(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता “छोटी बहन”।
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा-कहानी # 107 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 18 – दतिया दलपत राय की… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
(कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए)
अथ श्री पाण्डे कथा (18)
दतिया दलपत राय की, जीत सके नहीं कोय।
जो जाको जीत चहें, अदभर फजियत होय।।
भगवान् दास के पौत्र दलपतराव अपने पिता शुभकरण बुन्देला की मृत्यु के बाद 1677 के समय दतिया के राजा बने। यह दौर औरंगजेब का था और दलपतराव भी अपने पिता की मृत्यु के समय मुग़ल सेनापति दिलेरखां के आधीन दक्षिण में युद्ध अभियान में थे। औरंगजेब दलपतराव के पराक्रम से सुपरिचित था अत दिलेरखान की सिफारिश पर उसे मुग़ल दरबार में मनसबदार का ओहदा मिला। दलपतराव अनेक मुग़ल सेनापतियों के आधीन रह कर मुग़ल बादशाह के सैन्य अभियानों में भाग लेते रहे। उन्होंने बीजापुर के मुग़ल अभियान में विजय प्राप्ति के बाद गोलकुंडा के सैन्य अभियान में मुग़ल सेना के साथ सहयोग किया।दलपतराव ने मुग़ल बादशाह की सेना में रहते हुए मराठों के विरुद्ध भी अनेक सफल सैन्य अभियानों में वीरता का परिचय दिया। उन्होंने मराठो के सुद्रढ़ किले जिन्जीगढ़ के घेरे के समय उल्लेखनीय कार्य किया। औरंगजेब ने 1681 से अपनी म्रत्यु पर्यंत 1706 तक दक्षिण में अनेक सैन्य अभियान चलाये और दक्षिण भारत की बीजापुर व गोलकुंडा रियासतों पर अपना परचम लहराया और शिवाजीद्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य की शक्ति को कम करने के प्रयास किया। औरंगजेब के इन प्रयासों में दलपतराव ने सदैव प्रमुख भूमिका निभाई। जब औरंगजेब दक्षिण के अभियान पर था तो उसे मारवाड़ के राठौरों व बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल से शत्रुतापूर्ण चुनौती मिल रही थी ऐसी स्थिति में दलपतराव और उनके सहयोगी बुंदेलों पर औरंगजेब की निर्भरता अत्याधिक थी और बुंदेलखंड में केवल दतिया से ही उसे अच्छी संख्या में सैनिक भी मिलते थे। इन्ही सब कारणों से दलपतराव औरंगजेब के विश्वासपात्र बने रहे और समय समय पर उनका रुतबा मुग़ल दरबार में बढ़ता चला गया। औरंगजेब ने उन्हें उनके पिता शुभकरण बुन्देला की मृत्यु के बाद 500 सवारों का मनसबदार बनाया था जो बढ़ते बढ़ते 1705 इसवी में 3000 सवारों व इतने ही पैदल सैनिकों का हो गया। औरंगजेब की मृत्यु 1707 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद में हुई तब दलपतराव ने उसके दूसरे नंबर के पुत्र आजमशाह का साथ उतराधिकार के युद्ध में दिया। आजमशाह स्वयं दलपतराव की सूझबूझ और योग्यता को दक्षिण के विभिन्न अभियानों में परख चुका था। वह उनकी उत्कृष्ठ वीरता एवं उच्चकोटि की राजभक्ति का कायल था अत जब दलपतराव ने उतराधिकार के युद्ध में आजम शाह का साथ देने का वचन दिया तो उनका मंसब बढाकर पांच हजारी कर दिया गया। इस प्रकार दलपतराव का मान सम्मान मुग़ल दरबार में बना रहा। दलपतराव की मृत्यु भी एक सैन्य अभियान के दौरान हुई। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उतराधिकार का युद्ध उसके पुत्रों बहादुर शाह व आजमशाह के बीच आगरा के नजदीक जाजऊ में जून 1707 में हुआ। इस युद्ध में हाथी पर सवार दलपतराव को एक छोटी तोप का गोला बाजू में आकर लगा जिससे वे वीरगति को प्राप्त हुए। दलपतराव की मृत्यु के उपरान्त उनके सहयोगी बुंदेले भी मारे गए और इसी के साथ आजमशाह की भी पराजय हो गई।
प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी दलपतराव की स्मृति जन मानस में लम्बे समय तक अक्षुण बनी रही और उनके सम्मान में चारण निम्न पद गाते रहे ;
