मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #160 ☆ दिलाची सलामी….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 160 – विजय साहित्य ?

☆ दिलाची सलामी….! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

बसा सावलीला, जिवा शांतवाया

शिवारात माझ्या, रूजे बापमाया.

 

परी बापमाया, कशी आकळेना ?

दिठीला दिठीची, मिठी सोडवेना.

 

घरे चंद्रमौळी, तुझ्या काळजाची

तिथे माय माझी, तुला साथ द्याची

 

मनाच्या शिवारी ,सुगी आसवांची

तिथे सांधली तू, मने माणसांची.

 

जरी दुःख आले, कुणा गांजवाया

सुखे बाप धावे , तया घालवाया

 

किती भांडलो ते, क्षणी आठवेना

परी याद त्याची, झणी सांगवेना.

 

कुणा भोवलेली , कुणी भोगलेली

सदा ती गरीबी, शिरी खोवलेली .

 

कधी ऊत नाही, कधी मात नाही

शिळ्या भाकरीची, कधी लाज नाही.

 

कधी साहिली ना , कुणाची गुलामी

झुके नित्य माथा, सदा रामनामी .

 

सणाला सुगीला , तुझा देह राबे

तरी सावकारी, असे पाश मागे .

 

जरी वाहिली रे , नदी आसवांची

तिथे नाव येई , तुझ्या आठवांची

 

गरीबीतही तू , दिले सौख्य नामी

तुला बापराजा , दिलाची सलामी.

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

२६/१/२०२३

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १७ (इंद्रवरुण सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १७ (इंद्रवरुण सूक्त) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त १७ (इंद्रवरुण सूक्त)

ऋषी – मेधातिथि कण्व : देवता – अग्नि 

ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील सतराव्या सूक्तात मेधातिथि कण्व या ऋषींनी इंद्र देवतेला आणि वरूण देवतेला आवाहन केलेले आहे. त्यामुळे हे सूक्त इंद्रवरुण सूक्त म्हणून ज्ञात आहे. 

मराठी भावानुवाद : 

