मराठी साहित्य – समाजपारावरून साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प दहावे # 10 ☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं । आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये  तरुणों में व्याप्त व्यसन जैसी एक सामाजिक  समस्या पर विचारणीय आलेख “व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग”)

 

☆ समाज पारावरून – साप्ताहिक स्तंभ  – पुष्प  दहावे  # 10 ☆

 

☆ व्यसनाच्या आहारी गेलेला तरूण वर्ग ☆

 

माणसाला माणूस जोडण्याचे,  माणसात रहाण्याचे व्यसन असावे  असे संस्कार  आमच्या वर झाले. त्यामुळे व्यसनाधीनता हा विषय जिव्हाळ्याचा वाटला.  आजची तरुण पिढी मुबलक पैसा, कुतूहल,  अनुकरण  आणि सुखासीन  आयुष्य जगण्याची सवय यामुळे जास्तीत जास्त व्यसनाधीन होत आहे. समाज पारावरून हा विषय हाताळताना अनेक पैलू समोर येतात.  वर वर साधी वाटणारी ही समस्या  अतिशय गंभीर स्वरूप धारण करीत आहे.

मी माझ्या मुलाला काहीही कमी पडू देणार नाही ही पालकांची भूमिका पाल्याला व्यसनी बनवायला कारणीभूत ठरते आहे.  कुटुंबातील नात्यांमधे हरवत चाललेला संवाद हे ही प्रमुख कारण आहेच. एकटे रहाण्याची सवय व्यसनाला पोषक वातावरण तयार करते  आणि समवयस्क मुलांना असलेली व्यसने संगती दोषामुळे  आपोआप स्वतःला चिकटतात.  तारूण्यात असलेली बेफिकीर वृत्ती व्यसनाला कारणीभूत ठरते.  काही होत नाही कर ट्राय  ही चिथावणी  सार आयुष्य बरबाद करते.

घर दार, कुटुंब ,  म्हणजे काय हे समजून घ्यायच्या  आतच  आजचा तरूण व्यसनाधीन होतो  आहे.  अंगावर कौटुंबिक जबाबदाऱ्या नसल्याने खुशालचेंडू आयुष्य जगणारा युवक  स्वतःसाठी जास्त जगताना  आढळतो. हे स्वतःसाठी जगणे म्हणजे हवे तसे जगणे  असा अर्थ घेऊन तो जगतो आहे.  पैसा हे मूळ कारण यात कारणीभूत आहे.  पैसा कमवायची  सवय, गरज निर्माण होण्याआधी तो खर्च कसा करायचा याचा विचार करणारी तरूण पिढी व्यसनाच्या  इतकी आहारी जाते की ते व्यसन त्यांच्या जगण्याच्या  एक भाग होऊन बसते.

एखाद्या कुट॔बात वडिल धारे व्यसनी असतील तर मात्र तरूण पिढी  आपोआपच व्यसनाधीन होते.  समाजरूढी परंपरा यामुळे  घरची स्त्री अजूनही सजगतेने या व्यसनी व्यक्तीला सांभाळून घरदार सावरत आहे.  ताण तणाव दुंख निराशा या भावना स्त्रीयांनाही आहेत. पण जबाबदारी माणसाला माणूस बनवते आणि या मुळेच स्त्रीया कणखर पणे यातून मार्ग काढीत आहेत. नव्या पिढीच्या काही तरूणी व्यसनाधीन होत आहेत त्याला कौटुंबिक वातावरण जास्त जबाबदार आहे.

नशा, दारू हे व्यवसाय समाजान वाढवले आहेत.  आणि हा समाज  आपणच  आहोत तेव्हा वैयक्तिक पातळीवर  आपण व्यसनाधीनतेला आळा कसा घालता येईल यावर जास्त कठोर पणे  उपाययोजना करायला हवी. मुलगा वयात येताना  बापाने व्यसनाधीनतेचे प्रदर्शन टाळले आणि मुलाशी सुसंवाद साधला तरी मुलगा व्यसनापासून दूर राहू शकतो.  चांगले झाले तर मी केले  आणि वाईट झाले तर देवाने, नशीबाने, सरकारने केले ही विचारधारा जोपर्यंत आपण बदलत नाही तोपर्यंत हे सरकार देखील यात काही ठोस निर्णय घेऊ शकणार नाही  असे मला वाटते.

