हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – एक क्षण विश्वास।)

☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी जोर-जोर से बज रही थी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक दुर्बल बुढ़िया खड़ा थी।

“क्या है?” मैंने पूछा

“मैं आपके पड़ोसी शर्मा जी के घर पर काम करती हूं उन्होंने आपके लिए एक उपहार भेजा है।”

“क्या मज़ाक कर रही हो अम्मा, शर्मा जी और उनकी वाइफ कभी सीधे मुंह बात नहीं करती वह मेरे लिए उपहार क्या भेजेगी?

उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान थी। मैंने कहा अम्मा मुझ पर व्यंग्य कर रही हो।

“आपका ही उपहार है मैडम, इसे आप ले लीजिए।”

“क्या बेटा मुझे ठंडा एक गिलास पानी मिलेगा?”

मैंने सोचा चलो, अच्छा है पड़ोसी ने कुछ उपहार तो दिया है पर क्या इस अजनबी औरत को पानी देना चाहिए? उसकी आंखों में मुझे सच्चाई दिखाई दी वह पसीने में डूबी थी और मुँह  सूख था।

चारों ओर दोपहरी का सन्नाटा था। कोई एक भी पशु पक्षी नहीं दिख रहे थे।

अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि ज्यादा दया दिखाना उचित है या नहीं?

मैंने दरवाजा बंद करते हुए कहा आप रुको मैं पानी देती हूँ। एक बोतल में फ्रिज का पानी भरा। दो रोटी और कुछ सब्जी को एक पेपर प्लेट में रखा। बाहर आई और कहा अम्मा यहां बैठकर खा लो चाहे तो  दोपहर में आराम करके शाम को चली जाना और यह उपहार भी आप ही लेते जाना और मैंने दरवाजा बंद कर लिया। अंदर ए सी ऑन कर बैठ गई पर मन में यही ख्याल आता रहा कि वह बेचारी बुढ़िया किस मजबूरी में मेरे घर आई ।

उसके मन में क्या चल रहा है? आजकल बाहर इतना खतरा है कि किसी अजनबी पर एक क्षण विश्वास नहीं कर सकते भले ही वह सच बोल रहा हो। चलो शाम को दरवाजा खोल कर देखूंगी। अभी जाने दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 269 ☆ खुशी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 269 ?

☆ खुशी… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

एक हिंदी कवयित्रीनं विचारलं माझ्यासमोरच,

दुसऱ्या हिंदी कवयित्रीला—

“ये प्रभा सोन – वणेजी है ना,

महाराष्ट्र इकाई की अध्यक्ष?

बहुत अच्छा चला रही है,

महाराष्ट्र इकाई!”

खूप छान वाटलं होतं,

पण तेव्हा मला आठवली,

माझ्याबरोबर काम करणारी,

वेदस्मृती- महाराष्ट्र इकाई मंत्री!

खूप प्रगल्भ, सुजाण कवयित्री,

तिच्यामुळेच हताळलेली,

काही हिंदी वृत्ते,

आपल्या यशात नेहमीच,

सामिल असतात,

आपले आप्तस्वकीय,

कुठल्याही कामाचा असू नये गर्व, दंभ,

एकटीनेच एव्हरेस्ट जिंकल्यासारखा!

“खुशी बाँटनेसे  दुगुनी होती है”

हे भान असलेल्या,

माझ्यातल्या मी वर मीच,

खुश असते मी नेहमीच!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 98 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 4 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 98 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 4 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कहीं से लौटकर हारे-थके जब अपने घर आये। 

तो देखा माँ के चेहरे पर समंदर की लहर आये। 

वहाँ आशीष की हरदम घटाएँ छायी रहती हैं, 

मुझे माता के चरणों में सभी तीरथ नजर आये।

0

ठान ले तू अगर उड़ानों की, 

रूह काँपेगी आसमानों की, 

जलजलों से नहीं डरा करते, 

नींव पक्की है जिन मकानों की।

0

माँ के बिना दुलार कहाँ है, 

पत्नी के बिन प्यार कहाँ है, 

बच्चों की किलकारी के बिन 

सपनों का संसार कहाँ है।

0

बेटी को उसका अधिकार समान मिले, 

पूरा करने उसको भी अरमान मिले, 

अगर सुशिक्षित और स्वावलंबी हो जाये 

तो पीहर में क्यों उसको अपमान मिले।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 347 ☆ “22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस विशेष – हरियाली और जल संरक्षण” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 347 ☆

