(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे।
इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 99 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 5 ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक विषय पर एक भावप्रवण कविता “पहलगाम में फिर दिया…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री अरविंद मिश्र जी द्वारा लिखित “शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 178 ☆
☆ “शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें” – व्यंग्यकार… श्री अरविंद मिश्र☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
कृति … शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें
व्यंग्यकार …अरविंद मिश्र
पृष्ठ … १५२
मूल्य २२५ रु
आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल
चर्चाकार … विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
अरविंद मिश्र द्वारा लिखित व्यंग्य की कृति शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें, एक रोचक और विचारोत्तेजक कृति है, जो भारतीय समाज और व्यवस्था में व्याप्त औपचारिकता, दिखावे और विरोधाभासों पर तीखा कटाक्ष करती है। यह पुस्तक व्यंग्य की शैली में लिखी गई है, जो पाठक को हंसाने के साथ-साथ गहरे सामाजिक संदेशों पर चिंतन करने के लिए प्रेरित करती है। मिश्र का लेखन सहज, चुटीला और प्रभावशाली है, जो उनकी भाषा पर मजबूत पकड़ और समाज को गहराई से समझने की क्षमता को दर्शाता है।
पुस्तक का केंद्रीय विषय एक काल्पनिक “शिष्टाचार आयोग” के इर्द-गिर्द घूमता है, जो शिष्टाचार के नाम पर हास्यास्पद और अव्यवहारिक सिफारिशें प्रस्तुत करता है। यह आयोग समाज के विभिन्न पहलुओं-जैसे नौकरशाही, सामाजिक रीति-रिवाज, और व्यक्तिगत व्यवहार-को अपने निशाने पर लेता है। लेखक ने इन सिफारिशों के माध्यम से यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे शिष्टाचार के नाम पर अक्सर सतही नियमों को थोपा जाता है, जो वास्तविकता से कोसों दूर होते हैं। उदाहरण के लिए, यह विचार कि हर बात में औपचारिकता को प्राथमिकता दी जाए, भले ही वह कितनी भी बेतुकी क्यों न हो, पाठक को हंसी के साथ-साथ सोचने पर मजबूर करती है।
शीर्षक व्यंग्य से यह अंश पढ़िये … ” समाज में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो खूब इधर-उधर करते है,
लेकिन उनकी दाल आसानी से नहीं गलती। नीचे निगाह करके रास्ता पार करने से भी राह चलतों को दाल में काला नजर आने लगता है। समाज में बहुत से जन-जागरण के लिए समर्पित सदाचारियों का काम केवल आते-जाते लोगों पर निगाह रखना होता है। आस-पड़ोस, मुहल्ले के निवासी यदि बहुत समय तक सुख से रहते हैं तो इन चौकीदारों को अजीर्ण हो जाता है। इस प्रकार के समाज सेवी बंधुओं को अपना मुँह दर्पण में देखने की फुर्सत नहीं होती। जहाँ तक शिष्टाचार आयोग की कार्य प्रणाली का प्रश्न है तो यह अशिष्ट व्यक्तियों से सदैव सावधान रहता है। “
“भ्रष्टाचार निवारण मंडल में कार्यरत् कर्मचारी इस बात की भरसक कोशिश करते हैं कि जनता का आचरण शुद्ध न रहे। भला उन्हें अपने विभाग को जीवित जो रखना है। यह उन कर्मचारियों की निष्ठा का उदाहरण है। अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी कौन मारना चाहेगा। “
अरविंद मिश्र की शैली में एक खास बात यह है कि वे जटिल मुद्दों को सरल और हल्के-फुल्के अंदाज में पेश करते हैं। उनकी भाषा में हिंदी की मिठास और लोकप्रिय मुहावरों का प्रयोग देखने को मिलता है, जो व्यंग्य को और भी प्रभावी बनाता है। हालांकि, कुछ जगहों पर पाठक को लग सकता है कि व्यंग्य की गहराई या मौलिकता थोड़ी कम हो गई है, खासकर जब विषय पहले से चर्चित सामाजिक समस्याओं की ओर मुड़ता है। फिर भी, लेखक की यह कोशिश सराहनीय है कि उन्होंने रोजमर्रा की जिंदगी से उदाहरण चुनकर पाठकों से सीधा संवाद स्थापित किया।
