(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “स्वर्ण पदक“ )
☆ कथा-कहानी # 123 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 4🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
स्वर्ण कांत के सफलता के इन सोपानों के बीच जहां उनकी राजधानी एक्सप्रेस अपने नाम के अनुसार आगे बढ़ रही थी, वहीं रजतकांत की शताब्दी सुपरफॉस्ट ट्रेन अलग रूट पर दौड़ रही थी, यहाँ आगे आगे भागतीे हॉकी की बाल पर कब्जा कर अपनी कुशल ड्रिबलिंग से आगे बढ़ते हुये रजतकांत स्नातक की डिग्री के बल पर नहीं बल्कि हॉकी पर अपनी मजबूत पकड़ के चलते इंडियन रेल्वे में स्पोर्ट्स कोटे में सिलेक्ट हो गये थे और फिर बहुत जल्दी रेल्वे की हॉकी टीम के कैप्टन बन चुके थे.
जैसे जैसे उनके खेल और कप्तानी में तरक्की होती गई, रेल्वे से मिलने वाली सुविधा और प्रमोशन में भी वृद्धि होती गई.हॉकी की टीम इंडिया में भी वे स्थायी सदस्य बन गये और हॉकी ने क्रिकेट के मुकाबले लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय स्तर का सितारा बना दिया.
हाकी इंडिया नेशनल चैम्पियनशिप का आयोजन इस बार संयोग से विशालनगर में ही आयोजित होना निश्चित हुआ जहां स्वर्णकांत पदस्थ थे. रजत जहां भाई से मिलने का अवसर पाकर खुश थे वहीं स्वर्ण कांत न केवल बैंक की समस्याओं में उलझे थे बल्कि शाखा स्टॉफ से तालमेल न होने से भी परेशान थे. स्टॉफ उन्हें “स्वयंकांत” के नाम से जानने लगा था क्योंकि हर उपलब्धि सिर्फ स्वयं के कारण हुई मानकर वे इसे अपने नाम करने की प्रवृति से पूर्णतः संक्रमित हो चुके थे और non achievements के कई कारण, उन्होंने अपनी समझ से अपने नियंत्रक को समझाना चाहा जिसमें lack of sincerity and devotion by staff भी एक कारण था. पर नियंत्रक समझदार, परिपक्व और शाखा की उपलब्धियों के इतिहास से वाकिफ थे. उन्होंने स्वर्णकांत को कुशल प्रबंधकीय शैली में अच्छी तरह से समझा दिया था कि जो और जैसा स्टॉफ ब्रांच में मौजूद है, वही पिछले टीमलीडर के साथ मिलकर, झंडे गाड़ रहा था.Previous incumbent has tuned this branch so smoothly to attain the goal that industrial relations of this branch have become an example to tell others. पर ये सारी टर्मिनालॉजी और प्रवचन, स्वयंकांत प्रशिक्षण के दौरान सुनने के बाद विस्मृत कर चुके थे और संयोगवश अभी तक इनकी जरूरत भी नहीं पड़ी थी.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनकही बात।)
अजय बहुत दिनों बाद गांव में आया था। वह अपने घर की ओर जल्दी-जल्दी जा रह था और पुरानी यादों में खोया था। दरवाजा खोल कर अंदर गया तो उसे कोई दिखाई नहीं दिया समझ गया की माँ रसोई में होगी?
माँ को लगा पिताजी आए हैं। माँ ने कहा कि जल्दी से हाथ-मुंह धोकर ब्रश कर लो मैं चाय बनाती हूं?
जब चाय लेकर आई तब उसने अजय को दिखा। उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी बढ़ा गई।
मां ने मुस्कुराते हुए कहा – आज इतने दिनों बाद हमारी याद कैसे आई?
बेटे ने मां के पैर छुए और बोला – नेता जी गांव में आने वाले हैं इसलिए हम पहले से आ गए हैं मैं रिपोर्टर हूं। पिताजी की तरह अब तुम भी मुझसे नफरत करती हो क्या? जरूरी तो नहीं कि मैं उनकी तरह ही दुकानदार बनकर रहूँ।
माँ ने कहा – ठीक है तो ब्रश करके नहा ले मैं नाश्ता बनाती हूं।
बेटे ने बड़े कड़क स्वर में कहा- नहीं जरूरत नहीं है मैं तुम्हें देखने आ गया। अब मैं गेस्ट हाउस में रुकूँगा।
माँ जोर से हॅंसते हुए कहती है – हां पता है तू बहुत बड़ा आदमी बन गया। अब हम छोटे लोगों के यहां क्यों रहेगा?
और इतनी सिगरेट पर मत पिया कर।
बेटे ने माँ के गले लगा कर कहा – चलो कल तुम्हारी भी नेताजी के साथ फोटो खींच देता हूँ। मेरा रुतबा देखो।
माँ की आंखों में आंसू आ गए और उसने गंभीरता से कहा – मैं तो चाहती हूँ तू खूब तरक्की कर पर तेरा रुतबा मैं देख कर क्या करूंगी?