दल कटे दलपत कटे, कटे बाज गजराज।
तनक-तनक तन-तन कटो, पर तन से तजी न लाज।।
दतिया के राजा दलपतराव एक दुर्दमनीय योध्दा और कुशल प्रशासक थे और लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत जनप्रिय राजा थे। उनके काल में दतिया के वीर सैनिकों की धाक सभी दिशाओं में जैम गई थी और जनमानस में उपरोक्त लोकोक्ति बस गई। दलपतराव का यशोगान उनके दरबारी कवि जोगीदास ने दलपतरायसे में भी किया है।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है।)
☆ कथा कहानी # 30 – स्वर्ण पदक – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
अंतिम भाग (क्लाइमेक्स)
स्टार हाकी प्लेयर रजत और विशालनगर ब्रांच के स्टाफ के बीच स्वागत सत्कार की औपचारिकता के बाद प्रश्न उत्तर का सेशन हुआ जो सभी के लिये सांकेतिक रुप से बहुत कुछ कह गया. सभी समझे भी पर किसको कितना अपनाना है यह भी तो समझदारी है. प्रतिभा, सामाजिक और पारिवारिक परिवेश व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं और व्यक्तित्व निर्माण की यह प्रक्रिया जीवन भर चलती है. इस जीवन यात्रा में उलझाव भी आते हैं, सुपीरियर होने का भ्रम, इन्फीरियर होने की कुंठा एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं, क्योंकि दोनों ही स्थिति में व्यक्ति खुद को वह मान लेता है जो वह होता नहीं है. व्यक्ति के अंदर की यह शून्यता न केवल उसे नुकसान पहुंचाती है बल्कि संपर्क में आये व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है. सम्मान और स्नेह दोनों ही क्षत-विक्षत हो जाते हैं. संबंधों में आई ये दरार दिखती तो नहीं है पर महसूस ज़रूर की जाती है. शायद यही कहानी का मर्म भी है. अब आपको सवालों जवाबों की ओर ले चलते हैं. प्रश्नकर्ता के रूप में नाम काल्पनिक हैं, उत्तर अधिकतर रजतकांत ने ही दिये हैं.
अनुराग: आप फाइनल जीतने का श्रेय किसे देंगे
रजत : ये मेरी टीम की जीत है
अशोक: पर फील्ड गोल तो आपने किये, सारी नजरें आप पर थीं, रजत रजत का शोर ही मैदान में गूंज रहा था, रेल्वे का नाम हमारे दिमाग में बिलकुल नहीं आया.
रजत: आपका प्रश्न बहुत अच्छा है पर गोल करना और गोल बचाना तो पूरी टीम का लक्ष्य था, अकेला चना कुछ फोड़ नहीं सकता, ये कहावत मुझे पूरी याद नहीं है पर पिताजी अक्सर कहा करते थे,भैया क्या आपको याद है?
स्वर्ण कांत ने याद नहीं होने का वास्ता दिया हालांकि भावार्थ सब समझ गये पर अशोक ने फिर प्रश्न दागा: माना कि जीत पर हक पूरी टीम का होता है पर स्टार खिलाड़ी, कैरियर, लाइमलाइट, पैसा सबमें बाजी मारी लेते हैं और बाक़ी लोग लाइमलाइट की जगह बैकग्राउंड में रहते हैं.
इस प्रश्न पर टीम के खिलाड़ी रजत की ओर मुस्कुराहट के साथ देख रहे थे , बैंक के स्टाफ के लिए भी इस प्रश्न का उत्तर पाना उत्सुकता पूर्ण था.
रजत: देखिए कुछ गेम में सोलो परफार्मेंस ही रिजल्ट ओरियंटेड बन जाती है पर हाकी, फुटबॉल, वालीबाल, बास्केटबॉल, तो पूरी टीम का खेल है कोई गोल बचाता है, कोई अफेंडर को रोकता है, कोई गोल के लिए मूव बनाता है, पास देता है, अंत में किसी एक खिलाड़ी के शाट से ही बाल गोलपोस्ट में प्रवेश करती है कभी कभी गोलकीपर से वापस की हुई बाल को भी कोई खिलाड़ी वापस गोलपोस्ट में डाल देता है. यह सब टीम वर्क से ही हो पाता है. हम लोग भी उसी टीम वर्क से खेलते हैं जिस तरह आप लोग ये बैंक चलाते हैं.
अभिषेक: जिस तरह क्रिकेट में मेन आफ दी मैच, मेन आफ सीरीज, टाप टेन बेट्समेन, टाप टेन बालर्स होता है, हाकी में क्यों नहीं होता, हमारे यहां भी बेस्ट ब्रांच मैनेजर, बेस्ट रीजनल मैनेजर अवार्ड दिए जाते हैं.