व्यसनाधीनता रोखणे  आपल्या हातात आहे पण व्यसनाधीनता थांवण्यासाठी सरकारला दोष देणे मला पटत नाही.  सर्व दोष व्यक्ती कडे  असताना परीस्थिती हाताबाहेर गेल्यावर सरकारकडून मदतयाचना करणे हा या समस्येवर तोडगा नाही.  आपण समजूत दार  आहोत.

आम्ही व्यसन मर्यादित ठेवले आहे  अशी फुशारकी मारणारे देखील कौटुंबिक संवादात  अपयशी ठरले आहेत. तेव्हा व्यसन ही समस्या गंभीर आहे ती सोडविण्यास जागरूकता महत्वाची आहे.  जबाबदारी पेलताना माणूस म्हणून वैचारिक संस्कार सुशिक्षित पिढीवर करण्याची वेळ आली आहे.  तंबाखू, दारू, सिगारेट नशा हे सर्व  आपण स्वीकारलेले विकार आहेत त्याचा विनाश करण्यासाठी त्यांचा त्याग करणे,  हा मोह टाळणे अतिशय योग्य आहे.

दुसऱ्याला  अमूक एक गोष्ट करू नको हे सांगण्यापेक्षा आपल्या माणसाला व स्वतःला  (जर व्यसन  असेल तर  )परावृत्त करणे जास्त सोपे आहे. तरूण आपणही होतो.  आपण केलेल्या चुका मुलांनी करू नये एवढी काळजी जरी प्रत्येकाने घेतली तरी तरूण पिढी यातून वाचू शकेल.

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 8 ♥ कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन ♥ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 8 ☆ 

 

♥ कुपोषण की चिंता में बटर चिकिन ♥

 

एयर कंडीशन्ड, सजे धजे मीटिंग हाल में अंडाकार भव्य टेबिलो के किनारे लगी आरामदेह रिवाल्विंग कुर्सियों पर तमाम जिलों से आये हुये अधिकारियो की बैठक चल रही थी। गहन चिंता का विषय था कि विगत माह जो आंकड़े कम्प्यूटर पर इकट्ठे हुये थे उनके अनुसार प्रदेश में कुपोषण बढ़ रहा था। बच्चो का औसत वजन अचानक कम हो गया था। चुनाव सिर पर हैं, और पड़ोसी प्रदेश जहां विपक्षी दल की सरकार है, के अनुपात में हमारे प्रदेश में बच्चोँ में कुपोषण का बढ़ना संवेदन शील मुद्दा था, कई दिनो तक आंकड़ो की फाइल इस टेबिल से उस टेबिल पर चक्कर काटती रही। जिम्मेदारी तय किये जाने का असफल प्रयत्न किया जाता रहा, अंततोगत्वा कुपोषण की दर में वृद्धि के आंकड़ों पर मंत्री मण्डल में विचार विमर्श की लम्बी प्रक्रिया के बाद माननीय मंत्री जी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर अपनी सार्वजनिक चिंता जाहिर कर दी। उन्होंने बच्चों के स्वास्थ्य से किसी को खिलवाड़ न करने देने की, एवं इसमें कोई भी कसर छोड़ने वाले अधिकारी को न बख्शने की खुली चेतावनी भी दे डाली।

