हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘लेंब्रेटा का लफड़ा)  

☆ व्यंग्य # 100 ☆ लेंब्रेटा का लफड़ा ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सपने में आज वो पुराना लेंब्रेटा स्कूटर क्यों आया, समझ न आया, सपने में आया तो आया पर ये क्या है कि दिन भर हर बात में याद आया।  हालांकि अपने जमाने में लेंब्रेटा स्कूटर के जलवे थे। कितनी सारी फिल्मों में हीरो हीरोइन गीत गाते लहराते,आंख मिलाते निकल जाते थे। कल्लू की शादी प्रदर्शनी की फोटो की दुकान में रखी पुराने लेंब्रेटा के ऊपर बैठकर उतरवायी फोटो को देखकर ही हो पाई थी। ऊंचे लोगों के लिए लेंब्रेटा बढ़िया ‌ स्कूटर थी, छकौड़ी बताता था कि लेंब्रेटा के कारण अभिताभ हीरो बन पाये थे। इस तरह लेंब्रेटा दिन भर कोई बहाने दिमाग में बैठी रही। पुराने लेंब्रेटा स्कूटर ने दिन भर इतना तंगाया कि मित्र को फोन करना ही पड़ा।  मित्र को वो टूटी फूटी बेकार सी लेंब्रेटा स्कूटर दहेज में मिली थी। तीस साल से वे धो -पोंछ कर उस स्कूटर को चकाचक रखते थे, ऊपर से चमकती थी अंदर से टीबी पीड़ित थी, हर बार स्टार्ट करने में दो बाल्टी पसीना बहा देती थी, कभी कभार स्टार्ट होती थी तो गन्नाके भगती थी, कभी कभी मित्र मेरे को भी पीछे बैठाकर घुमा देते थे, पर उस समय ये बात समझ नहीं आयी कि मित्र की पत्नी के बैठते ही वो अंगद का पांव बन जाती थी। मित्र की पत्नी जीवन भर उसमें बैठकर घूमने के लिए तरसती रही, पर जब वो बैठतीं तुंरत बंद हो जाती।  लाख कोशिशों के बाद भी स्टार्ट न होती। ये बात अलग है कि उसके घर में घुसते ही एक बार चिढ़ाने के लिए स्टार्ट होती फिर फुस्स हो जाती। उस पुरानी लेंब्रेटा ने पति-पत्नी के खूब झगड़े कराये, उसके कारण पति को कई दिन भूखे रहना पड़ता था।

अंत में हारकर मित्र ने औने-पौने दाम में कबाड़ के भाव एक कबाड़ी को बेच दिया था। हमने सोचा कि वो लेंब्रेटा में हम कभी कभी बैठ लेते थे इसलिए प्रेमवश सपने में धोखे से आ गयी हो,मन नहीं माना तो  मित्र को फोन लगाया।  वहां से आवाज आई, मित्र अभी पत्नी से लड़ाई चल रही है, उसने दहेज में दिये लेंब्रेटा स्कूटर को मुख्य मुद्दा बना लिया है और उसी लेंब्रेटा स्कूटर की वापसी की मांग कर रही है।अब आप बताओ कि कि इतने साल पहले कबाड़ के भाव लेकर कबाड़ी क्या उसे वापस करेगा। कबाड़ी कौन था, कहां से आया था,ये भी तो याद नहीं…… मित्र पूछ रहा है कि आप बताएं कि इस समस्या का समाधान कैसे होगा ?

हम सबके ऊपर छोड़ रहें हैं कुछ बढ़िया सा लिखकर बताएं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #103 ☆ व्यंग्य – बड़े साहब, छोटे साहब….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘बड़े साहब, छोटे साहब…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 103 ☆

व्यंग्य –  बड़े साहब, छोटे साहब

बड़े साहब अपने कमरे में चीख रहे थे और उनकी चीखें कमरे को पार करके पूरे दफ्तर में गूँज रही थीं। सुनकर दूसरे साहब लोग एक दूसरे की तरफ देखकर मुस्करा रहे थे और बाबू लोग फाइल में नज़र गड़ाये मुस्कान दबा रहे थे।

बात यह थी कि एक नासमझ आदमी अपने काम को लेकर साहब के कमरे में घुस गया था और उसने दफ्तर की परंपरा के अनुसार नोटों का एक बंडल साहब की सेवा में प्रस्तुत कर दिया था। साहब इसी बात पर भड़क कर चीख रहे थे। कह रहे थे, ‘मुझे रिश्वत देता है? मुझे भ्रष्ट समझता है? अभी पुलिस को बुलाता हूँ। जेल में सड़ जाएगा। मुझे समझता क्या है?’

आदमी पसीना पोंछता हुआ बाहर निकला। उसे शायद अपना कसूर समझ नहीं आ रहा था। पसीना पोंछते वह बाहर के दरवाजे की तरफ बढ़ गया। तभी छोटे साहब के कमरे से निकलकर चपरासी उसकी तरफ लपका। पास जाकर आदमी से मीठे स्वर में बोला, ‘परेशान मत होइए। सब ठीक हो जाएगा। आपको छोटे साहब बुलाते हैं।’
छोटे साहब ने आदमी को प्रेमपूर्वक कुर्सी पर बैठाया। चपरासी ने ठंडा पानी पेश किया। छोटे साहब बोले, ‘शान्त हो जाइए। आराम से बैठिए। हम तो बड़े साहब का बिहेवियर देखकर बहुत दुखी हैं।जनता के साथ यह कैसा बिहेवियर है? जनता बड़ी उम्मीद लेकर आती है, उसकी उम्मीद पर पानी नहीं फेरना चाहिए। आपने कुछ पैसे- वैसे का ऑफर दे दिया तो भड़कने की कौन सी बात है? उनको नहीं चाहिए तो भलमनसाहत से मना कर देना चाहिए। इसमें चिल्लाने की क्या जरूरत है?’

छोटे साहब आगे बोले, ‘यह साहब अभी पन्द्रह दिन पहले ही आये हैं, इसीलिए आप धोखा खा गये। साहब अपने को ईमानदार समझते हैं। इसी ईमानदारी के चक्कर में तीस साल की नौकरी में पैंतीस ट्रांसफर झेल चुके हैं। शटलकॉक बने हुए हैं। यहां भी छः महीने से ज्यादा नहीं टिकेंगे। हम कब तक ऐसे अफसर को झेलेंगे? पूरे दफ्तर का वातावरण बिगड़ जाता है। वर्क कल्चर पर असर पड़ता है।’

साहब थोड़ा रुककर फिर बोले, ‘वो हरयाना में एक आईएएस खेमका जी हैं। उनके भी चौबीस साल की सर्विस में इक्यावन ट्रांसफर हो चुके हैं, यानी एक जगह औसतन छः महीने भी नहीं टिक पाये। हर सरकार उनसे छड़कती है। उन्हें भी ईमानदारी की बीमारी है। हमारे साहब को उन्हीं का भाई समझो। यह लोग अपने को राजा हरिश्चंद्र समझते हैं। अब राजा हरिश्चंद्र बनोगे तो राजा हरिश्चंद्र की तरह फजीहत भी भोगोगे।’