इंद्रा॒वरु॑णयोर॒हं स॒म्राजो॒रव॒ आ वृ॑णे । ता नः॑ मृळात ई॒दृशे॑ ॥ १ ॥

राज्य करिती जे जगतावरती इंद्र आणि वरुण

त्यांच्या चरणी करुणा भाकत दीन आम्ही होउन 

शरण पातता त्यांच्या चरणी सर्व भाव अर्पुन

सर्वसुखांचा  करीत ते वर्षाव होउनि प्रसन्न ||१||

गन्ता॑रा॒ हि स्थोऽ॑वसे॒ हवं॒ विप्र॑स्य॒ माव॑तः । ध॒र्तारा॑ चर्षणी॒नाम् ॥ २ ॥

उभय देवता इंद्र वरुण येताती झणी धावत

अमुच्या जैसे भक्त घालती साद तुम्हाला आर्त 

त्या सर्वांचे रक्षण तुम्ही सदैव हो करिता

अखिल जीवांचे पोषणकर्ते तुम्ही हो दाता ||२||

अ॒नु॒का॒मं त॑र्पयेथा॒मिंद्रा॑वरुण रा॒य आ । ता वा॒ं नेदि॑ष्ठमीमहे ॥ ३ ॥

तृप्ती करण्या आकाक्षांची द्यावी धनसंपत्ती

हे इंद्रा हे वरुणा अमुची तुम्हाठायी भक्ती

उदार व्हावे सन्निध यावे इतुकी कृपा करावी

अमुची इच्छा प्रसन्न होऊनि देवा पूर्ण करावी ||३||

यु॒वाकु॒ हि शची॑नां यु॒वाकु॑ सुमती॒नां । भू॒याम॑ वाज॒दाव्ना॑म् ॥ ४ ॥

कृपाकटाक्षासाठी  तुमच्या कष्ट करू आम्ही 

श्रेष्ठ करोनी कर्म जीवनी पात्र होऊ आम्ही 

सामर्थ्याचा लाभ होतसे कृपादृष्टीने तुमच्या  

काही न उरतो पारावार भाग्याला अमुच्या ||४||

इंद्र॑ः सहस्र॒दाव्नां॒ वरु॑णः॒ शंस्या॑नां । क्रतु॑र्भवत्यु॒क्थ्यः ॥ ५ ॥

सहस्रावधी दानकर्मे श्रेष्ठ इंद्र करितो

सकल देवतांमाजी तो तर अतिस्तुत्य ठरतो

वरुणदेवते त्याच्या संगे स्तुती मान मिळतो

या उभयांच्या सामर्थ्याची आम्ही प्रशंसा करितो  ||५||

तयो॒रिदव॑सा व॒यं स॒नेम॒ नि च॑ धीमहि । स्यादु॒त प्र॒रेच॑नम् ॥ ६ ॥

कृपा तयाची लाभताच संपत्ति अमाप मिळे

त्या लक्ष्मीचा संग्रह करुनी आम्हा मोद मिळे

कितीही त्याने दिधले दान त्याच्या संपत्तीचे

मोल कधी त्याच्या खजिन्याचे कमी न व्हायाचे ||६||

इंद्रा॑वरुण वाम॒हं हु॒वे चि॒त्राय॒ राध॑से । अ॒स्मान्त्सु जि॒ग्युष॑स्कृतम् ॥ ७ ॥

हे देवेंद्रा वरुण देवते ऐका अमुचा धावा

धनसंपत्ती सौख्यासाठी आम्हाला हो पावा

प्रसन्न होऊनी अमुच्यावरती द्यावे वरदान 

अमुच्या विजये वृद्धिंगत हो तुमचाची मान ||७||

इंद्रा॑वरुण॒ नू नु वां॒ सिषा॑सन्तीषु धी॒ष्वा । अ॒स्मभ्यं॒ शर्म॑ यच्छतम् ॥ ८ ॥

इंद्रा-वरुणा सदैव आम्ही चिंतनात तुमच्या

भविष्य अमुचे सोपविले आहे हाती तुमच्या 

सदात्रिकाळी जीवनामध्ये होवो कल्याण

कर ठेवूनिया शीरावरी द्यावे आशीर्वचन ||८||

प्र वा॑मश्नोतु सुष्टु॒तिरिंद्रा॑वरुण॒ यां हु॒वे । यामृ॒धाथे॑ स॒धस्तु॑तिम् ॥ ९ ॥

सुरेंद्र-वरुणा तुम्हासि अर्पण स्तुती वैखरीतुनी

प्रोत्साहित झालो आम्ही मोहक तुमच्या स्मरणानी

सुंदर रचिलेल्या या स्तुतिने तुमची आराधना  

प्रसन्न होऊनी स्वीकारावी अमुची ही प्रार्थना ||९||

हे सूक्त व्हिडीओ  गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक येथे देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे. 

https://youtu.be/j7qWOqc8gp8

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© डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ अभिसारिका ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ अभिसारिका ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

डोळयात वाच माझ्या तू गीत भावनांचे… 

आसवे ही तरळून गेली कुसकरल्या प्रीत सुमनाचें… 

अधरी शब्द खोळंंबले दाटल्या मनी कल्लोळाचे…

समजूनी आले मजला माझेच होते चुकीचे…

उधळून टाकिले स्व:ताला प्रीतीच्या उन्मादात… 

माझाच तू होतास जपले हृदयीच्या कोंदणात…

प्रितीच्या गुलाबाला काटेही तीक्ष्ण असतात… 

बोचले ते कितीही त्याची तमा मी कधीच ना बाळगली.. 

अन तू… अन तू शेवटी एक भ्रमरच निघालास… 

फुला फुलांच्या मधुकोषात क्षणैक बुडालास.. 

