हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 116 ☆ व्यंग्य  – पक्ष विपक्ष और हिंडोले ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय व्यंग्य पक्ष विपक्ष और हिंडोले । इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 116 ☆

? व्यंग्य  – पक्ष विपक्ष और हिंडोले ?

विसंगति … क्या विपक्ष का अर्थ केवल विरोध ?

पत्नी मधुर स्वर में भजन गा रहीं थीं . “कौन झूल रहे , कौन झुलाये हैं ? कौनो देत हिलोर ? … गीत की अगली ही पंक्तियों में वे उत्तर भी दे देतीं हैं . गणपति झूल रहे , गौरा झुलायें हैं , शिव जी देत हिलोर.” … सच ही है  हर बच्चा झूला झूलकर ही बडा होता है . सावन में झूला झूलने की हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत पुरानी है . राजनीति के मर्मज्ञ परम ज्ञानी भगवान कृष्ण तो अपनी सखियों के साथ झूला झूलते , रास रचाते दुनियां को राजनीति , जीवन दर्शन , लोक व्यवहार , साम दाम दण्ड भेद बहुत कुछ सिखा गये हैं .  महाराष्ट्र , राजस्थान , गुजरात में तो लगभग हर घर में ही पूरे पलंग के आकार के झूले हर घर में होते हैं . मोदी जी के अहमदाबाद में  साबरमती तट पर विदेशी राजनीतिज्ञों के संग झूला झूलते हुये वैश्विक राजनीती की पटकथा रचते चित्र चर्चित रहे हैं . आशय यह है कि राजनीति और झूले का साथ पुराना है .

मैं सोच रहा था कि पक्ष और विपक्ष राजनीति के झूले के दो सिरे हैं . तभी पत्नी जी की कोकिल कंठी आवाज आई “काहे को है बनो रे पालना , काहे की है डोर , काहे कि लड़ लागी हैं ? राजनीती का हिंडोला सोने का होता है , जिसमें हीरे जवाहरात के लड़ लगे होते हैं , तभी तो हर राजनेता इस झूले का आनंद लेना चाहता है . राजनीति के इस झूले की डोर वोटर के हाथों में निहित वोटों में हैं . लाभ हानि , सुख दुख , मान अपमान , हार जीत के झूले पर झूलती जनता की जिंदगी कटती रहती है . कूद फांद में निपुण ,मौका परस्त कुछ नेता उस हिंडोले में ही बने रहना जानते हैं जो उनके लिये सुविधाजनक हो . इसके लिये वे सदैव आत्मा की आवाज सुनते रहते हैं , और मौका पड़ने पर पार्टी व्हिप की परवाह न कर  जनता का हित चिंतन करते इसी आत्मा की आवाज का हवाला देकर दल बदल कर डालते हैं .  अब ऐसे नेता जी को जो पत्रकार या विश्लेषक बेपेंदी का लोटा कहें तो कहते रहें , पर ऐसे नेता जी जनता से ज्यादा स्वयं के प्रति वफादार रहते हैं . वे अच्छी तरह समझते हैं कि ” सी .. सा ” के राजनैतिक खेल में उस छोर पर ही रहने में लाभ है जो ऊपर हो . दल दल में गुट बंदी होती है . जिसके मूल में अपने हिंडोले को सबसे सुविधाजनक स्थिति में बनाये रखना ही होता है . गयाराम  जिस दल से जाते हैं वह उन्हें गद्दार कहता है , किन्तु आयाराम जी के रूप में दूसरा दल उनका दिल खोल कर स्वागत करता है और उसे हृदय परिवर्तन कहा जाता है. देश की सुरक्षा के लिये खतरे कहे जाने वाले नेता भी पार्टी झेल जाती है.

किसी भी निर्णय में साझीदारी की तीन ही सम्भावनाएं होती हैं , पहला निर्णय का साथ देना, दूसरा विरोध करना और तीसरा तटस्थ रहना. विरोध करने वाले पक्ष को विपक्ष कहा जाता है.  राजनेता वे चतुर जीव होते हैं जो तटस्थता को भी हथियार बना कर दिखा रहे हैं . मत विभाजन के समय यथा आवश्यकता सदन से गायब हो जाना ऐसा ही कौशल है . संविधान निर्माताओ ने सोचा भी नहीं होगा कि राजनैतिक दल और हाई कमान के प्रति वफादारी को हमारे नेता देश और जनता के प्रति वफादारी से ज्यादा महत्व देंगे . आज पक्ष विपक्ष अपने अपने हिंडोलो पर सवार अपने ही आनंद में रहने के लिये जनता को कचूमर बनाने से बाज नही आते .

मुझ मूढ़ को समझ नहीं आता कि क्या संविधान के अनुसार विपक्ष का अर्थ केवल सत्तापक्ष का विरोध करना है ? क्या पक्ष के द्वारा प्रस्तुत बिल या बजट का कोई भी बिन्दु ऐसा नही होता जिससे विपक्ष भी जन हित में सहमत हो ? इधर जमाने ने प्रगति की है , नेता भी नवाचार कर रहे हैं . अब केवल विरोध करने में विपक्ष को जनता के प्रति स्वयं की जिम्मेदारियां अधूरी सी लगती हैं . सदन में अध्यक्ष की आसंदी तक पहुंचकर , नारेबाजी करने , बिल फाड़ने , और वाकआउट करने को विपक्ष अपना दायित्व समझने लगा है .लोकतंत्र में संख्याबल सबसे बड़ा होता है , इसलिये सत्ता पक्ष ध्वनिमत से सत्र के आखिरी घंटे में ही कथित जन हित में मनमाने सारे बिल पारित करने की कानूनी प्रक्रिया पूरी कर लेता है . विपक्ष का काम किसी भी तरह सदन को न चलने देना लगता है . इतना ही नही अब और भी नवाचार हो रहे हैं , सड़क पर समानांतर संसद लगाई जा रही है . विपक्ष विदेशी एक्सपर्टाइज से टूल किट बनवाता है , आंदोलन कोई भी हो उद्देश्य केवल सत्ता पक्ष का विरोध , और उसे सत्ता च्युत करना होता है . विपक्ष यह समझता है कि सत्ता के झूले पर पेंग भरते ही झूला हवा में ऊपर ही बना रहेगा , पर विज्ञान के अध्येता जानते हैं कि झूला हार्मोनिक मोशन का नमूना है , पेंडलुम की तरह वह गतिमान बना ही रहेगा . अतः जरूरी है कि पक्ष विपक्ष सबके लिये जन हितकारी सोच ही सच बने , जो वास्तविक लोकतंत्र है .

पारम्परिक रूप से पत्नियों को  पति का कथित धुर्र विरोधी समझा जाता है . पर घर परिवार में तभी समन्वय बनता है जब पति पत्नी झूले दो सिरे होते हुये भी एक साथ ताल मिला कर रिदम में पेंगें भरते हैं .यह कुछ वैसा ही है जैसा पक्ष विपक्ष के सारे नेता एक साथ मेजें थपथपा कर स्वयं ही आपने वेतन भत्ते बढ़वा लेते हैं . मेरा चिंतन टूटा तो पत्नी का मधुर स्वर गूंज रहा था ” साथ सखि मिल झूला झुलाओ . काश नेता जी भी देश के की प्रगति के लिये ये स्वर सुन सकें .  

 © विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 70 ☆ चिंतन परक ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चिंतन परक”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 70 – चिंतन परक

हमारे हर निर्णय, अवलोकन ,लेखन, सरोकार व सब कुछ जो हम करते हैं, पूर्वाग्रह से आधारित होते हैं। ग्रह और नक्षत्रों के बारे में तो हम सभी जानते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते हैं किंतु इस पहले से निर्धारित किए हुए विचारों क्या करें…? 

