हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 98 ☆ गठबंधन खुलि खुलि जाय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य  ‘गठबंधन खुलि खुलि जाय)  

☆ व्यंग्य # 98 ☆ गठबंधन खुलि खुलि जाय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

डी एन ए भी गजब की चीज है लौट लौटकर वहीं गठबंधन करता है जो जांच की मांग रखता है ।

जब वे हिमालय से ज्ञान लेकर लौटे तो उन्होंने सबसे पहले गधों के बाजार देखने की इच्छा जाहिर की, गुरु जी ने मुझे आदेश दिया कि जाओ इनको गधों के बाजार की सैर करवा दो ………।

हम दोनों चल पड़े, एक बड़ा भूभाग है जिसमें गधों का बाजार भरा रहता है, गधे के महत्व के अनुसार हर क्षेत्र में सीमाएं निर्धारित की गईं हैं ताकि सुशासन विज्ञापनों में जिंदा रहे, समय समय पर गधों के खरीददार, गधों की कीमत तय करते रहते हैं, कीमतों में नियंत्रण के लिए कई बार गधों की शिफ्टिंग भी करनी पड़ती है, “गधे मेहनती होते हैं” और गठबंधन की राजनीति खूब जानते हैं , ताने -उलाहने देना उनकी हिनहनाहट में दिख जाता है, कभी रूठ भी जाते हैं मनाओ तो मान भी जाते हैं, कुर्सी के चक्कर में खींझना, खिसियाना ये खूब जानते हैं ……………!

ये देखिए इस गधे का रेट इस समय सबसे ज्यादा चल रहा है “गठबन्धन मास्टर” है ये, जहाँ उम्मीद भी नहीं होती है वहां गठबन्धन कराके कुर्सी खाली करा लेता है । बड़े बड़े महागठबंधनों को एक झटके में तोड़ देना इसकी खास दुलत्ती में शामिल होता है ………… बाल ….

साब बालों पे मत जाईये बाल कम इसलिए हैं कि गठबन्धन के चक्कर में दूसरों के बाल नोंचने के साथ अपने बाल भी नोंचवाना पड़ता है इन दिनों बाजार में इसके चर्चे खूब हैं इसलिए रेट भी ज्यादा चल रहा है ……..

देखिए इस शेड में चलिए …..

यहाँ पर पुराने गधे और नये गधे साथ साथ आपस में दुलत्ती मारते रहते हैं, यहां के नये गधे आलू को  फेक्ट्री में बना हुआ मानते हैं, इस शेड के गधों में अजीब तरह की हताशा है कई बिना बिके रात को गधैया के चक्कर में भाग जाते हैं और कई को तरह तरह की बीमारियां हो गईं हैं ……..!

गठबन्धन के तरह तरह के नाटक देेखना हो तो आगे वाले शेड की तरफ चलिए, यहां के गधे बहुत नौटंकीबाज होते हैं इनका रेट चढ़ता गिरता रहता है, पर मजाक करके हंसने हंसाने के ये विशेषज्ञ हैं, दुलतती मारने में इतने तेज हैं कि कुर्सी में टांग फसाके गिरा देगें और खुद बैठ जाएंगे, गधों के गठबन्धन का मुखिया कहता रहा कि महागठबंधन की मजबूती के लिए २० सूत्रीय कमेटी हर महीने मींटिग करेगी, खूब मीटिंगे हुई, खूब खाया पीया गया जब खा खा के सबके पेट निकल आए तो छबि बनाने के चक्कर में “छबि और छोड़” वाले रास्ते से महुआ पीने भाग गए, लौटे तो नशे में अपनो को दुलतती मार मार कसाई के घर में घुस गए …….!

ये गेट के अंदर सुरक्षित गधों को देख रहे हैं न,अरे यही जिनके एक ही रंग की पछाड़ी ह  ,इनकी खासियत है ये मौके आने पर कोई को भी बाप बना लेते हैं और बाद में उसको बधिया बनाके ईंटा पत्थर ढ़ोने लायक बना देते हैं, इस शेड में हमेशा ताला लगा के रखा जाता है, यहां विशेष प्रकार के शौचालय बनाए गए हैं और साल में दो बार इनको शुद्ध जल पिलाया जाता है ……….!

चलें थोड़ा आगे चलते हैं हालांकि आप की हालत बता रही है कि आप थोड़े ज्यादा थक गए हैं कुछ चाय -पानी ले ली जाए …….

इधर पड़ोस में आलूबंडा ,चाय की दुकान है जहां खाट में ढाढ़ी मूंछे वाले खरीददार गठबंधन पर बहस कर रहे हैं, सुटटा खीचते हुए वे बोले – जब गठबंधन निजी सियासी फायदे के लिए किया जाता है तो चुनाव के बाद बड़े नेताओं को जनता की थाली में उल्टी करने की आदत हो जाती है, डीएनए की भले जांच न हो पर गंगा मैया का बेटा बनने का फैशन चल पड़ता है ………….

– भैया ,बिना शक्कर की दो चाय बना दोगे क्या ?

– पुलिया के ऊपर बैठ कर कांच के गंदे से गिलासों में चाय की चुस्कियां लेते हुए साहेब भावुक हो गए, कहने लगे – ये “गठबंधन “बहुत बुरा शब्द है भैया ……..!

मैंने पुलिया के नीचे झांका …… पानी के डबरे में उसका झिलमिलाता चेहरा दिख रहा था जो मुझसे प्रेम के बहाने का गठबंधन करके किसी और के साथ सात फेरे, चौदह वचनों के गठबंधन के साथ भाग गई थी ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी  रक्षाबंधन पर विशेष रचना हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों”  )

☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆ 

हमारा राष्ट्रीय पशु, पक्षी, ध्वज, नदी, आदि के अलावा हमारा राष्ट्रीय संबोधन क्या  हो?  इस सबंध में जब विचार-विमर्श किया गया तो…,

फेसबुक व व्हाट्सप पर मित्रों ने राष्ट्रीय संबोधन हेतु “राम-राम”, “वालेकुम् सलाम” नाम  सुझाये। पर ये सब सुझानेवाले हिन्दू- मुसलमान थे। काश्, कुछ हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे के नाम भी सुझाते? तो इन  संबोधनों से मुल्क में भाईचारे की ठंडी हवा  बहने लगती। ये दोनों शब्द जितने पवित्र है,  लोग उतने पवित्र नहीं है। फिर राम का नाम इन दिनों भक्ति से दूर और वोट बैंक के करीब होता जा रहा है। (डर है  कहीं चुनाव आयोग चुनाव के दिनों में. “राम नाम सत्य है” पर भी…..) अतः ये संबोधन व्यवहारिक नहीं है।

उसके बाद जो नाम आये वे हैं,  “जयहिंद और वंदेमातरम”। पर इन्हें इसलिए  रिजेक्ट कर दिये क्योंकि एक तो इसमें सब एकमत नहीं होंगे।

(आजादी के बाद हमें इतनी स्वतंत्रता तो मिली कि हम कहीं भी किसी भी बात पर आपत्ति उठा सके।) दूसरे इन नारों से सभा की शुरुआत का नहीं, सभा की समाप्ति का एहसास होता है।

इसके बाद  नाम आया, “इन्कलाब जिंदाबाद” पर ये जुलूस, घेराव, हड़ताल व आन्दोलन के ज्यादा करीब है।  इसमें एक जोश व उत्तेजना होने से सीनियर सिटीजन को सांस की तकलीफ के कारण कहते वक्त कुछ कष्ट – सा होता है। फिलहाल इसे भी छोड़ा गया।

