हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 99 – लघुकथा – पीढ़ी का अंतर ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “पीढ़ी का अंतर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 99 ☆

☆ लघुकथा — पीढ़ी का अंतर ☆ 

” भाई ! तुझ में क्या है?  भावों के वर्णन के साथ अंतिम पंक्तियों में चिंतन की उद्वेलना ही तो है, ” लघुकथा की नई पुस्तक ने कहा।

” और तेरे पास क्या है?” पुरानी पुस्तक अपने जर्जर पन्नों को संभालते हुए बोली, ” केवल संवाद के साथ अंत में कसा हुआ तंज ही तो है।”

” हूं! यह तो अपनी-अपनी सोच है।”

तभी, कभी से चुप बैठे लघुकथा के पन्ने ने उन्हें रोकते हुए कहा, ” भाई!  आपस में क्यों झगड़ते हो? यह तो समय, चिंतन और भावों का फेर है। यह हमेशा रहा है और रहेगा।

” बस, अपना नजरिया बदल लो। आखिर हो तो लघुकथा ही ना।”

सुनकर दोनों पुस्तकें विचारमग्न हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-03-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आज असहमत का मन साउथ सिविल लाईन की तफ़रीह करने का हो रहा था तो उसने साईकल उठाई और शहर के इस पॉश एरिया की सैर के लिये निकल पड़ा. ये एरिया शहर की छवि को दुरुस्त करता है, सपाट चौड़ी साफ सड़कें, अनुशासित शालीन लोग, अपने कीमती वाहनों से अक्सर यहां आवागमन करते हैं. जबलपुर की पहचान हाईकोर्ट और भव्य रेल्वे प्लेटफार्म से शुरुआत होती है , साउथ सिविल लाईन नाम से पहचाने जाने वाले इस इलाके की, फिर जब और आगे बढेंगे तो बायें तरफ पुलिस अधीक्षक ऑफिस, इंदिरा मार्केट और दायीं तरफ रेल्वे हॉस्पिटल का क्षेत्र तो किसी तरह आपको एडजस्ट करते रहते हैं पर आगे जाने पर शहर की हवा और नक्शा दोनों बदलने लगते ह़ै.इलाहाबाद बैंक चौक के नाम से विख्यात इस बड़े चौराहे को पार करने के साथ ही साऊथ सिविल लाईन के नाम से पहचाने जाने वाली जगह शुरु हो जाती है. जिले के सारे महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी,पुलिस अधिकारी और कोर्ट के योअर ऑनर्स के विशालकाय बंगलों से सजा है यह क्षेत्र, हालांकि यहां पर मल्टीप्लेक्स स्टोरीज़ भी कॉफी हैं.जबलपुर के सांसद का निवास और सदर क्षेत्र के विधायक भी यंहा के निवासी हैं.