रजत: मेरा सोचना है कि जहां खेल के साथ व्यापार भी जुड़ा रहता है वहां पर कमर्शियल स्पांसर्स ये सब बनाते हैं. बाद में फिर यही प्लेयर्स उनके प्रोडक्ट की मार्केटिंग में लगाये जाते हैं. लोग क्वालिटी की जगह चेहरे पर आकर्षित होकर मार्केटिंग के मायाजाल में फंसते हैं. अधिकांश खेलों में टीम ही सफलता का फैसला करती है. ध्यानचंद हाकी के ब्रेडमेन थे , गावस्कर और तेंदुलकर से कई गुना प्रतिभा के धनी रहे होंगे पर उनके पीछे कमर्शियल स्पांसर्स नहीं थे, पहले भी नहीं और आज भी नहीं. बैंक के बारे में आप लोग मुझसे बेहतर जानते होंगे.
अश्विन: पर फिर भी टीम इंडिया में तो सिलेक्शन का बेनिफिट आपको ही मिलने की संभावना बन रही है.
रजत : अगर ऐसा हुआ भी तो वहां भी टीम में ही खेलना है. हर खिलाड़ी का कैरियर होता है, सफलता दूसरों को भी वैसा करने की प्रेरणा देती है पर अगर किसी खिलाड़ी को ये लगने लगे कि सब उसके कारण होता है तो उसका डाउनफॉल वहीं से शुरू हो जाता है.
बात हाकी के संबंध में चल रही थी पर हर सुनने वाले के दिल तक पहुंच रही थी. सभी परिपक्व और समझदार थे, कही गई हर बात क्रिस्टल क्लियर थी, तो अब और कुछ कहने की जरूरत ही नहीं थी.
विदा लेते समय जब रजतकांत ने अपने बड़े भाई से विदा ली तो उन्होंने कई अरसे बाद रजत को गले लगा लिया पर उन्हें न जाने ऐसा क्यों लगा कि वो अपने छोटे भाई से नहीं बल्कि अपने अनुभवी भाई से गले मिल रहे हैं.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २१ – भाग ५ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
कॅनडा ऽ ऽ राजा सौंदर्याचा
कोलंबिया आइसफिल्डपासून जवळच एक अद्भुत वास्तव आमची वाट पहात होतं. ते म्हणजे ग्लेशियर स्कायवॉक! सनवाप्ता या निसर्गरम्य, सुशांत, सुंदर, अनाघ्रात दरीखोऱ्याचं दर्शन प्रवाशांना आकाशातून मनमुक्त उडणाऱ्या पक्ष्याप्रमाणे घेता यावं या कल्पनेचा ध्यास कॅनेडियन इंजिनियर्सनी घेतला. तज्ज्ञ इंजिनियर्सनी अनेक वर्षं परिश्रम करून या स्कायवॉकचा आराखडा बनविला.स्टील, ग्लास आणि लाकूड यांचा वापर करून पर्वतकड्याच्या टोकावरून एक अर्धवर्तुळाकार वॉक वे बनविण्यात आला. विशेष प्रकारच्या क्रेनच्या सहाय्याने ही काचेची लंबगोल जमीन बसविण्याचे काम २६ जुलै २०१३ रोजी पूर्ण झाले. संपूर्ण काचेची जमीन असलेला हा ‘ऑब्झर्वेशन वॉक वे’ सनवाप्ता दरीच्यावर २८० मीटर ( ९१८ फूट )वर उभारलेला आहे. अधांतरी वाटणाऱ्या या काचेच्या जमिनीवर पहिली पावलं टाकताना नक्कीच भीती वाटते. समोरच्या पर्वतावरचे ग्लेशियर, त्यातून ओघळणारे, कुठे थबकलेले हिमशुभ्र बर्फाचे प्रवाह, खालच्या खोल दरीमध्ये उड्या घेणारे धबधबे, पर्वत उतारावरील सूचिपर्णी वृक्ष, उतरणीवर चरणारे माउंटन गोट्स आणि बिगहॉर्न शिपस् असे विहंगम दृश्य कितीतरी वेळ त्या अर्धवर्तुळाकार, अधांतरी वाटणाऱ्या काचेच्या जमिनीवरुन पाहता आले. चालताना आपल्या पायाखाली पर्वतशिखरे आणि खोल दरी आहे ही अद्भुत, स्वप्नसुंदर कल्पना प्रत्यक्ष अनुभवण्याचा देवदुर्लभ आनंद मिळाला. या वॉकवेला ‘वर्ल्ड आर्किटेक्चर फेस्टिवल’ॲवार्डने सन्मानित करण्यात आले आहे.
