(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बुढापे की लाठी…“।)
अभी अभी # 306 ⇒ बुढापे की लाठी… श्री प्रदीप शर्मा
walking stick
गिरधर कविराय ने लाठी में जितने गुण बताए हैं, उसमें उन्होंने न तो बुढ़ापे का जिक्र किया है और न ही किसी दृष्टिहीन व्यक्ति का।
यानी कविवर शायद लठैत किस्म के व्यक्ति रहे हों, अधिकतर प्रवास पर रहे हों और उन्हें कुत्तों से अधिक डर लगता हो। बैलगाड़ी के जमाने में कवियों की दृष्टि भी नदी नालों के आगे नहीं जा पाती थी। लाठी उनके लिए कभी एक हथियार था तो कभी मात्र एक सहारा।
भले ही युग बदल जाए, लेकिन इंसान कुत्ते के पीछे लठ लेकर दौड़ना नहीं छोड़ेगा।
आजकल लाठी का नहीं, छड़ी का युग है। बुढापे की लाठी का उपयोग अब उम्र के हर पड़ाव पर होने लग गया है। लाठी को अगर सहारा कहें तो मन को अधिक सुकून मिलता है। बूढ़े आजकल सीनियर सिटीजन कहलाते हैं और अंधे को तो आप दृष्टिहीन भी नहीं कह सकते, क्योंकि आजकल वे भी दिव्यांग परिवार के सदस्य हो गए हैं। अब इस दुनिया में कोई असहाय, वृद्ध, अपाहिज, मूक बधिर, अथवा सूरदास नहीं।।
कोई व्यक्ति नहीं चाहता, उसे कभी लाठी का सहारा लेना पड़े। पहले घर परिवार ही इतने बड़े होते थे कि बच्चे ही बुढ़ापे की लाठी हुआ करते थे। यह एक ब्रह्म सत्य है, जब बच्चे छोटे होते हैं, तो बड़े ही उनका सहारा होते हैं। बड़ों की उंगली पकड़कर ही तो पहले चलना सीखते हैं और बाद में अपने पांवों पर खड़े हो जाते हैं।
जिस तरह बचपन के बाद जवानी आती है, जवानी के बाद तो बुढ़ापा ही आना है। उंगली वही रहती है, लेकिन कंधे और कमर अब वैसी नहीं रहती। अगर किसी इंसान का सहारा नहीं, तो छड़ी मुबारक। हमें तो लाठी उठाए बरसों बीत गए।
राजनीति में कल जिसके पास सिर्फ लाठी थी, उसने आज भैंस भी पाल ली है।।
जिस तरह दिन और हालात बदलते हैं, उसी तरह बुढ़ापे और लाठी की परिभाषा भी बदल चुकी है। आखिर लाठी क्या है, आलंबन, विकल्प अथवा सहारा ही न ! और बुढ़ापा क्या है, बाल सफेद होना, दांत गिरना और आंखों से कम दिखाई देना। मुझे कम दिखाई देता है तो मैं लाठी नहीं ढूंढता, अपना चश्मा ढूंढता हूं। मेरा चश्मा ही मेरे लिए लाठी है।
बस इसी तरह सफ़ेद बाल की मुझे चिंता नहीं, रोज डाय करता हूं, बत्तीसी बाहर हुई नहीं कि, डेंचर मौजूद है। पेंशन क्या किसी लाठी से कम है। ये सब ही तो मेरे बुढ़ापे की असली लाठी हैं। जिसका पांव नहीं, वहां जयपुर फुट ही बुढ़ापे की लाठी का काम करता है। नाच मयूरी।।
लेकिन इतना सब होने के बावजूद मेरी असली बुढ़ापे की लाठी तो आज भी मेरी धर्मपत्नी ही है। वह कभी मेरा सहारा है तो कभी मैं उसका आलंबन।
कहीं कोई बेटा अपनी मां की लाठी है तो कहीं कोई पोता अपने दादा जी की लाठी।
जीवन के किस मोड़ पर हमें किस लाठी की आवश्यकता पड़ जाए, कुछ कहा नहीं जाता। सहारा लें, तो किसी को सहारा दें भी। लाठी में कर्ता भाव नहीं होता सिर्फ सेवा भाव होता है। लाठी ही सहारा है, सहारा ही ईश्वर है। एक सहारा तेरा।।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय आलेख ‘स्वर्ग और नरक….’।)
☆ आलेख – स्वर्ग और नरक…. ☆
मेरे विचार….
जिन्दगी जिंदा दिली का नाम है,
मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं,,
सच है, जब तक जिंदगी है, इसे सुख से जियो, मुस्करा कर जियो, हंसते खेलते जिओ, स्वर्ग नर्क मात्र कल्पना है, ऐसा कुछ नहीं है, मृत्यु के बाद की दुनिया किसी ने नहीं देखी है, ना ऊपर कोई स्वर्ग है, ना कोई नर्क है, जिंदगी में अगर सुख है, दुख है, तो वह आपके कर्म की ही देन है, इसलिए जब तक जीवन जीते हो, इसका पूरा आनंद लो, जीवन को, आरामदायक बनाने के लिए, सुख सुविधा एकत्रित करो, और उसके लिए, मेहनत कर अपनी आमदनी बढ़ाओ, जो कुछ कमाओ, उसे अपने लिए और अपने परिवार के लिए खर्च कर दो, अगली पीढ़ियों के लिए बचा कर रखने का कोई औचित्य नहीं है, अगली पीढ़ी आपकी संपत्ति को खर्च करेगी, या नष्ट करेंगी, कोई भरोसा नहीं, ना आप देखने आओगे, इसलिए खुशी में तो खुश रहो, और दुख में भी खुश रहो, आपका अस्तित्व तब तक ही है जब तक आप जिंदा है,, मृत्यु के बाद तो सब मिट्टी है।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 230☆ पुनर्पाठ- विश्वास से विष-वास तक
एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया- कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?
चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।
अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था। महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था। कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।
एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।
कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी, अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत: गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद फिर जमा करा दीजिएगा।” उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!
सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।
आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन।🕉️
💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “भाषा और व्याकरण…“।)
अभी अभी # 306 ⇒ भाषा और व्याकरण… श्री प्रदीप शर्मा
जिस तरह तैरना सीखने के लिए पानी में उतरना जरूरी है, कार चलाना सीखने के लिए स्टीयरिंग पर बैठना जरूरी है, उसी तरह किसी भी भाषा को सीखने के लिए उस भाषा के व्याकरण का ज्ञान होना जरूरी है। केवल एक मातृभाषा ही ऐसी है, जो बिना व्याकरण के भी आसानी से बोली और समझी जा सकती है। लेकिन अक्षर ज्ञान के लिए तो उसका भी अध्ययन आवश्यक हो जाता है।
हिंदी भाषी प्रदेशों में एक समय आठवीं कक्षा तक चार विषय अनिवार्य थे, हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत और गणित। गणित तो अक्षर ज्ञान से ही शुरू हो जाता था, गिनती पहाड़ा, गणित नहीं तो और क्या है। जोड़, बाकी, गुणा, भाग से वैसे भी जीवन में कौन बच पाया है। अंकगणित, बीजगणित और रेखागणित। गणित से हमारा जबरन का प्रेम केवल आठवीं कक्षा तक ही कायम रह पाया। पतली गली से निकलने के लिए हमने गणित की जगह बायोलॉजी का दामन थाम लिया, लेकिन फिजिक्स और केमिस्ट्री से फिर भी पीछा नहीं छुड़ा सके।।
उधर संस्कृत भी हमारा ज्यादा साथ नहीं दे पाई। ले देकर अब केवल हिंदी और अंग्रेजी ही बची। हिंदी व्याकरण की किसी भी किताब का नाम आज हमें याद नहीं, लेकिन अंग्रेजी में wren की ग्रामर हमारे लिए किसी बाइबल से कम नहीं थी। Walk, talk और chalk के उच्चारण में एल साइलेंट रहता था। वही हालत should, would और could की थी। उधर जिस शब्द का पहला अक्षर a, e, io, अथवा u से शुरु होता था, वहां a की जगह an लग जाता था।
an ass, an enemy, an ink pot, an ox और an umbrella का विशेष ख़्याल रखना पड़ता था।
इतना ही नहीं बहुवचन के लिए कहीं क्रिया में S लग जाता था तो कहीं SS.
Chair अगर chairs होती थी तो dress, dresses हो जाती थी। निमोनिया, और सायकोलॉजी में silent P की प्राण प्रतिष्ठा पहले ही हो जाती थी।
अच्छे भले पड़ोसी को अंग्रेजी में neighbour कहते थे और मजदूर को labour. हमें अधिक परिश्रम तो नेबर लिखने में होता था बनिस्बत लेबर के।।
एक बार तो हद हो गई। अंग्रेजी में तब हाथ बहुत तंग था। एक रिश्तेदार शिक्षक हमें आगे साइकिल के डंडे पर बिठाकर ले जा रहे थे(तब हम इतने छोटे थे) और हमें कुछ समझा रहे थे। अचानक उन्होंने एक अंग्रेजी शब्द का प्रयोग कर दिया, understood ? हम कुछ समझ नहीं पाए। चलती गाड़ी में नीचे उतरने की बात हमारे गले नहीं उतरी, क्योंकि आसपास नीचे कोई खड़ा हुआ भी नहीं था। हमने स्पष्ट कह दिया, हम understood का मतलब ही नहीं समझे।
आज इच्छा होती है, कहीं से संस्कृत की अभिनवा पाठावली: और wren की ग्रामर मिल जाए, अंग्रेजी कविताओं की The Golden Treasury मिल जाए तो तब जो नहीं पढ़ पाए, आज वह फुरसत में पढ़ पाएं, क्योंकि आज गणित के अलावा किसी अन्य विषय से कोई डर नहीं लगता।।
(अर्थ- “जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवता आनंदपूर्वक निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नहीं होती, उनका सम्मान नही होता, वहाँ किए गए समस्त अच्छे कर्म भी निष्फल हो जाते हैं।) यह अर्थपूर्ण श्लोक कालजयी है, इसलिए आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
