हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ ‘बा’ की 74वीं पुण्यतिथि पर स्मरण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें।  प्रस्तुत है  23 फ़रवरी को आदरणीय कस्तूरबा गाँधी जी की पुण्य तिथि पर विशेष आलेख  “’बा’ की पुण्यतिथि पर स्मरण”)

☆ आलेख ☆ ‘बा’ की 74वीं  पुण्यतिथि पर स्मरण ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

23 फ़रवरी को बा की 74वीं  पुण्यतिथि थी।

गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका में 1907के दौरान सत्याग्रह कर रहे थे तब स्त्रियों को भी सत्याग्रह में शामिल करने की बात उठी। अनेक बहनों से इस संबंध में चर्चा की गई और जब सबने विश्वास दिलाया कि वे हर दुःख सह कर भी जेल यात्रा करेंगी तो गांधी जी ने इसकी अनुमति उन सभी बहनों को दे दी। लेकिन बहनों के जेल जाने की चर्चा उन्होंने अपनी पत्नी कस्तूरबा से नहीं की। बा को भी जब सारी चर्चा का सार पता चला तो उन्होंने गांधी जी से कहा ” मुझसे इस बात की चर्चा नहीं करते, इसका मुझे दुःख है। मुझमें ऐसी क्या खामी है कि मैं जेल नहीं जा सकती। मुझे भी उसी रास्ते जाना है, जिस रास्ते जाने की सलाह आप इन बहनों को दे रहे हैं।”

गांधीजी ने कहा “मैं तुम्हें दुःख पहुंचा ही नहीं सकता। इसमें अविश्वास की भी कोई बात नहीं। मुझे तो तुम्हारे जाने से खुशी होगी; लेकिन तुम मेरे कहने से गई हो, इसका तो आभास तक मुझे अच्छा नहीं लगेगा। ऐसे काम सबको अपनी-अपनी हिम्मत से ही करने चाहिए। मैं कहूं और मेरी बात रखने के लिए तुम सहज ही चली जाओ और बाद में अदालत के सामने खड़ी होते ही कांप उठो और हार जाओ या जेल के दुःख से ऊब उठो तो इसे मैं अपना दोष तो नहीं मानूंगा ; लेकिन सोचो मेरा हाल क्या होगा! मैं तुमको किस तरह रख सकूंगा और दुनिया के सामने किस तरह खड़ा रह सकूंगा? बस, इस भय के कारण मैंने तुम्हें ललचाया नहीं?”

बा ने जवाब दिया ” मैं हारकर छूट जाएं तो मुझे मत रखना। मेरे बच्चे तक सह सकें, आप सब सहन कर सकें और अकेली मैं ही न सह सकूं, ऐसा आप सोचते कैसे हैं? मुझे इस लड़ाई में शामिल होना ही होगा।”

गांधीजी ने जवाब दिया ” तो मुझे तुमको शामिल करना ही होगा। मेरी शर्त तो तुम जानती ही हो। मेरे स्वभाव से भी तुम परिचित हो। अब भी विचार करना हो तो फिर विचार कर लेना और भली-भांति सोचने के बाद तुम्हें यह लगे कि शामिल नहीं होना है तो समझना, तुम इसके लिए आजाद हो। साथ ही, यह भी समझ लो कि निश्चय बदलने में अभी शरम की कोई बात नहीं है।”

बा ने जवाब दिया ” मुझे विचार-विचार कुछ भी नहीं करना है। मेरा निश्चय ही है।”

तो ऐसी दृढ़ संकल्प की धनी थी बा, जिन्होंने बापू का कठिन से कठिन परिस्थितियों में साथ दिया। बापू को जो सारे सम्मान मिले उसके पीछे मेहनत बा की ही थी और इसे गांधी जी ने स्वयं सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया।

बा का निधन 22फरवरी 1944को आगा खान पैलेस पूना में हुआ, जहां वे बापू और महादेव देसाई के साथ कैद थी। बा ने अंतिम श्वास तो बापू की गोदी में सिर रख कर ली।

? उनकी 74वीं पुण्य तिथि पर शत शत नमन ?

