हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – प्रार्थना के स्वर ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे  प्रार्थना के स्वर। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – प्रार्थना के स्वर ✍

 

भाव संपदा हो घनी, हो चरणों की चाह।

शब्द ब्रह्म आराधना, घटे नहीं उत्साह।।

 

करुण, वीर ,वात्सल्य रस ,श्रंगारिक रसराज।

रस की हो परिपूर्णता, माने रसिक समाज।।

 

सत शिव -सुंदर काव्य ही,मौलिक रचे रचाव।

नयन प्रतीक्षा में निरत ,हार्दिक रहे प्रभाव।।

 

रस ही जीवन प्राण है, सृष्टि नहीं रसहीन ।

पृथ्वी का मतलब रसा, सृष्टि स्वयं रसलीन ।।

 

प्रथम वर्ण उपचार से, रचता रंग विधान।

प्रेम रंग में जो रंगी, उसको खोजे प्राण।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

9300121702

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 9 – नदी की वेदना ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “नदी की वेदना ”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ #9 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ नदी की वेदना ☆

 

नदी हमारे गाँव

वेदना में डूबी रहती

पानी सूख गया फिर भी

आँसू से है बहती

 

इसकी आँखों में सचेत सा

था भविष्य उजला

जो बहने की प्रखर भूमिका

से था बस बहला

 

रेत पत्थरों में विनम्र हो

सदा बही है वह

और अभी भी ना जाने

कितने गम है सहती

 

सारा तन छिल गया

सूखते पानी का अपना

किन्तु उमीदों में पलता

वह ना डूबा सपना

 

नदी, नदी है अपना दुख

ढोती बहती जाती

अन्तर्मन की यह पीड़ा

खुद से भी ना कहती

 

पूछ रहा था पानी का

रिश्ता परसों सूरज

तुम्हें बहुत बहना है जब

क्यों छोड़ चुकी धीरज

 

बहना और सूख जाना

तो लक्षण  पानी के

एक यही पीड़ा क्यों

तुमको लगी यहाँ महती

 

© राघवेन्द्र तिवारी

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 10 ☆ व्यंग्य – ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य “ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 10 ☆

☆ व्यंग्य – ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद

नजर नजर का फेर है साहब. कुछ लोगों को देश में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या अभिशाप नजर आती है. मगर, डॉ. बनवारी तो इसे देख कर खुश ही होते हैं. ‘हार की जीत‘  कहानी के बाबा भारती जितने अपने घोडे़ सुल्तान को देखकर खुश होते थे, उतने ही डॉ. बनवारी देश में गरीबों की बढ़ती जनसंख्या देख कर खुश होते हैं. उनके लिये देश में गरीबों की विशाल जनसंख्या किडनियों की एक लहलहाती फसल है. हर जिन्दा, सक्रिय, चलता फिरता, मजलूम इंसान लाख-पचास हजार रूपये का माल बदन में धरे धरे घूम रहा है. दीन हीन मानवों के शरीरों में पड़ी हैं दो-दो किडनियाँ, जिनमें से कम से कम एक को चुराया जा सकता है, बरगलाकर निकाला जा सकता है, बेचने पर मजबूर किया जा सकता है. जब भी किसी गरीब आदमी की नार्मल डेथ होती है वे कसक उठते हैं कि यार लाख रूपये का नुकसान हो गया. किसी मकान में सेंध लगाने से पहले ही जमींदोज हो जाये मकान तो कैसा लगता है! डॉ. बनवारी मानते हैं कि इस देश में गरीबी की रेखा के नीचे कम से कम पचास करोड़ किडनियाँ हैं जो बेची जा सकती हैं. लाख रूपये की एक किडनी भी समझो साहब तो पचास लाख करोड़ रूपये की संभावनाओं का बाजार है. अनटेप्ड. जिसका दोहन किया जाना बाकी है. अपने अस्पताल की अठारहवीं मंजिल से जब वे दूर तक फैली झोपड़पट्टी की ओर देखते हैं तो उन्हें अपनी मजबूरियों पर तरस आता है. किडनियों की फसल लहलहा रही है और मैं काट नहीं पा रहा. कब निकलवा कर बेच सकूंगा इनमें से हर एक की एक किडनी. एक टीस सी उठती है – ये साले गरीब दो-दो किडनियाँ रखने की विलासिता में जी रहे हैं और बेचारों धनिकों को जरूरत के समय माल नहीं मिल रहा.