भास आभासाची ती एक क्रिडा होती तुझी…

कळले नाही तेव्हा पुरती फसगत होणार होती माझी… 

शुल अंतरी उमाळ्याने उफाळून येतोय वरचेवरी..

एकेक आठवणींचा पट उलगडे पदरा पदरावरी.. 

तू पुन्हा परतूनी यावेस आता कशाला ठेवू हि आस..

वाटलेच तुला तसे शल्य माझ्या उरीचे बघुनी जाशील खास..

होती एक अनामिक अभिसारिका …

तुझी ठेवेन आठवणी मी जरी तू विसरलास..

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470.

ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 134 ☆ चिंतनशीलता ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चिंतनशीलता। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 133 ☆

☆ चिंतनशीलता 

समय के साथ- साथ चलते हुए लोग अक्सर आगे निकल जाते हैं। जब निरंतरता हो तो कोई भी कार्य आसानी से होता है, ऐसा लगता है मानो चमत्कार हो रहा है। एक साथ इतने सारे रिकॉर्ड बनते जाना, सबको एक टीम में जोड़कर रखना, सबकी उन्नति के रास्ते खोलना, हर चेहरे पर मुस्कुराहट हो, इस सबका ध्यान जिसने रखा वो न सिर्फ स्वयं सफल होता है बल्कि औरों को भी अपनी बराबरी पर ला खड़ा करता है। ऐसा आजकल यूट्यूबरों द्वारा देखने में आ रहा है। सही भी है जो दोगे वही वापस मिलेगा अब तो इस बात को लोगों ने समझना शुरू कर दिया है।

नेटवर्क मार्केटिंग तो इसी सिद्धांत पर चलती है। एक चेन बनाओ फिर चक्र के रूप में सभी लाभान्वित होते रहिए। बस बात यहीं आकर रुकती है, कि परिश्रम की यात्रा का लक्ष्य किस हद तक पूरा हुआ है। जब आप अनुभवों के साथ जीना शुरू कर देते हैं तो राहें आसान हो जातीं हैं। इन सबमें संवाद का होना बहुत जरूरी होता है। नए बिंदुओं की खोज जब रोज होने लगे तो इतिहास रचना तय हो जाता है। ऐसा देखने में आता है कि मंजिल के पास ही भटकन का रास्ता भी होता है जिसनें लापरवाही की वो मुहँ के बल गिर जाता है,और करीबी उसे धक्का देने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।

कुछ भी हो बस अच्छा कार्य करते रहिए। कब कौन से विचार मन को प्रभावित कर जाएँ कहा नहीं जा सकता है। गुटबाजी हर क्षेत्र में अपना प्रभाव रखती है। पक्ष और विपक्ष का वार केवल नेताओं तक सीमित नहीं रह गया है अब तो विचारधारा ने भी अपने आपको एक गुट में खड़ा कर दिया, जब ये लगता है कि मेरा पक्ष मजबूत है तभी हल्की सी चोट लगती है और सब धराशायी हो जाता है। दूसरा गुट  विचारों को इतने टुकड़ों में बाँटता चला जाता है कि कहाँ से जोड़ा जाए समझ ही नहीं आता। इन सबमें मीडिया को एक ज्वलंत मुद्दा मिल जाता है और वो सम्बंधित लोगों को एकत्र कर चर्चा शुरू करवा देते हैं। नतीजा वही ढाक के तीन पात।

खैर इन सबमें इतना जरूर होता है कि हम चिंतनशील प्राणी बनते जाते हैं। कभी  रंग, कभी धर्मग्रंथ, कभी विवादित बयान चलते ही रहेंगे, बस मानवता बची रहे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 194 ☆ आलेख – आप बजट में देते हैं या लेते हैं? ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय   आलेख – आप बजट में देते हैं या  लेते हैं?) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 194 ☆  

? आलेख आप बजट में देते हैं या  लेते हैं ?