तू मुझे दिखाना छोड़कर अपनी खुशी के लिए काम कब करेगा?
तभी अचानक पिताजी घर में आ जाते हैं दोनों एक दूसरे को देखते हैं।
बेटे ने तुरंत ही अपना सामान उठाया और धीरे से बड़बड़ाया। मैं बेकार में ही इस घर को याद करके आया। यहाँ तो हमेशा इज्जत छोटे की ही होगी।
पिताजी ने माँ से कहा – जाने दो तुम्हारे बेटे को पैसे का घमंड है, थोड़ी उम्र बीतने दो फिर हमें समझेगा।
माँ दरवाजे की ओर जाकर आंखों में आंसू लेकर बोली तुम दोनों के बीच में मैं फँस के रह गई हूँ।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे।
इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 104 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 9 ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कहानी “बेटी के मोबाईल की घंटी”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 177 – कथा कहानी – बेटी के मोबाईल की घंटी ☆
रामप्रसाद मोबाईल से बात करने के बाद अपनी पेंट की जेब से रूमाल निकालते थे। उससे मोबाईल को अच्छी तरह से साफ करते थे फिर शर्ट की बाएँ जेब में बड़े करीने से उसे रख लेते थे। उन्हें लगता था कि अब समय बदल गया है। सभी अपने आप में व्यस्त हो गये हैं। किसी के पास अब समय नहीं है। यह मोबाईल ही है, जो आज हमारे परस्पर संबंधों में एक सेतु की तरह से काम कर रहा है। आज उनके जीवन में यही एक अमूल्य वस्तु है। जो उनके डायबिटिक जीवन में कभी कभी मिठास की चाहत की भरपाई कर जाता है। क्षण दो क्षण बात तो हो जाती है। बगैर किसी के घर जाये या उसको डिस्टर्ब किये बिना। दूरियाॅं कितनी भी हों, चाहे अपने हों या पराये जब बात करनी हो बेधड़क बात हो जाती। अब तो मोबाईल से लगता था, जैसे दोंनों पक्षों में आपसी सहमति एवं संतुष्टि हो गयी थी। आज के युग में अब मोबाईल धनवानों का फैशन नहीं रहा वरन् निर्धन लोगों की भी आवश्यकता बन गया है।
रामप्रसाद सरकारी नौकरी में थे। उन्हें अब पेंशन मिल रही थी, तो स्वाभाविक है, मोबाईल रिचार्ज कराने में कोई परेशानी नहीं थी। जब बात करते तो जी खोल कर बात करते। इस बढ़ती उम्र में पेट की भूख भी जवाब दे जाती है। धीरे धीरे सारे शौक बंद हो जाते हैं। ऐसी उम्र में पेटराम जरा भी अधिक खाना बर्दास्त नहीं कर सकते। जब कोई पेटू बनने की जुगत भिड़ाता, तो उसकी ऐसी धुलाई कर देता कि सभी कान पकड़ कर भविष्य में स्वयं ही तौबा कर लेते हैं वैसे भी उनके जवानी के दिनों में दिन में आठ दस बार पान खाना या फिर चाय पीना ही शामिल था। इसके सिवाय और कुछ नहीं था। वह भी वर्षों पहले पान सुपाड़ी से दो दांतों ने हिल कर उसे चेतावनी दे दी थी कि यदि सावधान नहीं हुए तो हम सभी आपका साथ छोड़ देंगे। तबसे उन्होंने बचे खुचे शौक भी छोड़ दिये थे। एक तरह से बचत ही बचत थी। समय के प्रति हमेशा सावधान रहा करते थे। जैसे राजा दशरथ को भी दर्पण निहारने पर एक दिन सिर के पके बाल दिखे। जो अनुभव और चिंतन उनने किया, वही रामप्रसाद को हुआ था। उन्होंने अपने सभी बेटों को काम से लगाकर और शादी विवाह करके स्वयं चिन्तामुक्त हो गये थे। अब उनके पास समय ही समय था। पर दूसरों के पास भी तो समय होना चाहिए।
रामप्रसाद के जीवन में बस दो मीठे बोल की ही चाहत रह गयी थी। वे नाते -रिश्तों के अपनेपन और उसकी मिठास के स्वाद से भली भाॅंति परिचित थे। जो आज इस भागती हुयी दुनियाॅं में पता नहीं कहाँ गुम होती जा रही थी। तब ऐसी विषम परिस्थितियों में उनके लिए एक मोबाईल ही तो सहारा बन कर रह गया था। जो उनके व्याकुल मन की लंका पर विजय पाने के लिए, एक आवश्यकता बन गई थी। सतयुग में शांति स्वरूपा सीता को खोजने के लिए लोगों में एक दूसरे के सहयोग की होड़ मची रहती थी। उनके संग में वानर भालू तक तत्पर हो गए थे। पर आज के युग में चिराग लेकर भी ढूँढ़ोगे तो भी शायद कोई मिल जाए सम्भव नहीं।