आनन फानन में फैक्स भेजकर बाल विकास अधिकारियो, स्वास्थ्य अधिकारियों, जिला अधिकारियों को राजधानी बुलाया गया था। और परिणाम स्वरूप सरकार के मुख्य सचिव कुपोषण के आंकड़ो की चिंता में बैठक ले रहे थे। सरकार के जन संपर्क विभाग के अधिकारी मीटिग के नोट्स ले रहे थे, टीवी चैनल के पत्रकारो को, मीडिया को ससम्मान मीटिंग के कवरेज के लिये आमंत्रित किया गया था। एक बालिका की कलात्मक मुस्कराती तस्वीर एक प्रमुख अखबार के मुख पृष्ठ पर छपी थी जिसमें उसकी हड्डियां दिख रही थीं, वह तस्वीर भी एजेंडे में थी, और उस तस्वीर में विपक्ष की साजिश ढ़ूढ़ने का प्रयत्न हो रहा था। विचार मंथन चल रहा था।

एक युवा अधिकारी ने अपने पावर पाइंट प्रेजेंटेशन के माध्यम से आंकड़े प्रस्तुत कर बताया कि उसके क्षेत्र में तो बच्चों का वजन कम होने की अपेक्षा लगातार बढ़ता ही जा रहा है, वरिष्ठ सचिव ने उसे डपट कर चुप कराते हुये कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है? उन्होंने चिंता करते हुये अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर उस अधिकारी को बताया कि अचानक वजन बढ़ना या कम होना थायराइड की शिकायत के कारण होता है। उन्होंने सभी से अपने अपने क्षेत्र में बच्चो का थायराइड टेस्ट कर बच्चो के स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की सलाह दी। जिसे सभी जिम्मेदार अधिकारियों ने अपनी कीमती डायरियो में तुरंत नोट कर लिया। एक महोदय ने इस सुझाव पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुये कुछ सवाल खड़े करने चाहे तो, बड़े साहब के समर्थक एक आई ए एस अधिकारी ने तुरंत ही उन्हें लगभग घुड़कते हुये कुपोषण के आंकड़ो पर सरकार की चिंता से अवगत कराया और इफ एण्ड बट की अपेक्षा काम करके परिणाम लाने को कहा। उस नासमझ को समझ आ गया कि यस मैन बनना ही बेहतर है। बड़े साहब के निजि सहायक ने तुरंत थायराइड टेस्ट के लक्ष्य निर्धारित करने हेतु आवश्यक प्रोफार्मा बना कर सबको देने हेतु कार्यवाही प्रारंभ कर दी, स्वास्थ्य विभाग के अमले ने त्वरित रूप से मोबाइल पर ही थायराइड टेस्ट की बाजार में कीमत का पता लगाया, और प्राप्त कीमत को दोगुना कर टेस्ट किट की खरीदी हेतु बजट प्रावधान हेतु नोटशीट लिख कर सक्षम स्वीकृति के लिये तैयारी कर ली। कुपोषण प्रभावित क्षेत्रो का पता लगाने के लिये बाल विकास अधिकारियो को उनकी जीप का औसत मासिक माइलेज बढ़ाने का अवसर मिलता नजर आया, जिसका लाभ उठाने हेतु एक अधेड़ अधिकारी ने अपनी बात रखी, जिसे बिना ज्यादा महत्व दिये वरिष्ट सचिव जी ने अगला बिंदु विचारार्थ ले लिया।

इससे सभी को यह बात स्पष्ट हो गई कि बिना मीटिंग में बोले, बाद में मीटिंग का हवाला देकर बहुत कुछ सकारात्मक किया जाना ज्यादा उचित होता है। बहरहाल कुपोषण से बचने के लिये दाल दलिया, दूध आदि की आपूर्ति बढ़ाने हेतु लिये गये मंत्री जी के निर्णय से अवगत करा कर लम्बी चली मीटिंग देर शाम को समाप्त हो सकी। मीटिंग की समाप्ति पर सभी प्रतिभागियों को डिनर पर आमंत्रित किया गया। डिनर दाल दलिया के सप्लायर की ओर से सौजन्य स्वरूप आयोजित था, और डिनर में बटर चिकिन की डिश विशेष रूप से बनवाई गई थी, क्योकि मुख्य सचिव महोदय को बटर चिकिन खास पसंद है।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10 ☆ ज़िंदगी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “ज़िंदगी ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #10☆

 

☆ ज़िंदगी ☆

 

मैंने अपनी पत्नी को कहा, “आज उमेश चाय पर आ रहा है.”