आखिर, राष्ट्रीय संबोधन के लिए “भाइयों और बहनों पर सहमति बनी। भाई- बहन इतना सहज और पवित्र रिश्ता है कि आपको हर रिश्ते पर लतीफे मिलेंगे (माता-पिता, भाई-भाई, सास-बहू, ससुर-दामाद, जीजा-साली। सभी पर लतीफे मिलेंगे। पति-पत्नी तो लतीफों की खान है।) मगर भाई- बहन पर नहीं। एक युवती जब पहली बार किसी अपरिचित से बात करती है तो उसका पहला संबोधन होता है ” भाईसाब, जरा….”। इसी प्रकार युवक कहेगा-” बहनजी जरा… । इसी चक्कर में पहली नजर में प्यार होने पर एक युवक ने यूँ इजहार किया-” बहनजी, मुझे पहली नजर में आपसे प्यार हो गया।” और वह भी कह उठती है-” धन्यवाद, भाई साब। कल मिलते हैं, इसी बगीचे में ।”

इतना सहज और पाक रिश्ता है ये।

जब विवेकानंद पहली बार शिकागो गये तो उनके भाइयों और बहनों कहते ही सारे लोग खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे।हर शिकागोयी को लगा रहा था, कि उसका भाई बोल रहा है,  और हर शिकागोयीन को लगा जैसे उसके मायके से कोई आया है। विवेकानंद व्दारा कहे ये दो शब्द भारत की पहचान बन गये।

उसके बाद जब बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी “बहनों और भाइयों” कहते,  सारा देश झूमने लगता। गुनगुनाने  लगता। उनके कहने में एक सरलता, एक पाकीजगी, एक ऐसा मीठापन होता कि सुनते ही होठों पर एक गीत आ जाता। ये बात तब की है जब किसी गीत की लोकप्रियता गीतकार, संगीतकार, गायक के अलावा अमीन सयानी के “बहनों और भाइयों” कहने पर भी निर्भर होती थी।

आजादी के बाद हमारे नेताओं ने इस पवित्र संबोधन की ऐसी गत् कर दी है कि भाइयों और बहनों कहकर वोट तो मांग लेते हैं, पर सत्ता मिलते ही सिर्फ अपने भाई-बहन को छोड़ बाकी की-ऐसी तैसी करने में लग जाते हैं। इन दिनों भाइयों की पिटाई और बहनों की रूसवाई कुछ ज्यादा ही अखबारों की हेड लाइन और चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनती जा रही हैं। ये समाचार पढ़कर-सुनकर इतनी  शर्मिंदगी होती  है कि अब नेताओं के मुंह से भाइयों और बहनों सुनना अपशब्द सा लगने लगता है।

प्रमुख नेतागण भी इस संबोधन का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं। जब भी कोई खास बात कहनी है तो पहले कहेंगे” भाइयों और बहनों ” और एक साधारण बात भी खास हो जाती है। जब कोई खास बात नहीं सूझती है तब भी कहेंगे “भाइयों और बहनों” और बस, साधारण बात भी खास हो जाती है।

शुरू-शुरू में इस उद्बोधन में विवेकानंद सी गरिमा और अमीन सयानी सी मीठास थी। धीरे-धीरे इस शब्द की  टीआरपी गिरने लगी।

हर 15 अगस्त के पूर्व  लालकिले की प्राचीरें तिरंगे से बतियाती है कि-” भइया, चौहत्तर साल हो गये, क्या इस देश को कोई ऐसा भी  मिलेगा जो यह महसूस करे कि भाई – बहन के रिश्ते सिर्फ कहने के लिए नहीं, निभाने के लिए होते हैं। हुमायूं और कर्मावती की गाथा फिर एक बार पढ़ लें।

रिश्ते निभाने के लिए पार्टी व पद की ही नहीं, जान तक की कुर्बानी देनी होती है। जो आज की राजनीति में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पर यदि भाइयों और बहनों कहने में विवेकानंद जैसी गरिमा और अमीन सयानी जैसी मिठास भी न ला सको तो वे “भाइयों और बहनों” कहने के बदले कोई और संबोधन ढूंढ लें।

यह बात पक्ष-विपक्ष यानी हर पार्टी के लिए लागू है। क्योंकि कमोबेश सब एक-से ही हैं ।

आज भाई-बहन के पवित्र रिश्ते पर देश के सभी भाईयों को नमस्कार  और देश की सभी  बहनों को प्रणाम।

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #101 ☆ व्यंग्य – मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 101 ☆

☆ व्यंग्य – मुहल्ला लकड़गंज में धरम की हानी

मुहल्ला लकड़गंज शूरवीरों का मुहल्ला है। मुहल्ले की सबसे लोकप्रिय जगह नुक्कड़ पर बनी कलारी है। शाम को सात बजे के बाद मुहल्ले के साठ प्रतिशत वयस्कों के कदम उसी दिशा में जाते हैं।  जाते वक्त वे बहुत सामान्य, ढीले-ढाले और भीरु लोग होते हैं, लेकिन लौटते में वे दुनिया को ठेंगे पर रखते, देश के प्रधान-मंत्री से लेकर मुहल्ले के थानेदार तक को ललकारते लौटते हैं। फिर रात के बारह एक बजे तक ज़्यादातर घरों में धमाचौकड़ी मचती है, बर्तनों और चीज़ों की तोड़फोड़ होती है, उसके बाद बेहोशी की शान्ति छा जाती है।

यह कार्यक्रम और वीरता साल दर साल इसलिए चलती रहती है क्योंकि घरों की ज़्यादातर महिलाएँ धार्मिक प्रवृत्ति की हैं और उनको घुट्टी में पिलाया गया है कि पति भले ही दारू पीकर पूरे घर को सिर पर उठाता हो लेकिन वह दरअसल परमेश्वर है और उसकी पूजा फूल-पत्र को छोड़कर और किसी चीज़ से नहीं करनी है।

मुहल्ले के इन्हीं सूरमाओं की पहली पाँत में नट्टूशाह हैं। घर में बच्चे अभी इतने बड़े नहीं हुए कि उन्हें ठोक-पीट कर काबू में रख सकें, इसलिए शाम को पीने के बाद शेर बनकर दहाड़ने लगते हैं। तीन चार घंटे ऐसा नाटक करते हैं कि रोज़ मुहल्लेवालों का बिना टिकट भरपूर मनोरंजन होता है। गालियों में नाना प्रकार के प्रयोग करते हैं, रोज़ दो चार नयी गालियाँ रच लेते हैं। पूरे घर में खाना बिखेरते हैं, और फिर जो सोते हैं तो सबेरे दस बजे तक मुर्दे की तरह पड़े रहते हैं। मक्खियाँ उनके मुँह में अनुसंधान करती रहती हैं। पत्नी आजिज़ है।

एक रात नट्टूशाह रोज़ की तरह पीने के दैनिक कार्यक्रम के बाद अपनी पत्नी शीला देवी का जीना हराम कर रहे थे। उनका प्रिय शगल अपनी पत्नी के नातेदारों को रोज़ मौलिक गालियाँ देना था। शीला देवी सुनती रहती थीं और कुढ़ती रहती थीं।

उस रात शीला देवी परेशान होकर कह बैठीं, ‘बाप के घर में कभी ऐसा तमाशा नहीं देखा। कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसे लोगों के साथ जिन्दगी काटनी पड़ेगी।’

और बस नट्टूशाह शुरू हो गये। हाथ नचाते हुए बोले, ‘तुमने बाप के घर में देखा ही क्या था। वह फटीचर कंगाल बुड्ढा क्या दिखाएगा?’ फिर छाती ठोकते हुए बोले, ‘यह सब तो हम रईसों, दिलवालों के घर में देखने को मिलेगा। उस बुड्ढे चिरकुट के घर में क्या मिलेगा?’