अधिकांश लोग ये मानते हैं  कि फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला, सूट बूट टाई पहने हुए व्यक्ति ही नौकरशाह हो सकता है। इसी तरह कारपोरेट सेक्टर में अंग्रेजी पहनावा ही सभ्य होने की निशानी है। महिलाओं की तो बात ही निराली है उनके लिए भी ड्रेस कोड निर्धारित कर दिए गए हैं। आमजीवन में मिली जुली  बोली, नई वेश भूषा तेजी के साथ बढ़ रही है। मौसम के अनरूप न होने पर भी हम लोग विदेशी परिधानों का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। सुशिक्षित होने की इस निशानी को ढोते हुए हम  इक्कीसवीं सदी के  तकनीकी ज्ञान से प्रशिक्षित लोग बिना सोचे समझे  भेड़ चाल के अनुगामी बनें जा रहे हैं। अब हमारा मन धरती पर नहीं चाँद और मंगल पर लगने लगा है। तरक्की होना अच्छी बात है किंतु देश काल की सीमाओं से परे जा, हवाई उड़ानें, विदेशी धरती, उनका पहनावा और अंतरराष्ट्रीय बोलियाँ ही मन भावन लगने लगें तब थोड़ा ठहर कर ध्यान तो देना ही चाहिए।

मजे की बात है कि घर में माता- पिता का कहना हम लोग भले ही न मानते हों किन्तु काउंसलिंग करवाकर हर निर्णय लेना  लाभकारी होता है इसकी जड़ें हमारे मनोमस्तिष्क में गहरी पैठ बनाए हुए हैं। पहले लोग ये मानते थे कि कोई प्रेम पूर्वक आग्रह करे तो उसका न्योता नहीं ठुकराना चाहिए परंतु अब तो सारी परिभाषाएँ एक एजेंडे के तहत पहले से ही निर्धारित कर दी जाती हैं। किसे आगे बढ़ाना है, किसे घटाना है सब कुछ सोची समझी चाल के तहत होता है। वैसे भी किसी को मिटाना हो तो उसके संस्कारों व नैतिक मूल्यों पर प्रहार करना चाहिए ऐसा  पूर्वकाल से आतताइयों द्वारा किया जाता रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि किसी को लंबे समय तक गुलाम बनाने हेतु ऐसा करना होगा।

खैर हम सब चिन्तन प्रधान देश के सुधी नागरिक हैं जो अपना भला- बुरा अच्छी तरह समझते हैं। सो पूर्वाग्रह न पालते हुए सही गलत का निर्णय स्वविवेक व तात्कालिक परिस्थितियों के अनुरूप करते हैं।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #106 ☆ व्यंग्य – ‘मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘’मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 106 ☆

☆ व्यंग्य –  ‘मोहब्बतें’ और आर्थिक विकास

मैं अभी तक इस मुग़ालते में था कि भाववाचक संज्ञा का बहुवचन नहीं होता, लेकिन मरहूम यश चोपड़ा की फिल्म ‘मोहब्बतें’ का नाम सुनकर लगा कि शब्दों का हमारा ज्ञान बहुत सीमित है। अब आगे ऐसी फिल्में आएंगीं जिनके नाम ‘इश्कें’, ‘तबियतें’ और ‘नफरतें’ होंगे।

बहरहाल,आपसे गुफ्तगू करने का अपना मकसद कुछ और ही है। जो बात कुछ दिनों से शिद्दत से मुझे खल रही है वह यह है कि हमारे देश के विकास में योगदान देने वाले बहुत से तत्वों का ज़िक्र तो होता है, लेकिन एक ख़ास चीज़ जिसे पूरी तरह नज़रअंदाज़ किया जाता है और जिसका  हमारे देश की बहबूदी में अहम योगदान है, वह ‘मोहब्बत’ है। दूर क्यों जाएं, ताजमहल को लें, जिसने हिन्दुस्तान को दुनिया के नक्शे पर खड़ा किया और मुल्क के लिए करोड़ों रुपयों की कमाई का सिलसिला बनाया। ताजमहल के लिए सरकार का टूरिज़्म विभाग या पुरातत्व विभाग कितना भी  क्रेडिट ले, लेकिन हकीकत यही है कि ताजमहल शाहजहाँ और मुमताज की पाक मोहब्बत का नतीजा है। इसलिए ताजमहल की वजह से देश की झोली में जो भी पैसा आ रहा है वह शुद्ध प्यार-मुहब्बत की कमाई है। न शाहजहाँ-मुमताज का प्यार परवान चढ़ता, न मुल्क के लिए स्थायी मोटी कमाई का ज़रिया बनता। मोहब्बत तुझको मेरा सलाम।

हिन्दुस्तानी फिल्में शुरू से ही प्यार- मोहब्बत की कमाई पर पलती रही हैं। प्यार- मोहब्बत ने फिल्मों को कितनी कमाई दी इसका लेखा-जोखा ज़रूरी है। तभी लोगों को पता चलेगा कि करोड़ों में खेलने वाले फिल्म उद्योग को उसकी वर्तमान ऊँचाइयों तक पहुँचाने में मोहब्बतों का कितना बड़ा योगदान है।

पुरानी फिल्मों के हीरो प्यार को ही खाते- पीते और ओढ़ते-बिछाते थे। उन दिनों आशिक के बारह घंटे माशूक का मुँह देखने और बारह घंटे चाँद को घूरने में खर्च होते थे। प्यार का काम बहुत आराम और इत्मीनान से होता था। बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी, फटे कपड़े और चेहरे पर बदहवासी सच्चे आशिक के ट्रेडमार्क होते थे। उन दिनों के आशिक त्यागी और बेहद शरीफ होते थे। आजकल के आशिकों की तरह रकीब के पीछे बन्दूक लेकर नहीं पड़ जाते थे। प्रेमिका को कोई दूसरा डोली में बैठाकर ले जाता था और आशिक मियाँ, जंगल की ख़ाक छानते, विरह-गीत गाते रहते थे। यकीन न हो तो दिलीप कुमार की फिल्म ‘देवदास’ देख लीजिए।

बीच में फिल्मवालों को भ्रम हुआ कि मारपीट वाली फिल्में ज़्यादा चल सकती हैं, लेकिन उन्हें जल्दी ही अपनी गलती महसूस हो गयी और वे वापस प्यार-मोहब्बत की पुख्ता ज़मीन पर लौट आये। अब जितनी फिल्में बन रही हैं उनमें से तीन-चौथाई का ताल्लुक दिल के कारोबार से है। जो हीरो ‘मार्शल आर्ट’ में माहिर माने जाते थे वे आजकल नज़र का मोटा चश्मा लगाकर ‘आर्ट ऑफ लव’ के पन्ने पलट रहे हैं।

इस बात पर ग़ौर फरमाया जाए कि मोहब्बत शुरू से देश के विभिन्न महकमों को मज़बूत करने में अपना योगदान देती रही है। एक ज़माना था जब प्रेमपत्र कबूतरों के मार्फत भेजे जाते थे। तब कबूतरों का कारोबार अच्छा ख़ासा पनपता होगा। मेरी दृष्टि में प्रेमपत्र की डिलीवरी के मामले में कबूतर, पोस्टमैन या टेलीफोन से ज़्यादा भरोसेमन्द होता है क्योंकि वह हमेशा महबूबा के कंधे पर बैठता रहा है, पोस्टमैन की तरह उसने कभी महबूबा के वालिद या अम्माँ के हाथ में ख़त नहीं सौंपा। कई पोस्टमैन तो रकीबों को ख़त सौंप देते हैं।

जब डाक का ज़माना आया तब प्रेमपत्रों  ने डाकतार विभाग को काफी काम मुहैया कराया। कागज़ और रोशनाई की बिक्री भी इश्क की बदौलत काफी बढ़ी क्योंकि ख़त बीस बीस पेज के लिखे जाते थे और उनमें काफी स्याही खर्च होती थी। कई आशिक लाल स्याही से ख़त लिखते थे और डींग मारते थे कि ‘ख़त लिख रहा हूँ ख़ून से, स्याही न समझना।’  उन दिनों आशिक- माशूक काफी रोमांटिक और नाजुक होते थे। आहें भरने, तारे गिनने और ख़त लिखने में काफी वक्त ज़ाया होता था। उन दिनों वाहनों का चलन कम था, प्रेमपत्रों को ढोने का काम पैदल ही होता था। यह कल्पना सिहराने वाली है कि कंधे पर प्रेमपत्र ढोने वाले पोस्टमैनों की हालत कैसी होती होगी।

अब टेलीफोन और इंटरनेट के कारोबार में भी इश्क अपना भरपूर योगदान दे रहा है। देश में मोबाइल का उत्पादन और उसकी खपत तेज़ी से बढ़ी है। इसमें प्रेमियों का कितना योगदान है यह अध्ययन का विषय है। मोबाइल के आने से प्रेमियों का सरदर्द ज़रूर कम हुआ है। लैंडलाइन के ज़माने में जब महबूब का प्रेम-सन्देश आता था तभी बगल के कमरे में पिताजी दूसरा चोंगा उठाकर सारी गुफ्तगू सुन लेते थे, भले ही वह उनके सुनने लायक न रही हो।