“क्या !” पत्नी चौंकते हुए बोली, “पहले नहीं कहना चाहिए था ?”

मैंने पूछा, “क्यों भाई, क्या हुआ ?”’

“देखते नहीं, घर अस्तव्यस्त पड़ा है. सामान इधर उधर फैला है. पहले कहते तो इन सब को व्यवस्थित कर देती. वह आएगा तो क्या सोचेगा? मैडम साफ सुथरे रहते है और घर साफ सुथरा नहीं रखते हैं.”

“वह यहीं देखने तो आ रहा है. शादी के बाद की जिंदगी कैसी होती है और शादी के पहले की जिंदगी कैसी होती है ?”’

“क्या !” अब चौंकने की बारी पत्नी की थी, “क्या, वह भी शादी कर रह है.”

मैं ने कहा, “ हां,” और पत्नी घर को व्यवस्थित करने में लग गई. ताकि शादीशुदा जिंदगी व्यवस्थित दिखें.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 10 – सार्थक…! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  साहित्य में नित नए प्रयोग हमें सदैव प्रेरित करते हैं। गद्य में प्रयोग आसानी से किए जा सकते हैं किन्तु, कविता में बंध-छंद के साथ बंधित होकर प्रयोग दुष्कर होते हैं, ऐसे में  यदि युवा कवि कुछ नवीन प्रयोग करते हैं उनका सदैव स्वागत है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  एक अतिसुन्दर रचना   “सार्थक…!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #10 ☆ 

 

☆ सार्थक…! ☆ 

 

कटेवरी  हात           उभा  विटेवरी

दीनांचा   कैवारी        पांडुरंग  . . . . !

 

नाही राग लोभ         नाही मोजमाप

सुख वारेमाप            दर्शनात. . . . . !

 

रूप तुझे देवा          मना करी शांत

जाहलो निवांत         अंतर्यामी . . . . !

 

रमलो संसारी          नाही तुझे भान

गातो गुणगान           आता तरी. . . . . !

 

कीर्तनात दंग            भक्तीचाच रंग

रचिला अभंग            आवडीने. . . . !

 

भीमा नदीकाठ          सार्‍यांचे माहेर

कृपेचा  आहेर           अभंगात. . . !

 

सुख दुःखे सारी          भाग जगण्याचा

स्पर्श चरणांचा           झाल्यावर. . . . !

 

सुजा म्हणे आता        सार्थक जन्माचे

नाम विठ्ठलाचे             ओठी  आले.

 

© सुजित कदम

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 8 – कितना बचेंगे …… ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक गीत  “कितना बचेंगे….. । )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 8 ☆

 

☆ कितना बचेंगे …..    ☆  

 

काल की है अनगिनत

परछाईयाँ

कितना बचेंगे।

 

टोह लेता है, घड़ी पल-छिन दिवस का

शून्य से सम्पूर्ण तक के  झूठ – सच का

मखमली है पैर या कि

बिवाईयां है

चलेंगे विपरीत, सुनिश्चित है

थकेंगे  ।  काल की…….

 

कष्ट भी झेले, सुखद सब खेल खेले

गंध  चंदन  की, भुजंग मिले  विषैले

खाईयां है या कि फिर

ऊंचाईयां है

बेवजह तकरार पर निश्चित

डसेंगे  । काल की………….।

 

विविध चिंताएं, बने चिंतक सुदर्शन

वेश धर कर  दे रहे हैं, दिव्य प्रवचन

यश, प्रशस्तिगान संग

शहनाईयां है

छद्म अक्षर, संस्मरण कितने

रचेंगे  । काल की…………..।

 

लालसाएं लोभ अतिशय चाह में सब

जब कभी ठोकर  लगेगी, राह में तब

छोर अंतिम पर खड़ी

सच्चाइयां है

चित्र खुद के देख कर खुद ही

हंसेंगे  ।

काल की है अनगिनत परछाईयाँ

कितना बचेंगे।।

 