कुल मिलाकर, शिष्टाचार आयोग की सिफारिशें एक मनोरंजक और विचारशील पुस्तक है, जो व्यंग्य के प्रेमियों के लिए एक सुखद अनुभव प्रदान करती है। यह न केवल हल्के-फुल्के पठन के लिए उपयुक्त है, बल्कि समाज के उन पहलुओं पर भी प्रकाश डालती है, जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। अरविंद मिश्र ने इस कृति के जरिए अपनी लेखन कुशलता का परिचय दिया है और इसे पढ़कर पाठक निश्चित रूप से मुस्कुराएंगे और सोच में डूब जाएंगे।
किताब फेडरेशन आफ इण्डियन पब्लिशर्स से पुरस्कृत प्रकाशक आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल से छपी है। मैं इसे व्यंग्य में रुचि रखने वाले अपने पाठको को पढ़ने की संस्तुति करता हूं।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “वात्सल्य धर्मिता”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 226 ☆
🌻लघुकथा🌻 वात्सल्य धर्मिता 🌻
पहलगाम घटना के बाद सोशल मीडिया पर धर्म को लेकर बड़ा उछाल होने लगा। आज सिध्दी अपने होटल पर परिवार वालों के साथ बैठी थी। अच्छी खासी भीड़ थी।
वह एक गायक कलाकार था। होटल में गाना गाता था। लोगों के बीच गाना गा रहा था परन्तु डर और बेबसी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।
वह मेनैजर से बात करने लगी। बातों के इशारे को गायक को समझते देर न लगी। मेनैजर बता रहा था–हम तो अभी निकाल दे मेडम आप कहें तो?? लेकिन यह कमाने वाला अकेला माँ बाप और भाई बहन का बोझ लिए यह काम करता है और शाम को हमारे होटल में 4-5 घंटे गाना गाता है। आवाज अच्छी है।
सिध्दी ने कागज नेपकिन में कुछ रुपये बाँधे जाते समय उसे देते बोली–खुश रहो धर्म नही तुम एक अच्छे गायक हो। कला का सम्मान करो।
पैरों पर गिर पड़ा। मेरा-नाम धर्म जो भी है मेडम, मुझे आपके वात्सल्य धर्मिता की पहचान हो गई है। मै जीवन पर्यन्त आपकी भावनाओं का सम्मान करुंगा।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 129 ☆ देश-परदेश – सड़क संगीत ☆ श्री राकेश कुमार ☆
सड़क पर यातायात रोक कर कई स्थानों पर संगीत की महफिलें सजाई जाती हैं। अभी विवाह का सीजन भी चल रहा है, बैंड वादक सड़कों पर नागिन, भांगड़ा, ट्विस्ट और लोक संगीत की धुनें खूब बजती हैं।
उपरोक्त समाचार पढ़ा तो मन अत्यंत प्रसन्न हुआ, कि अब कान फाड़ू, तीखे और प्रैशर हॉर्न नहीं बजेंगे। उसके स्थान पर अब बांसुरी, तबला, वीणा और हारमोनियम जैसे भारतीय वाद्य यंत्रों की धुनों वाले हॉर्न बजेंगे।
कितना अच्छा समय होगा, आप को जब संगीत सुनने का मन कर रहा हो, किसी भी लाल बत्ती के पास किनारे पर खड़े होकर संगीत का लाभ ले सकते हैं। हम तो विचार कर रहें है, कि अपना निवास किसी हाइवे के पास ले लेवें। अभी नई योजना है, बाद में तो हाइवे के आसपास के घरों की कीमत बेहतशा बढ़ जाएगी।
आप कल्पना कीजिए सड़क पर एक गाड़ी तबला बजा रही है, तो दूसरी हारमोनियम क्या जुगलबंदी का माहौल बन जाएगा।
घर के बाहर जब कोई वीणा की आवाज सुनाई देगी या दूसरी कोई वाद्य यंत्र की आवाज ही उसकी पहचान बन जाएगी। हम बच्चों को बता सकेंगे कि तुम्हारा बांसुरी वाला दोस्त आया था या तबले वाली कुलीग आई थी। मोहल्ले में लोग आपके बच्चों के वाहन में लगे हुए वाद्य यंत्र के हॉर्न से पहचाने जाएंगे। हारमोनियम वाले का बाप या तबलची की अम्मा इत्यादि।
हमारे मोबाइल की ट्यून कब भारतीय वाद्य यंत्रों पर आधारित होगी, इंतजार हैं।
☆ माझी जडणघडण… परिवर्तन – भाग – ३९ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆
(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टुडे, संपर्क : ९८६९४८४८००)
ठाण्यातल्या न्यू इंग्लिश स्कूलच्या मागच्या गल्लीतल्या गांगल बिल्डिंग मधल्या वन रूम किचन ब्लॉक मध्ये ताईच्या संसाराची घडी हळूहळू बसत होती. अनेक नकारात्मक बाजूंना आकार देत स्थिरावत होती. ताईचे मोठे दीर प्रकाशदादा आणि नणंद छाया नोकरीच्या निमित्ताने ताई -अरुणच्या घरी रहात असत. काही दिवसांनी ताईची धाकटी नणंद अभ्यासाच्या दृष्टीने चांगले म्हणून त्यांच्या सोबत रहायला आली. ताई -अरुणने सर्वांना ममतेने, कर्तव्य बुद्धीने आणि आपुलकीने सामावून घेतले. ताईचे सासू-सासरे मात्र सासऱ्यांच्या निवृत्तीनंतर लोणावळ्यात राहायला गेले होते तिथे त्यांनी एक बंगला खरेदी केला होता. एकंदर सगळे ठीक होते.