साऊथ सिविल लाईन्स की सैर करते हुये असहमत को अपने कॉलेज के दिन याद आ रहे थे. यहां का भ्रमण उसे अनूठा आनंद दे रहा था.अधिकांश बंगलों पर अंदर सैर करने की उसकी ख़्वाहिश को रौबदार नेमप्लेट,गेट पर खड़े संतरी और और सायरन लगी गाड़ियां ,कमज़ोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.सपना तो उसका भी था कि इन प्रभावशाली बंगलों में से किसी एक में उसकी भी नेमप्लेट लगे पर उसका प्रारब्ध इस मामले में उससे असहमत था. ये भी कहा जा सकता है कि ईश्वर जब इन पदों को हासिल करने की योग्यता बांट रहे थे तो असहमत इसी बात पर गर्वित था कि शहर की टॉकीज़ों में उसे फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि करेंट बुकिंग की खिड़की से शो की टिकट लेने में उसे महारथ हासिल थी. सरकारी बंगलों में रहने वालों के बारे में उसकी इस धारणा को कोई नहीं बदल पाया कि ” बाहर कुछ भी जल्वा हो पर घर पर हमेशा IG की नहीं बल्कि बाईजी की ही चलती है. बाई जी याने मैडम जिनके लिये IAS, IPS का एग्जाम क्वालिफाई करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है.
सरकारी बंगलों के बाद कुछ प्राइवेट बंगले भी बने थे जिनमें कॉलेज और विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर निवास कर रहे थे. संतरी तो नहीं थे पर कुत्तों से सावधान के बोर्ड लगे थे, कुछ में कुत्ते की फोटो भी थी जिसे देखकर शाम को अपने मालिक /मालकिन के साथ सैर पर निकले कुत्ते भौंकना शुरु कर देते थे. असहमत वैसे तो अपने प्रकृति प्रदत्त गुण के कारण किसी से नहीं डरता था पर कुत्ते उसकी कमजोरी थे. इनको देखकर असहमत के साथ साथ उसकी साईकल की भी धड़कन भी तेज हो जाती है.अचानक एक छोटे बंगले पर उसकी नज़र चिपक गई जिसके गेट पर न तो संतरी था न ही कुत्ते वाली चेतावनी, सिर्फ नेमप्लेट ही चमक रही थी जिस पर लिखा था “प्रोफेसर मनसुख लाल ” उसे याद आ गया कि ये उसके कॉलेज़ के ही इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद इस बंगले को गुलज़ार कर रहे हैं.
प्रोफेसर साहब काफी रसिक मिज़ाज के थे और शहर वाले इन्हें इनके जूली सदृश्य प्रकरण के कारण जबलपुर के प्रोफेसर मटुकनाथ के नाम से जानते थे. इनकी गाइडेंस में रिसर्च कर रहे स्कालर्स में छात्रों से ज्यादा छात्राओं का अनुपात था. हालांकि ये तो बाद में पता चला कि प्रोफेसर साहब गाईड कम मिसगाईड ज्यादा किया करते थे. कुछ की थीसिस तो इन्होने घर बैठे बैठे कंप्लीट करवा दी हालांकि घर कौन सा होगा ये छात्रा नहीं बल्कि प्रोफेसर डिसाइड करते थे. जले भुने और मेहनत करके भी लटकने वाले छात्र इनको प्रोफेसर गूगल कहते थे, जिसका अर्थ उनकी शैली में “हल्दी लगे न फिटकरी, फिर भी रंग चोखा” होता था.जब असहमत इनके पास पहुंचा तो प्रोफेसर साहब किसी विदुषी से लॉन में बैठकर पाठकों की अज्ञानता और सस्ते, हल्के साहित्य से लगाव और शालीन अभिरुचियों से दूर होते जाने के विषय पर बात कर रहे थे. प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि पता नहीं मोबाइल और लैपटॉप में उलझी इस युवा पीढ़ी की साहित्य के प्रति ये अवहेलना और स्तरहीन दृष्टिकोण देश को किस रसातल में ले जायेगा. पाठक दिनों दिन पथभ्रष्ट होता जा रहा है, टीवी, और सोशलमीडिया से दोस्ती की पींगे मार रहा है.न चरित्र है न ही साहित्य के प्रति लगाव. प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त, दिनकर सही समय में अवतरित हुये तो साहित्य ने उनका मूल्यांकन किया. अब तो हाल ये हो गया है कि खुद ही लिखो और खुद ही पढ़ो. अगर मार्केटिंग की कोशिश की तो लोग उसी तरह से दूर भागते हैं जैसे कोई फ्लॉप mutual fund scheme पकड़ा रहा है. पाठकों को जबसे सस्ता इंटरनेट मिला है, उसकी आदत बिगड़ गई है, उसे हर वस्तु सस्ती या मुफ्त चाहिए.