तब टेलीफोन-बूथ वाले, आशिकों के इंतज़ार में आँखें बिछाये रहते थे क्योंकि वे लंबी बात करते थे और कभी हिसाब देखने की घटिया बात नहीं करते थे। किसी पब्लिक टेलीफोन-बूथ में  आशिक का प्रवेश हो जाए तो बाहर खड़े लोगों की इंतज़ार करते करते हालत ख़राब हो जाती थी।

यह खुशी की बात है कि प्रेम में निहित संभावनाओं पर लोगों की नज़र जाने लगी है। जिस देश में प्यार-व्यार को तिरछी नज़र से देखा जाता था उसमें ‘वेलेंटाइन डे’ मनाया जाने लगा है, यद्यपि अभी भी दकियानूसी लोग आशिक- माशूकों को खुलेआम प्यार का इज़हार करते देख मारपीट पर उतर आते हैं। ऐसे ही लोगों की वजह से अभी ‘डेटिंग’ जैसी प्रथा शुरू नहीं हो पायी है। सरकार को चाहिए कि प्यार के इन दुश्मनों से सख्ती से निपटे ताकि प्यार बन्द कमरों से निकल कर खुली हवा में साँस ले सके।

मेरा सुझाव है कि प्यार की एक वेबसाइट बनायी जानी चाहिए जिसमें मुल्क के जाँबाज़ आशिक-माशूकों के बारे में तफ़सील से जानकारी हो। अभी कितने लोगों को मालूम है कि लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, शीरीं-फ़रहाद, सोहनी- महिवाल और सस्सी-पुन्नू किस देश के और किस जाति के थे, और इश्क के अलावा वे और क्या कारोबार करते थे?इस वेबसाइट में उन सभी जगहों का अता-पता होना चाहिए जो प्यार के लिए आदर्श हैं, जहाँ प्यार के मार्ग में कोई रोड़े नहीं हैं और जहाँ प्यार को पुष्पित-पल्लवित होने के लिए उपयुक्त वातावरण है।

सरकार को भी चाहिए कि वह प्यार में छिपी व्यापार की असीम संभावनाओं को पहचाने और प्यार करने वालों को वे सभी सुविधाएँ मुहैया कराए जिनके वे हकदार हैं। प्यार करने वालों के लिए ऐसी जगहों पर ख़ास होटल और रेस्ट-हाउस बनाए जाने चाहिए जहाँ की ज़मीन प्यार के हिसाब से मौजूँ है। अभी तो मुंबई में प्यार करने वाले जोड़ों को पुलिस मैरिन-ड्राइव से खदेड़ रही है, जिस पर मैं अपना सख़्त एतराज़ दर्ज़ कराना चाहता हूँ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #3 – व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #3 – व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

अमूमन जब आदमी लेखन के क्षेत्र में घुसता है तो एक प्रकार से घुसपैठिया हो जाता है। वह अपने व्यक्तिगत जीवन से सामाजिक जीवन की चिंताओं में सेंध मारता है। उस जगह का आकर्षण रहता है। नाम और नामा का खिंचाव भी रहता है। वह सोचता है कि उसे वैचारिक कंदराओं से गुजरना होगा। वहाँ वैचारिक चिंताओं का आयातित खतरा होगा। उसे अपने अस्तित्व के मोह का त्याग करना पड़ेगा। उसे उस भीड़ से मुठभेड़ करना होगा जो उससे बेहतर जीवन, बेहतर विचार और बेहतर संसार की अपेक्षा करता है। उस भीड़ में एक से एक मट्ठर पड़े हैं जिनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपना दैहिक, आर्थिक लाभ देखना होता है। इन मट्ठरों को समाज की विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, मानवीय मूल्यों व मानवीय संवेदनाओं की चिंताओं से कोई सरोकार नहीं रहता है। उसे उनसे भी जूझना होगा। इन चिंताओं का चयन ही उसे लेखक बनने को प्रेरित करता है। यही चिंताएँ ही लेखक की मानसिक तैयारी होती है। यही तैयारी हजारों वर्षों से परम्पराओं के आइसलैण्ड, विचारों के विशाल शिलाखण्ड, विश्वासों की अंधेरी कंदराएँ, धार्मिक उन्मादों की धधकती ज्वालाएँ, सत्ता की ठूँठ हो गयी संवेदनाएँ, बाजार की बर्बरता से बंजर हो गयी आदमियत से मुठभेड़ करने की ऊर्जा देती है। उसके लेखन से टकराने से चिंगारियाँ निकलने लगती हैं। पर जो इससे बचने का रास्ता देखते हैं वे लेखक दिखते हैं, होते नहीं हैं। लेखक स्लम्स गलियों की गंध से लेकर मॉल्स के परफ्यूम में फर्क करने लगता है, उसे वंचित, षोशित, पीड़ित की पीड़ा की कसक समझ आने लगती है। यही कसक उसके माथे पर चिंता की रेखा खींच जाती है। वह इनस बेचैन हो उठता है, उसकी रात की नींद गायब हो जाती है। बेचैनी में वह एक जकड़न महसूस करता है। वह उस जकड़न से मुक्त होना चाहता है, यही जकड़न विचार और कलम की मुठभेड़ है जो कागज पर आकार लेती है। तब एक साहित्यकार अगर तीखा हुआ तो व्यंग्यकार के रूप में जन्म लेता है। व्यंग्यकार ही सामाजिक संवेदनाओं, जीवन की चिंताओं, विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, नैतिक मूल्यों में बढ़ती अराजकता, ठकुर सुहाती, दुमुहाँपन को उजागर करता है, वही उसका रचनात्मक बिन्दु होता है।

यहाँ पर अपने मित्र पत्रकार, कथाकार श्री हरीश पाठक जी की बात करना चाहूँगा। उनके परिवार के उनके समकक्ष और छोटे बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, सी. ए. आदि पद पर वह काम कर रहे हैं पर उनके पिता उनसे भी इनमें से चुनाव कर उनके भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे। पर वे अपनी दुनिया सबसे अलग पत्रकारिता में देख रहे थे। इस कारण उनका अपने पिता से वैचारिक संघर्ष होता था। पिता उनसे सदा असंतुष्ट और नाराज रहते थे। इसी नाराजी के चलते वे पिता से विद्रोह कर पत्रकार बन गए और अपने विद्रोही तेवरों को उन्होंने कथा में ढाल दिया। यही चीज वे व्यंग्य की शैली और भाषा  में ढाल देते तो व्यंग्यकार बन जाते।

समय का लेखन ही करीब-करीब व्यंग्य लेखन है। समय साहित्य की अन्य विघाओं में भी होता है, पर व्यंग्य में इसका प्रभाव अधिक होता है। यह मन मस्तिष्क पर तीव्रता से प्रभाव डालता है। यह विचारणीय पक्ष है कि आज सामने जो गलत घट रहा है, विद्रूपताएँ मुखर हो रही हैं, उसे आमजन मजबूरीवश, अपनी क्षमताओं को देखते हुए यथास्थिति स्वीकार कर लेता है। कोई विपरीत प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है। यह अजीब समय है (पहले ऐसा नहीं होता था। पहले लोग विरोध करते थे)। इसका सटीक उदाहरण है हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘अकाल उत्सव’। परसाई जी ने उस समय की अकाल विभीषिका का, शासकीय अराजकता, सत्ता की संवेदनहीनता, विरोध के प्रपंच को ‘अकाल उत्सव’ में जोरदार ढंग से उकेरा है। ‘अकाल उत्सव’ द्वारा उस समय का चित्र हमारे सामने आ जाता है (आज के पाठकों को उस समय को समझने में मदद मिलेगी)। यह व्यंग्य से मुठभेड़ का रचनात्मक पहलू है। परसाई जी की रचनाओं पर नामवर सिंह जी ने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद के इतिहास को जानना है तो परसाई को पढ़ें।

लगभग इसी समय के आसपास की शरद जोशी की महत्वपूर्ण रचना है – ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’। यह व्यंग्य से मुठभेड़ को उकसाती रचना है। इस रचना ने ब्यूरोकेट्स की अराजकता को अपने व्यंग्य से तार-तार कर दिया था तथा सत्ता की संवेदनहीनता और मानवीय जीवन के ताने-बाने के बिखरे रूप को समाज के सामने ला दिया था। आज भी कुछ नहीं बदला है, वरन् कुछ और ह्रास ही हुआ है। मानवीय रिश्ते दरक रहे हैं – उनको बखूबी पढ़ा है वरिष्ठ व्यंग्यकार ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय ने। उनकी महत्त्वपूर्ण व्यंग्य रचना ‘बर्फ का पानी’ ने विषमता भरे समाज की मानवीयता के दरके रूप को समाज के समकक्ष नंगा कर दिया है। कारुणिक अंत वाली संवेदनहीनता की यह सशक्त रचना है। इसने ढोंग वाले समाज को अंदर तक तार-तार कर दिया है। यह जीवन मूल्यों के विचलन को भी अभिव्यक्त करती रचना है। यह सोचने को मजबूर करती है कि अभी भी समय है, संभल जाओ!