आज हर घर के बेटों में राम लखन के भातृत्व भाव कम ही देखने मिलते हैं। तो परायों के बारे में सोचना ही व्यर्थ हैै। बनवास के समय साथ चलने की जिद तो केवल रामायण काल की बात थी। इस कलयुग में कौन किसी के साथ, संग निभाता और चलता है। अगर किसी सतयुगी महाशय ने अपने मन में ऐसी अपेक्षायें पाल भी लीं, तो कभी न कभी एक दिन उसका मोह भंग अवश्य हो जाता है। तब ऐसी विषम परिस्थिति में मोबाईल ही एक मात्र सहारा है। कम से कम दूर से ही सही संबंधों की डोर में कुछ बंधे तो हैं। मन की लंका में उथल पुथल न हो और हृदयाघात से बचना है, तो मोबाईल का होना जरूरी है। वार्तालाप करके ही हर मानव सीता रूपी शांति को तो पा जाता है। खोज जब होगी, तब देखा जाएगा। कुशल क्षेम के जरिये दोनों के मन में तसल्ली तो बनी रहेगी।
अचानक रामप्रसाद को वर्षों पूर्व का एक वाकया याद आया। जब प्रमोशन के दौरान नए शहर में उसका जाना हुआ, तब परदेश में मोबाईल से बातचीत करके एक मित्र बनाया। जिसके परिणाम स्वरूप वह आफिस में उस मित्र का दोस्त नहीं वरन् उसका बड़ा भाई बन गया था। वह उस शहर में अपना बड़ा भाई कहकर सबसे मिलवाता था। उसे बहुत खुशी होती। चलो परदेश में ही सही, उसे एक अपना छोटा भाई तो मिला। वह मित्र अपने घर की शादी विवाह में, उसे अपना बड़ा भाई प्रस्तुत कर सम्मान दिलाता रहा। वह भी बड़े गर्व से उस शहर में बड़े भाई की भूमिका दस वर्षों तक निभाता रहा। और अपने आप को उस शहर का ही बड़ा भाई मानने लगा था।
एक दिन उसका ट्रान्सफर फिर दूसरे शहर में हो गया। दो वर्ष गुजर चुके थे। भातृत्व की चाह उसे बार बार अपने छोटे भाई से मिलने को प्रेरित करती। आफिस में लगातार चार दिन के अवकाश ने उसकी चाह की राह खोल दी। उसने इस बार अपने गृह नगर जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। चूंकि अपने इस छोटे भाई से मिलने की उत्कंठा उसके अंदर प्रबल हो गयी थी। उसने तुरंत मोबाईल पर फोन करके अपनी इच्छा प्रगट की। दो तीन दिन तक फोन लगाता रहा पर रिंग टोन जाती रही पर बात नहीं हो पायी। किसी अज्ञात आशंका से वह परेशान हो उठा था। अतः चौथे दिन टेलीफोन लगाया तो मालूम पड़ा वह अपनी ससुराल में है। उससे मिलना असंभव है। पर बड़े भाई की व्यग्रता ने बगैर सोचे समझे तत्काल में रिजर्वेशन करवा लिया था। तब इस समस्या से मुक्ति के लिए सोचा, मन ने कहा- चलो छोटे भाई से न सही और भी यार दोस्तों से मुलाकात हो जायेगी। क्या बुरा है। बिछुड़े शहर से एक बार फिर मुलाकात हो जाएगी। और फिर पहुँच गया उस शहर, अपनी मधुर स्मृतियों को तरोताजा करने के लिए।
उस शहर में एक दिन होटल में चाय की चुस्कियों के साथ अतीत के दिनों की याद कर ही रहे थे कि वे छोटे भाई साहब एकाएक सामने से गुजरे। उनको देखते ही उनके मुख से आवाज निकल गयी। अचानक बड़े भाई को देख उनके चेहरे से हवाईयाॅं उड़ती नजर आईं। देखकर उनकी समझ में आ गया था कि उनके साथ केवल दस वर्षों तक ही बड़े भाई का अनुबंध था। मोबाईल का एक झूठ पकड़ा जा चुका था। उसे सकपकाया देख उन्होंने ही स्नेह से पूँछा -क्या ससुराल जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया ? चलो कम से कम आपसे मुलाकात तो हो गयी, कह कर उस छोटे भाई को अपने गले लगाकर अपने बड़े भाई के बड़प्पन को बरकरार रखा। और उसकी शर्मिन्दगी को अपने गले लगाकर उसे मुक्त कर दिया।
