श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 230 ☆ पुनर्पाठ- विश्वास से विष-वास तक
एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया- कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?
चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।
अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था। महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था। कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।
एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।
कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी, अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत: गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद फिर जमा करा दीजिएगा।” उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!
सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।
आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
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