आप सबको ८ मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की बधाई एवं शुभकामनाएँ! यह बात सभी पर लागू होती है क्योंकि, आज की तारीख में जहाँ महिलाएँ प्रथा के अनुसार पुरुषों का लेबल पहने काम बेझिझक करती हैं, वहीं दूसरी ओर महिलाओं के पारंपरिक काम कभी-कभी पुरुष भी करते हैं। (इसके सबूत के तौर पर मास्टर शेफ के एपिसोड मौजूद हैं)|
अंतरराष्ट्रीय (जागतिक) महिला दिवस का इतिहास
प्रिय मित्रों, संक्षेप में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास बताती हूँ। अमरीका और यूरोप सहित लगभग सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं को २० वीं सदी की शुरुआत तक वोट देने के अधिकार से वंचित रखा गया था। १९०७ में पहला अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन स्टटगार्ट में आयोजित किया गया था। ८ मार्च १९०८ के दिन न्यूयॉर्क में वस्त्रोद्योग की हजारों महिला मजदूरों की भारी भीड़ ने रुटगर्स चौक में इकठ्ठा होते हुए विशाल प्रदर्शन किये। इसमें एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता क्लारा जेटकिन ने ”सार्वभौमिक मताधिकार के लिए लड़ना समाजवादी महिलाओं का कर्तव्य है।” यह घोषणा की| इसमें दस घंटे का दिन और कार्यस्थल पर सुरक्षा ये मुख्य मांगें थीं। साथ ही लिंग, वर्ण, संपत्ति और शिक्षा की समानता और सभी वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए वोट देने का अधिकार ये मुद्दे भी शामिल थे। १९१० में कोपेनहेगन में आयोजित दूसरे अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी महिला सम्मेलन में, क्लारा ने ८ मार्च, १९०८ को अमेरिका में महिला श्रमिकों की ऐतिहासिक उपलब्धियों की स्मृति में ८ मार्च को “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” के रूप में अपनाने का प्रस्ताव रखा और वह विधिवत मंजूर हो गया|
बाद में यूरोप, अमरिका और अन्य देशों में सार्वभौमिक मताधिकार के लिए अभियान चलाए गए। परिणामस्वरूप, १९१८ में इंग्लैंड में और १९१९ में अमेरिका में ये मांगें सफल रहीं। भारत में पहला महिला दिवस ८ मार्च १९४३ को मुंबई में मनाया गया था। इसके पश्चात् वर्ष १९७५ को UNO द्वारा “अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष” घोषित किया गया। इस कारण महिलाओं की समस्याएँ प्रमुखता से समाज के सामने आतीं गईं। महिला संगठनों को मजबूत किया गया। बदलती पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के अनुसार जैसे-जैसे कुछ प्रश्नों का स्वरूप बदलता गया, वैसे वैसे महिला संगठनों की माँगें भी बदलती गईं। आज की तारीख में हर जगह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जा रहा है|
महिला सशक्तिकरण- मेरा अनुभव
इस अवसर पर मैं महिला सशक्तिकरण की एक स्मृति साझा कर रही हूँ। यात्रा करते समय मैं बड़ी ही जिज्ञासा से यह देखती रहती थी कि, वहाँ की महिलाएँ किस प्रकार आचरण करती हैं और उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता कितनी विकसित है| यह २००३ के आसपास की बात है| (मित्रों, यह ध्यान रहे कि, यह वक्त बीस साल पुराना है) मैं केरल में घूमने निकली थी| मनभावन हरियाली के बीच देवभूमि का यह खूबसूरत सफर चल रहा था। नारियल के पेड़ों की लम्बी कतारें और नीलमसा चमकता समुद्र का जल! (कृपया यह न पूछें कि समुद्र कौनसा था)! ऐसा मनोरम दृश्य बस से दृश्यमान हो रहा था| बस कंडक्टर एक लड़की थी, मुझे लगा कि वह लगभग बीस साल की होगी। वह बेहद आत्मविश्वास के साथ अपना काम कर रही थी| बस में अग्रिम २-३ बेंचें केवल महिलाओं के लिए आरक्षित थीं। उनपर वैसा निर्देश साफ़ साफ़ लिखा था| उन्हीं बेंचों पर कुछ युवक बैठे हुए थे। एक स्टॉप पर कुछ महिलाएँ बस में चढ़ीं। नियमानुसार युवाओं को उन आरक्षित सीटों को छोड़ देना चाहिए था| उन्होंने वैसा नहीं किया| औरतें तब खड़ी ही थीं| तभी वह कंडक्टर आई और युवाओं से मलयालम भाषा में सीटें खाली करने को कहने लगी| लेकिन युवक हंसते जा रहे थे और वैसे ही बैठे रहे। अब मैंने देखा कि, वह दुबली पतली लड़की गुस्से से लाल हो गई है। उसने उनमें से एक का कॉलर पकड़ लिया और उसे खड़े होने के लिए मजबूर किया। बाकी नवयुवक अपने आप उठ खड़े हुए। उसने विनम्रता से महिलाओं को बेंच पर बिठाया और अपने काम में लग गई, जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
