हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 59 ☆ ग़ज़ल – फ़ागुन में रंग… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण ग़ज़ल – “फ़ागुन में रंग”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 59 ✒️

?  ग़ज़ल – फ़ागुन में रंग… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

फ़ागुन में रंगों की नज़ाकत न पूछिए।

दिल से मिले हैं दिल नफ़ासत न पूछिए।।

अलसाए हुए तन की क्या मिसाल दें।

बिजली भरी नज़र की ये हालत नपूछिए।।

होंठ हैं टेसू से गालों पे रंग गुलाल ।

अल्लाह रे आज हुस्न की रंगत न पूछिए।।

बौरा गए हैं आम भी कोयल के भाग से।

इस फ़ागुनी फ़िज़ा की शरारत न पूछिए।।

रंगों की ये फ़ुहार तन मन भिगो गई।

साड़ी के भीगने की अलामत न पूछिए।।

दिनभर की थकावट को पहलू में साजन की।

सलमा गई है भूल कैसे न पूछिए।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “जिंदगी एक सवाल” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ कविता ☆ “जिंदगी एक सवाल” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

जिंदगी कभी कुछ देती नही है

जिंदगी बस सवाल खड़े करती है

अगर खोज पाओ सही जवाब

जन्नत अपने आप खुल जाती है ।

 

ये ऐसा क्यों है?

इसमें ऐसा क्या है?

ये मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?

इनका भी एक जवाब होता है ।

 

जब लगे मुझमें कमी क्या है?

यही जवाब की शुरुआत होती है

हमेशा बड़ा रखिये  दिल को

जवाब अक्सर लंबा होता है ।

 

जो हो खोजकर्ता खुद का

जवाब हो सरल उसका

जो हो वैज्ञानिक दूसरों का

लंबा हो सवाल उसका ।

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 73 – एक गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “एक गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 73 – एक गीत – लाल किले पर खड़ा तिरंगा… ☆

लाल किले पर खड़ा तिरंगा,

बड़े शान से लहराता।

आजादी की गौरव गाथा,

स्वयं देश को बतलाता।

त्याग और बलिदान कहानी ,

जन-जन तक है पहुँचाता।

गांधी जी का सत्याग्रह हो,

चन्द्रशेखर का शंखनाद।

भगत सिंह का फाँसी चढ़ना ,

नेता जी का क्रांतिनाद।

अहिंसावाद क्रांतिवाद का ,

फर्क नहीं कुछ बतलाता ।

सावरकर की अंडमान का ,

चित्र उभरकर छा जाता।

विस्मिल तिलक खुशीराम का ,

पन्ना पुनः पलट जाता ।

सबने मिलकर लड़ी लड़ाई,

गौरव गाथा कह जाता।

कितने वीर सपूतों ने हँस,

फाँसी का फंदा झूला ।

कितनों ने खाईं हैं गोली ,

ना उपकारों को भूला ।

अमर रहे बलिदान सभी का,

इसका मतलब समझाता ।

सबसे ऊपर केसरिया रंग ,

बलिदानी गाथा लिखता।

बीच श्वेत रंग लिए हुए वह,

शांतिवाद जग को कहता।

हरा रंग वह हरितक्राँति को,

पावन सुखद बना जाता ।

कीर्ति चक्र को बीच उकेरा,

प्रगतिवाद का है दर्शन।

उन्नति और विकास दिशा में ,

हित सबका है संवर्धन।

तीन रंग से सजा तिरंगा,

यह संदेश सुना जाता।

अमरित पर्व महोत्सव आया,

घर घर झंडे लहराना ।

सबको आजादी का मतलब ,

प्रेम भाव से समझाना ।

छोड़ सभी सत्ता का लालच,

कर्तव्यों को बतलाता ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रंग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – रंग ??

रंग मत लगाना

मुझे रंगों से परहेज़ है;

उसने कहा था,

अलबत्ता

उसका चेहरा

चुगली खाता रहा,

आते-जाते;

चढ़ते-उतरते;

फिकियाते-गहराते;

खीझ, गुस्से,

झूठ, दंभ,

दिवालिया संभ्रांतपन के

अनगिनत रंग

जताता रहा,

मैं द्रवित हो उठा,

विसंगति उसे क्या बताऊँ

जो रंगों में आकंठ डूबा हो

उसे और रंग क्या लगाऊँ..?

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 130 – आकुल है मन… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – आकुल है मन।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 130 – आकुल है मन…  ✍

आकुल है मन

तुमसे कुछ कहने को

आवारा मेघदूत कहना मत रुकने को।

 

दिखती है भीड़ भाड़

कुछ नहीं नया

चेहरे पर एक नाम तैरता गया।

सोचा मैंने अभी और कितना है सहने को।

 

कभी कभी लगता है।

छूट कुछ गया

और कभी लगता है

टूट कुछ गया।

 

शायद ये साँसे हैं, और और दहने को।

 

बहुत याद करता हूँ

कहना है क्या?