विशेष श्रेणीत कला शाखेत एमए झालेली हुशार ताई “रांधा, वाढा, उष्टी काढा यात अडकलेली पाहून माझं मन मात्र अनेक वेळा कळवळायचं. चौकटीत बंदिस्त असलेल्या गुणवंत स्त्रियांच्या बाबतीत मी तेव्हापासूनच वेगळे विचार नेहमीच करायचे मात्र त्यावेळी माझे विचार, माझी मतं अधिकारवाणीने मांडण्याची कुवत माझ्याकडे नव्हती. मी आपली आतल्या आत धुमसायची पण ताईचं बरं चाललं होतं.
बाळ तुषारच्या बाललीला अनुभवण्यात आणि त्याचं संगोपन करण्यात ताई अरुण मनस्वी गुंतले होते पण जीवन म्हणजे ऊन सावल्यांचा खेळ. तुषार अवघा दहा महिन्याचा होता.
एके रात्री ऑफिसच्या पार्टीला जाण्याची तयारी करत असताना अरुणच्या पोटात अचानक तीव्र कळा येऊ लागल्या. सुरुवातीला ताईने घरगुती उपचार केले पण त्याचा काही उपयोग झाला नाही तेव्हा तिने दादाला (मोठे दीर) फोन करून सर्व हकीकत सांगितली आणि ताबडतोब घरी यायला विनविले. दादांनी तात्काळ ऑफिसच्या गाडीतून अरुणला फॅमिली डॉक्टर अलमेडा यांच्याकडे नेले. त्यांनी तात्पुरते बॅराल्गनचे इंजेक्शन देऊन घरी पाठवले पण दुखणे थांबले नाही उलट ते वाढतच होते. अरुणचे मेव्हणे, ठाण्यातले प्रसिद्ध फिजिशियन डॉक्टर मोकाशी यांनी “हे दुखणे साधे नसल्याचे” सुचित केले व त्वरित ठाण्यात नव्यानेच सुरू झालेल्या शल्यचिकित्सक डॉक्टर भानुशालींच्या सुसज्ज हॉस्पिटलमध्ये अरुणला दाखल केले. अरुणला “पँक्रीयाटाइटिस”चा तीव्र झटका आलेला होता. अंतर्गत रक्तस्त्राव होत होता. १९६८साल होते ते. आजच्या इतकं शल्यचिकित्सेचं विज्ञान प्रगत नव्हतं. डॉक्टरांनी ताईला त्यांच्या केबिनमध्ये बोलावून घेतलं. ” पेशंटची स्थिती नाजूक आहे. डॉक्टरांच्या हाताबाहेरचे आहे कारण या व्याधीवर लागणारे Trysilol हे औषध भारतात उपलब्ध नाही. तेव्हा आता फक्त भरवसा ईश्वराचाच. काही चमत्कार झाला तरच…”
ताई इतकी कशी धीराची! ती पटकन म्हणाली, ” डाॅक्टर! तो मला असे सोडून जाऊ शकत नाही. चमत्कार होईल. माझी श्रद्धा आहे. मी तुम्हाला हे औषध २४ तासात मिळवून देईन. “
त्यावेळी अरुण लंडनच्या B O A C या एअरलाइन्समध्ये इंजिनीयर होता. (आताची ब्रिटिश एअरलाइन्स). ताईने ताबडतोब सर्व दुःख बाजूला ठेवून प्रचंड मन:शक्तीने पुढचे व्यवहार पार पाडले. अरुणच्या मुंबईतल्या ऑफिस स्टाफच्या मदतीने तिने सिंगापूरहून ट्रायसिलाॅल हे औषध इंजेक्शनच्या रूपात डॉक्टरांना २४ तासात उपलब्ध करून दिले आणि अरुणची हाताबाहेर गेलेली केस आटोक्यात येण्याचा विश्वास आणि आशा निर्माण झाली. डॉक्टर भानुशाली यांनी लगेचच ट्रीटमेंट सुरू केली. अरुणने उपचारांना चांगला प्रतिसाद दिला. आता त्याने धोक्याची रेषा ओलांडली होती. अरुणचे आई-वडील, भाऊ, बहिणी, इतर नातेवाईक सारे धावत आले. ताई सोबत आम्ही होतोच. याही सर्वांचा ताईला मानसिक आधार मिळावा हीच अपेक्षा असणार ना? पण ताईच्या जीवनातल्या एका वेगळ्याच कृष्णकाळ्या अंकाला इथून सुरुवात झाली.
पुन्हा एकदा मनात खदखदणाऱ्या घटनांचा प्रवाह उसळला. जातीबाहेरचे, विरोधातले लग्न, आचार विचारांतली दरी, पुन्हा एकदा पट्टेकरी बुवा विचारधाराही उसळली. वास्तविक आमचं कुटुंब सोडलं तर आमच्या आजूबाजूचे सारेच या पट्टेकर बुवांच्या अधीन झालेले. तसे पट्टेकर बुवा पप्पांशी, माझ्या आजीशी भेटल्यावर आदराने बोलत पण कुणाच्या मनातलं कसं कळणार? पट्टेकरांना पप्पांच्या बुद्धिवादी विचारांवर कुरघोडी करण्याची जणू काही संधीच मिळाली असावी. सर्वप्रथम त्यांनी अरुणच्या परिवारास “ढग्यांची आजी ही करणी कवटाळ बाई आहे” असे पटवून दिले. परिणामी आमच्या कुटुंबास हॉस्पिटलमध्ये अरुणला भेटायला येण्यापासून रोखले गेले. हाच “बुवामेड” कायदा मुल्हेरकरांनी ताईलाही लावला.
