नासिका तक पहुँच जाए तो श्वास बंद पड़ने में समय न लगे। हलाहल से उपजे हाहाकार का समाधान किया महादेव ने और कालकूट को अपने कंठ में वरण कर लिया। जगत की देह नीली पड़ने से बचाने के लिए शिव, नीलकंठ हो गए।
समुद्र मंथन में कुल चौदह रत्न प्राप्त हुए। संहारक कालकूट के बाद पयस्विनी कामधेनु, मन की गति से दौड़ सकनेवाला उच्चैश्रवा अश्व, विवेक का स्वामी ऐरावत हाथी, विकारहर्ता कौस्तुभ मणि, सर्व फलदायी कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, मदिरा की जननी वारुणी, शीतल प्रभा का स्वामी चंद्रमा, श्रांत को विश्रांति देनेवाला पारिजात, अनहद नाद का पांचजन्य शंख, आधि-व्याधि के चिकित्सक भगवान धन्वंतरि और उनके हाथों में अमृत कलश।
अमृत पाने के लिए दोनों पक्षों में तलवारें खिंच गईं। अंतत: नारायण को मोहिनी का रूप धारण कर दैत्यों को भरमाना पड़ा और अराजकता शाश्वत नहीं हो पाई।
समुद्र मंथन की फलश्रुति के क्रम पर विचार करें। हलाहल से आरंभ हुई यात्रा अमृत कलश पर जाकर समाप्त हुई। यह नश्वर से ईश्वर की यात्रा है। इसीलिए कहा गया है, ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’
अमृत प्रश्न है कि क्या समुद्र मंथन क्या एक बार ही हुआ था? फिर ये नित, निरंतर, अखण्डित रूप से मन में जो मथा जा रहा है, वह क्या है? विष भी अपना, अमृत भी अपना! राक्षस भी भीतर, देवता भी भीतर!… और मोहिनी बनकर जग को भरमाये रखने की चाह भी भीतर !
अपनी कविता की पंक्तियाँ स्मरण आती हैं-
इस ओर असुर/ उस ओर भी असुर ही / न मंदराचल / न वासुकि / तब भी-/ रोज़ मथता हूँ / मन का सागर…/ जाने कितने/ हलाहल निकले/ एक बूँद/ अमृत की चाह में..!
इस एक बूँद की चाह ही मनुष्यता का प्राण है। यह चाह अमरत्व प्राप्त करे।…तथास्तु!
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