मित्रों, मुझे हमारे ‘जय महाराष्ट्र’ का स्मरण हुआ| ऐसे मौके पर यहाँ क्या होता? केरल की साक्षरता का दर १०० प्रतिशत है (तब भी और अब भी)! मैंने हाल ही में लेखों की एक श्रृंखला में अपनी मेघालय की यात्रा का वर्णन किया है, जहां मैंने बार-बार महिला शक्ति के उस अद्भुत रूप का उल्लेख किया है जो महिलाओं की पूर्ण साक्षरता और आर्थिक स्वतंत्रता के कारण ही संभव हो सका है|
पाठकों, इसमें कोई शक नहीं कि, वोट देने का अधिकार महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या हम मान लें कि, महिलाएं स्वतंत्र हो गई हैं? यह एक ऐसा अधिकार है जो हर पाँच साल में दिया जाता है। क्या एक महिला को घर में अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है? खैर, अगर वह व्यक्त भी करे तो क्या उस पर विचार किया जाता है? इस मुद्दे पर भी सोच विचार करना होगा न! छोटीसी बात, अगर वह साड़ी खरीदना चाहती है तो क्या उसे उतनी भी आर्थिक आजादी है? अगर है भी तो क्या वह अपनी मनपसंद साड़ी चुन सकती है? प्रश्न तो सरल हैं, पर क्या उनके उत्तर इतने ही सरल है? ‘स्त्री जन्मा ही तुझी कहाणी, हृदयी अमृत नयनी पाणी’ (हे ‘स्त्री के जन्म! तुम्हारी इतनी ही कहानी है, हृदय में अमृत और नैनों में पानी’|) ये शब्द आज भी क्यों जीवित हैं? वर्ष १९५० में रिलीज हुई फिल्म ‘बाळा जो जो रे’ की ‘ग दि माडगूळकरजी द्वारा लिखित यह रचना आज भी सच्चाई से क्यों जुड़ी होनी चाहिए? जहाँ एक स्त्री को देवी के रूप में पूजा जाता है, वहाँ उसकी ऐसी स्थिति क्यों होनी चाहिए?
८ मार्च २०२४ के लिए संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का विषय है, “महिलाओं में निवेश: प्रगति में तेजी लाना”। इसमें कन्या भ्रूण की रक्षा, महिलाओं का स्वास्थ्य, महिलाओं की शैक्षिक, आर्थिक और व्यावसायिक प्रगति के आलेख में तेजी लाना शामिल है। लेकिन महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए उनके खिलाफ अन्याय और दुर्व्यवहार को रोकना और अपराधियों को कड़ी सजा देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। समाज में महिलाओं की स्थिति आज भी निचले दरजे पर क्यों है? इस पर सामाजिक विचारमंथन की जरूरत है| यद्यपि यह स्पष्ट है कि संविधान में उल्लिखित किसी भी स्तर पर लैंगिक भेदभाव नहीं होना चाहिए, परंतु इसे प्रत्यक्ष रूप में लागू करना समाज के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है।
इस दिन के बारे में मैं बस यहीं महसूस करती हूँ कि, एक महिला को न ही देवी के रूप में पूजा जाए और न ही उसे ‘पावों में पड़ी दासी’ बनाया जाए| उसे समाज में पुरुष के समान सम्मान मिलना चाहिए। जो महिला अपना पूरा जीवन ‘चूल्हा चौका और बच्चों’ की सेवा में बिता देती है, उसकी पारिवारिक और सामाजिक स्थिति सर्वमान्य होनी चाहिए। उसकी भावनाओं, बुद्धि और विचारों का सदैव सम्मान किया जाना चाहिए। वास्तव में, इस उद्दिष्ट को प्राप्त करने के लिए ८ मार्च का एक ‘प्राणप्रतिष्ठा का दिवस’ नहीं होना चाहिए, बल्कि सभी महिलाओं को इसे साध्य करने के हेतु ‘हर एक दिन मेरा है’ यह मान लेना चाहिए। इसके लिए पुरुषमंडली से ‘अनापत्ति प्रमाणपत्र’ लेने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। ऐसा अच्छा और स्वस्थ दिन कब आएगा? प्रतीक्षा करें, जल्द ही यह स्वप्न साकार होगा!
“Human rights are women’s rights, and women’s rights are human rights.”
– Hillary Clinton.
“मानवाधिकार महिलाओं के अधिकार हैं, और महिलाओं के अधिकार मानव अधिकार हैं।”
– हिलेरी क्लिंटन
धन्यवाद!