? 22 अप्रैल – पृथ्वी दिवस विशेष – हरियाली और जल संरक्षण ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय पृथ्वी दिवस हमें प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर जीवन जीने की प्रेरणा देता है। इस वर्ष की थीम “पृथ्वी बचाओ” (Planet vs. Plastics) के साथ-साथ पर्यावरण के दो मूलभूत आधार हरियाली और जल संरक्षण पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है। ये दोनों ही तत्व न केवल मानव जीवन, बल्कि समस्त जैव विविधता के अस्तित्व की कुंजी हैं।

हरियाली, प्रकृति का हरा सोना कही जा सकती है।

वृक्ष और वनस्पतियाँ पृथ्वी के फेफड़े हैं। समुद्र पृथ्वी के सारे अपशिष्ट नैसर्गिक रूप से साफ करने का सबसे बड़ा संयत्र कहा जा सकता है। वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित कर ऑक्सीजन प्रदान करने के साथ-साथ वृक्ष मिट्टी के कटाव को रोकते हैं, जलवायु को संतुलित करते हैं, और जीव-जंतुओं को आश्रय देते हैं।

भारत में वनों का क्षेत्रफल लगभग 21.71%, भारतीय वन सर्वेक्षण 2021के अनुसार है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार आवश्यक 33% से कम है। शहरीकरण, अंधाधुंध निर्माण, और औद्योगिकीकरण के कारण हरियाली का ह्रास एक गंभीर समस्या बन चुका है।

– वनों की कटाई से मरुस्थलीकरण बढ़ रहा है।

– प्रदूषण के कारण पेड़ों का जीवनकाल घटा है।

– जैव विविधता पर संकट।

समाधान:

– सामुदायिक स्तर पर वृक्षारोपण अभियान चलाना।

– सरकारी योजनाओं जैसे ग्रीन इंडिया मिशन को सक्रियता से लागू करना।

– शहरी क्षेत्रों में छतों पर बगीचे (टेरेस गार्डनिंग) को बढ़ावा देना।

– – – जल संरक्षण:

जल ही जीवन है, यह वाक्य भारत जैसे देश में और भी प्रासंगिक है,NITI आयोग, 2018 के अनुसार 60 करोड़ लोग पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं । नदियों का प्रदूषण, भूजल स्तर का गिरना, और वर्षा जल का अपव्यय जल संकट को गहरा कर रहे हैं।

चुनौतियाँ:

– कृषि और उद्योगों में जल की अत्यधिक खपत।

– वर्षा जल संचयन की पारंपरिक प्रणालियों (जैसे कुएँ, तालाब) का विलोपन।

– नदियों में प्लास्टिक और रासायनिक कचरे के निपटान को रोकना।

समाधान:

– वर्षा जल संचयन (रेनवाटर हार्वेस्टिंग) को अनिवार्य बनाना।

– नदियों की सफाई के लिए नमामि गंगे जैसे अभियानों को व्यापक स्तर पर लागू करना।

– किसानों को ड्रिप सिंचाई और फसल चक्र अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।

हरियाली और जल संरक्षण: दोनों का अटूट नाता है। ये दोनों पहलू एक-दूसरे के पूरक हैं। वृक्ष भूजल स्तर बढ़ाने में मदद करते हैं, जबकि जल के बिना हरियाली संभव नहीं। हरियाली के बिना शुद्ध वातावरण संभव नहीं होता। उदाहरण के लिए, राजस्थान के तरुण भारत संघ ने जल संरक्षण और वनीकरण के माध्यम से अलवर क्षेत्र को हरा-भरा बनाने का वृहद कार्य किया है। इसी प्रकार, केरल की “हरित क्रांति” ने वर्षा जल प्रबंधन को प्राथमिकता देकर कृषि उत्पादन बढ़ाया।

हम क्या कर सकते हैं?