अभी तक असहमत बैठ जरूर गया था प्रोफेसर साहब की बैठक में, पर उसे किसी ने नोटिस नहीं किया था. वैसे भी प्राध्यापकों की आदत होती है विशेषकर कॉलेज और विश्वविद्यालय वाले, जहाँ पर छात्रों की अटेंडेंस लेने का तो सवाल ही नहीं उठता और कितने आये हैं कितने नहीं इस पर ध्यान दिये बगैर वो जो घर से लेक्चर तैयार करके लाते हैं उसे डिलीवर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं.अगर आप समझ गये तो आप सौभाग्यशाली होते हैं.

पर असहमत तो ऐसा नहीं था कि कोई उसकी मौजूदगी से बेखबर रहे. तो वो बोला और इस बार उसकी आवाज़ में उन बहुत सारे उपेक्षित छात्रों के दर्द भी शामिल थे जिनका रिसर्च वर्क प्रोफेसर साहब के अनुमोदन की राह देखते देखते युवा प्रेमिका से वयोवृद्ध पत्नी बन चुका था.

असहमत : सर,आपको पाठकों से नाराज होना शोभा नहीं देता क्योंकि ये सारे लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं और जब आप इनको इतिहास पढ़ा रहे थे, तो यहां की सारी स्टूडेंट कम्युनिटी आपका इतिहास चटकारे ले लेकर कॉलेज केंटीन में शेयर किया करती थी. जहां तक साहित्य की बात हैं तो वक्त की नब्ज पहचानने वाले कुमार विश्वास, मनोज़ मुंतिजर, चेतन भगत आज के युवाओं के दिलों में बस चुके हैं.

ये सब सुनते ही, प्रोफेसर का रौद्र रूप देखकर असहमत के तोते उड़ गये और इसके पहले कि प्रोफेसर उसे पकड़ पाते वो ऐसी तेज़ गति से भागा जैसे साउथ सिविल लाईन के सारे कुत्ते उसका पीछा कर रहे हैं.??‍♂️??‍♂️??‍♂️

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सीढ़ियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि –  सीढ़ियाँ ??

ये सीढ़ियाँ जादुई हैं पर खड़ी, सपाट, ऊँची, अनेक जगह ख़तरनाक ढंग से टूटी-फूटी। इन पर चढ़ना आसान नहीं है। कुल जमा सौ के लगभग हैं। सारी सीढ़ियों का तो पता नहीं पर प्राचीन ग्रंथों, साधना और अब तक के अनुसंधानों से पता चला है कि 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच एक दरवाज़ा है। यह दरवाज़ा एक गलियारे में खुलता है जो धन-संपदा से भरा है। इसे ठेलकर भीतर जानेवाले की कई पीढ़ियाँ अकूत संपदा की स्वामी बनी रहती हैं।

20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच कोई दरवाज़ा है जो सत्ता के गलियारे में खुलता है। इसे खोलनेवाला सत्ता काबिज करता है और टिकाये रखता है।

साधना के परिणाम बताते हैं कि 35वीं से 50वीं सीढ़ी के बीच भी एक दरवाज़ा है जो मान- सम्मान के गलियारे में पहुँचाता है। यहाँ आने के लिए त्याग, कर्मनिष्ठा और कठोर परिश्रम अनिवार्य हैं। यदा-कदा कोई बिरला ही पहुँचा है यहाँ तक”…, नियति ने मनुष्यों से अपना संवाद समाप्त किया और सीढ़ियों की ओर बढ़ चली। मनुष्यों में सीढियाँ चढ़ने की होड़ लग गई।

आँकड़े बताते हैं कि 91प्रतिशत मनुष्य 11वीं से 20वीं सीढ़ी के बीच भटक रहे हैं। ज़्यादातर दम तोड़ चुके। अलबत्ता कुछ को दरवाज़ा मिल चुका, कुछ का भटकाव जारी है। कुबेर का दरवाज़ा उत्सव मना रहा है।

8 प्रतिशत अधिक महत्वाकांक्षी निकले। वे 20वीं से 35वीं सीढ़ी के बीच अपनी नियति तलाश रहे हैं। दरवाज़े की खोज में वे लोक-लाज, नीति सब तज चुके। सत्ता की दहलीज़ श्रृंगार कर रही है। शिकार के पहले सत्ता, श्रृंगार करती है।