देश का बजट चर्चा में है। पक्ष विपक्ष अपनी अपनी लाइन पर मीडिया में प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं । इससे परे मेरा सवाल यह है कि न केवल आर्थिक रूप से बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर सोचना होगा कि हम आप राष्ट्रीय औसत में अपना योगदान दे रहे हैं या समाज पर बोझ बनकर सरकारों से ले रहे हैं ?

भारत की औसत आय से हमारी आय कम है या ज्यादा ? हम कितना डायरेक्ट टैक्स आयकर तथा अन्य सरकारी विभागो को देते हैं ? कितना इनडायरेक्ट टैक्स देकर हम राष्ट्रीय विकास में सहयोग करते हैं, समाज को हमारा योगदान क्या है ? क्या हम महज सब्सिडी, सरकारी सहायता लेने वाले पैरासाइट की तरह जी रहे हैं ?

न केवल आर्थिक रूप से बल्कि अन्य पहलुओं जैसे राष्ट्रीय औसत आयु, स्वास्थ्य, शिक्षा , जल, पर्यावरण एवं ऊर्जा संरक्षण, पौधारोपण, कार्बन उत्सर्जन, स्त्री शिक्षा, लड़कियों के सम्मान, औसत विवाह की उम्र, जैसे सूचकांको में व्यक्ति के रूप में हमारा योगदान सकारात्मक है या नकारात्मक, यह मनन करने तथा अपना योगदान बढ़ाने की जरूरत प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। देश नागरिकों का समूह ही तो होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा, तथा विकास का पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर और  रचनात्मक  वातावरण देना शासन का काम होता है, बाकी सब नागरिकों को स्वयं करना चाहिए। जहां अकर्मण्य नागरिक केवल स्पून फीडिंग के लिए सरकारों के भरोसे बैठे रहते हैं, ऐसे देश और समाज कभी सच्ची प्रगति नहीं कर पाते । तो इस बजट के अवसर पर चिंता कीजिए कि आप कैसे नागरिक हैं ? समाज से  लेने वाले या समाज को देने वाले ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #133 – बाल कथा – “गुरूमंत्र” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक रोचक एवं प्रेरक बाल कथा गुरूमंत्र)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 133 ☆

☆ बाल कथा ☆ “गुरूमंत्र” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’   

सुनील का मूड़ खराब था. पापा ने आज का प्रोग्राम निरस्त कर दिया था. उस की दिली तमन्ना थी कि वह चंबल डेम घुम कर आएगा. मगर, पापा को कोई काम आ गया. वे सुनील से नाराज भी थे. उस ने उन का काम नहीं किया था. इसलिए उन्होंने चंबल डेम जाने से मना कर दिया.

तभी मम्मी ने आवाज दी, ‘‘सुनील! इधर आना. दूध खत्म हो गया. बाजार से ले कर आना तो?’’

सुनील चिढ़ा हुआ था, ‘‘मुझे काम है मम्मी. मैं नहीं जाऊंगा. आप रोहित को भेज दीजिए.’’

रोहित के सोमवार को जांच परीक्षा थी. वह पढ़ाई में व्यस्त था.

‘‘तुम्हें पता है रोहित पढ़ रहा है.’’

‘‘मैं भी काम कर रहा हूं मम्मी,’’ सुनील ने कहा तभी राहुल आ गया, ‘‘लाओ मम्मी! मुझे पैसे दो. मैं ले आता हूं.’’

‘‘तू तो पढ़ रहा था,’’ मम्मी ने पैसे देते हुए कहा तो राहुल बोला, ‘‘मम्मी! घर के सभी काम जरूरी होते है, इसे हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?’’

‘‘शाबाश बेटा.’’ मम्मी ने राहुल की पीठ थपथपा कर कहा, ‘‘सुनील! यह अच्छी बात नहीं है. तुम हर काम मना कर देते हो. इसी वजह से पापा तुम से नाराज रहते है. यदि तुम्हें काम नहीं करना है तो मत किया करो. मगर, बोलने का लहजा थोड़ा बदल लो. यह हम सब के लिए ठीक रहेगा.’’