बहत्तर वर्षीय रामप्रसाद को याद है कि वह मजबूरी में ही मोबाईल खरीदने ‘मोबाईल मार्केट’ में गया था। वह पूर्व में मोबाईल की आलोचना करने में कभी नहीं थकता था। सभी के सामने उसे बेकार की वस्तु कहते रहते थे। उसके दुष्परिणामों की जब कोई खबर अखबारों में छपती तो वह उनको कंठस्थ कर लेते और हर किसी को सुनाने की कोशिश करते। जैसे अखबार को तो बस यही पढ़ता था, बाकी तो सारे अनपढ़ों की फौज में शामिल थे। उसे जब भी मौका मिलता लोगों को रटे रटाए तोते के समान सुना देता- भाई साहब आपको मालूम है, मोबाईल से आपके हार्ट पर दुष्प्रभाव पड़ता है, उसकी ध्वनि तरंगों से ढेर सारी समस्यायें पैदा होती हैं …बीमारियाँ फैलती हैं …मस्तिष्क रूग्ण होता है …और गाड़ी चलाते बात करना तो समझो मौत …आदि। लम्बे अंतराल के बाद उसे सबके हाथों में मोबाईल देखकर कुछ ईर्ष्या सी भी होने लगी थी। स्वयं को पिछड़े पन की हीन भावना में पाने लगा था। उसे लगा कि मैं अपनो से व समाज से कटता जा रहा हॅूं तब वह अंतिम निश्चय कर पाया था।
यह भी कोई बात हुई, नम्बर लगाओ और बात कर लो। न आमना और न सामना। न प्रेम न व्यवहार, हलो हाय किया, काम की बात की और फोन कट। उसे हर समय ऐसा लगता था कि एक दूसरे से मिलने जुलने से जो अपनत्व का पुल बनता था, वह आजकल लगभग टूटता जा रहा था। ‘अतिथि देवो भव’ तो वेदों में ही सिमिट कर रह गया था। यह तो हमारे पंडितों के मुख से ही अच्छा लगता था। हमारे आपस में मिलने जुलने की संस्कृति तो बस किताबो में सिमिटती जा रही थी। किसी आगंतुक का आगमन घर वालों के माथे पर चिन्ता की लकीरें खींच देता है। स्नेह, प्रेम- प्यार, मिलन आदि आज निज स्वार्थ की भट्टी में तप कर बिल्कुल राख हो चुका था।
तभी तो आज एक ही शहर में अलग अलग कालोनी में रहने वाले उनके दोनों बेटों के पास समय नहीं था। छोटा बेटा विकास अपने बड़े भाई समीर के घर दो दो माह तक नहीं आता था। जो बात उसे अपने छोटे भाई से करनी होती, तो वह अपने घर से ही मोबाईल में कर लेता था। यहाँ तक कि अपने माता पिता की भी खैर खबर का जरिया, यह मोबाईल ही रह गया था। उसे तो विचित्र तब लगता जब होली दीवाली में भी उनके बेटे एसएमएस से ही तीज त्यौहार निपटा लेते थे। फिलहाल वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहा करता था। बड़े बेटे का यह प्यार था या कर्तव्य। वह इस पचड़े में बिल्कुल भी नहीं पड़ा क्योंकि वह केवल यह जानता था कि यह मकान उसने ही बनवाया था। उसके ही नाम पर था। इंसान की ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती है, सब अपने अपने परिवारों में बँट जाते हैं, अपनी अपनी दुनियाँ में खो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने अपने कमरों में ही सिमिट जाते हैं। दोनों बेटे बट गये थे। बस अभी तक बँटी नहीं थी तो उनकी बेटी। जिसे यह संसार सदियों से पराया धन कह कर हर माँ बाप को समझाता चला आ रहा है।
शादी होने के बाद बेटी दूर शहर में रहती थी। सही अर्थों में उसने मोबाईल अपनी बेटी के लिए ही लिया था। फोन करते ही उसकी खनकती हुयी आवाज उसके कानों में किसी मंदिर की घंटियों के समान बजने लगती थी। कैसे हो पापा … कैसी तबियत है…क्या कर रहे हो पापा …. जैसे न जाने कितने एक साथ प्रश्न दाग देती थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ। रामप्रसाद क्षण भर सोच में पड़ जाते। अगर अस्वस्थता की जानकारी देता हूँ तो किसी चिकित्सक की भाँति सावधानियाँ एवं दवाइयों की लम्बी फेहरिस्त प्रस्तुत करने लगती। शादी होने के बाद से ही वह सयानी हो गई थी। अब वह अपने पापा को पापा नही समझती थी। यह बात और थी कि अभी उसकी उमर उससे आधी से भी कम थी। आखिर वह उसकी गोद में ही खेलकर बड़ी हुई थी। पर आजकल वह तो उसके माँ के समान व्यवहार करने लगती। लगता था कि मेरी हर समस्या का निदान उसके पास था। दूर रहते हुए भी जब मोबाईल में बातचीत कर रही होती है तो लगता है कि वह मेरे सामने खड़े होकर बात कर रही हो। बात खत्म हो जाने के बाद वह कितनी बार अपने घर आने का आग्रह करती।
