हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#129 ☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता “कितना चढ़ा उधार…”)

☆  तन्मय साहित्य  #129 ☆

☆ कविता – कितना चढ़ा उधार… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

एक अकेली नदी

उम्मीदें

इस पर टिकी हजार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

नहरों ने अधिकार समझ कर

आधा हिस्सा खींच लिया

स्वहित साधते उद्योगों ने

असीमित नीर उलीच लिया

दूर किनारे हुए

झाँकती रेत, बीच मँझधार।

नदी खुद…..

 

सूरज औ’ बादल ने मिलकर

सूझबूझ से भरी तिजोरी

प्यासे कंठ धरा अकुलाती

कृषकों को भी राहत कोरी

मुरझाती फसलें,

खेतों में पड़ने लगी दरार।

नदी खुद……

 

इतने हिस्से हुए नदी के

फिर भी जनहित में जिंदा है

उपकृत किए जा रही हमको

सचमुच ही हम शर्मिंदा हैं

कब उऋण होंगे

हम पर है कितना चढ़ा उधार

नदी खुद होने लगी बीमार।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 24 ☆ कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक बुंदेली गीत  “बसन्त आऔ”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 24 ✒️

?  कविता – बुन्देली गीत – बसन्त आऔ — डॉ. सलमा जमाल ?

बसन्त आओ बसन्त आओ,

भरकैं टुकनिया फूल लाऔ ।

खुसी मनातीं नई नवेली ,

परदेस सें संदेसो आऔ ।।

 

खेतन में है सरसों फूलो ,

अमराई पे डर गऔ झूलो ,

मंजरी चहूं दिशा मेहकाबे ,

कोयल ने पंचम सुर घोलो ,

बेला बखरी में है फूलो ,

धरती पे स्वर्ग उतर आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

चारऊं ओर महकत है पवन ,

है सोभा मधुमास अनन्त ,

बखरी ओ वन में बगरो बसन्त ,

पल में महक उठे दिगदिगंत ,

सब रे पच्छी करत हैंकलरव,

गुनगुन करत जो भौंरा आऔ ।

बसन्त ———————- ।।

 

जंगल में फैली है खुसहाली ,

सुखी भऔ बगिया कौ माली,

धरा की सुन्दर छटा अनोखी ,

झूमत रस में डाली – डाली ,

लरका खेलत दै – दै ताली ,

‘सलमा ‘ पतझर खौ मौं चिढ़ाऔ।

बसन्त ———————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 106 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ कथा-कहानी # 106 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 17 – झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)

अथ श्री पाण्डे कथा (17)  

झाँसी गरे की फाँसी, दतिया गरे को हार।

ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार।।

इस बुन्देली लोकोक्ति के  शाब्दिक अर्थ का अंदाज तो पढने से ही लग जाता है। आप यह भी कह सकते हैं कि झांसी गले की फाँसी इसलिए है क्योंकि वहाँ के लोगो का स्वभाव गड़बड़ है और दतिया के लोग प्रेमी और मिलनसार है इसलिए यह कस्बा लोगों को उसी प्रकार प्रिय है जैसे गले में हार। हार का तात्पर्य नौलखा से ही है यह न मानियेगा कि शिव के गले का हार है। और ललितपुर के व्यापारियों के क्या कहने वे तो ग्राहकों को मनचाहा सामान उधार थमा देते हैं. इस लोकोक्ति से एक बात तो साफ़ है प्रेमी जनों  और मिलनसारिता की प्रसंशा युगों युगों से होतो आई है और अगर उधार सामान मिलता रहे तो ऐसे शहर में लोग न केवल बसना पसंद करते हैं वरन उसे छोड़कर जाना भी नहीं चाहते. दूसरी बात चार्वाक का सिद्धांत माननेवाले भले चाहे कम हों लेकिन कहावतों और लोकोक्तियों में भी “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत” ने यथोचित स्थान बुंदेलखंड के पथरीले प्रदेश में बना ही लिया था। एक बात और बैंकिंग प्रणाली के तहत भारत में वैयक्तिक उद्देश्य जैसे ग्रह निर्माण ऋण, पर्सनल लोन आदि का चलन तो तो पिछले 20 वर्षों से बढ़ा है पर बुंदेलखंड में शायद यह सदियों पुराना है ।

इस बुन्देली लोकोक्ति को मैंने असंख्य बार असंख्य लोगों से सुना होगा। यह इतनी प्रसिद्ध व व्यापक है कि हिंदी के विख्यात कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा के प्रथम खंड क्या भूलू क्या याद करूँ में इसका न केवल उल्लेख किया है वरन  झांसी गले की फाँसी है इसे सिद्ध करने आप बीती दो चार अप्रिय घटनाओं का वर्णन भी खूब  किया है, बच्चन जी दतिया गए नहीं, सो उन्होंने यह तो नहीं बताया कि दतिया गले का हार क्यों है पर ललितपुर में उधार खूब मिलता था इसका जिक्र उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में पितामह की ललितपुर से प्रयाग वापिसी को याद कर जरूर किया है ।