साहब फिर बोले, ‘ऐसे ही लोगों के लिए गोस्वामी जी ने लिखा है— सकल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं। इनके सामने मौके ही मौके हैं, लेकिन इनके हाथ खाली के खाली हैं। मुट्ठी बाँधे आये थे और हाथ पसारे चले जाएँगे। बाल-बच्चे कोसेंगे कि इतने बड़े पद पर रहते हुए भी उनके लिए कुछ नहीं किया। नाते- रिश्तेदार भी भकुरे रहते हैं क्योंकि उनका कुछ भला नहीं होता। दफ्तर वाले दिन गिनते रहते हैं कि कब उनका ट्रांसफर या रिटायरमेंट हो। अब बताइए, ऐसी ईमानदारी से क्या फायदा?’
साहब आगे बोले, ‘भैया, आईएएस, आईपीएस का पद बड़े भाग्य से मिलता है। इसे ईमानदारी के चक्कर में ‘वेस्ट’ नहीं कर देना चाहिए। अपना उसूल है सेवा करो और मेवा खाओ। अपने देश की धरती रत्नगर्भा है। यहां रत्न भरे पड़े हैं, लेकिन रत्नों को पाने के लिए जमीन को खुरचना पड़ता है। सही ढंग से खुरचोगे तो झोली हमेशा भरी रहेगी।’
अन्त में साहब बोले, ‘आप निश्चिंत होकर जाइए। आपका काम कराने की गारंटी मैं लेता हूँ। जो नोट आप बड़े साहब को दे रहे थे वे इस तरफ सरका दें। हम दस बीस कागजों के बीच आपका कागज रखकर बड़े साहब के दस्तखत करा लेंगे। उन्हें भनक भी नहीं लगेगी। हमारा चपरासी इस काम में एक्सपर्ट है। और जो खर्चा लगेगा, आपको बता देंगे। पैसे का ज्यादा मोह मत रखिएगा। पैसे को हाथ का मैल समझिए। त्याग की भावना हो तो कोई काम रुकता नहीं। इस बात को सब लोग समझ लें तो कोई दिक्कत न हो। आप अब यहाँ मत आइएगा, आर्डर आपके घर पहुँच जाएगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ बड़ा साहित्यकार ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव

सुश्री अनीता श्रीवास्तव

☆ व्यंग्य ☆ बड़ा साहित्यकार ☆ सुश्री अनीता श्रीवास्तव ☆

कल श्री घोंघा प्रसाद “कालपुरी” जी का फोन आया . बोले – घर पर गोष्ठी है . मैंने अभिवादन किया मगर गोष्ठी की बात पर कुछ नहीं कहा . मेरी उदासीनता ने उन्हें गोष्ठी के बारे में कुछ अधिक बताने को प्रेरित किया . वे गला ठीक करते हुए बोले-  सभी बड़े साहित्यकार गोष्ठी में आ रहे हैं . गोष्ठी का आयोजन अमुक के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में रखा गया है l आप आएँगीं तो अच्छा होगा . मैं सोचने लगी इस शहर में बड़े साहित्यकार कौन हैं? व्यक्तिगत मेल- मिलाप में  तो कालपुरी जी सभी को छोटा बता चुके हैं – फलां की भाषा क्लिष्ट है, अमुक की व्याकरण ठीक नहीं या इनको तो सिवाय लफ्फाजी के कुछ सूझता नहीं . फिर ये बड़े साहित्य कार  हैं कौन  !  मुझे संकोच हुआ- इतने बड़े साहित्यकारों के सामने मैं क्या मुँह खोलूँगी भला  !

     मैं नियत दिन व समय पर गोष्ठी में सम्मिलित होने घर से निकली लेकिन जाम में फंसने के कारण विलम्ब से पहुंची. मैंने देखा काव्य पाठ चल रहा है. अभिवादन करके बैठ गई. मेरा नाम बाद में था, जान कर सुकून मिला. मेरी आँखें वहाँ बड़े साहित्यकार को तलाश रहीं थी. सभी पहचाने चेहरे थे.

गोष्ठी शबाब पर पहुँचने के साथ ही वाह वाही जोर पकड़ती जा रही थी. मेरा मन खोज में ही लगा था. निदान होते न देख मैंने पूछ ही लिया , “आप में से बड़े साहित्यकार कौन हैं  ?”  कहते हुए मेरी नजर जिन पर टिकी थी वे तनिक लजा गए और बोले-   मैं तो छोटा सा कलम का सिपाही हूँ.

  मेरी नज़र दूसरे पर शिफ्ट हो गई. वे बोले-  जी मैं तो वाणी का मामूली सा साधक हूँ.

तीसरे- मैं तो बस थोड़ा बहुत ही…आप सबके आशीर्वाद से… हें हें हें.

इसी प्रकार सभी ने अपने आप को छोटा बताया. मैं हैरान. जब सभी छोटे हैं तो बड़ा साहित्यकार कौन है! मेरी हालत भांप कर कालपुरी जी खड़े हुए और अपने ठीक सामने विराजित कवि से बोले-  जब कोई पूछे कि बड़ा साहित्य कार कौन है तो आपको अपने बारे में कुछ नहीं कहना चाहिए. आपको अपने बगल में बैठे साहित्यकार को बड़ा बताना चाहिए, भले ही आपका मन साथ न दे. बदले में वह भी आपको बड़ा बताएगा. साहित्यकार इसी तरह बड़ा बनता है. मेरा नादान मन प्रफुल्लित हो उठा.  मैं तत्काल समझ गई बड़ा साहित्यकार कौन होता है. जैसा मेरी शंका का समाधान हुआ, ठाकुर जी करें, सबका हो.

© सुश्री अनीता श्रीवास्तव

मऊचुंगी टीकमगढ़ म प्र

मो-  7879474230

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 66 ☆ नजरअंदाज ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “नजरअंदाज”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 66 – नजरअंदाज

अंदाज अपने- अपने हो सकते हैं। पर नज़र आने के बाद भी जिसे अनदेखा किया जाए उसे क्या कहेंगे ? खैर ये तो आम बात है, जब भी किसी को अपने से दूर करना हो तो सबसे पहले उसे उपेक्षित किया जाता है उसके बाद धीरे- धीरे इसकी मात्रा बढ़ने लगती है। अगला चरण गुटबाजी का होता है, फिर बिना बताए कहीं भी चल देना। हमेशा ये अहसास दिलाना कि तुम अनुपयोगी हो। शब्दों के तीर तो आखिरी अस्त्र होते हैं जो व्यक्ति अंतिम चरण में ब्रह्मास्त्र की तरह प्रयोग करता है। इसका असर दूरगामी होता है। शायद इसे ही जवान फिसलना कहते हैं।

किसी भी रिश्तों से चाहें वो कार्यालयीन हो, व्यक्तिगत हो, या कोई अन्य हो। हर से व्यक्ति बहुत जल्द ऊब जाता है। नवीनता न होना, निरंतर स्वयं को इम्प्रूव न करना, ठहरे हुए जल की भाँति होना या केवल नीरसता का जामा ओढ़े, नदी की तरह लगातार चलते हुए सागर में समाहित होकर अपना अस्तित्व खो देना। 

ऐसा हमेशा से होता चला आ रहा है। कोई किसी को उपेक्षित क्यों करता है, इसके क्या कारण हो सकते हैं। ऐसे में दोनों पक्षों को क्या करना चाहिए। कैसे स्वयं को फिट रखकर श्रेष्ठ व उत्तम बनें इस ओर चिंतन बहुत जरूरी होता है। क्या कारण है कि सब कुछ जानते समझते हुए भी कोई प्रतिरोध नहीं करता। एक लगातार मनमानी करता हो दूसरा अच्छाई की राह पर चलते हुए हमेशा सत्य व सहजता से जी रहा हो ये भी एक बिंदु है कि सत्य ही जीतेगा। जिसे नजरअंदाज किया जाता है,वो आत्मनिर्भर बनने लगता है। वो अपनी छुपी प्रतिभा को निखारता है। स्वयं के ऊपर कार्य करता है। यदि व्यक्ति लगनशील हुआ तो सफल होकर दिखाता है।