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 35 ☆ काश दिल का हाल पहले ही जान जाते ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता काश दिल का हाल पहले ही जान जाते। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 35 ☆

☆ काश दिल का हाल पहले ही जान जाते ☆

काश ख्वाब हकीकत में बदल जाते,

जिंदगी खुशनुमा बन जाती ||

 

काश सबके मन की बात पहले ही जान पाते,

दिलों में दरारें आने से बच जाती ||

 

काश दिलों को हम पहले ही समझ लेते,

जिंदगी नफरतों का घरोंदा बनने से बच जाती ||

 

काश दिल का हाल जान मैं ही एक पहल कर लेता,

जिंदगी के खुशनुमा लम्हें यूं ही जाया होने से बच जाते ||

 

काश दिल का हाल पढ़ हम कुछ गम पी जाते,

हम गलतफहमियों के शिकार होने से बच जाते ||

 

काश हम एक दूसरे के दुःख दर्द महसूस कर पाते,

रिश्ते गलतफहमियों के शिकार होने से बच जाते ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 87 – माझी मराठी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 87 ☆

☆ माझी मराठी ☆

नाजूक कोवळी

शुद्ध  अन सोवळी

मौक्तिक,पोवळी

सदाशिव पेठीय

माझी मराठी….

 

पी.वाय.सी. बाण्याची

क्रिकेट च्या गाण्याची

खणखणीत नाण्याची

डेक्कन वासीय

माझी मराठी…..

 

काहीशी रांगडी

उद्धट,वाकडी

कसब्याच्या पलिकडची

जराशी  अलिकडची

‘अरे’ ला ‘कारे’ ची

माझी मराठी….

 

वाढत्या पुण्याची

काँक्रीट च्या जंगलाची

सर्वसमावेशी,जाते दूरदेशी

इंटरनेट वरची माझी मराठी…..

 

© प्रभा सोनवणे

१४ फेब्रुवारी २०११

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 72 ☆ एक कहानी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता एक कहानी। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 72 ☆

☆ एक कहानी ☆

चिलमन भी उठा

वो पास भी आए

पर नूर नज़र न आया

थे फ़िक्र के गहरे साये

 

गुम-गश्ता था माजी

कल पर कहाँ ऐतबार?

लकीरें थीं ही नहीं

कैसे महकता प्यार?

 

लबों से लब मिले तो

पर दिल एक न हुए

ज़हन में कसक थी

सिर्फ जिस्म थे छुए हुए

 

किसी ने कुछ न कहा

ज़िंदगी चलती रही

सुबह भी आती रही

शाम ढलती रही

 

हर शबनमी सुबह

आँखें कुछ नम रहीं

ज़िंदगी की आस भी

मानो, कुछ कम रही

 

एक केसरिया शाम

जीवन ढलने वाला था…

पर उसने आँखें खोलीं तो

हर ओर उजाला था

 

अपनी रूह से मिलने

वो अपनी राह निकल गयी

अँधेरे रौशनी में बदले

उसकी भी काया बदल गयी

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 91 ☆ रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  श्री संतोष तिवारी जी की पुस्तक “रिश्तें मन से मन के” – की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 91 – रिश्तें मन से मन के – श्री संतोष तिवारी  ☆ 
 पुस्तक चर्चा

 

रिश्तों को,

गलतियाँ उतना कमजोर नहीं करती….

जितना कि,

ग़लतफ़हमियाँ कमजोर कर देती है !