यह लोकोक्ति अपने आप में ऐतिहासिक सन्दर्भों को समेटे हुए हैं। बुंदेलखंड का बड़ा भूभाग बुन्देला शासकों के आधीन रहा हैं। मुगलकालीन भारत में दतिया के बुंदेला राजा मुग़ल बादशाह के मनसबदार रहे हैं । दतिया के राजाओं की मुगल बादशाह के प्रति निष्ठा थी अतः दतिया पर बाहरी आक्रमण नहीं होते थे । दतिया के राजा  मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते। युद्ध में वे अपने साथ क्षेत्रीय निवासियों को भी सैनिक के रूप में ले जाते, यह सैन्य बल प्राय निम्न वर्ग से आता और इस प्रकार निम्न वर्ग को अतिरिक्त आमदनी होती। राजा महाराजा अपने सैनिकों को लेकर मुग़ल सेना के साथ युद्ध में जाते और विजयी होने पर इनाम इकराम से नवाजे जाते ।युद्ध में कमाए इसी धन से वे अपनी रियासतों में महलों, मंदिरों, बावडियों, तालाबों आदि का निर्माण कराते । इसके फलस्वरूप दतिया जैसे छोटे कस्बेनुमा स्थानों में लुहार, बढई, कारीगार आदि आ बसे होंगे और उनकी आमदनी से व्यापार आदि फैला होगा और यही दतिया की खुशहाली का कारण बन दतिया गरे का हार लोकोक्ति की उत्पति का कारण बन गया होगा।

दतिया के उलट ललितपुर तो पथरीला क्षेत्र है फिर वह नगर आकर्षक व प्रिय क्यों है ।शायद बंजर जमीन जहाँ साल में एक फसल हो और वनाच्छादित होने के कारण स्थानीय निवासियों की आमदनी साल में एक बार ही होने के कारण व्यापारियों ने अपना माल बेचने की गरज से उधार लेनदेन की परम्परा को पुष्ट किया होगा। उधार देने और उसकी वसूली में निपुण जैन समाज के लोग बुंदेलखंड में खूब बसे और फले फूले  और इस प्रकार “ललितपुर कबहूँ न छोडिये जब लौ मिले उधार” लोकोक्ती बन गई।

पर झाँसी गरे की फाँसी कैसे हो गई और अगर सचमुच झाँसी के लोग इतने बिगडैल स्वभाव के हैं तो इस शहर का तो नाम ही ख़त्म हो जाना था। शायद 1732 के आसपास मराठों का बुंदेलखंड में प्रवेश हुआ और झाँसी का क्षेत्र पन्ना नरेश छत्रसाल के द्वारा बाजीराव पेशवा को दे दिया गया । मराठे चौथ वसूली में बड़ी कड़ाई करते थे और झांसी के आसपास के रजवाड़ों में भी आम जनता को परेशान करते तो शायद इसी से झांसी गरे की फाँसी लोकोक्ती निकली होगी।प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने झाँसी में अपना अधिकारी नियुक्त किया। उस समय झाँसी एक लुटा पिटा वेचिराग शहर था। जनरल रोज ने जो क़त्ल-ए-आम किया था, उसमें हजारों लोग मारे गए थे। जो लोग किसी तरह बच गए, उन्होंने दतिया में शरण ले ली थी। वो इतने डरे हुए थे कि झांसी का नाम सुनते ही काँप जाते थे। जब कभी उनके सामने झांसी का जिक्र आता तो वे बस यही कहते “झांसी गले की फांसी, दतिया गले का हार”। जब अंग्रेजों से झांसी का राज्य नहीं सम्भला तो उन्होंने उसे सिंधिया को सौंप दिया। सिंधिया ने झांसी को फिर से बसाने में बड़ी मेहनत की। उसने लोगों का विश्वास जीतने के लिए अनेकों जनहित के कार्य किये, तब कहीं धीरे-धीरे लोगों का विश्वास सिंधिया पर हुआ और वे झांसी में बसने लगे और झासी में रौनक लौटने लगी। स्थिति के सामान्य होते ही अंग्रेजों की नियत पलट गई और उन्होंने सिंधिया पर झांसी को वापिस करने का दबाव डालना शुरू कर दिया। अंत में अंग्रेजों की दोस्ती और सद्भावना के नाम पर सिंधिया ने झांसी का राज्य अंग्रेजों को दे दिया, इसके बदले सिंधिया को ग्वालियर का किला वापिस मिला।

इन सब घटनाओं ने इस लोकोक्ति को जन्म दिया। जो कुछ भी कहानी हो बुंदेलखंड के लोग अपने अपने क्षेत्र गाँव कस्बे की तारीफ़ ऐसी ही कहावतों से करते हैं और अन्य कस्बों के लोगों का मजा लेते हैं।

क्रमश:…

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)   

☆ कथा कहानी # 29 – स्वर्ण पदक 🥇 – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