डॉ. बनवारी हमारे शहर के सबसे नामी सर्जन है. ऑपरेशन करने में उनके हाथ का कोई सानी नहीं. अपने फन से उन्होने नाम के साथ अच्छा खासा रूतबा और धन भी कमाया है. कोठी बंगला, गाडियाँ, बैंक बेलेन्स. एक संतोष को छोड़कर सब कुछ है उनके पास. माल उनके लिये मंजिल नहीं, यात्रा है. सो अनथक दौड़ रहे हैं लक्ष्मी मार्ग पर. बचपन ऐसा नहीं था बनवारी का. गरीब थे. स्कूल जाने के अतिरिक्त वे कनछेदी उस्ताद के गैरेज पर काम किया करते थे. कनछेदी ने सिखाया उन्हें – “गाड़ी अच्छी कन्डीशन में हो तो उसका एकाध पार्ट मारकर जुगाड़ का पार्ट लगा भी दिया तो मालिक को पता नहीं चलता. इतनी बेईमानी गैरेज के धंधे में बेईमानी नहीं मानी जाती”. कनछेदी के सबक को बनवारी भूले नहीं. ऑपरेशन करते-करते मरीज के किसी बिक्री योग्य अंग पर दन्न से हाथ साफ कर ही देते हैं. मुद्रा मिलनी हो तो वे नॉन सेलेबल आर्गन्स भी मार देते हैं. जवान लड़कियों के यूट्रस तक रिमूव कर दिये उन्होंने कि माल मिल जाता है सरकार से. ह्यूमन बॉडी गैरेज के उस्ताद हैं डॉ. बनवारी. कनछेदी गाडी का साउन्ड सुनकर पता कर लेता था कि इसका कौनसा पार्ट मार देने लायक है. डॉ. बनवारी की आंखों में स्कैनर लगा है. मरीज देखकर पहली बार में समझ जाते हैं कि इसका कौन सा आर्गन मार देना ठीक रहेगा. मार्केट कौन सा बेहतर है. उसे गल्फ के अमीर शेख को बेचा जाये या इंडिया के अपर क्लास रिच को. रेट अंकल सैम के देश में ज्यादा मिलेगा कि यूरो झोन में. वर्ल्ड वाइड नेटवर्क के पार्ट हैं डॉ. बनवारी. आर्गन माफिया के इकबाल मिर्ची.

एक बार की बात है साहब. कल्लू भर्ती हुआ डॉक्टर साहब के अस्पताल में. नामी चोर. सेंध मारी में उसका कोई भी सानी नहीं.

“कैसे तय करते हो चोरी का स्पॉट ?” डॉक्टर सा. ने नब्ज देखते देखते पूछ लिया.

“मौका देखकर स्पॉट लगाना पड़ता है. मकान में आठ दस दिनों से ताला पड़ा है.  घरवाले तीरथ गये हैं. अभी दस दिन और नहीं आयेंगे. दिन में गली सूनी पड़ी रहती है. बस स्पॉट लगा देते हैं.”

डॉ. बनवारी को वहम हुआ कि कहीं मैं खुद की नब्ज तो नही देख रहा. “हम भी देख ही लेते हैं – मरीज गरीब है, कमजोर है, अनपढ़ है, मजबूर है, मालूम पड़ने पर शोर नहीं मचा पायेगा. बस स्पॉट लगा देते हैं.”

जो डॉ. बनवारी ने लिखी होती शोले की स्क्रिप्ट तो गब्बर ठाकुर के हाथ नहीं उसकी किडनियाँ मांगता. डॉक्टर साहब के कन्डक्ट में समाती है कनछेदी, कल्लू और गब्बर की गंगा, जमना, सरस्वती. त्रिवेणी का अद्भुत संगम. अहा!