मम्मी की बात सुन कर सुनील को गुस्सा आ गया, ‘‘मम्मी! आप सब को मैं बुरा लगता हूं. आखिर, राहुल आप का लाड़का बेटा जो है. आप उसी की तरफदारी करोगे.’’

‘‘बात तरफदारी की नहीं है बेटा,’’ मम्मी ने सुनील को समझाना चाहा, ‘‘बेटा! यह बात नहीं है. हम किसी भी बात को दो तरह से कह सकते है. एक, सीधे तौर पर ना कर दे. इस से व्यक्ति को बुरा लग जाता है. दूसरा, अपनी असमर्थता बता कर मना कर सकते हैं.

‘‘पहले तरीके से हम स्वयं गुस्सा होते हैं. क्यों कि हम चिढ़ कर मना करते हैं. सोचते हैं कि हम काम कर रहे है. सामने वाले को दिखता नहीं है. वह हमे परेशान करने के लिए काम बता रहा है. इस से हमारा स्वयं का मूड़ खराब हो जाता है.

‘‘दूसरा व्यक्ति भी नाराज हो जाता है. कैसा लड़का है? जरासा काम बताया, वह भी नहीं कर सका. तुरंत मना कर दिया. ‘मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा.’ यानी उसे आज्ञापालन का गुण नहीं है. इसे सीधे शब्दों में कहे तो उसे माता पिता से संस्कार नहीं मिले है.’’

यह सुन कर सुनील चिढ़ पड़ा, ‘‘मम्मी, आप भी ना. सुबहसुबह भाषण देने लगती है. मुझे नहीं सुनना आप का भाषण.’’

‘‘अच्छा बेटा, मैं भाषण् दे रही हूं. मगर, तू नहीं जानता है कि यह भाषण नहीं, जीवन की सच्चाई हैं. जो मैं तुम्हें बता रही हूं. जो व्यक्ति बढ़ चढ़ कर काम करता है वही सब को अच्छी लगता है.’’

मगर, सुनील कुछ सुनने को तैयार नहीं था. वैसे ही उस का मूड़ खराब था. पापा ने उसके प्रोग्राम की बैंड बजा दिया था. उस ने कई दिनों से सोच रखा था कि वह चंबल डेम जाएगा. वहां घूमेगा. मस्ती करेगा. उस बांध की फोटो लेगा.

मगर, नहीं. पापा को अपना काम प्यार है. वे उस की बातें क्यों सुनने लगे. तभी उसके दिमाग में दूसरा विचार आया. क्यों न रोहित से कहूं. वह पापा को मना ले. ताकि वे चंबल डेम जाने को राजी हो जाए. यह बात सुनील ने रोहिल से कही तो वह बोला, ‘‘भैया! मैं आप की बात क्यों मान लूं. मेरी सोमवार को परीक्षा है. मैं क्यों कहूं कि पापा चंबल डेम चलिए.’’

‘‘तू मेरा प्यारा भाई है,’’ सुनील ने उसे पटाने की कोशिशि की. इस पर रोहित ने जवाब दिया, ‘‘भैया सुनील. आप मुझे पढ़ने दे. हां, यदि सुनील भैया चाहे तो पापा को मना सकते हैं. वे उन्हें मना नहीं करेंगे. फिर दूसरी बात पापा को सरकारी काम है. वह ज्याद जरूरी है. हमारा घूमना ज्यादा जरूरी नहीं है. इसलिए पहले उन्हें काम करने दे. हम बाद में कभी घूम आएंगे.’’

‘‘तू तो मुझे भाषण देने लगा.’’ कहते हुए सुनील रोहित के कमरे से बाहर आ गया.