स्वर्ण कांत के सफलता के इन सोपानों के बीच जहां उनकी राजधानी एक्सप्रेस अपने नाम के अनुसार आगे बढ़ रही थी, वहीं रजतकांत की शताब्दी सुपरफॉस्ट ट्रेन अलग रूट पर दौड़ रही थी, यहाँ आगे आगे भागतीे हॉकी की बाल पर कब्जा कर अपनी कुशल ड्रिबलिंग से आगे बढ़ते हुये रजतकांत स्नातक की डिग्री के बल पर नहीं बल्कि हॉकी पर अपनी मजबूत पकड़ के चलते इंडियन रेल्वे में स्पोर्ट्स कोटे में सिलेक्ट हो गये थे और फिर बहुत जल्दी रेल्वे की हॉकी टीम के कैप्टन बन चुके थे.

जैसे जैसे उनके खेल और कप्तानी में तरक्की होती गई, रेल्वे से मिलने वाली सुविधा और प्रमोशन में भी वृद्धि होती गई.हॉकी की टीम इंडिया में भी वे स्थायी सदस्य बन गये और हॉकी ने क्रिकेट के मुकाबले लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय स्तर का सितारा बना दिया.

हाकी इंडिया नेशनल चैम्पियनशिप का आयोजन इस बार संयोग से विशालनगर में ही आयोजित होना निश्चित हुआ जहां स्वर्णकांत पदस्थ थे. रजत जहां भाई से मिलने का अवसर पाकर खुश थे वहीं स्वर्ण कांत न केवल बैंक की समस्याओं में उलझे थे बल्कि शाखा स्टॉफ से तालमेल न होने से भी परेशान थे. स्टॉफ उन्हें “स्वयंकांत” के नाम से जानने लगा था क्योंकि हर उपलब्धि सिर्फ स्वयं के कारण हुई मानकर वे इसे अपने नाम करने की प्रवृति से पूर्णतः संक्रमित हो चुके थे और non achievements के कई कारण, उन्होंने अपनी समझ से अपने नियंत्रक को समझाना चाहा जिसमें lack of sincerity and devotion by staff भी एक कारण था. पर नियंत्रक समझदार, परिपक्व और शाखा की उपलब्धियों के इतिहास से वाकिफ थे. उन्होंने स्वर्णकांत को कुशल प्रबंधकीय शैली में अच्छी तरह से समझा दिया था कि जो और जैसा स्टॉफ ब्रांच में मौजूद है, वही पिछले टीमलीडर के साथ मिलकर, झंडे गाड़ रहा था. Previous incumbent has tuned this branch so smoothly to attain the goal that industrial relations of this branch have become an example to tell others. पर ये सारी टर्मिनालॉजी और प्रवचन, स्वयंकांत प्रशिक्षण के दौरान सुनने के बाद विस्मृत कर चुके थे और संयोगवश अभी तक इनकी जरूरत भी नहीं पड़ी थी.

पराक्रम कथा जारी रहेगी.   क्रमशः …

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 129 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 129 ?

☆ गझल… ☆

शुद्ध पाण्या सोबतीही गाळ आला होता

चांगल्या मित्रा,तुझ्यावर आळ आला होता

 

चालताना थांबले मी त्या तिथे एकांती

ओळखीचा तो सुरंगी माळ आला होता

 

सातबारा दावला मी शेत होते माझे

बांगड्या भरण्यास की वैराळ आला होता

 

मर्द माझ्या मावळ्यांचे भाट गाती गाणे

झुंजले शर्थीत तेव्हा काळ आला होता

 

चौकटी मोडाच सा-या या ठिकाणी येण्या

विसरुनी जाऊ इथे चांडाळ आला होता

© प्रभा सोनवणे

२२ एप्रिल २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २१ – भाग ४ – कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग ४ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कॅनडा ऽ ऽ  राजा सौंदर्याचा ✈️

मॉन्ट्रियलहून साडेचार तासांचा विमान प्रवास करून कॅनडाच्या पश्चिम भागात पोहोचलो. कॅलगरी एअरपोर्टपासून बांफपर्यंतचा  प्रवास नयनरम्य होता. आमच्या बसची ड्रायव्हर गाइडचे कामही करत होती. ती उंचनिंच, धिप्पाड आणि बोलकी होती. भरभरून माहिती देत होती. जुन्या काळातील देखणी घरे,  भोवतीच्या सुबक बागा, कारंजी, पुतळे यांनी कॅलगरी सजली होती. दारं- खिडक्या बंद करून निवांतपणे हे बंगले बसले होते. आत्ममग्न, उच्चभ्रू लोकांचे हे शहर असावे.कॅलगरी विमानतळापासून ‘बो’ नदीचीसाथ लाभली. रॉकी माउंटन्समधून उगम पावलेली बो नदी कॅलगरीमधून वाहते. तिच्या काठावरून जॉगिंग, सायकलिंग, स्केटिंगसाठी सुंदर मार्ग आहेत. फळाफुलांनी भरलेल्या बागांतून लोकं सहकुटुंब पिकनिकचा आनंद घेत होते. नदीच्या स्वच्छ, नितळ पाण्यातून कयाकिंग, राफ्टिंग करत होते. काठावरून मासे पकडण्याचा छंद जोपासत होते. ही नदी ट्राउट माशांसाठी ओळखली जाते.

