हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 201 ☆ बाल गीत – गुड़ होता है सबसे अच्छा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 201 ☆

बाल गीत – गुड़ होता है सबसे अच्छा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सोच समझ कर चीनी खाना

गुड़ होता है अच्छा।

नहीं समझ जल्दी आया तो

पछताओगे बच्चा।।

 *

कैल्शियम चीनी खा जाती।

हड्डी को कमजोर बनाती।

चाय गैस सँग कब्ज बढ़ाती।

आलस से मित्रता कराती।

 *

गन्ने का रस पर शक्ति बढ़ाए।

तन रखना मजबूत अगर तो

गन्ना चूसो कच्चा।।

 *

नहीं रोज खा बर्फी ,रसगुल्ला।

कभी – कभी बस खाना लल्ला।

फल खाना पर मत खा भल्ला।

फास्ट फूड करता मोटल्ला।

 *

जूस फलों का नरियल पानी

इनको मित्र बना ले सच्चा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #227 – बाल गीत – ☆ पुस्तक मेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम बाल गीत  पुस्तक मेला…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #227 ☆

☆ बाल गीत – पुस्तक मेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी

बात हमारी मान के उनने

किया हुआ है वादा जी।

 

किया आज ही जाना तय है

राघव, हर्षल साथ में

दादाजी ने सूची बनाकर

रख ली अपने हाथ में,

जी भर आज किताबें लेंगे

हम ज्यादा से ज्यादा जी।

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी।।

 

सदाचरण, आदर्श ज्ञान की

कुछ विज्ञान की नई किताबें

कुछ कॉमिक्स कहानी कविता

जो मन में सद्भाव जगा दे,

सोच समझकर चयन करेंगे

अब न रहे, हम नादां जी।

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी।।

 

दादा जी ने भी खुश होकर

अपना बटुआ खोला है

हमने भी अपने गुल्लक को

तह तक आज तक टटोला है,

पढ़ लिख, उच्च विचार रखें

पर, जीवन तो हो सादा जी।

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ झुलसाते दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झुलसाते दिन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ झुलसाते दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

 धूल उड़ाते आँधी पाले 

 फिर आ पहुँचे झुलसाते दिन ।

 

 ख़त्म परीक्षा बैग टँगे

 खूँटी पर सब 

 निकल पड़े टोली के सँग

 लो बच्चे अब 

 

 हँसी ठिठोली मस्ती वाले 

 इतराते कुछ इठलाते दिन ।

 

 सुबह बिछी आँगन में 

 तपती दोपहरी 

 शाम ज़रा सी नरम 

 रात है उमस भरी 

 

 गरमी के हैं खेल निराले 

 आलस भरते तरसाते दिन ।

 

 चलो किसी पर्वत पर 

 खुशियाँ बिखराएँ 

 पढ़ें प्रकृति का पाठ 

 फूल से मुस्काएँ

 

 किलकारी से रचें उजाले 

 गंध सुवासित महकाते दिन ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – औरत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  औरत ? ?

मैंने देखी,

बालकनी की रेलिंग पर लटकी

खूबसूरती के नए एंगल बनाती औरत,

मैंने देखी,

धोबीघाट पर पानी की लय के साथ

यौवन निचोड़ती औरत,

मैंने देखी,

कच्ची रस्सी पर संतुलन साधती

साँचेदार, खट्टी-मीठी औरत,

मैंने देखी

चूल्हे की आँच में

माथे पर चमकते मोती संवारती औरत,

मैंने देखी,

फलों की टोकरी उठाये

सौंदर्य के प्रतिमान लुटाती औरत..,

अलग-अलग किस्से

अलग-अलग चर्चे

औरत के लिए राग एकता के साथ

सबने सचमुच देखी थी ऐसी औरत,

बस नहीं दिखी थी उनको,

रेलिंग पर लटककर

छत बुहारती औरत,

धोबीघाट पर मोगरी के बल पर

कपड़े फटकारती औरत,

रस्सी पर खड़े हो अपने बच्चों की

भूख को ललकारती औरत,

गूँधती-बेलती-पकाती

पसीने से झिजती

पर रोटी खिलाती औरत,

सिर पर उठाकर बोझ

गृहस्थी का जिम्मा बँटाती औरत..,

शायद

हाथी और अंधों की कहानी की तज़र्र् पर

सबने देखी अपनी सुविधा से

थोड़ी-थोड़ी औरत,

अफसोस-

किसीने नहीं देखी एक बार में

पूरी की पूरी औरत!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई“)