1 प्रतिशत लोग 35 से 50 के बीच की सीढ़ियों पर आ पहुँचे हैं। वे उजले लोग हैं। उनके मन का एक हिस्सा उजला है, याने एक हिस्सा स्याह भी है। उजले के साथ इस अपूर्व ऊँचाई पर आकर स्याह गदगद है।

संख्या पूरी हो चुकी। 101वीं सीढ़ी पर सदियों से उपेक्षित पड़े मोक्षद्वार को इस बार भी निराशा ही हाथ लगी।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कहा-कहानी ☆ लघुकथा – मजबूरी का फायदा ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “मजबूरी का फायदा)

☆ लघुकथा – मजबूरी का फायदा ☆

“क्या हुआ रज्जो मुंह क्यों लटका हुआ है तेरा?” रेशमा ने पूछा।

“वह जो 56 नंबर कोठी वाली बीबी है ना, उसने मुझे काम पर से निकाल दिया।” रज्जो ने बुरा सा मुंह बनाते हुए कहा।

“क्यों क्या कहती है?” रेशमा ने फिर पूछा।

“कुछ नहीं, बस कहा कि हमने नई बाई का इंतजाम कर लिया है, तेरी अब जरूरत नहीं, तेरी छुट्टी। ऐसे कैसे?” रज्जो गुस्से से बोली।

“मुझे पहले से ही अंदेशा था”, रेशमा ने कहा, “और मैंने तुझे पहले कहा भी था शायद?”

“क्या कहा था?” रज्जो उसकी तरफ ताकते हुए बोली।

“याद है, जब उन बीवी जी के पहला बच्चा हुआ था, उनकी पहली संतान, तो उन्हें तेरी बड़ी सख्त जरूरत थी। वह नौकरीपेशा थी और अपने पति के साथ अकेली रह रही थी”, रेशमा ने कहा. “और तूने उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर उनसे अपनी पगार दोगुनी करवा ली थी, जबकि बच्चे का कोई भी काम नहीं करना था तुझे। ठीक भी था। उस वक्त वह बच्चा संभालती या नई बाई ढूंढती। बस अब उसको कोई और अच्छी कामवाली मिल गई, तो उसने तेरी छुट्टी कर दी। अगर तू ऐसा ना करती, जैसा तूने किया था, तो शायद…।”

रज्जो चुप थी…।

***  

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ कॉवर्ट इनसेस्ट ☆ श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

(श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। हम श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के साथ अपनी रचनाओं को साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। आप कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी विशिष्ट साहित्यिक सेवाओं पर राजस्थान साहित्य अकादमी का कन्हैयालाल सहल पुरस्कार प्रदत्त।

आज प्रस्तुत है समाज को आईना दिखाती हृदय को झकझोर देने वाली एक विचारणीय कथा  ‘कॉवर्ट इनसेस्ट’।)

 ☆ कथा कहानी ☆ कॉवर्ट इनसेस्ट ☆

एक कमरा। कमरे की खिड़कियां बंद और पर्दे खिंचे हुए। एक मेज पर दो मोमबत्तियां जल रही हैं। तीन युवक तथा एक युवती मेज के चारों ओर चार कुर्सियों पर बैठे हैं। मेज पर एक सफेद ड्राइंग शीट बिछी है। शीट पर आंग्ल वर्णमाला के सभी अक्षर बड़े आकार में अंकित हैं। उस चार्ट के ऊपरी सिरों पर एक तरफ ‘यस’ और दूसरी ओर ‘नो’ लिखा है।