सरळसोट आठ पदरी हायवेने जास्पर इथे पोहोचलो.कॅनडाच्या पूर्वेकडील न्यू फाउंड लॅ॑डपासून पश्चिमेकडील ब्रिटिश कोलंबियापर्यंतचा ट्रांन्स कॅनडा हायवे हा ८००० किलोमीटर ( ५००० मैल ) चा अत्यंत सुंदर मार्ग आहे. ट्रेनने पूर्वेपासून पश्चिमेपर्यंत जाणाऱ्या कॅनेडियन रेल्वेने हा प्रवास चार दिवस आणि पाच रात्रींचा आहे. पर्वतरांगा, त्यावरील घनदाट जंगले, प्रचंड मोठे शेती व फळ विभाग, खूप मोठ्या प्रेअरीज ( मांस निर्यातीसाठी जोपासना केलेले पशुधन ), सायकलिंग, ट्रेकिंगचे वेगळे मार्ग आणि जलमार्गाजवळून बांधलेले मालगाड्यासाठींचे वेगळे मार्ग हे दृश्य सतत पाहायला मिळते. कॅनडाच्या पूर्व-पश्चिमेला जाणाऱ्या या मालगाड्यातून गहू, पशुधन, न्यूजपेपर व इतर पेपर पल्प बनविण्यासाठी लागणारे प्रचंड मोठे लाकडी ओंडके, खनिजे यांची सतत वाहतूक सुरू असते.
जास्परमधील सुबक बंगले गुलाब, डेलिया, जास्वंदासारख्या सुंदर फुलझाडांनी नटलेले होते .जांभळे हिरवे पोपटी तुऱ्यांचे गवत आणि रस्त्यामध्ये शोभिवंत फुलझाडांच्या मोठमोठ्या कुंड्या होत्या. आमच्या हॉटेलसमोर रॉकी माउंटन रेल्वेचे स्टेशन होते. सभोवतालच्या निळसर हिरव्या पर्वतरांगामुळे थंडी वाढली होती. हॉटेलच्या अंगणात निळसर ज्योतींची लांबट चौकोनी शेकोटी ठेवली होती. शेकोटीभोवती ठेवलेल्या खुर्च्यांवर बसून शेक घेताना मजा वाटत होती.
तिथे आणखी एक मजा अनुभवली. आमच्या हॉटेलमधून जेवणासाठी आम्हाला जवळच्याच एका भारतीय हॉटेलमध्ये जायचे होते. त्या हॉटेलचे तरुण मालक गोपाळ व सविता शेळके हे आठ वर्षांपूर्वी नाशिकहून येऊन इथे स्थिरावले आहेत. दोघेही कुशल पाकतज्ज्ञ आहेत. हॉटेलमध्ये परदेशी लोकांची भरपूर गर्दी होती. माझी मैत्रीण शोभा म्हणजे जगन् मित्र! शोभाची या दोघांशी लगेच मैत्री झाली आणि शोभाने तिचा प्रस्ताव त्यांच्यापुढे मांडला. दुसऱ्या दिवशी चतुर्थी होती. काही जणांचा पक्का उपवास तर आमच्यासारख्या काही जणांचा लंगडा उपवास होता. शोभाने त्यांच्या किचनमध्ये बटाट्याच्या उपासाच्या काचर्या करण्याची परवानगी मिळवली. नयनाच्या मदतीने दुसऱ्या दिवशी सकाळी तिथे काचऱ्या बनविल्या. स्वतः गोपाळ यांनी शोभाने दाखविल्यासारख्या बारीक काचऱ्या कापून दिल्या व मोठ्या कढईत ढवळूनही दिल्या.त्यांच्याकडून काकड्या बारीक चिरून घेतल्या. आम्ही तिथल्या स्टोअर्समधून प्रत्येक ठिकाणी दही- ताकाची खरेदी करीत होतो. इथे शोभाने स्टोअर्समधून पीनट बटरची बाटलीही घेतली. नयनाच्या मदतीने, गोपाळच्या सहकार्याने त्याची झकास दाण्याची आमटी बनवली. गोपाळ आणि सविताने साऱ्याचे पॅकिंग केले. कारण आम्हाला तिथून साडेअकरा वाजता निघून साडेचारशे किलोमीटरवरील कामलूप्स इथे पोचायचे होते. या मार्गावर आम्ही वाटेत केलेला फराळ हा ‘दुप्पट खाशी’ या सदरात मोडणारा होता. बटाट्याच्या काचऱ्या, काकडीची कोशिंबीर, दाण्याची आमटी,नयनाने घरून भाजून आणलेल्या साबुदाण्याचा जिरे, मिरचीची फोडणी घातलेला दही- साबुदाणा शिवाय पक्का उपवासवाल्यांनी आणलेले डिंकाचे लाडू आणि फराळी चिवडा असा भरभक्कम मेनू होता. गोपाळ सविताचा निरोप घेताना आम्ही छान छोट्या पर्समध्ये काही डॉलर्स घालून सविताला दिले आणि मुंबईहून आणलेला खाऊ गोपाळला दिला. ‘आम्हीपण आज छान नवीन पदार्थ शिकलो’ असे म्हणत त्या दोघांनी भरल्या डोळ्यांनी आम्हाला ‘अच्छा’ केलं.कॅनडामध्ये संस्मरणीय चतुर्थी साजरी झाली. अर्थातच फराळापूर्वी आम्ही अथर्वशीर्ष म्हणायला विसरलो नाही.