उसे समझ नहीं आ रहा था कि पापा मम्मी उस की बातें क्यों नहीं मानते हैं. जब कि वे सभी का बराबर ख्याल रखते थे. सभी को एक जैसा खाना और कपड़े देते थे. स्कूल की फीस हो या हर चीज किसी में भेदभाव नहीं करते थे. फिर क्या कारण है कि कोई फरमाईश हो तो राहुल भैया की बातें झट मान ली जाती थी. उस की नहीं.

सुनील ने बहुत सोचा. मगर, उसे कुछ समझ में नहीं आया. उसे रोहित पर भी गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने बड़े भाई यानी उस की बात नहीं मानी थी. यदि वह पापा को चंबल डेम जाने के लिए कह देता तो पापा झट मान जाते. मगर, रोहित ने भी टका सा जवाब दे दिया, ‘‘पापा को काम है.’’

छोटा भाई हो कर मेरी एक बात नहीं मान सका. सुनील यही विचार कर रहा था कि उसे राहुल आता हुआ दिखाई  दिया.

‘‘भैया! एक बात बताइए.’’ सुनील के दिमाग में एक प्रश्न उभर कर आया था, ‘‘आप घर में सब के लाड़ले क्यों हैं?’’

सुन कर राहुल हंसा, ‘‘मैं सब से ज्यादा लाड़ला हूं. मुझे तो आज ही पता चला. मगर, तुम यह क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि यदि मैं लाड़ला होता तो आज पापा मेरी बता मान लेते. आज हम चंबल डेम घुमने जाते.’’

‘‘तो यह बात है, इसलिए जनाब का मूड़ उखड़ा हुआ है,’’ राहुल ने सुनील को अपने पास बैठा कर कहा, ‘‘पहले यह बताओ. तुम अपने छोटे भाई से क्या चाहते हो?’’

‘‘उस का नाम मत लो. उस ने मेरी एक बात नहीं मानी. मैं ने उस से कहा था कि पापा से कह दो, हमें चंबल डेम घुमा लाए. मगर, उस ने मेरी बात सुनने से मना कर दिया. वह बहुत खराब है.’’

‘‘यानी वह इसलिए खराब है कि उस ने तुम्हारी बात नहीं मानी.’’

‘‘हां.’’ सुनील बोला, ‘‘वह छोटा है. उसे बड़ों की बात माननी चाहिए.’’

‘‘यही बात है.’’

‘‘क्या बात है,’’ सुनील चौंका.

‘‘हर व्यक्ति चाहता है कि छोटा व्यक्ति उस की बात माने. उस का हुक्म बजा कर लाए. इसलिए जो बड़ों को काम झटपट करता है. वह बड़ों का लाड़ला हो जाता है. जैसा तुम चाहते हो कि छोटा भाई रोहित तुम्हारी बात माने, वैसे ही पापा मम्मी चाहते हैं कि तुम उन की बात मानो.

‘‘सुबह अगर, तुम पापा की बात मान कर उन के ऑफिस फाइल पहुंचा आते तो पापा को ऑफिस नहीं जाना पड़ता. फिर वे वहां काम में व्यस्त नहीं होते. तब हमारा चंबल डेम जाने का प्रोग्राम कैंसिल नहीं होता.’’

‘‘तो आप कह रहे है कि चंबल डेम जाने का प्रोग्राम मेरी वजह से ही निरस्त हुआ है.’’

‘‘हां.’’

‘‘वाकई. मैं ने इस तरह तो सोचा ही नही था.’’ सुनील को अपनी गलती को अहसास हो गया, ‘‘आप ठीक कहते हैं भैया, जैसा हम दूसरों से अपेक्षा रखते हैं वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए. यानी हम चाहते हैं कि छोटे हमारा काम करें तो हमें भी चाहिए कि हम बड़ों का काम तत्परता से करे.’’

सुनील ने यह कहा था कि तभी ड्राइवर आ कर बोला, ‘‘रोहित बाबा! साहब ने गाड़ी भेजी है. चंबल डेम जाने के लिए. आप सब तैयार हो जाइए.’’