अरुण त्याच्या आईला विचारायचा, “अरु कुठे आहे? ती का आली नाही. अरुणची आई उडवाउडवीची उत्तरे द्यायची.
पप्पा ऑफिसातून जाता येता हाॅस्पीटलमध्ये जात. अरुणच्या रूममध्ये बाहेरूनच डोकायचे. अरुण अत्यंत क्षीण, विविध नळ्यांनी वेढलेला, रंगहीन, चैतन्य हरपलेला असा होता. तो हातानेच पपांना आत येण्यासाठी खुणा करायचा. खरं म्हणजे पप्पा बलवान होते. ते या सगळ्यांचा अवरोध नक्कीच करू शकत होते पण प्राप्त परिस्थिती, हॉस्पिटलचे नियम, शांतता अधिक महत्त्वाची होती. ते फक्त डॉक्टर भानुशालींना भेटत व अरुणच्या प्रकृतीचा रोजचा अहवाल समजून घ्यायचे. डॉक्टरांनाही या मुल्हेरकरी वर्तणुकीचा राग यायचा पण पप्पा त्यांना म्हणत, ” ते सर्व जाऊद्या! तुम्ही तुमचे उपाय चालू ठेवा. पैशाचा विचार करू नका. ”
अत्यंत वाईट, दाहक मनस्थितीतून आमचं कुटुंब चालले होते. बाकी सगळे मनातले दूर करून आम्ही फक्त अरुण बरा व्हावा” म्हणूनच प्रार्थना करत होतो ज्या आजीनं आम्हाला कायम मायेचं पांघरूण पांघरलं तीच आजी नातीच्या बाबतीत कशी काय “करणी कवटाळ” असू शकते. काळजाच्या चिंध्या झाल्या होत्या. ओठात केवळ संस्कारांमुळे अपशब्द अडकून बसले होते.
आजारी अरुणला ताईने भेटायचेही नाही हा तिच्यावर होणारा अन्याय, एक प्रकारचा मानसिक अत्याचार ती कसा सहन करू शकेल? ती तिच्याच घरी याच साऱ्या माणसांसोबत त्यांची उष्टी खरकटी काढत लहानग्या तुषारला सांभाळत मनात काय विचार करत असेल? एक दिवस डोक्यात निश्चित विचार घेऊन मीच ताईच्या घरी गेले आणि उंबरठ्यातच ताईला म्हणाले, ” बस झालं आता! बॅग भर, तुषारला घे आणि चल आपल्या घरी. ”
ताईचे सासरे जेवत होते. ते जेवण टाकून उठले. त्यांनी माझ्या हातून तुषारला घेण्याचा प्रयत्न केला मात्र माझ्या मोठ्या डोळ्यांनी त्यावेळी मला साथ दिली. ते घराबाहेर गेले. ताईने मला घट्ट मिठी मारली आणि ती हमसाहमशी रडली. मी तिला रडू दिले. एक लोंढा वाहू दिला. शांत झाल्यावर तिला म्हटले, ” चल आता. सगळं ठीक होईल. बघूया.”
ताई आणि तुषारला घेऊन मी घरी आले. हा संपूर्ण निर्णय माझा होता आणि आमचं संपूर्ण कुटुंब त्यानंतर ताईच्या पाठीशी खंबीरपणे उभं होतं!
दोन अडीच महिन्यांनी अरुणला हॉस्पिटल मधून डिस्चार्ज मिळाला. तिथून त्याला त्याच्या ठाण्यातल्याच मावशीकडे नेलं. त्यानंतर एक दोनदा ताईने मावशीच्या घरी जाऊन अरुणची विरोधी वातावरणातही भेट घेतली होती. नंतर अरुणच्या परिवाराने अरुणला लोणावळ्याला घेऊन जाण्याचे ठरवले. त्यावेळी अरुणने “तूही लोणावळ्याला यावेस” असे ताईला सुचवले पण ताईने स्पष्ट नकार दिला. म्हणाली, ” आपण आपल्याच घरी जाऊ. मी तुझी संपूर्ण काळजी घेईन याची खात्री बाळग” नाईलाजाने तिने तो हॉस्पिटलमध्ये असताना काय काय घडले याची हकीकत सांगितली आणि या कुटुंबीयांवरचा तिचा विश्वास ढळल्याचेही सांगितले. अरुणने ऐकून घेतले पण तरीही लोणावळ्याला जाण्याचा बेत कायम राहिला. समस्त कुटुंब लोणावळ्याला रवाना झाल्यावर ताईने एक दिवस गांगल बिल्डिंग मधल्या तिच्या घरी जाऊन घर आवरून त्यास कुलूप घातले आणि ती कायमची आमच्या घरी राहायला आली.