जास्पर नंतर ‘ब्रिटिश कोलंबिया’ हा विभाग सुरू होतो. वाटेत ऊन-पावसाचा खेळ चालू होता. खूप मोठी पोपटी कुरणे, त्यात चरणाऱ्या धष्टपुष्ट गाई, उतरत्या दगडी छपरांची घरे, काळपट हिरवे पाईन वृक्ष, नद्या आणि धबधबे यांची नेहमीची साथ-संगत होतीच.कामलूप्स हे डोंगरमाथ्यावरचे एक छोटे ,स्वच्छ- सुंदर शहर आहे. दुसऱ्या दिवशी कामलूप्सहून साडेतीनशे किलोमीटर्सचा प्रवास करून व्हॅ॑क्यूव्हरला पोहोचलो.
पूर्वेकडे रॉकी माउंटन्स आणि पश्चिमेकडे पॅसिफिक महासागर अशा देखण्या कोंदणात व्हॅ॑कूव्हर वसले आहे. व्हॅ॑कूव्हरमधील ‘लायन्स गेट ब्रिज’ ओलांडून कॅपिलोनो इथली सामन (Salman ) हॅचरी बघायला गेलो. कॅपिलानो नदीवरच्या धरणाजवळ सामन माशांचे प्रजोत्पादन केंद्र आहे. हे मासे प्रवाहाविरुद्ध पोहत जाऊन अंडी घालतात. त्यांची शिकार करण्यासाठी अस्वले टपून बसलेली असतात. गंडोला राइडने ग्रूझ पर्वतशिखरावर गेलो. इथे पूर्वीच्या काळचे शिकारी, ट्रेकर्स, अस्वले, घुबड यांचे मोठमोठे लाकडी पुतळे बनविलेले आहेत. दुपारी लंबर शो झाला. पूर्वी भल्यामोठ्या लाकडी ओंडक्यांचे तुकडे कसे करीत, त्यापासून बनवलेल्या विविध वस्तू, ६० फूट उंच वृक्षाच्या ओंडक्यावर सरसर चढत जाणे, इतक्या उंचावरून विविध कसरती करणे, या ओंडक्यावरून तशाच दुसऱ्या ओंडक्यावर तारेवरून घसरत जाणे असे धाडसी खेळ दोघांनी करून दाखविले. त्याला एका स्त्रीच्या उत्साही निवेदनाची जोड होती.
या ३००० फुटांवरील पर्वतमाथ्यावरून, छोट्या उघड्या केबलकारमधून ६००० हजार फूट उंचीवर जाताना कॅपिलानो नदी,पाइन वृक्षराजी, डोंगरमाथे यांच्या डोक्यावरून केबलकार जात होती. सूचीपर्ण वृक्षांचे शेंडे जवळून बघायला मिळाले. या वृक्षांची पाने पुढून पोपटी व मागे काळपट हिरवी होती. अधून-मधून त्यावर लाल बोंडं दिसत होती. त्यामागे निळसर हिरवे कोन होते. केबलकारने परतताना काही तांत्रिक अडचणीमुळे सर्व केबलकार्स अडकून स्तब्ध झाल्या. खूप उंचावरच्या त्या उघड्या ,अधांतरी, झुलत्या केबलकारमध्ये बसून आम्ही आजूबाजूच्या केबलकार्समधील देशोदेशींच्या लटकलेल्या प्रवाशांशी ‘हाय हॅलो’ करीत, गप्पा मारत खालच्या दरीकडे बघण्याचे टाळले. थोड्या वेळाने दुरुस्ती होऊन कार्स चालू झाल्या.
‘कॅपिलानो सस्पेन्शन ब्रिज पार्क’मधील सस्पेन्शन ब्रिज त्याच्या कठड्याला धरून, हलत-डुलत, थांबून- थांबून, धीर एकवटून क्रॉस केला. या पार्कमध्ये १००० हजार वर्षांहून अधिक वयाचे वृक्ष आहेत. या रेन फॉरेस्टमध्ये डग्लस फर,रेड सिडार,हॅमलॉक असे ३००-३५० फूट उंच वृक्ष निगुतीने सांभाळले आहेत. एके ठिकाणी जंगली घुबड बॅटरीसारखे डोळे विस्फारुन बसले होते. एका मोठ्या तळ्यामध्ये ट्राउट मासे उड्या मारीत होते.