1. व्यक्तिगत स्तर पर:

– घर में पौधे लगाएँ और पानी की बर्बादी रोकें।

– प्लास्टिक का उपयोग कम करके मिट्टी और जल को प्रदूषण से बचाएँ।

– वर्षा जल संग्रह प्रारंभ करें।

2. सामुदायिक स्तर पर:

– गली-मोहल्ले में जागरूकता अभियान चलाएँ।

– स्कूलों और कॉलेजों में “इको-क्लब” बनाएँ।

3. राष्ट्रीय स्तर पर:

– सरकार को जल शक्ति अभियान और राष्ट्रीय हरित न्यायालय के निर्देशों को कड़ाई से लागू करना चाहिए।

पृथ्वी दिवस केवल एक दिन का आयोजन नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रति हमारी सतत प्रतिबद्धता दोहराने का प्रतीक है। हरियाली और जल संरक्षण के बिना, मानवता का भविष्य अंधकारमय है। हम सब को”थिंक ग्लोबली, एक्ट लोकली” के सिद्धांत पर चलते हुए, अपनी धरती को सुरक्षित रखने की शपथ लेने का समय है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 172 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 172 – मनोज के दोहे ☆

ग्रीष्म प्रतिज्ञा भीष्म सी, तपा धरा का तेज।

मौसम के सँग में सजी, बाणों की यह सेज।।

 *

सूरज की अठखेलियाँ, हर लेतीं हैं प्राण।

तरुवर-पथ विचलित करे, दे पथिकों को त्राण।।

 *

बना जगत अंगार है, धधक रहे अब देश।

कांक्रीट जंगल उगे, बदल गए परिवेश।।

 *

तपती धरती अग्नि सी, बनता पानी भाप।

आसमान में घन घिरें, हरें धरा का ताप ।।

 *

भू-निदाघ से तृषित हो, भेज रही संदेश।

इन्द्र देव वर्षा करो, हर्षित हो परिवेश।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 – खेल तमाशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अत्यंत हृदयस्पर्शी लघुकथा “खेल तमाशा ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 ☆

🔥लघुकथा🔥🌹खेल तमाशा 🌹

शहर के मध्य बहुत बड़ा सर्व सुविधायुक्त आजकल के माॅल का फैशन। सामान खरीदने या फिर मौज मस्ती की जगह। थियेटर, गेम जोन से लेकर गाड़ी चलाना, गाना बजाना, खाना पीना सभी प्रकार के मनोरंजन के साधन।

एक मदारी रोज ही अपने छोटे से बंदर को लेकर, वहाँ पास में तमाशा दिखाता था।कभी-कभी दया या दान का काम करते उसे भी सभी आने- जाने वालों से अपनी रोजी- रोटी मिल जाती थी।

तेज भीषण गर्मी, लू की तपन,बंदर भी खूब रंगबिरंगी कपड़ों से सजा, लंबी पूँछ, सर पर टोपी, पूरे साजों श्रृंगार करके तमाशा दिखा रहा था।

आज शाम बहुत भीड़ लगी थी, तमाशा देखने वालों की। कतारों में खड़े लोग तालियाँ बजा रहे थे। अचानक इतनी भीड़ देख कर हैरानी हो रही थी। झाँक कर देखने पर पता चला–गर्मी की तपन से मदारी का बंदर मर चुका था। वह अपने छोटे से बच्चे को बंदर बना कर नचा रहा था।

बाकी सभी अपने-अपने बच्चों को दिखा रहे थे – – कितना सुंदर बंदर बना है बच्चा। चिप्स और केले दिये जा रहे थे।