कॅलगरीमध्ये दरवर्षी जुलै महिन्यात ‘स्टम्पेड’ हा दहा दिवस चालणारा  रोडिओ शो होतो. १९१२ पासून चालू असलेला हा उत्सव म्हणजे पाश्चिमात्य परंपरा व स्थानिक इतिहास यांचे मिश्रण आहे.’ ग्रेटेस्ट आऊटडोअर शो ऑन दी अर्थ’ असे त्याचे वर्णन केले जाते. जगभरातून जवळजवळ दहा लाख पर्यटक वेगवेगळे काउबॉय स्टाईल शो बघायला येतात. घोड्यांची रेस (डर्बी ),स्टम्पेड परेड, काऊबॉयच्या वेशातील फ्लोटस्,बॅ॑डस्,  म्युझिक, लोकसंगीताच्या तालावरील नृत्य असा सारा माहोल असतो. बियर फेस्टिवलपासून स्वीट कॉर्न फेस्टिवल, बेबी ॲनिमल फेस्टिवल साऱ्याचा जल्लोष असतो.

कॅलगरीमधील जुन्या दगडी इमारती तसेच आधुनिक टॉवर्स शेजारच्या इमारतींना भुयारी रस्त्याने किंवा छोट्या ब्रिजने एकमेकांना जोडलेल्या आहेत. नोव्हेंबरपासून पुढे पाच- सहा महिने इथली थंडी वाढत जाते. दुपारी तीन वाजताच काळोख होतो. सतत ढगाळ हवामान व काळोख यामुळे पूर्वी लोकं निराश, अनुत्साही होत. अति थंडीमुळे बाहेर पडायची सोय नव्हती. तेंव्हा रोजचे व्यवहार अडू नयेत म्हणून अशा पद्धतीने बिल्डिंगज् जोडल्यामुळे लोकांना खरेदीला,  रेस्टॉरंट्समध्ये जाता येते. एवढेच नाही तर एके ठिकाणी काचेच्या बंद दरवाजाआड सुंदर बाग उभी केली आहे. तिथे एकत्र येऊन लोक चहा-कॉफी, नाश्ता, मनोरंजन यांचा आस्वाद घेऊ शकतात. आता तर सर्वत्र आधुनिक सोयीसुविधा व दिवाळीसारखी रोषणाई, थंडीतले खेळ, स्पर्धा चालू असतात.

कॅलगरीपासून जगप्रसिद्ध रॉकी माउंटनसचे  दर्शन सुरू होते. युनेस्कोने या पर्वतरांगांना वर्ल्ड हेरिटेज साइटचा दर्जा दिला आहे. रॉकी माउंटनस ही पर्वतांची रांग म्हणजे सौंदर्याची खाण आहे. फिओर्डस, नद्या, सरोवरे, पर्वत उतारावरील सूचीपर्ण वृक्ष, औषधी गरम पाण्याचे झरे, ग्लेशिअर्सच्या बर्फाळ सौंदर्याचा खजिना, ग्लेशिअर्सच्या पाण्याने बनलेली पोपटी, हिरवी सरोवरे सारे स्वप्नवत सुंदर, डोळे आणि मन निववणारे आहे.मोकळ्या आकाशाच्या भव्य घुमटामधला एखादा झळझळीत नीळा तुकडा नीलण्यासारखा या सौंदर्यावर सरताज चढवितो.

बांफ हे कॅनडातील सर्वात उंचावर( ४५३७ फूट ) वसलेले छोटेसे सुंदर शहर आहे. बांफ इथे १८८५ साली कॅनडातील पहिल्या नॅशनल पार्कची स्थापना करण्यात आली. इथली नॅशनल पार्कची संकल्पना म्हणजे पर्वत, नद्या, सरोवरे, जंगले यांनी वेढलेला खूप मोठा प्रभाग!   यात एखादे छोटेसे शहर वसविलेले असते. या सर्व प्रभागाच्या पर्यावरण रक्षणाची जबाबदारी तेथील नागरिकांवर  असते. नैसर्गिक सौंदर्याला बाधा न येता तिथल्या तांत्रिक सोयीसुविधा उभारण्याकडे लक्ष दिले जाते. देवाघरचे हे अनाघ्रात सौंदर्य जपले जाईल हे कटाक्षाने पाहिले जाते.