स्त्रियाँ स्वभावतः मायके के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं। शीला देवी एड़ी से लेकर चोटी तक सुलग गयीं। बोलीं, ‘खबरदार जो मेरे बाप के बारे में कुछ ऐसा वैसा मुँह से निकाला।’

शीला देवी उस वक्त खाना बना रही थीं। नट्टूशाह उकडूँ बैठकर अपना चेहरा उनके चेहरे के पास लाकर बोले, ‘सच्ची बात सुनने में मिर्चें लगती हैं। हम रईसों के सामने उस बुड्ढे की क्या हैसियत है?कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली!’

क्रोध में शीला देवी का माथा घूम गया। हाथ में चिमटा था। दाँत पीसकर चिमटे को पतिदेव के मुँह की तरफ धकेल दिया। नट्टूशाह एक तो नशे में टुन्न थे, दूसरे वे उकड़ूँ बैठे थे। चिमटा अचानक ही रॉकेट की तरह उनके मुँह के सामने आ गया। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि यह स्त्री सदियों के पढ़ाये पाठ को भूलकर इस तरह पापाचार करेगी। शीला देवी फिर भी अपनी मर्यादा नहीं भूल पायीं, इसलिए चिमटा नट्टूशाह की ठुड्डी छूकर रह गया। लेकिन इस अचानक हमले से राजा भोज अपना सन्तुलन खोकर पीछे की तरफ उलट गये।

कुछ देर तक तो उन्हें समझ में ही नहीं आया कि यह क्या हो गया। सदियों की बनायी इमारत एक पल में ढह गयी। अविश्वास की स्थिति में वे चित्त पड़े, सिर को बार बार झटका देते रहे। फिर अपने को समेटकर जितनी जल्दी हो सका, उठे। भारी बेइज्जती हो गयी थी।

शीला देवी समझ गयीं कि पतिदेव अन्य कमज़ोर और खीझे पुरुषों की तरह उन पर हाथ उठाएंगे। उन्होंने चिमटे को अपनी रक्षा का हथियार बनाया। चिमटा मज़बूत, मोटा था। शराबियों से रक्षा के लिए काफी था। नट्टूशाह बार बार उनकी तरफ लपकते थे और वे बार बार चिमटा उनकी तरफ धकेल देती थीं। नट्टूशाह हर बार भयभीत होकर पीछे हट जाते थे। नशे के कारण हाथों पर इतना काबू नहीं था कि चिमटे को पकड़ कर छीन सकें। नशा इतना था कि एक की जगह तीन तीन चिमटे दिखते थे। एक को पकड़ते तो दो छूट जाते थे।

वे चार पाँच कोशिशों में थक गये।  बिस्तर पर लेट कर हाँफते हुए बोले, ‘हरामजादी, सबेरा होने दे। झोंटा पकड़कर घर से न निकाला तो कहना। फिर जाना उसी कंगाल बाप के पास।’

शीला देवी जानती थीं कि सबेरे नट्टूशाह सामान्य, पालतू गृहस्थ बन जाएंगे। वे निश्चिंत होकर लेट गयीं। कुछ देर तक पश्चाताप हुआ कि पति पर हाथ उठाया, फिर सोचा कि धमकाया ही तो है, मारा कहाँ है?अगर धमकाने से घर में शान्ति रहती है तो क्या बुरा है?’

सबेरा होते ही नट्टूशाह अपनी विशिष्टता खोकर एक मामूली इंसान और ज़िम्मेदार गृहस्थ बन गये। सारे काम ऐसे तन्मय होकर निपटाते रहे जैसे रात को कुछ हुआ ही न हो। लेकिन शाम होते ही कच्चे धागे से बँधे मैख़ाने में पहुँच गये। वहाँ पहुँचने के आधे घंटे के भीतर ही वे जार्ज पंचम बन गये। जिनके सामने दिन में मुँह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी उनका नाम लेकर  जी भरकर गालियाँ देते रहे और मन की भड़ास निकालते रहे।

लड़खड़ाते कदमों से घर की तरफ बढ़े कि एकाएक शीला देवी का चिमटा हवा में तैर गया। नट्टूशाह का आधा नशा उतर गया। लड़खड़ाते कदम अपने आप सध गये। अब घर पहले जैसा निरापद नहीं रहा। स्त्रियाँ धरम छोड़कर चलने लगें तो घर को नरक बनते कितनी देर लगती है?

आगे आगे उनके मित्र छैलबिहारी पूरी सड़क नापते जा रहे थे। बड़े ज्ञानी माने जाते थे। कलारी में दो पेग के बाद उनके श्रीमुख से ज्ञान के फुहारे छूटते थे। नट्टूशाह ने आवाज़ देकर उन्हें रोका, कहा, ‘दादा, आपसे एक जरूरी बात करनी थी। घर में कल रात बहुत अधरम की बात हो गयी। तब से दिमाग खराब है।’ उन्होंने रात की पूरी घटना सुनायी। फिर बोले, ‘आप सयाने आदमी हो। धरम करम वाले हो। थोड़ा चलकर उनको ऊँचनीच समझा दो। धरम के खिलाफ जाएंगीं तो उनका ही परलोक बिगड़ेगा।’

छैलबिहारी उनकी बात सुनकर एक मिनट सोच कर बोले, ‘भैया, ऐसा है कि आजकल की लेडीज़ का कोई भरोसा नहीं है। हम समझाने जाएंगे तो हो सकता है हमारी भी बेइज्जती हो जाए। आप उनके हज़बैंड हो, आप ही उन्हें समझाओ तो ठीक होगा। उन्हें बताना कि रामायन में लिखा है कि स्त्री के लिए पति के सिवा दूसरा देवता नहीं होता। पति की इंसल्ट करेंगीं तो एक दिन उसका दंड भुगतना पड़ेगा।’

इतना ज्ञान देकर छैलबिहारी लटपटाते हुए आगे बढ़ गये। नट्टूशाह झिझकते हुए घर में घुसे और कमरे में कुर्सी पर बैठ गये। शीला देवी आँगन में सब्ज़ी छीलने में लगीं थीं। पतिदेव को मौन बैठा देखकर समझ गयीं कि कल के चिमटा-प्रकरण का कुछ असर हुआ है।

थोड़ी देर विचार में डूबे रहने के बाद नट्टूशाह बाहर निकलकर पत्नी के पास पड़े स्टूल पर बैठ गये। उनके चेहरे को थोड़ी देर पढ़कर धीरे धीरे बोले, ‘देखो, कल आपसे बड़े अधरम की बात हो गयी। आप जानती हो कि शाम को हम जरा दूसरे मूड में रहते हैं,लेकिन आपको अपना धरम नहीं छोड़ना चाहिए था। शास्त्रों में पति को परमेश्वर का दरजा दिया गया है। हमसे गलती हो सकती है, लेकिन आपको अपने धरम से नहीं डिगना चाहिए। इसमें आपका बड़ा नुकसान हो सकता है।’

शीला देवी समझ गयीं कि पतिदेव की यह विनम्रता कल की घटना के कारण है और अब जीती हुई ज़मीन को छोड़ना मूर्खता होगी। वे गंभीर मुख बनाकर बोलीं, ‘यह परवचन हमें न सुनाओ। हम धरम अधरम समझते हैं। आप चाहते हो कि आप रोज हमारे मायके वालों को गालियाँ सुनाओ और हम बैठे बैठे सुनें, तो अब यह नहीं होगा। परलोक में हमसे जवाब माँगा जाएगा तो तुम्हारी करतूत भी तो बखानी जाएगी। सारा धरम हमारे ही लिए है, मर्दों का कोई धरम नहीं है क्या?’