रिश्ते ऐसा विषय है जिस पर अलग अलग दृष्टिकोण से हर बार एक अलग ही चित्र बनता है, जैसे केलिडोस्कोप में टूटी चूडियां मनोहारी चित्र बनाती हैं, पर कभी भी चाह कर भी पुनः पिछले चित्र नही बनाये जा सकते।

अतः हर रिश्ते में प्रत्येक पल को पूरी जीवंतता से जीना ही जीवन है।

पति पत्नी का रिश्ता ही लीजिए प्रत्येक दम्पति जहां कभी  प्रेम की पराकाष्ठा पार करते दिखते है, तो कभी न कभी एक दूसरे से क्रोध में दो ध्रुव लगते हैं।

इस पुस्तक से गुजरते हुए मानसिक प्रसन्नता हुई। सन्तोष जी का अनुभव कोष बहुत व्यापक है। उन्होंने स्वयं के या परिचितों के अनुभवों को बहुत संजीदा तरीके से, संयत भाषा मे अत्यंत रोचक तरीके से संस्मरण के रूप में लोकवाणी बनाकर लिखा है। उनकी लेखकीय क्षमताओं को देख कलम कागज से उनके रिश्ते बड़े परिपक्व लगते हैं। मुझ जैसे पाठकों से उन्होने पक्के रिश्ते बनाने में सफलता अर्जित की है। मैं पुस्तक को स्टार लगा कर सन्दर्भ हेतु  सेव कर रहा हूँ।

पढ़ने व स्वयं को इन रिश्तो की कसौटियों पर मथने की अनुशंसा करता हूँ। पुनः बधाई।

इसकी हार्ड कॉपी अपनी लाइब्रेरी में रखना चाहूंगा।

 

समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 80 – लघुकथा – हल्दी कुमकुम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  सार्थक, भावुक एवं समसामयिक विषय पर रचित लघुकथा  “हल्दी कुमकुम। इस सामायिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 80 ☆

??हल्दी कुमकुम ??

आज पड़ोसी चाची के यहां “हल्दी कुमकुम” का  कार्यक्रम है, वर्षा ने जल्दी जल्दी तैयार होते अपने पतिदेव को बताया।

उन्होंने कहा.. तुम जानती हो मम्मी फिर तुम्हें खरी खोटी सुनाएंगी, क्योंकि मम्मी का वहां आना-जाना बहुत होता है। पर चाची ने मुझे भी बुलाया है वर्षा ने हंसकर कहा..।

बाहर पढ़ते-पढ़ते और एक साथ नौकरी करते हुए वर्षा और पवन दोनों ने समाज और घर परिवार की परवाह न करते हुए विवाह कर लिया था।

मम्मी-पापा ने बेटे का आना जाना तो घर पर रखा परंतु वह बहु को अंदर घुसने भी नहीं देते थे।

बहू को अपनी बहू नहीं स्वीकार कर पा रहे थे। हारकर दोनों शहर में ही ऑफिस के पास मकान लेकर रहने लगे थे।

वर्षा समझाती… कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। मम्मी पापा का गुस्सा होना जायज है क्योंकि मैं आपकी बिरादरी की नहीं हूं!!! पवन कहता आजकल जात-पात कौन देखता है? जिसके साथ जिंदगी संवरती है और जिससे तालमेल होता है उसी के साथ विवाह करना चाहिए।

जल्दी-जल्दी वर्षा तैयार होकर चाची के घर पहुंच गई। सासू मां पहले से ही आ गयी थीं। वर्षा ने सभी को प्रणाम करके एक ओर  बैठना ही उचित समझा।

हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी महिलाओं को तिलक लगा। नाश्ता और खाने का सामान दिया गया। सभी की हंसी ठिठोली आरंभ हो गई और सासू मां की वर्षा को लेकर  छीटाकशी भी सभी देख रहे थे।

बातों ही बातों में वर्षा की सासू मां को सभी महिलाओं ने कहा… “तुम कब कर रही हो हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम। पिछली बार भी तुमने नहीं किया था। इस बार तो कर लो। अब तो बहु भी आ गई है। सभी ने एक दूसरे को देखा??”