शहर में बीस मंजिल अस्पताल बनवाया है डॉ. बनवारी ने. अवैध ट्रांसप्लांट का आधुनिकतम प्लांट. शिकार के मचान के नीचे बंधा बकरा है गरीबों के लिये यहाँ की मुफ्त ओपीडी. एक जाल – भव्य, आकर्षक, सुनहरा . गरीबों का ऑपरेशन घटे दरों पर. आर्गन खोया तो दवा मुफ्त. खुराक मुफ्त. पोस्ट ऑपरेशन देखभाल मुफ्त. बस आर्गन छोड़ जाइये यहाँ. इस फाइव स्टार अस्पताल में पाँच सात तो ऑपरेशन थियेटर हैं. वर्कशॉप  ट्रांसप्लांट के. अलग अलग आर्गन्स के अलग – अलग मिस्त्री सर्जन. उनके उपर ओवरसियर सर्जन. उनके भी उपर सुपरवाइजर सर्जन. किडनी के टर्नर. लीवर के फिटर. लंग्स के फोरमैन. प्लांट, ट्रांसप्लांट का. विज्ञान जितने तरह के अंग बदलने की अनुमति देता है – ऑल अण्डर वन रूफ. सेल लगी है आर्गन्स की. फैक्ट्री रेट पर उपलब्ध. मंडी मानव अंगों की. बारीक अंग्रेजी अक्षरों में छपी सेल-डीड पर अंगूठा लगवाते मैच मेकर. दलाल घूमते हैं मुफलिसों की बस्तियों में. ढूंढकर लाते हैं बेचवाल किडनियों के. चेतना सुन्न, शरीर निढाल, ऑपरेशन टेबल के ऊपर जल रही तेज बत्ती के पीछे डॉक्टर साहब ने रोक कर रखा है भविष्य का अंधेरा. डॉक्टर साहब को अपने किये गये पर अपराध बोध नहीं होता. गर्व होता है. कहते हैं इससे ट्रांसप्लांट टूरिज्म को बढ़ावा मिलता है. विदेशी मुद्रा आती है देश में. किडनियाँ तो डॉक्टर साहब के पास भी दो-दो हैं मगर उनसे पेशाब नहीं बहती, जमीर बहता है.

कल्लू, कनछेदी और बनवारी सक्रिय हैं शहर में अपनी हस्ती, हुनर और हैसियत के हिसाब से. डॉक्टर बनवारी हमारे समाज की सबसे सम्मानित और पूजनीय तबके की जमात में उभर कर आये बदनुमा दाग हैं. दाग जिसका आकार बढ़ता ही जा रहा है .

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57 ☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश।  श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने  27 वर्ष पूर्व स्व  परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57

☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆ 

जय प्रकाश पाण्डेय –

यह माना जाता है कि सामाजिक-राजनैतिक रूप से जागरूक और मानसिक-वैचारिक रूप से परिपक्व भाषा-समाज में ही श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन संभव है। बंगला व मलयालम में इसकेे बाबजूद व्यंग्य लेखन की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है, जबकि अपेक्षाकृत अशिक्षित व पिछड़े हिन्दी भाषा समाज में इसकी एक स्वस्थ व जनधर्मी परम्परा कबीर के समय से ही दिखाई पड़ती है। आपकी दृष्टि में इसकेे क्या कारण है ?

हरिशंकर परसाई – 

हां, आपका यह कहना ठीक है कि बंगला और मलयालम में व्यंग्य की एक समृद्ध परंपरा नहीं है, और न व्यंग्य है, जहां तक मैं जानता हूं। पर यह कहना कि एक बड़ी परिष्कृत भाषा में ही व्यंग्य बहुत अच्छा होता है या होना चाहिए, इस बात से मैं सहमत नहीं हूं। देखिए लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य विनोद होता है। आपने बुंदेलखंडी के व्यंग्य विनोद अवश्य सुनें होंगे। आपस में लोग बातचीत करते करते व्यंग्य विनोद करते हैं, कितने प्रभावशाली होते हैं, अब वह तो लोकभाषा है, आधुनिक भाषा रही नहीं, आधुनिक भाषा तो खड़ी बोली हिन्दी है।

लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य, बहुत अच्छा विनोद होता है, तो मैं समझता हूं कि भाषा किसी भी प्रकार से इसमें बाधक नहीं है। आवश्यकता है व्यंग्य चेतना की।