पापा आप कबसे नहीं आए …पिछली बार जब आए थे, तो दो माह बाद आने का वादा कर गये थे। शादी होने के बाद क्या मैं परायी हो गई … क्या मैं आपकी बेटी नहीं हॅूं ….पापा आ जाओ …कब आ रहे हो …. और आप बस से नहीं ट्रेन से आना … हम रिजर्वेशन करवा कर भेज देंगे आदि आदि….कभी कभी उसे लगने लगता था कि पिता जी लड़की के घर आने से संकोच कर रहे हैं, तो वह अपनी सासू माँ को मोबाईल पकड़ा कर अपने घर की मुखिया का आमंत्रण दिलवाने का प्रयास करने लगती है।
जब कभी बेटी के घर में इस तरह बार बार न आने की बात को कहने का दुस्साहस करता, तो वह उलट कर -बेटी के घर को ‘पराया घर ’कहने वालों की खिंचाई पर उतारू हो जाती। उस संस्कृति के विरोध में आकर खड़ी हो जाती और उनको एक पिता जी की तरह डाँटने लगती है। शायद इसी अपनत्व बोध को पाने के लिए उसने मोबाईल लिया था। जिसे आज भी वह शर्ट के बाएँ जेब में जहाँ उसका दिल धड़कता है, वहाँ बड़े प्यार से सीने से लगा कर रखता है और इंतजार करता रहता है, दो मीठे बोल की… अपनत्व की…जिससे उसके मन मंदिर में पूजा की घंटियाँ अनवरत बजती रहें और वह निरंतर उसकी ध्वनि को सुनता रहे…
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री हेमन्त बवंकर जी द्वारा लिखित “शब्द मेरे… अर्थ तुम्हारे…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 183 ☆
☆ “शब्द मेरे… अर्थ तुम्हारे…” – कवि… हेमन्त बावनकर☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
काव्य कृति.. शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे
कवि.. हेमन्त बावनकर
प्रकाशक.. किताब राइटिंग पब्लिकेशन्स, मुंबई
चर्चा.. विवेक रंजन श्रीवास्तव
कुछ किताबें होती हैं जो अपने पन्नो में गहरे अर्थ संजोए होती हैं। वे मन मस्तिष्क को मथती हैं।
“शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे” हेमन्त बावनकर जी की ऐसी ही कृति है। बावनकर जी की रचनाएँ हिंदी साहित्य में उसी पंक्ति में खड़ी दिखती हैं, जिसमें निराला की विद्रोही चेतना, धूमिल के यथार्थवाद, और अज्ञेय की आत्मपरकता ने मुक्त काव्य को अस्त्र बनाया। कृति निस्संदेह समकालीन हिंदी काव्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिस पर हिंदी जगत में विमर्श वांछित है।
हेमन्त जी के संवेदन शील हृदय पर देश दुनियां की समकाल सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों, कोरोना काल की त्रासदी, और मानवीय जिजीविषा, संवेदनाओं का मर्म स्पर्शी प्रभाव हुआ है, जिसे उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त कर स्वयं को वेदना मुक्त किया है।
भाषा की सहजता से वे पाठकों को रचना के संग बाँधते हैं। हिंदी काव्य परंपरा के साथ साम्य रखते हुए नवीन प्रयोगों को भी रचनाएं समेटती हैं।
कविता “आजमाइश” में बावनकर जी लिखते हैं:
“बचपन से पढ़ा था मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, अब किससे बैर रखना है सिखाने लगे हैं लोग।”
ये पंक्तियाँ धूमिल के “सूनी घाटी का सूरज” जैसी व्यंग्यात्मक शैली की याद दिलाती हैं। “लोकतंत्र का उत्सव” जैसी कविताएँ राजनीतिक व्यवस्था पर प्रहार करती हैं, जिसमें नागार्जुन की शैली जैसी प्रखरता झलकती है। बावनकर जी का यह अभिव्यक्ति पक्ष हिंदी काव्य में कटाक्ष व्यंग्य की समृद्ध परंपरा को बढ़ाता है।
कोरोना काल पर केंद्रित, छोटी रचनाएं जैसे “ऑक्सीज़न”और “कफन” नपे तुले शब्दों में बड़ी बात कहने की उनकी क्षमता की परिचायक है। करुणा काव्य की ताकत होती है।
“ऑक्सीजन तो कायनात में बेहिसाब थी… एक सांस न खरीद सके। “
इन पंक्तियों में मुक्तिबोध की “अंधेरे में” जैसी अस्तित्ववादी पीड़ा की सामूहिक विसंगति दिखती है। “वेंटिलेटर” और “पॉज़िटिव रिपोर्ट” जैसी कविताएँ महामारी में मनुष्य की असहायता को चित्रित करती हैं। विष्णु खरे को जिन्होंने पढ़ा है वे उनके यथार्थवाद से बावनकर जी में साम्य ढूंढ सकते हैं।
बावनकर पारंपरिक मूल्यों और आधुनिकता के बीच तनाव को दर्शाते हैं …
“आज ‘सत्यवान’ कितना ‘सत्यवान’ है? और ‘सावित्री’ कितनी ‘सती’?”