नट्टूशाह लम्बी साँस लेकर खड़े हो गये। चलते चलते बोले, ‘भई, हम तो आपका भला चाहते हैं, इसलिए आपको समझाया। आपको अधरम के रास्ते पर चलना है तो चलिए। नतीजा आप ही भोगोगी,हमें क्या!अभी हम थोड़ा अन्दर लेटने जा रहे हैं। खाना बन जाए तो बुला लेना। हमें झगड़ा-फसाद पसन्द नहीं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 55 ☆ बुंदेली ग़ज़ल – बात करो … ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल    ‘काय रिसा रए। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 55 ☆ 

☆ बुंदेली ग़ज़ल – बात करो .. ☆ 

बात करो जय राम-राम कह।

अपनी कह औरन की सुन-सह।।

 

मन खों रखियों आपन बस मां।

मत लालच मां बरबस दह-बह।।

 

की की की सें का-का कहिए?

कडवा बिसरा, कछु मीठो गह।।

 

रिश्ते-नाते मन की चादर।

ढाई आखर सें धोकर-तह।।

 

संयम-गढ़ पै कोसिस झंडा

फहरा, माटी जैसो मत ढह।।

 

खैंच लगाम दोउ हातन सें

आफत घुड़वा चढ़ मंजिल गह।।

 

दिल दैबें खेन पैले दिलवर

दिल में दिलवर खें दिल बन रह।।

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 65 ☆ असहयोग की ताकत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “असहयोग की ताकत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 65 – असहयोग की ताकत

कर्म की ताकत से तो हम सभी परिचित हैं, पर क्या आपने कभी सोचा कि यदि लोग सहयोग करना बंद कर दें तो क्या होगा? जाहिर सी बात है कि प्रशासक की  तरक्की वहीं रुक जाएगी।  इसी बात को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन चलाया होगा। बिजीलाल जब तब समय का रोना, रोते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे, पर लोगों को उनका यह कदम कुछ अटपटा लगने लगा था। दरसल उनकी कार्यशैली ही ऐसी है कब किसको आसमान पर विराजित कर दे तो कब दूसरे को जमीन में पटक दें ये कोई नहीं जान सकता था। कुछ दिनों से उन्हें लोमड़ सिंह का सानिध्य मिलने लगा था, सो उनके तौर तरीके भी वैसे ही हो गए। अब ये दोनों मिलकर लोमड़ियों की तलाश में यहाँ -वहाँ तफरी करते नजर आने लगे। कुछ गुणीजनों ने जब ये मुद्दा उनके दरबार में उठाया तो समझाइश लाल ने धीरे से उनसे कहा, बगावत की बू आ रही है।

अब तो बिजीलाल अपने जोश में आकर कहने लगे बू हो या बदबू मुझे कोई फर्क न पहले पड़ा न अब पड़ेगा क्योंकि मैं तो अपने ही चिंतन में मस्त रहता हूँ। मैं तो आने वाले को जयराम जी व जाने वाले को राम भला करेंगे तो कह ही सकता हूँ। बस सत्ता के नशे में अपने समर्थकों के साथ वे आगे बढ़ ही रहे थे तभी एक लोमड़ी ने चालाकी दिखाते हुए उनकी कार्यशैली पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। अब तो उनके समर्थकों ने भी आवाज उठानी शुरू कर दी। ये सब देखकर सामान्य सदस्य भी असमान्य व्यवहार करने लगे।

सबने तय किया कि इनको सबक सिखाना ही होगा। असहयोग आंदोलन छिड़ चुका था। बस इसका नेतृत्व इस बार गुणी जन कर रहे हैं,  ये तो समय तय करेगा कि ऊट किस करवट बैठता है। वैसे बैठने- बिठाने की बात से याद आया कि बिजीलाल जी तो कर्मयोगी हैं उन्हें किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो रहेगा उसे ही प्रतिष्ठित करके अपना काम चला लेंगे। सबसे बड़ा झटका तो तब लगा जब उनके अंधसमर्थक इस चौपाई को रटने लगे –

कोउ नृप होय हमय का हानी।

चेरि छाड़ि न कहाउब रानी।।

ये सुन- सुनकर उनको समझ में आने लगा कि अब कि बार राह इतनी आसान नहीं होगी। लोगों को आँकने में उनसे चूक तो हो चुकी है। अब तो बस-

विधि का विधान जान, हानि लाभ सहिए।

जाहि विधि राखे राम, ताही विधि रहिए।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #100 ☆ व्यंग्य – स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 100 ☆

☆ व्यंग्य – स्वर्ग-प्राप्ति में पति की उपयोगिता

गुनवंती देवी पिछली शाम प्रवचन सुनने गयीं थीं। तभी से कुछ सोच में थीं। बार बार नज़र पति के चेहरे पर टिक जाती थी, जैसे कुछ टोह रही हों।

आखिर बोल फूटा, बोलीं, ‘मन्दिर में दो दिन से पुखराँय वाले पंडिज्जी का प्रवचन चल रहा है। कल कहने लगे, कितना भी भगवान की भक्ति और सेवा कर लो,स्त्री को पति की सेवा के बिना स्वर्ग नहीं मिल सकता। कह रहे थे पति के बिना स्त्री की कोई गति नहीं है।’

पतिदेव दाँत खोदते हुए अन्यमनस्कता से बोले, ‘अच्छा!’

गुनवंती देवी थोड़ा सकुचाते हुए बोलीं, ‘अब देखिए, स्वर्ग की इच्छा तो हर प्रानी को होती है। हम भी स्वर्ग जाना चाहते हैं। इसलिए हमने सोच लिया है कि अब मन लगाकर आपकी सेवा करेंगे और आपके आसिरवाद से स्वर्ग का प्रवेश पक्का करेंगे।’

पतिदेव घबराकर बोले, ‘अरे भई, अब तक तो तुमने कोई खास सेवा की नहीं है। दिन भर बातें ही सुनाती रहती हो। अब सेवा करने से पिछला कैसे पूरा होगा?’