किसी  भाषा के लेखकों में व्यंग्य चेतना अधिक होगी तो वे व्यंग्य अधिक लिखेंगे। लोकभाषा बुंदेली में या भोजपुरी में लोग बात बात पर व्यंग्य करते हैं, बात बात में विनोद करते हैं, तो उन लोगो की कहने की शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई है। यद्यपि लोकभाषा में व्यंग्य अधिक लिखा नहीं गया है पर वे व्यंग्य करते हैं, विनोद करते हैं। हिंदी वैसे नयी भाषा है, बहुत समृद्ध नहीं, पर इसमें कबीरदास की भाषा से तो हिंदी शायद न भी कहीं चूंकि वह बहुत प्रकार के मेल से बनी भाषा है। उन्होंने भाषा को तोड़फोड़ कर ठीक-ठाक कर लिया है, विद्रोही थे वे। कबीर दास में व्यंग्य है। आधुनिक भाषा हिन्दी में व्यंग्य की परंपरा है, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा ‘मतवाला’ जो पत्र निकलता था उसमें उग्र, मतवाला, निराला वगैरह काम करते थे। उसमें बहुत व्यंग्य है। उसकी फाइल उठाकर देखिए उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य है। प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त वगैरह व्यंग्य के कालम लिखते थे, जैसे मैं भी व्यंग्य के कोलौम्न कॉलम लिखता हूं। तो परंपरा है ही, उसी परंपरा में नवयुग की चेतना के अनुकूल और अपनी शैली से उसमें और जुड़कर तथा परंपराओं को तोड़कर मैंने व्यंग्य लिखा और हिंदी में व्यंग्य, लिखने वाले बहुत अधिक हैं, इसमें कोई शक नहीं, किसी अन्य भाषा में इतने अधिक नहीं होंगे शायद।

……………………………..क्रमशः….

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #4 ☆ बरसात की एक अधूरी कहानी ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक एवं श्रृंगारिक रचना  “बरसात की एक अधूरी कहानी”।  कुछ अधूरी कहानियां  कल्पनालोक में ही अच्छी लगती हैं। संभवतः इसे ही फेंटसी  कहते हैं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #4 ☆ 

☆ बरसात की एक अधूरी कहानी ☆ 

 

वो ढलती हुई सांझ

वो बढ़ती हुई रात

वो मूसलाधार वर्षा

वो गंभीर हालात

वो बस-स्टैंड का शेड

वो मेरी उससे भेंट

कितनी रोचक है

याद अब तक है

 

बारिश से बचने मैंने

स्टैंड तक दौड़ लगाई

वो भी भीगते भीगते आई

स्टैंड के दो कोनों में

दोनों थे खड़े

सोच रहे थे, बारिश रूकें

तो आगे बढ़ें

अचानक बिजली कड़की

चपल तड़िता नीचे लपकी

लाईट गुल हो गई

टाउनशिप अंधेरे में खो गई

मेघों के गर्जन से

कांप उठा आसमान

डरकर मुझसे लिपट गई

वो युवती अनजान

 

उसकी गर्म सांसे

मेरी सांसों से टकराई

मेरी नस-नस में

बिजली सी दौड़ आयी

उसके भीगे-भीगे बाल

बूंदों से तर-बतर गाल

घबराई सी आंखें

होंठ संतरे की दो फांके

कसते ही जा रहा था

उसके बांहों का बंधन

मेरे रोम-रोम में

हो रहा था कंपन

जब हमारे अंधेरों से

मिले अधर

हम दुनिया से

हो गये बेखबर

सारी कायनात झूम रहीं थी

वर्षा की बूंदें

दोनों को चूम रही थी

 

कि, अचानक लाईट आयी

वो छिटककर दूर हुई, घबराई

उसकी बोझिल पलकें

कांप रही थी

सांसों की गति से

वो हांफ रही थी

 

कि, उसकी बस आई

उसने दौड़ लगाई

बस में चढ़ते-चढ़ते

वो शरमाई

मुझे देख मुस्कुराई

बिना कुछ कहे ही

कातर, तिरछी नजरों से

सब कुछ कह गई

बरसात की इस

तूफानी रात में

फिर एक कहानी

अधूरी रह गई

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

12/07/2020

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 8 ☆ वृद्धा:श्रम ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आप मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “वृद्धा:श्रम”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 8 ☆ 

☆ वृद्धा:श्रम ☆

 

ती आणि तो

तिला तो आवडला

त्याला ती आवडली

दोघेपण एकमेकांच्या

जवळ आले एकमेकांना ओळखू लागले असेच काही दिवस गेले

दोघे ही एकमेकांच्या प्रेमात पडले लग्न झाले, संसार सुखाचा सुरू झाला.