हमारा दैनिक जीवन उथल-पुथल से भरा पड़ा है। सुबह उठो, दूध की लाइन, मोबाइल उठाओ, सिगनल/नेट का गायब हो जाना, फोन करो बात का कट जाना। वाट्स एप में पोस्ट की भरमार, उसमें डिलीट का श्रम साधक समय व्यय। फेसबुक में लाइक, कमेंट्स का हिसाब, बस-मैट्रो में भीड़ की मारामारी, शहर में लंगड़े बुखार की महामारी, अस्पतालों के चक्कर पै चक्कर, बच्चों की बसों से माता-पिताओं का घटता विश्वास, नेताओं के वायदों की उठती मीनार आदि सैकड़ों बातें हैं। ऐसी विद्रूपताएँ हैं जिनसे हम रोज रूबरू होते हैं। इन चीजों ने व्यंग्य से मुठभेड़ करने का आमंत्रण दिया है, जिसे स्वीकार किया है डॉ. ललित लालित्य ने। डॉ. ललित लालित्य ने विद्रूपताओं को रचनात्मकता से जोड़ दिया है। विलायती राम छोटी-छोटी मुठभेड़ को आगाह कर रहे हैं। व्यंग्य की ये रचनाएँ व्यंग्य का नया संसार रच रही हैं। पाठक को सावधान करती हैं।

यह भी देखा जा रहा है कि समय की विवशता ने व्यंग्यकार को समझौतावादी बना दिया है। वह  छोटी-छोटी चीजों पर तो अपनी प्रतिक्रिया देता है, पर बड़ी से आँख मूँद लेता है। पर व्यंग्य में यह भेदभाव नहीं चलता है। अधिकांश व्यंग्यकार, राजनीति और धर्म में व्याप्त विसंगतियों पर बात करने से बचता है। पर ऐसा भी नहीं है कि सब बच रहे हैं। अधिकांश व्यंग्यकार राजनीति और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं पर त्वरित दखल दे रहे हैं। वर्तमान में राजनीति और समाज में फैली अपराधिक वृत्तियों पर व्यंग्यकार द्वारा त्वरित तीखी टिप्पणी आ रही हैं। यहाँ पर सबका उल्लेख करना कठिन है पर उदाहरण स्वरूप  वरिष्ठ व्यंग्यकार गिरीश पंकज, फेसबुक, अख़बार, पत्रिकाओं में घटनाओं के दूसरे दिन दिख जाते हैं। स्त्रियों पर हो रहे अनाचार पर इंद्रजीत कौर की अभी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। बल्देव त्रिपाठी, दिलीप तेतरवे, बिजी श्रीवास्तव, बृजेश कानूनगो, शशांक, मीना अरोरा, सुदर्शन सोनी, अरुण अर्णव खरे, अनूप शुक्ल डॉ. सोमनाथ यादव, विनोद साव, राजशेखर चौबे, शांतिलाल जैन, राजेन्द्र मौर्य आदि अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में सजग हैं।

व्यंग्य से मुठभेड़ के फलस्वरूप व्यंग्य की रचनात्मकता को अप्रतिम विस्तार मिला है। व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण गुण बीमारी में ऐन्टीबायोटिक के समान है। यह तीव्र असरकारक होता है। सभी व्यंग्य यात्री सत्ता, समाज, धर्म के अंतर्विरोधों से मुठभेड़ कर रहे हैं और यह भविष्य में भी जारी रहेगा

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 69 ☆ हरि इच्छा के आगे ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “हरि इच्छा के आगे ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 69 – हरि इच्छा के आगे

उम्मीदों का टोकरा लेकर पार्टी में पहुँचे हुए साहब ने देखा कि यहाँ उनकी पूछ- परख कम हो रही है । हमेशा मंच पर बैठने वाले आज दर्शक दीर्घा में बैठकर तालियाँ बजा रहे थे । किसी तरह इस कार्यक्रम को बीतने दो तो आयोजकों की खबर लेता हूँ । वे मन ही मन कहे जा रहे थे कि इतना खर्च कर के आया हूँ, न कोई ढंग का फोटोसेशन न ही मीडिया कवरेज , लगता है खुद ही आगे बढ़कर मोर्चा संभालना होगा ।

सो साहब जी सबकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए आगे आकर बोले , आप सबको आनन्दित होते हुए देखना सचमुच सुखकारी लगता है । मैंने तो आज नए लोगों को मौका दिया है, वे अपनी योजनाओं से अवगत करावें । जहाँ जरूरत होगी वहाँ मैं सहयोग को हाजिर हो जाऊँगा ।

जोरदार तालियाँ बजीं, सबसे अधिक मंचासीन लोगों ने बजाई । कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे मनोहर जी ने उन्हें ससम्मान ऊपर बुलाया अब वे भी अपने को विशिष्ट मान रहे थे । दरसल इस तरह के आयोजनों में मुख्य परिचर्चा तो कम ही होती है, सभी लोग केवल अपनी गोटियाँ फिट करने की फिराक में ज्यादा दिखाई देते हैं । पुरस्कारों का लेन देन तो आम बात है किंतु आपसी अचार व्यवहार में कितना सम्मान किसे मिला ये भी नोटिस किया जाता है । जब सिक्का बदलता है तो हिसाब बराबर का होते देर नहीं लगती है ।

लोग क्या कहेंगे इस पर तो हम अपने आपको चलाते ही हैं पर आजकल नए- नए मुद्दे भी इसमें शामिल होते जा रहे हैं । बाकायदा  इवेंट मैनेजर रखा जाता है जिसे सब पहले से ही पता होता है कि कैसा क्या होगा । जिससे रिश्ता बनाकर रखना होता है उसे सबसे पहले और अन्य को उनकी उपयोगिता के आधार पर रखा जाता है । मजे की बात यहाँ उम्र आड़े नहीं आती है बस स्वार्थ सिद्ध होने से मतलब है । वैसे  हम लोग तो प्राचीन काल से ही कर्मयोगी रहे हैं । मैं से दूर होकर कर्म करो, कर्ता बनने की भूल मत करना ये हमें सिखाया गया है । सो हरि इच्छा का जाप करते हुए हमेशा स्थिति के अनुरूप ढल जाने में ही समझदारी दिखती है ।

उम्मीद कायम है …

किसी घटनाक्रम में जब हम सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते हैं तो स्वतः ही सब कुछ अच्छा होता जाता है। वहीं नकारात्मक देखने पर खराब असर हमारे मनोमस्तिष्क पर पड़ता है।

अभावों के बीच ही भाव जाग्रत होते हैं। जब कुछ पाने की चाह बलवती हो तो व्यक्ति अपने परिश्रम की मात्रा को और बढ़ा देता और जुट जाता है लक्ष्य प्राप्ति की ओर। ऐसा कहना एक महान विचारक का है। आजकल सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा  वीडियो इन्हीं विचारों से भरे हुए होते हैं। जिसे देखो वही इन्हें सुनकर अपनी जीवनशैली बदलने की धुन में लगा हुआ है। बात इतने पर आकर रुक जाती तो भी कोई बात नहीं थी लोग तो सशुल्क कक्षाएँ  भी चला रहे हैं। जिनकी फीस आम आदमी के बस की बात नहीं होती है क्योंकि इन्हें देखने वाले वही लोग होते हैं जो केवल टाइम पास के लिए इन्हें देखते हैं। दरसल चार लोगों के बीच बैठने पर ये मुद्दा काफी काम आता है कि मैं तो इन लोगों के वीडियो देखकर बहुत प्रभावित हो रहा हूँ। अब मैं भी अपना ब्लॉग/यू ट्यूब चैनल बनाकर उसे बूस्ट पोस्ट करूंगा  और देखते ही देखते  सारे जगत में प्रसिद्ध हो जाऊँगा।