वहीं कमजोर विचार वाले लोग हताश होकर दूसरों पर दोषारोपण करते हैं। या तो अपनी राह बदल लेते हैं या अवसाद के शिकार होते हैं।

नजरअंदाज करने की शुरुआत से ही हटाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ऐसी चीजें जो किसी के  सम्मान को ठेस पहुँचाती हो वो करना शुरू कर दें, अपने आप दूरी बनने लगेगी। इसी बात से एक किस्सा याद आता है कि एक महिला हमेशा तीन राखी भेजती एक उसकी दो उसकी लड़कियों की, भाई और भतीजे के लिए। भाभी उसे पसंद नहीं थी सो नजरअंदाज करने के लिए उसने यही तरीका ज्यादा उचित समझा। तीन तिकड़ा अपशकुन होता है या नहीं ये तो पता नहीं किन्तु उसकी भाभी के मन को आहत जरूर करता जाता रहा है।

ऐसे ही बहुत से दृष्टांत हमारे आसपास रोज घटित होते हैं जिन्हें नजरअंदाज करना ही पड़ता है। जब तक बात खुलकर सामने नहीं आती तब तक लोग अपना कार्य इसी तरह चलाते रहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 111 ☆ दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन…. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य  दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 111 ☆

? दार्शनिक जी का चिड़ियाघर दर्शन  ?

प्रोफेसर दार्शनिक,चिंतक,विचारक,हिन्दी के ज्ञाता,दर्शन शास्त्र के विद्वान हैं. कोरोना जनित लम्बे लाकडाउन में सपरिवार अपने ही घर में स्वयं की ही नजरबंदी से तंग बच्चों के अनलाक प्रस्ताव को स्वीकार कर वे शहर के बाहरी छोर पर बने चिडियाघर के भ्रमण हेतु आये हुये थे. प्रवेश की टिकिट कटवाते हुये वे सोच रहे थे कि जब यहाँ विभिन्न प्रजातियों के अनेकानेक जानवर हैं तो इसे चिडियाघर ही क्यों कहा जाता है, उन्हें “जू” ज्यादा तर्क संगत लग रहा था. वे जू के लिये चिड़ियाघर से बेहतर हिन्दी समानार्थी शब्द ढ़ूढ़ने के विषय में चिंतन करते भीतर जा पहुंचे.

पहला ही कटघरा मोरों का था, कुछ मोर पंख फैलाकर जैसे उनका स्वागत कर रहे थे. चेहरे पर लगे मास्क भी बच्चो की प्रसन्नता ढ़ंक नही पा रहे थे. दार्शनिक जी ने श्रीमती जी से कहा, जानती हैं यह जो मोर अपने सुंदर पंखो को फैलाकर हमारा स्वागत कर रहा है, यह नर मोर है, और वह मोरनी है जो बदसूरत सी दुमकटी दिखती है. मतलब मोर हमेशा से मोरनी को रिझाने में लगा रहा है. वे साठ डिग्री के कोण में पत्नी की ओर झुकते हुये मुस्करा पड़े.भगवान कृष्ण ने मोर पंख को अपने मुकुट पर धारण कर संभवतः नारी के प्रति इसी सम्मान को प्रतिपादित करना चाहा रहा होगा. नारी विमर्श की इस आध्यात्मिक, दार्शनिक अभिव्यक्ति पर उनकी पत्नी ने भी प्रत्युत्तर में भीनी सी मुस्कराहट के साथ उनका लटकता हुआ मास्क ठीक कर दिया.उन्हें “जंगल में मोर नाचा किसने देखा”, वाले मुहावरे की याद आई, वे खुश थे कि यहां नाचते हुये मोरों के साथ सेल्फी लेने वाले कई लोग थे.

अगले ही दड़बे में लाल आखों वाले प्यारे से कई सफेद खरगोश बंद थे. दार्शनिक जी को कछुये और खरगोश की नीति कथा की याद आ गई. उस कथा में तो खरगोश अपने आलस्य व अति आत्मविश्वास के कारण कछुये की लगन और निरंतरता के सामने हार गया था, पर आज तो खरगोश जैसे जानबूझ कर पीछे बने रहना चाहते हैं. पिछड़े बने रहने के आज अनेकानेक लाभ दिखते हैं, आरक्षण मिलता है. पिछड़ो का विकास सरकार की जबाबदारी लगती है. पिछड़ेपन की दौड़ में आगे आने के लिये अपनी समूची जाति को ही पिछड़ा घोषित करवाने के लिये कुछ समुदाय आंदोलन करते हैं.

दार्शनिक जी के मन में चल रही उहापोह से अनभिज्ञ बच्चे खुशी से खिलखिलाते आगे बढ़ गये थे. वे जिस कांच से घिरे कटघरे के चारों ओर खड़े थे उसमें अनेक प्रजातियो के सांप दिख रहे थे. दार्शनिक जी को एक साथ ही कई मुहावरे याद हो आये. अजगर को देख वे सोचने लगे ” अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम दास मलूका कह गये सबके दाता राम. “संत मलूकदास के नास्तिक से रामभक्त बनने की कहानी उन्हें स्मरण हो आई. वे अनायास हुये लाकडाउन से उपजी घटनायें याद कर सोचने लगे कि जरूरत मंदो के लिये श्री राम कभी सोनू सूद बनकर आते हैं, कभी सरकारी अधिकारी बनकर. कितना अच्छा हो कि हम सब अपने भीतर छिपे, छोटे या बड़े सोनू सूद को थोड़ा सा पनपने के अवसर देते रहें. कभी किसी की आस्तीन के सांप न बने. और न ही किसी आफिस में कोई किसी फाईल पर कुंडली मारकर बैठ जाये. दूसरों की उन्नति देखकर कभी किसी की छाती पर सांप न लोटे, तो दुनियां कितनी बेहतर हो.

पास ही जाली के घेरे में ऊंची ऊंची घास के मैदान में कई नील गायें चर रहीं थीं. बेटे ने पूछा पापा नीलगाय दूध नहीं देतीं क्या, श्रीमती जी ने जबाब दिया नहीं बेटा, इसीलिये ये इंसानो के लिये जानवरो की एक प्रजाति मात्र हैं,कभी जभी इनका इस्तेमाल पर्यावरण वादी एक्टिविस्ट पशु अधिकारो के प्रति चेतना जगाने के नाम पर अपनी राजनीति चमकाने के लिये कर लेते हैं. वैसे इंसान को दुधारू गाय की दुलत्तियां भी बुरी नहीं लगतीं. सफेद मोजे से पहने दिखते वन भैंसों का एक झुण्ड भी पास ही घास चरते हुये दिख रहा था, उन्हें इंगित करते हुये दार्शनिक जी ने बच्चो को बतलाया कि ये बायसन हैं, शेर से भी अधिक बलशाली. ये शाकाहार की शक्ति के प्रतीक हैं. उन्होने बच्चो का ज्ञानवर्धन किया कि घास की रोटियां खाकर भी महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को लोहे के चने चबवा दिये थे. शाकाहार की बात से दार्शनिक जी को मन ही मन सड़को पर बेखौफ घूमते शाकाहारी सांड़ो के चित्र दिखने लगे. वे समाज के भांति भांति के साड़ों के विषय में चिंतन मग्न हो गये, इंसानी शक्ल में ये सांड़ उन्हें अलग अलग झंडो तले मनमर्जी की करते दिखे.