निसर्ग नियम, त्यांच्या संसार वेलीवर एक गोंडस फुल उमलले.

 

पाहता पाहता वेळ भरपूर निघून गेला

परिस्थिती बदलली, तिला फक्त तोच हवा वाटू लागला

सासू सासरे, नको वाटू लागले.

भांडण सुरू झाले, उपास तापास लटके ओरडणे गोंधळ उडाला.

त्याला काय करावं कळेनासे झाले

इकडे आड तिकडे विहीर अशी त्याची गत झाली.

आई, वडील, की पत्नी…?

कोणाची निवड करावी…. त्याचीच त्याच्या सोबत प्रश्न मंजुषा सुरू झाली.

आणि एके दिवशी नको तेच झालं, तिनं स्वतःला खोटं खोटं, पेटवून घेतलं…

 

तो आला तिला सावरलं मात्र ती त्याला काही बोललीच  नाही, प्रतिसाद सुद्धा दिला नाही. ओळख असून अनोळखी असल्यासारखे वर्तन ती करू लागली, तिला पाहिजे ते त्याने करावे हेच तिचे आग्रहाचे आणि शेवटचे ठाम मत तिने तिच्या कर्मातून त्याला निदर्शनास आणुन दिले…

 

शेवटी निर्णय झाला आई,वडील वृद्धाश्रमात दाखल झाले…….

 

एकच प्रश्न मी इथे उपस्थित

करतो… प्रेम होणे गुन्हा आहे, का लग्न झाले तो गुन्हा होता.

ज्या मुलाला लहानाचा मोठा

केला त्यानेच आपल्या आई,बापाला घरातून बाहेर

काढून वृद्धाश्रम दाखवला.

 

मग अशाने कसे होईल, कुठे गेली ती,

“मातृ देवो भव: पितृ देवो भव:”

म्हणणारी पवित्र भारतीय संस्कृती….

कुणाच्याच आयुष्यात असे नको व्हायला…

 

नको तो तुरुंगवास…

नको नरक यातनांनी भरलेलं ते जीवन.

 

शेवटी समारोप करतांना मला हेच म्हणावे वाटतं आहे की…

 

जपा संस्कृती,

वारसा तो आपला

आई, वडिलांनी जन्म दिला

सोहळा त्यामुळेच साजरा झाला.

 

फक्त नांदा सौख्यभरे…

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन,

वर्धा रोड नागपूर,(440005)

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 58 ☆ व्यंग्य – उनके वियोग में ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘उनके वियोग में ’।  आप ‘वियोग’ पर इस बेहतरीन व्यंग्य को पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया दिए बिना नहीं रह पाएंगे। इस अतिसुन्दर व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 58 ☆

☆ व्यंग्य – उनके वियोग में 

शादी को प्राप्त होने के बाद वे पहली बार मायके जा रही थीं, यानी एक साल बाद। मैं उनके एक साल के निरन्तर संपर्क के बाद एकदम घरेलू प्राणी बन गया था। सींग और दाँत झड़ गये थे और शायद दुम निकल आयी थी।

स्टेशन पर मैं बहुत दुखी था। उनसे पहली बार विछोह हो रहा था। दिल कैसे कैसे तो हो रहा था। रेलगाड़ी बैरिन जैसी लग रही थी और उनकी बगल में डटा साला बैरी जैसा।

उन्हें विदा करके लौटा तो घर भाँय भाँय कर रहा था। यह पढ़ी हुई भाषा है, अन्यथा घर भाँय भाँय कैसे करता है, मुझे नहीं मालूम। मैंने किसी घर को भाँय भाँय करते नहीं सुना।

थोड़ी देर बिस्तर पर पड़ा रहा। हालत उस कुत्ते सी हो रही थी जिसका मालिक खो गया हो। जब चैन नहीं पड़ा तो स्कूटर लेकर मल्लू के घर पहुँच गया। मल्लू पालू के साथ रहता है। दोनों छड़े हैं। शादी के बाद से उनके साथ मेरा उठना बैठना कम हो गया था।