गुनवंती देवी कुछ लज्जित होकर बोलीं, ‘हाँ जी, आप ठीक कहते हैं। अब तक तो आपकी कुछ खास सेवा नहीं हो पायी। अब वो अंगरेजी में कहते हैं न, ‘कंसेंट्रेटेड’ सेवा करेंगे तो पिछला भी पूरा हो जाएगा।’

फिर बोलीं, ‘अब हम सबेरे उठने पर और रात को सोते बखत आपके चरन छुएंगे। इससे काफी पुन्न मिलेगा। लेकिन आप अपने पैरों को थोड़ा साफ रखा करो। ऐसे ही गन्दे रखोगे तो हमें दूर से धरती छू कर ही काम चलाना पड़ेगा।

‘दूसरी बात यह है कि अब आपके नहाने के बाद बनयाइन वगैरा हमीं छाँटेंगे। लेकिन आप अपनी बनयाइन रोज बदल लिया करो। परसों हमने धोने के लिए डाली तो पसीने से इतनी गंधा रही थी कि हमें उबकाई आ गयी।’

पतिदेव पत्नी की मधुर बातें सुनते उन्हें टुकुर-टुकुर निहारते रहे।

गुनवंती देवी बोलीं, ‘अब जब आप खाना खाओगे तो हम बगल में बैठकर पंखा डुलाएंगे। हमारे पास पुराना बाँस का पंखा पड़ा है।’

पतिदेव बोले, ‘क्या करना है? सीलिंग फैन तो लगा है।’

गुनवंती देवी ने जवाब दिया, ‘सीलिंग फैन तो अपना काम करेगा, लेकिन उससे पुन्न थोड़इ मिलेगा। हम आपके खाने की मक्खियाँ भगायेंगे।’

पतिदेव बोले, ‘अपने घर में मक्खियाँ कहाँ हैं?’

गुनवंती देवी बोलीं, ‘नहीं हैं तब भी हम भगायेंगे। पुन्न तो मिलेगा।’ फिर बोलीं, ‘लेकिन जब हम पास बैठें तो डकार जरा कंट्रोल से लेना। ऐसे डकारते हो कि पूरा घर हिल जाता है।’

पतिदेव भावहीन चेहरा लिये उनके वचन सुनते रहे।

गुनवंती देवी बोलीं, ‘खाने के बाद हाथ हमीं धुलवायेंगे।’

पतिदेव भुनभुनाये, ‘वाश-बेसिन तो है।’

जवाब मिला, ‘वाश-बेसिन पर ही धोना, लेकिन हम जग से पानी डालेंगे। नल से नहीं धोना। हाथ धोने के बाद पोंछने के लिए हम तौलिया देंगे।’

गुनवंती देवी आगे बोलीं, ‘जब हम पूजा करेंगे तब आप बगल में बैठे रहा करो। पूजा के बाद आपकी आरती उतारकर तिलक लगाएंगे और प्रसाद खिलाएंगे। लेकिन आपको रोज नहाना पड़ेगा। अभी तो जाड़े में पन्द्रह पन्द्रह दिन बदन को पानी नहीं छुआते। गन्दे आदमी की आरती कौन उतारेगा?

‘रात में पाँव धो के सोओगे तो थोड़ी देर पाँव भी दबा दिया करेंगे। उसमें पुन्न का परसेंटेज बहुत ज्यादा रहता है।’

पतिदेव ने सहमति में सिर हिलाया।

अगले सबेरे से गुनवंती देवी का पति-सेवा अभियान शुरू हो गया। सबेरे पाँच बजे से पति को हिलाकर उठा देतीं, कहतीं, ‘उठो जी!बैठकर पाँव जमीन पर रखो। लेटे आदमी का पाँव छूना अशुभ होता है।’

पतिदेव चरणस्पर्श का पुण्यलाभ देकर फिर बिस्तर पर लुढ़क जाते। लेकिन उनका सुकून थोड़ी देर का ही रहता। फिर उठ कर नहा लेने के लिए आवाज़ लगने लगती। वे ऊँघते ऊँघते, मन ही मन पुखराँय वाले पंडिज्जी को कोसते, बाथरूम में घुस जाते।

गुनवंती देवी पति-परमेश्वर की आरती उतारतीं तो भक्ति के आवेग में आँखें मूँद लेतीं। परिणामतः पतिदेव को आरती की मार से अपनी ठुड्डी और नाक को बचाना पड़ता। कभी नाक में आरती का धुआँ घुस जाता तो छींकें आने लगतीं।

रात को गुनवंती देवी नियम से पति के पैर चाँपती थीं, लेकिन उनकी डाँट- फटकार से बचने के लिए पतिदेव को अपने पैर और तलुए रगड़ रगड़ कर धोने पड़ते थे। फिर भी सुनने को मिलता—‘हे भगवान, तलुए कितने गन्दे हैं!देखकर घिन आती है।’

पतिदेव का दोस्तों के घर रात देर तक जमे रहना बन्द हो गया क्योंकि गुनवंती देवी को दस बजे नींद आने लगती थी और सोने से पहले पाँव दबाने का पुण्य प्राप्त कर लेना ज़रूरी होता था। वे घड़ी देखकर एक आज्ञाकारी पति की तरह दस बजे से पहले घर में हाज़िर हो जाते। कभी देर तक बाहर रहना ज़रूरी हो तो पाँव दबवाकर फिर से सटक लेते थे।

इस तरह दो ढाई महीने तक गुनवंती देवी की ठोस पति-सेवा चली और इस काल में उन्होंने पर्याप्त पुण्य-संचय कर लिया। लेकिन इस पुण्य-दान में पतिदेव की हालत पतली हो गयी।

फिर एक दिन गुनवंती देवी पति से बोलीं, ‘कल बनारस के एक पंडिज्जी का प्रवचन सुना। उन्होंने समझाया कि परलोक सुधारने के लिए पति की सेवा जरूरी नहीं है। पति और गिरस्ती वगैरा तो सब माया हैं। भगवान की पूरी सेवा से ही स्वर्ग मिलेगा। इसलिए अब हम आपकी सेवा नहीं करेंगे। आपको जैसे रहना हो रहो। जब उठना हो उठो और जितने दिन में नहाना हो नहाओ।’

सुनकर पतिदेव की बाँछें खिल गयीं, लेकिन वे तुरन्त अपनी खुशी दबाकर, ऊपर से मुँह लटकाकर, बाहर निकल गये। उन्हें डर लगा कि उनकी खुशी पढ़कर कहीं गुनवंती देवी अपना फैसला बदल न दें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 99 ☆ व्यंग्य – अरे मन मूरख जनम गँवायो ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ अरे मन मूरख जनम गँवायो ‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 99 ☆

☆ व्यंग्य –  अरे मन मूरख जनम गँवायो

जैसे शादी-ब्याह, मुंडन-जनेऊ की एक निश्चित उम्र होती है, उसी तरह साहित्यकार का अभिनन्दन साठ वर्ष की उम्र प्राप्त करने पर ज़रूर हो जाना चाहिए। साठ पार करने के बाद भी अभिनन्दन न हो तो समझना चाहिए दाल में कुछ काला है, वैसे ही जैसे आदमी का ब्याह अट्ठाइस- तीस साल तक न हो तो लगता है कुछ गड़बड़ है। जो पायेदार, पहुँचदार और समझदार साहित्यकार होते हैं उनका अभिनन्दन साठ तक आते आते चार-छः बार हो जाता है। कमज़ोर और लाचार साहित्यकार ही अभिनन्दित होने के लिए साठ की उम्र तक पहुँचने का इन्तज़ार करते हैं।