इतने लुभावने वीडियो होते हैं कि बस कल्पनाओं में खोकर सब कुछ मिल जाता है। जब इन सबसे मन हटा तो सेलिब्रिटी के ब्लॉग देखने लगते हैं बस उनकी दुनिया से खुद को जोड़ते हुए आदर्शवाद की खोखली बातों में उलझकर पूरा दिन बीत जाता है। कभी – कभी मन कह उठता है कि देखो ये लोग कैसे मिलजुल एक दूसरे के ब्लॉग में सहयोग कर रहे हैं। परिवार के चार सदस्य और चारों के अलग-अलग ब्लॉग। एक ही चीज चार बार विभिन्न तरीके से प्रस्तुत करना तो कोई इन सबसे सीखे। सबको लाइक और सब्सक्राइब करते हुए पूरा आनन्द मिल जाता है। मजे की बात,  जब डायरी लिखने बैठो तो समझ में आता है कि सारा समय तो इन्हीं कथाकथित महान लोगों को समझने में बिता दिया है। सो उदास मन से खुद को सॉरी कहते हुए अगले दिन की टू डू लिस्ट बनाकर फिर सो जाते हैं। 

बस इसी  उधेड़बुन में पूरा दिन तो क्या पूरा साल कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल बीतता जा रहा है। हाँ कुछ अच्छा हो रहा है तो वो ये कि मन सकारात्मक रहता है और एक उम्मीद आकर धीरे से कानों में कह जाती है कि धीरज रखो समय आने पर तुम्हारे दिन भी बदलेंगे और तुम भी मोटिवेशनल स्पीकर बनकर यू ट्यूब की बेताज बादशाह बन चमकोगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘हम न मरब)  

☆ व्यंग्य # 102 ☆ हम न मरब ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कानों को सुनाई पड़ा कि मैं थोड़े देर पहले मर चुका हूं। फिर किसी ने कहा कि मुझे मरे काफी देर हो चुकी है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं वास्तव में मर चुका हूं। सब मजाक कर रहे थे कि मैं इतने जल्दी नहीं मर सकता। डाक्टर बुलाया गया, उसने हाथ पकड़ा फिर नाड़ी देखी और बोला कि ये मरने के करीब पहुंच गए हैं, उधर से आवाज आई डाक्टर झूठ बोल रहा है, उनको मरे बहुत देर हो गई है।

मेरे हर काम में लोग शक करते हैं और अड़ंगा डालते हैं, कुछ लोगों ने मुझे मरा घोषित कर दिया है और कुछ लोग मानने तैयार नहीं हैं कि मैं वैसा ही मर चुका हूं जैसे सब मर जाते हैं, दरअसल मित्र लोग खबर मिलने पर अंतिम दर्शन को आ रहे हैं पर हाथी जैसे डील-डौल वाले शरीर को कंधा देने में कतरा रहे हैं और मजाक करते हुए यहां से कन्नी काट कर यह कहकर आगे बढ़ जाते हैं कि मैं मर नहीं सकता।

 गलती मेरी भी है कि मैं  जीवन भर से हर बात पर नखरे करता रहा, पहिचान कर भी अनजान बनने का नाटक करता रहा, पहिचान था पर ऐन वक्त नाम भूल जाता था।  धीरे धीरे शरीर फैलता रहा,वजन बढ़ता गया,वजन कम करने का प्रयास नहीं किया। मुझे नहीं मालूम था कि हाथी जैसे डील-डौल वाले को मरने के बाद कंधा देने चार आदमी भी नहीं मिलते।

जिनको बहुत पहले हजारों रुपए उधार दिये थे उनमें से तीन  खुशी खुशी कंधा देने तैयार हुए पर चौथा आदमी नहीं मिल रहा था। जब वे तीन कंधा देने तैयार हुए तो मुझे लगा कि अब उधारी दिया पैसा डूब जायेगा, क्योंकि ये तीनों जल्दी मचा रहे हैं और कंधा देने वाले चौथे आदमी की तलाश में हैं ताकि मरे हुए को जल्दी मरघट पहुंचाया जा सके। मैं सचमुच मर चुका हूं मुझे भी विश्वास नहीं हो रहा था, क्योंकि बीच-बीच में वसूली के मोह में सांस लौट लौट कर आ-जा रही थी।वे तीनों ने आते- जाते अनेक लोगों से मदद माँगी।किसी के पास समय नहीं था। चौथे आदमी को ढूंढने में विलंब इतना हो रहा था कि  मैं डर गया कि कहीं ये तीन भी धीरे धीरे कोई बहाना बना कर भाग न जाएं, इसलिए मैंने अपनी दोनों आंखें हल्की सी खोल दीं ताकि उन तीनो को थोड़ी राहत महसूस हो, मेरी आंखें खुलते ही वे तीनों इस बात से डर गये कि कहीं उधारी वाली चर्चा न चालू हो जाए, और वे तीनों भी धीरे-धीरे खिसक गये। मैं फिर बेहोश हो गया, फिर मैंने तय किया कि अब मुझे वास्तव में मर जाना चाहिए, हालांकि मैं मरना नहीं चाहता था पर आखिरी समय में दुनियादारी के इस तरह के चरित्र को देखकर मर जाना ही उचित समझा,  मैंने सोचा उधारी वसूल हो न हो,अच्छे दिन आयें चाहें न आयें….. कम से कम वे तीनों मुझे ठिकाने लगाने में ईमानदारी बरत रहे हैं, बाकी करीब के लोग दूर भाग रहे हैं, ऐसे समय जरूरी है कि मुझे तुरंत मर जाना चाहिए….  और मैं मर गया।

मैं अभी भी मरा हुआ पड़ा हूं, काफी देर हो गई है पर अभी भी कोई मानने तैयार नहीं है , और कंधा देने में आनाकानी कर रहे हैं। बड़ी मुश्किल है, वे तीनों भी फिर से आने में डर रहे होंगे क्योंकि नेताओं ने इन दिनों  ऐसा माहौल बनाकर रखा है कि लोगों के समझ नहीं आ रहा है कि सच क्या है और झूठ क्या है…..

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #105 ☆ व्यंग्य – साहब लोग का टॉयलेट ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘साहब लोग का टॉयलेट’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 105 ☆

☆ व्यंग्य –  साहब लोग का टॉयलेट

उस दफ्तर में दो टॉयलेट हैं। एक साहब लोगों का है और दूसरा क्लास थ्री और फ़ोर के लिए। साहब लोग भूलकर भी दूसरे टॉयलेट में नहीं जाते, और साहबों को छोड़कर दूसरों को पहले टॉयलेट में जाने की सख़्त मुमानियत है। क्लास थ्री या फ़ोर का कोई रँगरूट अगर भूल से साहब लोग के टॉयलेट में चला जाए तो उसकी ख़ासी लानत- मलामत होती है। ख़ुद बड़े बाबू उसकी क्लास लेते हैं।

कभी एक और दफ्तर में जाना हुआ था। वहाँ टॉयलेट के दरवाज़े पर एक पट्टिका लगी थी जिसका कुछ हिस्सा दरवाज़े के पल्ले से छिपा था। पट्टिका पर लिखा दिखायी पड़ा— ‘शौचालय अधिकारी’। देखकर चमत्कृत हुआ। यह कौन सा पद निर्मित हो गया? थोड़ा आगे बढ़ा तो पूरी पट्टिका दिखी। पूरी इबारत थी—‘शौचालय अधिकारी वर्ग’, यानी अधिकारी वर्ग के लिए आवंटित टॉयलेट था।

पहले जिन टॉयलेट्स की बात की उसके बड़े साहब अपने वर्ग के टॉयलेट में कुछ सुधार चाहते हैं। वे कहीं ऐसे नल देख आये हैं जिनमें हाथ नीचे लाते ही अपने आप पानी गिरने लगता है और हाथ हटाने पर अपने आप बन्द हो जाता है। नल खोलने या बन्द करने की ज़रूरत नहीं होती। बड़े साहब तत्काल अपने टॉयलेट में ऐसे ही नल लगवाना चाहते हैं। लगे हाथ वे पुराने फर्श को तोड़कर चमकदार टाइल्स भी लगवाना चाहते हैं ताकि टॉयलेट साहब लोग के स्टेटस के अनुरूप हो जाए। बड़े साहब की इच्छा को छोटे साहबों ने ड्यूटी के रूप में ग्रहण किया और तत्काल ठेकेदार को काम सौंप दिया गया।

लेकिन समस्या यह आयी कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक साहब लोग ‘रिलीफ़’ पाने के लिए किधर जाएँगे। बड़े साहब का आदेश ज़ारी हुआ कि टॉयलेट मुकम्मल होने तक सभी अफ़सरान थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में ही राहत पायेंगे। चार छः दिन की तो बात है।

लेकिन यह फ़रमान सुनते ही साहब लोगों के मुख मुरझा गये। थ्री और फ़ोर क्लास वाले टॉयलेट में कैसे जाएँगे?क्या अब साहब लोगों और निचली क्लास के लोगों के बीच कोई फ़र्क़ नहीं रहेगा? ‘रबिंग शोल्डर्स विथ देम!’