सकाळी उठून जवळपास फेरफटका मारला. खळाळून वाहणाऱ्या बो नदीवरील ब्रिजवरून सभोवतालचे बर्फाच्छादित डोंगर व दाट पाईन वृक्ष देखण्या चित्रासारखे दिसत होते. नंतर गंडोला राईडने सल्फर माऊंटनच्या शिखरावर अलगद पोहोचलो. खोल दरीतल्या उंच वृक्षांच्या माथ्यावरुन जाताना खालची बो नदी एखाद्या पांढऱ्या रेघेसारखी दिसत होती. सभोवतालची हिमाच्छादित पर्वतशिखरे, त्यातून कोसळणारे पांढरेशुभ्र धबधबे बघून ‘कड्याकपारीमधोनी घट फुटती  दुधाचे ‘ या बा. भ. बोरकर यांच्या कवितेची आठवण झाली. अपंग आणि वृद्ध यांच्यासाठी असलेल्या विशेष सोयी- सुविधा आणि आधुनिक तंत्रज्ञान यामुळे सर्वांना या निसर्गसौंदर्याचा विनासायास आस्वाद घेता येतो. पर्वतावरून खाली खोल दरीतले  छोटेसे बांफ शहर दिसत होते. खालच्या लेकमध्ये प्रवाशांना घेऊन फिरणाऱ्या क्रूज दिसत होत्या.

गंडोलाने* सल्फर माउंटनवर पोहोचल्यावर पर्वताच्या टोकापर्यंत जायला एक सुंदर पायवाट होती. थोड्याच वेळात पाऊस सुरू झाला. थंडी वाढली आणि आम्ही परतीचा मार्ग धरला. नंतर बो नदीतून कोसळणार्‍या धबधब्यांवर गेलो.  तिथल्या भल्या मोठ्या बागेत लोकं निवांतपणे वाचत बसले होते.

बांफवरून जास्पर इथे जायचे होते. बांफ, लेक लुईसा आणि जास्पर ही रॉकी पर्वतांमधील सर्वात निसर्गरम्य ठिकाणे आहेत. अतिशय देखण्या अशा अशा लेक लुईसाचे नामकरण क्वीन व्हिक्टोरियाच्या मुलीच्या नावावरून केले आहे. त्या सभोवतालची बर्फाच्छादित पर्वतराजी व त्यावरील ग्लेशियर माउंट व्हिक्टोरिया व व्हिक्टोरिया ग्लेशियर म्हणून ओळखले जाते.( मला वाटतं क्वीन व्हिक्टोरिया हिला खऱ्या अर्थाने  साम्राज्ञी म्हटले पाहिजे. जगाच्या पाठीवरील अनेक देशांमध्ये, अगदी कॅनडापासून ऑस्ट्रेलियापर्यंत तिची नाममुद्रा पर्वत, धबधबा,बागा , रेल्वेस्टेशन पासून घोडागाडीपर्यंत उमटलेली आहे. ) लेक लुईसा समुद्रसपाटीपासून ५६८० फूट उंचीवर आहे. व्हिक्टोरिया ग्लेशियरचे तुकडे पर्वतावरून घसरताना त्यांनी आपल्याबरोबर तांबे, ॲल्युमिनियम अशा प्रकारची खनिजेही आणली. त्या खनिज कणांमुळे झालेला या सरोवराचा अपारदर्शी , झळझळीत पोपटी निळसर रंग नजर खिळवून  ठेवतो. सभोवतालच्या बर्फाच्छादित पर्वतरांगांचं प्रतिबिंब सामावून घेऊन लुईसा लेक शांतपणे पहुडला होता.कनोई म्हणजे लांबट होडीतून आपण या लेकची सफर करू शकतो किंवा गंडोलामधून जाऊन लेकचे विहंगम दृश्य पाहू शकतो.

जास्परला जायला घाटातला वळणदार रस्ता होता. मध्येच पाऊस हजेरी लावून जात होता. दुतर्फा बर्फाचे मुकुट घातलेली पर्वत शिखरे , त्यातून उड्या मारणारे धबधबे, पर्वतांच्या अंगावरील बर्फाच्या शुभ्र माळा आणि पर्वतपायथ्यापर्यंत अल्पाइन वृक्षांची अभेद्य काळपट हिरवी भिंत होती. वर्षानुवर्षे  पर्वतांवरून बर्फ, पाणी वाहत असल्यामुळे काही ठिकाणी पर्वतांचे आकार एखाद्या किल्ल्याच्या तटासारखे, अजिंठा- वेरूळच्या डोंगरांसारखे दिसत होते. लेक लुईसाच्या परिसरात कॅराव्हॅन कॅ॑पिंगसाठी तळ उभारलेले आहेत. अनेकजण या रम्य मार्गाची सफर सायकलवरून करीत होते. रस्त्याच्याकडेची जांभळी, पिवळी रानफुले, निळे- पांढरे गवत तुरे माना डोलावत स्वागत करीत होते. कोसळणाऱ्या धबधब्यांच्या, वाऱ्याबरोबर येणाऱ्या तुषारांनी  ती रानफुले स्नानाचा आनंद घेत होती.

