सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक बेहतरीन लघुकथा “दावत”। इस लघुकथा ने  संस्कारधानी जबलपुर, भोपाल और कई शहरों  में गुजारे हुए गंगा-जमुनी तहजीब से सराबोर पुराने दिन याद दिला दिये। काश वे दिन फिर लौट आयें। श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ़ जी की कलम को इस बेहतरीन लघुकथा के लिए नमन।)

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 10 ☆

 

☆ दावत ☆

 

दावत कहते ही मुंह में पानी आ जाता है। एक भरी भोजन की थाली जिसमें विभिन्न प्रकार के सब्जी, दाल, चावल, खीर-पूड़ी, तंदूरी, सालाद, पापड़ और मीठा। किसी का भी मन खाने को होता है।

मोहल्ले में कल्लन काले खाँ चाचा की आटा चक्की की दुकान। अब तो सिविल लाइन वार्ड और मार्ग हो गया। पहले तो पहचान आटा चक्की, मंदिर के पास वाली गली। कल्लन  काले खाँ को सभी कालू चाचा कहते थे। क्योंकि उनका रंग थोड़ा काला था। कालू चाचा की इकलौती बेटी शबनम और हम एक साथ खेलते और पढ़ते थे।

शाम हुआ आटा चक्की के पास ही हमारा खेलना होता था। स्कूल भी साथ ही साथ जाना होता। दो दिन से शबनम स्कूल नहीं आ रही थी।

हमारे घर में क्यों कि मंदिर है उसका यहाँ आना जाना कम होता था। बड़े बुजुर्ग लड़कियों को किसी के यहाँ बहुत कम आने जाने देते हैं।

समय बीता एक दिन शाम को शबनम बाहर दौड़ते हुए आई और बताने लगी ” सुन मेरा ‘निकाह’ होने वाला है। अब्बू ने मेरा निकाह तय कर लिया। हमने पूछा “निकाह क्या होता है?”

उसने बहुत ही भोलेपन से हँसकर कहा “बहुत सारे गहने, नए-नए कपड़े और खाने का सामान मिलता है। हम तो अब निकाह करेंगे। सुन तुम्हारे यहां जो “शादी” होती है उसे ही हम मुसलमान में “निकाह” कहा जाता है।” इतना कहे वह शरमा कर दौड़ कर भाग गई। हमें भी शादी का मतलब माने बुआ-फूफा, मामा-मामी और बहुत से रिश्तेदारों का आना-जाना। गाना-बजाना और नाचना। मेवा-मिठाई और बहुत सारा सामान। उस उम्र में शादी का मतलब हमें यही पता था।

ख़ैर निकाह का दिन पास आने लगा कालू चाचा कार्ड लेकर घर आए। हाथ जोड़ सलाम करते पिताजी से कहे  “निकाह में जरूर आइएगा बिटिया को लेकर और दावत वहीं पर हमारे यहाँ  करना है।” बस इतना कह वह चले गए।

घर में कोहराम मच गया दावत में वह भी शबनम के यहाँ!! क्योंकि हमारे घर शुद्ध शाकाहारी भोजन बनता था। लेकिन पिताजी ने समझाया कि “बिटिया का सवाल है और मोहल्ले में है। हमारा आपसी संबंध अच्छा है, इसलिए जाना जरूरी है।”

घर से कोई नहीं गया। पिताजी हमें लेकर शबनम के यहाँ पहुँचे। उसका मिट्टी का घर खपरैल वाला बहुत ही सुंदर सजा हुआ था। चारों तरफ लाइट लगी थी शबनम भी चमकीली ड्रेस पर चमक रही थी। जहां-तहां मिठाई और मीठा भात बिखरा पड़ा था। हमें लगा हमारी भी शादी हो जानी चाहिए। जोर-जोर से बाजे बज रहे थे और कालू चाचा कमरे से बाहर आए उनके हाथ में नारियल औरकाजू-किशमिश का पैकेट था। उन्होंने पिताजी को गले लगा कर कहा “जानता हूँ भैया, आप हमारे यहाँ दावत नहीं करेंगे पर यह मेरी तरफ से दावत ही समझिए।”

पिताजी गदगद हो गए आँखों से आँसू बहने लगे। ये खुशी के आँसू शबनम के निकाह के थे या फिर दावत की जो कालू चाचा ने कराई। हमें समझ नहीं आया। पर आज भी शबनम का निकाह याद है।

शबनम का निकाह और दावत दोनों कुबूल हुई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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Sanjay Bhardwaj

एक-दूसरे के सामाजिक सरोकारों को समझते हुए आपस में सच्चा प्यार था उन दिनों। …कहाँ गये वे दिन!