मेरे जीवन का सबसे बड़ा दुख यही है कि साठ पार किये कई साल बीतने के बाद भी अब तक अभिनन्दन नहीं हुआ। जो तथाकथित मित्र हैं उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। दूसरे साहित्यकारों के मित्रों ने उन पर हजार हजार पृष्ठों के अभिनन्दन-ग्रंथ छपवा दिये। इन अभिनन्दन- ग्रंथों के लिखे जाने में अक्सर खुद साहित्यकार का काफी योगदान रहता है। वे ही तय करते हैं कि ग्रंथ में क्या क्या शामिल किया जाए और क्या शामिल न किया जाए, किससे लिखवाया जाए और किससे बचा जाए। आजकल दूसरे साहित्यकारों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। आप यह सोचकर निश्चिंत हो जाते हैं कि वे आपकी तारीफ के पुल बाँधेंगे, लेकिन जब ग्रंथ छप कर आता है तो पता चलता है कि जिन पर भरोसा किया था उन्होंने मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।

साठ पर पहुँचने से काफी पहले से मैं अपने तथाकथित दोस्तों की तरफ बड़ी उम्मीद से देखता रहा हूँ,लेकिन उन्होंने साठ पूरा करने की निजी बधाई देने और सौ साल तक ज़िन्दा रहने की शुभकामना देने में अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली। सवाल यह है कि बिना अभिनन्दन के सौ साल तक क्यों और कैसे जिया जाए?अभिनन्दन- विहीन ज़िन्दगी एकदम बेशर्मी की, बेरस ज़िन्दगी होती है। लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर और लानत है ऐसे दोस्तों पर। ऐसे दोस्तों से दुश्मन भले।

आपको रहस्य की बात बता दूँ कि मैंने दस-पन्द्रह हज़ार रुपये अपने अभिनन्दन  के खाते में डाल रखे हैं। कोई भरोसे का आदमी मिले तो उसे सौंपकर निश्चिंत हो जाऊँ। खर्चे के अलावा एक हज़ार रुपये अभिनन्दन के आयोजक को मेहनताने के दिये जाएंगे ताकि काम पुख्ता और मुकम्मल हो।

रकम प्राप्त करने से पहले मुझे आयोजक से कुछ न्यूनतम आश्वासन चाहिए। समाचारपत्रों और स्थानीय टीवी में भरपूर प्रचार होना अति आवश्यक है—अभिनन्दन से पहले सूचना के रूप में और अभिनन्दन के बाद रिपोर्ट के रूप में। स्थानीय अखबारों से मेरे मधुर संबंध हैं, उनका उपयोग किया जा सकता है।

कार्यक्रम में बोलने वाले कम से कम दस वक्ता होना चाहिए। उनका चुनाव मैं करूँगा। उनके अलावा कोई बोलने के लिए आमंत्रित न किया जाए, अन्यथा आयोजक को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। कार्यक्रम के बीच में बोलने के लिए अपनी चिट भेजने वालों को शंका की दृष्टि से देखा जाए।

कार्यक्रम में सौ, दो सौ श्रोता होना ही चाहिए, अन्यथा कार्यक्रम का कोई मतलब नहीं है। मुझे हाल में एक साहित्यिक कार्यक्रम का आमंत्रण मिला था जिसमें लिखा था कि सबसे पहले पहुँचने वाले पाँच श्रोताओं को पुरस्कार दिया जाएगा। मैंने अभिनन्दित की सूझ की दाद दी। क्या आइडिया है! मेरे कार्यक्रम में भी कुछ ऐसा ही किया जा सकता है। सबसे पहले पहुँचने वालों के अतिरिक्त सबसे अन्त तक रुकने वालों  को भी पुरस्कृत किया जा सकता है। मेरे पास अपनी लिखी किताबों की प्रतियाँ पड़ी हैं। वे पुरस्कार देने के काम आ जाएंगीं।

कार्यक्रम में कम से कम पचास मालाएँ ज़रूर पहनायी जाएं। इसमें बेईमानी न हो। ऐसा न हो कि दस बीस मालाओं को पचास बार चला दिया जाए। सभा में पचास आदमी ऐसे ज़रूर हों जो माला पहनाने को तैयार हों। यह न हो कि नाम पुकारा जाए और आदमी अपनी जगह से हिले ही नहीं। साहित्यकार राज़ी न हों तो कोई भी पचास आदमी तैयार कर लिये जाएं।

एक बात और। कार्यक्रम आरंभ होने के बाद आने जाने का एक ही दरवाज़ा रखा जाए और उस पर तीन चार मज़बूत आदमी रखे जाएँ, ताकि जो घुसे वह अन्त तक बाहर न निकल सके। जो भी बाहर निकलने को आये उसे ये तीन चार स्वयंसेवक विनम्रतापूर्वक हँसते हँसते पीछे की तरफ धकेलते रहें। चाय का भी एक बहाना हो सकता है। श्रोताओं को पीछे धकेलते समय कहा जाए कि बिना चाय पिये हम आपको बाहर नहीं जाने देंगे। ज़ाहिर है कि चाय कार्यक्रम के एकदम अन्त में ही प्रकट हो, जब कृतज्ञता-ज्ञापन की औपचारिकता हो रही हो।

पाँच-छः चौकस और मज़बूत टाइप के लोग श्रोताओं के इर्दगिर्द खड़े रहें ताकि कोई ‘हूटिंग’ न कर पाये। ’हूटिंग’ और आलोचना से मेरे कोमल साहित्यिक मन को धक्का लगता है। स्पष्ट है कि जब मेरे विरोधियों को बोलने का मौका नहीं मिलेगा तो वे ‘हूटिंग’ और हल्ला-गुल्ला मचाने की घटिया हरकत पर उतरेंगे। अतः उनकी छाती पर सवार रहना ज़रूरी होगा।

अभिनन्दन में होती देर से जब मन उदास होता है तो मन को यह कह कर समझा लेता हूँ कि हर महान आदमी के साथ ऐसा ही होता है। एक तो सामान्य और नासमझ लोग महानता को देर से पहचान पाते हैं। दूसरे, जो समझ पाते हैं वे दूसरे की महानता से जलते हैं। महानता को स्वीकार करने के लिए जो उदारता चाहिए वह उनमें कहाँ?इसलिए मुझे पूरा यकीन है कि अभिनन्दन में विलम्ब मेरी महानता का सबूत है।  ‘दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 64 ☆ राहत की चाहत ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “राहत की चाहत”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 64 – राहत की चाहत

मनमौजी लाल ने अपनी इमारत की नींव खोद कर सारे पत्थर एक- एक कर फेंक दिए। सुनते हैं कि उन्होंने पहले ही चार पिलर खड़े कर लिए थे। पर जल्दी ही पिलर आँखों में किरकिरी बन चुभने लगे। तभी उनकी नयी सलाहकार ने कहा  कि आजकल तो चार लोग काँधे के लिए भी नहीं चाहिए, अब सब आधुनिक तरीके से हो रहा है तो एक ही विश्वास पात्र बचाकर रखिए बाकी की छुट्टी करें। बात उनको सोलह आने सच लगी। भले ही वे अपनी पत्नी को मूर्ख समझते हों, किंतु बाहरी महिलाओं की पूछ परख करने में उन्हें महारत हासिल है। सबको सम्मान देते हुए विभिन्न पदों पर सुशोभित करते हुए चले जा रहे हैं।

