श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक रोचक एवं प्रेरक बाल कथा गुरूमंत्र)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 133 ☆

☆ बाल कथा ☆ “गुरूमंत्र” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’   

सुनील का मूड़ खराब था. पापा ने आज का प्रोग्राम निरस्त कर दिया था. उस की दिली तमन्ना थी कि वह चंबल डेम घुम कर आएगा. मगर, पापा को कोई काम आ गया. वे सुनील से नाराज भी थे. उस ने उन का काम नहीं किया था. इसलिए उन्होंने चंबल डेम जाने से मना कर दिया.

तभी मम्मी ने आवाज दी, ‘‘सुनील! इधर आना. दूध खत्म हो गया. बाजार से ले कर आना तो?’’

सुनील चिढ़ा हुआ था, ‘‘मुझे काम है मम्मी. मैं नहीं जाऊंगा. आप रोहित को भेज दीजिए.’’

रोहित के सोमवार को जांच परीक्षा थी. वह पढ़ाई में व्यस्त था.

‘‘तुम्हें पता है रोहित पढ़ रहा है.’’

‘‘मैं भी काम कर रहा हूं मम्मी,’’ सुनील ने कहा तभी राहुल आ गया, ‘‘लाओ मम्मी! मुझे पैसे दो. मैं ले आता हूं.’’

‘‘तू तो पढ़ रहा था,’’ मम्मी ने पैसे देते हुए कहा तो राहुल बोला, ‘‘मम्मी! घर के सभी काम जरूरी होते है, इसे हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?’’

‘‘शाबाश बेटा.’’ मम्मी ने राहुल की पीठ थपथपा कर कहा, ‘‘सुनील! यह अच्छी बात नहीं है. तुम हर काम मना कर देते हो. इसी वजह से पापा तुम से नाराज रहते है. यदि तुम्हें काम नहीं करना है तो मत किया करो. मगर, बोलने का लहजा थोड़ा बदल लो. यह हम सब के लिए ठीक रहेगा.’’

मम्मी की बात सुन कर सुनील को गुस्सा आ गया, ‘‘मम्मी! आप सब को मैं बुरा लगता हूं. आखिर, राहुल आप का लाड़का बेटा जो है. आप उसी की तरफदारी करोगे.’’

‘‘बात तरफदारी की नहीं है बेटा,’’ मम्मी ने सुनील को समझाना चाहा, ‘‘बेटा! यह बात नहीं है. हम किसी भी बात को दो तरह से कह सकते है. एक, सीधे तौर पर ना कर दे. इस से व्यक्ति को बुरा लग जाता है. दूसरा, अपनी असमर्थता बता कर मना कर सकते हैं.

‘‘पहले तरीके से हम स्वयं गुस्सा होते हैं. क्यों कि हम चिढ़ कर मना करते हैं. सोचते हैं कि हम काम कर रहे है. सामने वाले को दिखता नहीं है. वह हमे परेशान करने के लिए काम बता रहा है. इस से हमारा स्वयं का मूड़ खराब हो जाता है.

‘‘दूसरा व्यक्ति भी नाराज हो जाता है. कैसा लड़का है? जरासा काम बताया, वह भी नहीं कर सका. तुरंत मना कर दिया. ‘मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा.’ यानी उसे आज्ञापालन का गुण नहीं है. इसे सीधे शब्दों में कहे तो उसे माता पिता से संस्कार नहीं मिले है.’’

यह सुन कर सुनील चिढ़ पड़ा, ‘‘मम्मी, आप भी ना. सुबहसुबह भाषण देने लगती है. मुझे नहीं सुनना आप का भाषण.’’

‘‘अच्छा बेटा, मैं भाषण् दे रही हूं. मगर, तू नहीं जानता है कि यह भाषण नहीं, जीवन की सच्चाई हैं. जो मैं तुम्हें बता रही हूं. जो व्यक्ति बढ़ चढ़ कर काम करता है वही सब को अच्छी लगता है.’’

मगर, सुनील कुछ सुनने को तैयार नहीं था. वैसे ही उस का मूड़ खराब था. पापा ने उसके प्रोग्राम की बैंड बजा दिया था. उस ने कई दिनों से सोच रखा था कि वह चंबल डेम जाएगा. वहां घूमेगा. मस्ती करेगा. उस बांध की फोटो लेगा.

मगर, नहीं. पापा को अपना काम प्यार है. वे उस की बातें क्यों सुनने लगे. तभी उसके दिमाग में दूसरा विचार आया. क्यों न रोहित से कहूं. वह पापा को मना ले. ताकि वे चंबल डेम जाने को राजी हो जाए. यह बात सुनील ने रोहिल से कही तो वह बोला, ‘‘भैया! मैं आप की बात क्यों मान लूं. मेरी सोमवार को परीक्षा है. मैं क्यों कहूं कि पापा चंबल डेम चलिए.’’

‘‘तू मेरा प्यारा भाई है,’’ सुनील ने उसे पटाने की कोशिशि की. इस पर रोहित ने जवाब दिया, ‘‘भैया सुनील. आप मुझे पढ़ने दे. हां, यदि सुनील भैया चाहे तो पापा को मना सकते हैं. वे उन्हें मना नहीं करेंगे. फिर दूसरी बात पापा को सरकारी काम है. वह ज्याद जरूरी है. हमारा घूमना ज्यादा जरूरी नहीं है. इसलिए पहले उन्हें काम करने दे. हम बाद में कभी घूम आएंगे.’’