यह सुन कर सुनील खुश हो गया. ‘‘हुरर्र रे! आज तो दोदो खुशियाँ मिल गई .’’

‘‘कौन कौन सी?’’ मम्मी गाड़ी में सामान रख कर पूछा तो सुनील बोला, ‘‘एक तो भैया ने गुरूमंत्र दिया उस की और दूसरा चंबल डेम जाने की.’’

यह सुन कर सभी मुस्करा दिए और गाड़ी चंबल डेम की ओर चल दी.

—0000—

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 145 ☆ बाल-कविता – तिल के लड्डू, गजक मूंगफली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’… ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 145 ☆

☆ बाल-कविता  – तिल के लड्डू, गजक मूंगफली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

तिल के लड्डू जाड़ों – जाड़ों

बंदर और बंदरिया खाते

साथ मूंगफली गजक रेवड़ी

खाकर जाड़ा दूर भगाते

 

मक्का और बाजरा रोटी

पत्तेदार साग सँग भाती

शक्ति बढ़ती प्रतिरोधात्मक

तन को यह मजबूत बनाती

 

पढ़ते लिखते बंदर मामा

नित्य योग , उछल कूद करते

सब बच्चों को रोज पढ़ाकर

जीवन में खुशियाँ हैं भरते

 

सूर्य मुद्रा करें साथ ही

उससे जाड़ा थर – थर काँपे

मोड़ अनामिका अंगुली अपनी

अँगूठे के नीचे दाबे

 

खाते – पीते खुश ही रहकर

जीवन में खुशियाँ हैं मिलतीं

शुभ कर्मों को करें सदा जो

विपदाएँ भी हाथ मसलतीं

 

लोहड़ी , पोंगल , मकरसंक्रांति

पर्व एक जो खुशियाँ लाएँ

खिचड़ी, तिल , फल , मेवा उत्तम

प्यार बढ़ेगा,  मिलकर खाएँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #146 ☆ संत सखू… ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 146 ☆ संत सखू… ☆ श्री सुजित कदम ☆

संत सखू भक्ती भाव

दावी नाना चमत्कार

अंतरीची हरीभक्ती

पदोपदी साक्षात्कार…! १

 

साधी भोळी सवाशीण

सासरचा सोसे छळ

मर्यादेच्या पार नेई

दृढ निश्चयाचे बळ…! २

 

भावपूर्ण तळमळ

अनिवार इच्छा शक्ती

सासरच्या जाचालाही

मात देई विठू भक्ती…! ३

 

विठ्ठलाच्या चिंतनात

दूर झाला भवताप

युगे अठ्ठावीस उभे

विटेवरी मायबाप…! ४

 

नाव विठ्ठलाचे घेण्या

नाही कधी थकणार

संत सखू वाटचाल

पांडुरंग नांदणार…! ५

 

संत सखू वाटसरू

सुख दुःख पायवाट

जगुनीया दाखविले

प्रारब्धाचा दैवी घाट…! ६

 

अत्याचारी सासराला

नाही कधी दिला दोष

कृतज्ञता मानुनीया

विसरली राग रोष…! ७

 

दुराचारी कुट़ुंवाने

दिली प्रेरणा भक्तीची

अव्याहत हरीनाम

जोड ईश्वरी शक्तीची…! ८

 

दुःख दैन्य साहताना

संत सखू दावी वाट

नाही कोणा प्रत्युत्तर

पचविली दुःख लाट…! ९

 

पांडुरंग दर्शनाची

पुर्ण करी आस हरी

रूप सखुचे घेऊनी

नांदे पांडुरंग घरी…! १०

 

हरिभक्ती अनुभूती

हरिभक्ती पारायण

सांसारिक वेदनांचे

संत सखू शब्दायण…! ११

 

गेली पंढरीस सखू

पुर्ण केली तिने वारी.