✍ मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

इधर उधर की न बातों में वक़्त ज़ाया करो

पते की बात जो है सीधे उसपे  आया करो

 *

अगर है क़द तेरा बरगद सा तो ये ध्यान भी रख

मुसाफिरों के परिंदों के सिर पे साया करो

 *

बनाते लोग कहानी नई सुनें जो भी

गिले जो मुझसे है वो मुझको ही सुनाया करो

 *

रकीब को दो तबज़्ज़ो मेरे ही सामने तुम

सितम गरीब पे ऐसे सनम न  ढाया करो

 *

दिखाता राय शुमारी का क्यों  तमाशा ये

पसंद अपनी बताओ न यूँ घुमाया करो

 *

मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई

जमीन ज़र न बुजुर्गों की यूँ घटाया करो

 *

भरो न कान किसी के भी चुगलियाँ करके

बुरी है लत ये बने काम मत नशाया करो

 *

जुए की लत है बुरी कौन  बन सका टाटा

कमाया खूँ जो पसीने से मत लुटाया करो

 *

कमी जो अपनी  छुपाया है झूठ से बेटा

हरेक बात पे बेटे की शक़ न लाया करो

 *

बदल रहा है समय छूट चाहते बच्चे

जरा सी बात है घर सिर पे मत उठाया करो

 *

गिराने वालों की कोई कमी नहीं है कहीं

बड़ी है बात गिरे को अगर उठाया करो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 50 – पास से, जब तू गुजर जाता है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पास से, जब तू गुजर जाता है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 50 – पास से, जब तू गुजर जाता है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

पास से, जब तू गुजर जाता है 

पाँव तब मेरा बहक जाता है

*

तुम जो झूठे ही रूठ जाते हो

मेरा दम सच में निकल जाता है

*

मेरी मंजिल करीब है लेकिन 

फासला और भी बढ़ जाता है

*

उसके आने से फूल खिलते हैं 

फिर भी आने से वह लजाता है

*

इत्र जब तुम वहाँ लगाते हो

गाँव खुशबू से महक जाता है

*

मेरा मंदिर, यहीं-कहीं होगा 

रास्ता, तेरे ही घर जाता है

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 126 – पीर थक कर सो गई है… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “पीर थक कर सो गई है…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 126 – पीर थक कर सो गई है… ☆