मैदान में पानी के एक छोटे से कुंड के पास ध्यान लगाये एक सफेद बगुला बैठा दिख रहा था. दार्शनिक जी को सचिवालय की कैंटीन याद हो आई, जहां जब कभी वे चाय पीने जाते उन्हें बगुले नुमा सफेद पोश दलाल मिल ही जाते, जो मछली नुमा आम आदमियो को अपनी गिरफ्त में लेने के लिये ऐसे ही घात लगाये बेवजह से बैठे दिख जाते हैं.

बड़ें बड़े कांच के एक्वेरियम में मगरमच्छ, घड़ियाल,कछुये, और तरह तरह की रंग बिरंगी मछलियों की अलग ही वीथीका थी. यहां टहलते हुये दार्शनिक जी का दर्शन यह था कि एक मछली भी पूरे तालाब को गंदा कर सकती है. आज तो हर नेता आम आदमी की चिंता में घड़ियाली आंसू रोता ही मिलता है. किसी भी तरह सब अपना उल्लू सीधा करने के चक्कर में जुटे हैं. राजनीति की में हर शाख पे उल्लू बैठे दिखते हैं, ऐसे में अंजामें गुलिस्तां की चिंता हर नागरिक के लिये बहुत जरूरी हो गई है.

चलते चलते बच्चे थकने लगे थे, श्रीमती दार्शनिक ने पेट पूजा का प्रस्ताव रखा जिसे सबने एक मत से उसी तरह स्वीकार कर लिया जैसे सांसद बिना पक्ष विपक्ष के भेदभाव, स्वयं की वेतन वृद्धि के प्रस्ताव को बिना बहस, मेजें थपथपाकर अंगीकार कर लेते हैं. पराठे, सब्जी के साथ अचार खाते हुये दार्शनिक जी विचार कर रहे थे. वे जो सरकारी अनुदान के रुपये खा जाते हैं, बड़ी बड़ी योजनायें डकार जाते हैं, चारा तक नहीं छोड़ते वे भी आखिर भूख लगने पर खाना ही तो खाते हैं. अपने खयाली पुलाव में दार्शनिक जी इंसानी हवस का कारण तलाश रहे थे, पर उन्हें वह इंसानी वजूद में ही केसर के रंग सी पैबस्त समझ आती है.

चिड़ियाघर की चिड़ियों की वीथीका घूमनी शेष थी, तो भोजनोपरांत वे उस दिशा में बढ़ चले. चलते चलते उन्होने बिटिया से पूछा “घर की मुर्गी दाल बराबर” का क्या अर्थ होता है. जेंडर इक्वेलिटी की घनघोर प्रवर्तक बेटी ने उनसे ही प्रतिप्रश्न कर दिया क्यों ! घर का मुर्गा दाल बराबर क्यों नहीं ? बहस में न पड़ वे चुपचाप जालीदार पिंजड़े नुमा बड़े से घेरे में बन्द विदेशी तोतों को देखने लगे. रंग बिरंगी तरह तरह की छोटी बड़ी आकर्षक चिड़ियों के कलरव में बच्चो का मन रम गया,पर उनकी चहचहाहट के स्वर को समझते हुये वे पत्नी को उन्मुक्त गगन में विचरण करते पंछियों की आजादी की कीमत समझाने लगे.

लौटते हुये जब वे कार तक पहुंचे तो दार्शनिक जी की नजर एक भागते हुये गिरगिटान पर पड़ी. एक छोटा सा छिपकली नुमा जीव जो वक्त जरुरत, अपने परिवेश के अनुरूप अपना रंग बदल लेता है. वे खुद बखुद ठठा कर हंस पड़े.पत्नी ने आश्चर्य से उन्हें देखा. वे कहने लगे सारी दुनियां ही तो एक चिड़ियाघर है. हर शख्स समय के अनुसार अपना रंग ही नही, रूप भी बदल लेता है. जो इस कला में जितना दक्ष है, वह समाज में उतना सफल समझा जाता है. पीछे की सीट पर बैठी बेटी मोबाईल पर फ्लैश खबर बता रही थी कि कोरोना वायरस नये नये स्ट्रेन बदल बदल कर फैल रहा है. दार्शनिक जी बैक व्यू मिरर में खुद का चेहरा देख उसे पढ़ने का यत्न कर रहे थे.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #102 ☆ व्यंग्य – जाति पाति पूछै नहिं….. ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘जाति पाति पूछै नहिं…..’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 102 ☆

☆ व्यंग्य – जाति पाति पूछै नहिं…..

बाज़ार में अफरातफरी थी। हिम्मतलाल एण्ड संस के प्रतिष्ठान पर टैक्स वालों का छापा पड़ा था। कौन से टैक्स वाले थे यह ठीक से पता नहीं चला। दल के पाँच छः कर्मचारी दूकान के खातों को खंगालने और माल को उलटने पलटने में लगे थे और उनके इंस्पेक्टर साहब गंभीर मुदा बनाये कुर्सी पर जमे थे। प्रतिष्ठान के मालिक हिम्मतलाल हड़बड़ाये इधर उधर घूम रहे थे। बीच बीच में दूकान के दरवाज़े पर आकर लम्बी साँस खींचते थे जैसे मछली पानी की सतह पर आकर ऑक्सीजन लेती है, फिर वापस दूकान में घुस जाते थे। उन्होंने उम्मीद की थी कि आसपास की दूकानों वाले उनसे हमदर्दी दिखाने आयेंगे, लेकिन सब तरफ सन्नाटा था। लगता था सबको अपनी अपनी पड़ी थी, कि अगला नंबर किसका होगा?

थोड़ी देर में हिम्मतलाल जी के निर्देश पर दो लड़के नाश्ते का सामान टेबिल पर सजा गये। हिम्मतलाल इंस्पेक्टर साहब से विनम्रता से बोले, ‘थोड़ा मुँह जुठार लिया जाए। इस बाजार के समोसे पूरे शहर में मशहूर हैं। सबेरे से लाइन लगती है।’

इंस्पेक्टर साहब भारी, मनहूस मुद्रा से बोले, ‘हम नाश्ता करके आये हैं। हमें अपना काम करने दीजिए। डिस्टर्ब मत कीजिए।’

हिम्मतलाल सिकुड़ गये। समझ गये कि आदमी टेढ़ा है,मामला आसानी से नहीं निपटेगा।

हिम्मतलाल बीच बीच में शुभचिन्तकों को फोन कर रहे थे, शायद कहीं से कोई मदद मिल जाए। एक फोन सुनते सुनते उनके चेहरे पर प्रसन्नता का भाव आ गया। बात करने वाले से खुश होकर बोले, ‘वाह,यह बढ़िया जानकारी दी। हमें मालूम नहीं था। थैंक यू।’

हिम्मतलाल इंस्पेक्टर के सामने पहुँचे और ताली मारकर हँसते हँसते दुहरे हो गये। इंस्पेक्टर साहब ताज्जुब से उनकी तरफ देखने लगे। हिम्मतलाल हँसी रोककर बोले, ‘लीजिए, हमें पता ही नहीं था कि आप हमारी बिरादरी के हैं। अभी अभी पता चला तो हमें बहुत खुशी हुई। अपनी बिरादरी का आदमी बड़ी पोस्ट पर बैठे तो पूरी बिरादरी का सर ऊँचा हो जाता है। हम अपनी बिरादरी की तरफ से आपका सम्मान करेंगे।’

इंस्पेक्टर साहब का चेहरा थोड़ा ढीला हुआ और फिर पहले जैसा भावशून्य हो गया। बुदबुदा कर बोले, ‘ठीक है। हम यहाँ बिरादरी और रिश्तेदारी ढूँढ़ने नहीं आये हैं। आपके खातों में बहुत गड़बड़ी निकल रही है। हमें अपना काम करने दीजिए।’

हिम्मतलाल का मुँह उतर गया। समझ गये कि मुसीबत इतनी आसानी  से नहीं टलेगी। मायूस से एक तरफ बैठ गये। थोड़ी देर में उठे, अलमारी से कुछ नोट गिन कर खीसे में रखे और जाँच में लगे एक कर्मचारी के पास पहुँचे जो बार बार काम रोककर रहस्यमय ढंग से उनकी तरफ देख रहा था। खीसे से नोट निकालकर बोले, ‘भैया, ये हमारी तरफ से साहब तक पहुँचा दो। उनका चेहरा देख कर हमारी तो हिम्मत नहीं पड़ रही है।’

कर्मचारी ने धीरे से पूछा, ‘कितने हैं?’