एक दो दिन के अनुभव के बाद साहबों के बीच भुनभुन होने लगी।’इन लोगों में एटीकेट नहीं है। टॉयलेट में एक दूसरे से बात करेंगे या एक दूसरे पर हँसेंगे। एक दूसरे का मज़ाक उड़ायेंगे। वो धनीराम तो वहाँ जोर जोर से गाने लगता है। टॉयलेट का भी कुछ एटीकेट होता है। वहाँ हम इनके बगल में खड़े होते हैं तो बहुत ‘एम्बैरैसिंग’ लगता है।’रिलीफ़’ का काम भी ठीक से नहीं हो पाता। उस पर साइकॉलॉजी का असर होता है।’

टॉयलेट का काम शुरू होने के दो दिन बाद दास साहब बड़े साहब के पास जाकर बैठ गये हैं। कहते हैं, ‘सर, मेरी रिक्वेस्ट है कि लंच ब्रेक आधा घंटा बढ़ा दिया जाए।’रिलीव’ होने के लिए सिविल लाइंस तक जाना पड़ता है। यहाँ बहुत ‘अनकंफर्टेबिल’ ‘फ़ील’ होता है।’एडजस्ट’ करने में दिक्कत होती है। अटपटा लगता है। ऑफ़िस में हम साथ साथ बैठ सकते हैं, लेकिन टॉयलेट में आजू-  बाजू खड़ा होना बहुत मुश्किल है।’इट इज़ ए डिफ़रेंट फ़ीलिंग ऑलटुगैदर।’ लगता है जैसे हमारी साइज़ कुछ छोटी हो गयी हो।’
बड़े साहब सहानुभूति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘आई कैन अंडरस्टैंड इट। यू कैन टेक मोर टाइम आफ़्टर लंच। आई वोन्ट माइंड इट। तीन चार दिन की बात है।’
दास साहब संतुष्ट होकर उठ जाते हैं। फिर भी दफ्तर में हल्का टेंशन रहता है। ज़्यादातर साहब लोग ‘रिलीव’ होने के लिए बाहर भागते हैं, लेकिन डायबिटीज़ वालों को मजबूरन दफ्तर में ही ‘रिलीव’ होना पड़ता है।

छः दिन में टॉयलेट का सुधार संपन्न हो गया। साहब लोगों ने राहत की साँस ली। बड़े साहब ने सबसे पहले नये ‘गैजेट्स’ का इस्तेमाल किया और फिर बाकी साहब लोगों ने भी उनका आनन्द लिया। छः दिन बाद आखिरकार वो ‘डिस्टर्बिंग फ़ीलिंग’ ख़त्म हो गयी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #2 – व्यंग्य के मूल तत्त्व ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की दूसरी कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य के मूल तत्त्व

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #2 – व्यंग्य के मूल तत्त्व ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

साहित्य के परिदृश्य में व्यंग्य एक महत्त्वपूर्ण विधा है। व्यंग्य ही समाज में व्याप्त सभी प्रकार की बुराइयों और परिवर्तन को सामने लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहा है। व्यंग्य की प्रासंगिकता और पठनीयता ने पाठकों के साथ.साथ लेखकों को भी अपनी ओर खींचा है। कवि हो कहानीकार हो .सभी इस विधा में अपना हाथ आजमाना चाहते हैं। उनको लगता है कि इसमें हाथ साफ़ करना सरल है सहज है। इस व्यंग्य विधा में आजमाइश के दौर में कुछ भी लिखा जा रहा है। मुश्किल यह भी है कि तकनीकी सुविधा ने इसे पाठक के पास पहुँचा दिया है। मोबाइल लेपटॉप पर लिखो और वहीं से ईमेल के माध्यम से पत्र.पत्रिकाओं तक पहुँचा दो। सम्पादक भी वहीं से अपने अख़बार में स्पेस दे देता है। कागज पर पढ़ने और कम्प्यूटर पर पढ़ने में अन्तर होता है। लेपटॉप या कम्प्यूटर में पढ़ना एक तकलीफ से गुजरना होता है। इस तकलीफ से बचने के चक्कर में अनेक रचनाएँ लेखक के नाम से अख़बार में जगह बना लेती हैं। यही व्यवस्था कहीं सुविधा देती हैतो कहीं संकट पैदा करती है।

विगत कुछ वर्षों से राजनीतिक प्रभाव की पतली परत पूरे जनमानस पर दिखाई दे रही थी और उसके प्रभाव से मुक्त होने के संकेत नज़र नहीं आ रहें हैं.। पूरा भारतीय मानस और लेखक भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं .वैसे व्यंग्यकारों का प्रिय विषय राजनीति और पुलिस है क्योंकि यहाँ पर विसंगतियाँ और सामाजिक दंश आसानी से दिख जाता है। नज़र को साफ़ करने के लिये काजल या सुरमा नहीं लगाना पड़ता है। कलम उठाओ और लिख डालो. इनकी प्रवृत्ति और प्रकृति पर। करोना काल ने सामाजिक,मानवीय और शासकीय स्तर पर संवेदना के केन्द्र व्याप्त विसंगतियों को उघाड़ कर रख दिया.पिछले दिनों तो ऐसा लग रहा था कि जहाँ देखो वहाँ यह सत्ता के स्तर पर व्यंग्य बगरो बसंत है.लोग भूखे प्यासे बिना संसाधन के सैकड़ों किलोमीटर भाग रहें. लोग मर रहे हैं .शासन और उसकी अव्यवस्था अस्त व्यस्त थी. प्रकृति ने व्यंग्य के लिए सभी प्रकार की विसंगतियां बुराइयां मौजूद थी.बस आपको उसे कैच करना है। लोग  ने लोंका ;कैच किया भी। लोगों ने इस पर लिखा भी. मगर मैं दावे से कह सकता हूँ कि इन व्यंग्यों ने आप को चौंकाया नहीं .आप के मस्तक पर चिन्ता की रेखाएँ नहीं खींचीं और न ही आप बेचैन दिखे और न ही आप विचलित हुए। मैं यह भी दावा करता हूँ कि इस परिदृश्य पर दसियों व्यंग्यकारों की सैकड़ों रचनाएँ मुझे अख़बारों के पन्नों पर दिखीं. जिन्हें लेखकों ने आपके मोबाइल और लेपटॉप के माध्यम से आपको पढ़वाया भी। पर काजू बादाम और किसमिस चिलगोजों के दौर में आपको एकाध रचना छोड़कर सभी स्मृति से गायब हो गयी हैं. जबकि हरिशंकर परसाई की अकाल उत्सव,.अपील का जादू या शरद जोशी की रचनाओं में जीप पर सवार इल्लियां शीर्षक मूल रहा है. जिसमें वे कांग्रेस के तीस वर्षों को याद करते हैं। उसी समय परसाई जी की रचना अपील का जादू.इसी तरह शंकर पुणतांबेकर की रचना एक मंत्री का स्वर्ग लोक में आदि उस दौर के लेखकों की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं. जो आपके स्मृति पटल से मुक्त नहीं हो पा रही हैं। यहाँ भी साहित्य में मुक्ति का संकट है। नया तो स्वीकारना चाह रहे हैं पर पुराना हमारे मस्तिष्क पटल पर छाया हुआ है। पर ऐसा भी नहीं है कि अनेक रचनाएँ हमारे दिमाग के दरवाज़े पर दस्तक दे रही हैं। कुछ दिन पहले प्रेम जनमेजय के दो व्यंग्य ‘बर्फ का पानी’और ‘भ्रष्टाचार के सैनिक’ हमारे दिमाग पर अड्डा जमाये हैं। ‘बर्फ का पानी’ रचना अभी कालजयी रचना की प्रक्रिया से गुजर रही है। क्योंकि कालजयी रचना को प्राकृतिक रूप से पकने में समय लगता है।