सासू मां को भी शायद इसी दिन का इंतजार था बस बोल पडी… “ठीक है तो कल ही रख लेते हैं। सभी आ जाना जितनी भी यहां महिलाएं आई हैं। सभी को निमंत्रण हैं। सभी को आना है।”

वे कनखियों से बहू की तरफ देख रही थी। बहू ने भी हाँ में सिर हिलाया।

पवन समय से पहले आ गया गाड़ी लेकर ताकि वर्षा को कहीं कोई बात न लग जाए। वह सड़क से ही गाड़ी का हार्न बजा रहा था।

वर्षा “अभी आई कह..” कर जाने लगी। सभी को प्रणाम कर सासू माँ के ज्यों ही चरण स्पर्श करने के लिए झुकी उन्होंने बाहों में भर कर कहा…  “बहु, कल तुम्हारी पहली हल्दी कुमकुम होगी। दुल्हन के रूप में सज धजकर मेरी देहली पर आना साथ में उस नालायक को भी ले आना।”

वर्षा की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। खुशी से रोते हुए हंस रही थी या हंसते हुए रो पडी, पर आँसू थे खुशी के ही। फूली ना समाई वर्षा।

अपने घर आने के इंतजार में वह झटपट पवन की गाड़ी में जा बैठीं। आज इतनी खुशी से चहकते हुए वर्षा को पहली बार पवन ने देखा तो देखता रह गया। क्योंकि वह माँ और वर्षा की कुछ बातों से अनजान जो था।

मुझे कल घर आना है कह कर आंसुओं की धार लिए पवन से लिपट गई वर्षा!!!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 86 ☆ सुत्तरफेणी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 86 ☆

☆ सुत्तरफेणी ☆

डोक्यावरची सुत्तरफेणी नात चिवडते

हातामधला गंध गोडवा मस्त पसरते

 

कधी न कुणाच्या समोर झुकला माझा ताठा

समोर ती मग अहमपणा हा होतो थोठा

हातात घेऊन चाबूक माझा घोडा करते

 

दडून बसते हळूच घेते चष्मा काढून

शोधा म्हणते बोलत असते सोफ्या आडून

चष्मा नसता डोळ्यांना या चुळबूळ दिसते

 

घरात माझ्या स्वर्गच आहे अवतललेला

ओठांमधुनी अमृत झरते ना मधूशाला

नातिन माझी परी कथेतील परी वाटते

 

कधी भासते गुलाब ती, कधी वाटते चाफा

गंध फसरते कधीच नाही डागत तोफा

अंश ईश्वरी तिच्यात दिसतो जेव्हा हसते

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दोन कविता ☆ सुश्री सुषमा गोखले

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ दोन कविता ☆ सुश्री सुषमा गोखले ☆ 

[ 1 ]

अळवावरचे पाणी

गाई शाश्वताची गाणी

दंवबिंदूंचे मोती

स्थिरावले अस्थिरावरी

चिरंतन मैत्र जिवाचे

तारून नेई भवताप सारे !

                                    – सुषम

[ 2 ]

सुवर्णशर विंधितसे प्राण

मृग विस्मयभारित

तेजोमय भास्कर लखलखीत

केशर अबोली सुवर्णी किंचित

रंगपखरण चराचरावर

विशाल तरू भेदूनी येई

तेजोनिधी सहस्त्ररश्मी

प्रकाशाचे दान दैवी

धरेवर प्रभातरंगी

अलौकिक या तेजमहाली

ब्रम्हक्षणांची अनुभूती !

                                   –सुषम

© सुश्री सुषमा गोखले

शिवाजी पार्क – दादर

मो. 9619459896

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…माझे बालपण भाग-6 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे

सौ. अमृता देशपांडे

 ☆ मनमंजुषेतून ☆ बालपणीच्या आठवणी…माझे बालपण भाग- 6 – खजिना ☆ सौ. अमृता देशपांडे ☆ 

अशी व्याख्याने, मूल्याधिष्टित कार्यक्रमांना आम्हां मुलांना घेऊन जाणे, आपल्या संस्कृतीची  ओळख करून देणे ह्या बाबतीत आईबाबा नेहमीच सतर्क होते.