ताईच्या वैवाहिक जीवनातल्या कष्टप्रद अध्यायाने आणखी एक निराळे वळण घेतले.
एक दिवस अरुणचे पत्र आले. अरुणच्या पत्राने ताई अतिशय आनंदित झाली. तिने पत्र फोडले आणि क्षणात तिचा हर्ष मावळला. अरुणने पत्रात लिहिले होते, ” तुझे माझे नाते सरले असेच समज.. ”
पत्रात मायना नव्हता. खाली केलेल्या सहीत निर्जीवपणा, कोरडेपणा होता. “सखी सरले आपले नाते” या गीत रामायणातल्या ओळीच जणू काही हृदयात थरथरल्या पण या वेळेस ताई खंबीर होती. ती अजिबात कोलमडली नाही, ढासळली नाही, मोडली पण वाकली नाही. तिने डोळे पुसले, ढळणारे मन आवरले आणि जीवनातलं कठिणातलं कठीण पाऊल उचलण्याचा तिने निर्धार केला.
संकटं परवानगी घेऊन घरात शिरत नाहीत पण ती आली ना की त्यांच्या सोबतीनं राहून त्यांना टक्कर देण्यासाठी मानसिक बळ वाढवावं लागतं.
शिवाय यात ताईचा दोषच काय होता? खरं म्हणजे तिचा स्वाभिमान दुखावला होता. तिच्या अत्यंत मायेच्या माणसांना अपमानित केलेलं होतं. त्यांच्या भावनांना, वैचारिकतेला पायदळी तुडवलेलं होतं. NOW OR NEVER च्या रेषेवर ताई उभी होती आणि ती अजिबात डळमळलेली नव्हती. नातं खरं असेल तर तुटणार नाही आणि तुटलं तर ते नातच नव्हतं या विचारापाशी येऊन ती थांबली. आयुष्याच्या सीमेचं रक्षण करण्यासाठी जणू तिने शूर सैनिकाचं बळ गोळा केलं आणि या तिच्या लढाईत आमचं कुटुंब तिच्या मागे भक्कमपणे उभं होतं. पिळलेल्या मनातही सकारात्मक उर्जा होती.
काही काळ जावा लागला पण अखेर हा संग्राम संपण्याची चाहूल लागली. या साऱ्या घटनांच्या दरम्यान प्रकाश दादाने (ताईच्या दिराने) अनेकदा सामंजस्य घडवून आणण्याचा प्रयत्न केला. हे त्यांनी अगदी मनापासून केले. त्याच्या कुटुंबीयांनी ताईच्या बाबतीत किती चुका केल्या आहेत याची जाणीव ठेवून केले पण तरीही ताईने माघार घेतली नाही. तिच्या स्त्रीत्वाचा, मातृत्वाचा, अस्तित्वाचा, स्वयंप्रेरणेचा स्त्रोत तिला विझू द्यायचा नव्हता. प्रचंड मानसिक ताकदीने ती स्थिर राहिली.
एक दिवस अरुण स्वत: आमच्या घरी आला. त्याचे ते एकेकाळचे राजबिंडे, राजस रूप पार लयाला गेले होते. दुखण्याने त्याला पार पोखरून टाकलं होतं. त्याच्या या स्थितीला फक्त एक शारीरिक व्याधी इतकंच कारण नव्हतं तर विकृत वृत्तींच्या कड्यांमध्ये त्याचं जीवन अडकलं होतं त्यामुळे त्याची अशी स्थिती झाली होती. जीजीने त्याला प्रेमाने जवळ घेतले. त्याचे मुके घेतले. अरुणने जवळच उभ्या असलेल्या ताईला म्हटले, “अरु झालं गेलं विसरूया. आपण नव्याने पुन्हा सुरुवात करूया. माझं तुझ्यावर खूप प्रेम आहे. ”
ताईने त्याला घट्ट आलिंगन दिले. त्या एका मिठीत त्यांच्या आयुष्यातले सगळे कडु विरघळून गेले.
इतके दिवस ठाण मांडून बसलेली आमच्या घरातली अमावस्या अखेर संपली आणि प्रेमाची पौर्णिमा पुन्हा एकदा अवतरली.
त्यानंतर माझ्या मनात सहज आले, अरुण फक्त घरी आला होता. तो जुळवायला की भांडायला हे ठरायचं होतं. त्याआधीच जिजी कशी काय इतकी हळवी झाली? मी जेव्हा नंतर जिजीला हे विचारलं तेव्हा ती म्हणाली, “भांडायला येणारा माणूस तेव्हाच कळतो. अरुणच्या चेहऱ्यावर ते भावच नव्हते. ”
माणसं ओळखण्यात जिजी नेहमीच तरबेज होती.
“फरगेट अँड फरगिव्ह” हेच आमच्या कुटुंबाचं ब्रीदवाक्य होतं.