मदारी हँसते – रोते खुल्ले सिक्के, नोट बटोर रहा था। आज उसे सभी दिनों से खेल तमाशे का मेहताना ज्यादा मिला। जीवन तमाशा बनते देखता रहा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 128 – देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 128 ☆ देश-परदेश – चलती ट्रेन में सुविधाएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत 16 अप्रैल के दिन ही वर्षों पूर्व, पहली भारतीय रेल यात्रा आरंभ हुई थी। उसी को यादगार बनाने के लिए मुम्बई और मनमाड़ के मध्य चलने वाली “पंचवटी एक्सप्रेस” के अंदर बैंक ने ATM सुविधा भी आरंभ कर दी हैं। यात्रियों के लिए एक बहुत बड़ी सुविधा और स्टेशन पर कार्यरत स्टाफ भी इस सुविधा का लाभ ले पाएगा।

ट्रेन में यात्रियों को खरीदारी करने या जुआ खेलने के लिए धन राशि की आवश्यकता की आपूर्ति के लिए ये सुविधा एक मील का पत्थर साबित होगी।

सबसे पहले चलती ट्रेन में आप क्या क्या खरीद सकते है, इस पर चर्चा कर लेनी चाहिए। चलती ट्रेन में खान पान की सुविधा का लाभ उठाने के लिए लोगों को अब धन की कमी आड़े नहीं आएगी। यात्रा में बीच के स्टेशन पर अनेक बार स्थानीय पदार्थ जिसमें फल और सब्जी मुख्य है, सस्ते भाव पर उपलब्ध होते हैं। स्थानीय कलाकार हस्त निर्मित वस्तुएं भी चलती ट्रेन में या बीच के स्टेशंस पर मिल जाती हैं।

मुम्बई की लोकल ट्रेन में इतनी अधिक भीड़ होती है, कि, कई बार चींटी भी नहीं घुस पाती है, फिर भी विक्रेता आप को स्टेशनरी, फल, किताबें आदि बेच कर चला जाता हैं। महिलाओं के कोच में भी सिलाई, बुनाई, मेकअप आदि से लेकर पूरी रेंज लोकल ट्रेन में मिल जाती हैं। महिलाओं से ठसाठस भरी हुई ट्रेन में पुरुष विक्रेता अपना रास्ता वैसे बना लेता है, जैसे पहाड़ों के मध्य से जल अपनी निकासी का मार्ग बना लेता हैं।

चलती ट्रेन में प्रतिबंधित मदिरा भी खाद्य पदार्थ विक्रेता प्रीमियम पर उपलब्ध करवाने की क्षमता रखते हैं। इसका भुगतान वो नगद राशि में ही स्वीकार करते हैं। ऐ टी एम सुविधा आरंभ हो जाने से इस व्यवसाय में भी वृद्धि होगी।

जेब कतरे भी अब ट्रेन के अंदर ही अपने कारोबार को अंजाम दे सकेंगे। वो लोग मंथली पास बनवाकर यात्रा करेंगे, ताकि व्यापार करने की लागत कम की जा सकें।

आने वाले समय में ट्रेन के अंदर “नाई का सैलून” भी खुल सकने की प्रबल संभावना हैं। आगे आगे देखिए रेलवे नई नई सौगातों की झड़ी लगा देगा, बस सिर्फ भीड़ होने के कारण, बैठने के लिए उचित स्थान नहीं उपलब्ध हो पायेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #281 ☆ फुलले कमळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 281 ?

☆ फुलले कमळ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

वाकड्या वाटेवरी तो चालला इतका सरळ

राजकारण खेळले जे पाढरे झाले उखळ

*

झाकता उखळास येणे ही कला जमली तया

लक्षवेधी मांडली मग त्यास तर दिसता कुसळ

*

काल दलदल फार होती गाळ होता साचला

एवढ्या चिखलातुनीही छानसे फुलले कमळ

*

केतकीवर प्रेम त्याचे रान त्याने पोसले

भोवताली नाग होते ओकला नाही गरळ

*

हिरवळीवर झोपणारा तो फुलावर भाळला

बाभळीच्या दूर गेला रान केले ना जवळ

*

चोर इतका पुष्ट होता जीव घेउन धावला

लागला मागे शिपाई भावना नव्हती चपळ

*

साठवावे नीर थोडे त्यास नाही वाटले

कोरडे दिसले मला जे पात्र ते होते उथळ

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… वासंती  – भाग – ३८ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)