वळणा-वळणांचा चढत जाणारा रस्ता माऊंट अथाबास्कापर्यंत जातो. आमच्या बसमधून उतरून तिथल्या बसने पर्वताच्या माथ्यावर गेलो. तिथे पुन्हा बस बदलली. सहा प्रचंड मोठे दणकट रबरी टायर असलेल्या लांबलचक आइस एक्स्प्लोरर स्नो कोच मधून  कोलंबिया आइस फिल्डवर गेलो. आठ ग्लेशियर्सचा मिळून बनलेला कोलंबिया आइसफील्डचा  विस्तार ३५ चौरस किलोमीटर एवढा प्रचंड आहे. आर्किक्ट सर्कलचा हा सर्वात दक्षिणेकडील भाग समजला जातो. आइसफिल्डशी पोचेपर्यंतचा रस्ता चढ-उताराचा, मध्येच पाण्यातून जाणारा होता. शेजारून बर्फाचा झरा वाहत होता. बसच्या खिडक्यांमधून आणि बसच्या डोक्यावरच्या काचेच्या छतातून स्वच्छ आभाळातला सूर्य, तांबूस पांढरे ढग आणि आजूबाजूचे लांबवर पसरलेले बर्फच बर्फ दिसत होते. बस चालविणारी सुंदर तरुणी तिथल्या गमतीजमती सांगत मजा आणत होती. बर्फातच गाडी थांबली.धीर करून त्या बर्फावर थोडेसे चालण्याचा पराक्रम केला. बर्फावरून घसरण्याची भीती वाटत होती. खूप थंड वारे होते तरी फोटो काढण्याचा उत्साह होता.

कॅनडा भाग ४ समाप्त

 * विजेच्या तारांवरून जाणारी पाळण्यासारखी छोटी केबिन. त्याला तिकडे गंडोला म्हणतात, पण त्याला केबल कार म्हणतो

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 153 ☆ आलेख – सुख क्या है? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  सुख क्या है?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 153 ☆

? आलेख  – सुख क्या है? ?

हम सब सदैव सुख प्राप्ति का प्रयत्न करते रहते हैं। सभी चाहते हैं कि उन्हें सदा सुख ही मिले, कभी दु:खों का सामना न करना पड़े,हमारी समस्त अभिलाषायें पूर्ण होती रहें, परन्तु ऐसा होता नहीं। अपने आप को पूर्णत: सुखी कदाचित् ही कोई अनुभव करता हो।

जिनके पास पर्याप्त धन-साधन, श्रेय-सम्मान सब कुछ है, वे भी अपने दु:खों का रोना रोते देखे जाते हैं। आखिर ऐसा क्यों है ? क्या कारण है कि मनुष्य चाहता तो सुख है; किन्तु मिलता उसे दु:ख है। सुख-संतोष के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहते हुए हमें अनेकानेक दु:खो एवं अभावों का सामना करना पड़ता है। आज की वैज्ञानिक समुन्नति से, पहले की अपेक्षा कई गुना सुख के साधनों में बढ़ोत्तरी होने के उपरान्त भी स्थायी सुख क्यों नहीं मिल सका ? जहाँ साधन विकसित हुए वहीं उनसे ज्यादा जटिल समस्याओं का प्रादुर्भाव भी हुआ। मनुष्य शान्ति-संतोष की कमी अनुभव करते हुए चिन्ताग्रस्त एवं दु:खी ही बना रहा। यही कारण है कि मानव जीवन में प्रसन्नता का सतत अभाव होता जा रहा है।

इन समस्त दु:खों एवं अभावों से मनुष्य किस प्रकार मुक्ति पा सकता है, प्राचीन ऋषियों-मनीषियों एवं भारतीय तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने इसके लिए कई प्रकार के मार्गों का कथन किया है, जो प्रत्यक्ष रूप से भले ही प्रतिकूल व पृथक् प्रतीत होते हों; परन्तु सबका- अपना-अपना सच्चा दृष्टिकोण है। एक मार्ग वह है जो आत्मस्वरूप के ज्ञान के साथ-साथ भौतिक जगत् के समस्त पदार्थों के प्रति आत्मबुद्धि का भाव रखते हुए पारलौकिक साधनों का उपदेश देता है। दूसरा मार्ग वह है जो जीवमात्र को ईश्वर का अंश बतलाकर, जीवन में सेवा व भक्तिभाव के समावेश से लाभान्वित होकर आत्मलाभ की बात बतलाता है। तीसरा मार्ग वह है जो सांसारिक पदार्थों एवं लौकिक घटनाक्रमों के प्रति सात्विकता पूर्ण दृष्टि रखते हुए, उनके प्रति असक्ति न होने को श्रेयस्कर बताता है। अनेक तरह के मतानुयायियों ने अपने अपने विचार से ईश्वर का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का बतलाया है, जिसके कारण मनुष्य भ्रम में पड़ जाता है।