शिवाय जीजी नेहमी म्हणायची, ” सत्याचा वाली परमेश्वर असतो. एक ना एक दिवस सत्याचा विजय होतो. ”
त्यानंतर ताई आणि अरुणचा संसार अत्यंत सुखाने सुरू झाला. वाटेत अनेक खाचखळगे, काळज्या होत्याच. अजून काट्यांचीच बिछायत होती पण आता ती दोघं आणि त्यांच्यातलं घट्ट प्रेम या सर्वांवर मात करण्यासाठी समर्थ होतं. बिघडलेली सगळी नाती कालांतराने आपोआपच सुधारत गेली इतकी की भूतकाळात असं काही घडलं होतं याची आठवणही मागे राहिली नाही. ढगे आणि मुल्हेरकर कुटुंबाचा स्नेह त्यानंतर कधीही तुटला नाही. सगळे गैरसमज दूर झाले आणि प्रेमाची नाती जुळली गेली कायमस्वरुपी. ही केवळ कृष्णकृपा.
आज जेव्हा मी या सर्व भूतकाळातल्या वेदनादायी घटना आठवते तेव्हा वाटतं युद्धे काय फक्त भौगोलिक असतात का? भौगोलिक युद्धात फक्त हार किंवा जीत असते पण मानसिक, कौटुंबिक अथवा सामाजिक युद्धात केवळ हार -जीत नसते तर एक परिवर्तन असते आणि परिवर्तन म्हणजे नव्या समाजाचा पाया असतो. यात साऱ्या नकारात्मक विरोधी रेषांचे विलनीकरण झालेले असते आणि जागेपणातली किंवा जागृत झालेली ही मने शुचिर्भूत असतात याचा सुंदर अनुभव आम्ही घेतला. तेव्हाही आणि त्यानंतरच्या काळातही. खरं म्हणजे आम्हाला कुणालाच ताईचं आणि अरुणचं नातं तुटावं असं वाटत नव्हतं पण ते रडतखडत, लाचारीने, कृतीशून्य असमर्थतेत, खोट्या समाधानात टिकावं असंही वाटत नव्हतं. कुठलाही अवास्तव अहंकार नसला तरी “स्वाभिमान हा महत्त्वाचा” हेच सूत्र त्यामागे होतं त्यामुळे त्यादिवशी समारंभात भेटलेल्या माझ्या बालमैत्रिणीने विचारलेल्या, ” इतक्या खोलवर झालेले घावही बुझू शकतात का?” या प्रश्नाला मी उत्तर दिले, “ हो! तुमची पायाभूत मनोधारणा चांगली असेल तर खड्डे बुझतात नव्हे ते बुझवावे लागतात.”
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय यात्रा संस्मरण – ‘चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
(25 अप्रैल 2025 को परम आदरणीय डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने सफल, स्वस्थ एवं सादगीपूर्ण जीवन के 86 वर्ष पूर्ण किये। आपका आशीर्वाद हम सबको, हमारी एवं आने वाली पीढ़ियों को सदैव मिलता रहे ईश्वर से यही कामना है। ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपके स्वस्थ जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएं 💐🙏)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 286 ☆
☆ यात्रा-संस्मरण ☆ चमत्कारी गेट और अपनी पाप-मुक्ति ☆
हाल ही में सिक्किम यात्रा का अवसर मिला। ट्रेन से दिल्ली पहुंच कर 22 मार्च को बागडोगरा की फ्लाइट पकड़ी। हमारे परिवार के नौ लोग थे। बागडोगरा पहुंचने पर रोलेप ट्राइबल होमस्टे के संचालक श्री रोशन राय ने हमारी ज़िम्मेदारी संभाल ली। पहला गंतव्य मानखिम। उसके बाद लुंचोक, रोलेप, ज़ुलुक, गंगटोक और रावोंगला। 30 मार्च तक घूमना-फिरना, रुकना- टिकना, खाना-पीना सब रोशन जी के ज़िम्मे। होमस्टे का अलग ही अनुभव था। रोशन जी अभी युवा हैं, बहुत सरल, विनोदी स्वभाव के। वैसी ही उनकी पूरी टीम है। सब कुछ घर जैसा, पूरी तरह अनौपचारिक। मेरी बेटियां और बहू उनकी टीम को रसोई में मदद देने में जुट जाती थीं।
रोलेप में हम ऊंची, मुश्किल जगहों में पैदल चढ़े। तब इत्मीनान हुआ कि उम्र बहुत हो जाने पर भी काठी अभी ठीक-ठाक है। अपने ऊपर भरोसा पैदा हुआ। ऊपर चढ़ने में मेरी फिक्र मुझसे ज़्यादा रोशन जी के लड़कों को रहती थी। हम 12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित ज़ुलुक में भी एक रात ठहरे, जो बेहद ठंडी जगह है।
लौटते वक्त गंगटोक में हमारी भेंट रोशन जी की पत्नी और उनकी बहुत प्यारी बेटी से हुई। उनके साथ भोजन हुआ। दूसरे दिन रोशन जी ने हमें रास्ते में रोक कर हम सब के गले में पीला उत्तरीय डालकर हमें विदा किया। उनके व्यवहार के कारण हमारी यात्रा सचमुच यादगार बन गयी।