टिप्पणी- संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रसारित एक गीत साझा करती हूँ।
“One Woman” song to celebrate International Women’s Day (March 8th-2013)
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “झूठा सच…“।)
अभी अभी # 304 ⇒ झूठा सच… श्री प्रदीप शर्मा
सदा सच बोलो ! इससे बड़ा झूठ शायद ही कोई हो। कहते हैं, सत्य में धर्म प्रतिष्ठित होता है। जब किसी से आपका सच हजम नहीं होता तो वह आपको सत्यवादी हरिश्चंद्र की उपाधि से विभूषित कर देता है। दूसरे सत्यवादी माने जाते हैं, धर्मराज युधिष्ठिर, नरो वा कुंजरो वा वाले। हरिश्चंद्र सत्यवादी तो थे, लेकिन प्रैक्टिकल नहीं थे। धर्म की रक्षा के लिए बोला झूठ, झूठ नहीं होता इसलिए धर्मराज का झूठ, झूठ झूठ होते हुए भी सच के करीब ही माना गया और पांच पांडवों में से केवल वे ही स्वर्ग के अधिकारी माने गए।
क्या स्वर्ग का सच और झूठ से कोई संबंध है। क्या देवताओं का छल कपट भी सच की श्रेणी में ही आता है। हमने तो सदा धर्म की ही विजय होते देखी है, कहते रहिए आप सत्यमेव जयते।।
लोग भी अजीब हैं, सच की पहचान चखकर करते हैं। शायद ठीक वैसे ही, जैसे हम किसी को मजा चखाते हैं। किसी ने चखा और कड़वा कह दिया। कड़वा तो करेला भी होता है और नीम भी, लेकिन दोनों लाभप्रद हैं। सच को अगर करेले की तरह पकाया जाए तो शायद वह इतना कड़वा नहीं, स्वादिष्ट ही लगे। कड़वी नीम ही क्यों, मीठी नीम भी तो खाई जा सकती है। सच बोलने के लिए कड़वा बोलना जरूरी नहीं।
मुझे तो असली नकली घी की ही पहचान नहीं। जिस तरह केवल सूंघकर अथवा चखकर असली नकली की पहचान नहीं की जा सकती, सच और झूठ में भेद करना भी आजकल इतना आसान नहीं।।
बाजार में तो सच और झूठ दोनों एक भाव ही बिकते हैं। हमने देख ली ISI मार्क गारंटी और आंख मूंदकर वस्तु खरीद ली। गारंटी तो आजकल नोटों पर आरबीआई के गवर्नर की भी किसी काम की नहीं। नोटबंदी ने तो यह भी स्पष्ट कर दिया कि केवल मोदी की गारंटी ही काम आती है, किसी गवर्नर की नहीं।
राजनीति तो खैर साम दाम दण्ड और भेद का मामला है, उसे कभी सच झूठ की तराजू में तौला नहीं जा सकता। आज जिस तरह सभी सिंह एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं, उसी तरह आपातकाल के बाद सभी सिंह जनता पार्टी की ओर लपक रहे थे। बाबूजी यानी जगजीवन राम ने जब कांग्रेस छोड़ी तो लोगों ने उनकी निष्ठा पर सवाल किया। जिसके जवाब में बाबू जी ने बहुत सुंदर जवाब दिया। हम राजनीतिज्ञ हैं, कोई संत नहीं। और आज देखिए सत्य और धर्म का कमाल। सभी संत राजनीतिज्ञ बने बैठे हैं।।
यानी आज झूठ सच के आगे नतमस्तक है क्योंकि झूठ भी गारंटी के साथ बोला जा रहा है। हम सत्य की विजय होते देख रहे हैं, झूठ भी दल बदल रहा है, सच के चरणों में शरणागत हो रहा है। बस लिबास ही तो बदलना है, एक मोहर ही तो लगनी है ISI मार्क की।
अगर आप सच और झूठ में अधिक उलझना चाहते हैं तो “सत्य तथ्य या वास्तविकता से सहमत होने की स्थिति है, जबकि झूठ धोखा देने के इरादे से किया गया झूठा बयान है। हालाँकि, “तथ्य” या “वास्तविकता” का गठन करने वाली अवधारणा किसी के दृष्टिकोण के आधार पर भिन्न हो सकती है, और झूठ बोलने की नैतिकता उस संदर्भ पर निर्भर हो सकती है जिसमें यह घटित होता है।। “
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहन कहन कहने लगे…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
अच्छी शुरुआत अर्थात आधा कार्य पूर्ण, पर देखने में आता है कि अधिकांश लोग देखा देखी प्रारंभ तो जोर – शोर से करते हैं किंतु बाद में उन्हें समझ आता है कि अमुक कार्य उनकी रुचि का नहीं है, और यहीं से गति धीमी हो जाती है। विचारों की उदासीनता से व्यक्ति बड़बोलेपन का शिकार हो जाता है। नया करने में डर लगने लगता है। जैसे जोरशोर से कार्य आरंभ करते हैं उससे कहीं अधिक हमें उसे पूर्ण करने की ओर ध्यान देना चाहिए। सही प्रक्रिया अपनाते हुई गुणवत्ता पूर्ण कार्यों की ओर अग्रसर होना सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है।
जब हम पूरे मन से कार्य को करेंगे तो अवश्य ही सकारात्मक विचारों के साथ उसे पूर्णता तक पहुँचायेंगे। योग्य मार्गदर्शक के निर्देशन में शुभ परिणाम मिलते हैं। इस संदर्भ में एक बात और विचारणीय है कि यात्रा के बहाने लोगों से जुड़ने का अच्छा माध्यम मिलता है किंतु विचारहीन व्यक्ति सही संप्रेषण नहीं कर पाता। भाषा पर पकड़ यदि मजबूत नहीं होगी तो लोगों के बीच अपने मनोभावों को व्यक्त करना कठिन होगा। शब्दों को अटक – अटक कर बोलने से चेहरे की भाव – भंगिमा भंग होती है जिससे जो कहना है उसे बीच में रोक कर कुछ अनचाहा बोलना पड़ता है।
जो भी हो होते रहना चाहिए ताकि लोगों को ये तो पता लगे कि आप मैदान में हैं। धूप – छाया, दिन – रात, धरती – आकाश, जल- थल, मीठा-कड़वा सभी जरूरी हैं। सो स्वयं को उपयोगी बनाने की दिशा में जुटे रहें। जनमानस के साथ संवाद हो विवाद नहीं।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – भगत सिंह का लाहौर।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 264 ☆
आलेख – भगत सिंह का लाहौर
भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ? विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का. सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने. कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है. यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. शाह अब्दुल अज़ीज़ ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था, उन्होंने कहा था अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट, अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी, वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है. भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं. हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा. आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और सच्चे अर्थो में यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.
माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं. लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.
रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है, जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.
भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.
भारत पाकिस्तान की बाघा बार्डर अमृतसर और लाहौर के बीच है. हर शाम यहाँ बीटिंग रिट्रीट परेड का आयोजन होता है. भारत और पाकिस्तान दोनो ही ओर से हजारों दर्शक सैनिकों की चुस्त दुरुस्त फुर्तीली परेड के गवाह बनते हैं. कभी लाहौर भगत सिंह की प्रमुख कर्मभूमि था. शहीद भगतसिंह १९४७ में होते तो क्या वे आजादी के जश्न को जश्न कह पाते ? कथित आजादी से शहीद भगत सिंह के सपने के टुकड़े हुये हैं. क्या हजारों की तरह दिल में विभाजन का दर्द समेटे अपने लाहौर को पाकिस्तान के हवाले कर भगत सिंह को भी लाहौर छोड़ना पड़ता ? विभाजन के दिनो में लाहौर गवाह रहा है दोनो ओर से पलायन करते हजारो परिवारों के विस्थापन का. सैकड़ो लाशें भी ढ़ोई हैं, इधर उधर होती रेलों ने. कितना वीभत्स्व था वह विभाजन जिसे लोग आजादी का जश्न कहते हैं. बर्लिन की दीवार ढ़हाकर पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का पुनर्मिलन हुआ है. यदि कभी इतिहास ने करवट ली और पाकिस्तान को शहीदे आजम भगतसिंह की क्रांतिकारी विचारों ने प्रभावित किया और पुनः दोनो देश मिलकर एक हुये तो तय है भगत सिंह का लाहौर ही उस विलय का गवाह बनेगा. आज का आतंकवाद को प्रश्रय देता पाकिस्तान संकुचित साम्प्रदायिक विचारधारा से मुक्त हो, सपूत शहीदे आजम भगत सिंह के सामाजिक समरसता के दिखाये रास्ते पर भारत का अनुगामी बने. यदि पाकिस्तान मजहबी चश्में से ही देखना चाहे तो ‘अशफ़ाक़ उल्लाह खान’ की याद करे जिन्होंने मजहब के नाम पर देश की आजादी और बंटवारे की स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी. शाह अब्दुल अज़ीज़ ने १७७२ मे ही १८५७ के पहले स्वतंत्रता संग्राम से ८५ बरस पहले ही अंग्रेज़ो के खिलाफ जेहाद का फतवा देकर हिन्दुस्तानियो के दिलों मे आजादी की लौ जलाने का काम किया था, उन्होंने कहा था अंग्रेज़ो को देश से निकालो और आज़ादी हासिल करो. बहादुर शाह जफर, ग़दर पार्टी के संस्थापकों में से एक भोपाल के बरकतुल्लाह थे जिन्होंने ब्रिटिश विरोधी संगठनों से नेटवर्क बनाया था, गदर पार्टी का हैड क्वार्टर सैन फ्रांसिस्को में स्थापित किया गया था, खुदाई खिदमतगार मूवमेंट, अलीगढ़ मुस्लिम आन्दोलन के सर सैय्यद अहमद खां जिन्होंने हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता के विचारों का समर्थन किया. अजीज़न बाई, बेगम हजरत महल जैसी महिलाओ सहित, बैरिस्टर आसिफ अली, डॉ.मुख़्तार अहमद अंसारी, वगैरह वगैरह की बहुत लम्बी फेहरिस्त है. भगत सिंह आजादी की उसी मशाल के उनके समय और उनके हिस्से की दौड़ के ध्वज वाहक हैं. हिन्दू मुस्लिम भेद भाव के बगैर भगत सिंह जैसे आजादी के परवानो ने लगातार अपनी जान की आहुतियों से इस मसाल को जलाये रखा. आज भी इस मशाल की आग बुझी नही है, क्योकि भगत सिंह ने कहा था कि पूरी आजादी का मतलब अंग्रेजो को हटाकर हिंदुस्तानियो को कुर्सियो पर बिठा देना भर नहीं, सर्वहारा को राजसत्ता देना है और सच्चे अर्थो में यह काम अभी भी जारी है. शायद कभी इस मशाल के प्रकाश में ही अखण्ड भारत का सपने साकार हों.
माना जाता है कि लाहौर की स्थापना भगवान श्री राम के पुत्र लव ने की थी. आज भी इसके प्रमाण मिलते हैं. लव मंदिर की दीवारों को लाहौर ने संभाल रखा है. लव का पंजाबी उच्चारण लह भी किया जाता है, जिससे कि लाहौर शब्द की उत्पत्ति मानी जाती है. कृष्णा मंदिर और वाल्मीकि मंदिर, गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा काना काछ, गुरुद्वारा शहीद गंज, जन्मस्थान गुरु राम दास, समाधि महाराजा रणजीत सिंह जैसे स्थान लाहौर में आज भी जीवंत हैं. मेरी उस विविधता की संस्कृति के गवाह हैं, जिसका सपूत था अमर शहीद भगत सिंह.