 पीर थक कर सो गई है,

प्रिय उसे तुम मत जगाओ।

हो सके तो थपकियाँ दे,

प्रेम की लोरी सुनाओ।।

 *

वेदनाओं की तरफ से,

अब नहीं आता निमंत्रण।

द्वार से ही लौट जाता,

हो गया दिल पर नियंत्रण।।

 *

अब नहीं संधान करता,

फिर न उसको तुम बुलाओ।

पीर थककर सो गई है,

प्रिय उसे तुम मत जगाओ।।

 *

वक्त कितना था बिताया,

उन मुफलिसी के दौर में,

झूलता ही रह गया था।

तब स्वप्नदर्शी जाल में,

 *

फिर मुझे उस पालने में।

अब नहीं किंचित झुलाओ।

पीर थक कर सो गई है।

प्रिय उसे तुम मत जगाओ ।।

 *

सुख सदा शापित रहा है,

द्वार पर आई न आहट।

आ गया था संकुचित मन

धर अधर पर मुस्कुराहट।

 *

जो विदा लेकर गया फिर,

उस खिन्नता को मत बुलाओ।

पीर थक कर सो गई है।

प्रिय उसे तुम मत जगाओ ।।

 *

पीर होती है घनेरी,

भावनाओं के सफर में।

वर्जनाएँ खुद लजातीं,

अश्रु धारा की डगर में।।

 *

देखने दो पल सुनहरे,

अब दृगों को मत रुलाओ।

पीर थककर सो गई है।

प्रिय उसे तुम मत जगाओ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व पृथ्वी दिवस विशेष – हरी-भरी🌱 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजीवनी लाकर मूर्च्छा को चेतना में बदलने वाले प्रभु हनुमान को प्रणाम। श्री हनुमान प्राकट्योत्सव की हार्दिक बधाई। ?

? संजय दृष्टि – विश्व पृथ्वी दिवस विशेष – हरी-भरी🌱? ?

🌳 माटी से मानुष तक इस हरियाली की रक्षा करें। विश्व पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएँ 🌳

🌳

मैं निरंतर रोपता रहा पौधे,

उगाता रहा बीज उनके लिए,

वे चुपचाप, दबे पाँव

चुराते रहे मुझसे मेरी धरती..,

भूल गए वे, पौधा केवल

मिट्टी के बूते नहीं पनपता,

उसे चाहिए-

हवा, पानी, रोशनी, खाद

और ढेर सारी ममता भी,

अब बंजर मिट्टी और

जड़, पत्तों के कंकाल लिए,

हाथ पर हाथ धरे

बैठे हैं सारे शेखचिल्ली,

आशा से मुझे तकते हैं,

मुझ बावरे में जाने क्यों

उपजती नहीं

प्रतिशोध की भावना,

मैं फिर जुटाता हूँ

तोला भर धूप,

अंजुरी भर पानी,

थोड़ी- सी खाद

और उगते अंकुरों को

पिता बन निहारता हूँ,

हरे शृंगार से

सजती-धजती है,

सच कहूँ, धरती ;

प्रसूता ही अच्छी लगती है!

🌳

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 186 – शब्द दीप… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – शब्द दीप।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 186 – शब्द दीप… ✍

मुट्ठियों से फिसली रेत की तरह

 फिसल गई एक सदी,

 बह रही है

एहसास की नदी ,

और मैं

नदी को भेंट कर रहा हूँ

अपने शब्द दीप

, मेरे शब्द दीप

लहरों की नाव पर

जाना उसे तट तक

जो मेरे लिए अगम्य  है ,

शायद वहां

उदासी का अंधेरा हो

और सन्नाटा

प्रतीक्षा बुन रहा हो।

ओ मेरे शब्द,

 तुम मोर पंख की तरह

 हौले से बुहारना,

अधरो का आंगन

अँजुरी में सहज लेना नयन जल

यहाँ खिल उठेगा

मेरे मन का शतदल कमल

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 187 – “बहुत गहरे तैरते…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  “बहुत गहरे तैरते...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 187 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “बहुत गहरे तैरते...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

कैसे क्या खुद से

यहाँ ऊबे पिता जी ।

सुबह से अखवार

में डूबे पिताजी ॥

 *

बहुत गहरे तैरते

तल्लीन दिखते ।

साथ में अखवार

पर कुछ रहे लिखते ।

 *

जिन्दगी के अनुभवों

के संकलन ।

फलसफे संभाव्य –

मंसूबे पिताजी ॥

 *

थे बड़ी बर्दाश्त की

क्षमता निरंतर ।

दृढ़ सदा होती रही

जो आभ्यंतर ।

 *

यों सदा साहस व

मर्यादा समेटे,

भय रहित संकोच

के सूबे पिताजी ।

 *

वे रहे संघर्ष के

पर्याय शायद ।

रहे लड़ते दिलाने

को न्याय शायद ।

 *

वे नये सन्दर्भ में

पुरुषार्थ थे ।

नाम से थे निरंजन

दूबे पिताजी ।

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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