उन युवकों से एक युवक कुर्सी छोड़कर उठ गया। उसके एक हाथ में एक छोटी कटोरी, एक रूपए का एक सिक्का, दूसरे हाथ में एक जलती हुई मोमबत्ती तथा एक अगरबत्ती है। उन्हें लेकर वह कमरे की छत के एक किनारे पर जाकर, मोमबत्ती को मुंडेर पर खड़ा करता है। कटोरी में सिक्का डालकर, सुलगती हुई अगरबत्ती का धुआं कटोरी में घुमाते हुए बुदबुदाता है, ‘‘ओ…इन्नोसेंट सोल! प्लीज कम…।’’ वह, तकरीबन तीन मिनट तक उस वाक्य को दोहराता रहता है। सहसा, मोमबत्ती की लौ लहराने लगती है मानों वायु का तीव्र संचरण हो रहा हो जबकि वस्तुस्थिति में वायु का प्रवाह अति मंद है।

अचानक युवक का बुदबुदाना रूक जाता है। वह चारों वस्तुओं को लेकर कमरे में उतर आता है। मोमबत्ती और अगरबत्ती को टेबल पर लगाकर, कटोरी को ड्राइंगशीट पर उल्टी रख देता है और अपनी एक अंगुली उस पर रख देता है। यह देख, तीनों जने अपनी तर्जनी कटोरी पर रख देते हैं। अब, आव्हानकर्त्ता प्रश्न करता है, ‘‘ए निर्दोष आत्मा! क्या तुम हमारे सवालों का उत्तर देने को तैयार हो?’’ कटोरी सरक कर ‘यस’ पर आ जाती है। वह युवक पूछता है, ‘‘क्या तुम कल होने जा रही हमारी परीक्षा के प्रश्नों के बारे में बता दोगी?’’

कटोरी पहले ‘नो’ की ओर सकरती है फिर ‘यस’ पर लौट आती है। चारों के चेहरे खिल उठते हैं। दूसरा युवक उत्साह में आकर कहता है, ‘‘लेट, टेल द क्वेश्चन्स।’’ कटोरी वर्णमाला के एक एक अक्षर के ऊपर से गुजरती है और वाक्य बनता है, ‘‘आई हेट यू।’’ युवक का चेहरा उतर जाता है। अब, लड़की बोलती है, ‘‘प्लीज, बता दीजिए…।’’ कटोरी फिर से अक्षरों पर घूमती है- ‘‘आई लव यू।’’ युवती पानी पानी हो जाती है। उसे लड़कों की अंगुलियों पर संदेह होने लगता है।

आव्हानकर्त्ता युवक, ‘‘लगता है कोई बेड स्प्रिट आ गयी है।’’ वह छत पर जाकर, उस आत्मा को गुडबॉय कर, पुनः पहले वाली प्रक्रिया दोहराने लगता है। चार मिनट बाद वह फिर से टेबल पर है। फिर से प्रश्न किए जा रहे है किन्तु कटोरी कभी यस पर और कभी नो पर जा रही है। लड़की इसे साथी लड़कों की शरारत समझ रही है। उसका संदेह गहराता जा रहा है। एकाएक, कटोरी चार्ट के अक्षरों पर घूमने लगती है और शब्द बनते हैं- ‘कार्वट इनसेस्ट’। युवती सिहरकर अपनी अंगुली हटा लेती है। तभी लड़कों की अंगुलियों के नीचे से कटोरी छिटककर ड्रांइग शीट के मध्य में पहुचकर सीधी हो जाती है। दोनों मोमबत्तियां भी बुझ गयीं और कमरे में अंधेरा व्याप्त हो गया किन्तु बुझी हुई मोमबत्ती की बत्तियों की मंद होती ललाई से उठती धुंए की लकीरें का कटोरी की ओर जाने का अभास उन चारों को हो रहा है। शनैः शनैः कटोरी के इर्द-गिर्द एक प्रकाशवृत बन गया है और वहां एक छायाकृति उभर आयी- तीन वर्ष की एक बालिका। क्षत-विक्षत शरीर। मिट्टी के एक ढेर पर बैठी, मुट्ठी भर भर कर मिट्टी फांके जा रही है। *