रावी एवं वाघा नदी के तट पर भारत पाकिस्तान सीमा पर आज मैं पाकिस्तान के प्रांत पंजाब की राजधानी हूं. आज मैं पाकिस्तान का दिल हूं.इतिहास, संस्कृति एवं शिक्षा में मेरा योगदान विशिष्ट है. मुझे बाग बगीचो के शहर के रूप में भी जाना जाता है. मेरा स्थापत्य मुगल कालीन एवं औपनिवेशिक ब्रिटिश काल का है जिसे मैंने आज भी धरोहर के रूप में अपनी थाथी बनाकर छाती से लगा रखा है. आज भी लाहौर में बादशाही मस्जिद, अली हुजविरी शालीमार बाग, लाहौर फोर्ट, अकबरी गेट, कश्मीरी गेट, चिड़ियाघर, वजीर खान मस्जिद एवं नूरजहां तथा जहांगीर के मकबरे मुगलकालीन स्थापत्य की जीवंत उपस्थिति है. महत्वपूर्ण ब्रिटिश कालीन भवनों में लाहौर उच्च न्यायलय, जनरल पोस्ट ऑफिस जैसे भवन मुगल एवं ब्रिटिश स्थापत्य का मिलाजुला नमूना हैं. पंजाबी की तड़के वाली मिठास जिसके चलते लाहौरी बोली को “लाहौरी पंजाबी” कहा जाता है. लाहौर में वही पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भी सुनने मिलती है, जो भगतसिंह की आजादी के आंदोलन की जुबान थी. इन दिनो बदलते वैश्विक समीकरणो से भगत सिंह के लाहौर में चीनी भाषा भी सुनने के मौके मिल रहे हैं.
भारत और पाकिस्तान में कितनी भी वैचारिक दुश्मनी क्यो न हो, पर दोनो देशो की जनता निर्विवाद रूप से शहीद भगत सिंह के प्रति बराबरी से श्रद्धा नत है.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पैसा और प्रेम…“।)
अभी अभी # 303 ⇒ पैसा और प्रेम… श्री प्रदीप शर्मा
हम प्रेमी, प्रेम करना जानें।
अभी कुछ दिनों पहले ही हमने एक पैसे वाले का पशु प्रेम देखा, और उसके तुरंत ही बाद अन्य पैसे वालों का उस पैसे वाले इंसान के प्रति प्रेम भी देखा। पैसे से प्रेम तो खैर सभी करते हैं, लेकिन पशुओं से प्रेम में यह व्यक्ति हमसे बहुत आगे निकल गया।
ईश्वर ने जिसे मुंह दिया है, उसे दाना भी वही देता है। आज के युग में जहां इंसान केवल अपना पेट भरने में लगा है, वहीं एक इंसान ऐसा भी है जो अस्सी करोड़ लोगों के पेट की चिंता पाल रहा है।
लेकिन उस व्यक्ति को क्या कहें जो मूक अशक्त और बूढ़े बीमार पशुओं की ना केवल चिंता करे, उनके भोजन की भी व्यवस्था करे।।
हम किंकर्तव्यविमूढ़ हों, इस व्यक्ति के प्रति नतमस्तक हों, उसके पहले ही हमारा ध्यान जामनगर की ओर चला गया। वहां हमने पैसे वालों का इस व्यक्ति के प्रति जो प्रेम देखा, तो हमें भी पैसे की भूख लग गई। भले ही पैसा खाने की चीज ना हो, लेकिन दिखाने की तो है।
हमने कहीं सुना है, देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव। हमारे पास पैसा ना सही, हम पशु प्रेमी ना सही, लेकिन भोजन प्रेमी तो हैं ही। जब भी हमें लार टपकती है, हम कुछ अच्छा सा खा लेते हैं, मन तृप्त और संतुष्ट हो जाता है और कुछ समय के लिए, पैसे की भूख भी शांत हो जाती है।।
भोजन किसे प्रिय नहीं। सबका अपना अपना प्रिय भोजन होता है, कहीं दाल रोटी तो कहीं हलवा पूरी।
कहीं बिरयानी तो कहीं इडली वड़ा और डोसा। ब्राह्मण को तो भोजन प्रिय होता ही है। छककर खाने के बाद डकार के साथ जो आशीर्वाद निकलता है, वह बड़ी दूर तक जाता है।
हम भारतीय अगर अच्छा खाते हैं तो अच्छा खिलाते भी हैं। मेहमाननवाजी कोई हमसे सीखे। जामनगर में तो प्री वेडिंग सेरेमनी में ही पूरी दुनिया मुट्ठी में समा गई थी। भाई साहब, अंबानी परिवार ने जामनगर के 51000 मेहमानों को आग्रहपूर्वक अपने हाथों से परोस परोसकर भोजन कराया।
भगवान ने जब सीलिंग तोड़ पैसा दिया है, तो उतना ही बड़ा दिल भी तो दिया है। इसे ही तो कहते हैं, सभ्यता और संस्कार।।
सिर्फ एक हजार करोड़ की शादी। एक भोजन प्रेमी तो ईश्वर से इनके लिए यही दुआ करेगा ;