मजे की बात ये है कि जब वे सीढ़ी चढ़ते, तो स्वयं  चढ़ जाते, पर ऊपर जाते ही सीढ़ी तोड़ देते, जिससे वहाँ कोई न पहुँच सके। जहाँ जो मिलता, उसी से काम चलाकर नई मंजिल का सफर तय करना उनकी आदत बन चुकी थी। इधर टूटा हुआ समान बटोरने वाले कबाड़ी उसी में जश्न मनाते हुए प्रसन्न होते। वैसे भी तोड़ – फोड़, जोड़ – तोड़ ये सब देखने वाले को भी आनन्दित करते ही हैं। असली कलाकारी तो ऐसी ही परिस्थितियों में देखने को मिलती है। ये क्रम अनवरत चलता जा रहा था तभी वहाँ सुखी लाल जी पहुँच गए  और राहत की खोज बीन करने लगे। सबने बहुत समझाया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा। आजकल सब कुछ डिजिटल है, फेसबुक और व्हाट्सएप पर ही पढ़ें- पढ़ाएँ। ज्यादा हो तो गूगल की शरण में पहुँचिए। यहाँ आए दिन तफरी करने मत आया करिए। यहाँ हम लोग रिमूवल रूपी अस्त्र लेकर बैठे हैं ज्यादा होशियारी आपको भारी पड़ेगी। जो मन हों लिखें पर पूछने आए तो छुट्टी निश्चित मिलेगी।

हम तो मनोरंजन हेतु लिखने- पढ़ने में जुटे हुए हैं। ज्यादा से ज्यादा स्वान्तः सुखाय तक ही हमारी पहुँच है। सो मूक बनकर देखते रहते हैं। हालांकि इस पंक्ति की याद आते ही मन विचलित जरूर होता है –

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र

जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।

राहत की खोजबीन में लगा हुआ व्यक्ति इधर से उधर डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भटक रहा है, पर हर जगह पॉलिटिक्स का कब्जा है। कोई किसी को आगे बढ़ने ही नहीं देना चाहता। सब मेरा हो इस सोच ने व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया है।

अब ये आप पर निर्भर है कि राहत आपको  कैसे और कहाँ मिलेगी।

चाहत सबकी बढ़ रही, राहत ढूंढ़े रोज।

बार- बार आहत हुए, रुकी न फिर भी खोज।।

बड़ी बोली वे बोलें।

राज अपने ही खोलें।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 98 ☆ व्यंग्य – टैक्नॉलॉजी के पीड़ित ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘ टैक्नॉलॉजी के पीड़ित‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 98 ☆

☆ व्यंग्य –  टैक्नॉलॉजी के पीड़ित

अफसर, कर्मचारी, चपरासी सब भारी दुखी हैं। यह तो बड़ी धोखाधड़ी हो गयी,हिटिंग बिलो द बैल्ट। आये, मुस्करा मुस्करा कर नोट दिये, और बिना जाने फोटू उतारकर चले गये, जैसे कोई चतुर चोर आँख से अंजन या दाँत से मंजन चुरा ले जाए। अब दो दिन बाद टीवी पर नोट समेटने के फोटू उतर रहे हैं, जैसे कपड़े उतर रहे हों। हद हो गयी भई, ऐसे ही चला तो आदमी का आदमी पर से भरोसा उठ जाएगा। ऐसे शत्रु-समय में रिश्वत लेने का जोखिम कौन उठाएगा, और रिश्वत बन्द हो गयी तो काम का क्या होगा? बिना ‘इन्सेन्टिव’ के कौन काम करेगा? सब के बाल-बच्चे हैं।

पूरे दफ्तर में अफरातफरी और हड़कम्प है। जिनके फोटू नहीं उतरे वे दौड़कर नुक्कड़ के मन्दिर में नारियल चढ़ा आये हैं। अच्छा हुआ कि उस दिन पत्नी की टाँग टूटने के कारण छुट्टी पर थे वर्ना—-। वाइफ के फ्रैक्चर्ड फुट की जय। भगवान ने बचा लिया। जय जय जय हनुमान गुसाईं।

एक अफसर टीवी पर भोलेपन से कहते हैं, ‘हमने तो उधार दिये थे, वही वापस लिये थे।’

चैनल का प्रतिनिधि पूछता है, ‘किस से वापस लिये थे?’

जवाब मिलता है, ‘अब यह तो चेहरा देख कर ही बता सकते हैं। आप चेहरा दिखा दीजिए तो हम बता देंगे।’

प्रतिनिधि पूछता है, ‘आप क्या दफ्तर में उधार लेने-देने का काम करते हैं?’

बड़ा मासूम सा जवाब मिलता है, ‘नईं जी। कभी कभी देना पड़ता है। किसी पहचान वाले को डिपार्टमेंट में जमा करने के लिए पैसे कम पड़ जाएँ तो वह किससे माँगेगा? यह तो इंसानियत का तकाज़ा है। आख़िर हम भी इंसान हैं जी।’

पूरे डिपार्टमेंट में भुनभुन मची है। जहाँ देखो गोल बनाकर लोग फुसफुसा रहे हैं, जो फँसे हैं वे भी, और जो नहीं फँसे हैं वे भी। भई हद हो गयी। पानी सर के ऊपर चढ़ गया। यानी कि प्राइवेसी नाम की चीज़ रह ही नहीं गयी। कल के दिन पता चलेगा कि हमारे बाथरूम और बेडरूम के भीतर के फोटू भी उतर गये। दिस इज़ टू मच। मीडिया मस्ट बी केप्ट विदिन लिमिट्स।

अफसरों और कर्मचारियों की जो बीवियाँ रोज़ की ऊपरी कमाई से साड़ियाँ और ज़ेवर खरीदती रही हैं, वे भारी कुपित हैं।’झाड़ू मारो ऐसे मीडिया को। मेरे घर आयें तो बताऊँ। सारा फोटू उतारना भूल जाएंगे। दूसरे का सुख नहीं देखा जावै ना!बड़े दूध के धुले बने फिरते हैं।’

एक छोटे अफसर आला अफसर के सामने रुँधे गले से कह आये हैं—-‘सर, ऐसइ होगा तो हम तो अपने बाल-बच्चों को आपके चरनों में पटक जाएंगे। ऐसी हालत में कोरी तनखाह में घर का खरचा कैसे चलाएंगे?’

बड़े साहब ने पूरे डिपार्टमेंट की मीटिंग बुलायी है। जो जो फँसे हैं वे सिर झुकाये बैठे हैं। जो नहीं फँस पाये वे गर्व से सब तरफ गर्दन घुमा रहे हैं। साहब थोड़ी देर तक ज़मीन का मुलाहिज़ा करने के बाद चिन्तित मुद्रा में सिर उठाते हैं, कहते हैं, ‘यह दिन डिपार्टमेंट के लिए शर्म का दिन है। आप लोगों ने हमारी नाक कटा दी।’

आरोपी नज़र उठाकर साहब के चेहरे की तरफ देखते हैं। नाक तो बिलकुल साबित है। साहब कहते हैं, ‘मुझे इस बात का ज़्यादा अफसोस नहीं है कि आप लोगों ने गलत काम किया। ज़्यादा अफसोस इस बात का है कि आप गलत काम करते पकड़े गये और आपने फोटो भी खिंचने दिया। अब पूरे मुल्क में हमारी थू थू हो रही है।’