हिम्मतलाल बोले, ‘दस हैं, दस हजार।’

कर्मचारी मुँह बनाकर बोला, ‘इतने तो अकेले साहब को लग जाएंगे। फिर हम लोगों का क्या होगा?साहब दस से कम को उठा कर फेंक देते हैं। राजा तबियत के आदमी हैं।’

सुनकर हिम्मतलाल का चेहरा लटक गया। पूछा, ‘तो कितना कर दें?’

जवाब मिला, ‘बीस और कर दीजिए। इससे कम में काम नहीं होगा।’

हिम्मतलाल ने माँगी गयी रकम अर्पित की और फिर निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गये।

कर्मचारी ने इंस्पेक्टर साहब को कुछ इशारा किया और तत्काल साहब का रुख बदल गया। वे कुर्सी पर पाँव फैलाकर,ढीले होकर बैठ गये और उनके मुख पर दिव्य मुस्कान खेलने लगी। वे एकदम खुशदिल, मानवीय और कृपालु दिखने लगे।

एकाएक उन्होंने हिम्मतलाल को आवाज़ लगायी, ‘हिम्मतलाल जी, आपने नाश्ता मँगवाया था?कहाँ है?कुछ भूख लग रही है।’

हिम्मतलाल जैसे सोते से जागे। तुरन्त नाश्ता पेश किया।

नाश्ता करके साहब प्रेमपूर्ण स्वर में हिम्मतलाल से बोले, ‘आप कुछ बिरादरी की बात कर रहे थे। आप हमारी बिरादरी के हैं क्या?’

हिम्मतलाल उखड़े उखड़े से बोले, ‘हाँ सर, मेरे एक जान पहचान वाले ने बताया था। उसके बारे में कभी आपके पास आकर बात करूँगा। अभी तबियत कुछ गड़बड़ लग रही है। आपकी जाँच पूरी हो गयी हो तो घर जाकर आराम करूँगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 111 ☆ व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा एक सार्थक, तार्किक एवं समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 111 ☆

? व्यंग्य – बचाने वाले से मारने वाला बड़ा.. संदर्भ – आतंकी ड्रोन  ?

सिद्धार्थ एक दिन पाकिस्तान सीमा के निकट घूम रहे थे. राज कुमार सबका मन जीत लेने वाले सैनिक की वेषभूशा में थे. तभी राजकुमार को एक उड़ता हुआ  ड्रोन  दिखा. ड्रोन तेजी से पाकिस्तान से भारत की ओर उडान भरता घुसा चला आ रहा था. राजकुमार ने अपनी पिस्टल निकाली निशाना साधा और ड्रोन नीचे आ गिरा. दौड़ते हुये राजकुमार ड्रोन के निकट पहुंचे, आस पास से और भी लोगों ने गोली की आवाज सुनी और आसमान से  कुछ गिरते हुये देखा तो वहां भीड एकत्रित हो गई. सखा बसंतक भी वहीं था जो आजकल पत्रकारिता करता है.  किसी सनसनीखेज खुलासे की खोज में कैमरा लटकाये बसंतक प्रायः सिद्धार्थ के साथ ही बना रहता है. सिद्धार्थ ने निकट पहुंच कर देखा कि ड्रोन में विस्फोटक सामग्री का बंडल बधां हुआ है. तुरंत मिलिट्री पोलिस को इत्तला की गई. पडोसी मुल्क की साजिश बेनकाब और नाकाम हुई. टी वी पर ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी. सिद्धार्थ की प्रशंसा होने लगी.

भाई देवदत्त को यह सब फूटी आंख नहीं भाया. शाम के टी वी डिबेट में भाई की पूरी लाबी सक्रिय हो गई. भाई ने कुतर्क दिया इतिहास गवाह है कि राजा शुद्धोधन के जमाने में जब उसने इसी तरह एक हंस को मार गिराया था तो “मारने वाले से बचाने वाला बडा होता है” यह हवाला देकर उसका गिराया हुआ हंस सिद्धार्थ को सौंप दिया गया था. अतः आज जब इस ड्रोन को सिद्धार्थ ने गिराया है तो, आई हुई मैत्री भेंट को उसे सौंप दिया जावे तथा  सिद्धार्थ को ड्रोन मार गिराने के लिये कडी सजा दी जावे. ड्रोन भेजने वालो को बचाने के अपने नैतिक कर्तव्य की भी याद भाई ने डिबेट में दिलाई.

सिद्धार्थ के बचाव में बहस करते प्रवक्ता ने तर्क रखा बचाने वाले से मारने वाला भी संदर्भ और परिस्थितियों के अनुसार बड़ा होता है.  कोरोना जैसे जीवाणुओ को मारना, खेलों में प्रतिद्वंदी खिलाड़ी को पटखनी देना,  ब्रेन डेड मरीज को परिस्थिति वश मारने के इंजेक्शन देना, आतंकवादियो को मारना, युद्ध में विपक्षी सेना को मारना,  सजायाफ्ता मुजरिम को फांसी देकर मारना भी बचाने वाले से मारने वाले को बड़ा बनाता है. भाई की लाबी ने बीच बीच में जोर से बोल बोलकर बाधा डालने की टी वी बहस परम्परा का पूरा निर्वाह किया. विधान सभाओ, राज्य सभा व लोक सभा कि तरह पता नही सबको समझ आने वाली सीधी सरल बातें भी भाई को क्या कितनी समझ आयी, पर टी वी डिबेट का समय समाप्त हो चुका था और अर्धनग्न बाला के स्नान का रोचक विज्ञापन चल रहा था जिसे देखने में देवदत्त खो गया.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 98 ☆ गठबंधन खुलि खुलि जाय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘गठबंधन खुलि खुलि जाय)  

☆ व्यंग्य # 98 ☆ गठबंधन खुलि खुलि जाय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

डी एन ए भी गजब की चीज है लौट लौटकर वहीं गठबंधन करता है जो जांच की मांग रखता है ।

जब वे हिमालय से ज्ञान लेकर लौटे तो उन्होंने सबसे पहले गधों के बाजार देखने की इच्छा जाहिर की, गुरु जी ने मुझे आदेश दिया कि जाओ इनको गधों के बाजार की सैर करवा दो ………।

हम दोनों चल पड़े, एक बड़ा भूभाग है जिसमें गधों का बाजार भरा रहता है, गधे के महत्व के अनुसार हर क्षेत्र में सीमाएं निर्धारित की गईं हैं ताकि सुशासन विज्ञापनों में जिंदा रहे, समय समय पर गधों के खरीददार, गधों की कीमत तय करते रहते हैं, कीमतों में नियंत्रण के लिए कई बार गधों की शिफ्टिंग भी करनी पड़ती है, “गधे मेहनती होते हैं” और गठबंधन की राजनीति खूब जानते हैं , ताने -उलाहने देना उनकी हिनहनाहट में दिख जाता है, कभी रूठ भी जाते हैं मनाओ तो मान भी जाते हैं, कुर्सी के चक्कर में खींझना, खिसियाना ये खूब जानते हैं ……………!