पांच पल के बाद दृश्य परिवर्तित हो जाता है और वहां एक दूसरी आकृति उभरती है। अब, एक किशोरी का अक्स है। शरीर पर अधफटा कुर्त्ता है किन्तु सलवार नदारद है। चेहरा झुलसा हुआ। सामने आग जल रही है और वह लपलपाती हुई ज्वाला में अपने खुले मुंह को डाल रही है मानों उस आग को पी लेना चाहती हो।*

 कुछ देर बाद फिर से परिवर्तन हुआ- अब, एक अधेड़ औरत की छाया है। ब्लॉउज रहित श्वेत वसन में अध लिपटी देह। उसकी साड़ी तथा केश यूं फड़फड़ा रहे हैं मानों सामने से प्रचंड पवन प्रवाहित हो रही हो। वह स्त्री अधलेटी अवस्था में इस प्रकार मुख को खोले हुए थी कि सम्पूर्ण वायु को अपने शरीर में समाहित कर लेना चाहती हो।* कुछ ही पलों बाद चौथी छवि कटोरी के ऊपर उभरती है। एक कृशकाय वृद्धा चित पड़ी हुई अपनी छाती और पेट को पीट पीट कर हाय…पूतो…हाय…पूतो करती जा रही है।*

सहसा, तीव्र धमाके की ध्वनि हुई जैसे कमरे में कोई भारी वस्तु गिर गयी हो। भयाक्रांत युवकों में से एक ने मोबाइल की टॉर्च जलायी। युवती कुर्सी से फर्श पर गिरी हुई थी। उसके झाग भरे मुख से शब्द प्रस्फुटित हो रहे थे- ‘‘कॉर्वट इनसेस्ट…कॉर्वट इनसेस्ट…।’’ *

*पाद टिप्पणी:- कुटुम्बीय व्यभिचार- हवस की शिकार पांच छवि  1.  तीन वर्षीय भतीजी।   2. एक बहन। 3. एक विधवा। 4. एक दादी  5. बाल्यावस्था में कुत्सित छेड़छाड़ की स्मृतियां ताजा हो जाने से सुधबुध खोई युवती।

© प्रभाशंकर उपाध्याय

सम्पर्क : 193, महाराणा प्रताप कॉलोनी, सवाईमाधोपुर (राज.) पिन- 322001

मो. 9414045857, 8178295268

 

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #70 – ईश्वर की पूजा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #70 – ईश्वर की पूजा ☆ श्री आशीष कुमार

मन को वश करके प्रभु चरणों मे लगाना बडा ही कठिन है। शुरुआत मे तो यह इसके लिये तैयार  ही नहीं होता है। लेकिन इसे मनाए कैसे? एक शिष्य थे किन्तु उनका मन किसी भी भगवान की साधना में नही लगता था और साधना करने की इच्छा भी मन मे थी।

वे गुरु के पास गये और कहा कि गुरुदेव साधना में मन लगता नहीं और साधना करने का मन होता है। कोई ऐसी साधना बताए जो मन भी लगे और साधना भी हो जाये। गुरु ने कहा तुम कल आना। दुसरे दिन वह गुरु के पास पहुँचा तो गुरु ने कहा सामने रास्ते मे कुत्ते के छोटे बच्चे हैं उसमे से दो बच्चे उठा ले आओ और उनकी हफ्ताभर देखभाल करो।

गुरु के इस अजीब आदेश सुनकर वह भक्त चकरा गया लेकिन क्या करे, गुरु का आदेश जो था। उसने 2 पिल्लों को पकड कर लाया लेकिन जैसे ही छोडा वे भाग गये। उसने फिरसे पकड लाया लेकिन वे फिर भागे।

अब उसने उन्हे पकड लिया और दूध रोटी खिलायी। अब वे पिल्ले उसके पास रमने लगे। हप्ताभर उन पिल्लो की ऐसी सेवा यत्न पूर्वक की कि अब वे उसका साथ छोड नही रहे थे। वह जहा भी जाता पिल्ले उसके पीछे-पीछे भागते, यह देख  गुरु ने दुसरा आदेश दिया कि इन पिल्लों को भगा दो।