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ कागज की नाव ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा प्रस्तुत यह लघुकथा भी वर्तमान सामाजिक परिवेश के ताने बाने पर आधारित है। डॉ प्रदीप जी के शब्द चयन एवं शैली  मौलिक है। )

 

☆ कागज की नाव ☆

 

मनोहर लाल अपने कमरे की  खिड़की से बाहर का नजारा देख रहे थे, तपती गर्मी के बाद झमाझम बारिश हो रही थी जिससे वातावरण में ठंडक का अहसास घुल रहा था। बहुत दिनों की तपन के बाद धरती भी अपनी प्यास बुझाकर मानो तृप्ति का  अनुभव कर रही हो।

बारिश की बड़ी बड़ी बूंदों से लान में पानी भर गया था और वह पानी तेजी से बाहर निकल कर सड़क पर दौड़ रहा था । मनोहरलाल को अपना बचपन याद आ गया, जब वे ऐसी बरसात में अपने भाई बहनों के साथ कागज की नाव बनाकर पानी में तैराते थे और देखते थे कि किसकी नाव कितनी दूर तक बहकर जाती है। जिसकी नाव सबसे दूर तक जाती थी वह विजेता भाव से सब भाई बहनों की ओर देखकर खुशी से ताली बजाकर पानी में छप-छप करने लगता था।

उनकी इच्छा पुनः कागज की नाव बनाकर लान में तैराने की हुई , अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु उन्होंने अपनी आलमारी से एक पुरानी कॉपी निकालकर उसका एक पेज फाड़कर नाव बनाई और उसे कुर्ते की जेब में रखकर अपने कमरे से बाहर आये। आज रविवार होने से  बेटा, बहु और नाती भी घर पर ही थे। ये तीनों ड्राइंग रूम में अपने अपने मोबाइल में व्यस्त थे।

वे  धीमे कदमों से ड्राइंग रूम से बाहर निकल ही रहे थे कि बहु ने आवाज देते हुए पूछा – “पापाजी इतनी बारिश में बाहर कहाँ जा रहे हैं? जरा सी भी ठंडी हवा लग जावेगी तो आपको  सर्दी हो जाती है फिर पूरी रात छींकते, खांसते रहते हैं, देख नहीं रहे हैं कितनी तेज बारिश हो रही है ऐसे में लान में क्या करेंगे, अपने कमरे में ही आराम कीजिये।”

वह चुपचाप मुड़े एवं अपने कमरे की ओर बढ़ गये उनका एक हाथ कुर्ते की जेब में था जिसकी मुठ्ठी में दबी कागज की नाव बाहर आने को छटपटा रही थी।

बेटे, बहु और नाती अपनी आभासी दुनिया में खोये पहली बरसात की फ़ोटो पोस्ट कर उस पर मिल रहे लाइक कमेंट्स पर खुश हो रहे थे।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 10 – वृक्षातळी ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी  कविता वृक्षातळी।  यह  शाश्वत  सत्य है कि जो समय बीत चुका है उसकी पुनरावृत्ति असंभव है।  उस बीते हुए समय के साथ बहुत सी स्मृतियाँ और बहुत से अपने वरिष्ठ भी पीछे छूट जाते हैं और अपनी स्मृतियाँ छोड़ जाते हैं । फिर यह अनंत प्रक्रिया समय के साथ चलती रहती है। आज हमारी स्मृतियों में कोई अंकित है तो कल हम किसी की स्मृतियों में अंकित होंगे। पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही इस प्रक्रिया को सुश्री प्रभा जी ने अत्यंत सहजता से काव्य स्वरूप दिया है। 

आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 10 ☆

 

☆ वृक्षातळी ☆

 

माणसं आपल्या अवतीभवती  असतात तेव्हा ब-याचदा दुर्लक्षिली जातात…..पण ती या जगातून निघून गेल्यावर त्यांची किंमत कळते, उणीव भासते, असं का होतं?आपण या विचाराने अस्वस्थ होतो, दुःखी होतो…  ही जगरहाटी आहे…

“जिन्दगी के सफरमे गुजर जाते है जो मकाम, वो फिर नही आते…..”