जात

आयुष्याच्या प्रवासामध्ये घडणाऱ्या धक्कादायक घटनांचा परिणाम हा कायमस्वरूपी असतो का? हा प्रश्न जेव्हा माझ्या मनात येतो तेव्हा मला मिळणारं उत्तर हे अस्पष्ट असतं. त्याचं कारण असं की आठवणी जरी मागे उरलेल्या असल्या तरी काळानुसार त्या घटनेच्या वेळचा तीव्रपणा, कडवटपणा, त्यावेळी प्रत्यक्षपणे उसळलेली बंडखोरी अथवा वादळ शमलेलं असतं. सरकणाऱ्या काळाबरोबर खूप काही बदललेलंही असतं आणि या जाणिवेपर्यंत आपण पोहोचतो की आता मागचं कशाला उगाळायचं? जे झालं ते झालं किंवा झालं गेलं विसरून जाऊन पुन्हा एकदा नव्याने धागे विणणे जर आनंदाचे असेल तर ते का स्वीकारू नये?

काही दिवसापूर्वीच माझी एक बालमैत्रीण मला एका समारंभात भेटली. बोलता बोलता ती म्हणाली, ” त्या दोघींना बघितलेस का? कशा एकमेकींना प्रेमाने मिठी मारत आहेत! एकेकाळी तलवारी घेऊन भांडत होत्या. माणसं कसं काय विसरू शकतात गं भूतकाळातले खोलवर झालेले घाव? ”

तिच्या त्या प्रश्नाने माझ्या अंतर्मनातले संपूर्ण बुजलेले व्यथित खड्डे पुन्हा एकदा ठिसूळ झाल्यासारखे भासले.

१७/१८ वर्षांचीच असेन मी तेव्हा. दोन वर्षांपूर्वीच ताईचे तिने स्वतः पसंत केलेल्या मुलाशी थाटामाटात लग्न झाले होते. मुल्हेरकरांचा अरुण हा आम्हाला केवळ बालपणापासून परिचितच नव्हता तर अतिशय आवडता आणि लाडका होता तो आम्हा सर्वांचा आणि अरुणचे काका- काकी म्हणजे बाबा- वहिनी मुल्हेरकर आमचे धोबी गल्लीतले गाढ आमने सामनेवाले. आमचे त्यांचे संबंध प्रेमाचे, घरोब्याचे आणि त्यांच्या घरी नेहमी येणारा त्यांचा गोरागोमटा, उंच, तरतरीत, मिस्कील, हसरा, तरुण पुतण्या अरुणच्या प्रेमात आमची ही सुंदर हुशार, अत्यंत उत्साही, बडबडी ताई हरवली तर त्यात नवल वाटण्यासारखे काहीच नव्हते. खरं म्हणजे दोघेही एकमेकांना वैवाहिक फूटपट्टी लावली असता अत्यंत अनुरूप होते. बाबा आणि वहिनी खुशच होते पण अरुणच्या परिवारात म्हणजे त्याचे आई-वडील (भाऊबहिणीं विषयी मला नक्की माहीत नाही पण आई-वडिलांच्या मतांना पाठिंबा देणारे ते असावेत) त्यांचा या लग्नाला प्रचंड विरोध होता आणि त्याला कारण होते.. आमची जात. मुल्हेरकर म्हणजे चंद्रसेनीय कायस्थ प्रभू म्हणजे सीकेपी, उच्च जातीतले. ब्राह्मण जातीनंतरची दुसरी समाजमान्य उच्च जात म्हणजे सीकेपी असावी आणि आम्ही शिंपी. जरी धागे जोडणारे, फाटकं शिवणारे, विरलेलं काही लक्षात येऊ नये म्हणून सफाईदारपणे रफू करणारे वा ठिगळं लावणारे असलो तरी शिंपी म्हणजे खालच्या जातीचे. जात म्हणजे जातच असते मग तुमच्या घरातले अत्यंत उच्च पातळीवरचे संस्कार, बुद्धीवैभव, संस्कृती, जीवनपद्धती, आचार विचार यांना या पातळीवर महत्व नसते त्यामुळे हा धक्का जरा मोठाच होता आम्हा सर्वांसाठी. त्यातून पप्पांनी आमच्यावर एक मौलिक संस्कार आमच्या ओल्या मातीतच केला होता. “जाती या मानवनिर्मित आहेत. मनुष्य कोणत्या जातीत जन्माला यावा हे केवळ ईश्वराधीन असते त्यामुळे जन्माला येणार्‍याची खरी जात एकच. “माणूस” आणि जगताना तो माणूस म्हणून कसा जगतो हेच फक्त महत्त्वाचं. ” अशा पार्श्वभूमीवर ताई आणि अरुणचं लग्न या जातीभेदात अडकावं ही आमच्यासाठी फार व्यथित करणारी घटना होती पण “मिया बिबी राजी तो क्या करेगा काजी? ”

