श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 10 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

आज असहमत का मन साउथ सिविल लाईन की तफ़रीह करने का हो रहा था तो उसने साईकल उठाई और शहर के इस पॉश एरिया की सैर के लिये निकल पड़ा. ये एरिया शहर की छवि को दुरुस्त करता है, सपाट चौड़ी साफ सड़कें, अनुशासित शालीन लोग, अपने कीमती वाहनों से अक्सर यहां आवागमन करते हैं. जबलपुर की पहचान हाईकोर्ट और भव्य रेल्वे प्लेटफार्म से शुरुआत होती है , साउथ सिविल लाईन नाम से पहचाने जाने वाले इस इलाके की, फिर जब और आगे बढेंगे तो बायें तरफ पुलिस अधीक्षक ऑफिस, इंदिरा मार्केट और दायीं तरफ रेल्वे हॉस्पिटल का क्षेत्र तो किसी तरह आपको एडजस्ट करते रहते हैं पर आगे जाने पर शहर की हवा और नक्शा दोनों बदलने लगते ह़ै.इलाहाबाद बैंक चौक के नाम से विख्यात इस बड़े चौराहे को पार करने के साथ ही साऊथ सिविल लाईन के नाम से पहचाने जाने वाली जगह शुरु हो जाती है. जिले के सारे महत्वपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी,पुलिस अधिकारी और कोर्ट के योअर ऑनर्स के विशालकाय बंगलों से सजा है यह क्षेत्र, हालांकि यहां पर मल्टीप्लेक्स स्टोरीज़ भी कॉफी हैं.जबलपुर के सांसद का निवास और सदर क्षेत्र के विधायक भी यंहा के निवासी हैं.

साऊथ सिविल लाईन्स की सैर करते हुये असहमत को अपने कॉलेज के दिन याद आ रहे थे. यहां का भ्रमण उसे अनूठा आनंद दे रहा था.अधिकांश बंगलों पर अंदर सैर करने की उसकी ख़्वाहिश को रौबदार नेमप्लेट,गेट पर खड़े संतरी और और सायरन लगी गाड़ियां ,कमज़ोर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे.सपना तो उसका भी था कि इन प्रभावशाली बंगलों में से किसी एक में उसकी भी नेमप्लेट लगे पर उसका प्रारब्ध इस मामले में उससे असहमत था. ये भी कहा जा सकता है कि ईश्वर जब इन पदों को हासिल करने की योग्यता बांट रहे थे तो असहमत इसी बात पर गर्वित था कि शहर की टॉकीज़ों में उसे फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि करेंट बुकिंग की खिड़की से शो की टिकट लेने में उसे महारथ हासिल थी. सरकारी बंगलों में रहने वालों के बारे में उसकी इस धारणा को कोई नहीं बदल पाया कि ” बाहर कुछ भी जल्वा हो पर घर पर हमेशा IG की नहीं बल्कि बाईजी की ही चलती है. बाई जी याने मैडम जिनके लिये IAS, IPS का एग्जाम क्वालिफाई करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है.
सरकारी बंगलों के बाद कुछ प्राइवेट बंगले भी बने थे जिनमें कॉलेज और विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर निवास कर रहे थे. संतरी तो नहीं थे पर कुत्तों से सावधान के बोर्ड लगे थे, कुछ में कुत्ते की फोटो भी थी जिसे देखकर शाम को अपने मालिक /मालकिन के साथ सैर पर निकले कुत्ते भौंकना शुरु कर देते थे. असहमत वैसे तो अपने प्रकृति प्रदत्त गुण के कारण किसी से नहीं डरता था पर कुत्ते उसकी कमजोरी थे. इनको देखकर असहमत के साथ साथ उसकी साईकल की भी धड़कन भी तेज हो जाती है.अचानक एक छोटे बंगले पर उसकी नज़र चिपक गई जिसके गेट पर न तो संतरी था न ही कुत्ते वाली चेतावनी, सिर्फ नेमप्लेट ही चमक रही थी जिस पर लिखा था “प्रोफेसर मनसुख लाल ” उसे याद आ गया कि ये उसके कॉलेज़ के ही इतिहास विषय के विभागाध्यक्ष रह चुके हैं और रिटायरमेंट के बाद इस बंगले को गुलज़ार कर रहे हैं.
प्रोफेसर साहब काफी रसिक मिज़ाज के थे और शहर वाले इन्हें इनके जूली सदृश्य प्रकरण के कारण जबलपुर के प्रोफेसर मटुकनाथ के नाम से जानते थे. इनकी गाइडेंस में रिसर्च कर रहे स्कालर्स में छात्रों से ज्यादा छात्राओं का अनुपात था. हालांकि ये तो बाद में पता चला कि प्रोफेसर साहब गाईड कम मिसगाईड ज्यादा किया करते थे. कुछ की थीसिस तो इन्होने घर बैठे बैठे कंप्लीट करवा दी हालांकि घर कौन सा होगा ये छात्रा नहीं बल्कि प्रोफेसर डिसाइड करते थे. जले भुने और मेहनत करके भी लटकने वाले छात्र इनको प्रोफेसर गूगल कहते थे, जिसका अर्थ उनकी शैली में “हल्दी लगे न फिटकरी, फिर भी रंग चोखा” होता था.जब असहमत इनके पास पहुंचा तो प्रोफेसर साहब किसी विदुषी से लॉन में बैठकर पाठकों की अज्ञानता और सस्ते, हल्के साहित्य से लगाव और शालीन अभिरुचियों से दूर होते जाने के विषय पर बात कर रहे थे. प्रोफेसर साहब कह रहे थे कि पता नहीं मोबाइल और लैपटॉप में उलझी इस युवा पीढ़ी की साहित्य के प्रति ये अवहेलना और स्तरहीन दृष्टिकोण देश को किस रसातल में ले जायेगा. पाठक दिनों दिन पथभ्रष्ट होता जा रहा है, टीवी, और सोशलमीडिया से दोस्ती की पींगे मार रहा है.न चरित्र है न ही साहित्य के प्रति लगाव. प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त, दिनकर सही समय में अवतरित हुये तो साहित्य ने उनका मूल्यांकन किया. अब तो हाल ये हो गया है कि खुद ही लिखो और खुद ही पढ़ो. अगर मार्केटिंग की कोशिश की तो लोग उसी तरह से दूर भागते हैं जैसे कोई फ्लॉप mutual fund scheme पकड़ा रहा है. पाठकों को जबसे सस्ता इंटरनेट मिला है, उसकी आदत बिगड़ गई है, उसे हर वस्तु सस्ती या मुफ्त चाहिए.