किसी भी व्यंग्य रचना के निर्माण की पृष्ठभूमि में लेखक की दृष्टिए संवेदनाएं, सरोकार और वैचारिक प्रतिबद्धता का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। सुप्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने एक जगह कहा था ‘पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है’ यही पॉलिटिक्स लेखक से मनुष्य का निर्माण करती है। यह बात साहित्य के साथ व्यंग्यकारों के लिये फिट बैठती है.क्योंकि व्यंग्यकार अपना राँ मेटेरियल जीवन और समाज में व्याप्त विसंगतियों से उठाता है। इस उठाने की प्रक्रिया में व्यंग्यकार के पास दृष्टि संवेदना और सरोकारों का होना ज़रूरी है। मेरा मानना है. इनकी अनुपस्थिति में व्यंग्य लेखन विकलांग दिखेगा। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य की बहुत सी परिभाषाएँ की गई हैं पर मेरे विचार से उसकी सर्वोत्तम परिभाषा ‘जीवन की आलोचना है’ व्यंग्य भी जीवन और समाज के परिप्रेक्ष्य में ही सही परिलक्षित होता है। परसाई जी को यों ही बड़ा लेखक नहीं माना जाता है। उनमें तीनों चीज़ें आत्मसात थीं। एक दृष्टि ही है  जो समाज और जीवन में विसंगतियाँ बुराइयाँ आदि प्रवृत्तियों को पकड़ सकती है। दृष्टि को सम्पन्न करने के लिये मनुष्यता के ज़रूरी तत्त्वों को आधार मान वैचारिक प्रतिबद्धता का अनुशासन होना नितांत आवश्यक है। इस सम्बंध में मेरे पास दो उदाहरण हैं . पहला हरिशंकर परसाई की रचनाए ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ और दूसरा डॉ.प्रेम जनमेजय की रचनाए ‘बर्फ का पानी’ बर्फ का पानी रचना पढ़ते ही लेखक की दृष्टि संवेदना और सरोकार का आभास हो जाता है.परन्तु ‘इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर’ को समझने के लिये इसकी पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है।

पिछले दिनों इस पर हमारे मित्र हिमांशु राय का संस्मरण भी फेसबुक पर काफ़ी चर्चित रहा। जबलपुर के आमनपुर क्षेत्र में एक काण्ड हुआ. जिसमें पुलिस की अकर्मण्यता के चलते एक मजदूर की मृत्यु हो गयी। पुलिस ने एक झूठा केस लगाकर वामपंथी विचारधारा और कम्युनिस्ट पार्टी के एक सदस्य हिमांशु राय के पिता श्री एस एन राय के ऊपर हत्या का आरोप लगाकर गिरफ़्तार कर लिया। वे परसाई जी के अनन्य मित्र थे। वे पूरे घटनाक्रम से भलीभाँति परिचित थे। उस वक़्त मध्यप्रदेश में जनसंघ की सरकार थी। उन पर केस चला। निचली अदालत से सज़ा हुई। वे उच्च न्यायालय से बरी हो गए। जिस पुलिस दरोगा ने यह केस बनाया. वह इस काम में माहिर कुटिल तथा विशेषज्ञ था। इस काम के लिये वह सम्मान से जाना जाता था । बड़े.बड़े अफसर उससे झूठे केस बनाने में उसकी मदद लिया करते थे। मातादीन का चरित्र पुलिस का सच्चा चरित्र था। मात्र बीस प्रतिशत की फेंटेसी और अस्सी प्रतिशत की सच्चाई से यह कालजयी रचना बन गयी। मगर इस रचना के निर्माण में दृष्टि संवेदना और सरोकार तत्त्व विशेष रोल का निर्वाह कर रहे थे। इस कारण यह रचना क्लासिक और कालजयी है। परसाई जी ने पुलिस के प्रपंच को देखा महसूस किया तथा उसे पाखण्ड का जन सरोकारों के तहत उजागर किया।

व्यंग्य को परखने और रचने के लिये दृष्टि होना चाहिये और यह दृष्टि व्यापक अध्ययन और अनुभव से विकसित होती है। यही संकेत देती है कि आपको किसके पक्ष में खड़े होना है . तय है शोषित के पक्ष में। दृष्टि विकसित न होने पर व्यंग्यकार हानि.लाभ का गुणा भाग करने लगता है। और इस गुणा भाग से उपजने वाले व्यंग्य में भौंथरापन आ जाता है। वह जीवन और समाज की समस्या से भागने लगता है। विसंगतियों  विडम्बनाओं भ्रष्टाचार रूढ़िवादिता आदि से किनारा काट उन चीज़ों पर केन्द्रित हो जाता है जिनके होने और न होने से व्यक्ति का जीवन प्रभावित नहीं होता।

व्यंग्यकार की संवेदना ही जीवन के रचाव को पढ़ने में समर्थ होती है। गरीब मजदूर शोषित स्त्री वर्ग की निरीहता कमज़ोरी दर्द को संवेदन ही महसूस करती है। परसाई की रचना अकाल उत्सव शरद जोशी की ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’ अनेक रचनाएँ बनती हैं।

मकान टपकने वाली रचना पर परसाई जी लिखते हैं. मैं समझ गया कि ज्यों.ज्यों देश में इंजीनियरिंग कॉलेज़ खुलते जा रहे हैं त्यों.त्यों कच्चे पुल और तिड़कने वाली वाली इमारतें क्यों अधिक बन रही हैंए और जब हर ज़िले में कॉलेज हो जायेगा तब हम कहाँ रहेंगे

व्यंग्यकारों के पक्ष में एक बात और सामने दिखती है कि वह विकृतियों संगतियों से मुँह नहीं चुरा सकता है. भाग नहीं सकता है। यदि वह भागता है या भागने का प्रयत्न करता है. तो पक्का है कि वह गुणा भाग लाभ हानि के चक्कर में पड़ गया है। वह व्यंग्यकार कहलाने का हक़ भी खो देता है। यदि उसकी संवेदनाएँ उसके सरोकार उसकी प्रतिबद्धता भागने से रोकने का कार्य करते हैं. तभी व्यंग्यकार में मनुष्य के दर्शन होते हैं। व्यंग्यकार का भागना बहुत जटिल विचारणीय चिंता करने काम ही बेईमानी भरा  है. भागने की संभावना तलाशना ही व्यंग्यकार का कमीनापन है और उसे व्यंग्य लिखना छोड़ कर प्रेम कविताए कहानी लिखना शुरू कर देना चाहिये। क्योंकि समाज की समस्याओं से बचने और उपदेश देने की गुंजाइश यहाँ अधिक होती है।

व्यंग्यकार को संवेदनशील होने के साथ कठोर भी होना पड़ता है। उस माँ की तरह संवेदनशील जो अपनी संतान को लाड़.प्यार तो करती है और अच्छा मनुष्य बनाने के लिये कठोर दण्ड भी देती है। इस चीज़ को समझना सरल नहीं है। व्यंग्यकार की कठोरता सामाजिक और वैयक्तिक अनुशासन बनाये रखती है। वर्त्तमान समय के युवा आलोचक रमेश तिवारी का कहना है कि व्यंग्य लिखना असहमत होना है। व्यंग्य सहमति या संगति में नहीं लिखा जा सकता है। इसके लिये असहमति और विसंगति अनिवार्य है। इसे पढ़कर याद आता हैए असहमति लोकतंत्र की ख़ूबसूरती है। लोकतंत्र का प्राण है,यानी व्यंग्य लिखना मात्र असहमत होना नहीं. बल्कि यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल होना भी है। जिस समाज में जितना व्यंग्य और व्यंग्यकार की जितनी उपलब्धता होगी वह लोकतंत्र उतना ही मजबूत और दीर्घकालीन भी होगा। यह सब व्यंग्यकार में उपलब्ध दृष्टि संवेदना और सरोकारों से ही आता है। सरोकारों में दृढ़ता व्यंग्यकार को शोषित.पीड़ित वर्ग के प्रति जागरूक और प्रतिबद्ध भी बनाती है। व्यंग्य.रचनाकार के सरोकार समाज में ग़रीब दलित शोषित की रूढ़िवादिता भ्रष्टाचार और कूपमंडूकता के प्रति सजगए सतर्क और समर्पित भी बनाती है तथा जीवन को निकट से देखने.पढ़ने की दृष्टि भी विकसित करते हैं।