विद्यापीठ हायस्कूलच्या ग्राउंडवर राष्ट्र सेविका समितीच्या पूज्य लक्ष्मीबाई केळकर ऊर्फ मावशी यांची रामायणावर प्रवचने होती. ती पण रात्रीचीच.   विद्यापीठ हायस्कूल घरापासून खूपच लांब होतं. चालतच जावं-यावं लागणार होतं. सहदेव म्हणून हाॅस्पिटलचेच  एक कर्मचारी,  त्यांना विनंती करून आईने त्यांना व त्यांच्या पत्नीला सोबतीला बरोबर घेतले.

वंदनीय मावशी यांची वाणी झुळुझुळु वहाणारं गंगेचं पाणी.  शांत चेहरा, शांत बोलणं, स्पष्ट उच्चार, जमिनीवर आसनावर पालथी मांडी घालून बसलेल्या, शुभ्र नऊवारी लुगडे, दोन्ही खांद्यावरून पदर घेतलेला, शुभ्र रूपेरी केस, नितळ गौरवर्ण.

रोज प्रवचनाच्या सुरवातीला प्रार्थना केली जात होती.

“ही राम नाम नौका भवसागरी तराया

मद, मोह, लोभ सुसरी, किती डंख ते विषारी

ते दुःख शांतवाया मांत्रिक रामराया ।।

सुटले अफाट वारे मनतारू त्यात विखरे

त्या वादळातुनिया येईल रामराया ।।

भव भोव-यात अडली नौका परि न बुडली

धरुनी सुकाणु हाती बसलेत रामराया ।।

आम्ही सर्व ही प्रवासी जाणार दूरदेशी

तो मार्ग दाखवाया अधिकारी रामराया ।।

प्रभु ही तुझीच मूर्ती चित्ती सदा ठसू दे

मनमानसी या कृपा तुझी असू दे ।।

एकदा बोलायला सुरुवात केली की ऐकताना दीड तास कधी संपला कळतच नसे. अफाट जनसमुदाय,  pin drop silence.

व्यासपीठावर प्रभु रामचंद्रांचा हार घातलेला ‘ पंचायतन’ फोटो. उदबत्तीचा वातावरणात भरून राहिलेला दरवळ आणि मावशींचं ओघवतं, निर्मळ वक्तृत्व.  सग्गळा परिसर रामनामाने भारलेला असे.

प्रवचनात रामायणातल्या व्यक्तिंची,  त्यांच्या स्वभावांची , वर्तणुकीची आणि घडलेल्या घटनांची गोष्टीरूप ओळख करून देताना,  मावशी जीवनातल्या प्रत्येकाच्या जबाबदारी पेलण्याचे, वागण्याचे,विचारांचे स्वरूप कसे असावे यावरही बोलत असत. त्यावेळी हे सर्व कळण्याचं आमचं वय नव्हतं. खूपसं कळायचं नाही. राष्ट्रसेविका समितीचे कार्य हे व्यक्ती आणि कुटुंबापासून देशसेवेपर्यंत व्यापलेले होते. हे कार्य करताना व्यक्तिविकास, कुटुंबातली प्रत्येकाची कर्तव्ये आणि समाजातला आपला वावर हा देशसेवेसाठीच असला पाहिजे,  हे शिकवणारे.

राजूनं,  माझ्या भावानं  या संदर्भातली एक आठवण सांगितली.  एकदा प्रवचनाच्या आधी आई मावशींना भेटायला गेली. मी बरोबर होतो. आईनं विचारलं,  मावशी,  मी कशाप्रकारे देशसेवा करू शकते? त्यावर मावशी म्हणाल्या,  तू घरचं सगळं सांभाळतेस, पतीला योग्य सहकार्य देतेस, भविष्य काळातली चार आयुष्ये घडवते आहेस, हेच निष्ठेने करत रहा, हीच देशसेवा.