रोशन जी की टीम में जो लड़के हैं वे गांव-देहात के लड़कों जैसे हैं। होटलों में कार्यरत, ट्रेन्ड, ‘गुड मॉर्निंग, गुड ईवनिंग सर’ वाले सेवकों जैसे नहीं। आपके बगल में चलते-चलते वे आपके साथ कोई मज़ाक करके हंसते-हंसते दुहरे हो जाएंगे। रोशन जी ने बताया ये सब ऐसे लड़के थे जिनके घर में खाने-पहनने की भी तंगी थी। रोशन जी उन पर नज़र रखते थे कि पैसा मिलने पर कोई ग़लत शौक न पाल लें।
गंगटोक से चलकर हम नाथूला पास पर कुछ देर रुकते हुए रावोंगला पहुंचे, जो बागडोगरा वापस पहुंचने से पहले हमारा आखिरी मुकाम था। यहां ‘सेविन मिरर लेक’ नामक होमस्टे पर हम दो दिन रुके। सुन्दर स्थान है। सिक्किम में हर जगह तरह-तरह के फूलों की बहार दिखी। प्राकृतिक, प्रदूषण-मुक्त वातावरण में फूलों के दमकते रंग आंखों को चौंधयाते हैं।
इस होमस्टे से कुछ दूरी पर बुद्ध पार्क है। यहां गौतम बुद्ध की विशाल प्रतिमा, संग्रहालय और पुस्तकालय हैं। पार्क बड़े क्षेत्र में फैला है। वहां पर्यटकों की अच्छी भीड़ दिखी।
होमस्टे की सीढ़ियों पर बने द्वार के बगल में लगी सफेद पत्थर की एक पट्टिका ने ध्यान खींचा। उस पर कुछ अंकित था। उत्सुकतावश पढ़ा तो चमत्कृत हो गया। पट्टिका पर लिखा था कि वह द्वार अनेक ‘ज़ुंग’ अर्थात मंत्रों से अभिषिक्त था और उसके नीचे से निकलने वाला अपने सभी पिछले पापों से मुक्त हो जाएगा। (फोटो दे रहा हूं)
अंधा क्या चाहे, दो आंखें। मैं 86 की उम्र पार करने के बाद भी अभी तक संगम पहुंचकर अपने पाप नहीं धो पाया, इसलिए इस द्वार की लिखावट पढ़कर लगा अंधे के हाथ बटेर लग गयी। मैं तुरन्त दो तीन बार उस द्वार के नीचे से गुज़रा । मन हल्का हो गया, सब पापों का बोझ उतर गया। 86 पार की उम्र में नये पापों का पराक्रम करने की गुंजाइश बहुत कम है, इसलिए मुझे अब स्वर्ग की दमकती हुई रोशनियां साफ-साफ दिखायी पड़ने लगी हैं। मित्रगण भरोसा रख सकते हैं कि दुनिया से रुख़सत होने पर मुझे स्वर्ग में बिना ख़ास जांच- पड़ताल के ‘एंट्री’ मिल जाएगी। परलोक की चिन्ता से मुक्त हुआ।
(ई-अभिव्यक्ति द्वारा डॉ कुंदन सिंह परिहार जी के 85 वें जन्मदिवस के अवसर पर स्मृतिशेष भाई जय प्रकाश पाण्डेय जी द्वारा संपादित 85 पार – साहित्य के कुंदन आपके अवलोकनार्थ)
इस प्रकार सौ टका पुण्यवान होकर 31 मार्च को दिल्ली से ट्रेन पकड़कर 1 अप्रैल की सुबह पंछी पुनि जहाज पर पहुंच गया।
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– बेबाकी…” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ गद्य क्षणिका ☆ — बेबाकी —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
महात्मा गांधी संस्थान में साथ काम करने वाला हमारा एक मित्र कहता था, “सभी लेखक विद्वान नहीं होते।” संस्थान में हम दो तीन लिखने वाले थे और वह लिखने वाला नहीं था। गजब यह कि वह अपनी इस बात से हम पर हावी हो जाता था। तब मेरी पक्षधरता लेखकों के लिए ही होती थी। पर अब मुझे लगता है उतनी बेबाकी से कहने वाले उस मृत आदमी की समाधि पर श्रद्धा के दो फूल चढ़ा आऊँ।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है। साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 286 ☆ संवेदनशून्यता…
22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में आतंकियों ने 28 निहत्थे लोगों की नृशंस हत्या कर दी। इस अमानुषी कृत्य के विरुद्ध देश भर में रोष की लहर है। भारत सरकार ने कूटनीतिक स्तर पर पाकिस्तान को घेरना शुरू कर दिया है। तय है कि शत्रु को सामरिक दंड भी भुगतना पड़ेगा।
आज का हमारा चिंतन इस हमले के संदर्भ में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर हमारी सामुदायिक चेतना को लेकर है।
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपनी अभिव्यक्ति / उपलब्धियों / रचनाओं को साझा करने का सशक्त एवं प्रभावी माध्यम हैं। सामान्य स्थितियों में सृजन को पाठकों तक पहुँचाने, स्वयं को वैचारिक रूप से अभिव्यक्त करने, अपने बारे में जानकारी देने की मूलभूत व प्राकृतिक मानवीय इच्छा को देखते हुए यह स्वाभाविक भी है।