घरकाम करताना

पांडुरंग झाला नारी…! १२

 

मोक्षपदी गेली सखू

इहलोक सोडूनीया

पांडुरंग आशीर्वादे

आली घरा साधूंनीया…! १३

 

श्रद्धा विठ्ठलाच्या पायी

संत सखू भक्ती भाव

वसवून गेला जगी

अध्यात्माचा नवा गाव…! १४

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – न्याहाळते मी मला…– ☆ प्रस्तुती – सौ. उज्ज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– न्याहाळते मी मला… – ?सौ. उज्ज्वला केळकर 

नऊवारी नऊवारी नऊवारी 

नेसले मी साडी इरकली

काठ पदर आहे पिवळा

झंपर निळा,जांभळा ल्याली

रंग माझा गोरा,झाले वय जरी

आहे सौभाग्यवती खरी

आरश्यात बघून लावते कुंकू

तब्येतीने आहे मी बरी

भरून हाती हिरवा चुडा

आठवते मी तरूणपण

हसून गाली मला न्याहाळते

गेले नाही अजून खोडकरपण

रचना : सौ. रागिणी जोशी, पुणे

प्रस्तुती : सौ. उज्ज्वला केळकर 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #167 – लघुकथा – कम्बल… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक अप्रतिम लघुकथा  “कम्बल…”)

☆  तन्मय साहित्य  #167 ☆

☆ लघुकथा – कम्बल

जनवरी की कड़कड़ाती ठंड और ऊपर से बेमौसम की बरसात। आँधी-पानी और ओलों के हाड़ कँपाने वाले मौसम में चाय की चुस्कियाँ लेते हुए घर के पीछे निर्माणाधीन अधूरे मकान में आसरा लिए कुछ मजदूरों के बारे में मैं चिंतित हो रहा था।

ये मजदूर जो बिना खिड़की-दरवाजों के इस मकान में नीचे सीमेंट की बोरियाँ बिछाये सोते हैं, इस ठंड को कैसे सह पाएंगे। इन परिवारों से यदा-कदा एक छोटे बच्चे के रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती है।

ये सभी लोग एन सुबह थोड़ी दूरी पर बन रहे मकान पर काम करने चले जाते हैं और शाम को आसपास से लकड़ियाँ बीनते हुए अपने इस आसरे में लौट आते हैं। अधिकतर शाम को ही इनकी आवाजें सुनाई पड़ती है।

स्वावभाववश  मैं उस मजदूर बच्चे के बारे में सोच-सोच कर बेचैन हो रहा था, इस मौसम को कैसे झेल पायेगा वह नन्हा बच्चा!

शाम को बेटे के ऑफिस से लौटने पर मैंने उसे पीछे रह रहे मजदूरों को घर में पड़े कम्बल व हमसे अनुपयोगी हो चुके कुछ गरम कपड़े देने की बात कही।

“कोई जरूरत नहीं है कुछ देने की” पता नहीं किस मानसिकता में उसने मुझे यह रूखा सा जवाब दे दिया।

आहत मन लिए मैं बहु को रात का खाना नहीं खाने का कह कर अपने कमरे में आ गया। न जाने कब बिना कुछ ओढ़े, सोचते-सोचते बिस्तर पर कब नींद के आगोश में पहुँच गया पता ही नहीं चला।

सुबह नींद खुली तो अपने को रजाई और कम्बल ओढ़े पाया। बहु से चाय की प्याली लेते हुए पूछा-

“बेटा उठ गया क्या?”

उसने बताया- हाँ उठ गए हैं और कुछ  कम्बल व कपड़े लेकर पीछे मजदूरों को देने गए हैं, साथ ही मुझे कह गए हैं कि, पिताजी को बता देना की समय से खाना जरूर खा लें और सोते समय कम्बल-रजाई जरूर ओढ़ लिया करें।

यह सुनकर आज की चाय की मिठास के साथ उसके स्वाद का आनंद कुछ अधिक ही बढ़ गया।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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