यहाँ पर मैं एक उदाहरण भी प्रस्तुत करना चाहता हूँ . जबलपुर में सन् 1961 में एक साम्प्रदायिक दंगा हुआ था. जो बढ़ता हुआ आसपास के ज़िलों तक फैल गया था। दंगा चरम स्थिति में था। उस वक़्त शहर का हर वर्ग परसाई को जानने लगा था। तब परसाई जी और उनके मित्र श्री हनुमान वर्मा मायाराम सुरजन महेन्द्र वाजपेयी रामेश्वर प्रसाद गुरु जी आदि दंगा क्षेत्र में जाते रहे और लोगों को समझाते रहे। उनकी बात का गहरा असर हुआ और दंगा शीघ्र समाप्त करने में प्रशासन को उनसे सार्थक मदद मिली। यह समाज के रचनाकार और ज़िम्मेदार लोगों के सरोकार ही थे जो खतरे की परवाह न करते हुए उन्हें दंगाग्रस्त क्षेत्रों में ले गये।

यहाँ पर अपनी बात ख़त्म करने के पहले या भी जोड़ना चाहूँगा कि व्यंग्य लिखने के पूर्व लेखक को मानवीय संवेदनाए शोषण आदि के कारणों को जानने पढ़ने के लिये उसकी भाषा व्यंग्यकार को पढ़ना आना चाहिये।

हरीश पाठक ने अपनी बात रखते हुए कहा था कि व्यंग्यकार को अपनी बात लिखने के लिये व्यंग्य की भाषा और उसके शिल्प को उसके अनुरूप रचाव करना भी आना चाहिए. क्योंकि व्यंग्य की भाषा और शिल्प अन्य विधाओं से भिन्न होता है। अतः यदि इस बात को नज़र अंदाज़ किया गया तो व्यंग्य सपाट हो जायेगा।

और अंत में एक छोटी पर मोटी सी बात है कि जीवन के मूल्य तत्त्व ही व्यंग्य के मूल तत्त्व हैं।

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 68 ☆ उम्मीद कायम है … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना उम्मीद कायम है …। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 68 – उम्मीद कायम है …

किसी घटनाक्रम में जब हम सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान देते हैं तो स्वतः ही सब कुछ अच्छा होता जाता है। वहीं नकारात्मक देखने पर खराब असर हमारे मनोमस्तिष्क पर पड़ता है।

अभावों के बीच ही भाव जाग्रत होते हैं। जब कुछ पाने की चाह बलवती हो तो व्यक्ति अपने परिश्रम की मात्रा को और बढ़ा देता और जुट जाता है लक्ष्य प्राप्ति की ओर। ऐसा कहना एक महान विचारक का है। आजकल सोशल मीडिया पर सबसे ज्यादा  वीडियो इन्हीं विचारों से भरे हुए होते हैं। जिसे देखो वही इन्हें सुनकर अपनी जीवनशैली बदलने की धुन में लगा हुआ है। बात इतने पर आकर रुक जाती तो भी कोई बात नहीं थी लोग तो सशुल्क कक्षाएँ  भी चला रहे हैं। जिनकी फीस आम आदमी के बस की बात नहीं होती है क्योंकि इन्हें देखने वाले वही लोग होते हैं जो केवल टाइम पास के लिए इन्हें देखते हैं। दरसल चार लोगों के बीच बैठने पर ये मुद्दा काफी काम आता है कि मैं तो इन लोगों के वीडियो देखकर बहुत प्रभावित हो रहा हूँ। अब मैं भी अपना ब्लॉग/यू ट्यूब चैनल बनाकर उसे बूस्ट पोस्ट करूंगा  और देखते ही देखते  सारे जगत में प्रसिद्ध हो जाऊँगा।

इतने लुभावने वीडियो होते हैं कि बस कल्पनाओं में खोकर सब कुछ मिल जाता है। जब इन सबसे मन हटा तो सेलिब्रिटी के ब्लॉग देखने लगते हैं बस उनकी दुनिया से खुद को जोड़ते हुए आदर्शवाद की खोखली बातों में उलझकर पूरा दिन बीत जाता है। कभी – कभी मन कह उठता है कि देखो ये लोग कैसे मिलजुल एक दूसरे के ब्लॉग में सहयोग कर रहे हैं। परिवार के चार सदस्य और चारों के अलग-अलग ब्लॉग। एक ही चीज चार बार विभिन्न तरीके से प्रस्तुत करना तो कोई इन सबसे सीखे। सबको लाइक और सब्सक्राइब करते हुए पूरा आनन्द मिल जाता है। मजे की बात,  जब डायरी लिखने बैठो तो समझ में आता है कि सारा समय तो इन्हीं कथाकथित महान लोगों को समझने में बिता दिया है। सो उदास मन से खुद को सॉरी कहते हुए अगले दिन की टू डू लिस्ट बनाकर फिर सो जाते हैं। 

बस इसी  उधेड़बुन में पूरा दिन तो क्या पूरा साल कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चल बीतता जा रहा है। हाँ कुछ अच्छा हो रहा है तो वो ये कि मन सकारात्मक रहता है और एक उम्मीद आकर धीरे से कानों में कह जाती है कि धीरज रखो समय आने पर तुम्हारे दिन भी बदलेंगे और तुम भी मोटिवेशनल स्पीकर बनकर यू ट्यूब की बेताज बादशाह बन चमकोगे।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ‘कबड्डी खेलता डालर)  

☆ व्यंग्य # 101 ☆ कबड्डी खेलता डालर ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

रुपए की कीमत के दिनों दिन गिरने से एक रुपए वाला नोट चिंतित रहता है और चिंता की बात ये भी है कि अर्थव्यवस्था के बारे में जो दावे किए जा रहे हैं उसमें जनता को झटका मारने की प्रवृत्ति क्यों झलक रही है।

एक रुपए के नोट की चिंता जायज है, क्योंकि उसको कोई पूछता नहीं। जिनके पास एक रुपए का नया नोट है वो नोट दिखाने में नखरे पेल रहे हैं, एक रुपए का नोट दिखाने का दस रुपए ले रहे हैं। आपको जानकर यह आश्चर्यजनक लगेगा कि बहुत पहले एक डालर एक रुपए का होता था। पहले कोई नहीं जानता था कि दुष्ट डालर का रुपए से कोई संबंध भी हो जाएगा, और डालर इस तरह से रुपए के साथ कबड्डी खेलने लगेगा। पहले रुपया मस्त रहता था, कभी टेंशन में नहीं रहता था। टेंशन में रहा होता तो रुपये को कब की डायबिटीज और बी पी की बीमारी हो जाती।

पहले तो रुपया उछल कूद कर के खुद भी खुश रहता और सबको सुखी रखता था। तब रुपैया की बारह आना से खूब पटती थी दोनों सुखी थे एकन्नी में पेट भर चाय और दुअन्नी में पेट भर पकौड़ा से काम चल जाता था कोई भूख से नहीं मरता था। घर का मुखिया परिवार के बारह लोगों को हंसी खुशी से पाल लेता था। अब तो गजब हो गया, बाप – महतारी को बेटे बर्फ के बांट से तौलकर अलग अलग बांट लेते हैं ।ये सब तभी से हुआ जबसे ये दुष्ट डालर रुपये पर बुरी नजर रखने लगा…… ये साला डालर कभी भी बेचारे रुपये का कान पकड़ कर झकझोर देता है। जैसई देखा कि साहब का सीना चौड़ा हो गया, उसी दिन से टंगड़ी मार कर रुपये को गिराने का चक्कर चला दिया। डालर को पहले से पता चल जाता है कि साहब का अहंकार का मीटर उछाल पर है। जैसे ही भाषण में लटके झटके आये और हर बात पर पिछले सात दशक का जिक्र आया,  भाषण के पहले उसी दिन रुपए को उठा के पटकनी दे देता है। जो लोग ‘डालर’ पहन के भाषण सुनने जाते हैं उनकी अंडरवियर गीली हो जाती है और एलास्टिक जकड़ जाती है।

हमारे नेताओं की अपना घर भरने की प्रवृत्ति को जब डालर  जान गया तो अट्टहास करके उछाल मारने लगा। डालर ये अच्छी तरह समझ गया कि भारत में नेताओं का रूपये खाने का शौक है और भारतीय महिलाओं का सोने से प्रेम है, इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए वो दादागिरी पर उतारू हो गया। इसी के चलते  चाहे जब रुपये को पटक कर चारों खाने चित्त कर देता है।

और भारत की तरफ व्यंग्य बाण चला कर वो कहता है कि मजबूत मुद्रा किसी भी देश की आर्थिक स्थिति की मजबूती का प्रमाण होती है तो जब रुपया लगातार गिर रहा है तो सरकार क्यों कह रही है कि हम आर्थिक रुप से मजबूत हो रहे हैं क्योंकि हमारी देशभक्ति और विकास में आस्था है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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