त्या दिवशीच्या प्रवचनात मावशींनी हाच विचार उलगडून दाखवला.  प्रत्येकाने आपले कर्तव्य निष्ठेने,  आपुलकीने आणि जबाबदारी ने करणे, हीच रामायणाची शिकवण आहे.

काही वर्षानंतर, राष्ट्र सेविका समितीच्या शिबिरात माझे व माझ्या बहिणीचे नाव आईने नोंदवले. 21 दिवसाच्या शिबिरात स्वावलंबन, स्वसंरक्षण, देशाभिमान, अशा अनेक मूल्यांवर आधारित बौद्धिके, खेळ, आणि परस्पर संवाद यातून व्यक्तिमत्व विकास घडवण्याचे  संस्कार नकळत आमच्यात रुजले.  खरंतर हे त्यावेळी कळले नाही, पण पुढे अनेक प्रसंगात आपोआप बुध्दी तसाच विचार करू लागली. हळूहळू खरेपणा  आयुष्यात किती महत्त्वपूर्ण आहे, ह्याची जाणीव झाली.

शिवशाहीर बाबासाहेब पुरंदरे हे तडफदार, अभिमान वाटावा असं व्यक्तिमत्व.  जणु दुसरे शिवराय अशी देहयष्टी,  पेहराव, दाढी, डोळ्यांत तीच चमक आणि अस्खलित वाणी.

तर मावशी अतिशय नम्र, आणि केवळ आदर करावा अशा. माया, ममता, प्रेम हे सगळे शब्द एकाठिकाणी सामावलेलं व्यक्तिमत्व. शिस्त आणि करारीपणा ही त्यांची दुसरी बाजू.

श्रोत्यांवर नकळत संस्कार घडत होते. व्याख्याने,  प्रवचने ऐकून दुस-या दिवशी त्यावर गप्पा मारत जेवणे, हा आमचा आवडता छंद म्हणा किंवा काही, पण त्यावर बोलायला आवडायचे. कधी कधी न समजलेलं आई समजून सांगायची. त्यावेळी ह्याचं मोठंसं महत्व जाणवलं नाही. ते सहजरित्या होत होतं.

पुढे आयुष्यात कळलं की ते किती छान आणि महत्वाचं होतं.

बालपणीच्या आठवणी लिहिता लिहिता परत लहान झाल्यासारखे वाटले.

खरंच किती सुंदर असतं नाही बालपण! आई बाबा,  बहीण भाऊ, , छोटंसं जग. इथे स्पर्धा नाही, स्वार्थ नाही, राग नाही.

“या बालांनो या रे या” कवितेतली खरी

“सुंदर ती दुसरी दुनिया”

“बचपन के दिन भी क्या दिन थे”

“उडते बन की  तितली”

समाप्त

© सौ अमृता देशपांडे

पर्वरी- गोवा

9822176170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#39 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  शीत ऋतू पर आधारित आपके अप्रतिम दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #39 – दोहे  ✍

स्वेटर का मैं क्या करूं, धूप प्रिया धनवान ।

यादों की है अरगनी, मन का बना मचान।।

 

बौने जैसे दिन हुए, आदमकद -सी रात ।

दिन सूरज के खिल रहे, आंखों में जल जात ।।

 

शरद शिशिर का आगमन, मनसिज का अवदान।

जब पूजा का विस्मरण, खजुराहो का ध्यान ।।

 

शीत कंपाए अंग को, मन में बसे अनंग।

दुविधा मिटती द्वैत की, सज्जित रंग बिरंग।।

 

कथरी में छुपता नहीं, दुर्बल पीत शरीर ।

शीत चलाता जा रहा, दोबारा शमशीर ।।

 

औ रे ऋतु के देवता, आकर तनिक निहार।

उघडा धन कैसे सहे, तेरे सुमन प्रहार।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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