मल्लू ने मेरी शकल देखी तो कैफियत मांगी, और कारण जानते ही वह मुझ पर टूट पड़ा। बोला, ‘बीवी के जाने से अगर तुझे दुख हो रहा है तो तू गधेपन की इन्तहा को प्राप्त हो गया। भगवान ने यह मौका दिया है, कुछ दिन के लिए आदमी बन जा।’

वह मुझे पकड़कर सदर बाज़ार ले गया। हम लोग देर रात तक घूमते, खाते पीते रहे। मुझे लगा धीरे धीरे मेरे दिल की गिरह खुल रही है। थोड़ी देर में मेरा दिल गुब्बारा हो गया। हम लोग खूब मस्ती करते रहे।

दूसरे दिन वे दोनों सबेरे ही मेरे घर आ गये। आराम से चाय-नाश्ता हुआ, फिर हम ग्वारीघाट चले गये। शाम को सिनेमा देखा और फिर रात को सड़कों पर आवारागर्दी करते रहे।

मुझे लगा हे भगवान, मैं एक साल तक कहाँ दफन हो गया था और कैसे एकाएक कब्र में से उठ खड़ा हुआ? यों समझिए कि मेरा नया जन्म हो गया।

तीसरे दिन मैंने अपने घर पर ताला मार दिया और उन्हीं लोगों के साथ फिट हो गया। फिर तो जैसे दिनों को पंख लग गये। रात को बारह-एक बजे तक हुड़दंग मचाते, फिर सबेरे दस ग्यारह बजे तक सोते।

कभी कभी ज़रूर जब रात के सन्नाटे में आँख खुल जाती तो बीवी की याद आ जाती। मन कहता, ‘अरे कृतघ्न, वह उधर गयी और तू उसे भूल कर गुलछर्रे उड़ाने लगा? चुल्लू भर पानी में डूब मर बेशर्म।’ लेकिन सच कहूँ, ये विचार पानी में खींची लकीर जैसे होते थे।

उन दो महीनों में ही मालूम हुआ कि एक साल में हमारा शहर कितना सुन्दर हो गया है और मनोरंजन की सुविधाएं कितनी बढ़ गयी हैं। समझो कि शहर मेरे लिए नया हो गया। यह भी पहली बार मालूम हुआ कि हमारा शहर एक साल में कितना बड़ा हो गया है।

फिर एक दिन उनका फोन आ गया कि वे आ रही हैं। मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे स्वर्ग से लात मार दी हो। हम तीनों मित्र एक दूसरे से लिपट कर खूब रोये।

उदास मुख लिये मैं स्टेशन पहुँचा। वे उतरीं तो मेरा मुख देखकर द्रवित हो गयीं। बोलीं, ‘लो, मैं आ गयी। अब खुश हो जाओ।’ मैंने दाँत निकाल दिये। रेलगाड़ी मुझे उस दिन भी बैरिन लग रही थी जिस दिन वे गयी थीं, और आज भी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #55 ☆ इनबिल्ट ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – इनबिल्ट ☆

अपने दैनिक पूजा-पाठ में या जब कभी मंदिर जाते हो,  सामान्यतः याचक बनकर ईश्वर के आगे खड़ा होते हो। कभी धन, कभी स्वास्थ्य, कभी परिवार में सुख-शांति, कभी बच्चों का विकास तो कभी…, कभी की सूची लंबी है, बहुत लंबी।

लेकिन कभी विचार किया कि दाता ने सारा कुछ, सब कुछ पहले ही दे रखा है। ‘जो पिंड में, सोई बिरमांड में।’ उससे अलग क्या मांग लोगे? स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि ब्रह्मांड की सारी शक्तियाँ पहले से हमारे भीतर है। अपनी आँखों को अपने ही हाथों से ढककर हम ‘अंधकार, अंधकार’ चिल्लाते हैं। कितना गहन पर कितना सरल वक्तव्य है। ‘एवरीथिंग इज इनबिल्ट।’…तुम रोज मांगते हो, वह रोज मुस्कराता है।

एक भोला भंडारी भगवान से रोज लॉटरी खुलवाने की गुहार लगाता था। एक दिन भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,’बावरे! पहले लॉटरी का टिकट तो खरीद।’