कदाचित अरुण म्हणालाही असेल ताईला, ” आपण पळून जाऊन लग्न करूया” आणि ताईने त्याला ठामपणे सांगितले असेल, ” असा पळपुटेपणा मी करणार नाही कारण मी ज. ना. ढगे यांची मुलगी आहे. ”

अखेर प्रीतीचा विजय झाला. अरुणने घरातल्या लोकांची समजूत कशी काढली याबाबतीत अज्ञान असले तरी परिणामी अरुणा -अरुण चे लग्न थाटामाटात संपन्न झाले. त्या रोषणाईत त्या झगमगाटात जातीची धुसफूस, निराशा, भिन्न रितीभातीचे पलिते काहीसे लोपल्यासारखे भासले, वाटले. आम्ही सारेच लग्न किती छान झाले, सगळे मतभेद विरले, आता सारे छान होईल या नशेतच होतो पण नाही हो!

विवाहा नंतरच्या काळातही त्याची झळ जाणवतच राहिली. ती आग अजिबात विझलेली नव्हती. आपली लाडकी बाबी संसारात मानसिक कलेश सोसत आहे या जाणिवेने पप्पा फार व्यथित असायचे. वास्तविक भाईसाहेब मुल्हेरकर (अरुणचे वडील) जे रेल्वेत अधिकारी पदावर होते त्यांच्याविषयी पप्पांना आदर होता पण क्षुल्लक विचारांच्या किड्यांनी ते पोखरले जावेत याचा खेद होता. त्यात आणखी एक विषय पपांना सतावणारा होता आणि तो म्हणजे “बुवाबाजी”. प्रचंड विरोध होता पप्पांचा या वृत्तीवर आणि धोबी गल्लीच्या कोपऱ्यावर राहणाऱ्या एका बाईकडे बसणार्‍या, लोकांना भंपक ईश्वरी कल्पनात अडकवून त्याच्या नादी लावणाऱ्या “पट्टेकर” नावाच्या, स्वतःला महाराज समजणाऱ्या या बुवाच्या नादी हे सारं कुटुंब लागलेलं पाहून ते संताप करायचे. त्यातून ताई आणि अरुणही केवळ घरातले सूर बिघडू नयेत म्हणूनही असेल कदाचित पट्टेकरांकडे अधून मधून जात हे जेव्हा पप्पांना कळले तेव्हा आमच्यासाठीचा हा महामेरू पायथ्यापासून हादरला आणि माझ्यात उपजतच असलेली बंडखोरीही तेव्हाच उसळली.

या सगळ्या निराशाजनक, संतापजनक दुःख देणाऱ्या पार्श्वभूमीवरही काही आनंदाचे क्षण अनुभवायला मिळाले हे विशेष.

आमच्या घरात कित्येक वर्षांनी तुषारच्या जन्माच्या निमित्ताने “पुत्ररत्न” प्राप्त झाले आणि त्याचा आनंद काय वर्णावा! ताई -अरुणला पहिला पुत्र झाल्याचा आनंद समस्त धोबी गल्लीने अनुभवला. जणू काही “राम जन्मला गं सखी राम जन्मला गं” हाच जल्लोष होता. बाबा वहिनींना तर खूपच आनंद झाला. काय असेल ते असो जातीभेदाच्या या युद्धात ते मात्र सदैव तटस्थ होते. त्यांचा आमचा घरोबा, प्रेम, स्नेह कधीही ढळला नाही. त्यांनी लहानपणापासून त्यांच्या प्रेमळ सान्निध्यात वाढलेल्या ताईचा सून म्हणूनही नेहमी सन्मान राखला. तिच्यातल्या गुणांचं कौतुक केलं.