आत्ता आईची आठवण येते पण आई खुप दूर निघून गेली…..

एक अतिविशाल वृक्ष ,

अचानक भेटला प्रवासात आणि आठवले,

इथे येऊन गेलोय आपण,

पूर्वी कधीतरी …..

जाग्या झाल्या सा-याच आठवणी  !

पाय पसरून बसलेल्या

या ऐसपैस वृक्षाच्या बुंध्याशी बसून काढली होती

स्वतःचीच अनेक छायाचित्रे !

 

तेव्हा नव्हते जाणवले पण आज

आठवते  आहे आज,

आई घरी एकटीच होती

आणि आपण भटकलो होतो

रानोमाळ जंगलातले नाचरे मोर पहात !

तिला ही आवडले असते—

हसरे थेंब नाच रे मोर …..

ते विहंगम दृश्य आणि हा

अस्ताव्यस्त महाकाय वृक्ष !

आज ती नाही ……

उद्या होईल कदाचित आपलीही तिच अवस्था ,

आपल्याला पहायचे असेल,

फिरायचे असेल रानोमाळ ,

पण दुर्लक्षिले जाऊ आपणही

तिच्यासारखेच !

तेव्हा आपल्यातरी कुठे लक्षात आले होते ते  ??

उद्या “आपल्यांच्या “ही लक्षात रहाणार नाही आपण !त्या अजस्त्र वृक्षातळी ,

काल हसलो खिदळलो ……

पण आज जाणवतेय-

तेव्हाही हरवत होते काहीतरी ,आज ही हरवते आहे काही ……

त्या वृक्षातळी !!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 2 ☆ बांसुरी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “बांसुरी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 2 

 

☆ बांसुरी ☆

 

मैं तो बस

एक बांस की बांसुरी थी,

मेरा कहाँ कोई अस्तित्व था?

तुम्हारे ही होठों से बजती थी,

तुम्हारे ही हाथों पर सजती थी

और तुम्हारे ही उँगलियों से

मेरी धुन सुरीली होती थी!

 

जब

छोड़ देते थे तुम मुझे,

मैं किसी सूने कमरे के सूने कोने में

सुबक-सुबककर रोती थी,

और जब

बुला लेते थे तुम पास मुझे

मैं ख़ुशी से गुनगुनाने लगती थी!

 

ए कान्हा!

तुम तो गाते रहे प्रेम के गीत

सांवरी सी राधा के साथ;

तुमने तो कभी न जाना

कि मैं भी तुमपर मरती थी!

 

कितनी अजब सी बात है, ए कान्हा,

कि जिस वक़्त तुमने

राधा को अलविदा कहा

हरे पेड़ों की छाँव में,

और तुम चले गए समंदर के देश में,

मैं भी कहीं लुप्त हो गयी

तुम्हारे होठों से!

 

राधा और मैं

शायद दोनों ही प्रेम के

अनूठे प्रतिबिम्ब थे!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – # 10 – दावत ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “दावत”। इस लघुकथा ने  संस्कारधानी जबलपुर, भोपाल और कई शहरों  में गुजारे हुए गंगा-जमुनी तहजीब से सराबोर पुराने दिन याद दिला दिये। काश वे दिन फिर लौट आयें। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के लिए नमन।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 10 ☆

 

☆ दावत ☆

 

दावत कहते ही मुंह में पानी आ जाता है। एक भरी भोजन की थाली जिसमें विभिन्न प्रकार के सब्जी, दाल, चावल, खीर-पूड़ी, तंदूरी, सालाद, पापड़ और मीठा। किसी का भी मन खाने को होता है।

मोहल्ले में कल्लन काले खाँ चाचा की आटा चक्की की दुकान। अब तो सिविल लाइन वार्ड और मार्ग हो गया। पहले तो पहचान आटा चक्की, मंदिर के पास वाली गली। कल्लन  काले खाँ को सभी कालू चाचा कहते थे। क्योंकि उनका रंग थोड़ा काला था। कालू चाचा की इकलौती बेटी शबनम और हम एक साथ खेलते और पढ़ते थे।