तुम्हारा कर्म, तुम्हारा परिश्रम, तुम्हारा टिकट है। ये लॉटरी नहीं जो किसी को लगे, किसी को न लगे। इसमें परिणाम मिलना निश्चित है। हाँ, परिणाम कभी जल्दी, कभी कुछ देर से आ सकता है।

उपदेशक से समस्या का समाधान पाने के लिए उसके पीछे या उसके बताये मार्ग पर चलना होता है। उपदेशक के पास समस्या का सर्वसाधारण हल है।  राजा और रंक के लिए, कुटिल और संत के लिए, बुद्धिमान और नादान के लिए, मरियल और पहलवान के लिए एक ही हल है।

समुपदेशक की स्थिति भिन्न है। समुपदेशक तुम्हारी अंतस प्रेरणा को जागृत करता है कि अपनी समस्या का हल तलाशने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है। तुम्हें अपने तरीके से अपना प्रमेय हल करना है। प्रमेय भले एक हो, हल करने का तरीका प्रत्येक की अपनी दैहिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है।

समुपदेशक तुम्हारे इनबिल्ट को एक्टिवेट करने में सहायता करता है। ईश्वर से मत कहो कि मुझे फलां दे। कहो कि फलां हासिल करने की मेरी शक्ति को जागृत करने में सहायक हो। जिसने ईश्वर को समुपदेशक बना लिया, उसने भीतर के ब्रह्म को जगा लिया….और ब्रह्मांड में ब्रह्म से बड़ा क्या है?

 

© संजय भारद्वाज

परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 15 ☆ गीत हूँ मैं ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना गीत हूँ मैं. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 15 ☆ 

☆ गीत हूँ मैं ☆ 

 

सावनी मनुहार हूँ मैं

फागुनी रसधार हूँ मैं

चकित चंचल चपल चितवन

पंचशर का वार हूँ मैं

विरह में हूँ, मिलन में हूँ

प्रीत हूँ मैं

 

तीर हूँ, तलवार हूँ मैं

ऊष्ण शोणित-धार हूँ मैं

हथेली पर जान लेकिन

शत्रु काँपे काल हूँ मैं

हार को दूँ हार, जय पर

जीत हूँ मैं

 

सत्य-शिव-सुंदर सृजन हूँ

परिश्रम कोशिश लगन हूँ

आन; कंकर करूँ शंकर

रहा अपराजित जतन हूँ

शुद्ध हूँ, अनिरुद्ध शाश्वत

नीत हूँ मैं

 

जनक हूँ मैं-जननि लोरी

भ्रात हूँ मैं, भगिनि भोरी

तनय-तनया लाड़ हूँ मैं

सनातन वात्सल्य डोरी

अंकुरित पल्लवित पुष्पित

रीत हूँ मैं

 

भक्त हूँ, भगवान हूँ मैं

भगवती-संतान हूँ मैं

शरण देता, शरण लेता

सगुण-निर्गुण गान हूँ मैं

कष्ट हर कल्याणकर्ता

क्रीत हूँ मैं

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 14 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 14/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 14 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

उनके हाथों में मेहंदी लगाने

का यह फायदा हुआ

कि रात भर हम उनके

चेहरे से ज़ुल्फ हम हटाते रहे..

  

 The advantage of applying mehndi 

On her hands was that I kept on

Removing the tufts of hair from 

Her face throughout the night…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 अगर इश्क़ करो तो

अदब ए  वफ़ा भी सीखो

ये चंद दिनों की बेकरारी

मोहब्बत नहीं होती..

  

  If you love someone then

Learn to practise loyalty too

A few days of restlessness

Is not construed as love…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 उनके हाथों में मेहंदी लगाने का

ये फायदा हुआ…

की रात भर उनके चेहरे से

ज़ुल्फ हम हटाते रहे…

  

 Reward of applying mehndi on her

Hands was that I was privileged 

To remove the bangs of hair from 

Her face throughout the night…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 तेरी एक झलक ही काफ़ी 

है जीने के लिए पर दिल का 

मोह ही है सारी उम्र मिल 

जाये तो भी कम है

 

Your one glimpse alone is

Just enough to live for but it’s the 

Fascination of heart that finds

It less even if it get entire lifetime

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Please share your Post !

Shares