ये देखिए इस गधे का रेट इस समय सबसे ज्यादा चल रहा है “गठबन्धन मास्टर” है ये, जहाँ उम्मीद भी नहीं होती है वहां गठबन्धन कराके कुर्सी खाली करा लेता है । बड़े बड़े महागठबंधनों को एक झटके में तोड़ देना इसकी खास दुलत्ती में शामिल होता है ………… बाल ….

साब बालों पे मत जाईये बाल कम इसलिए हैं कि गठबन्धन के चक्कर में दूसरों के बाल नोंचने के साथ अपने बाल भी नोंचवाना पड़ता है इन दिनों बाजार में इसके चर्चे खूब हैं इसलिए रेट भी ज्यादा चल रहा है ……..

देखिए इस शेड में चलिए …..

यहाँ पर पुराने गधे और नये गधे साथ साथ आपस में दुलत्ती मारते रहते हैं, यहां के नये गधे आलू को  फेक्ट्री में बना हुआ मानते हैं, इस शेड के गधों में अजीब तरह की हताशा है कई बिना बिके रात को गधैया के चक्कर में भाग जाते हैं और कई को तरह तरह की बीमारियां हो गईं हैं ……..!

गठबन्धन के तरह तरह के नाटक देेखना हो तो आगे वाले शेड की तरफ चलिए, यहां के गधे बहुत नौटंकीबाज होते हैं इनका रेट चढ़ता गिरता रहता है, पर मजाक करके हंसने हंसाने के ये विशेषज्ञ हैं, दुलतती मारने में इतने तेज हैं कि कुर्सी में टांग फसाके गिरा देगें और खुद बैठ जाएंगे, गधों के गठबन्धन का मुखिया कहता रहा कि महागठबंधन की मजबूती के लिए २० सूत्रीय कमेटी हर महीने मींटिग करेगी, खूब मीटिंगे हुई, खूब खाया पीया गया जब खा खा के सबके पेट निकल आए तो छबि बनाने के चक्कर में “छबि और छोड़” वाले रास्ते से महुआ पीने भाग गए, लौटे तो नशे में अपनो को दुलतती मार मार कसाई के घर में घुस गए …….!

ये गेट के अंदर सुरक्षित गधों को देख रहे हैं न,अरे यही जिनके एक ही रंग की पछाड़ी ह  ,इनकी खासियत है ये मौके आने पर कोई को भी बाप बना लेते हैं और बाद में उसको बधिया बनाके ईंटा पत्थर ढ़ोने लायक बना देते हैं, इस शेड में हमेशा ताला लगा के रखा जाता है, यहां विशेष प्रकार के शौचालय बनाए गए हैं और साल में दो बार इनको शुद्ध जल पिलाया जाता है ……….!

चलें थोड़ा आगे चलते हैं हालांकि आप की हालत बता रही है कि आप थोड़े ज्यादा थक गए हैं कुछ चाय -पानी ले ली जाए …….

इधर पड़ोस में आलूबंडा ,चाय की दुकान है जहां खाट में ढाढ़ी मूंछे वाले खरीददार गठबंधन पर बहस कर रहे हैं, सुटटा खीचते हुए वे बोले – जब गठबंधन निजी सियासी फायदे के लिए किया जाता है तो चुनाव के बाद बड़े नेताओं को जनता की थाली में उल्टी करने की आदत हो जाती है, डीएनए की भले जांच न हो पर गंगा मैया का बेटा बनने का फैशन चल पड़ता है ………….

– भैया ,बिना शक्कर की दो चाय बना दोगे क्या ?

– पुलिया के ऊपर बैठ कर कांच के गंदे से गिलासों में चाय की चुस्कियां लेते हुए साहेब भावुक हो गए, कहने लगे – ये “गठबंधन “बहुत बुरा शब्द है भैया ……..!

मैंने पुलिया के नीचे झांका …… पानी के डबरे में उसका झिलमिलाता चेहरा दिख रहा था जो मुझसे प्रेम के बहाने का गठबंधन करके किसी और के साथ सात फेरे, चौदह वचनों के गठबंधन के साथ भाग गई थी ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी  रक्षाबंधन पर विशेष रचना हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों”  )

☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

हमारा राष्ट्रीय पशु, पक्षी, ध्वज, नदी, आदि के अलावा हमारा राष्ट्रीय संबोधन क्या  हो?  इस सबंध में जब विचार-विमर्श किया गया तो…,

फेसबुक व व्हाट्सप पर मित्रों ने राष्ट्रीय संबोधन हेतु “राम-राम”, “वालेकुम् सलाम” नाम  सुझाये। पर ये सब सुझानेवाले हिन्दू- मुसलमान थे। काश्, कुछ हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे के नाम भी सुझाते? तो इन  संबोधनों से मुल्क में भाईचारे की ठंडी हवा  बहने लगती। ये दोनों शब्द जितने पवित्र है,  लोग उतने पवित्र नहीं है। फिर राम का नाम इन दिनों भक्ति से दूर और वोट बैंक के करीब होता जा रहा है। (डर है  कहीं चुनाव आयोग चुनाव के दिनों में. “राम नाम सत्य है” पर भी…..) अतः ये संबोधन व्यवहारिक नहीं है।

उसके बाद जो नाम आये वे हैं,  “जयहिंद और वंदेमातरम”। पर इन्हें इसलिए  रिजेक्ट कर दिये क्योंकि एक तो इसमें सब एकमत नहीं होंगे।

(आजादी के बाद हमें इतनी स्वतंत्रता तो मिली कि हम कहीं भी किसी भी बात पर आपत्ति उठा सके।) दूसरे इन नारों से सभा की शुरुआत का नहीं, सभा की समाप्ति का एहसास होता है।

इसके बाद  नाम आया, “इन्कलाब जिंदाबाद” पर ये जुलूस, घेराव, हड़ताल व आन्दोलन के ज्यादा करीब है।  इसमें एक जोश व उत्तेजना होने से सीनियर सिटीजन को सांस की तकलीफ के कारण कहते वक्त कुछ कष्ट – सा होता है। फिलहाल इसे भी छोड़ा गया।

आखिर, राष्ट्रीय संबोधन के लिए “भाइयों और बहनों पर सहमति बनी। भाई- बहन इतना सहज और पवित्र रिश्ता है कि आपको हर रिश्ते पर लतीफे मिलेंगे (माता-पिता, भाई-भाई, सास-बहू, ससुर-दामाद, जीजा-साली। सभी पर लतीफे मिलेंगे। पति-पत्नी तो लतीफों की खान है।) मगर भाई- बहन पर नहीं। एक युवती जब पहली बार किसी अपरिचित से बात करती है तो उसका पहला संबोधन होता है ” भाईसाब, जरा….”। इसी प्रकार युवक कहेगा-” बहनजी जरा… । इसी चक्कर में पहली नजर में प्यार होने पर एक युवक ने यूँ इजहार किया-” बहनजी, मुझे पहली नजर में आपसे प्यार हो गया।” और वह भी कह उठती है-” धन्यवाद, भाई साब। कल मिलते हैं, इसी बगीचे में ।”