भक्त के लाख प्रयास के बाद भी वह पिल्ले नहीं भागे तब गुरु ने कहा देखो बेटा शुरुआत मे यह बच्चे तुम्हारे पास रुकते नही थे लेकिन जैसे ही तुमने उनके पास ज्यादा समय बिताया ये तुम्हारे बिना रहनें को तैयार नही है।

ठीक इसी प्रकार खुद जितना ज्यादा वक्त भगवान के पास बैठोगे, मन धीरे-धीरे भगवान की सुगन्ध, आनन्द से उनमे रमता जायेगा। हम अक्सर चलती-फिरती पूजा करते है तो भगवान में मन कैसे लगेगा?

जितनी ज्यादा देर ईश्वर के पास बैठोगे उतना ही मन ईश्वर रस का मधुपान करेगा और एक दिन ऐसा आएगा कि उनके बिना आप रह नही पाओगे। शिष्य को अपने मन को वश में करने का मर्म समझ में आ गया और वह गुरु आज्ञा से भजन सुमिरन करने चल दिया।

बिन गुरु ज्ञान कहां से पाऊं।।।

सदैव प्रसन्न रहिये।

जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अफ़सोस ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “अफ़सोस)

☆ लघुकथा – अफ़सोस ☆

“क्या बात है विष्णु, इतना परेशान-सा क्यों है यार?” रविंदर ने पूछा।

“परेशान नहीं यार, पर गुस्सा आ रहा है।” विष्णु बोला।

“किस बात का, बता तो?” रविंद्र ने फिर पूछा।

“मुझे मलेशिया में हो रही अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खेल प्रतियोगिताओं के लिए अलग-अलग विश्वविद्यालयों से खिलाड़ियों का चयन करके ले जाना है।” विष्णु ने कहा, जो चयन करने वाली कमेटी का प्रधान था।

“तो इसमें परेशानी क्या है? वह तो तुम परफॉर्मेंस के आधार पर चयन कर लो सीधा-सीधा।” रविंद्र ने कंधे उचकाते हुए कहा।

“क्या खाक चयन कर लूं? दो-चार को छोड़कर लगभग सभी उन खिलाड़ियों के नाम विश्वविद्यालयों द्वारा भेजे गए हैं, जिनकी बड़े-बड़े लोगों की सिफारिशें हैं। बाहर जाने का मौका कोई नहीं छोड़ना चाहता, पदक आए या ना आए, उनकी बला से,” विष्णु ने खीझ कर कहा, “और जो सही में प्रतिभावान हैं और पदक ला सकते हैं, उनका नाम ही नहीं है।”

“यार तुम्हारी बात से बचपन की एक बात याद आ गई,” रविंद्र ने हंसते हुए कहा, “जब भी घर में कोई चीज जैसे मिठाई वगैरह आती थी, तो हम सभी भाई बहन अलग-अलग से चोरी-चोरी, चुपके-चुपके एक-एक टुकड़ा उठा-उठा कर, यह सोचकर खाते रहते थे कि किसी को क्या पता चलेगा, एक ही टुकड़ा तो लिया है, और इस तरह सारा डब्बा खाली हो जाया करता था। बाद में मां-बाबूजी से डांट भी खानी पड़ती थी।”

“यही तो चिंता का विषय है मेरे लिए। मेरे देश का भी यही हाल हो रहा है। थोड़ा-थोड़ा करके सभी लोग भ्रष्टाचार करते जा रहे हैं, और सोच रहे हैं कि क्या फर्क पड़ेगा, और इधर पूरा देश भ्रष्टाचारी और खोखला होता जा रहा है,” विष्णु कह रहा था, “और अफसोस इस बात का है कि यहां कोई मां-बाबूजी भी नहीं हैं, रोकने या डांटने-फटकारने वाले…।”

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला

श्री हरभगवान चावला

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी का हार्दिक स्वागत।sअब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय लघुकथा ‘कहानियाँ’।)