या पार्कमधील ‘ट्री टॉप वॉक’ हा एक वेगळा अनुभव घेतला. उंच झाडांना मध्यावर गोल प्लॅटफॉर्म बांधून तिथले सात भलेमोठे घनदाट वृक्ष केबल ब्रिजने जोडले आहेत. जिन्याने पहिल्या झाडापर्यंत पोहोचताना दम निघाला पण तिथे पोहोचल्यावर भरपूर ऑक्सिजनयुक्त ,थंडगार, ताजी हवा मिळाली.खूप उंच झाडांच्या मध्यावरून त्या जंगलातील झाडे बघण्याचा अतिशय वेगळा अनुभव मिळाला. सस्पेन्शन केबलवरून चालत त्या सातही झाडांना भोज्जा करून आलो. आम्ही साधारणपणे दहा मजले उंचीवरून फिरण्याचा पराक्रम केला होता.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री सुधा कुमारी जी की पुस्तक “रुपये का भ्रमण पैकेज” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆
☆ “रुपये का भ्रमण पैकेज” … सुश्री सुधा कुमारी जी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
रुपये का भ्रमण पैकेज
लेखिका.. सुधा कुमारी
पृष्ठ १७२,सजिल्द मूल्य ३५० रु
प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली
बीरबल या तेनालीराम जैसे ज्ञानी सत्ता में राजा के सर्वाधिक निकट रहते हुये भी राजा की गलतियों को अपनी बुद्धिमानी से इंगित करने के दुस्साहसी प्रयास करते रहे हैं. इस प्रयोजन के लिये उन्होने जिस विधा को अपना अस्त्र बनाया वह व्यंग्य संमिश्रित हास्य ही था. दरअसल अमिधा की सीधी मार की अपेक्षा हास्य व्यंग्य में कही गई लाक्षणिक बात को इशारों में समझकर सुधार का पर्याप्त अवसर होता है, और यदि सच को देखकर भी तमाम बेशर्मी से अनदेखा ही करना हो तो भी राजा को बच निकलने के लिये बीरबलों या तेनालीरामों की विदूषक छबि के चलते उनकी कही बात को इग्नोर करने का रास्ता रहता ही है. लोकतंत्र ने राजनेताओ को असाधारण अधिकार प्रदान किये हैं, किन्तु अधिकांश राजनेता उन्हें पाकर निरंकुश स्वार्थी व्यवहार करते दिख रहे हैं. यही कारण है कि हास्य व्यंग्य आज अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है. सुधाकुमारी जी जैसे जो बीरबल या तेनालीराम अपने परिवेश में देखते हैं कि राज अन्याय हो रहा है, वे चुपचाप व्यंग्य लेख के जरिये आईना दिखाने का अपना काम करते दिखते हैं. ये और बात है कि अधिकांशतः उनकी ये चिंता अखबारों के संपादकीय पन्नो पर किसी कालम में कैद या किसी पुस्तक के पन्नो में फड़फड़ाती रह जाती है. बेशर्म राजा और समाज उसे हंसकर टालने में निपुण होता जा रहा है. किन्तु इससे आज के इन कबीरों के हौसले कम नहीं होते वे परसाई,शरद, त्यागी और श्रीलाल शुक्ल के मार्ग पर बढ़े जा रहे हैं, सुधा कुमारी जी भी उसी बढ़ते कारवां में रुपये का भ्रमण पैकेज लेकर आज चर्चा में हैं.