इतना सहज और पाक रिश्ता है ये।

जब विवेकानंद पहली बार शिकागो गये तो उनके भाइयों और बहनों कहते ही सारे लोग खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे।हर शिकागोयी को लगा रहा था, कि उसका भाई बोल रहा है,  और हर शिकागोयीन को लगा जैसे उसके मायके से कोई आया है। विवेकानंद व्दारा कहे ये दो शब्द भारत की पहचान बन गये।

उसके बाद जब बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी “बहनों और भाइयों” कहते,  सारा देश झूमने लगता। गुनगुनाने  लगता। उनके कहने में एक सरलता, एक पाकीजगी, एक ऐसा मीठापन होता कि सुनते ही होठों पर एक गीत आ जाता। ये बात तब की है जब किसी गीत की लोकप्रियता गीतकार, संगीतकार, गायक के अलावा अमीन सयानी के “बहनों और भाइयों” कहने पर भी निर्भर होती थी।

आजादी के बाद हमारे नेताओं ने इस पवित्र संबोधन की ऐसी गत् कर दी है कि भाइयों और बहनों कहकर वोट तो मांग लेते हैं, पर सत्ता मिलते ही सिर्फ अपने भाई-बहन को छोड़ बाकी की-ऐसी तैसी करने में लग जाते हैं। इन दिनों भाइयों की पिटाई और बहनों की रूसवाई कुछ ज्यादा ही अखबारों की हेड लाइन और चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनती जा रही हैं। ये समाचार पढ़कर-सुनकर इतनी  शर्मिंदगी होती  है कि अब नेताओं के मुंह से भाइयों और बहनों सुनना अपशब्द सा लगने लगता है।

प्रमुख नेतागण भी इस संबोधन का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं। जब भी कोई खास बात कहनी है तो पहले कहेंगे” भाइयों और बहनों ” और एक साधारण बात भी खास हो जाती है। जब कोई खास बात नहीं सूझती है तब भी कहेंगे “भाइयों और बहनों” और बस, साधारण बात भी खास हो जाती है।

शुरू-शुरू में इस उद्बोधन में विवेकानंद सी गरिमा और अमीन सयानी सी मीठास थी। धीरे-धीरे इस शब्द की  टीआरपी गिरने लगी।

हर 15 अगस्त के पूर्व  लालकिले की प्राचीरें तिरंगे से बतियाती है कि-” भइया, चौहत्तर साल हो गये, क्या इस देश को कोई ऐसा भी  मिलेगा जो यह महसूस करे कि भाई – बहन के रिश्ते सिर्फ कहने के लिए नहीं, निभाने के लिए होते हैं। हुमायूं और कर्मावती की गाथा फिर एक बार पढ़ लें।

रिश्ते निभाने के लिए पार्टी व पद की ही नहीं, जान तक की कुर्बानी देनी होती है। जो आज की राजनीति में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पर यदि भाइयों और बहनों कहने में विवेकानंद जैसी गरिमा और अमीन सयानी जैसी मिठास भी न ला सको तो वे “भाइयों और बहनों” कहने के बदले कोई और संबोधन ढूंढ लें।

यह बात पक्ष-विपक्ष यानी हर पार्टी के लिए लागू है। क्योंकि कमोबेश सब एक-से ही हैं ।

आज भाई-बहन के पवित्र रिश्ते पर देश के सभी भाईयों को नमस्कार  और देश की सभी  बहनों को प्रणाम।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #101 ☆ व्यंग्य – मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 101 ☆

☆ व्यंग्य – मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी

मुहल्ला लकड़गंज शूरवीरों का मुहल्ला है। मुहल्ले की सबसे लोकप्रिय जगह नुक्कड़ पर बनी कलारी है। शाम को सात बजे के बाद मुहल्ले के साठ प्रतिशत वयस्कों के कदम उसी दिशा में जाते हैं।  जाते वक्त वे बहुत सामान्य, ढीले-ढाले और भीरु लोग होते हैं, लेकिन लौटते में वे दुनिया को ठेंगे पर रखते, देश के प्रधान-मंत्री से लेकर मुहल्ले के थानेदार तक को ललकारते लौटते हैं। फिर रात के बारह एक बजे तक ज़्यादातर घरों में धमाचौकड़ी मचती है, बर्तनों और चीज़ों की तोड़फोड़ होती है, उसके बाद बेहोशी की शान्ति छा जाती है।

यह कार्यक्रम और वीरता साल दर साल इसलिए चलती रहती है क्योंकि घरों की ज़्यादातर महिलाएँ धार्मिक प्रवृत्ति की हैं और उनको घुट्टी में पिलाया गया है कि पति भले ही दारू पीकर पूरे घर को सिर पर उठाता हो लेकिन वह दरअसल परमेश्वर है और उसकी पूजा फूल-पत्र को छोड़कर और किसी चीज़ से नहीं करनी है।

मुहल्ले के इन्हीं सूरमाओं की पहली पाँत में नट्टूशाह हैं। घर में बच्चे अभी इतने बड़े नहीं हुए कि उन्हें ठोक-पीट कर काबू में रख सकें, इसलिए शाम को पीने के बाद शेर बनकर दहाड़ने लगते हैं। तीन चार घंटे ऐसा नाटक करते हैं कि रोज़ मुहल्लेवालों का बिना टिकट भरपूर मनोरंजन होता है। गालियों में नाना प्रकार के प्रयोग करते हैं, रोज़ दो चार नयी गालियाँ रच लेते हैं। पूरे घर में खाना बिखेरते हैं, और फिर जो सोते हैं तो सबेरे दस बजे तक मुर्दे की तरह पड़े रहते हैं। मक्खियाँ उनके मुँह में अनुसंधान करती रहती हैं। पत्नी आजिज़ है।

एक रात नट्टूशाह रोज़ की तरह पीने के दैनिक कार्यक्रम के बाद अपनी पत्नी शीला देवी का जीना हराम कर रहे थे। उनका प्रिय शगल अपनी पत्नी के नातेदारों को रोज़ मौलिक गालियाँ देना था। शीला देवी सुनती रहती थीं और कुढ़ती रहती थीं।

उस रात शीला देवी परेशान होकर कह बैठीं, ‘बाप के घर में कभी ऐसा तमाशा नहीं देखा। कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसे लोगों के साथ जिन्दगी काटनी पड़ेगी।’

और बस नट्टूशाह शुरू हो गये। हाथ नचाते हुए बोले, ‘तुमने बाप के घर में देखा ही क्या था। वह फटीचर कंगाल बुड्ढा क्या दिखाएगा?’ फिर छाती ठोकते हुए बोले, ‘यह सब तो हम रईसों, दिलवालों के घर में देखने को मिलेगा। उस बुड्ढे चिरकुट के घर में क्या मिलेगा?’

स्त्रियाँ स्वभावतः मायके के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं। शीला देवी एड़ी से लेकर चोटी तक सुलग गयीं। बोलीं, ‘खबरदार जो मेरे बाप के बारे में कुछ ऐसा वैसा मुँह से निकाला।’

शीला देवी उस वक्त खाना बना रही थीं। नट्टूशाह उकडूँ बैठकर अपना चेहरा उनके चेहरे के पास लाकर बोले, ‘सच्ची बात सुनने में मिर्चें लगती हैं। हम रईसों के सामने उस बुड्ढे की क्या हैसियत है?कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली!’