शाम हुआ आटा चक्की के पास ही हमारा खेलना होता था। स्कूल भी साथ ही साथ जाना होता। दो दिन से शबनम स्कूल नहीं आ रही थी।

हमारे घर में क्यों कि मंदिर है उसका यहाँ आना जाना कम होता था। बड़े बुजुर्ग लड़कियों को किसी के यहाँ बहुत कम आने जाने देते हैं।

समय बीता एक दिन शाम को शबनम बाहर दौड़ते हुए आई और बताने लगी ” सुन मेरा ‘निकाह’ होने वाला है। अब्बू ने मेरा निकाह तय कर लिया। हमने पूछा “निकाह क्या होता है?”

उसने बहुत ही भोलेपन से हँसकर कहा “बहुत सारे गहने, नए-नए कपड़े और खाने का सामान मिलता है। हम तो अब निकाह करेंगे। सुन तुम्हारे यहां जो “शादी” होती है उसे ही हम मुसलमान में “निकाह” कहा जाता है।” इतना कहे वह शरमा कर दौड़ कर भाग गई। हमें भी शादी का मतलब माने बुआ-फूफा, मामा-मामी और बहुत से रिश्तेदारों का आना-जाना। गाना-बजाना और नाचना। मेवा-मिठाई और बहुत सारा सामान। उस उम्र में शादी का मतलब हमें यही पता था।

ख़ैर निकाह का दिन पास आने लगा कालू चाचा कार्ड लेकर घर आए। हाथ जोड़ सलाम करते पिताजी से कहे  “निकाह में जरूर आइएगा बिटिया को लेकर और दावत वहीं पर हमारे यहाँ  करना है।” बस इतना कह वह चले गए।

घर में कोहराम मच गया दावत में वह भी शबनम के यहाँ!! क्योंकि हमारे घर शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था। लेकिन पिताजी ने समझाया कि “बिटिया का सवाल है और मोहल्ले में है। हमारा आपसी संबंध अच्छा है, इसलिए जाना जरूरी है।”

घर से कोई नहीं गया। पिताजी हमें लेकर शबनम के यहाँ पहुँचे। उसका मिट्टी का घर खपरैल वाला बहुत ही सुंदर सजा हुआ था। चारों तरफ लाइट लगी थी शबनम भी चमकीली ड्रेस पर चमक रही थी। जहां-तहां मिठाई और मीठा भात बिखरा पड़ा था। हमें लगा हमारी भी शादी हो जानी चाहिए। जोर-जोर से बाजे बज रहे थे और कालू चाचा कमरे से बाहर आए उनके हाथ में नारियल औरकाजू-किशमिश का पैकेट था। उन्होंने पिताजी को गले लगा कर कहा “जानता हूँ भैया, आप हमारे यहाँ दावत नहीं करेंगे पर यह मेरी तरफ से दावत ही समझिए।”

पिताजी गदगद हो गए आँखों से आँसू बहने लगे। ये खुशी के आँसू शबनम के निकाह के थे या फिर दावत की जो कालू चाचा ने कराई। हमें समझ नहीं आया। पर आज भी शबनम का निकाह याद है।

शबनम का निकाह और दावत दोनों कुबूल हुई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #10 – हिरवी चादर ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  एवं सार्थक कविता  “हिरवी चादर”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 10 ☆

? हिरवी चादर?

 

स्वाती नक्षत्राचा थेंब

असे चातकाचा प्राण

एका थेंबात भिजतो

त्याचा आषाढ श्रावण

 

धरतीचं हे काळीज

फाटते हो ज्याच्यालाठी

भावविश्व गंधाळते

जेव्हा होती भेटीगाठी

 

तिच्या डोळ्यात पाऊस

त्याची वाट पाहणारा

त्याचा खांदा हा शिवार

तेथे बरसती धारा

 

माझ्या घामाच्या धारांना

तुझ्या धारांचा आधार

काळ्या ढेकळांची व्हावी

येथे हिरवी चादर

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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