‘‘तू तो मुझे भाषण देने लगा.’’ कहते हुए सुनील रोहित के कमरे से बाहर आ गया.

उसे समझ नहीं आ रहा था कि पापा मम्मी उस की बातें क्यों नहीं मानते हैं. जब कि वे सभी का बराबर ख्याल रखते थे. सभी को एक जैसा खाना और कपड़े देते थे. स्कूल की फीस हो या हर चीज किसी में भेदभाव नहीं करते थे. फिर क्या कारण है कि कोई फरमाईश हो तो राहुल भैया की बातें झट मान ली जाती थी. उस की नहीं.

सुनील ने बहुत सोचा. मगर, उसे कुछ समझ में नहीं आया. उसे रोहित पर भी गुस्सा आ रहा था. उस ने अपने बड़े भाई यानी उस की बात नहीं मानी थी. यदि वह पापा को चंबल डेम जाने के लिए कह देता तो पापा झट मान जाते. मगर, रोहित ने भी टका सा जवाब दे दिया, ‘‘पापा को काम है.’’

छोटा भाई हो कर मेरी एक बात नहीं मान सका. सुनील यही विचार कर रहा था कि उसे राहुल आता हुआ दिखाई  दिया.

‘‘भैया! एक बात बताइए.’’ सुनील के दिमाग में एक प्रश्न उभर कर आया था, ‘‘आप घर में सब के लाड़ले क्यों हैं?’’

सुन कर राहुल हंसा, ‘‘मैं सब से ज्यादा लाड़ला हूं. मुझे तो आज ही पता चला. मगर, तुम यह क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘मैं इसलिए पूछ रहा हूं कि यदि मैं लाड़ला होता तो आज पापा मेरी बता मान लेते. आज हम चंबल डेम घुमने जाते.’’

‘‘तो यह बात है, इसलिए जनाब का मूड़ उखड़ा हुआ है,’’ राहुल ने सुनील को अपने पास बैठा कर कहा, ‘‘पहले यह बताओ. तुम अपने छोटे भाई से क्या चाहते हो?’’

‘‘उस का नाम मत लो. उस ने मेरी एक बात नहीं मानी. मैं ने उस से कहा था कि पापा से कह दो, हमें चंबल डेम घुमा लाए. मगर, उस ने मेरी बात सुनने से मना कर दिया. वह बहुत खराब है.’’

‘‘यानी वह इसलिए खराब है कि उस ने तुम्हारी बात नहीं मानी.’’

‘‘हां.’’ सुनील बोला, ‘‘वह छोटा है. उसे बड़ों की बात माननी चाहिए.’’

‘‘यही बात है.’’

‘‘क्या बात है,’’ सुनील चौंका.

‘‘हर व्यक्ति चाहता है कि छोटा व्यक्ति उस की बात माने. उस का हुक्म बजा कर लाए. इसलिए जो बड़ों को काम झटपट करता है. वह बड़ों का लाड़ला हो जाता है. जैसा तुम चाहते हो कि छोटा भाई रोहित तुम्हारी बात माने, वैसे ही पापा मम्मी चाहते हैं कि तुम उन की बात मानो.

‘‘सुबह अगर, तुम पापा की बात मान कर उन के ऑफिस फाइल पहुंचा आते तो पापा को ऑफिस नहीं जाना पड़ता. फिर वे वहां काम में व्यस्त नहीं होते. तब हमारा चंबल डेम जाने का प्रोग्राम कैंसिल नहीं होता.’’

‘‘तो आप कह रहे है कि चंबल डेम जाने का प्रोग्राम मेरी वजह से ही निरस्त हुआ है.’’

‘‘हां.’’

‘‘वाकई. मैं ने इस तरह तो सोचा ही नही था.’’ सुनील को अपनी गलती को अहसास हो गया, ‘‘आप ठीक कहते हैं भैया, जैसा हम दूसरों से अपेक्षा रखते हैं वैसा ही व्यवहार हमें दूसरों के साथ करना चाहिए. यानी हम चाहते हैं कि छोटे हमारा काम करें तो हमें भी चाहिए कि हम बड़ों का काम तत्परता से करे.’’

सुनील ने यह कहा था कि तभी ड्राइवर आ कर बोला, ‘‘रोहित बाबा! साहब ने गाड़ी भेजी है. चंबल डेम जाने के लिए. आप सब तैयार हो जाइए.’’

यह सुन कर सुनील खुश हो गया. ‘‘हुरर्र रे! आज तो दोदो खुशियाँ मिल गई .’’

‘‘कौन कौन सी?’’ मम्मी गाड़ी में सामान रख कर पूछा तो सुनील बोला, ‘‘एक तो भैया ने गुरूमंत्र दिया उस की और दूसरा चंबल डेम जाने की.’’

यह सुन कर सभी मुस्करा दिए और गाड़ी चंबल डेम की ओर चल दी.

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© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-10-2021 

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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