क्रोध में शीला देवी का माथा घूम गया। हाथ में चिमटा था। दाँत पीसकर चिमटे को पतिदेव के मुँह की तरफ धकेल दिया। नट्टूशाह एक तो नशे में टुन्न थे, दूसरे वे उकड़ूँ बैठे थे। चिमटा अचानक ही रॉकेट की तरह उनके मुँह के सामने आ गया। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि यह स्त्री सदियों के पढ़ाये पाठ को भूलकर इस तरह पापाचार करेगी। शीला देवी फिर भी अपनी मर्यादा नहीं भूल पायीं, इसलिए चिमटा नट्टूशाह की ठुड्डी छूकर रह गया। लेकिन इस अचानक हमले से राजा भोज अपना सन्तुलन खोकर पीछे की तरफ उलट गये।

कुछ देर तक तो उन्हें समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो गया। सदियों की बनायी इमारत एक पल में ढह गयी। अविश्वास की स्थिति में वे चित्त पड़े, सिर को बार बार झटका देते रहे। फिर अपने को समेटकर जितनी जल्दी हो सका, उठे। भारी बेइज्जती हो गयी थी।

शीला देवी समझ गयीं कि पतिदेव अन्य कमज़ोर और खीझे पुरुषों की तरह उन पर हाथ उठाएंगे। उन्होंने चिमटे को अपनी रक्षा का हथियार बनाया। चिमटा मज़बूत, मोटा था। शराबियों से रक्षा के लिए काफी था। नट्टूशाह बार बार उनकी तरफ लपकते थे और वे बार बार चिमटा उनकी तरफ धकेल देती थीं। नट्टूशाह हर बार भयभीत होकर पीछे हट जाते थे। नशे के कारण हाथों पर इतना काबू नहीं था कि चिमटे को पकड़ कर छीन सकें। नशा इतना था कि एक की जगह तीन तीन चिमटे दिखते थे। एक को पकड़ते तो दो छूट जाते थे।

वे चार पाँच कोशिशों में थक गये।  बिस्तर पर लेट कर हाँफते हुए बोले, ‘हरामजादी, सबेरा होने दे। झोंटा पकड़कर घर से न निकाला तो कहना। फिर जाना उसी कंगाल बाप के पास।’

शीला देवी जानती थीं कि सबेरे नट्टूशाह सामान्य, पालतू गृहस्थ बन जाएंगे। वे निश्चिंत होकर लेट गयीं। कुछ देर तक पश्चाताप हुआ कि पति पर हाथ उठाया, फिर सोचा कि धमकाया ही तो है, मारा कहाँ है?अगर धमकाने से घर में शान्ति रहती है तो क्या बुरा है?’

सबेरा होते ही नट्टूशाह अपनी विशिष्टता खोकर एक मामूली इंसान और ज़िम्मेदार गृहस्थ बन गये। सारे काम ऐसे तन्मय होकर निपटाते रहे जैसे रात को कुछ हुआ ही न हो। लेकिन शाम होते ही कच्चे धागे से बँधे मैख़ाने में पहुँच गये। वहाँ पहुँचने के आधे घंटे के भीतर ही वे जार्ज पंचम बन गये। जिनके सामने दिन में मुँह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी उनका नाम लेकर  जी भरकर गालियाँ देते रहे और मन की भड़ास निकालते रहे।

लड़खड़ाते कदमों से घर की तरफ बढ़े कि एकाएक शीला देवी का चिमटा हवा में तैर गया। नट्टूशाह का आधा नशा उतर गया। लड़खड़ाते कदम अपने आप सध गये। अब घर पहले जैसा निरापद नहीं रहा। स्त्रियाँ धरम छोड़कर चलने लगें तो घर को नरक बनते कितनी देर लगती है?

आगे आगे उनके मित्र छैलबिहारी पूरी सड़क नापते जा रहे थे। बड़े ज्ञानी माने जाते थे। कलारी में दो पेग के बाद उनके श्रीमुख से ज्ञान के फुहारे छूटते थे। नट्टूशाह ने आवाज़ देकर उन्हें रोका, कहा, ‘दादा, आपसे एक जरूरी बात करनी थी। घर में कल रात बहुत अधरम की बात हो गयी। तब से दिमाग खराब है।’ उन्होंने रात की पूरी घटना सुनायी। फिर बोले, ‘आप सयाने आदमी हो। धरम करम वाले हो। थोड़ा चलकर उनको ऊँचनीच समझा दो। धरम के खिलाफ जाएंगीं तो उनका ही परलोक बिगड़ेगा।’

छैलबिहारी उनकी बात सुनकर एक मिनट सोच कर बोले, ‘भैया, ऐसा है कि आजकल की लेडीज़ का कोई भरोसा नहीं है। हम समझाने जाएंगे तो हो सकता है हमारी भी बेइज्जती हो जाए। आप उनके हज़बैंड हो, आप ही उन्हें समझाओ तो ठीक होगा। उन्हें बताना कि रामायन में लिखा है कि स्त्री के लिए पति के सिवा दूसरा देवता नहीं होता। पति की इंसल्ट करेंगीं तो एक दिन उसका दंड भुगतना पड़ेगा।’

इतना ज्ञान देकर छैलबिहारी लटपटाते हुए आगे बढ़ गये। नट्टूशाह झिझकते हुए घर में घुसे और कमरे में कुर्सी पर बैठ गये। शीला देवी आँगन में सब्ज़ी छीलने में लगीं थीं। पतिदेव को मौन बैठा देखकर समझ गयीं कि कल के चिमटा-प्रकरण का कुछ असर हुआ है।

थोड़ी देर विचार में डूबे रहने के बाद नट्टूशाह बाहर निकलकर पत्नी के पास पड़े स्टूल पर बैठ गये। उनके चेहरे को थोड़ी देर पढ़कर धीरे धीरे बोले, ‘देखो, कल आपसे बड़े अधरम की बात हो गयी। आप जानती हो कि शाम को हम जरा दूसरे मूड में रहते हैं,लेकिन आपको अपना धरम नहीं छोड़ना चाहिए था। शास्त्रों में पति को परमेश्वर का दरजा दिया गया है। हमसे गलती हो सकती है, लेकिन आपको अपने धरम से नहीं डिगना चाहिए। इसमें आपका बड़ा नुकसान हो सकता है।’

शीला देवी समझ गयीं कि पतिदेव की यह विनम्रता कल की घटना के कारण है और अब जीती हुई ज़मीन को छोड़ना मूर्खता होगी। वे गंभीर मुख बनाकर बोलीं, ‘यह परवचन हमें न सुनाओ। हम धरम अधरम समझते हैं। आप चाहते हो कि आप रोज हमारे मायके वालों को गालियाँ सुनाओ और हम बैठे बैठे सुनें, तो अब यह नहीं होगा। परलोक में हमसे जवाब माँगा जाएगा तो तुम्हारी करतूत भी तो बखानी जाएगी। सारा धरम हमारे ही लिए है, मर्दों का कोई धरम नहीं है क्या?’

नट्टूशाह लम्बी साँस लेकर खड़े हो गये। चलते चलते बोले, ‘भई, हम तो आपका भला चाहते हैं, इसलिए आपको समझाया। आपको अधरम के रास्ते पर चलना है तो चलिए। नतीजा आप ही भोगोगी,हमें क्या!अभी हम थोड़ा अन्दर लेटने जा रहे हैं। खाना बन जाए तो बुला लेना। हमें झगड़ा-फसाद पसन्द नहीं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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