आमच्या घरात तुषारचे बारसे आनंदाने साजरे झाले. अरुणचा समस्त परिवार बारशाला आला होता. त्यांनी व्यवस्थित बाळंतविडा, तुषारसाठी सुवर्ण चांदीची बालभूषणेही आणली पण इतक्या आनंदी समारंभात त्यांनी आमच्या घरी पाण्याचा थेंबही मुखी घेतला नाही. आईने मेहनतीने बनवलेल्या खाद्यपदार्थांना हातही लावला नाही. कुणाशी संवाद केला नाही. ।अतिथी देवो भव । या तत्त्वानुसार आई, जीजी, पप्पा यांनी कुठलीही अपमानास्पद वागणूक अथवा तसेच शब्दही मुखातून प्रयासाने येऊ दिले नाहीत मात्र आमच्या याही आनंदावर पार विरजण पडलं होतं.

पाळण्यात बाळ तुषार रडत होता. त्याला मी अलगद उचललं. त्याचे पापे घेतले. त्या मऊ, नरम बालस्पर्शाने माझ्या हृदयातली खदखद, माझ्यासाठी जीवनात अत्यंत महत्त्वाच्या तीन व्यक्तींचा झालेला हा अपमान, मनोभंग आणि त्यातून निर्माण झालेला असंतोष शांत झाला होता का? पण मनात आले या कडवट, प्रखर आणि माणसामाणसात अंतरे निर्माण करणारे हे जातीयवादाचे बाळकडू या बाळाच्या मुखी न जावो!

पुढे अनेक क्लेशकारक घटना घडणार होत्या. एका सामाजिक अंधत्वाच्या भयाण सावलीत आमचं पुरोगामी विचारांचं कुटुंब ठेचकाळत होतं हे वास्तव होतं. त्याबद्दल मी पुढच्या भागात लिहीन आणि या वैयक्तिक कौटुंबिक बाबीं आपल्यापुढे व्यक्त करण्याची माझी एकच भूमिका आहे की माणसाच्या मनातले हलके विचार किंवा श्रेष्ठत्वाच्या दांभिक भावना जगातल्या प्रेमभावनेचा अथवा कोणत्याही सुंदर आत्मतत्त्वाचा किती हिणकस पद्धतीने कडेलोट करतात याविषयी भाष्य करणे. हे असं कुणाच्याही बाबतीत कधीही होऊ नये. कुठलाही इतिहास उगाळून मला आजचा सुंदर वर्तमान मुळीच बिघडवायचा नाही पण घडणाऱ्या घटनेचे त्या त्या वेळी जे पडसाद उमटतात त्याचा व्यक्तीच्या जडणघडणीवर नक्कीच परिणाम झालेला असतो..

– क्रमश: भाग ३८

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 233 – बुन्देली कविता – बगरी जोत जुनाई… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – बगरी जोत जुनाई।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 233 – बगरी जोत जुनाई… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

चाँदी बरस रही नगरी में

बगरी जोत जुनाई |

 

कोउ कहे सूरज को उन्ना

धरती आन परो |

कोउ कहे ऊसा के कर सें

कलसा ढरक परो ।

 

जित्ते मों हैं उत्ती बातें

किनपे कान धरो

ठंडी साँस भरत तो जियरा

दियना तेल परो ।

 

उजयारे की लालटेन लयें

कौन कहाँ सें आई ।

बगरी जोत जुनाई |

 

धन्न धन्न बा दहटी-आँगन

जी ने तुमें दओ ।

रूप समेंटौ नित नेंनन में

पारा बगर गओ ।

 

प्यासे लिंघा नदी आई हो

कब औ किते अओ

कौन डगरियन बेला फूलो

हमने जान लओ।

 

पढ़े लिखिन की अकल हिरानी

भूले अच्छर ढाई।

बगरी जोत जुनाई।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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