कुछ देर सन्नाटा। झुके हुए सिर और झुक गये हैं। जो छोटे साहब अपने बाल-बच्चों को बड़े साहब के चरनों में पटकने की कह आये थे वे धीरे धीरे उठ कर खड़े हो जाते हैं। कहते हैं, ‘सर, हम इस बात को लेकर बहुत लज्जित हैं कि हम पैसा लेते फोटू में आ गये। लेकिन मेरा निवेदन यह है कि इस के लिए आज की टैकनालॉजी जिम्मेदार है। आज टैकनालॉजी इतनी बढ़ गयी है कि आदमी को पता ही नहीं चलता और उसकी फोटू उतर जाती है। इसलिए जो कुछ हुआ उसमें कसूर हमारा नहीं, टैकनालॉजी का है। हम करप्ट नहीं हैं, नयी टैकनालॉजी के सताये हुए हैं।’

सब फँसे हुए लोग यह तर्क सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं। क्या बात कही पट्ठे ने! अपराध- बोध और शर्म तत्काल आधी हो जाती है।

साहब सहमति में सिर हिलाते हैं, कहते हैं, ‘यू आर राइट। द होल प्राब्लम इज़ कि आज टैक्नॉलॉजी बहुत तेजी से बढ़ रही है और हम उसके साथ कदम मिलाकर नहीं चल पा रहे हैं। इसीलिए सारी गड़बड़ियाँ पैदा होती हैं। हमें आज की तब्दीलियों के हिसाब से अपने को एडजस्ट करना चाहिए। इसी को मैनेजमेंट की ज़बान में मैनेजमेंट ऑफ चेंज कहते हैं। लेकिन आपकी गलती यह है कि यू वर नॉट एनफ केयरफुल। आप सावधान होते तो यह घटना न घटती और डिपार्टमेंट को जिल्लत न उठानी पड़ती।’

छोटे साहब कहते हैं, ‘हम अपनी गलती मानते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं कि आगे हम इतनी सावधानी से काम करेंगे कि कोई हमारी फोटू न उतार सके। हम टैकनालॉजी की चुनौती को स्वीकार करते हैं। हम भी देखेंगे कि इस लड़ाई में टैकनालॉजी जीतती है या आदमी जीतता है। फिलहाल आपसे निवेदन है कि स्थिति को सुधारने की दिशा में तत्काल यह व्यवस्था कर दी जाए कि फालतू लोग डिपार्टमेंट में प्रवेश न कर सकें। यह बहुत जरूरी है।’

साहब उठते उठते कहते हैं, ‘ठीक है, मैं इन्तज़ाम करता हूँ। अब आप लोग अपने काम में लग जाएं।’

सब अधिकारी-कर्मचारी निश्चिंत और प्रसन्न मन से उठकर अपनी अपनी सीट पर पहुँचते हैं और निष्ठापूर्वक अपने काम में लग जाते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य-कथा ☆ सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ व्यंग्य- कथा – सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

इतवार की छुट्टी थी। यूँ  ही घूमने के लिये  बाहर निकल पड़ा । रास्ते में शरद मिला। बहूत दिन के बाद भेट हुई थी। शरद मेरा जिगरी दोस्त है। स्कूल, कॉलेज में हम दोनों की पढ़ाई  एक साथ हुई थी। आज-कल घर-गृहस्थी की व्यस्तता और रोजी-रोटी के चक्कर में बार बार मिलना नही होता था।

शरद ने कहा,  ‘बहुत दिन के बाद मिल रहा है यार… चलो। घर चलेंगे। चाय की चुस्कियाँ लेते लेते बातें करेंगे।‘ मुझे कुछ खास काम नहीं था, सो उस के साथ चल पड़ा।

शरद हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहता है। आज-कल, एक अच्छे लेखक के रूप में  उसका अच्छा नाम था। नवाजा जा रहा था।

शरद के ड्रॉईंग रूम में जैसे ही कदम रखा, सामने की दीवार पर लगी हुई शो केस पर नज़र टिकी। उस में आठ-दस सन्मानचिन्ह सजा कर रखे थे। मैं ने नज़दीक जाकर देखा, ‘अक्षर साहित्य संस्था’, ‘अमर साहित्य संस्था’,  ‘चिरंजीव साहित्य संस्था’ ऐसे ही विभिन्न संस्था द्वारा दिए हुए सन्मानचिन्ह थे। मैंने शरद से गुस्से से कहा, ‘तुम्हारे इतने सन्मान समारोह हुए, एक बार भी मुझे नहीं बुलाया। मैं आता न तालियाँ बजाने के लिए। सामने बैठकर खूब तालियाँ पीटता।‘

उस नें कहा, ‘समारोह हुआ ही नहीं।‘

‘फिर? उन्होँ नें आपको ये सन्मानचिन्ह बाय पोस्ट भेजे? या फिर कुरियरद्वारा या बाय हॅन्ड?’ हैरान हो कर मैंने पूछा।

‘नहीं… वैसा नहीं है…’

‘फिर?…’

‘संस्था की इच्छानुसार मैं नें ये स्वयं ही बना लिये ?’

बात कोई मेरे पल्ले नहीं पड़ी। ‘ वो कैसे ?’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी।

शरद ने वहां रखे हुए टेबुल के खाने से एक फाईल निकाली। उसमें से एक कागज निकाल कर  मेरे हाथ में थमा दिया और एक सन्मानचिन्ह की ओर निर्देशित करते हुए कहा, ‘अक्षर साहित्य संस्थ्या’ का यह सन्मानचिन्ह और यह उन का पत्र।‘

मैंनें पत्र पढ़ना शुरू किया। उस में लिखा था, ‘आपकी साहित्य सेवा के लिए हम आप को सन्मानित करते हुए, आप को, संस्था के वर्धापन दिन के अवसर पर पुरस्कार देना चाहते है। पुरस्कार में आप को शाल, श्रीफल, सन्मानचिन्ह और नगद  ५००० रुपये की राशि दी जाएगी। कृपया अपनी स्वीकृती के बारे में तुरंत लिखे।’

‘फिर?’ मैं नें बेसब्री से पूछा।

‘मैं नें अपना स्वीकृति पत्र तुरंत भेजा।‘

‘फिर?’ मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी।

‘रात को संस्था के अध्यक्ष महोदय जी का फोन आया, ‘आप बीस हजार का चेक भेज कर संस्था के संरक्षक सदस्य बन जाए, तभी हम आप को पुरस्कृत कर सकते है।‘

‘सोचा, इतने सारे पैसे कहां से लाये? किन्तु संस्था की इच्छा है मुझे सन्मानित करने की, तो क्यौं न उन की इच्छा का आदर किया जाय? और मैंने उन के नाम का यह सन्मानचिन्ह बना लिया।‘

वह कहता जा रहा था, ‘ ये देख और निवेदन पत्र… विभिन्न साहित्य संस्थाओं द्वारा मिले हुए।

फर्क इतना ही है की हर संस्था नें अलग अलग कीमत की राशि मंगवाई है और वह अलग अलग पद देना चाहती है, जैसे संस्था का आजीवन  सदस्यत्व, कही संस्था का अध्यक्षपद, कही विश्वस्त…. जब इस तरह का निवेदन पत्र आता है, तब मैं उस संस्था के नाम से सन्मानचिन्ह बनवा लेता हूँ। उन का निवेदन पत्र इन सन्मानचिन्हों का आधार है और यह काम उन की अपेक्षा से बहुत ही कम खर्चे में होता है।‘

और हम ठहाके मार मार कर हँसने लगे।

©  उज्ज्वला केळकर

संपर्क – १७६/२ ‘गायत्री प्लॉट नं १२ , वसंत दादा साखर कामगार भवन के पास, सांगली ४१६४१६ महाराष्ट्र मो. 9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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