अभी तक असहमत बैठ जरूर गया था प्रोफेसर साहब की बैठक में, पर उसे किसी ने नोटिस नहीं किया था. वैसे भी प्राध्यापकों की आदत होती है विशेषकर कॉलेज और विश्वविद्यालय वाले, जहाँ पर छात्रों की अटेंडेंस लेने का तो सवाल ही नहीं उठता और कितने आये हैं कितने नहीं इस पर ध्यान दिये बगैर वो जो घर से लेक्चर तैयार करके लाते हैं उसे डिलीवर करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं.अगर आप समझ गये तो आप सौभाग्यशाली होते हैं.

पर असहमत तो ऐसा नहीं था कि कोई उसकी मौजूदगी से बेखबर रहे. तो वो बोला और इस बार उसकी आवाज़ में उन बहुत सारे उपेक्षित छात्रों के दर्द भी शामिल थे जिनका रिसर्च वर्क प्रोफेसर साहब के अनुमोदन की राह देखते देखते युवा प्रेमिका से वयोवृद्ध पत्नी बन चुका था.

असहमत : सर,आपको पाठकों से नाराज होना शोभा नहीं देता क्योंकि ये सारे लोग आपको बहुत अच्छे से जानते हैं और जब आप इनको इतिहास पढ़ा रहे थे, तो यहां की सारी स्टूडेंट कम्युनिटी आपका इतिहास चटकारे ले लेकर कॉलेज केंटीन में शेयर किया करती थी. जहां तक साहित्य की बात हैं तो वक्त की नब्ज पहचानने वाले कुमार विश्वास, मनोज़ मुंतिजर, चेतन भगत आज के युवाओं के दिलों में बस चुके हैं.

ये सब सुनते ही, प्रोफेसर का रौद्र रूप देखकर असहमत के तोते उड़ गये और इसके पहले कि प्रोफेसर उसे पकड़ पाते वो ऐसी तेज़ गति से भागा जैसे साउथ सिविल लाईन के सारे कुत्ते उसका पीछा कर रहे हैं.??‍♂️??‍♂️??‍♂️

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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