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सहमत का बहुमत…“।)
अभी अभी # 302 ⇒ सहमत का बहुमत… श्री प्रदीप शर्मा
जब कलयुग में सतयुग प्रवेश करता है तो बहुमत भी मूर्खो का नहीं सहमतों का हो जाता है, जीवन में नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता का प्रवेश हो जाता है। पैसा ही धर्म हो जाता है, और सनातन संस्कृति का पोषक हो जाता है। जिंदगी बोझ नहीं रह जाती, दुख भरे दिन बीत जाते हैं, अचानक ही अच्छे दिनों का जीवन में प्रवेश हो जाता है।
एक समय ऐसा भी था जब बहुमत से असहमत होने का मन करता था, अच्छाई मुट्ठी भर थी और चारों तरफ बुराई का ही साम्राज्य था, और असंतुष्ट लोग उसे कांग्रेस का राज कहते थे। ऐसी कैसी साढ़े साती जो साठ साल तक उतरने का नाम ही ना ले।
लेकिन ईश्वर के यहां देर भले ही है, अंधेर नहीं और जो आशा का दीपक कभी भारतीय जनसंघ ने जलाया था, समय के साथ वह कमल की तरह खिल उठा और भारत माता के चेहरे पर अचानक मुस्कान आ गई। सबसे पहले इसे ज्ञानपीठ से पुरस्कृत आचार्य गुलजार ने अपने शब्दों में इस तरह व्यक्त भी किया ;
जंगल जंगल पता चला है।
चड्डी पहन के फूल खिला है।।
तब से अब तक तो सरयू में बहुत पानी बह चुका है। कई लोग बहती गंगा में हाथ धो बैठे हैं, और सभी के मन भी चंगे हो चुके हैं।
जो कभी भारत रत्न लता का कोकिल स्वर था, वह करोड़ों सनातन प्रेमी भक्तों का स्वर हो गया ;
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु
किरपा कर अपनायो।।
हर गरीब की झोपड़ी में राम ही नहीं पधारे, महलों में भी सनातन संस्कृति का बोलबाला हो गया। २२ जनवरी की अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा क्या हुई, राष्ट्र कवि कुमार विश्वास भी बागेश्वर धाम पहुंच गए और भक्ति और ज्ञान की अलख जगा दी। कविता में भी एक और दिनकर का उदय हो गया।
अब यह सिद्ध करने की आवश्यकता ही नहीं, कि भारत विश्व गुरु है अथवा नहीं, बस जरा जामनगर की ओर रुख कर लीजिए।
ऐश्वर्य, सुख वैभव और सनातन संस्कार के अगर साक्षात् दर्शन करने हों तो एक अंबानी परिवार में ही सब कुछ समाया हुआ प्रतीत होता है। क्या आपको नहीं लगता कुछ दिनों के लिए जामनगर रामनगर नहीं बन गया जहां राम जी अपने ही रामराज्य का विस्तार कर रहे हों।।
दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। हरि अनंत हरि कथा अनंता। आज अनंत की कथा का सर्वत्र गुणगान हो रहा है, और नव अंबानी दंपति को आशीर्वाद देने पूरी दुनिया उमड़ पड़ी है। जामनगर ने ना केवल बिल गेट्स सहित दुनिया के कई धन कुबेरों के लिए द्वार खोले, कल सतगुरु जग्गी वासुदेव भी वहां प्रकट हो गए। इतने बॉलीवुड सितारों को एक साथ एक जगह नचाना इतना आसान भी नहीं होता। यहां सब अपनी खुशी से आए हैं, यह कोई राजनीतिक रोड शो नहीं है, यहां लोगों को धीरू भाई अंबानी परिवार का परिश्रम और पसीना नजर आ रहा है। यह परिवार वाद नहीं राष्ट्र वाद है। असंतुष्ट अपने चश्मे का नंबर चेक कराएं।
यह वक्त है बहुमत से सहमत होने का, असंतुष्ट से संतुष्ट होने का, विपक्ष का साथ छोड़ सत्ता पक्ष का साथ देने का, विकास की गति को आगे बढ़ाने का,
स्मार्ट फोन के बाद हर शहर की स्मार्ट सिटी बनाने का, स्वदेशी की अलख जगाने का।।
अंबानी का प्री वेडिंग जश्न कोई पैसे की फिजूल खर्ची अथवा झूठा दिखावा नहीं, इसमें राष्ट्र का गौरव और वैभव नजर आता है, जहां संस्कार भी है और सादगी भी, भक्ति भी और समर्पण भी। राधिका अनंत देश की युवा पीढ़ी के प्रेरणा स्त्रोत हैं। कल देश की बागडोर ऐसे ही हाथों में आनी है।
आज से सहमत हों, संतुष्ट हों। जब झोपड़ी के भाग भी जाग गए, तो आप तो इंसान हो। इससे और अच्छे दिन क्या होंगे। आज का आयुष्मान भारत ही वह रामराज्य है जहां ;