“स्थानांतरण का ईश्वरीय आदेश” में वे सरकारी कर्मचारियों की ट्रांसफर नीतीयो पर पठनीय कटाक्ष करती हैं, उन्होने स्वयं भी खूब पढ़ा गुना है तभी तो व्यंग्य में यथा स्थान काव्य पंक्तियो का प्रयोग कर रोचक प्रवाही शैली में लिख सकी हैं. इसी शैली का एक और सार्थक व्यंग्य ” बेचारा” भी किताब में है. “ओम पत्रकाराय नमः” में वे लिखती हैं ” आप ही देश चलाते हो, प्रशासन की खिंचाईकरते हो, कानून भी आपके न्यूजरूम में बन सकते हैं और न्याय भी आप खुद करते हो, खुद ही अभियोजन करते हो खुद ही फैसला सुनाते हो “… हममें से जिनने भी शाम की टी वी बहस सुनी हैं, वे सब इस व्यंग्य के मजे ले सकते हैं. ” अथ ड्युटी पार्लर कथा, बासमैनेजमेंट इंस्टीट्यूत, असेसमेंट आर्डर की आत्मकथा, सूचना अधिकार…अलादीन का चिराग, मखान सर शिक्षण संस्थान इत्यादि उनके कार्यालाय के इर्द गिर्द से उनके वैचारिक अंतर्द्वंद जनित रचनायें हैं, जिन्हें लिखकर उन्होने आत्म संतोष अनुभव किया होगा. कुछ रचनायें कोरोना की वैश्विक त्रासदी की विसंगतियों से उपजी हैं. और प्रजातंत्र की उलटबासियां, चुनावी दंगल, प्रजातांत्रिक पंचतंत्र,, नेताजी पर लेख जैसी रचनायें अखबार या टीवी पढ़ते देखते हुये उपजी हैं. चुंकि सुढ़ाकुमारी जी का संस्कृत तथा अंग्रेजी साहित्य का गहन अध्ययन है अतः उनके बिम्ब और रूपक मेघदूत, यक्षिणी, पीटर पैन, सोलोमन का न्याय के गिर्द भी बनते हैं. “चिंतन के लिये चारा” पुस्तक का सबसे छोटा व्यंग्य लेख है, पर मारक है…एक मरियल देसी गाय और एक बिहार की जर्सी गाय का परस्पर संवाद पढ़िये, इशारे सहज समझ जायेंगे… ” उन्हें विशेष प्रकार का चारा खिलाया गया , जो सामान्य आंखों से नही दिखता था, वह सिर्फ बिल और व्हाउचर में दिखाई देता था….
किताब के शीर्षक व्यंग्य रुपये का भ्रमण पैकेज से उधृत करता हूं… कुछ लोगों को रुपया हाथ का मैल लगता है पर अधिकतर को पिता और भाई से भी बड़ा रुपैया लगता है….. एडवांस्ड्ड मिड कैरियर ट्रैवल प्रोग्राम, प्रायः सरकारी अफसरो की तफरी के प्रयोजन बनते हैं उस पर तीक्ष्ण प्रहार किया है सुधा जी ने. “रिची रिच टू मैंगो रिपब्लिक” रुपये के देशी भ्रमण पैकेज के जरिये वे सरकारी अनुदान योजनाओ पर प्रहार करती हैं., उन्होंने तीसरा पैकेज ठग्स एंड क्रुक्स कम्पनी डाट काम के नाम पर परिकल्पित किया है.
कुल मिलाकर सुधा जी की लेखनी से निसृत व्यंग्य लेख उनकी परिपक्व वैचारिक अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं. व्यंग्य जगत को उनसे निरंतरता की उम्मीद है. मेरी कामना है कि उनका अनुभव केनवास और भी व्यापक हो तथा वे कुछ शाश्वत लिखें. यह किताब बढ़िया है, खरीदकर पढ़ना और पढ़ने में समय लगाना घाटे का सौदा नही लगेगा, इसकी गारंटी दे सकता हूं.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श एवं परिस्थिति जन्य कथानक पर आधारित एक अतिसुन्दर लघुकथा “ठहरी बिदाई… ”। )
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 123 ☆
☆ लघुकथा – ठहरी बिदाई…☆
सुधीर आज अपनी बिटिया का विवाह कर रहा था। सारा परिवार खुश था परंतु रिश्तेदारों में चर्चा का विषय था कि सुधीर इस शुभ अवसर पर अपनी बहन को माफ कर सकेगा कि नहीं।
बहन रुपा ने अपनी मर्जी से शादी कर ली थी। घर परिवार के विरोध के बाद भी। स्वभाव से थोड़ा सख्त और अच्छी कंपनी पर कार्यरत सुधीर के परिवार की जीवन शैली बहुत अच्छी हो चुकी थी।
बहुत सुंदर और खर्चीली शादी लग रही थी। सुधीर की धर्मपत्नी नीरा बहुत ही विचारों से सुलझी और संस्कारों में ढली महिला थी।
द्वारचार का समय और बारात आगमन होने ही वाला था। सुधीर के स्वभाव के कारण कोई भी अपने मन से आगे बढ़कर काम नहीं कर रहा था। परंतु पत्नी की व्यवहारिकता सभी को आकर्षित कर रही थी। द्वारचार पर दरवाजे पर कलश उठाकर स्वागत करने के लिए बुआ का इंतजार किया जा रहा था।
सुधीर मन ही मन अपनी बहन रुपा को याद कर रहा था परंतु बोल किसी से नहीं पा रहा था। अपने स्टेटस और माता-पिता की इच्छा के कारण वह सामान्य बना हुआ था।
धीरे से परेशान हो वह अपनी पत्नी से बोला…. “रूपा होती तो कलश उठाकर द्वार पर स्वागत करती।” बस इतना ही तो कहना था सुधीर को!!!!!