यह प्रश्न अज्ञेय के “असाध्य वीणा” की तरह सांस्कृतिक पहचान के संकट को उजागर करता है। इसी तरह, “विरासत” में वे परंपरा के प्रति आग्रह और उसके विघटन के बीच झूलते मन की अभिव्यक्ति करते हैं।
भाषा की सहजता और प्रतीकात्मकता बावनकर जी का अभिव्यक्ति कौशल है। रचनाओं की भाषा सरल होते हुए भी प्रतीकात्मक है। “बिस्तर” कविता में …
“घर पर बिस्तर उसकी राह देखता रहा… अस्पताल में उसे कभी बिस्तर ही नहीं मिला। “
यहाँ “बिस्तर” करोना काल की स्वास्थ्य व्यवस्था के चरमराते संकट का प्रतीक है, जो सांकेतिक अभिव्यक्ति की ताकत है। इसी तरह, “कॉमन मेन बनाम आम आदमी” जैसी कविताएँ राजनीतिक शब्दजाल को उधेड़ती हैं, जिसमें भाषाई चातुर्य झलकता है।
“लखनऊ से मैं कमाल खान”में जिस सहजता से वे पाठकों से जुड़ते हैं अद्भुत है।
कुल मिलाकर सचमुच हेमन्त जी के ये शब्द, पाठक के लिए केलिडॉस्कोप की तरह हजार अर्थ देते हुए उसे मंथन के लिए प्रभावी बौद्धिक संपदा प्रदान कर रहे हैं।
मुझे लगता है कि बहुआयामी प्रतिभा संपन्न हेमन्त जी को निरंतर काव्य सृजन करते रहना चाहिए, इस संग्रह से उनमें मुझे संभावना से भरपूर कवि के दर्शन हुए हैं।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 134 ☆ देश-परदेश – अधीरता ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बचपन से ही धैर्य रखने का पाठ पढ़ाया जाता है। पहले हम विचार करते थे, कि बस, ट्रेन आदि में ग्रामीण क्षेत्र के लोग यात्रा करते है, वो कम पढ़ें लिखे होते थे, इसलिए गंतव्य स्टेशन आने के समय वो जल्दी जल्दी उतरने को व्याकुल रहते थे। उपरोक्त फोटो तो एक वायुयान के अंदर का हैं। वायुयान को थोड़ा समय लगता है, हवाई पट्टी पर धीमी गति से चलते हुए वो निर्धारित स्थान पर पहुंचता हैं।
वायुयान में तो अधिकतर पढ़े लिखे, बड़े बड़े पदों पर कार्यरत लोग ही यात्रा कर पाते हैं। वहां ऐसी अधीरता क्यों ? सबको जानकारी है, गेट खुलेगा, और बेल्ट पर सामान तो सबका एक साथ ही आयेगा, फिर बाहर जाने में उतावलापन किस लिए ? धिक्कार है, ऐसी शिक्षा और संस्कारों को जो मनुष्य को धैर्यवान जैसा गुण ना दे सके।
“भय बिन होत ना प्रीत” अधीरता दिखा कर नियम तोड़ने वालों को अब आर्थिक दंड भुगतना होगा। वायुयान में कैमरे आपकी गलती पकड़ कर जुर्माना लगा देंगे।
यात्रा आरंभ के समय भी “सबसे पहले हम” मानने वाले प्राणी बहुतायत में हैं। सीट नंबर भी तय है, फिर भी अधीरता क्यों ?
☆ माझी जडणघडण…आई.. – भाग – ४४/१ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆
(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)
आई..
मला आईची महानता तेव्हाच खऱ्या अर्थाने जाणवली जेव्हा मी स्वतः आई झाले. मातृत्व या शब्दाची, या व्याख्येची, भावनेची खरी व्याप्ती आणि जाणीव तेव्हाच झाली जेव्हा मी स्वतः आई झाले. तेव्हा कळलं “माता अनंताची” म्हणजे नक्की काय? मुलांना जन्म दिला की आई ही पदवी जरूर मिळते पण आईपण म्हणजे केवळ मुलाला जन्म देण्यापुरतंच नसून ते त्याच्या शारीरिक आणि मानसिक संगोपनात, जडणघडणीत, त्यास सुविचारी, संस्कारी करण्यात सामावलेलं असतं आणि ही आयुष्यभराची अखंड विस्तृत प्रणाली आहे. असं आईपण निभावताना जेव्हा जेव्हा माझी दमछाक झाली तेव्हा तेव्हा माझ्या मनाच्या गाभाऱ्यात हेच उद्गार घुमले, ” आई! तू कसं केलंस गं? मला तर दोनच मुली आहेत. तू आम्हा पाचही बहिणींचं काटेकोरपणे संगोपन कसं केलस? आमची आजारपणं, रात्रीची जागरणं, आमच्या आवडीनिवडी, खाणंपिणं, वेण्याफण्या सतत आमच्यासाठी.. अगदी अंतर्वस्त्रांपासून ते सुंदर डिझायनर्स पोशाख शिवणे प्राथमिक वर्गातला अभ्यास घेणे, शाळेत जाताना आमचं दप्तर भरणं, मधल्या सुट्टीतला डबा देणं, त्यानंतरही आमच्या उमलत्या वयातले मूडस, शैक्षणिक टप्पे, प्रेमप्रकरणं, लग्नं, बाळंतपणं एक ना अनेक. तुझ्या या अफाट कार्याची यादी सुद्धा करणे मला जमणार नाही. प्रत्येक वयाचे टप्पे ओलांडताना तू आमच्याबरोबर खंबीरपणे असायचीस, डोळसपणे, जाणीवपूर्वक असायचीस म्हणूनच आमच्या जीवनातील अनेक वेगवेगळी वळणं आम्ही सहजपणे पार करू शकलो. तेव्हा मी तुला केवळ गृहीत धरले. आईपणा व्यतिरिक्त तुझ्यात असलेलं एक निराळं व्यक्तिमत्व आम्हाला तेव्हा ना कळलं ना कळून घेण्याची आम्हाला गरज वाटली. एक व्यक्ती म्हणून आयुष्याबद्दल तुझी काही निराळी कल्पना, विचार होते का हा कधी विचारही आम्ही केला नाही.”