जीवन जीना एक कला है। जी हां, जीवन का सही अर्थ समझना, उसको सही अर्थों में जीना, जीवन में सार्थक काम करना ही जीवन जीने की कला है। जीने के लिए तो कीट पतंगे, पशु-पक्षी भी जीवन जीते हैं, किंतु क्या उनका जीवन सार्थक होता है ? मनुष्य के जीवन में और अन्य प्राणियों के जीवन में यही अंतर हैं। इसलिए कहा गया है कि जीवन जीना एक कला है। हम अपने जीवन को कैसे सजाते-संवारते हैं, कैसे अपने उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित करते हैं, हमारे काम करने का तरीका क्या है, हमारी सोच कैसी है, समय के प्रति हम कितने सचेत हैं, ये सभी बातें जीवन जीने की कला के अंग हैं। ये सभी बातें हमारे जीवन को कलात्मक रूप देकर उसे संवार सकती हैं और उन पर ध्यान न देने से वे उसे बिगाड़ भी सकती हैं।

जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण यदि स्पष्ट नहीं है तो हमने जीवन को जिया ही नहीं। आम व्यक्ति जीवन को सुख से जीना ही ‘जीवन जीना’ मानता है। अच्छी पढ़ाई के अवसर मिले, अच्छी नौकरी मिले, सुंदर पत्नी हो, रहने को अच्छा मकान हो, सुख-सुविधाएं हों, बस और क्या चाहिए जीवन में ? पर होता यह है कि सबको सब कुछ नहीं मिलता। चाहने से कभी कुछ नहीं मिलता। कुछ पाने के लिए मेहनत और संघर्ष करना जरूरी होता हैं और लोग वही नहीं करना चाहते। बस पाना चाहते है-किसी शॉर्टकट से और जब नहीं मिलता तो जीवन को कोसते हैं-अरे क्या जिंदगीं हैं ? बस किसी तरह जी रहे हैं-जो पल गुजर जाए वही अच्छी हैं। ‘सच मानिये आम आदमी आपसे यही कहेगा, क्योंकि उसने जीवन का अर्थ समझा ही नहीं। बड़ी मुश्किल से ही कोई मिलेगा, जो यह कहे कि ‘मैं बड़े मजे से हूँ। ईश्वर की कृपा है। जीवन में जो चाहता हूं-अपनी मेहनत से पा लेता हूँ। संघर्षों से तो मैं घबराता ही नहीं हूँ।’ और ऐसे ही व्यक्ति जीवन में सफल होते हैं। किसी ने ठीक कहा है, ‘संघर्षशील व्यक्ति के लिए जीवन एक कभी न समाप्त होने वाले समारोह या उत्सव के समान है।’

मनुष्य जीवन कर्म करने और मोक्ष की तरफ कदम बढ़ाने के लिए है। कदम उत्साहवर्धक होने चाहिए, अपने जीवन के प्रति रुचि होनी चाहिए। जीवन में कष्ट किसे नहीं भोगना पड़ता। आनंद तो इन कष्टों पर विजय पाने में हैं। कोई कष्ट स्थायी नहीं होता। वह केवल डराता है। हमारी सहनशीलता और धैर्य की परीक्षा लेता है। अच्छा जीवन, ज्ञान और भावनाओं तथा बुद्धि और सुख दोनों का सम्मिश्रण होता है। इसका अर्थ है कि जहां हमें अच्छा ज्ञान अर्जित करना चाहिए, वहीं हमारे विचार और भावनाएं भी शुद्ध और निर्मल हों। तब हमारी बुद्धि भी हमारा साथ देगी और हमें सच्चा सुख मिलेगा।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 122 – लघुकथा – गहराई… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा  “गहराई… ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 122 ☆

☆ लघुकथा – गहराई 

कुएं रहट से लगी रस्सी से बंधी बाल्टी पर गहराई से पानी निकालते अहिल्या नीचे देख सोचने लगी??? कब तक जिंदगी इन गहराई से निकलती जल की बाल्टी की तरह बनी रहेगी। ऐसा क्या हुआ जो उसका जीवन उसके लिए अभिशाप बन चुका था।

गांव में शादी होकर अहिल्या आई बहुत ही सुखद जीवन था पतिदेव और देवर। दोनों साथ साथ खेती का कार्य करते थे। साधारण परिवार में सभी कुशल मंगल था।  परिवार के नाम में और कोई नहीं था कुछ दिनों बाद नन्हा बालक आया और सभी कुछ बहुत अच्छा था।

खेत में काम करते करते दोनों भाई खुशी से रहते। देवर के हसीन सपने दिनों दिन बढ़ते जा रहे और होता भी क्यों नहीं इतना प्यार करने वाले भैया भाभी और भतीजे को देख उसका मन तो अपनी जीवनसंगिनी को ढूंढ रहा था। उसी के सपने देखता और हंसता मुस्कुराता रहता।

एक सुबह जब वह भाई के लिए रोटी लेकर खेत पहुंचा देखा भैया बेसुध पड़े हैं। घर लाया गया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अहिल्या की तो जैसे दुनिया ही उजड़ चुकी।

पत्थर सी बन गई। दिन बीतने पर  गांव में तरह-तरह की बातें बनने लगी। देवर भी परेशान रहने लगा भाभी के दर्द को और नन्हे बच्चे की परवरिश को लेकर वह सोचने लगा।

इस आग उगलती दुनिया में भाभी का अपना कोई नहीं है। क्या ऐसे में वह भाभी को अपनाकर अपने घर को फिर से बचा सकता है?