यहाँ प्रश्न हमले के बाद से अगले दो-तीन दिन की अवधि में प्रेषित की गईं पोस्ट़ों को लेकर है। स्थूल रूप से तीन तरह की प्रतिक्रियाएँ विभिन्न प्लेटफॉर्मों पर देखने को मिलीं। पहले वर्ग में वे लोग थे, जो इन हमलों से बेहद उद्वेलित थे और तुरंत कार्यवाही की मांग कर रहे थे। दूसरा वर्ग हमले के विभिन्न आयामों के पक्ष या विरोध में चर्चा करने वालों का था। इन दोनों वर्गों की वैचारिकता से सहमति या असहमति हो सकती है पर उनकी चर्चा / बहस/ विचार के केंद्र में हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं सुरक्षा पर हुआ यह आघात था।
एक तीसरा वर्ग भी इस अवधि में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सक्रिय था। बड़ी संख्या में उनकी ऐसी पोस्ट देखने को मिलीं जिन्हें इस जघन्य कांड से कोई लेना-देना नहीं था। इनमें विभिन्न विधाओं की रचनाएँ थीं। इनके विषय- सौंदर्य, प्रेम, मिलन, बिछोह से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक आदि थे। हास्य-व्यंग के लेख भी डाले जाते रहे। यह वर्ग वीडियो और रील्स का महासागर भी उँड़ेलता रहा। घूमने- फिरने से लेकर हनीमून तक की तस्वीरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शेयर की जाती रहीं।
यह वर्ग ही आज हमारे चिंतन के केंद्र में है। ऐसा नहीं है कि किसी दुखद घटना के बाद हर्ष के प्रसंग रुक जाते हैं। तब भी स्मरण रखा जाना चाहिए कि मोहल्ले में एक मृत्यु हो जाने पर मंदिर का घंटा भी बांध दिया जाता है। किसी शुभ प्रसंग वाले दिन ही निकटतम परिजन का देहांत हो जाने पर भी यद्यपि मुहूर्त टाला नहीं जाता, पर शोक की एक अनुभूति पूरे परिदृश्य को घेर अवश्य लेती है। पड़ोस के घर में मृत्यु हो जाने पर बारात में बैंड-बाजा नहीं बजाया जाता था। कभी मृत्यु पर मोहल्ले भर में चूल्हा नहीं जलता था। आज मृत्यु भी संबंधित फ्लैट तक की सीमित रह गई है। राष्ट्रीय शोक को सम्बंधित परिवारों तक सीमित मान लेने की वृत्ति गंभीर प्रश्न खड़े करती है।
इस वृत्ति को किसी कौवे की मृत्यु पर काग-समूह के रुदन की सामूहिक काँव-काँव सुननी चाहिए। सड़क पार करते समय किसी कुत्ते को किसी वाहन द्वारा चोटिल कर दिए जाने पर आसपास के कुत्तों का वाहन चालकों के विरुद्ध व्यक्त होता भीषण आक्रोश सुनना चाहिए।
हमें पढ़ाया गया था, “मैन इज़ अ सोशल एनिमल।” आदमी के व्यवहार से गायब होता यह ‘सोशल’ उसे एनिमल तक सीमित कर रहा है। संभव है कि उसने सोशल मीडिया को ही सोशल होने की पराकाष्ठा मान लिया हो।
आदिग्रंथ ऋग्वेद का उद्घोष है-
॥ सं. गच्छध्वम् सं वदध्वम्॥
( 10.181.2)
अर्थात साथ चलें, साथ (समूह में) बोलें।
कठोपनिषद, सामुदायिकता को प्रतिपादित करता हुआ कहता है-
॥ ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥19॥
ऐसा नहीं लगता कि सोशल मीडिया पर हर्षोल्लास के पल साझा करनेवाले पहलगाम कांड पर दुखी या आक्रोशित नहीं हुए होंगे पर वे शोक की जनमान्य अवधि तक भी रुक नहीं सके। इस तरह की आत्ममुग्धता और उतावलापन संवेदना के निष्प्राण होने की ओर संकेत कर रहे हैं।
कभी लेखनी से उतरा था-
हार्ट अटैक,
ब्रेन डेड,
मृत्यु के नये नाम गढ़ रहे हम,
सोचता हूँ,
संवेदनशून्यता को
मृत्यु कब घोषित करेंगे हम?
हम सबमें सभी प्रकार की प्रवृत्तियाँ अंतर्निहित हैं। वांछनीय है कि हम तटस्थ होकर अपना आकलन करें, विचार करें, तदनुसार क्रियान्वयन करें ताकि दम तोड़ती संवेदना में प्राण फूँके जा सकें।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
12 अप्रैल 2025 से 19 मई 2025 तक श्री महावीर साधना सम्पन्न होगी
प्रतिदिन हनुमान चालीसा एवं संकटमोचन हनुमन्नाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें, आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