आता उपकृत भावनेने जेव्हा मी आईचा विचार करते तेव्हा ती वेगवेगळ्या अनेक रूपात उलगडत जाते.
खरं म्हणजे विसाव्या शतकातला पूर्वार्ध म्हणजे १९२०/२१ चा काळ एकंदरच खूप वेगळा होता. विशेषतः स्त्रियांसाठी. त्या काळात आई ग्रँटरोडच्या “सेंट कोलंबस” या कॉन्व्हेंट स्कूलची विद्यार्थिनी होती. तिला मराठी सोबत इंग्रजीचेही उत्तम ज्ञान होते. शिवाय मुंबईसारख्या मोठ्या आणि महत्त्वपूर्ण नगरीत तिचे बालपण गेले. आजोबांची शिस्त, टापटीप आणि काहीसं पाश्चात्त्य पद्धतीचं वळण तिच्या नसानसात भिनलेलं होतं त्या तुलनेत, आईचं पप्पांशी लग्न झाल्यानंतरचं वातावरण खूप वेगळं होतं. ठाण्याच्या धोबी गल्लीतल्या, फारशा सुविधा नसलेल्या एकमजली घरात आणि ज्या घरात माझ्या आजीचा प्रभाव होता तिथे तिने स्वतःला कसे सामावून घेतले असेल? सुरुवातीला तर त्या घरात इलेक्ट्रिसिटी नव्हती, स्वयंपाकासाठी चूल होती, शेगडी होती. माझ्या आठवणीत चुलीवर गरमागरम भाकऱ्या करणारी आई अजूनही आहे. ज्या बोटांनी आईने अनेक सुंदर पेंटिंग्स केली होती, कित्येक विणकामं, भरतकामं केली होती त्याच हाताने चुलीतली लाकडं पेटवून अथवा सांजवेळी रात्र होण्याच्या आत कंदीलाच्या काचा पुसून घासलेट भरून वाती पेटवताना तिला कधी वैषम्य वाटले असेल का? की त्यावेळी आजूबाजूच्या बहुतांश स्त्रियांचे आयुष्य असेच होते…? “रांधा वाढा उष्टी काढा” याच समूहातले मग आपल्या आईने वेगळा सूर का लावला नाही हा विचार बालपणीतरी आमच्या मनात येण्याचा संभवच नव्हता आणि तिने जर वेगळा सूर लावला असता तर आमच्या आयुष्याचं काय झालं असतं या विचाराने आता माझ्या अंगावर काटा सरसरतो तेव्हा मातृत्वाची खरी व्याख्याही कळते.
वास्तविक त्या काळातही ती रेशनिंग ऑफिसमध्ये नोकरी करत होती. जात्याच ती खूप हुशार आणि मेहनती होतीच. मनात आणलं असतं तर तिने तिथे विशेष कामगिरी करून उच्चपदी पोहोचून स्वतःचं आर्थिक स्वातंत्र्य, ओळख आणि अस्तित्व मिळवलं असतं पण आमच्या जडणघडणीचं एक महत्त्वाचं “जूं” जणू तिच्या मानेवर तिनं पेललं आणि या सर्व स्वकेंद्रित जाणिवांतून ती सहजपणे बाहेर पडली.
“आई! खूप वेळा आणि या क्षणी मला एक अपराधी भावना स्पर्शून जाते. आमच्या संपूर्ण जडणघडणीवर पप्पांच्या विद्वत्तेचा, शिकवणीचा, त्यांच्या नाना प्रकारच्या आवडी आणि रसिकतेचा पगडा निश्चितच आहे. तसेच जिजी म्हणजे आमची आजी.. जिच्या मायेच्या अखंड प्रवाहाची शीतलता आम्ही आयुष्यभर अनुभवली आणि नकळत का होईना आमच्या मनी सतत जिजी आणि पप्पांच्याच आठवणी सहजपणे येत असतात पण खरं म्हणजे जिजी आणि पप्पा आमच्यासाठी संरक्षक भिंती होत्या तर तू आमचं छत होतीस.”