एक समझौता कर उसने अपने सपनों की दुनिया को खो दिया और ठान चुका कि किसी भी प्रकार से वह अपने भाभी को कष्ट नहीं होने देगा। चाहे उसे जमाना कुछ भी कहे।

खेत से काम करते हुए घर की तरफ आ रहा था। भाभी मटके से पानी भरकर अपने रास्ते आ रही थी। दो रास्ते जहां पर एक होते हैं वहां पर देवर ने गिरने का बहाना किया और बेसुध होकर लेट गया।

आसपास के लोगों ने चिल्लाना शुरु कर दिए… अहिल्या ने घबराकर मटके का पानी देवर के ऊपर डाल मटका फेंका और लिपट कर रोने लगी… मैं आपको खोना नहीं चाहती.. रोते-रोते वह शुन्य हो गई।

देवर भी तो यही चाहता था कि भाभी के मन की गहरी बात को सबके सामने रख सके और बाहर निकाल सके। किसी तरह रिश्तो में जकड़ी भाभी अपने मन से सबके सामने रिश्तो को अपना सके। रिश्तो को मान सके और नई जीवन शुरू कर सके। यही तो वह चाहता था जो वह कभी भी बोल नहीं पा रही थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ दीवार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “दीवार” की अंतिम कड़ी।)

☆ आलेख ☆ दीवार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दीवार शब्द सुन कर सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की पुरानी फिल्म में उनके द्वारा किया गया उत्कृष्ट अभिनय की स्मृति मानस पटल पर आ जाती है।

हमारे जैसे यात्राओं के शौकीनों को चीन स्थित विश्व की सबसे बड़ी दीवार देखने की इच्छा प्रबल हो जाती हैं। देश भक्ति का सम्मान करते हुए, मन में विचार आया कि हमारे देश की  सबसे बड़ी दीवार खोजी जाए। भला हो गूगल महराज का उन्होंने ज्ञान दिया की विश्व की दूसरी बड़ी दीवार हमारे राजस्थान में कुंभलगढ़ किले की है। बचपन के मित्र का साथ था तो चल पड़े किले की दीवार फांदने। वैसे दीवार फांदना आईपीसी धारा में गैर कानूनी भी होता हैं।

उदयपुर से करीब नब्बे किलोमीटर दूरी है। ये ही वो पवित्र स्थल है, जहां देश के अभिमान महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। किले का नाम उनके वंश के कुंभल महराज के नाम से है। जिन्होंने बत्तीस किलों का निर्माण किया था। जिस प्रकार बत्तीस दांत जीभ की रक्षा करते है, उन्होंने ऐसा अपने साम्राज्य की रक्षा के लिए किया था। किले की चढ़ाई सीधी है, और दूरी भी नौ सौ मीटर से अधिक है। रास्ते में सात गेट है, जहां बेंच पर विश्राम कर सकते हैं।

गाइड की व्यवस्था भी है। सात सौ रुपये  शुल्क है। एक परिचित ने कहा था, वहां एक बारह वर्ष की बच्ची पूरी कहानी सुना कर आपके मोबाईल में रिकॉर्ड भी कर देती है। उसको भी प्रेरित कर गाइड के स्थान पर उसकी सेवाएं उपयोग में ली। लड़की ने हम सबको थोड़ी दूर ले जाकर पूरी कहानी सुनाई। जब हमने उससे पूछा की इतना डर क्यों रही हो, तो वो बोली साहब “दीवारों के भी कान होते हैं,” आपने सुना होगा। चूंकि उसके पास गाइड का लाइसेंस नहीं है, इसलिए वो सब के सामने ऐसे कार्य नही कर सकती। दुनियादारी छोड़ मन की दीवारों (मतभेद) को तोड़ कर सुकून से जीवन व्यतीत करें।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #135 ☆ धग ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 135 ?

☆ धग ☆

आठवांचे जाळले मी प्रेत नाही

आसवांना झोप म्हणुनी येत नाही

 

मी उकिरड्यावर तिला फेकून आलो

राहिली धग आज त्या राखेत नाही

 

पान पिकले अन् तरीही देठ हिरवा

त्यागण्याचा देह अजुनी बेत नाही

 

मेंढरे शिस्तीत सारी चालली पण

तुजकडुन हे माणसा अभिप्रेत नाही

 

वादळाचे रूप घेतो तू म्हणूनी

बसत आता मी तुझ्या नावेत नाही

 

फूल काट्या सोबतीने हासणारे

आज दिसले का मला बागेत नाही ?

 

चेहऱ्याला वाचता येते मलाही

मी जरी गेलो कुठे शाळेत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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