पत्नी ने धीरे से कहीं – “आप चिंता ना करें यह रही आपकी बहन रूपा।” कमरे से सोलह श्रृंगार किए बहन रूपा सिर पर कलश लिए बाहर निकली। और कहने लगी – “चलिए भैया मैं स्वागत करने के लिए आ गई हूं।”
सुधीर की आंखों से अश्रुधार बह निकली परंतु अपने आप को संभालते हुए ‘जल्दी चलो जल्दी चलो’ कहते हुए…. बाहर निकल गया।
विवाह संपन्न हुआ। बिदाई होने के बाद रूपा भी जाने के लिए तैयार होने लगी और बोली… “अच्छा भाभी मैं चलती हूं।”
भाभी अपनी समझ से खाने पीने का सामान और बिदाई दे, गले लगा कर बोली – “आपका आना सभी को अच्छा लगा। कुछ दिन ठहर जातीं।”
परंतु वह भैया को देख सहमी खड़ी रही। समान उठा द्वार के बाहर निकली! परंतु यह क्या चमचमाती कार जो फूलों से सजी हुई थी। गाड़ी के सामने अपने श्रीमान को देख चौंक गई। अंग्रेजी बाजा बजने लगा।
सुधीर ने बहन को गले लगाते हुए कहा…. “जब तुम सरप्राइज़ दे सकती हो, तो हम तो तुम्हारे भैया हैं। तुम्हारी बिदाई आज कर रहे हैं। चलो अपनी गाड़ी से अपने ससुराल जाओ और आते जाते रहना।” विदा हो रुपा चली गई।
अब पत्नी ने धीरे से कहा… “पतिदेव आप समझ से परे हैं। बहन की विदाई नहीं कर सके थे। आज आपने ठहरी विदाई कर सबके मन का बोझ हल्का कर दिया।”
यह कह कर वह चरणों पर झुक गई। माता-पिता भी प्रसन्न हो बिटिया की विदाई देख रहे थे।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”
आज प्रस्तुत है आलेख – “पड़ोस और विवाह”।)
☆ आलेख ☆ पड़ोस और विवाह☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे विचार से ये दोनों पर्यावाची हैं।विवाह जैसे पवित्र बंधन के लिए भी कहा जाता है, जिसका हुआ वो भी पछताए और जिसका नहीं हुआ वो भी पछताए। वैसा ही हमारा पड़ोस जिनके पड़ोसी है, वो भी परेशान रहते हैं और जिनके पड़ोस में अभी प्लॉट खाली है, वो भी परेशान ही रहते हैं। सीमेंट और पेंट बनाने वाली कंपनियां भी अपने विज्ञापनों के माध्यम से पड़ोसी स्पर्धा का चित्रण करने में माहिर होते हैं। आखिर उनको भी तो अपनी रोज़ी रोटी चलानी हैं।
ये पड़ोसी, सभी देशों के साथ भी होते ही हैं। हमारे देश के भी बहुत सारे पड़ोसी देश हैं, जहां तक संबंध की बात है, अधिकतर देशों से कभी नरम और कभी गर्म ही रहते है। ठीक वैसे ही जैसे हमारे घर के पड़ोसियों से रहते हैं। हमारे देश के दो पड़ोसी तो शत्रु देश भी कहलाते हैं। स्वतंत्र होने के समय अलग हुए पाकिस्तान में विगत कुछ दिनों से राजनैतिक विवाद भी चल रहा हैं। हमारा मीडिया भी दुनिया और देश की सब बातें भूल कर पाकिस्तान पर ही लगातार रात दिन चर्चा करते हुए थक भी नहीं रहा।
पाकिस्तान में रामलाल या श्यामलाल कोई भी प्रधानमंत्री बने, हम साधारण जीवन जीने वाले व्यक्ति का क्या वास्ता हैं? लेकिन नहीं मीडिया तो आप को इतिहास के गड़े मुर्दे और भविष्य के हसीन सपने परोसने में एड़ी चोटी एक कर देता हैं। इसी बहाने कुछ रिटायर्ड फौजी अधिकारी और विदेश सेवा में कार्य कर चुकी हस्तियों के विचारों से भी अवगत हो जाते हैं।
इसी को भेड़ चाल भी कहते हैं, सभी चैनल सब कुछ भूल कर सिर्फ और सिर्फ पाकिस्तान के भूतकाल और भविष्य की कहानियां बुन रहे हैं। ऐसा लग रहा है की पड़ोसी के यहां आग लगी हुई है और हम उस पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)