आईला जेव्हा मी निराळेपणाने पाहते तेव्हा जाणवते ती आईची मुळातली सौंदर्यदृष्टी. जिजी आणि पप्पांच्या मधली आई एक व्यक्ती म्हणून फार वेगळी होती. त्याचं कारण तिच्या जडणघडणीची पार्श्वभूमीच निराळी होती. तरीही तिने कधीही कसलाही अहंकार बाळगला नाही. सासू म्हणून तिने जिजीला आणि पती म्हणून पप्पांचा तिने सतत मान राखला आणि समांतरपणे तिने तिची शिस्त, टापटीप, स्वच्छता, घर अडचणीचं असलं तरी कसं सुंदर राखावं याचे धडे नकळत आम्हाला गिरवायला लावले.
“आई रागवेल, आई ओरडेल आईला हे आवडणार नाही” हे भय आम्हाला अनेकदा जिजीच्या कुशीत शिरायला लावायचं पण आईच्या धाकदपटशाने आमच्या आत, कुठेतरी सैरावैरा मोकाट वाढलेलं गवत माळ्याने कात्रून छान आकार द्यावा तसा आकार आम्हाला नक्कीच मिळवून दिला. आईच्या प्रेमाची आणि जिजीच्या मायेची जातच वेगळी होती आणि आज मी या दोघांचं महत्त्व जाणते कारण मी एक आई आणि एक आजी याचा भिन्नपणे या दोन्ही भूमिका जगताना विचार करू शकते. आई आईच असते आणि आजी आजीच असते. दोघीही फक्त प्रेमच करतात पण दोघींच्या प्रेमाचे रंग वेगळे असतात.
सुट्टीच्या दिवसात आई आम्हाला विणकाम, भरतकाम, पेंटिंग्स करायला शिकवायची. एकदा मी विणलेली एक कलाकृती पाहून ती मला म्हणाली, ” हे काय असं विणून ठेवलेस? किती सैल आहे ते? सुईवरचे टाके घट्ट टाकले की वीणही घट्ट होते. मग टाके असे सुटत नाहीत. सारं उसवून पुन्हा विणायला घे. ” आईचं हे सहजपणे उच्चारलेलं वाक्य माझ्यासाठी कायम ब्रह्मवाक्य ठरलं. आयुष्यातली अनेक नाती जपताना माझी जेव्हा जेव्हा होरपळ झाली तेव्हा आईचे हे शब्द नेहमीच कानी राहिले. नात्यांची वीण कशी घट्ट ठेवावी याची महान शिकवण आईने आम्हाला वेळोवेळी दिली ती तिच्या वागण्यातूनही. तिने सासरची माहेरची सगळी नाती प्रेमपूर्वक आणि कर्तव्य बुद्धीने सुद्धा जपली.
आईच्या आणि जिजीच्या नात्यातला घट्टपणा आणि ठिसूळपणा दोन्हीही गंमतीदार होता. जिजीने आईवर आणि आईने जिजीवर मनापासून प्रेमच केलं. दोघींच्यात मतभेद होत, खटके उडत पण आईला कधी कुठून घरी परतायला उशीर झाला तर जिजी लगेच देव पाण्यात ठेवायची. ” का गं? मालू रस्ता तर चुकली नसेल ना? ” असं सतत आम्हाला विचारत राहायची. आईच्या बाबतीत ते खरंही होतं. आईला कधी कधी पटकन रस्ते समजायचे नाहीत. एकदा तर ती “ढग्यांचं घर कुठे आहे? ”… तेव्हा आम्ही नुकतेच नवीन घरात राहायला गेलो होतो.. असं विचारत घरी पोहचली होती. हा विनोदाचा भाग वगळला तरी जिजीला आई विषयी वाटणारी काळजी विलक्षण होती. आईला ही जिजीचं कितीही पटलं नाही तरी तिने जिजीच्या मनाविरुद्ध किंवा तिला विचारल्याशिवाय कधीही काहीही केले नाही. या पाठीमागे आईच्या मनात जिजीविषयी एक कृतज्ञतेचा भाव नक्कीच होता. वयाच्या सोळाव्या वर्षी वैधव्य आलेल्या या स्त्रीने एक तपस्विनीची भूमिका अंगीकारून चार महिन्याच्या तिच्या मुलाला एक परिपूर्ण जीवन बहाल केले होते आणि आज जे काही आम्ही सारे आहोत ते केवळ तिच्यामुळेच ही भावना आईच्या मनातून कधीही पुसली गेली नाही. नकळत आईने एक प्रकारचा सगळ्यांना जोडून राहण्याचा, समजून घेण्याचा संस्कार आम्हाला दिला. पप्पांची सगळी जीवाभावाची नाती तिने त्याच आंतरिक भावनेने जपली. आई जेव्हा गेली तेव्हा पप्पांचा धाकटा मावस भाऊ ज्याला आम्ही “पपी” म्हणायचो तो डोळ्यातले अश्रू पुसत म्हणाला, “आज आम्ही खरे पोरके झालो! आई जाण्याचं दुःख काय असतं हे आज कळतंय. ”