भूल नहीं पाता हूँ, घटित वाकया।

शब्दों के शिलाखण्ड आकुल है बहने को।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 129 – “सूरज की किरणों को पकडे त्र-टतु…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  सूरज की किरणों को पकडे त्र-टतु)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 129 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

सूरज की किरणों को पकडे त्र-टतु… ☆

स्वास्तिक बना द्वारे

चून का

वाकया रहा यह

मई जून का

 

घर का बस

परिचय था  सूनापन

रहे, यही चाहत

थी अपनापन

 

बाहर मैदान में

रहा बिखरा

जैसे चावल

देहरादून का

 

सूनी सड़को पर

जो वस्ती  थी

उसमें दुर्भिक्ष सी

ग्रहस्थी भी

 

सूरज की किरणों

को पकडे त्र-टतु

ढूँड रही पता

मानसून का

 

कहीं सहम जाते

विचारो सी

नकली सामान के

प्रचारो सी

 

जिसके घर वार में

था दिखा हमें

खाली गोदाम

कोई ऊन का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-03-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 120 ☆ # इतिहास… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर विशेष कविता “# इतिहास… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 119 ☆

☆ # इतिहास… # ☆ 

अरावली की पहाड़ियों में

गाईड के साथ घूमते हुए

हमने देखा प्राचीन किलों को

गगन को चूमते हुए

कितने कुशल कारीगरों ने

अपना कौशल दिखाया है

दुर्गम पहाड़ियों को काटकर

अद्भुत  किला बनाया है

पत्थर, चूना, गोंद से

क्या सुंदर इमारत बनाई है

जो सदियां बीत जाने पर भी

आज भी शान से लहराई है

क्या कारीगरी, इंजीनियरिंग है

जो आज भी अबूझ, विशालकाय

अप्रतिम, अवर्णनीय है

लेक, झरने, नयनाभिराम झीलें है

पर पानी के स्त्रोत का पता नहीं है

सारी झीलें, तालाब

पानी से लबालब है

जहां मनुष्य की सत्ता नहीं है

हर पत्थर जैसें कुछ बोलता है

अपने इतिहास को बतलाने

मुंह खोलता है

उन्हें अपने खंडहरों पर

आज भी गौरव, सम्मान है

अपने शौर्य, पराक्रम पर

प्रचंड पौरूष और मान है

बीते हुए कल की यह बेजोड़

भव्य कलाकृतियां

आज के युग में हमारी धरोहर हैं

हमारी शान, मान और इतिहास है

जिनकी गौरव गाथाएं

गाई जाती आज भी घर घर है/

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 129 ☆ सॉनेट – शारदा वंदना – ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित  सॉनेट “~ शारदा वंदना ~”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 130 ☆ 

सॉनेट ~ शारदा वंदना ~ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आँख खुली तब, चोट लगी जब

मन सितार का तार बना बज

शारद के चरणों की पा रज

रतब करते, मौन न कर तब

ढीला बेसुर, कसा टूटता

राग-विराग रहे सम मैया!

ले लो कैंया, दो निज छैंया

बीजांकुर पा नमी फूटता

माता! तुम ही भाग्य विधाता

नाद-ताल-ध्वनि भाषा दाता

जन्म जन्म का तुमसे नाता

अँखियाँ छवि-दर्शन की प्यासी

झलक दिखाओ श्वास-निवासी!

अंब! आत्म हो ब्रह्म-निवासी

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१०-३-२०२३, जबलपुर

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “प्यार का कानून” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ कविता ☆ “प्यार का कानून” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

जाना चाहो तो वह भी सही

आना चाहो तो वह भी सही

प्यार के कोई कानून नहीं होते है

सच्चे दिलों में कभी फासले नहीं होते हैं ।

 

वक्त मगर सबके अलग होते हैं

विकल्प हमेशा टेढ़े होते हैं

प्यार के रास्ते सबके अलग है

मगर मुकाम हमेशा एक है ।

 

हम तो बैठे है उसी मुकाम पर

आज नहीं तो कल मिलेंगे मंजिल पर

आज का बिछड़ना अगर तय है

तो कल का मिलना थोड़ी नामुमकिन है ।

 

जाते हो तो दिल छोटा ना करना

आते हो तो फिक्र ना करना 

खुद को संभालना हमारी फितरत हैं

और तुम्हे संभालना हमारा जुनून है ।

 

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #180 – 66 – “ख़ुशबू से महसूस होती रहती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़ुशबू से महसूस होती रहती हो…”)

? ग़ज़ल # 66 – “ख़ुशबू से महसूस होती रहती हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मैं बन गया प्रिया का साजन यहाँ,

खूबसूरत मिल गई तू जोगन यहाँ।

उम्मीद का मौसम ख़ुशनुमा होगा,

फिर झूम के बरसेगा सावन यहाँ।

ख़ुशबू से महसूस होती रहती हो,

जिस्म उधर है पर धड़कन यहाँ।

चंपा चमेली गुलमोहर खिल उठेंगे,

महक उठेगा अब घर आँगन यहाँ।

आज़ भी जिन्दा है प्रीत की रीत,

मिलने के होते हैं कई जतन यहाँ।

आतिश मिटी ज़िंदगी की थकन,

मिल गया प्रेयसी आलिंगन यहाँ।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print