☆ लघुकथा – कहानियाँ ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

माँ के पास सैंकड़ों कहानियाँ थीं। हर कहानी में एक राजा होता। राजा पर संकट आते, वह हर संकट को हराता और ख़ुशी-ख़ुशी राज करने लगता। कहानी के अंत में माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही हम भी ख़ुश बसें।

कुछ सालों बाद- कहानी का अन्तिम वाक्य तो यही बना रहा, पर जैसे ही माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही हम भी ख़ुश बसें- उसके होठों पर एक धिक्कारती सी हँसी आ विराजती।

कुछ और सालों बाद- कहानी के अन्तिम वाक्य में अचानक ही हम की जगह तुम आ गया। अब माँ कहती- जैसे वो राजा ख़ुश बसा, वैसे ही तुम भी ख़ुश बसो। खुशियों की इस मनवांच्छित नगरी से माँ के आत्मनिर्वासन को हम बूझ ही नहीं पाए।

फिर एक दिन कहानी में से राजा ग़ायब हो गया। हममें से किसी ने माँ से नहीं पूछा कि राजा कहाँ गया? हमने राजा की गुमशुदगी को चुपचाप स्वीकार कर लिया।

और फिर एक दिन राजा की कहानियाँ भी गुम हो गईं। हमें पता ही नहीं चला कि हम ख़ुद कब ऐसी कहानियों में तब्दील हो गये थे, जिन्हें कोई सुनना नहीं चाहता था।

© हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – प्रेम का सुख ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “प्रेम का सुख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 ☆

☆ लघुकथा — प्रेम का सुख ☆ 

” इतनी खूबसूरत नौकरानी छोड़कर तू उसके साथ।”

” हां यार, वह मन से भी साथ देती है।”

” मगर तू तो खूबसूरती का दीवाना था।”

” हां। हूं तो?”

” तब यह क्यों नहीं,”  मित्र की आंखों में चमक आ गई, ” इसे एक बार……”

” नहीं यार। यह पतिव्रता है।”

” नौकरानी और पतिव्रता !”

” हां यार, शरीर का तो कोई भी उपभोग कर सकता है मगर जब तक मन साथ ना दे…..”

” अरे यार, तू कब से मनोवैज्ञानिक बन गया है?”

” जब से इसका संसर्ग किया है तभी समझ पाया हूं कि इसका शरीर प्राप्त किया जा सकता है, मगर प्रेम नहीं। वह तो इसके पति के साथ है और रहेगा।”

यह सुनकर मित्र चुप होकर उसे देखने लगा और नौकरानी पूरे तनमन से चुपचाप रसोई में अपना काम करने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा – हरि की माँ ??

हरि को गोद में आए केवल दस महीने हुए थे, जब हरि का बाप उसे हमेशा के लिए छोड़कर चला गया। हरि की माँ ने हिम्मत नहीं हारी। हरि की माँ हरि के लिए डटकर खड़ी रही। हरि की माँ को कई बार मरने के हालात से गुज़रना पड़ा पर हरि की माँ नहीं मरी।

हरि की माँ बीते बाईस बरस मर-मरकर ज़िंदा रही। हरि की माँ मर सकती ही नहीं थी, उसे हरि को बड़ा जो करना था।

हरि बड़ा हो गया। हरि ने शादी कर ली। हरि की घरवाली पैसेवाली थी। हरि उसके साथ, अपने ससुराल में रहने लगा। हरि की माँ फिर अकेली हो गई।

हरि की माँ की साँसें उस रोज़ अकस्मात ऊपर-नीचे होने लगीं। हरि की माँ की पड़ोसन अपनी बेटी की मदद से किसी तरह उसे सरकारी अस्पताल ले आई। हरि की माँ को जाँचकर डॉक्टर ने बताया, ज़िंदा है, साँस चल रही है।

हरि की माँ नीमबेहोशी में बुदबुदाई, ‘साँस चलना याने ज़िंदा रहना होता है क्या?’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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